Monday 13 May 2024

मुसलमान भाजपा में?

मोदी जी! मुसलमान भाजपा में आये तो हिंदू वोटबैंक साथ रहेगा क्या?
O "टाइम्स नाउ को दिए गए इंटरव्यू में पीएम मोदी ने मुस्लिम वोट बैंक को लेकर कहा कि पहली बार मैं मुस्लिम समुदाय से आत्ममंथन करने को कह रहा हूं। आप यह सोचते रहेंगे कि सत्ता में किसे बिठाएंगे और किसे उतारेंगे? उसमें आप अपने बच्चों का भविष्य ही खराब करेंगे।" 2019 के चुनाव में भाजपा को 38% वोट मिले थे जिनमें 16% मुसलमानों ने भी भाजपा को वोट दिया था। बाकी मुसलमान उन 62% हिंदू व अन्य अल्पसंख्यकों के साथ था जिन्होंने भाजपा को वोट नहीं दिया था। दरअसल अधिकांश मुसलमान मौत ज़िंदगी दुख सुख नफा नुकसान और इज़्ज़त जिल्लत अल्लाह के हाथ में मानता है जिससे वो डरकर वोट नहीं करता, अलबत्ता अपवाद सब जगह होते हैं सो कुछ मुसलमान भाजपा को भी वोट करते हैं। ये समझना होगा मुसलमान और भाजपा एक दूसरे का विरोध क्यों करते रहे हैं।
*इक़बाल हिंदुस्तानी* 
      प्रधानमंत्री मोदी ने मुसलमानों से वोटबैंक न बनने की अपील की लेकिन क्या मुसलमानों पर भाजपा नेता खुद पहले अपना विरोध ख़त्म करेंगे? यह देखना अभी बाकी है क्योंकि खुद मोदी कभी उनको आंदोलन के दौरान कपड़ों से पहचानने लगते हैं तो कभी चुनाव के दौरान उनको घुसपेठिया और ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाला बताकर निशाने पर लेने लगते हैं। सच ये है ये सब करना उनकी सियासी मजबूरी है। हिंदू वोट बैंक को खुश करने और मुसलमानों से नफ़रत व उनका झूठा डर दिखाकर बहुसंख्यक सांप्रदायिकता व हिंदुत्व की भावनात्मक राजनीति ने भाजपा और मुसलमानों को नदी के दो किनारे बना दिया है जो कभी मिल नहीं सकते।अलबत्ता ये सच मुसलमान भी जानते हैं कि वे चाहकर भी भाजपा को अकेले सत्ता से हटा नहीं सकते लेकिन अब कुछ हिंदू भी भाजपा से पहले की तरह खुश नहीं है ये इस चुनाव में साफ़ नज़र आ रहा है। मोदी कहते हैं मुसलमान भाजपा में आएं लेकिन वे ये भूल जाते हैं कि अव्वल तो आज के हालात में ये मुमकिन नहीं लेकिन जिस दिन ऐसा हो गया खुद कट्टर हिंदू भाजपा से किनारा करने लगेगा। जैसा कि बसपा ने ब्राह्मणों को पार्टी में जोड़ने का आत्मघाती फैसला किया था। क्या संघ परिवार को लग रहा है कि वह हिंदुत्व की सियासत को और आगे विस्तार नहीं दे सकता? उसकी अंतिम सीमा तक वह पहुंच चुका है? इसके साथ ही भाजपा यह भी समझ रही है कि एंटी इंकम्बैंसी उसकी 2019 में जीती कुछ सीटों की बलि अवश्य ही लेगी। ऐसे में उसका ज़ोर कम अंतर से हारी उन 160 सीटों पर है। जहां मुसलमानों की भी अच्छी खासी हराने जिताने लायक तादाद है। इसमें कोई दो राय नहीं राशन का निशुल्क अनाज हो या पीएम आवास पीएम गैस नलजल मनरेगा और मुद्रा योजना मुसलमानों को भी सरकार की जनहित की स्कीमांे का अपवाद छोड़ दें तो लाभ मिल ही रहा है। इससे कुछ मुसलमान अब कई राज्यों और केंद्र के चुनाव में भाजपा को वोट देने लगा है। भाजपा की नज़र ऐसे ही मुसलमानों पर है जो उसको पहले से और अधिक वोट देकर हारती हुयी सीटें जिता सकते हैं। जहां तक सेकुलर दलों को वोट देने वाले हिंदू मतदाताओं का सवाल है। उनमें धीरे धीरे यह धरणा मज़बूत होती जा रही है कि भाजपा हिंदुत्व के नाम पर धर्म यानी साम्प्रदायिकता की राजनीति से बार बार सत्ता हासिल कर उनके आर्थिक हितों की अनदेखी कर रही है। जिससे देश में बेरोज़गारी महंगाई करप्शन और अराजकता की पहले से अधिक गंभीर स्थिति बन रही है। सवाल यह है कि जब संघ और भाजपा ने शुरू से हिंदुत्व यानी मुस्लिम विरोध की राजनीति की है तो उसके नेता अचानक अपील करने पर मुस्लिम विरोध का अपना पुराना एजेंडा कैसे छोड़ सकते हैं? जब पार्टी के बड़े बड़े नेता मुसलमानों को 2002 के गुजरात दंगों में सबक सिखा देने शमशान कब्रिस्तान की तुलना करने 80 बनाम 20 की चुनौती देने वोट ना देने पर बुल्डोज़र और तेज़ चलाने आर्थिक बायकाट इवीएम का बटन इतनी जोर से दबाने की बात करते हैं जिससे करंट शाहीन बाग में जाकर लगे। बहुत पुरानी बात नहीं है। जब आतंकी घटनाओं की आरोपी सांसद हिंदुओं से अपने घरों में हथियार रखने की बात कह रही थी। उन्होंने लवजेहादियों का नाम लेकर यह भी बताया कि वे सब्ज़ी काटने का चाकू किसके लिये तेज़ करने की बात कह रही थीं। इससे पहले एक भाजपा सांसद ने खुलेआम मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार की बात कही। सुल्ली सेल और बुल्ली डील सोशल मीडिया पर चलाकर मुस्लिम महिलाओं का अपमान किया गया लेकिन आरोपियों के खिलाफ कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुयी। भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने टीवी चैनल पर पैगंबर का अपमान किया लेकिन भाजपा ने तब तक उनको पार्टी से नहीं निकाला जब तक अरब मुल्कों में इसकी ज़बरदस्त प्रतिक्रिया शुरू नहीं हो गयी। एक भाजपा विधायक खुलेआम मुसलमानों को धमकी देता है कि भाजपा को वोट दो नहीं तो बुल्डोज़र के लिये तैयार रहो? टीवी चैनल रोज़ मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट भी इस पर कई बार नाराज़गी दर्ज करा चुका है। लेकिन सरकार कोई ठोस कार्यवाही नहीं करती है। बिल्कीस बानो के केस में जिन आरोपियों को सज़ा पूरी करने से पहले छोड़ा गया उनका फूल मालाओं से स्वागत होता है। मुसलमानों की मोब लिंचिंग करने वालों को जब ज़मानत पर छोड़ा जाता है तो भाजपा नेता उनका जेल से बाहर आने पर स्वागत करते हैं। मासूम बच्ची का कश्मीर में बलात्कार करने के आरोपियों के पक्ष में दो भाजपा मंत्री रैली तक निकाल देते हैं। देश को बिना हिंदू राष्ट्र घोषित किए आए दिन ऐसे कानून फैसले और पक्षपातपूर्ण काम किए जाते हैं जिनसे मुसलमान खुद को दूसरे दर्जे का नागरिक महसूस करने लगा है। दूसरी तरफ झूठे या सच्चे आरोप लगाकर आज़म खां डा. कफील खान जुबैर अहमद उमर खालिद सफूरा ज़रगर शरजील इमाम सद्दीक कप्पन आदि अनेक मुस्लिमों को लंबे समय तक जमानत का विरोध कर जेल में डाल दिया जाता है। बाबरी मस्जिद से लेकर एनआरसी सीएए सड़क पर नमाज़ राष्ट्रीय संपत्ति हानि वसूली तीन तलाक धर्म परिवर्तन लव जेहाद हलाल हिजाब मजार मस्जिद अतिक्रमण हटाओ के नाम पर आयेदिन ध्वंस गुजरात दंगा मुस्लिम आबादी का हव्वा कश्मीर फाइल केरल स्टोरी हज सब्सिडी का खात्मा कोरोना जेहाद से बदनामी गोमांस के बहाने उत्पीड़न शहरों के मुस्लिम नाम लगातार बदलना जुर्म करने वाला मुस्लिम होने पर पुरुलिया खाली करने की बार बार धमकी और ट्रेन में आरपीएफ़ के सिपाही द्वारा कई मुसलमानों को उनकी पहचान की वजह से मारने पर मुआवजा तक न देना भाजपा सरकार का मुस्लिम विरोध ज़ाहिर करने वाली और भी अनेक घटनाएं गिनाई जा सकती हैं।मुसलमान इसके बावजूद सब्र और शांति से काम लेकर कानून का पालन करता रहा है करना भी यही चाहिए और चुनाव आने पर लोकतांत्रिक व संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल कर अपनी विरोधी पार्टी को अपने सेकुलर हिन्दू नागरिकों के साथ मिलकर सर्वहित में सत्ता से हटाने की कोशिश करता है तो इसमें कानूनन क्या गलत है।
O चाकू की पसलियों से सिफारिश तो देखिए,
वो चाहते हैं काटने में हम उनकी मदद करें।
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लागर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।

Thursday 9 May 2024

मोदी सरकार की कथनी करनी...

आधा चुनाव ख़त्म: मोदी सरकार की कथनी नहीं करनी पर मतदान?
0 तीसरे चरण के चुनाव के बाद देश में आधी से अधिक 283 सीटों पर चुनाव पूरा हो चुका है। तमाम ज़हरीली नफ़रती और झूठी बयानबाज़ी के बाद भी न तो मतदान का प्रतिशत बढ़ा है न ही किसी तरह का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही अब तक कहीं नज़र आ रहा है। हालांकि यह सच है कि अगर यही चुनाव फरवरी में हो गया होता तो राममंदिर के उद्घाटन से भाजपा को एकतरफ़ा जीत आराम से मिल जाती। लेकिन अभी भी वह 400 पार न सही लेकिन इंडिया गठबंधन के दावों के हिसाब से 200 से नीचे भी नहीं जा रही है। 2014 और 2019 के मुकाबले 5 से 10 परसेंट वोटिंग कम हुआ है। वोटर्स मंे जोश नहीं है। किसी के पक्ष में कोई लहर नहीं है। भाजपा अपना कोई नैरेटिव सैट नहीं कर सकी है उल्टा उसने कांग्रेस के घोषणापत्र को अनजाने में चर्चित कर दिया है।
    *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
सेंटर फाॅर स्टडी आॅफ डवलपिंग सोसायटी सीएसडीएस -लोकनीति के चुनाव पूर्व सर्वे ने यह पहले ही बता दिया था कि इस बार उतने लोग मोदी सरकार की वापसी नहीं चाहते जितने पिछले चुनाव में चाहते थे। दरअसल भाजपा यह भूल गयी कि 2014 का चुनाव उसने यूपीए सरकार की करप्ट इमेज पर जीता था। साथ ही उसने हर साल दो करोड़ नये जाॅब 100 स्मार्ट सिटी कालाधन विदेश से वापस लाकर गरीबों को बांटना और अच्छे दिन के नाम पर ढेर सारे लुभावने वादे किये थे। इसके बाद 2019 के चुनाव में उसने जनता से अपने किये वादों को अंजाम तक पहुंचाने के लिये और पांच साल का समय मांगा। साथ ही अचानक पुलवामा हादसा होने और मोदी सरकार के द्वारा इसका बदला लेने के लिये सर्जिकल स्ट्राइक के बहाने दुश्मन को घर मंे घुसकर मारने का दावा करने से जनता का बड़ा हिस्सा राष्ट्रवाद के उन्माद में बहकर भाजपा के पक्ष में एक बार फिर जमकर मतदान कर आया था। लेकिन इस बार ऐसा कुछ भी नहीं है। भाजपा के तीन बड़े मुद्दों में से राम मंदिर बन चुका है। कश्मीर से धारा 370 हट चुकी है। काॅमन सिविल कोड कुछ राज्यों में आ चुका है। बाकी देश में भी आज नहीं तो कल भाजपा की राज्य सरकारें ही लायेंगी। मथुरा काशी का मुद्दा अदालत में है जिस पर भाजपा सरकार कोई खास फोकस नहीं कर रही है। ऐसे में भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में भी कोई नया या बड़ा या विशेष वादा नहीं किया है। 
भाजपा और पीएम मोदी जो एक बार फिर हिंदू मुस्लिम करके यह चुनाव जीतना चाहते हैं वह इंडिया गठबंधन कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों ने बेरोज़गारी महंगाई और करप्शन के मुद्दे चुनाव का नैरेटिव बनाकर एनडीए के लिये भारी मुसीबत खड़ी कर दी है। इतना ही नहीं विपक्ष ने भाजपा के अबकि बार 400 पार के नारे और उसके बड़बोले नेताओं के यह सब संविधान बदलने के लिये ज़रूरी बताने से उस पर संविधान व आरक्षण ख़त्म करने का गंभीर आरोप लगाकर उसको बचाव की मुद्रा में आने को मजबूर कर दिया है। उधर जिस भाजपा के खिलाफ पहले ही मुसलमान उसे हराने के लिये लामबंद रहते थे। इस बार दलित व आदिवासी और कुछ ओबीसी भी संविधान खत्म होने की आशंका से इंडिया गठबंधन की तरफ झुकते नज़र आ रहे हैं। साथ ही बिहार यूपी बंगाल राजस्थान दिल्ली हरियाणा व महाराष्ट्र जैसे राज्यों में इंडिया गठबंधन एनडीए गठबंधन पर भारी नज़र आने लगा है। उधर कई राज्यों में मराठों जाटों व राजपूतों के भाजपा से नाराज़ होने व हिंदू ध्रुवीकरण ना होने से जातीय समीकरण एक बार फिर से चुनाव के केंद्र में आ जाने से भाजपा को साधारण बहुमत लाना भी कठिन लग रहा है। जबकि हमें लगता है कि चाहे जैसे बने लेकिन तीसरी बार सरकार भाजपा की ही बन जायेगी। 
  यही वजह है कि भाजपा और उसका नेतृत्व अपने परंपरागत कोर हिंदू कट्टरपंथ की तरफ लौैैैट रहा है। लेकिन अब काफी देर हो चुकी है। यह एक तरह से चला हुआ कारतूस जैसा है। जिस तरह से यह कर्नाटक के चुनाव में काम नहीं किया था वैसे ही इस बार लोकसभा चुनाव में बेअसर नज़र आने लगा है। कांग्रेस के हर गरीब महिला को साल में एक लाख युवाओं को 30 लाख सरकारी नौकरी पेपर लीक के खिलाफ कानून किसानों को एमएसपी जातीय सर्वे कर दो दर्जन मोदी जी के पूंजीपति दोस्तों से 16 लाख करोड़ की पूंजी वापस लेकर गरीबों मंे बांटने राष्ट्रीय आय में सबको बराबर भागीदारी देने और आरक्षण जारी रख उसकी सीमा 50 प्रतिशत से हटाकर आबादी के हिसाब से भागीदारी देने के वादे देश के एक बड़े वर्ग को अपनी ओर आकृषित करते नज़र आ रहे हैं। पीएम मोदी की लोकप्रियता का आंकड़ा भी पहले से गिरा है। हालांकि वे कांगेस नेता राहुल गांधी से अभी भी काफी आगे हैं। दुनिया में भारत का बजता कथित डंका मज़बूत लीडर की गोदी मीडिया द्वारा बनाई गयी काल्पनिक छवि और मोदी की गारंटी भी चुनाव में भाजपा के पक्ष में अपेक्षित काम करती नहीं दिखाई दे रही है। 
अलबत्ता गरीबों को हर माह 5 किलो अनाज मकान के लिये ढाई लाख उज्जवला गैस योजना हर घर नल से जल निशुल्क शौचालय आयुष्मान भारत कार्ड और कई कल्याणकारी योजनाओं से जो भाजपा के पक्ष में एक नया लभार्थी वर्ग खड़ा हो गया है वह उसके पक्ष में कम या अधिक अभी भी वोट करेगा। बंगाल में गवर्नर पर लगे आरोप कर्नाटक में जेडीएस के प्रज्वल रवन्ना पर लगभग तीन हजार महिलाओं का यौन उत्पीड़न कर वीडियो वायरल होने और महिला खिलाड़ियों के उत्पीड़न के आरोपी बृजभूषण शरण सिंह के पुत्र को टिकट देेकर भी भाजपा दबाव में है। चुनाव शुरू होने से पहले भाजपा को लगता था कि उसे अगर उन राज्यों को कुछ सीटों का नुकसान होगा जहां वह पहले सभी संसदीय सीटें जीत चुकी है तो उसकी पूर्ति यूपी और दक्षिण भारत के कुछ राज्यों से कर लेगी लेकिन अब हालात यह बता रहे हैं कि दक्षिण के कर्नाटक और यूपी में भी उसकी सीटें बराबर के मुकाबले में कम से कम आधी फंसती लग रही हैं। यह भी ख़बर आ रही है कि जहां मतदान कम हुआ है उनमें विपक्ष की सीटों पर 2 से 3 तो भाजपा व उसके घटकों की जीती सीटों पर 5 से 6 फीसदी कम रहा है। भाजपा को सबसे बड़ा नुकसान यह होने जा रहा है कि उसके पास पिछले चुनावों में जो दलित व ओबीसी का बड़ा वर्ग आया था इस बार उनमें से काफी बड़ी संख्या में उसको छोड़कर अपने वास्तविक मुददों पर वोट करता दिखाई दे रहा है। इस तरह से कुल मिलाकर कह सकते हैं कि इस बार भाजपा को वोट उसकी कथनी पर नहीं करनी पर मिलेंगे। यह सबको पता है कि उसने क्या क्या ठोस विकास किया है?
0 उसके होंठों की तरफ ना देख वो क्या कहता है,
 उसके क़दमों की तरफ देख वो किधर जाता ळें
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*

चुनाव के आंकड़े 10 दिन बाद...

*चुनाव आयोग को मतदान के आंकड़े जारी करने में 10 दिन क्यों लगे?* 
0 भारत दुनिया में लोकतंत्र की मां कहा जाता रहा है लेकिन आजकल हमारे देश में जो कुछ हो रहा है उससे यह माहौल बन रहा है कि मानो हमारा संविधान आरक्षण और सबके लिये समानता केवल किताबी बातें रह गयीं हैं। काफी समय से इवीएम को लेकर शक के बादल मंडराते रहे हैं। उसके बाद चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक आॅर्डर पास किया था जिसके तहत पीएम नेता विपक्ष और चीफ जस्टिस की कमैटी को इनका चयन करना था। लेकिन सरकार ने इसे बदलकर मुख्य न्यायधीश की जगह सरकार के एक कैबिनेट मंत्री को शामिल कर लिया। यह अपने आप में बहुत विवादित और अन्यायपूर्ण पक्षपाती निर्णय माना गया। इसके बाद जिस तरह अचानक एक चुनाव आयुक्त ने अपने पद से त्यागपत्र दिया और दो नये आयुक्त बनाये गये वह अजीब है।
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
इलैक्शन कमीशन इवीएम को लेकर आज तक विपक्ष और सिविल सोसायटी की शंकाओं का समाधान नहीं कर सका है। अब उसने जिस तरह से पहले चरण के मतदान के आंकड़े चुनाव के दस दिन बाद जारी किये हैं। वह अपने आप में विपक्ष को उसकी नीयत पर एक बार फिर उंगली उठाने का मौका दे रहा है। आखि़र क्या वजह है कि जो आयोग पहले मतपत्रों से वोटिंग होने के बावजूद 24 घंटे के अंदर कुल मतदान के सारे आंकड़े जारी कर देता था। आज जब तकनीक का विकास हो गया है। पोलिंग पार्टियों रिटर्निंग आॅफिसर और जिला व राज्य के चुनाव कार्यालायों से इंटरनेट के ज़रिये सारा डाटा कुछ ही पलों में मांगा व भेजा जा सकता है तो उसको अपनी वेबसाइट पर वोटिंग का अंतिम डाटा जारी करने में पूरे दस दिन क्यों लगे? आखि़र वो कौन कौन सी और कितनी पोलिंग पार्टी थीं जिन्होंने चुनाव वाले दिन ही पोलिंग का पूरा आंकड़ा मतदान खत्म होने के तत्काल बाद नहीं दिया? और अगर नहीं भी दिया तो क्यों नहीं दिया? उनसे आयोग ने देरी पर जवाब तलब क्यों नहीं किया? जो अनावश्यक देरी के ज़िम्मेदार थे उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की गयी? अगर उनकी कोई व्यक्तिगत कमी या गल्ती नहीं थी तो इस पर आयोग ने जनता को अपना पक्ष स्पश्टीकरण और कारण बताना ज़रूरी क्यों नहीं समझा? 
इतना ही नहीं पहले फेज का वोटिंग होने के बाद जो आंकड़े सामने आये थे उनमें और जो आंकड़े अब जारी किये गये हैं। उनमें काफी अंतर देखा जा रहा है। हम यह दावा नहीं कर रहे कि ज़रूर कुछ गड़बड़ की गयी है। लेकिन यह सवाल तो पूछा ही जायेगा कि आखि़र इतना समय क्यों लगा? सवाल यह भी है कि जब चुनाव आयोग से यह मांग की जाती है कि वह वीवीपेट का मिलान अपनी सभी इवीएम से कराने के बाद ही मतगणना का अंतिम परिणाम घोषित करे तो उसका दावा होता है कि इससे काउंटिंग में काफी अधिक समय लग जायेगा। यह अजीब तर्क है कि आयोग चुनाव सात चरणों में करा रहा है। उसमें लगभग डेढ़ माह का लंबा समय लगेगा। जहां पहले चरण में चुनाव हो गया उसका नतीजा आने मंे 4 जून तक 45 दिन का समय लगेगा। ज़ाहिर है लोग जब इतना लंबा वेट चुनाव रिज़ल्ट आने में कर सकते हैं तो वीवीपेट गिनने में दो चार दिन अधिक लग जायें तो कौन सा आसमान फट पड़ेगा? आयोग को यह भी समझना चाहिये कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा वीवीपेट से इवीएम के वोटों के मिलान की याचिकायंे खारिज करने के बावजूद विपक्ष और जनता के एक वर्ग के दिमाग से यह शक अभी भी नहीं निकला है कि चुनाव मतदान और मतगणना पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से हो रही है?
आयोग ने चुनाव की तिथि तय करते समय यह भी खयाल नहीं रखा कि इससे देश के किसी वर्ग को चुनाव लड़ने प्रचार करने और मतदान करने में कुछ समस्या इसलिये आ सकती है क्योंकि पहले दो चरण के मतदान के दोनों दिन शुक्रवार को पड़ रहे हैं। इसके साथ ही पहले फेज के मतदान की प्रक्रिया शुरू होने के समय मुसलमानों के पवित्र रमज़ान माह के रोज़े चल रहे थे। इस दौरान मुस्लिम समाज के लोग ना केवल अपना अधिकांश समय इबादत में गुज़ारते हैं बल्कि रोज़े की भूख प्यास में वे चुनाव प्रचार के लिये घर से बाहर अधिक नहीं निकल पायेंगे। आखि़र मुसलमान भी इस देश के नागरिक हैं। उनकी सुविधा का भी खयाल अन्य वर्गों की तरह क्यों नहीं रखा जाना चाहिये? संविधान तो सबको समाना अधिकार सुविधा और समान स्वतंत्रता की बात कहता है। ऐसे ही जितनी गर्मी के दौरान चुनाव रखा गया है उससे भी लोग घर से बाहर निकलने से बच रहे हैं। इस कारण भी मतदान का प्रतिशत पहले के चुनाव से कुछ कम माना जा रहा है। हालांकि यह तो दावा नहीं किया जा सकता कि इससे सत्ताधारी भाजपा का मतदाता ही कम निकल रहा है। अलबत्ता जिन चुनाव क्षेत्रों और धर्म जाति के बहंुल मतदान केंद्रों पर मतदान पिछली बार के मुकाबले काफी घटा है उससे विपक्ष और खासतौर पर इंडिया गठबंधन को ज़रूर अपने पक्ष में लहर नज़र आने लगी है।
साथ ही जिस तरह से पीएम ने अपने पद की गरिमा को त्याग कर एक वर्ग विशेष को चुनावी लाभ के लिये निशाने पर लिया उससे भाजपा की हार या सीटें कम होने की आशंका भी विपक्ष को दिखाई दे रही है तो कोई हैरत की बात नहीं है। हालांकि चुनाव आयोग ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी और पीएम मोदी को शिकायतें मिलने के बाद उनके दलों के मुखियाओं को नोटिस ज़रूर भेजा था लेकिन जवाब की अंतिम तिथि निकल जाने के बाद भी उन पर आज तक कोई कार्यवाही होने की खबर सामने नहीं आई है। धर्म जाति क्षेत्र के साथ दो समुदायों में घृणा पैदा कर झूठ के आधार पर वोट मांगने वालों पर भी आयोग कोई ठोस कार्यवाही करता नज़र नहीं आ रहा है। इसके अलावा जिस तरह की तिथियों का चुनाव आयोग ने चुनाव किया है उससे कुछ लोग एक दो छुट्टी और लेकर उसे संडे के साथ मिलाकर वीक एंड की पिकनिक पर भी निकल रहे हैं। 
    सूरत और इंदौर सीट पर जिस विवादित तरीके से कांग्रेसी उम्मीदवार का पर्चा खारिज होने या नाम वापस लेने के कारण भाजपा को निर्विरोध विजयी घोषित किया गया है। उससे भी चुनाव आयोेग पर उंगलियां उठ रही हैं। यह दोंनों मामले चार जून के बाद निश्चित रूप से कोर्ट में जा सकते हैं। इसकी वजह पर्चा वापस कराने को लगे आरोप के साथ ही नोटा का इस्तेमाल करने वाले मतदाताओं के अधिकार का हनन माना जा रहा है। लोकतंत्र केवल चुनाव कराने से नहंी निष्पक्ष विश्वसनीय और सबको समान अवसर देने से चलता है।
 *0 कहां क़तरे की गमख़्वारी करे है, समंदर है अदाकारी करे हैं।*
*बडे़ आदर्श हैं बातों मेें लेकिन वो सारे काम बाज़ारी करे है।।*
*0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के एडिटर हैं।*

Thursday 25 April 2024

मुसलमान और मोदी

*मुसलमान न होते तो भाजपा आज सत्ता में होती ?* 
0 भाजपा दस साल से केंद्र की सत्ता में है लेकिन उसके पास ऐसी कोई ठोस उपलब्धि विकास या उन्नति का ठोस प्रमाण नहीं है जिसके आधार पर वह चुनाव में वोट मांग सके। यही वजह है कि वह उन अल्पसंख्यक मुसलमानों को खुलेआम निशाना बना रही है जिनके बारे में मीडिया व्हाट्सएप और उसके लोग घर घर जाकर लोगों के कान भरते हैं। जो भाजपा कल तक सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास का दावा करती थी वह आज किसी कीमत पर भी चुनाव जीतने के लिये बिना किसी सबूत आंकड़ों और सच्चाई के मुसलमानों को ना केवल ब दनाम अपमानित और पराया कर रही है बल्कि बहुसंख्यक हिंदुओं को भी गुमराह कर भड़काकर व डराकर वोटबैंक की सियासत कर रही है।
   *-इकबाल हिन्दुस्तानी*  
अगर चुनाव आयोग निष्पक्ष निडर और कानून के अनुसार काम कर रहा होता तो किसी पार्टी किसी नेता और किसी बड़े से बड़े पद पर बैठे लीडर को हिंदू मुस्लिम जाति व धर्म के आधार पर वोट मांगने से रोकता लेकिन यहां तो चुनाव आयोग क्या मीडिया से लेकर ईडी सीबीआई व इनकम टैक्स विभाग जैसी लगभग सभी संस्थायें एक दल और उसके सहयोगियों को छोड़कर विपक्ष सरकार विरोधियों और निष्पक्ष सभी भारतीयों को लगातार निशाना बना रहा है और अफसोस की बात यह है कि कोर्ट भी इस पक्षपात अन्याय और उत्पीड़न को रोकने में अकसर नाकाम नज़र आता है। सबसे बड़े पद पर बैठा एक नेता बिना कांग्रेस का घोषणा पत्र पढ़े ही आरोप लगा देता है कि वह मुसलमानों को आपकी सम्पत्ति छीनकर बांट देगी? जबकि कांग्रेस का मेनिफैस्टो कहता है कि जातीय सर्वे के साथ ही बढ़ती आर्थिक असमानता रोकने के लिये नई नीतियां बनायेगी ना कि पहले से अर्जित किसी की सम्पत्ति छीनकर किसी को बांटेगी। जो दल मुसलमानों का विश्वास सपोर्ट और वोट लेना चाहते हैं वे उनको अधिक बच्चे पैदा करने वाला घुसपैठिया और ना जाने क्या क्या बता रहे हैं?
मुसलमानों की आबादी देश में 14 प्रतिशत से अधिक है लेकिन वे सरकारी नौकरी से लेकर निजी क्षेत्र की सेवा उद्योगों बैंक सेवा बैंक लोन सरकारी पेट्रोल पंप गैस एजेंसी राशन डीलर सरकारी ठेकों आईआईटी आईआईएम लोकसभा विधानसभा नगर निगम नगरपालिका सरकारी अस्पतालों की सेवा विभिन्न आयोगों सरकारी स्कूलों काॅलेजों यूनिवर्सिटी कोर्ट जजों पुलिस सेना प्रशासनिक अधिकारियों यानी कहीं भी 14 का आघा 7 तो दूर 3.5 प्रतिशत तक नहीं हैं। ऐसे में उनको उनके हिस्से अधिकार और अनुपात से अधिक क्या मिल रहा है?
भाजपा अकसर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती है। लेकिन उसको कोई गंभीरता से नहीं लेता। वजह साफ है कि भाजपा खुद हिंदू तुष्टिकरण की सियासत करती है। तुष्टिकरण वास्तव में किसे कहा जाये? अभी यह भी साफ नहीं है। संघ परिवार यह भी जानता है कि सेकुलर दलों पर मुस्लिम तुष्टिकरण करने का झूठा आरोप लगाने से ही भाजपा के पक्ष में जवाबी हिंदू धुरुवीकरण होता है। सबसे बड़ा मामला शाहबानो केस था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला संविधान के हिसाब से उसको उसके पति से गुजारा भत्ता दिलाने का था। लेकिन कांग्रेस की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने उसको मुसलमानों के कट्टरपंथी वर्ग को खुश करने के लिये पलट दिया।
इसके जवाब में हिंदू साम्प्रदायिकता को हवा देकर मंडल आयोग के पिछड़ा वर्ग आरक्षण से निबटने को बाबरी मस्जिद रामजन्म भूमि का आंदोलन संघ परिवार ने शुरू कर सत्ता पर कब्ज़ा जमा लिया है। ऐसा ही परिवार नियोजन का मामला है। छोटे परिवार का सम्बंध शिक्षा और सम्पन्नता से है लेकिन एक दल तो मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करता रहा है। अगर वह बढ़ती आबादी को लेकर वास्तव में चिंतित होते तो सबके लिये अनिवार्य परिवार नियोजन यानी दो बच्चो का कानून बनाने की दस साल में हिम्मत दिखाते लेकिन वे जानते हैं इससे तो उनका हिंदू वोटबैंक भी नाराज़ हो जायेगा इसलिये उनको तो बस घृणा झूठ और हिंदुत्व की राजनीति करनी है। आंकड़े बताते हैं कि तीन दशक में मुस्लिम आबादी की बढ़त मेें हिंदू आबादी की बढ़त के मुकाबले ज्यादा गिरावट आई है। आप इस अंतर को इस तरह से देख सकते हैं कि जहां हिंदू आबादी में 30 साल में 5-95 प्रतिशत कमी आई है वहीं मुस्लिम आबादी की बढ़त में इसी दौरान 8-28 प्रतिशत की कमी आई है। मतलब कहने का यह है कि जहां 2001 से 2010 तक हिंदू आबादी में पिछले दशक के मुकाबले 3-16 प्रतिशत की कमी आई वहीं मुस्लिम आबादी में गिरावट की दर बढ़त के बावजूद 4-92 रही जो एक अच्छा संकेत है। 
                 हालांकि यह दुष्प्रचार काफी समय से चल रहा है कि अगर मुस्लिमों की आबादी इसी तरह बढ़ती रही तो देश में एक दिन ऐसा आयेगा कि जब मुस्लिम हिंदुओं से अधिक हो जायेंगे। इसके साथ ही यह भय भी खूब फैलाया जाता है कि उस दिन भारत को इस्लामी राष्ट्र घोषित कर दिया जायेगा और गैर मुस्लिमों पर शरीयत कानून थोपकर उनसे मुगलकाल की तरह जजिया वसूली की जायेगी। दूसरा तथ्य इस सारी बहस में यह भुला दिया गया है कि आबादी ज्यादा बढ़ना या तेजी से बढ़ना किसी सोची समझी योजना या धर्म विशेष की वजह से नहीं है बल्कि तथ्य और सर्वे बताते हैं कि इसका सीधा संबंध शिक्षा और सम्रध्दि से है। अगर आप दलितों या गरीब हिंदुओं की आबादी की बढ़त के आंकड़े अलग से देखें तो आपको साफ साफ पता चलेगा कि उनकी बढ़त दर कहीं मुस्लिमों के बराबर तो कहीं उनसे भी अधिक है। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस तरह केरल सबसे शिक्षित राज्य है और वहां आबादी की बढ़त 4-9 प्रतिशत यानी लगभग जीरो ग्रोथ आ गयी है जिसमें मुस्लिम भी बराबर शरीक है और देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी की बढ़त असम में 30-9 से बढ़कर 34-2 प्रतिशत पाई गयी है जिसका साफ मतलब है कि बंग्लादेशी घुसपैठ से भी यह उछाल आया है। सच यह है कि भाजपा के दस साल के राज में जो नोटबंदी देशबंदी चंद पूंजीपति दोस्तों को 16 लाख माफ कर और जीएसटी की जनविरोधी आर्थिक नीतियां अपनाई गयीं हैं उससे महंगाई बेरोज़गारी व करप्शन बढ़ने से हिंदुओं का एक वर्ग अधिक ख़फा है। जिससे डरकर भाजपा असली मुद्दों से ध्यान भटकाने को हिंदू मुसलमान का राग अलाप रही है।
     *0उसके होंटो की तरफ न देख वो क्या कहता है,*
     *उसके कदमों की तरफ देख वो किधर जाता है।।*
*0 लेखक नवभारत टाइम्स के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के संपादक हैं।*

Tuesday 16 April 2024

भाजपा हराओ छोड़ें मुसलमान

मुसलमान भाजपा हराओ अभियान से करते हैं अपना ही नुकसान ?
0 आम चुनाव शुरू हो चुका है। सब वोटर अपनी पसंद की पाटीर्, प्रत्याशी या जाति व धर्म के आधार पर वोट देते हैं। संविधान ने उनको यह अधिकार दिया है। लेकिन मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी चिंता भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये किसी भी सेकुलर दल को वोट देने की होती है। वह इस एक सूत्रीय अभियान को छिपाता भी नहीं है। यही वजह है कि उसके वोट से जीतने वाला चुनाव के बाद उसकी खास चिंता भी नहीं करता है। लेकिन मुसलमान को यह नहीं पता कि उसके भाजपा हराओ नारे से हिंदू समाज में रिएक्शन से ध्रुवीकरण होने से देश की मुस्लिम बहुल 100 से अधिक सीटों पर भाजपा मजबूत होती रही है! यही वजह है कि आज भाजपा केंद्र व देश के आधे राज्यों में राज कर रही है।
     -इकबाल हिंदुस्तानी   
ऐसा माना जाता है कि भाजपा और मुसलमान दोनों एक दूसरे का विरोध लंबे समय से करते रहे हैं। लेकिन सच यह है कि मुसलमान ऐसा करके भाजपा को आज सरकार बनाने से नहीं रोक पा रहे हैं। दूसरी तरफ मुसलमानों का वोट ना मिलने से भाजपा को लोकसभा और राज्यों के चुनाव में मुसलमानों को अपना प्रत्याशी ना बनाने का मौका मिल गया है। इस बार भी भाजपा ने पूरे देश में केरल की एक सीट से एक मात्र मुसलमान अब्दुल सलाम को अपना प्रत्याशी बनाया है। भाजपा सरकारों पर मुसलमानों के साथ पक्षपात उनका उत्पीड़न और अन्याय करने का आरोप भी विपक्ष लगाता रहता है। लेकिन खुद सेकुलर दल भी मुसलमानों के मुद्दों पर उनके पक्ष में बोलने से हिंदू वोट ना मिलने की आशंका से डरे रहते हैं। हमारा मानना है कि मुसलमानों को अगर भाजपा पसंद नहीं है तो उनको देश के आधे से अधिक हिंदुओं की तरह अपनी पसंद की पार्टी को वोट देने का हक है लेकिन यह सच उनको समझना होगा जब वे केवल भाजपा हराओ अभियान के तहत कांग्रेस सपा बसपा क्षेत्रीय दल या निर्दलीय उम्मीदवार तक को वोट देने को तैयार हो जाते हैं तो इससे ना केवल उनके अपने अकेले जिताने लायक वोट बैंक का बंटवारा हो जाता है बल्कि प्रतिक्रिया में हिंदू समाज के बहुमत को गोलबंद कर भाजपा की जीत का रास्ता भी खुल जाता है। 
इसके बाद सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार का मुसलमानों के साथ सौतेला व्यवहार चुनाव के दौरान उनके विरोध से कुछ गैर मुस्लिमों को न्यायसंगत लगने लगता है। जबकि भाजपा को हिंदुत्व की राजनीति के लिये यह काम हर हाल में करना ही था। यहां मुसलमानों को यह बात समझनी चाहिये कि अगर वे किसी दल को सकारात्मक वोट देने की नई परंपरा अपनाते हैं तो उनका वोट इधर उधर खराब ना होकर एक ही पार्टी को जाने से वह दल मज़बूत होगा और वह यह भी मानेगा कि मुसलमानों ने उसको वोट देकर उस पर ज़िम्मेदारी डाल दी है कि सत्ता में आने पर उनका भी बराबर काम करे या विपक्ष में रहने पर उनके जायज़ मुद्दों के लिये भी आंदोलन संघर्ष या विरोघ प्रदर्शन करने को तैयार रहे। लेकिन जब मुसलमान किसी सीट पर किसी को और किसी सीट पर किसी को केवल इस वजह से वोट देते हैं कि ऐसा करने से भाजपा हार जायेगी तो इससे ऐसा कोई सही सही पैमाना नहीं बन पाता कि जिससे यह पता लग सके कि वास्तव में मुसलमानों ने उस भाजपा विरोधी केंडीडेट को ही वोट दिया है जो जीता है। इससे भाजपा तो ज़रूर उनसे ख़फा होगी लेकिन जीतने वाला उनका एहसान ज़रा भी नहीं मानेगा। 
खासतौर पर यूपी में मुस्लिम मतों का बंटवारा सपा कांग्रेस गठबंधन व बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार या कहीं मज़बूत व बहुमत वाली हिंदू जाति के निर्दलीय उम्मीदवार तक में साफ दिखाई दे रहा है। इसकी वजह यह है कि मैरिट पर मुस्लिम की पहली पसंद आज भी सपा बनी हुयी है लेकिन उसके पास ऐसा कोई नपा तुला सही सही पैमाना नहीं है कि कौन सी सीट पर भाजपा को हराने के लिये वह किस उम्मीदवार के साथ गारंटी से जीत की उम्मीद कर सकता है? इसके लिये उसे हारने का जोखिम उठाकर भी अपना दल या प्रत्याशी पहले से तय करने की ज़रूरत है। इसमें वह यह ज़रूर तय कर सकता है कि उम्मीदवार इतना कमज़ोर ना हो कि वह मुख्य मुकाबले से पहले ही बाहर दिखाई दे रहा हो। ऐसे में वह किसी दूसरे विकल्प पर विचार कर सकता है। पूरे देश में ऐसी 102 लोकसभा सीट हैं जिनपर मुस्लिमों की तादाद हार जीत के नतीजे तय करने की हालत में है। इनमें से कश्मीर की अनंतनाग बारामूला और श्रीनगर 3 असम की ढुबरी करीमगंज बरपेटा और नावगांग 4 बिहार की किशनगंज 1 छत्तीसगढ़ की रायपुर 1 केरल की मलापपुरम व पोन्नानी 2 लक्षदीप की 1 और पश्चिम बंगाल की जंगीपुर बहरामपुर मुर्शिदाबाद 3 संसदीय सीट सहित कुल 15 सीटें ऐसी भी हैं जिनमें मुसलमानों की मतसंख्या आधे से ज्यादा है। 
इसके साथ ही सबसे अधिक मुस्लिम मतों वाले संसदीय क्षेत्र का राज्य यूपी है जिसमें रामपुर मंे 49 प्रतिशत, मुरादाबाद में 46 बिजनौर में 42 अमरोहा सहारनपुर में 39 मुजफ्फरनगर में 38 बलरामपुर में 37 बहराइच में 35 बरेली में 34 मेरठ में 33 श्रीवस्ती में 26 बागपत में 25 गाजियाबाद पीलीभीत व संतकबीरनगर में 24 बाराबंकी में 22 बदायूं बुलंदशहर और लखनउू में 21 फीसदी मुस्लिम वोट हैं। लंबे समय तक यह होता रहा है कि मुसलमान भाजपा को हराने के लिये तमाम शिकायतों और कमियों के बावजूद कांग्रेस के साथ अन्य कोई विकल्प ना होने से एकतरफा जाता रहा लेकिन जैसे जैसे उसे क्षेत्रीय दल विकल्प के तौर पर उपलब्ध हुए वह उनके साथ हो लिया। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि लोकसभा की जिन 38 सीटों पर मुसलमान वोट 30 से 50 फीसदी हैं उन पर ही हिंदू वोटों का जवाबी ध्रुवीकरण होने से भाजपा और उसके सहयोगी दल ज्यादा मजबूत माने जाते हैं और जिन 49 सीटों पर मुस्लिम मतों की संख्या 20 से 30 फीसदी है वहां वे किसी एक हिंदू जाति के केंडीडेट के साथ जाकर सीट निकालने में सफल हो जाते हैं। इसके विपरीत जिन 15 सीटों पर वे बहुमत में हैं उनमें भी बहुसंख्यक हिंदुओं की तरह बंटवारा होने से कई बार वे वहां के अल्पसंख्यक उम्मीदवार से मात खा जाते हैं। इसका बेहतर समाधान यह है कि मुसलमान चाहे भाजपा को वोट करें या ना करें या कम करें कुछ मुसलमान भाजपा को वोट करते भी हैं ऐसा विगत चुनाव के आंकड़े बताते हैं लकिन इसमें उनका विरोध या बाॅयकाट करने की ज़रूरत इसलिये भी नहीं है क्योंकि आज भी देश के आधेे से अधिक हिंदू भाजपा को वोट नहीं देते लेकिन उनके साथ कोई सौतेला व्यवहार नहीं हो रहा है।
0 मैं आज ज़द पे अगर हूं तो खुशगुमान न हो,
 चिराग़ सबके बुझेंगे हवा किसी की नहीं ।।
 *नोट- लेखक नवभार टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के एडिटर हैं।*

Friday 5 April 2024

एनकाउंटर स्पेशलिस्ट

जब मंुबई पर एनकाउंटर स्पेशलिस्ट्स का राज चलता था!
0 यूपी सहित देश के कई राज्यों में बदमाशों को फर्जी मुठभेड़ों में मारने का चलन देखने में कुछ अधिक ही आ रहा है। लेकिन कानूनन यह सही नहीं माना जा सकता है। देश की आर्थिक राजधानी में 1990 का दशक अचानक गैंगवार बढ़ने का दौर था। एक समय था जब महाराष्ट्र की राजधनी मंुबई में पुलिस दारोगा प्रदीप शर्मा विजय सालस्कर प्रफुल भोंसले दया नायक सचिन वाजे़ अरूण बरूडे रविंद्र आंगरे असलम मोमिन मुहम्मद तनवीर और सदफ़ मोडक अंडर वल्र्ड की चुनौती से निबटने को शासन प्रशासन की तरफ से हीरो की तरह सामने आये। इन पुलिस अफसरों को गेंगस्टर्स से भिड़ने के लिये फ्रंी हैंड दिया गया। जिसका नतीजा यह हुआ कि इन्होंने जिस अपराधी को माफिया बताकर मार डाला इनसे उस पर कभी कोई सवाल नहीं पूछा गया। बाद में आरोप लगने पर जांच हुयी तो पता चला कि इसमें पैसे का खेल चल रहा था।      
    -इक़बाल हिंदुस्तानी
मार्च 2019 में जब बाॅम्बे हाईकोर्ट ने एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रदीप शर्मा और अन्य एक दर्जन पुलिस वालों को रामनारायण गुप्ता उर्फ लखन भैया को फर्जी मुठभेड़ में मारने के आरोप में पहली बार सज़ा सुनाई तो पता चला कि मुंबई में जिन बदमाशों माफियाओं और अंडर वल्र्ड के नाम पर बड़े पैमाने पर एनकाउंटर कर अपने नंबर बढ़ाने का कुछ पुलिस अफसर खेल कर रहे थे। उसकी वास्तविकता कुछ और ही थी। आश्चर्य की बात यह है कि प्रदीप शर्मा पर हत्या का आरोप साबित होने से पहले किसी ने सोचा भी नहीं था कि नायक खलनायक भी हो सकते हैं? अजीब बात यह है कि प्रदीप शर्मा के अलावा बाकी मामालों में ना तो आरोपों की गंभीरता से किसी और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की जांच हुयी और ना ही सज़ा मिलने का सवाल उठा। आंकड़े बताते हैं कि मंुबई एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दारोगा प्रदीप शर्मा ने सौ से अधिक विजय सालस्कर ने लगभग 75 प्रफुल भोंसले ने 70 और दया नायक ने लगभग 80 लोगों को मुठभेड़ में ठिकाने लगा दिया। यह वह दौर था जब अंडर वल्र्ड खुद एक दूसरे गैंग के बदमाशों को भी पुलिस से सेटिंग या मुखबरी करके मारने का मौका तलाश करता था। 1998 में जब दाउूद इब्राहीम और छोटा राजन गैंग के दो बदमाश पुलिस मुठभेड़ में मारे गये तो तत्कालीन शिवसेना भाजपा युति की सरकार ने पुलिस को आगे भी ऐसे एनकाउंटर करने के लिये फ्री हैंड देने की घोषणा कर दी। 
जिससे एनकाउंटर विशेषज्ञ पुलिस अधिकारियों को अपना काम करने का खुला मौका मिल गया। 1996 से लेकर 2000 तक मुंबई पुलिस के इन एनकाउंटर स्पेशलिस्ट्स ने 400 से अधिक गुंडो मवाली बदमाशों को मार डाला। बताया जाता है इनमें से अधिकांश पुलिस एनकाउंटर विशेषज्ञ 1983 बैच के थे। इनको आईपीएस अरविंद ईनामदार ने प्रशिक्षित किया था। इनमें से कुछ रिटायर होने तक एनकाउंटर को लेकर विवाद आरोप और निलंबन का सामना करने को भी मजबूर हुए। इन एनकाउंटर स्पेशलिस्ट्स का बदमाशों पर इतना डर छाने लगा था कि उस समय का एक कुख्यात गैंगेस्टर अरूण गवली तो जान बचाने के लिये राजनीति में आ गया। उसने एक चुनाव भी लड़ा। इस चुनाव के दौरान एक दिन अचानक एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालस्कर किसी कानूनी काम से उसकी गली के बाहर अपनी कार पार्क कर रहे थे तो गवली इतना डर गया कि उसने उसी समय कुछ पत्रकारों को अपने निवास पर बुलाकर आरोप लगाया कि सालस्कर उसका एनकाउंटर करने आये हैं। इस खौफ में अरूण गवली अपना वोट डालने भी घर से नहीं निकला। जबकि ऐसा कुछ नहीं था कि सालस्कर उसको ठिकाने लगाने आये हों। 
मानवाधिकारवादी, कानून में विश्वास रखने वाले और विपक्ष के कुछ नेता जहां इस तरह के थोक मंे हुए एनकाउंटर को गलत बताकर लगातार विरोध करते थे तो वहीं कुछ नागरिक कोर्ट कचहरी में सालोें तक चक्कर लगाने के बाद भी इन बदमाशों को सज़ा ना मिलने से इस शाॅर्टकट और तत्काल मौत की सज़ा को सही बताते थे। पुलिस के अधिकांश वरिष्ठ अधिकारी जहां इन एनकाउंटर स्पेशलिस्ट का सरकार के दबाव मंे बचाव करते थे वहीं  कुछ अपवाद और ईमानदार कानून के रखवाले यह कहकर विरोध भी करने लगे थे कि एनकाउंटर के नाम पर कुछ स्पेशलिस्ट अपने रिपोर्ट कार्ड को चमकाने के लिये मामूली अपराध करने वालों को भी मार गिराते हैं। जांच करने पर ये तथ्य भी सामने आये कि कुछ स्पेशलिस्ट सिविल विवाद हाथ में लेकर ऐसे लोगों को भी मुठभेड़ में मार डालते थे जो बिल्डर या कमीशन के चक्कर में एक दूसरे को सबक सिखाना चाहते थे। हालांकि विवाद आरोप प्रत्यारोप और बदनामी बढ़ने व सरकार के खिलाफ ऐसे मामले बड़ी संख्या में कोर्ट जाने पर पुलिस के मुखिया को अपने अधीन एनकाउंटर स्पेशलिस्ट को यह चेतावनी देने पर मजबूर होना पड़ा कि ऐसे मामले किसी कीमत पर भी सहन नहीं किये जायेंगे। लेकिन दबे छिपे कम ज्यादा यह अभियान जारी रहा। 
इसी दौर की एक रोचक जानकारी यह भी खुली कि कई बार कुछ जूनियर व सीध्ेा सादे पुलिस वाले एनकाउंटर स्पेशलिस्ट से अपील करते कि उनका नाम भी मुठभेड़ करने वाली टीम में फर्जी तौर पर शामिल कर लिया जाये जिससे उनका भी कुछ नाम हो जाये। ऐसा हुआ भी लेकिन जब फर्जी एनकाउंटर की जांच हुयी और हत्या का अपराध साबित हुआ तो यह बिना मुठभेड़ किये नाम कमाने वाले पुलिस वाले भी जेल चले गये। जिस लखन भैया के फर्जी एनकाउंटर में एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रदीप शर्मा को हाईकोर्ट से सज़ा मिली है। उसमंे यह भी सामने आया कि शर्मा ने डी एन नगर अंधेरी पुलिस स्टेशन मंे एक गोपनीय आॅफिस बना रखा था। वह पुलिस की बजाये प्रावेट वाहन प्रयोग कर लोगों को उठा लाता था। पुलिस स्टेशन में रवानगी वापसी केस डायरी जीडी का कोई रिकाॅर्ड नहीं रखा जाता था। 11 नवंबर 2016 को शर्मा के मुठभेड़ दल ने ऐसा ही फर्जी दावा कर लखन भैया को मार डाला था। घटना से चार घंटे पहले ही लखन के भाई रामप्रसाद ने बड़े अफसरों को ऐसी फर्जी मुठभेड़ की आशंका की शिकायत भेजी थी जो बाद में पुलिस के लिये गले की फांस बन गयी।
0 मैं आज ज़द पे अगर हूं तो खुशगुमान न हो,
  चराग़ सब के बुझेंगे हवा किसी की नहीं।।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटेकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।*

Thursday 28 March 2024

केजरीवाल जेल में...

केजरीवाल को जेल: आप को फायदा, भाजपा को नुकसान ?
0यह विडंबना ही है कि जिस पार्टी का जन्म करप्शन के खिलाफ चले एक जन आंदोलन से हुआ आज उसका मुखिया भ्रष्टाचार के आरोप में ही जेल में है। हालांकि अभी यह तय नहीं है कि उनको जल्दी ही ज़मानत मिलेगी या लंबे समय तक जेल में ही रहना होगा? लेकिन इतना साफ है कि यह कोई कानूनी नहीं राजनीतिक लड़ाई है। गौर से देखा जाये तो यह देश को करप्शन से मुक्त कराने की मुहिम भी नहीं है क्योंकि जो भी विपक्षी नेता करप्शन के गंभीर आरोप छापा जांच के बाद या जेल जाने के डर से भाजपा में शरीक हो जाता है उसके खिलाफ या तो जांच ठंडे बस्ते में चली जाती है या स्लो हो जाती है। खुद भाजपा नेता भी दूध के ध्ुाले हो ऐसा भी नज़र नहीं आता है।      
    -इक़बाल हिंदुस्तानी
दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल शायद देश के पहले सीएम हैं जिन्होंने जेल जाने के बावजूद अपने पद पर बने रहने का निर्णय लिया है। हालांकि जेल से शासन चलाने में संवैधानिक रूप से कोई रोक नहीं है लेकिन नैतिकता के आधार पर जेल जाने केस चलने या आरोप लगने पर त्यागपत्र देने की अब तक परंपरा रही है। ऐसा भी पहली बार हुआ है कि आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के बाद किसी मुख्यमंत्री को जेल भेजा गया है। इसकी बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि आम आदमी पार्टी ने उस कांग्रेस से दिल्ली में चुनावी गठबंधन किया है। जिसका भाजपा से छत्तीस का आंकड़ा यानी सीधी चुनौती मिल रही है। यही वजह है कि बिहार में नीतीश कुमार ने जहां इस दबाव में इंडिया गठबंधन यानी कांग्रेस से किनारा कर फिर से एनडीए का दामन थामने में ही अपनी भलाई समझी तो वहीं बंगाल में ममता बनर्जी ने इडी और सीबीआई को अपने दर पर दस्तक देने से रोकने को कांग्रेस से पल्ला झाड़ लिया है। उधर 70,000 करोड़ के घोटाले में गले तक डूबे एनसीपी के अजित पवार ने जेल जाने की बजाये भाजपा से हाथ मिलाकर डिप्टी सीएम बनने में ही अपनी खैर समझी। पंजाब मंे आप के सीएम मान ने मोदी सरकार से पंगा न लेकर कांग्रेस के साथ सीटों का समझौता करने से मना कर अपनी जान बचाई है। 
आंध््राा में टीडीपी के मुखिया और पूर्व सीएम चन्दरबाबू नायडू ने भी जांच से डरकर भाजपा से गठबंधन कर लिया है। उड़ीसा में नवीन पटनायक गठबंधन करते करते फिलहाल तो छिटक गये लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद वे भी भाजपा के साथ आने को मजबूर होंगे जब केंद्र सरकार उनको जांच एजंसियों के ज़रिये घेरेगी। कर्नाटक में जेडीएस और यूपी में आरएलडी पहले ही भाजपा के मोहपाश में घुटने टेक चुके हैं। बसपा की मुखिया मायावती ने जेल जाने के डर से पहले ही अपनी पार्टी का जनाज़ा खुद निकाल लिया है। यह अलग बात है कि वे सीधे भाजपा के साथ गठबंधन न करके अपने दलित वोटबैंक और कुछ मुसलमानों को विपक्ष में जाने से रोकर भाजपा की जीत का रास्ता आसान करती रही हैं। ठीक ऐसे ही एमआईएम के ओवैसी मुसलमानों के पक्ष में बड़े बड़े बयान देकर भाजपा की चोर दरवाजे़ से मदद करते रहे हैं जिसका इनाम उनको आज तक किसी भी एजेंसी की जांच से बचाकर दिया जाता रहा है। कहने का मतलब यह है कि करप्शन के नाम पर विपक्ष में भी उन नेताओं दलों और सरकारों को टारगेट किया जा रहा है जो भाजपा के लिये चुनौती विरोध व हार का कारण बन सकती हैं। दिल्ली हालांकि पूर्ण राज्य नहीं है। उसकी आबादी भी बहुत कम है। लेकिन राजधानी क्षेत्र होने की वजह से केजरीवाल पूरी दुनिया की नज़र में छाते रहे हैं। 
संयोग से आप सरकार ने जिस तरह निशुल्क बिजली पानी और क्वालिटी एजुकेशन व हैल्थ सुविधायें उपलब्ध कराने के साथ करप्शन फ्री जन उपयोगी सेवायें दिल्ली की जनता को देकर नया माॅडल सामने रखा उसको भाजपा अपने लिये चुनौती मानकर चलती है। पंजाब में बंपर बहुमत से सरकार बनाकर आप नेशनल पार्टी का दर्जा भी हासिल कर चुकी है। यही वजह है कि आप और भाजपा का लगातार टकराव चलता रहा है। भाजपा केजरीवाल और उनकी पार्टी की ईमानदार छवि को खत्म करने के लिये लगातार करप्शन के आरोप लगाती रही है। उसके स्वास्थ्य मंत्री डिप्टी सीएम और राज्यसभा सांसद पहले ही विभिन्न आरोपों में जेल में हैं। कई विधायक भी जेल और जांच के घेरे में आ चुके हैं। केजरीवाल के जेल जाने के बाद भी सीएम पद से रिज़ाइन ना करने की एक वजह यह भी हो सकती है उनको अपने किसी अन्य नेता पर भरोसा नहीं है। उन्होंने पार्टी के सत्ता में आते ही योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे वरिष्ठ लोगों को वनमैन शो के रूप में खुद को सर्वेसर्वा बनाने के लिये बाहर का रास्ता दिखाकर आत्मघाती रास्ता अपनाया था। ऐसे ही शाहीन बाग जैसे मशहूर सीएए विरोधी आंदोलन , दिल्ली दंगों व अल्पसंख्यकों के मकानों पर बुल्डोज़र चलाने पर उन्होंने अपराधिक चुप्पी साध ली थी जिसकी कीमत उनको आज चुकानी पड़ रही है। 
यह भी तथ्य है कि केजरीवाल उनकी आप और उसके दूसरे नेता व विधायक भी अन्य दलों की तरह गलत भ्रष्ट और अनैतिक हो सकते हैं। लेकिन यहां सौ टके का सवाल यही है कि केवल विपक्ष के नेताओं को ही निशाना क्यों बनाया जा रहा है। दूसरे जिस तरह के हल्के सबूत केजरीवाल वे दूसरे विरोधी दलों के नेताओं को जांच आरोप व जेल भेजने के लिये प्रयोग किये जा रहे हैं जिस तरह से उनको लंबे समय तक ज़मानत देने का सरकारी एजंसियां विरोध करती हैं और जिस तरह से इससे गंभीर और आपत्तिजनक मामलों में भाजपा या एनडीए के नेताओं को बचाया जाता रहा है उससे राहुल गांधी के इस आरोप में दम लगता है कि भारत में लोकतंत्र धीरे धीरे खत्म किया जा रहा है क्योंकि यहां लेवल प्लेयिंग फील्ड नहीं रह गया है। यह भी नज़र आ रहा है कि भाजपा भले ही इस बार 400 पार का नारा दे रही हो लेकिन वह साधारण बहुमत लाने को लेकर भी सशंकित है। इसकी वजह महाराष्ट्र बिहार बंगाल और कर्नाटक आदि राज्यों से आ रहे वे निष्पक्ष व विश्वसनीय सर्वे हैं जिनमें भाजपा की सीट कम होने का दावा किया गया है। इसकी वजह यह भी है कि जहां जहां भाजपा पहले से ही लगभग सभी सीटें जीत चुकी है। वहां उसके और बढ़ने की बजाये महंगाई बेरोज़गारी व करप्शन की वजह से पहले से कम सीट लाने का अनुमान लगाना समझ में आता है। 
दूसरी तरफ यूपी को छोड़कर दक्षिण के किसी राज्य में उसकी सीट बढ़ने या खाता खुलने के आसार कम ही नज़र आते हैं। इसकी एक वजह इंडिया गठबंधन में अधिकांश राज्यों में सीट समझौता होना माना जा रहा है। भाजपा का राम मंदिर उद्घाटन और सीएए लागू करने का कार्ड भी कोई खास असर करता नहीं लग रहा है। इलैक्टोरल बांड के खुलासे ने भी भाजपा को करप्शन के मुद्दे पर बचाव की मुद्रा में आने को मजबूर कर दिया है। यह अलग बात है कि इस मामले में विपक्ष भी पूरी तरह से साफ सुथरा साबित नहीं हो रहा है लेकिन चंद कंपनियों पर छापा मारकर उनसे मोटी रकम चुनावी बांड के ज़रिये लेना और फिर जांच खत्म या पंेडिंग कर देना और आरोपी को सरकारी गवाह बनाकर विपक्ष के नेताओं को फंसा देना भी उस न्यूटल वोटर को नहीं पच रहा है जो पक्ष विपक्ष किसी के भी साथ पहले से अंधभक्त की तरह नहीं जुड़ा है। हालांकि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मतदाता राज्यों में अलग अलग दलों को वोट करता रहा है। यही वजह है कि दो दो बार दिल्ली विधानसभा में जहां आप को जबरदस्त बहुमत मिल रहा है वहीं लोकसभा चुनाव मंे भाजपा सभी सातों सीटें जीत ले रही है। लेकिन इस बार आप का कांग्रेस से सीट समझौता होने और केजरीवाल व उनकी सरकार को भाजपा की केंद्र सरकार द्वारा बार बार हर कदम पर घेरा जाना तय करेगा कि जनता को यह कदम कितना पसंद आ रहा है?      नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के एडिटर हैं।

सायबर क्राइम से बचें...

सायबर क्राइम से बचें: लालच में फंसे तो लुट जायेंगे आप!
0 आज के दौर में मोबाइल ने नेट को घर घर तक पहंुचा दिया है। दिन रात लोग व्हाट्सएप इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे मनोरंजक एप का मज़ा ले रहे हैं। ईमेल भेजते हैं। पैसे का लेनदेन और टिकट की खरीद आॅनलाइन करते हैं। शाॅपिंग करते हैं। आॅडियो वीडियो मैसेज और काॅल का सुख लेते हैं। लेकिन सायबर कैफे बढ़ने के साथ साथ सायबर क्राइम भी बढ़ते जा रहे हैं। कुछ सावधानी जागरूकता और समझदारी से हम आॅनलाइन होने वाली चीटिंग फ्राॅड और नये नये स्कैम के जाल से बच सकते हैं। इसके लिये न केवल हमें इंटरनेट पर होने वाली चालाकियों से खुद को होशियार रखना होगा बल्कि अपने अंदर मौजूद लालच पर भी काबू पाना होगा। आज के लेख में आपको ऐसे ही कुछ टिप देने हैं।      
   -इक़बाल हिंदुस्तानी
कई बार आपके फोन पर अंजान काॅल आती है जो आपसे तरह तरह के बहाने बनाकर कुछ रूपये वैरिफिकेशन के नाम किसी खास एकाउंट में भेजने की बात कहते हैं। उनका दावा होता है कि अगर उनके बताये नंबर पर यह छोटी सी रकम भेज देते हैं तो आपको उसके बाद इनाम के तौर पर यही रकम डबल करके वापस आपके एकाउंट में भेज दी जायेगी। जबकि आपने एक बार यह गल्ती कर दी तो डबल तो दूर आपकी भेजा गया पैसा भी आपको वापस नहीं मिलेगा। आप एक बार इस झांसे में फंसे तो मामला यहीं खत्म नहीं होगा बल्कि वे आपसे आपकी और भी पर्सनल डिटेल भी मांगेगे। इसके बाद आपके मोबाइल पर ओटीपी आयेगा। अगर आपने उनके चक्कर में फंसकर वो ओटीपी शेयर कर दिया तो आपका बैंक एकाउंट खाली होने में देर नहीं लगेगी। हमें यह बात जान लेनी चाहिये कि बैंक कभी भी आपको फोन करके ऐसी कोई गोपनीय व्यक्तिगत जानकारी नहीं मांगता। ओटीपी मांगने का तो मतलब ही नहीं है। कभी कभी नौकरी देने फिल्म में काम करने या किसी सरकारी स्कीम का लाभ देने के नाम पर आपको किसी अंजान आॅफिस या सुनसान जगह में बने रिसाॅर्ट व होटल में बुलाया जायेगा। अगर आप लालच में बिना सोचे समझे वहां पहुंुच गये तो बातों बातों में आपकी फोटो आॅडियो व वीडियो रिकाॅर्ड कर उसको अश्लील बनाकर आपको ब्लैकमेल करके बाद में मंुहमांगी रकम वसूल की जायेगी। 
ऐसे में बिना डरे ब्लैकमेल होने की बजाये पुलिस को खबर करें तो रकम मांगने वाले चुप होकर बैठ जायेंगे। कभी भी बिना पैसा दिये सैक्स मनपसंद खूबसूरत लड़की से शादी लिव इन रिलेशनशिप निशुल्क पिकनिक के जाल में ना फंसे वरना बाद में पछताने और उसकी भारी कीमत चुकाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। यूट्यूब इंस्टाग्राम और फेसबुक व एक्स पर कई बार लाइक शेयर रिट्वीट करने के बहाने आपको कुछ इनाम देने की चाल चली जाती है। इसके लिये आपको एक अंजान ग्रुप में जोड़कर वहां पहले से सैट अपने फर्जी व नकली सदस्यों से स्क्रीन शाॅर्ट्स शेयर कराकर यह दावा किया जाता है कि हमने ऐसा किया तो वास्तव में पैसा उनके एकाउंट में आ गया। ऐसे में इंसान के अंदर का लालच जाग जाता है और वह ना चाहते हुए भी जाल में फंस जाता है। इसका बचाव यह है कि आज ही अपने व्हाट्सएप एकाउंट की सेटिंग में जाकर प्राइवेसी पर क्लिक कर एवरीवन की जगह आॅनली माई काॅन्टैक्ट्स पर क्लिक कर दें। इससे आपको आपकी बिना अनुमति के कोई किसी ग्रुप में नहीं जोड़ सकेगा। यह भी जान लेना ज़रूरी है कि लाइक या शेयर करने का कोई पैसा कहीं नहीं मिलता है यह सरासर धोखा झूठ और मक्कारी ही होती है। आपको इंटरव्यू पार्ट टाइम जाॅब और वर्क फ्राॅम होम के नाम पर भी धोखा दिया जा सकता है। 
याद रखिये आज के दौर में पढे़ लिखे नौजवानों को नौकरी नहीं मिल रही है। ऐसे में आपको घर बैठे बिना किसी आवेदन बिना किसी ठोस काम और बिना योग्यता के जाने कोई क्यों नौकरी कारोबार या लाभ दे सकता है? ऐसे ही कई बार काॅल आती है कि हम बिजली कंपनी से बोल रहे हैं। आपका बिल हमारे रिकाॅर्ड के हिसाब से जमा नहीं हुआ है। आपकी लाइट रात दस बजे काट दी जायेगाी। अगर आप कनेक्शन बचाना चाहते हैं तो इस लिंक पर मांगी गयी जानकारी तत्काल दीजिये। टेलिकाॅम विभाग ट्राई नेट कंपनी के नाम से भी केवाईसी पूरा करने के बहाने फर्जी काॅल आने लगी हैं जिनमें आपसे गोपनीय डाक्यूमंेट आधार पैन कार्ड एटीएम कार्ड या बैंक डिटेल फीड करने को कहा जाता है। इसमें आपसे कई बार स्टार 401 हैश डायल करने को कहा जाता है जिससे आपके मोबाइल में काॅल फाॅरवर्डिंग फीचर आॅन हो जाता है। ऐसा होने से आपकी सभी काॅल स्कैम करने वाले के नंबर पर फाॅरवर्ड हो जाती है। इसके बाद वह आपके फोन की सभी गोपनीय जानकारी आराम से चुरा लेता है। फिर आपको चूना लगाने से कोई नहीं रोक सकता। कई बार ऐसी काॅल करके आपको एनी डेस्क जैसी रिमोट एप डाउन लोड करा दी जाती है जिससे आपके फोन का कंट्रोल फ्राॅड करने वाले के हाथ में चला जाता है। याद रखने की बात यह है कि बैंक बिजली कंपनी टेलिकाॅम डिपार्टमेंट या कोई भी सरकारी विभाग आपसे ऐसी गोपनीय महत्वपूर्ण व संवेदनशील जानकारियां कभी भी फोन पर नहीं मांगता है। 
कभी कभी आपको मैसेज पर रेंस्पोंस ना करने पर बैंक का कोई अधिकारी आपसे आपके खाते से जुड़ी कुछ ज़रूरी बातें जानने सत्यापित करने या किसी चैक पर शक हाने पर सच जानने के लिये आपको बैंक बुला सकता है। यूपीआई के नाम पर एक धोखा आम है कि किसी से पैसा पाने के लिये आपका पिन पूछा जाता है जबकि पैसा देने के लिये पिन की ज़रूरत होती है ना कि पैसा लेने के लिये। आजकल आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस तकनीक से आपकी आपके परिवार के किसी सदस्य या करीबी रिश्तेदार की हू ब हू आवाज़ बनाकर उसकी फोटो लगाकर और उसके नंबर को ही हैक कर काॅल करके आपसे कुछ पैसा मांगा जा सकता है जिसके लिये आपको काॅल काटकर फिर से काॅल बैक कर सच पता लगाने की ज़रूरत होती है नहीं तो आप लुट सकते हैं। यूपीआई पिन बार बार बदलते रहिये। पब्लिक वाईफाई का इस्तेमाल कर पैसे का लेनदेन ना करें क्योंकि इससे आपका पिन पासवर्ड और गोपनीय जानकारी आसानी से काॅपी हो जाती है। किसी भी अंजान आदमी के भेजे ईमेल मैसेज या लिंक पर भूलकर भी क्लिक ना करें। कभी भी किसी कंपनी का कस्टमर नंबर गूगल पर सर्च ना कर उसकी वेबसाइट पर ही चैक करें क्योंकि गूगल पर लोगों ने जानी मानी कंपनियों के नाम से नकली फर्जी और फेक कस्टमर नंबर देकर लोगों को ठगने का जाल बिछा रखा है। 
अपने सभी एकाउंट के पासवर्ड मुश्किल से मुश्किल और अलग अलग रखे्रं। भूलकर भी अपनी या परिवार के किसी सदस्य की जन्मतिथि या कार बाइक का नंबर व एक दो तीन चार तथा एबीसीडी पासवर्ड ना रखें क्योेंकि ये स्कैमर का काम आसान कर देते हैं। अपनी पर्सनल जानकारी फोटो वीडियो घर आॅफिस की पिक अपनी यात्रा सूचना कभी भी नेट पर शेयर ना करें इससे बदमाशों का निशाना बन सकते हैं। इतना कुछ एलर्ट रहने के बाद या भूल से फिर भी आपके साथ कोई धोखा चीटिंग या स्कैम हो जाये तो डरकर ब्लैकमेल ना हों बल्कि पुलिस सायबर क्राइम सैल उपभोक्ता फोरम सिविल कोर्ट बैंक या बैंकिंग लोकपाल सायबरक्राइम डाॅट जीओवी डाॅट इन या 1930 पर काॅल कर शिकायत कर अपना पैसा या मान सम्मान वापस पा सकते हैं।    
0 शराफ़तों की यहां कोई एहमियत ही नहीं,
  किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है।
 *नोट- लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के एडिटर और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

Wednesday 20 March 2024

खुली किताब परीक्षा

*खुली किताब एग्ज़ाम से पहले स्टूडेंट्स का दिमाग खोलना होगा!* 
0 सेंटरल बोर्ड आॅफ सेकंड्री एजुकेशन यानी सीबीएसई ने हाईस्कूल और इंटर के पहले साल में एक बार फिर से ओपन बुक एग्ज़ाम की योजना बनाई है। वैसे तो यह प्लान विद्यार्थियों के लिये पुराना ही है। 2014 में सबसे पहले यह व्यवस्था लागू की गयी थी। तब हिंदी अंग्रेज़ी गणित विज्ञान और सोशल साइंस कक्षा 9 और अर्थशास्त्र जीव विज्ञान व भूगोल कक्षा 11 के लिये यह सुविधा दी गयी थी। स्टूडेंट्स को चार माह पहले दिये गये स्टडी मैटीरियल से सहायता लेने की छूट दी गयी थी। लेकिन बिना कोई ठोस कारण बताये इस व्यवस्था को 2017 में बंद कर दिया गया । उच्च शिक्षा में खुली किताब परीक्षा काफी समय से उपलब्ध रही है जिसमें 2019 में आखि़री सलाहकार समिति की सिफारिश पर इंजीनियरिंग काॅलेजों में ओपन बुक एग्ज़ाम की परंपरा रही है।      
  -इक़बाल हिंदुस्तानी
खुली किताब परीक्षा का विचार नया नहीं है। लेकिन फिलहाल सीबीएसई ने यह प्रयोग चुनिदा स्कूलों में पायलट आधार पर करने का निर्णय लिया है। हालांकि यह बोर्ड के एग्ज़ाम में लागू नहीं होगा। दिल्ली यूनिवर्सिटी जेएनयू एएमयू और जामिया मिलिया इस्लामिया आईआईटी दिल्ली इंदौर और बाॅम्बे ने भी काफी पहले खुली किताब परीक्षा की शुरूआत कर दी थी। ऐसे ही केरल के उच्च शिक्षा परीक्षा सुधार आयोग ने भी आंतरिक व प्रायोगिक परीक्षाओं के लिये ओपन बुक एग्ज़ाम का सुझाव दिया है। आमतौर पर लोग यह समझते हैं कि याद करके इम्तहान देने के मुकाबले किताब से देखकर सवालों के जवाब देने से छात्र छात्रायें आसानी से न केवल पास हो जायेंगे बल्कि उनके टाॅप करने यानी शत प्रतिशत नंबर लाने की संभावना भी नकल की तरह बहुत हद तक बढ़ जायेगी जबकि असलियत इसके विपरीत है। खुली किताब परीक्षा का मकसद बच्चो की समझ सीख और बौधिक क्षमता का परीक्षण होता है। आॅल इंडिया मेडिकल साइंस की भुवनेश्वर शाखा के मेडिकल के छात्रों के बीच 2021 में किये गये एक सर्वे मंे पता चला है कि इस तरह की परीक्षा से छात्रों का तनाव काफी हद तक कम हो जाता है। 2020 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय प्रेस की आॅनलाइन पायलट स्टडी में खुली किताब परीक्षा की व्यवस्था की जांच में पाया गया कि 79 प्रतिशत छात्र पास तो 21 प्रतिशत असफल हुए थे। 
लेकिन इस सिस्टम से लगभग सभी छात्र तनावमुक्त पाये गये। हालांकि 2020 की नई शिक्षा नीति में खुली किताब परीक्षा के बारे कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा गया है लेकिन इतना ज़रूर है कि इसमें एक नई गुणवत्तापरक सक्षम और अधिक सिखाने वाली परीक्षा पर खासा जोर दिया गया है। दरअसल अब तक किताबों कुंजियों और ट्यूशन  में बच्चो को अधिक से अधिक रटाने यानी याद कराने पर फोकस किया जाता रहा है लेकिन जब हम बच्चो को परीक्षा में आये सवालों का जवाब लिखने के लिये किताब में पढ़ने उत्तर खुद तलाशने और विश्लेषण की सुविधा उपलब्ध कराते हैं तो उनका दिमाग याद करने के मुकाबले सोचने समझने और अपनी पहले से प्राप्त जानकारी को लागू करने के लिये तेजी से काम करना शुरू करता है। आज का दौर सृजन चिंतन और सूचना व सहयोग का है। पुरानी परीक्षा प्रणाली में लगातार बढ़ते तनाव के कारण हर साल परीक्षा में असफल होेकर बड़ी संख्या में छात्र छात्रायें आत्महत्या भी करते रहे हैं। इस कारण से भी समाज के जागरूक नागरिक शिक्षक और अभिभावक खुली पुस्तक परीक्षा का स्वागत करते नज़र आ रहे हैं। हालांकि यह भी सच है कि 2013-14 में जब पहली बार ओपन बुक एग्ज़ाम की शुरूआत हुयी थी तब टीचर और छात्र छात्राओं के माता पिता ही इस सिस्टम का यह कहकर विरोध कर रहे थे कि इससे बच्चे सीखना याद करना और ज्ञान अर्जित करना ही छोड़ देंगे। 
 इस बार यह जानकारी मिल रही है कि सीबीएसई नये सिस्टम को लागू करने से पहले इसकेे पक्ष में मानसिक तैयारी अनुकूल वातावरण और इस व्यवस्था की उपयोगिता लाभ व सकारात्मक प्रभाव का व्यापक प्रचार प्रसार करने की भी तैयारी कर रही है। इसके साथ हमें इस तथ्य पर भी विचार करना होगा कि इस नई व्यवस्था के प्रश्नपत्र तैयार करने के लिये पेपर सैटर को भी नये सिरे से ट्रनिंग देनी होगी। ऐसा ना करने से बिना व्यापक जानकारी के उनके लिये नयी परीक्षा प्रणाली लागू करने को प्रश्नपत्र के नये अंदाज़ में सवाल तैयार करना स्वयं एक बड़ी चुनौती होगी। इसकी वजह यह है कि नई परीक्षा प्रणाली के लिये पूछे जाने वाले सवालों में कोर्स की किताबों के साथ काफी सवाल काल्पनिक पूछे जायेंगे जिसके लिये अभी वर्तमान टीचर्स को कोई विशेष अनुभव नहीं है। खुली किताब इम्तेहान का यह मतलब नहीं है कि आप जो भी सवाल परीक्षा में आये उसको किताब से आराम से देखकर नकल कर दें। इसके लिये छात्र छात्रा को अपना खुद का विवेक प्रतिभा जानकारी और समझदारी का प्रयोग करना होगा। अगर आसान शब्दों में कहें तो खुली पुस्तक परीक्षा अकादमिक से व्यवहारिक ज्ञान की ओर पहला क़दम मानी जा सकती है। अभी तक देखने में यह आया है कि जो विद्यार्थी जितना अधिक रट सकता है वह उतना ही अधिक अंक लाने में सफल हो जाता है। रिसर्च में यह साबित हो चुका है कि रटने के लिये किसी का योग्य प्रतिभावान और जानकार होना ज़रूरी नहीं होता है। 
 यही वजह है कि अब ओपन बुक एग्ज़ाम के द्वारा इस मिथक को तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है कि जो बच्चे अधिक माकर््स नहीं ला पाते वे कम काबिल नहीं हैं। यह अलग बात है कि इस नई परीक्षा प्रणाली से उन टीचर्स और कोचिंग सेंटर का धंधा काफी घाटे में में जा सकता है जो बच्चो को बुनियादी काम की और ज्ञान की व्यवहारिक जानकारी के बजाये केवल अधिक से अधिक अंक लाने की जुगत में केवल किताबी तोता बनाने में लगे रहते हैं। नई परीक्षा प्रणाली से एक संभावना यह भी जताई जा रही है कि इसके लागू होने के बाद नकल माफिया पर भी कुछ हद तक नकेल कसी जा सकती है क्योंकि अगर कोई पेपर आउट भी होता है तो उसका जवाब मुश्किल होगा।
0 मकतब ए इश्क का दस्तूर निराला देखा,
 उसको छुट्टी ना मिली जिसने सबक याद किया।            
 *नोट- लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

Thursday 7 March 2024

देश में कितने गरीब

80 करोड़ लोग 5 किलो अनाज पर तो देश में कितने गरीब हैं ?
0 नीति आयोग ने पहले कहा था कि देश में 11.28 प्रतिशत गरीब हैं लेकिन बाद में उसने दावा किया कि इनकी संख्या 5 प्रतिशत से अधिक नहीं है। इस अनुमान का आधार नेशनल संैपल सर्वे द्वारा प्रकाशित 2022-23 के हाउसहोल्ड कंज़म्पशन एक्सपेंडीचर सर्वे को बताया जाता है। आयोग के अनुसार शहरों में प्रति माह 6459 रू आय का 39 प्रतिशत भोजन पर  और गांवों में 3773 रू. में से 46 प्रतिशत खाने पर खर्च करने वाले लोग गरीब नहीं हैं। सवाल यह है कि अगर नीति आयोग के आंकड़े सही है तो सरकार 81.35 करोड़ लोगों को गरीब मानकर निशुल्क अनाज क्यों दे रही है? क्या मनरेगा में रजिस्टर्ड 15.4 करोड़ लोग और उज्जवला योजना में गैस पाये जो लोग एक साल में केवल 3.7 सिलेंडर ही खरीद पा रहे हैं वे अमीर हैं?        
    *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
 देश में गरीबों की वास्तविक संख्या जानने से पहले यह देखा जाये कि हमारे माननीय सांसदों की आर्थिक हालत क्या है तो पता चलता है कि संसद पर एक तरह से पूंजीपतियों या उनके प्रतिनिधियों का अघोषित अधिपत्य स्थापित होने लगा है। एडीआर यानी एसोसियेशन आॅफ़ डेमोक्रेटिक रिफाॅम्र्स ने 2023 में एक सर्वे कर बताया था कि हमारे सांसदों की औसत सम्पत्ति 38.33 करोड़ रूपये है। लोकसभा और राज्यसभा के कुल सांसदों में से 7 प्रतिशत अरबपति हैं। उधर देश के किसानों की आय औसत भारतीय से भी कम है। विडंबना यह है कि 40 प्रतिशत एमपी पर क्रिमनल केस चल रहे हैं। इनमें से जिन 25 प्रतिशत सांसदों पर बेहद संगीन अपराधिक मामले चल रहे हैं वे और भी अधिक अमीर हैं। स्वच्छ छवि वाले एमपी की संपत्ति 30 करोड़ तो अपराधिक छवि वाले एमपी की संपत्ति 50 करोड़ से अधिक है। सरकार के आयुष्मान भारत के द्वारा निशुल्क इलाज के दावों के बावजूद एनएसएसओ की रिपोर्ट बताती है कि शहरी इलाकों में 5.91 और गांवों में 7.13 प्रतिशत खर्च दवाओं पर हो रहा है। ऐसे ही शहरी आबादी जहां ईंधन पर अपनी आय का 6.26 तो गावों की आबादी 6.66 प्रतिशत खर्च करती है। 2004 से 2012 के दौरान हमारी विकास दर आज़ादी के बाद की सबसे अधिक यानी 8 प्रतिशत थी जिसमें 14 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आ गये थे। 
पहले गरीबी से बाहर आने का पैमाना लोेगों की व्यक्तिगत खपत को माना जाता था लेकिन पिछले दस साल से यूएनडीपी ने इस पैमाने को बदल दिया है। भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के गरीबी मापने के 10 पैमानों में दो अपनी तरफ से जोड़ दिये हैं। इनमें एक तो स्टैंडर्ड आॅफ लिविंग में सुधार मानते हुए परिवार में बैंक एकाउंट और महिला की डिलीवरी अस्पताल या नर्सिंग होम में होना माना गया है। ज़ाहिर है कि पिछले कुछ सालों में पीएम जनधन योजना के तहत 40 करोड़ से अधिक लोगों के खाते बैंकों में खुले हैं। इसके साथ जागरूकता बढ़ने से 80 प्रतिशत महिलायें बच्चो को जन्म देने के समय चिकित्सा संस्थानों में भर्ती होने लगी हैं। नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रहमण्यम ने 17 जुलाई 2023 को बताया था कि 2019-21 तक देश की 14.96 प्रतिशत आबादी गरीब थी यानी पांच साल में 13.5 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आ गये। हैरत की बात यह रही कि इसके 6 माह बाद ही नीति आयोग के एक चर्चा पत्र जारी कर दावा किया कि 2022-23 तक देश में गरीबों की तादाद घटकर 11.28 प्रतिशत ही रह गयी है। आयोग ने इस तरह पिछले 9 साल में 24.82 करोड़ लोगों के निर्धनता से मुक्त होने का दावा कर दिया। 
इसके बाद फरवरी 2024 में आयोग ने देश में 5 प्रतिशत आबादी ही बीपीएल रह जाने का अनोखा दावा कर एक तरह से एक माह में ही 8 करोड़ गरीब कम होने का चमत्कार वाला एलान कर दिया। गरीबी कम होने का सीधा आधार देश की जीडीपी बढ़ना भी माना जाता है। लेकिन अगर हम कोविड लाॅकडाउन नोटबंदी और जीएसटी का असर अर्थव्यवस्था पर देखें तो करोड़ों लोगों की असंगठित क्षेत्र में नौकरियां गयीं हैं। इसके बाद गांव के वे लोग या तो कृषि की ओर लौटे या फिर मनरेगा में काम करके अपने परिवार को जैसे तैसे जीवन यापन के लिये स्वरोज़गार की तरफ रूख़ किया। इस काम के लिये उन्होंने अपने परिवार के दूसरे सदस्यों को भी अपने साथ जोड़ा जिसका आंकड़ा सरकार ने इस्तेमाल करते हुए उसकी नौकरी और उसकी भारी भरकम सेलरी को भाव न देते हुए उसके पूरे परिवार की पहले से कम आय के बावजूद रोज़गार की बढ़ी हुयी संख्या के आंकड़े जारी कर दिये। यही वजह है कि घरेलू बचत दर तेजी से गिरी है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन इस तरह के परिवार के सदस्यों के काम को जिसमें उनको कोई वेतन नहीं मिलता रोज़गार नहीं मानती है। यह भी एक तथ्य है कि जीडीपी या अर्थव्यवस्था का साइज़ बढ़ने से ही प्रति व्यक्ति आय नहीं बढ़ती क्योंकि अडानी अंबानी और आम आदमी की कुल आय जोड़कर उसको देश की कुल आबादी से भाग देकर औसत आय निकाली जाती है। 
जिससे वास्तविक स्थिति और लोगों की असली आमदनी सामने नहीं आती है। सर्वे के आंकड़े यह भी बताते हैं कि लोगों की आय और खर्च लगभग उतना ही है जितने अनुपात में पहले था। महंगाई और बेरोज़गारी की बढ़ती दर को देखा जाये तो बढ़ी आय और घरों में होने वाले नये खर्च का समीकरण मेल नहीं खाता है। आर्थिक विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि चूंकि यह सर्वे 11 साल बाद आया है जिससे इसके आंकड़े काफी सीमा तक बढ़े हुए लगते हैं लेकिन उस अनुपात में नहीं बढ़े हैं जिस हिसाब से किसी बढ़ती हुयी प्रगतिशील और सकारात्मक समावेशी इकाॅनोमी में यह प्राकृतिक रूप से स्वयं ही बढ़ने चाहिये। 2017-18 में ऐसी ही हकीकत का आईना दिखाती सर्वे रिपोर्ट को सरकार ने मानने से मना कर दिया था। इसका मतलब यह माना जा सकता है कि सरकार गरीबी को नापने में भी वही खेल कर रही है जो वह अन्य क्षेत्रा में आंकड़ों की बाज़ीगरी अकसर करती रही है। दुष्यंत का शेर याद आ रहा है-
0 तेरा निज़ाम है सिल दे ज़बान शायर की,
  यह एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिये।।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार ैके संपादक हैं।*

Saturday 2 March 2024

पाक सेना के पास एक देश...

*सब देशों के पास एक सेना है पाक में सेना के पास एक देश है!* 
0 कहते हैं कि पाकिस्तान को तीन ए यानी अल्लाह अमेरिका और आर्मी चलाते हंै। कुछ समय पहले वहां के सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सेना का काम देश की रक्षा करना है वह धंधा क्यों करती है? आंकड़ेे बताते हैं कि पाक आर्मी की प्रोपर्टी भारत के अडानी अंबानी से भी अधिक है। सवाल यह है कि सेना को तो केवल वेतन मिलता है तो यह अकूत धन सम्पत्ति उद्योग ध्ंाध्ेा उसके पास कहां से आये? जवाब है कि पाक बनने के 77 साल में से लगभग 50 साल सेना का राज रहा है। उसके आज तक बने 29 प्रधानमंत्रियों में से सेना ने किसी का भी कार्यकाल पूरा नहीं होने दिया। उसकी कुल खेती लायक ज़मीन में से तीन चैथाई पर लगभग ढाई सौ सेना अफसरों पूर्व सामंतों और नवाबों जैसे बड़े लोगों का कब्ज़ा है।          
  -इक़बाल हिंदुस्तानी
1947 में जब पाक बना तो उसको अखंड भारत की सेना का 33 प्रतिशत जमा पंूजी का 400 करोड़ में से 75 करोड़ और लगभग एक हज़ार इंडस्ट्री में से 34 उद्योग दिया जाना तय हुआ था। योजना के अनुसार उसको बाकी सब चीज़ों के अलावा राजस्व में से 20 करोड़ देकर शेष 55 करोड़ किश्तों में दिया जाना था। लेकिन उसकी सेना ने धोखा देकर कबायली हमले के नाम पर जब कश्मीर में घुसपैठ कर दी तो भारत सरकार ने बाकी रकम देने से मना कर दिया। बाद में गांधी जी ने पीएम नेहरू को वादे के अनुसार पाक को बाकी रकम देने को मजबूर कर दिया। पाक ने उस रकम से हथियार खरीदे और भारत ने प्रोडक्शन पर फोकस करना शुरू किया। 1964 मंे पाक फौज ने पहला चैरिटेबिल ट्रस्ट बनाकर देश की रक्षा की अपनी बुनियादी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़कर जीवन रक्षक ज़रूरी घरेलू सामान बेचना शुरू कर दिया। भारत के साथ 1971 की जंग के बाद उसके भाव और भी बढ़ गये। पाक सेना ने देश की रक्षा के नाम पर देश का ख़ज़ाना जमकर हड़पा। सेना ने अपना कारोबार टैक्स मुक्त कर लिया। इसके बाद जब जब सत्ता में सेना रही उसने ऐसे कानून खुद बनाये या अपनी कठपुतली सरकारों से बनवाये जिससे वह जीवन के हर क्षेत्र में यानी गैस पेट्रोल डीज़ल ज़मीन मकान जे़वर तेल आटा नमक मंझन सीमेंट ईंट साबुन मीट सोलर अस्पताल मेडिसिन फल सब्जी खाद और घरेलू सामान बेचने से लेकर पाक का अंतरिक्ष का काम भी सेना ने खुद ठेके पर लेकर सब में अपनी मोनोपोली बना ली है। 
इन सब कामों में सेना 20 से 30 प्रतिशत का भारी मुनाफा वसूल रही है। रिटायर होने के बाद सेना के मेजर जनरल से लेकर एक मामूली सिपाही तक को पेंशन के अलावा इस खुली लूट में तय हिस्सा जीवनभर मिलता है। पाक के कुल बजट 9500 बिलियन डालर में अकेले सेना का हिस्सा 1500 बिलियन डालर का है। 2022-23 में सेना के 100 बडे़ अधिकारियों का बिजनेस नेटवर्क 3500 करोड़ डाॅलर का था। सेना का कुल कारोबार एक लाख करोड़ डालर से अधिक का है। हालत यह है कि पिछले पाक जनरल कमर जावेद बाजवा की पत्नी की सम्पत्ति 2016 में शून्य से 2022 में 220 करोड़ हो गयी। बाजवा परिवार का कुल कारोबार 1270 करोड़ का है। आज पाक सेना 50 से अधिक हाउसिंग प्रोजेक्ट लाखों एकड़ ज़मीन निशुल्क कब्ज़ाकर चला रही है। यही वजह है कि पाक सेना भारत से रिश्ते अच्छे नहीं होने देना चाहती। जब भी कोई पाक सरकार भारत से मेल मिलाप की बात शुरू करती है। पाक सेना कभी मुंबई हमला कभी कारगिल हमला तो कभी पठानकोट पर धावा बोलकर खेल बिगाड़ देती है। यहां तक कि वह भारत के करीब आने वाली पाक सरकारों का तख्ता पलट तक कर देती है। रेटिंग एजेंसी मूडीज़ का कहना है कि पाक की कर्ज़ चुकाने की क्षमता आज दुनिया के किसी भी आज़ाद और संप्रभु देश के मुकाबले सबसे कमज़ोर है। उसके कर्ज़ का ब्याज भुगतान ही कुल आने वाले राजस्व का आधा है। 
2017 का विदेशी कर्ज़ 66 से बढ़कर 100 बिलियन हो चुका है। डाॅलर की कीमत 267 रूपये हो चुकी है जिससे पाक का कर्ज़ बिना और लिये ही बढ़ता जा रहा है। साथ ही इससे महंगाई को भी पर लग गये हैं। जो 40 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 3.67 अरब डालर बचा है। आतंकवाद उग्रवाद चरमपंथ कट्टरपंथ करप्शन सेना का बार बार चुनी हुयी सरकार का तख़्ता पलट या कठपुतली सरकार आर्थिक गैर बराबरी विदेश में काम करने वाले पाकिस्तानियों पर अर्थव्यवस्था का टिका होना आज़ादी के दशकों बाद तक अपना संविधान ना बना पाना लोकतंत्र मज़बूत ना होना सेना पर बजट का बड़ा हिस्सा खर्च करना अमेरिका और खाड़ी के देशों से मिलने वाली बड़ी वित्तीय मदद का बड़ा हिस्सा तालिबान जैसे आतंकी संगठनों को पैदा कर पालना पोसना और भारत की तरह ज़मींदारी उन्मूलन ना कर देश में केवल बेहद गरीब और बेहद अमीर दो ही वर्ग आज तक बने रहना भी पाक की तबाही का कारण बना है। 
ऐशियन लाइट की रिपोर्ट बताती है कि पाक ने जेहाद के नाम पर अमेरिका से मोटी रकम हथियार और राजनीतिक मदद लेकर पहले 1979 में रूस को अफगानिस्तान से निकालने कश्मीर को आज़ाद कराने के दावे को लेकर और बाद में 2001 में ओसामा बिन लादेन के अमेरिका पर हवाई हमले के बाद अलकायदा को ख़त्म करने को लेकर लोहे को लोहे से काटने के लिये अपनी सरज़मीं पर दहशतगर्द पैदा करने का शातिर धंधा अमेरिकी से भारी रकम वसूल करके किया गया। अब जब ये अभियान खत्म हो चुका है तो पाक को अमेरिकी और अन्य मुल्कों की मदद मिलनी तो बंद हो ही गयी है। उसको 400 मिलियन डालर से मदद घटते घटते 55 मिलियन डालर रह गयी। साथ ही उसने जिस तालिबान के जिन्न को बोतल से निकाला था। वह आज अफगानिस्तान में अमेरिकी मिशन पूरा होने पर पाकिस्तान के जी का जंजाल बन गया है। ऐसा लगता है कि आज पाक को आर्मी ही चला रही है क्योंकि यह उसकी रोटी रोज़ी का सवाल बन चुका है। अल्लाह अमेरिका तो उसको उसके हाल पर छोड़ चुके हैं। लेकिन उसका नया दोस्त चीन उसको कर्ज के जाल में फंसाकर उसका क्या हश्र करने जा रहा है यह उसकी सरकार तो क्या उसकी लालची खुदगर्ज और जालिम सेना को भी एहसास नहीं है। अल्लामा इक़बाल का यह शेर आज पाक सेना पर फिट बैठता है-
0 वतन की फ़िक्र नादां मुसीबत आने वाली है,
   तेरी बरबादियों के मश्वरे हैं आसमानों में।।
 *नोट- लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

Sunday 11 February 2024

अजब गजब घोटाला...

*अजब गज़ब ठगी: ‘आॅल इंडिया प्रेगनेंट जाॅब’ से करोड़ों का घोटाला!* 

0 मशहूर ठग नटवरलाल ने एक बार कहा था कि जब तक इंसान में लालच है उसका ठगी का ध्ंाधा चलता रहेगा। बिहार के नवादा के एक ठग मुन्ना ने लाखांे लोगों को करोड़ों का चूना लगाकर ठगी का नायाब नमूना पेश कर नटवरलाल की यह बात एक बार फिर से सही साबित कर दी है। मुन्ना ने फेसबुक पर एक अजीब ही जाॅब निकाल दिया। उसने लिखा जो महिलायें शादी के बाद भी किसी वजह से मां नहीं बन सकीं   और अपने पति से अलग हो चुकी हैं। उनको गर्भवती करने के लिये कुछ युवाओं की आवश्यकता है। इन युवाओं को उन सुंदर महिलाओं से सैक्स करना होगा। जो युवा प्रेगनेंट करने मंे कामयाब रहेंगे उनको दस से 13 लाख और जो असफल रहेंगे उनको 5 लाख दिये जायेंगे। यह आॅफर देखते ही लोगों की लाइन लग गयी और वे लुट गये...।    
   -इक़बाल हिंदुस्तानी
बिहार के नवादा का एक कम पढ़ा लिखा सीधा सादा गरीब युवा मुन्ना राजस्थान के मेवाड़ काम की तलाश में गया था। उसने घरवालों को बताया उसकी नौकरी लग गयी है। वह पांच साल वहां रहा उसको नौकरी नहीं मिली लेकिन कुछ छोटा मोटा काम करने लगा। इस दौरान उसका वास्ता जामतारा के साइबर क्राइम गैंग से पड़ गया। जिससे उसने शाॅर्टकट से बहुत अधिक पैसा कमाने के गुर सीख लिये। इसके बाद वह अपने गांव नवादा वापस आ गया। यहां उसने साइबर क्राइम वालों से मिलकर बनाई योजना के अनुसार मछली पालन के लिये पुराना तालाब सही किया। उसके बाद तालाब के पास पड़े खंडरनुमा घर को ठीक कर दो मंज़िला बनाया। उस मकान के पास एक मचान बनाया। जिस पर दस बारह लोग आराम से बैठ सकते थे। इसका मकसद उसकी तरफ आने वाले लोगों पर दूर से ही चंबल के डाकुओं की तरह नज़र रखना था। साथ ही जो लगभग दो दर्जन लड़के इस नई ठगी की योजना के लिये उसने अपने साथ जोड़े थे।  
उनको इस उूंची मचान पर बैठाकर मोबाइल से लोगों को झांसे में लेकर ठगना था। जिससे मोबाइल टाॅवर से खुले में सिग्नल ठीक से आते रहें। इन सभी लड़कों को ठगी से होने वाली लाखों की कमाई से 30 प्रतिशत कमीशन दिया जाना तय किया गया था। दर्जनों मोबाइल सैंकड़ों फर्जी नाम के सिम तमाम चार्जर और प्रिंटर वगैरा मुन्ना ने खुद लगाये। गांव छोटा सा था। आबादी कम थी। अपराध ना के बराबर होते थे। लिहाज़ा पुलिस कभी उस गांव में आती नहीं थी। इसके बाद जब सब तैयारी हो गयी। मुन्ना ने फेसबुक पर खूबसूरत महिलाओं के फोटो के साथ एक एड पोस्ट किया। जिसमें एक आदमी को सेना की फर्जी वर्दी में दिखाया गया था। कुछ महिलाओं को जाॅब पाये लोगों के द्वारा गर्भवती होने का दावा करते हुए उनका फोटो भी अपलोड किया गया था। एड का शीर्षक था- आॅल इंडिया प्रेगनेंट जाॅब। एड के साथ संपर्क करने को मोबाइल नंबर भी दिया गया था। 
कंपनी को रजिस्टर्ड बताते हुए यह दावा भी किया गया था कि हम जो काम कर रहे हैं उसका मकसद समाजसेवा भी है। कुछ शर्तें भी थीं। जैसे उन लोगों को ही नौकरी दी जायेगी जिनके परिवार के लोग जैसे पत्नी माता पिता या भाई बहन इस जाॅब से सहमत होंगे। गर्भवती की जाने वाली महिला के होने वाले बच्चे पर उस युवा का कोई अधिकार नहीं होगा जिससे शारिरिक संबंध बनाकर वह प्रेगनेंट हुयी है। उन युवाओं से इस तरह का शपथ पत्र आधार कार्ड पहचान पत्र और दूसरे ज़रूरी सरकारी दस्तावेज़ लिये जायेंगे। ठगी का असली खेल इसके बाद शुरू होता था। नौकरी के लिये 799 रूपये फीस जमा रजिस्टेªशन आॅनलाइन साइबर कैपफे से बताये गये दूसरे कागजों के साथ जमा करनी होगी। इसके बाद कंपनी से आवेदनकर्ता को काॅल आती थी। उससे कहा जाता था कि आपके शहर में अगर थ्री स्टार हाॅटल है तो महिलाओं को उसी होटल में भेजेंगे। नहीं तो आपको मुंबई जाना होगा। जिसका आने जाने होटल खाना पीना सब खर्च कंपनी करेगी। 
लेकिन किसी भी महिला से सेक्स करने से पहले आपको सीमन यानी वीर्य टैस्ट के लिये 2500 रूपये की फीस जमा करनी होगी। अगर रिज़ल्ट पाॅजिटिव आया तो आपको आगे भेजा जायेगा। इंसान तो इंसान है। उसको सपने आने लगते हैं। नौकरी बढ़िया है। 799 और 2500 रूपये कोई बड़ी रकम नहीं है। खूबसूरत महिलाओं से सेक्स करने का हसीने मौका दिख रहा है। साथ ही कंपनी के खर्च पर मंुबई की सैर भी हो जायेगी। इसके साथ ही अगर बच्चे की चाह रखने वाली महिला गर्भवती हो गयी तो 10 से 13 लाख जैसी बड़ी रकम नहीं तो कम से कम 5 लाख न्यूनतम तो मिलने ही हैं। इससे शानदार और बेहतरीन नौकरी शायद ही दुनिया में किसी को मिली हो? इसके बाद आवेदक के मोबाइल में 472000 का बैंक में के्रडिट का फर्जी मैसेज भेजा जाता है। आवेदक को काॅल कर बताया जाता है कि आपके खाते में पांच लाख रूपये भेज दिये गये हैं। लेकिन बैंक यह रकम तब के्रडिट करेगा जब आप 28000 जीएसटी हमारे बताये गये सरकारी खाते में जमा करा देंगे। 
बंदा अब इतना उतावला हो चुका है कि वह कहीं से भी कैसे भी जुगाड़कर 28000 की रकम बताये गये खाते में साइबर कैफे से भेज देता है। इसके बाद न तो पांच लाख आते हैं और ना ही आॅल इंडिया प्रेगनेंट जाॅब कंपनी का फोन अटेंड होता है। यूपी बिहार राजस्थान हरियाणा झारखंड पंजाब बंगाल और उड़ीसा सहित कई प्रदेशों के लाखों लोगों से करोड़ों रूपये ठगकर यह कंपनी चुप्पी साध लेती है। जो ठगे गये वे बदनामी और शर्म से ना तो किसी को बताते हैं और ना ही पुलिस के पास शिकायत करने जाते हैं। नवादा का ही कोई आदमी साइबर क्राइम पुलिस के एक कांस्टेबिल को यह जानकारी देता है। वह कांस्टेबिल अपने बड़े अधिकारियों को यह घोटाला बताता है।  पुलिस उस गांव में छापा मारकर 8 लोगों को रंगे हाथ पकड़ लेती है। वहां से मोबाइल सिम चार्जर प्रिंटर और दर्जनों दस्तावेज़ भी बरामद करती है। लेकिन पुलिस के तमाम प्रयास के बावजूद केवल एक शिकायतकर्ता अपनी पहचान गोपनीय रखने की शर्त पर सामने आ सका है। 
कोई गवाह और ठोस सबूत ना मिलने की वजह से पुलिस की जांच अभी अधर मंे लटकी है लेकिन असली सवाल यह है कि क्या लोगों को यह मामूली सी बात भी समझ में नहीं आती कि ऐसे एड निकालकर महिलाओं को खुलेआम प्रेगनेंट करने का आॅफर देना और लाखों रूपये की रकम देना कानूनी समाजी और नैतिक रूप से किसी तरह भी संभव नहीं है? लेकिन लोग हैं कि लालच में आयेदिन किसी ना किसी नये स्कैम मंे लगातार ठगे जाने को तैयार बैठे रहते हैं।      

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 1 February 2024

बजट 2024

आम बजट: पूंजीवाद मंे आर्थिक असमानता बढ़ना स्वाभाविक है ?
 _0 गोदी मीडिया मोदी सरकार और संघ परिवार लगातार यह प्रचार कर रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है। इस साल चुनाव होने की वजह से पूर्ण बजट पेश ना कर अंतरिम बजट पास किया जायेगा लेकिन यह भी उसी दिशा में एक और क़दम होगा जिसमें यह सरकार पिछले नौ सालों से चलती आ रही है। लाख जीडीपी जीएसटी और अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ने का दावा किया जाये लेकिन आंकड़े गवाह है कि देश की कुल आय का 57 प्रतिशत 10 प्रतिशत लोगों के पास है। उसमें भी 22 प्रतिशत आय अकेले 1 प्रतिशत के पास है। ऐसे ही केवल 7 करोड़ भारतीय ऐसे हैं जिनकी सालाना आमदनी 8 लाख के आसपास है। 81.5 करोड़ लोग सरकार द्वारा दिये जा रहे निशुल्क अनाज पर निर्भर हैं।_    
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*    
      अंतरिम बजट से लोकलुभावन योजनाओं की उम्मीद रखना वैसे तो मुनासिब नहीं था लेकिन परेशान जनता है कि मानो उसका दिल है कि मानता नहीं। नौकरीपेशा को आयकर में कोई छूट नहीं मिली लेकिन कॉरपोरेट को 22 की जगह टैक्स 21% ज़रूर कर दिया गया। ये विरोधाभास ही कहा जायेगा कि इससे रोज़गार बढ़ने की कोई आशा नहीं है। हालांकि कृषि क्षेत्र फसल बीमा योजना और किसान क्रेडिट कार्ड की सीमा को बढ़ाया गया लेकिन इससे शायद ही किसान खुश हो सके? डिजिटल इंडिया और महिला सशक्तिकरण के लिए कई एलान किए गए हैं लेकिन किसी वर्ग के लिए इस बजट में कुछ भी ठोस नज़र नहीं आता है। गोल्डमैन सैक्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत में जिन 7 करोड़ लोगों की आमदनी सालाना 8 लाख के आसपास है। उनकी तादाद 2026 तक 10 करोड़ हो सकती है। लेकिन सवाल यह है कि देश की कुल जनसंख्या में से बाकी बचे 133 करोड़ लोगों की चर्चा चिंता और भलाई की बात क्यों नहीं की जा रही? दरअसल गोल्डमैन सैक्स उन मुट्ठीभर लोगों की चर्चा इसलिये करता है क्योंकि वे बेहद अमीर हैं। ये 7 करोड़ लोग ही आज भारत की समृध््िद उन्नति और प्रगति का प्रतीक बने हुए हैं। ये थोड़े से लोग खूब कमाते हैं, खूब जमकर खर्च करते हैं, यही थोक मंे निवेश भी करते हैं, यही वर्ग दिखवा और फालतू खर्च भी करता है, यही तबका गोल्डमैन सैक्स जैसे अमीरों के बैंक में ग्राहक बनकर जमा कर बचत भी करता है तो ज़ाहिर सी बात है कि बैंक की रिपोर्ट उनकी ही चर्चा करेगी। भारत में प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय 1,70,000 लगभग 70 करोड़ भारतीयों की औसत आय 3,87,000 जबकि सम्पन्न वर्ग की आमदनी 8,40,000 है। आर्थिक असमानता की हालत यह है कि नीचे के 10 से 20 प्रतिशत लोगों की मासिक आमदनी जहां 12000 है वहीं सबसे नीचे जीवन जी रहे 10 प्रतिशत भारतीयों की आय मात्र 6000 तक मानी जाती है। बाकी के 20 से 50 प्रतिशत लोग नीचे के 10 से 20 प्रतिशत वाले कम आय वाले लोगों से मामूली ही बेहतर हालत मेें हैं।
संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों से हिसाब से 22 करोड़ तो नीति आयोग के अनुसार लगभग 16 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से नीचे जीवन गुज़ार रहे हैं। 7 करोड़ बेहद अमीर लोगों द्वारा सफलता का समारोह मनाये जाने पर किसी को एतराज़ नहीं होगा लेकिन सबसे गरीब 22 करोड़ भारतीयों की चिंता कौन करेगा? इस आंकड़े को मनरेगा के तहत रोज़गार की तलाश कर रहे 15 करोड़ लोगों के रजिस्ट्रेशन से भी समझा जा सकता है। जिनको सरकार ने साल में कम से कम 100 दिन का रोज़गार देने का वादा करने के बावजूद मात्र 50 दिन का औसत काम ही दिया है। जिनको रसोई गैस का निशुल्क कनेक्शन दिया गया था। वे साल में चार रिफिल भी नहीं भरवा पा रहे हैं। एक से दो एकड़ भूमि वाले किसान जो 10 करोड़ से अधिक थे, और पीएम किसान योजना में सम्मान निधि पा रहे थे, नवंबर 2023 घटकर 8 करोड़ के आसपास रह गये हैं।       हमारा देश सरकार के दावों के अनुसार 8 से 9 प्रतिशत की स्पीड से नहीं बढ़ रहा है लेकिन अगर हम 7 की जगह 6 प्रतिशत की जीडीपी औसत बढ़त भी बनाये रख सके तो तीन साल बाद 2027 तक जर्मनी और जापान को पीछे छोड़कर विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकते हैं। इसकी वजह यह होगी कि हमारी इकाॅनोमी तब तक 38 तो जापान और जर्मनी की 15 प्रतिशत ही बढे़गी। 
इन आंकड़ों से हम यह आसानी से समझ सकते हैं कि किसी देश की जीडीपी बढ़ने में उसकी सरकार जनसंख्या और दूसरे देशों की मंदी व कम स्पीड और प्रति व्यक्ति आय की क्या भूमिका होती है? हमारे देश में 35 करोड़ लोगों को पूरा पौष्टिक भोजन भी उपलब्ध नहीं है। 81.5 करोड़ नागरिकों को सरकार 5 किलो अनाज देकर जीवन जीने में सहायता करने को मजबूर है। देश की निचली 50 प्रतिशत आबादी की सालाना आमदनी 50 हज़ार रूपये होने के बावजूद वो कुल जीएसटी का 64 प्रतिशत चुका रही है। जबकि सबसे अमीर 10 प्रतिशत इसमें मात्र 3 प्रतिशत भागीदारी कर रहे हैं। जीएसटी हर साल हर माह पहले से अधिक बढ़ने का दावा भी सरकार अपनी उपलब्धि के तौर पर करती है। जबकि जानकार बताते हैं कि इसका बड़ा कारण तेज़ी से बढ़ती महंगाई और नित नये सामान मदों और सेवाओं पर लगाये जाने वाला कर भी है। महंगाई बढ़ाने में खुद सरकार का पेट्रोलियम पदार्थों रसोई गैस और चुनचुनकर उपभोक्ता पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाना या कर की दरें लगातार बढ़ाना भी हैै। जीडीपी प्रोडक्शन का पैमाना माना जाता है। लेकिन यह उपभोग का माप भी है। जब आप कन्ज्यूमर की एक विशाल गिनती लेकर उसे एक मामूली राशि से गुणा करेंगे तो एक बहुत बड़ी संख्या आती है। 
अगर क्रय मूल्य समता यानी पीपीपी के आधार पर देखा जाये तो हमारी यह 2100 अमेरिकी डाॅलर है। जबकि यूके की 49,200 और अमेरिका की 70,000 है। अगर देश के लोग गरीब हैं तो दुनिया में जीडीपी पांचवे तीसरे नंबर पर ही नहीं नंबर एक हो जाने पर भी क्या हासिल होगा? यह एक तरह से भोली सीधी जनता को गुमराह करने का एक राजनीतिक झांसा ही है। सच तो यह है कि मोदी सरकार की नोटबंदी देशबंदी और जीएसटी बिना विशेषज्ञों की सलाह लिये बिना सोचे समझे और जल्दबाज़ी में लागू करने से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहंुचा है जिससे यह वर्तमान में जहां खुद पहंुचने वाली थी उससे भी पीछे रह गयी है। इसके साथ ही यह भी तथ्य है कि जिस देश में शांति भाईचारा समानता निष्पक्षता धर्मनिर्पेक्षता न्याय नहीं होगा वहां शांति नहीं रह सकती और जब शांति नहीं होगी तो ना विदेशी निवेश आयेगा और ना ही स्थानीय स्वदेशी कारोबार से अर्थव्यवस्था बढे़गी। इसलिये ज़रूरी है कि हम सब भारतीय देशहित मंे आपस में मिलजुलकर प्यार अमनचैन और भाईचारे से रहें साथ ही सरकार अधिक अधिक लोगों को रोज़गार उपलब्ध कराये जिससे हर नागरिक आत्मसम्मान के साथ बिना सरकारी सहायता जीवन जी सके।
 (नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।)

Thursday 18 January 2024

संविधान दिवस

संविधान दिवस मनाने से नहीं अमल करने से बचेगा लोकतंत्र!

 _0 कुछ लोगों को लगता है कि साल में एक दिन 26 जनवरी को हम अगर संविधान दिवस मनाते हैं तो इससे हमारे देश में लोकतंत्र सुरक्षित है। एक वर्ग है जिसको लगता है कि चुनाव जीतने या किसी पद पर आसीन होने पर अगर संविधान की शपथ ली है तो देश में गणतंत्र है। अनेक व्यक्तियांे का एक और समूह है जिसको यह खुशफहमी है कि पांच साल में एक बार अगर हम मतदान कर रहे हैं तो देश में जनतंत्र है। लेकिन सच यह है कि जीवंत लोकतंत्र के लिये समान अवसर वाला विपक्ष अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ मीडिया बिना सरकार के दबाव के काम करने वाली स्वतंत्र न्यायपालिका कानून के हिसाब से निष्पक्ष काम करने वाली पुलिस व प्रशासन अनिवार्य हैं। क्या ऐसा है?_    
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
देश स्वतंत्र होने के बाद से ही कांग्रेस लोकतांत्रिक तीरके से सरकार चलाने की बजाये हाईकमान कल्चर की ओर उन्मुख होने लगी थी। जब इंदिरा गांधी पीएम बनी तो यह मनमानी और तेज़ी से बढ़ी और राजीव गांधी के पीएम बनने के बाद तो इस परिपार्टी को पर लग गये। इसके बाद बीच बीच में जब जब जनता पार्टी जनता दल और संयुक्त मोर्चा की विपक्षी सरकारें बनी वे अति लोकतंत्र या कहंे अपने अंतरविरोध के चलते कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। इसके बाद एनडीए और यूपीए की गठबंधन सरकारों का दौर आया लेकिन इनमंे भी सबसे बड़े दल के हाईकमान और आरएसएस का गैर संवैधानिक दख़ल लगातार बना रहा। लेकिन 2014 के बाद जब भाजपा के बहुमत की मोदी सरकार बनी तो कहानी पूरी तरह से संघ और मादी के हाथों लिखी जाने लगी। कहने को आरएसएस स्वयं को सांस्कृतिक यानी गैर राजनीतिक संगठन होने का दावा करता है लेकिन सबको पता है कि आज भाजपा को संघ ही नियंत्रित करता है। 
संविधान कहता है कि हमारा देश संसदीय प्रणाली से चलेगा। संसद में जिसके पास आधे से अधिक सांसद होंगे वे अपना नेता चुनेंगे। इसके बाद राष्ट्रपति उसको पीएम की शपथ दिलायेंगे। लेकिन भाजपा ने चुनाव से पहले ही पीएम पद का दावेदार मोदी को घोषित कर दिया था। यानी उसने संसदीय चुनाव को व्यवहारिक रूप से एक तरह से राष्ट्रपति प्रणाली में बदल दिया। हद यह हो गयी कि पीएम मोदी राज्यों में होने वाले चुनावों में अपनी छवि पर वोट मांगने लगे। जबकि सबको पता होता है कि किसी भी स्टेट में भाजपा के जीतने पर भी मोदी सीएम नहीं बनेंगे। ऐसे ही हमारा संविधान धर्म जाति और क्षेत्र से उूपर उठकर सेकुलर राष्ट्र की बात करता है लेकिन व्यवहार में हम देख रहे हैं कि आज देश में क्या हो रहा है? किस तरह हो रहा है? कैसे केवल विपक्ष गरीब कमज़ोर दलित आदिवासी और अल्पसंख्यकों को टारगेट किया जा रहा है? किस बेशर्मी से मीडिया सरकार की गोद में बैठा है? कैसे कोर्ट चुनाव आयोग सतर्कता आयोग अनुसूचित जाति आयोग मानवधिकार आयोग महिला आयोग अल्पसंख्यक आयोग आयकर विभाग सीबीआई और ईडी जैसी संवैधानिक स्वायत्त संस्थायें सरकार के इशारे पर काम करती नज़र आती हैं? 
सरकार ने विपक्ष के लिये लेविल प्लेयिंग फील्ड ही खत्म कर दी है। वह विपक्ष को गांधी जी के तीन बंदरों में बदलना चाहती है जो देखना बोलना और सुनना बंद कर दे। उसे संसद में बोलने प्रश्न उठाने और सरकार को घेरने का पहले की तरह संवैधानिक अधिकार समान रूप से नहीं देने का आरोप विपक्ष लगातार लगा रहा है। यहां तक कि सरकार का कार्यकाल खत्म होेन जा रहा है लेकिन आज तक विपक्ष का राज्यसभा में डिप्टी चेयरमैन तक नहीं बना है। पक्षपात की हालत यह है कि संसद टीवी विपक्ष के सांसदों को बोलते हुए अकसर दिखाने से परहेज़ करता है। उसका रूख़ सत्ताधरी दल या संसद की इमारत की तरफ ही अधिकतर देखा जाता है। ऐसे ही सरकार ने बिना विपक्ष को विश्वास में लिये बिना सर्वदलीय बैठक बुलाये और बिना संसद में विशेष चर्चा के चार घंटे के नोटिस पर नोट बंदी फिर देशबंदी और आननफानन में जीएसटी लागू कर दिया। 
किसानों के खिलाफ बिना उनसे चर्चा किये तीन कड़े कानून पास कर दिये गये जबकि ज़बरदस्त विरोध के बाद उनको वापस लेना पड़ा। यही वजह थी कि पांच साल में जीएसटी में 129 संशोधन और 741 नई अधिसूचनायें जारी करनी पड़ीं। डाटा प्रोटैक्शन एक्ट मात्र 52 और 67 मिनट की औपचारिक चर्चा के बाद लोकसभा और राज्यसभा से पास कर दिया गया जबकि इन पर क्रमशः 9 और 7 सांसद ही चर्चा में हिस्सा ले पाये। इसी तरह तीन अपराधिक कानून जल्दबाजी में संसद में पास कर दिये गये। यह ऐसे समय किया गया जब संसद से 146 विपक्षी सांसद निलंबित थे। ये लगभग 34 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसा लगा मानो सरकार इस मौके का इंतज़ार कर रही थी। इस मामले में वरिष्ठ कांग्रेस नेता चिदंबरम के नेतृत्व में बनी संसदीय समिति के किसी भी सुझाव या आपत्ति पर सरकार ने कान नहीं दिये।   
ऐसे ही ड्राइवरों के खिलाफ हिट एंड रन को लेकर बेहद खतरनाक कानून बना दिया गया जो उनकी बार बार बात सुने जाने की मांग को नकारने से आंदोलन के बाद सरकार को घुटने टेकने पड़े। संविधान से चलने वाले किसी लोकतांत्रिक देश में ऐसे मनमाने तानाशाह और एकतरफा कानून कैसे पास किये जा सकते हैं? प्रिजन स्टेटिक्स आॅफ इंडिया रिपोर्ट 2021 बताती है कि जेलों में बंद कुल लोगों में 77 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं। विपक्षी राज्यों सरकारों के विध्ेायक राज्यपाल पास नहीं करते हैं। केरल और पंजाब सरकारें इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ने को मजबूर हैं। विपक्षी सरकारें गिराकर भाजपा के समर्थन या उसकी अपनी बनी सरकारों के स्पीकर दलबदल कानून पर सालों तक कोई निर्णय ही नहीं देते हैं। 2014 से पहले किसी भी नये कानून पर जनता से पब्लिक डोमेन में आपत्ति विचार और सुझाव मांगे जाते थे। वह सिलसिला भी अब बंद सा हो गया है।  पहले 72 प्रतिशत विध्ेायक संसदीय समिति के पास विचार के लिये भेजे जाते थे। 
अब मात्र 16 प्रतिशत कानूनों के मामले में ही ऐसा होता है। उसमें भी अधिकांश में मोदी सरकार उन सुझावों को अनदेखा कर देती है क्योंकि ऐसी संसदीय समिति में विपक्ष भी शामिल होता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त किये गये राजद्रोह कानून को खत्म कर बैकडोर से उससे भी खतरनाक देशद्रोह कानून लाया गया है। देश को पुलिस स्टेट बनाने के विपक्ष के आरोपों के बीच पुलिस को किसी को भी हिरासत में लेकर 15 दिन की बजाये 90 दिन तक कस्टडी में रखने का अधिकार दिया जा रहा है। लेख लंबा हो रहा है वर्ना यहां ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे ऐसा लगता है कि सरकार संविधान को पवित्र ग्रंथ मानकर उसको सम्मान का  दिखावा अधिक कर रही है जबकि उस पर अमल नहीं हुआ तो हमारा लोकतंत्र कमज़ोर होता जायेगा।      

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 11 January 2024

ईवीएम/वीवीपेट

इवीएम पर विपक्ष की आशंकायें दूर क्यों नहीं करता चुनाव आयोग? 
 _0 किसी भी देश में लोकतंत्र के लिये चुनाव होना अनिवार्य है। साथ ही चुनाव की निष्पक्षता और सबको समान अवसर उपलब्ध कराना भी चुनाव आयोग की ज़िम्मेदारी होती है। इतना ही नहीं चुनाव की निष्पक्षता पारदर्शिता और विश्वसनीयता बनाये रखना सरकार का संवैधानिक उत्तरदायित्व है। लेकिन जिस मनमाने ढंग से पिछले दिनों सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को चुनाव आयुक्त चुनने वाली कमैटी से बाहर कर उनकी जगह एक वरिष्ठ मंत्री मनोनीत करने का कानून बनाया जिसमें पीएम और विपक्ष का नेता दूसरे दो सदस्य होते हैं, उससे यह प्रक्रिया शक के दायरे में आ गयी है। इसके साथ ही विपक्ष जिस तरह से इवीएम पर बार बार उंगली उठा रहा है, वह भी हमारे संविधान लोकतंत्र और चुनाव आयोग की ईमानदारी के लिये चिंता का विषय है।_    
    *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
     चुनाव आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार को पिछले दिनों इंडिया घटक के सबसे बड़े दल कांगे्रस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक पत्र लिखकर इवीएम और वीवीपेट पर चर्चा के लिये समय मांगा था। लेकिन चुनाव आयोग ने उनकी बात सुनकर चुनाव व्यवस्था में कोई आमूलचूल परिवर्तन तो दूर की बात है। उनको अपने विचार रखने का अवसर तक देना गवाराह नहीं किया। दरअसल इंडिया गठबंधन सभी इवीएम का सौ प्रतिशत वीवीपेट से मिलान की व्यवस्था चाहता है। वीवीपेट यानी वोटर वेरिफियेबिल पेपर आॅडिट ट्रायल वो सिस्टम है जिसमें मतदाता जब अपना वोट इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में बटन दबाकर डालता है तो पास में रखी एक अन्य मशीन वीवीपेट में यह दिखता है कि वोटर ने अपना वोट जिस प्रत्याशी को कास्ट किया वह उसी को गया। इवीएम को लेकर आज इंडिया विपक्ष या कांग्रेस ही नहीं एक समय था जब खुद भाजपा भी संदेह जताती थी। 
आईटी से जुड़े उसके वरिष्ठ नेता नरसिम्हा ने तो इवीएम के खिलाफ बाकायदा लंबा अभियान चलाते हुए एक किताब तक लिख दी थी। इवीएम में गड़बड़ी होती है या नहीं इस बारे में तब तक कोई दावे से नहीं कह सकता जब तक कि इस आरोप को सही साबित नहीं कर दिया जाता। हालांकि जानकार दावा करते हैं कि जिस मशीन या चिप को नेट से नहीं जोड़ा गया है उसको हैक नहीं किया जा सकता लेकिन तकनीकी विशेषज्ञ इस मुद्दे पर अलग अलग राय रखते हैं कि किसी भी इलैक्ट्राॅनिक डिवाइस को इस तरह से सेट किया जा सकता है कि उसमें पड़ेे वोट इधर से उधर कर दिये जायें। अमेरिका इंग्लैंड और कई यूरूपीय देशों सहित यही वजह है कि विदेशों में चुनाव वापस बैलेट पेपर से कराये जाने लगे हैं। हालांकि इससे यह साबित नहीं होता कि इवीएम में गड़बड़ी हो रही थी लेकिन इतना ज़रूर है कि उन देशों ने अपनी जनता और सभी दलों को विश्वास में लेने और चुनाव की विश्वसनीयता बहाल करने को यह कदम उठाया है। इंडिया गठबंधन भी चुनाव आयोग से यही चाहता था कि वह वोटों की गिनती इवीएम में पूरी होने के बाद सौ प्रतिशत वीवीपेट का मिलान उसकी पर्ची गिनकर इवीएम से कराये। लेकिन चुनाव आयोग ने इस बारे में केवल एक जवाबी पत्र लिखकर अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है। लेकिन इससे इवीएम पर शक और भी गहरा गया है। उधर दिल्ली में जंतर मंतर पर सुप्रीम कोर्ट के कुछ वकीलों और समाजसेवियों ने एक इवीएम और वीवीपेट का प्रदर्शन करते हुए यह आरोप लगाया है कि इसमें गड़बड़ी संभव है। उन्होंने बाकायदा इवीएम में वोट डालकर यह दिखाया कि वोट किसी और को किया गया और वह किसी और चुनाव चिन्ह पर गया। उनका यह भी दावा है कि पहले वीवीपेट में दिये गये वोट की पर्ची 15 सेकंड तक दिखती थी लेकिन अब वह केवल 7 सेकंड ही दिखती है। उनका यह भी कहना है कि पहले वीवीपेट का शीशा सफेद पारदर्शी था जो अब बदलकर काला कर दिया गया है। पर्ची देखने के लिये वीवीपेट में लाइट जलती है। उनका दावा है कि ये सारे परिवर्तन चुनाव में धांधली करने का शक पैदा करते हैं। इनकी यह सब विवादित बातें भी चुनाव आयोग ने नकार दी है। लेकिन यह गड़बड़ी नहीं हो सकती या बदलाव क्यों किये गये इसका सार्वजनिक रूप से आयोग ने कोई स्पश्टीकरण देना ज़रूरी नहीं समझा। अगर इवीएम का इतिहास देखें तो यह बहुत पुराना नहीं है। 2010 में वीवीपेट का विचार पहली बार सामने आया। उस समय चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों के साथ बैठक कर चुनाव को अधिक पारदर्शी बनाने को विचार विमर्श किया था। वीवीपेट को पहली बार नागालैंड की नोकसेन विधानसभा क्षेत्र के चुनाव में 2013 में प्रयोग किया गया। इसके बाद अन्य क्षेत्रों में इसे चरणबध्द तरीके से इस्तेमाल कर बढ़ाते हुए 2019 के आम चुनाव में सभी बूथों पर लगाया गया। इवीएम की विश्वसनीयता को लेकर बार बार उठने वाले विवाद पर चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में 2018 में अपना जवाब दाखिल करते हुए दावा किया कि उसने भारतीय सांखिकीय संस्थान से इसका गणितीय व्यवहारिक और सटीकता का आंतरिक आॅडिट कराया है जिसमें यह पूरी तरह सही साबित हुयी है। इसके बावजूद विभिन्न राजनीतिक दल आयोग से वीवीपेट का 10 से लेकर 100 प्रतिशत ईवीएम से मिलान की अपनी पुरानी मांग पर कायम रहे। फरवरी 2018 में चुनाव आयोग ने विपक्ष द्वारा भारी विरोध करने पर वोटों की गिनती के बाद एक विधानसभा क्षेत्र से पर्ची डालकर आये नंबर की बूथ वाली केवल एक वीवीपेट का मिलान उसके साथ लगी इवीएम से कराने की व्यवस्था शुरू की। विपक्षी नेता चन्द्रबाबू नायडू द्वारा सुप्रीम कोर्ट मंे इसके खिलाफ जनहित याचिका दायर करने के बाद सबसे बड़ी अदालत ने एक की जगह पांच बूथ की वीवीपेट का मिलान इवीएम के साथ ज़रूरी कर दिया। लेकिन विपक्ष इससे भी संतुष्ट नहीं हो सका। उधर चुनाव आयोग ने विपक्ष के बढ़ते दबाव को देखते हुए मार्च 2019 में इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टिट्यूट   से अपने स्तर पर मतदान के बाद 479 इवीएम का मिलान वीवीपेट से कराने पर पूरी तरह ठीक पाये जाने का दावा किया। लेकिन यह काम गोपनीय तरीके से केवल चुनाव आयोग की निगरानी में विपक्ष की गैर मौजूदगी में होने से विरोधी दल अपने विरोध पर अडिग रहे। इससे पहले एक बार चुनाव आयोग ने इवीएम पर शक करने वाले विपक्षी दलों को सार्वजनिक रूप से इवीएम को हैक करके दिखाने की चुनौती देते हुए इवीएम भी उनके सामने पेश की थी लेकिन उनको इवीएम छूने नहीं दी थी जिससे वे अपने आरोपों को सही साबित नहीं कर सके और आयोग की इस बैठक का बहिष्कार कर आये थे। चुनाव आयोग सारे वीवीपेट का मिलान सभी इवीएम से कराने की विपक्ष की मांग का तरह तरह के बहाने बनाकर जब जब टालमटोल करता है। तब तब इवीएम पर शक के बादल और गहरे मंडराने लगते हैं। अभी भी चुनाव आयोग विपक्ष की मांग का कोई तार्किक वाजिब या प्रमाणिक जवाब ना देकर यह दावा कर रहा है कि उसने अब तक रेंडमली 38156 वीवीपेट का मिलान इवीएम से खुद कराया है जिसमें गिनती समान और बिल्कुल ठीक पायी है। यही बात आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में अपना पक्ष रखते हुए कही थी कि उसने भारतीय संखिकीय संस्थान से 4000 से अधिक विधानसभा क्षेत्रों के चुनाव की 20600 वीवीपेट का मिलान आज तक कराया जिसमें से एक में भी गिनती का अंतर नहीं आया है। चुनाव आयोग अपने बचाव में एक बात और बार बार दोहराता है कि बैलेट पेपर से चुनाव या फिर शत प्रतिशत वीवीपेट का मिलान इवीएम से कराने पर बहुत अधिक समय और कर्मचारियों की आवश्यकता होगी। लेकिन यहां वह यह भूल जाता है कि आज भी वोट डाले जाने के बाद कई राज्यों में वोटों की गिनती एक एक माह बाद होती है। जिससे चुनाव परिणाम आने में दो चार दिन अगर और अधिक लग जायें या और कर्मचारी लगाने पड़ जायें तो इससे कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा बल्कि चुनाव की निष्पक्षता ईमानदारी और विश्वसनीयता बहाल होगी जो सबसे ज़रूरी है।     
*नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Friday 5 January 2024

हिट एंड रन कानून

*हिट एंड रन कानून पर तक़रार, आखि़र क्यों झुकी सरकार ?* 
 _0 आमतौर पर यह माना जाता है कि मोदी सरकार एक बार कोई फैसला कर ले तो वह फिर झुकती नहीं। लेकिन पहले किसानों को लेकर बने तीन कानून वापस लेने और अब ड्राइवरों को लेकर बने नये हिट एंड रन कानून के विरोध के बाद हुयी देशव्यापी हड़ताल के सामने सरकार को एक बार फिर झुकना पड़ा है। हालांकि यह लोकतंत्र के लिये अच्छा ही हैै। लेकिन सवाल यह है कि जब दिसंबर के अंतिम सप्ताह में आॅल इंडिया मोटर ट्रांस्पोर्ट कांग्रेस ने सरकार से इस विवादित कानून के बारे में विरोध दर्ज करते हुए बातचीत की पेशकश की तो सरकार ने उसको कोई भाव नहीं दिया लेकिन जब मामला आंदोलन की शक्ल मंें सड़कों पर आया तो सरकार तभी क्यों झुकी?_      
   *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
     बुलंदी पर उन्हें मिट्टी की खुश्बू तक नहीं आती,
    ये वो शाखें़ हैं जिनको अब शजर अच्छा नहीं लगता।
          ट्रक व टैंकर चालकों के तीन दिन के देशव्यापी विरोध प्रदर्शन ने हाहाकार मचा दिया और सरकार नये बने हिट एंड रन कानून को लागू ना करने पर फिलहाल राज़ी हो गयी। एक बार फिर यह साबित हो गया कि यह सरकार भी झुकती है लेकिन झुकाने वाले चाहिये। हालांकि हिट एंड रन यानी मारो और भाग जाओ कानून मंे सतही तौर पर देखने में कोई बुराई नज़र नहीं आती लेकिन ड्राइवरों के पक्ष को सुना जाये तो उनकी आशंका डर और आपत्ति में भी दम नज़र आता है। आमतौर पर यही देखा जाता है कि जब भी रोड पर कोई एक्सीडेंट होता है तो सबसे पहले ड्राइवर और वह भी बड़े वाहन के चालक को कसूरवार मानकर चला जाता है। यही वजह है कि वहां मौजूद भीड़ बिना सच असली वजह और गल्ती जाने मौके पर ही ड्राइवर को पीटना शुरू कर देती है। अगर दो चालकों का आमने सामने का हादसा हो तो बड़े वाहन के चालक को यह मानकर पीटा जाता है कि उसी की गल्ती रही होगी। हालत यह है कि पुलिस भी अपनी जांच को इसी धारणा से आगे बढ़ाती है कि पैदल यात्री घायल या मरा है तो वाहन वाले की गल्ती ही होगी। जबकि कई बार खुद पैदल चलने वाला या छोटे वाहन वाला भी भूल से बड़े वाहन के सामने गलत साइड से ओवरटेक करता हुआ सड़क खराब होने या तकनीकी कमी से आ जाता है। यह भी होता है कि टक्कर मारने वाले वाहन के अचानक ब्रेक फेल होना पहिया निकल जाना टायर फट जाना ब्रेक की जगह धोखे से एक्सीलेटर दब जाना चालक को नींद का झोंका आ जाना बेहोश हो जाना हार्टअटैक या ब्रेन स्ट्रोक हो जाना कोहरा आने से दिखाई ना देना सड़क में गड्ढा या स्पीड ब्रेकर और सामने बच्चा या जानवर आ जाते हैं। पहले हिट एंड रन मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 304 ए , 338 और 279 का इस्तेमाल होता रहा है। इसमें दो साल की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है। इसके साथ ही मोटर वाहन अधिनियम 1988 की धारा 161 व 134 ए बी भी हिट एंड रन केस में प्रयोग की जाती रही है। इसमें लापरवाही से वाहन चलाते हुए किसी को मार देने पर 25000 और घायल को 12500 रूपये हर्जाना देने का प्रावधान है। अब तक समस्या यह आ रही थी कि लापरवाही से एक्सीडेंट करने वाला चालक मौके से भाग जाता था। इससे घायल को उपचार ना मिलने से उसकी जान जाने का ख़तरा भी बढ़ जाता है। साथ ही सुनसान जगह या रात का समय होने की वजह से अधिकांश हादसों में आरोपी चालक के खिलाफ गवाह और सबूत भी नहीं मिल पाते हैं। हालांकि जहां लोग एक्सीडेंट के प्रत्क्षदर्शी होते भी हैं वे घायलों को बचाने  चिकित्सा दिलाने या उनके परिवार को सूचित करने मंे तो सहायत करते हैं लेकिन घटना का गवाह बनना वे पसंद नहीं करते। अलबत्ता कभी कभी आसपास के लोग एक्सीडेंट करके भाग जाने वाले की गाड़ी का नंबर या दुर्घटना की सूचना पुलिस को दे देते हैं। लेकिन वे भी इस बात से डरे रहते हैं कि उनको मानवता संवेदनशीलता और सामाजिकता की कीमत कहीं लंबे कानूनी मामलों में फंसकर ना चुकानी पड़ जाये। हर सड़क या गली मुहल्ले में तो छोड़ दीजिये नेशनल हाईवे पर भी सब जगह कैमरे नहीं लगे होते जिससे एक्सीडेंट करने वाले चालक व उसके वाहन को हिट एंड रन के बाद आराम से तलाश किया जा सके। सूचना देने पर कई बार पुलिस और एंबुलैंस भी घंटो तक नहीं आती। इतनी अधिक देर होने का अनुचित लाभ आरोपी वाहन चालक उठाकर दूर निकल जाता है। नये कानून में एक और पंेच है कि हम केवल सड़क पर चलने वाले वाहन चालकों से यह आशा कर रहे हैं कि अगर उसके पास दो विकल्प हैं कि या तो वह मौके से भाग जाये जिससे उसको सज़ा ना मिले या फिर वह घायल को इलाज दिलाने के लिये अस्पताल ले जाये और खुद अपने खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने को पुलिस को एक्सीडेंट की ख़बर करे तो वह वही विकल्प चुनेगा जिसमें वह अधिक सुरक्षित महसूस करेगा। रहा ख़बर खुद देने पर उसको कम सज़ा देने का मामला तो यह अदालत के विवेक पर निर्भर करेगा। कानून में ऐसी कोई स्पश्ट गारंटी नहीं है जिससे उसको पुलिस को सूचना देने और घायल को इलाज दिलाने पर कम सज़ा हर हाल में मिलना तय हो। दूसरी बात जब चालक को भागने पर बच जाने का अधिक भरोसा हो तो वह किसी की जान बचाने को क्यों अपनी जान ख़तरे में डालेगा? आरोपी को यह भी पता होता है कि हादसे की ख़बर देने पर उसको सौ फीसदी सज़ा मिलना तय है। आरोपी चालको को छोड़कर अगर समाज के दूसरे लोगों की बात करें तो क्या ऐसे मामलों में वे पुलिस को ख़बर देते हैं जिनमें उनको पता होता है कि अगर मामला कानून के दायरे में आया तो उनको भी सज़ा हो सकती है? लोग प्रोपर्टी खरीदने के दौरान स्टांप कम लगाते हैं। इनकम टैक्स जीएसटी चुराते हैं। बिजली चोरी करते हैं। बिना टिकट सरकारी रेल बस सेवाओं में यात्रा करते हैं। हालांकि वे भी ऐसा करके कानून के खिलाफ ही काम कर रहे होते हैं। हमारे कहने का मतलब यह है कि जहां हम जुर्म करके भी कानून से बच सकते हैं। वहां वाहन चालकों का ही नहीं हम सबका यही रूख़ होता है। लेकिन एक्सीडेंट के मामलों में घायलों को मरने के लिये सड़क पर छोड़ देने से उनकी जान जाने का नुकसान इस अपराध को अधिक गंभीर बना देता है। इसका मतलब यह हमारी सामाजिक समस्या भी है। हमारा नैतिक पतन हो चुका है। हम धर्म का बहुत दिखावा करते हैं। लेकिन ऐसे में हम खुद भगवान से भी नहीं डरते। कहने का मतलब यह है कि कानून सख्त करने के साथ समाज में यह जागरूकता नैतिकता और मानवीयता भी लानी होगी जिससे कोई इंसान सज़ा भुगतने के डर से किसी दूसरे की जान को ख़तरे में डालना अपराध के साथ ही पाप अमानवीय अनैतिक और असामाजिक भी समझने लगे। साथ ही पुलिस को भी यह पाठ पढ़ाना होगा कि वह ऐसे मामलों में कानून के हिसाब से निष्पक्ष जांच करे और किसी बेकसूर को ना फंसाकर कसूरवार से फीलगुड कर मामले को दबाना या घुमाना उसको भी विभागीय कार्यवाही की सज़ा दिला सकता है।            
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*