Tuesday 13 December 2016

दिमाग़ की सफ़ाई

*दिमाग की गंदगी कब साफ होगी?*

कुछ लोग वैसे तो साफ सफाई की बहुत बातें करते हैं लेकिन जब दिमागी सफाई की बात आती है तो बगलें झांकने लगते हैं। प्रधानमंत्री मोदी जी ने काफी पहले गांधी जयंती पर सफाई अभियान की शुरूआत की थी। लेकिन देखने में यह आया है कि कुछ दिन अभियान चलने के बाद सफाई का वास्तविक काम आज भी पेंडिंग है। हमें लगता है कि सबसे पहले उन लोगों के दिमाग की सफाई किये जाने की ज़रूरत है। जिनके दिमाग में तमाम ख़राब और नकारात्मक बातें घुसी हुयी हैं। मिसाल के तौर पर किसी आदमी के दिमाग में अगर यह बात बैठी हुयी है कि हर काम सरकार करेगी। तो यह अपने आप में एक बड़ी समस्या है। कुछ लोगों को यह गलतफहमी है कि सत्ता यानी ताकत से सबकुछ किया जा सकता है।

 

उनको अमेरिकी प्रजिडेंट ओबामा का वह बयान पढ़ना चाहिये जिसमें उन्होंने यह माना है कि अफगानिस्तान से तालिबान का खात्मा अमेरिका नहीं कर सकता। हम भी तालिबान और मज़हब के नाम पर हिंसा के खिलाफ हैं। लेकिन यहां ओबामा के इस स्वीकार को याद दिलाने का मकसद केवल इतना है कि कुछ काम ऐसे भी हैं जिनको अमेरिका जैसी दुनिया की महाशक्ति केवल बलपूर्वक यानी हथियारों से अंजाम नहीं दे सकती। कुछ लोगों के दिमाग में नफरत हिंसा साम्प्रदायिकता कट्टरवाद जातिवाद और क्षेत्रवाद की गंदगी भी बड़ी मात्रा में भरी हुयी है।

आज समय आ गया है कि वे लोग हिटलर का हश्र देखकर इतिहास से सबक लें कि वह पूरी दुनिया से यहूदियों को ख़त्म करने का सपना तब भी पूरा नहीं कर सका जबकि उसने 60 लाख यहूदियों के गैस चैंबरों में जबरदस्ती ठूस कर मार डाला। हमारे कहने का मतलब यह भी है कि कुछ लोग आज के दौर में भी अपने घर दुकान का कूड़ा साफ कर उस सड़क पर फैंक देते हैं। जिसपर हज़ारों आदमी चलते हैं। जिन लोगों के दिमाग में यह गंदगी भरी हुयी है कि वे अपने लालच और अपनी पसंद को सब पर किसी भी कीमत पर थोपकर अपनी मनमानी सदा कर सकते हैं। उनको भी संभल जाने की ज़रूरत है।

अगर कोई कालाधन करप्शन और जाली नोटों का कारोबार यह मानकर करता है कि उसको किसी भी तरह से कभी भी पकड़ा नहीं जा सकेगा तो वह मूर्खों के स्वर्ग में रहता है। धीरे धीरे तकनीक हम सबको सुधरने और अपना दिमाग साफ रखने को मजबूर करेगी। आज नहीं तो कल ऐसे तरीके तलाश कर ही लिये जायेंगे। जिनसे इंसान के दिमाग की गंदगी को साफ किया जा सके। यह दिमागी गंदगी नहीं तो और क्या है कि एक आदमी अपने नाजायज़ लाभ के लिये दूसरों की जिंदगी दांव पर लगाता है। यह दिमागी गंदगी ही कही जायेगी कि आप अपना धर्म अपनी सोच अपनी पसंद को सर्वश्रेष्ठ मानकर दूसरों पर थोपने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं।

गर दूसरे भी ऐसा ही करने लगें तो क्या होगा? आज के दौर में जो लोग अंधविश्वासी अंध आस्थावादी विज्ञानविरोधी और प्रगतिशीलता का विरोध करते हैं। वे अपने दिमाग को साफ करने से कब तक बचते रहेंगे। अगर हमारा दिमाग साफ नहीं होगा तो हमारा दिल भी साफ नहीं हो सकता। अगर हमारा दिल और दिमाग़ दोनों हीं गंदे हैं तो हमारा जिस्म तो किसी कीमत पर साफ माना ही नहीं जा सकता। अगर हमारा दिमाग साफ होगा तो उसके बाद जिस्म कपड़े मकान दुकान सड़क और हर चीज़ खुद ब खुद साफ होती जायेगी। इसके लिये ज़रूरत केवल यह स्वीकार करने की है कि हां हमारे दिमागों में सड़कों और नालियों से ज़्यादा गंदगी जमा है। जब तक हम इस दिमागी गंदगी को साफ नहीं करेंगे, कुछ नहीं बदलेगा। ग़ालिब का शेर याद आ रहा है :

*बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना,*
*आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना।*

Monday 12 December 2016

नोटबन्दी से मुस्लिम घाटे में?

नोटबंदी और मुसलमान!

नोटबंदी को लेकर मोदीभक्तों के खुश होने का एक नया कारण सामने आया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जो अंध भक्त फिलिस्तीन में इस्राईल की बमबारी और आये दिन होने वाली गोलीबारी में मासूम मुस्लिम बच्चो के मारे जाने पर एक दूसरे को बधाई देते हुए यह पूछते हैं कि अब तक कितने विकेट  गिरे? उनके इस बात पर खुश होने पर किसी को हैरत नहीं होनी चाहिये कि वे कट्टर हिंदुओं को यह समझाकर खुश करने की नाकाम कोशिश  कर रहे हैं कि इससे सूद के कारण बैंकों से दूर रहने वाले मुसलमानोें का ज़्यादा नुकसान हुआ है। हालांकि मोदीभक्तों को अभी तक अपनी अंधश्रध्दा के कारण देश की अर्थव्यवस्था को होने वाला अब तक का लाखों करोड़ का नुकसान दिखाई नहीं दे रहा है।

    

उनको भाजपा का अब तक कट्टर समर्थक रहा वो व्यापारी वर्ग भी नाराज़ होता नहीं दिख पा रहा है जो अपने खूद पसीने से कमाया करोड़ो अरबों का धन मात्र 30 फीसदी कर न देने से बाकी का 70 फीसदी भी कालाधन बनते असहाय होकर देख रहा है। यह ठीक है कि मुसलमानों का एक हिस्सा ब्याज से बचने के लिये बैंक में खाते खोलने को बुरा मानता है। लेकिन अगर आप इस मामले में सर्वे करेंगे तो पायेंगे कि मोदी जी के प्रधानमंत्री जनधन खातों में अनुपात के हिसाब से मुसलमानों का बड़ा हिस्सा था। ऐसे ही जब से सरकारी योजनाओं का लाभ बैंक खातों के ज़रिये मिलना शुरू हुआ है। मुसलमानों ने राशन कार्ड आधार कार्ड और वोटर कार्ड की तरह ही बहुत बड़े पैमाने पर बैंकों में खाते खुलवाये हैं।

    

इसके साथ ही उनके बच्चे तेजी से स्कूलों में जा रहे हैं। जहां अब लगभग सभी कक्षाओं के बच्चो को स्कॉलरशिप बैंक खातों के द्वारा ही मिलने लगी है। मुसलमान जो गरीब मज़दूर और बेरोज़गार अधिक रहा है। आजकल मनरेगा में काम मिलने की वजह से बैंक में खाते खालने को न चाहते हुए भी मजबूर हुआ है। ऐसे ही निजी और सरकारी क्षेत्र में नौकरी करने वाले और कारोबारी मुसलमानों के पहले से ही न केवल बैंकों में खाते मौजूद हैं बल्कि उनको अपने जमा प्रोविडेंट फंड पर ब्याज लेने में भी कोई परेशानी नहीं  होती। मुस्लिम शिक्षित समाज जैसे शिक्षक वकील पत्रकार और डाक्टर आदि पहले से ही बैंको में लेनदेन करता रहा है।

   

पता नहीं मोदीभक्त कौन सी दुनिया में जी रहे हैं। उनको शायद यह भी नहीं पता कि देश की आबादी 132 करोड़ से अधिक हो चुकी है। इसमें से केवल 42 करोड़ के बैंक खाते हैं। भक्तों से पूछा जा सकता है कि क्या शेष 90 करोड़ लोग मुसलमान हैं? आप सर्वे करा लीजिये यह बैंक खाता होने न होने का मामला धर्म से जुड़ा है ही नहीं। दरअसल भक्त इस बात से परेशान हैं कि मोदी जी ने जो नोटबंदी के समय 8 नवंबर को बड़े बड़े दावे किये थे। उनमें से अधिकांश झूठे साबित होते जा रहे हैं। आम आदमी का सवाल है कि जब नोटबंदी से कालाधन जाली नोट और करप्शन ख़त्म नहीं हुआ तो उसको क्यों इतना तबाह और बरबाद कर दिया गया?

   

इन सवालों का जवाब भक्त तो क्या देंगे खुद उनके आका मोदी जी के पास भी शायद नहीं है। अब मोदी जी और उनके अंधसमर्थक एक ही राग अलाप रहे हैं कि नोटबंदी का फायदा दीर्घकाल में होगा। अब यह कोई नहीं बता रहा है कि यह दीर्घकाल 50 दिन का है? तीन या छह माह का है? या 5 से 10 साल का है? संघ परिवार का यह पुराना फंडा रहा है कि जब भी अपने दावों मेें नाकाम रहो चर्चा का रूख़ साम्प्रदायिक मुद्दे की तरफ मोड़ दो। विपक्ष में रहकर इस तरह से भाजपा मोदी और उनके भक्त कांग्रेस सपा और कम्युनिस्टों की यानी क्षेत्रीय दलों की सेकुलर सरकारों को अब तक घेरने में सफल भी रहे हैं। लेकिन आज मोदी खुद सवालों के घेरे में हैं। अगर उनको भरोसा है कि नोटबंदी से उनको जनता का अपार समर्थन मिल रहा है। तो वे यूपी चुनाव का वेट करें।  

Saturday 3 December 2016

मोदीभक्त

मोदीभक्त, विरोधी और तटस्थ!

अजीब बात यह है कि जिस भाजपा गठबंधन को देश के मतदाताओं के मात्र 31 प्रतिशत वोट मिले हैं। वह उस विपक्ष को देश विरोधी और गद्दार बता रहा है। जिसको जनता के 69 प्रतिशत मतों का समर्थन मिला है।    

 

जब से मोदी देश के पीएम बने हैं। ऐसा लगता है पूरा देश तीन वर्गों में बंट गया है। एक वर्ग मोदी का समर्थक ही नहीं अंधभक्त बन गया है। दूसरा वर्ग मोदी का विरोधी ही नहीं कट्टर विरोधी हो गया है। तीसरा वर्ग काफी हद तक निष्पक्ष ईमानदार यानी तटस्थ रहकर गुण दोष के आधार पर समर्थन और विरोध करता है। हालांकि एक बार पहले भी देश में भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बन चुकी है। तब कभी भी ऐसा माहौल नहीं था कि आपको अटल जी या उनकी सरकार के हर फैसले का समर्थन करना ही होगा नहीं तो आप देश विरोधी और देशद्रोही ठहराये जाओगे। आज हालात ऐसा बना दिये गये हैं कि अगर कोई मोदी सरकार के किसी फैसले का विरोध करता है तो झट उसको ग़द्दार का तमगा दे दिया जाता है।

 

अगर वो मुसलमान हो तो उसको पाकिस्तान जाने की सलाह दी जाती है। अगर वो कम्युनिस्ट हो तो उसको चीन में बसने का प्रस्ताव दिया जाता है। सबको पता है कि लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष दोनों साथ मिलकर काम करते हैं। लेकिन जब से मोदी सरकार का नोटबंदी का फैसला आया है। तब से भाजपा नेता इस फैसले को लागू करने का विरोध करने वाले विपक्ष तक को कालेधन वाला और देश विरोधी साबित करने पर तुले हैं। इससे पहले कभी विपक्ष के विरोध के लिये उसको इस तरह से किसी सरकार ने देश विरोधी नहीं ठहराया था। अजीब बात यह है कि जिस भाजपा गठबंधन को देश के मतदाताओं के मात्र 31 प्रतिशत वोट मिले हैं।

 

वह उस विपक्ष को देश विरोधी और गद्दार बता रहा है। जिसको जनता के 69 प्रतिशत मतों का समर्थन मिला है। यह अलग बात है कि विपक्ष अलग अलग मुद्दों और क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने से बंटा हुआ है। ऐसे ही जो मीडिया या निष्पक्ष ईमानदार विचारक मोदी सरकार के नोटबंदी या अन्य किसी फैसले का तर्कसंगत तथ्यात्मक और प्रमाण सहित भी विरोध करते हैं। उनको संघ परिवार या तो गरियाने लगता है। या फिर उनको सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तो गालियों से लेकर धमकियों से नवाज़ा जाता है। यहां तक कि मोदी सरकार और संघ से कुछ असहमत लोगों को तो कभी कभी हिंसक हमलों का भी सामना करना पड़ता है। नोटबंदी के मामले में ममता बनर्जी और केजरीवाल जिस तरह से बढ़ चढ़कर विरोध कर रहे हैं।

 

उनपर अब व्यक्तिगत कीचड़ भी उछाला जाने लगा है। ऐसे ही मायावती और अखिलेश यादव के नोटबंदी के लागू करने के तरीके के विरोध करने पर सीधे सीधे उनको कालेधन वालों का न केवल समर्थक बताया जा रहा है बल्कि यहां तक दावा किया जा रहा है कि इनके पास आने वाले यूपी चुनाव में चुनाव लड़ने का जो अकूत दौलत पुराने नोटों में अवैध रूप से जमा की गयी थी। ये दोनों इस नुकसान की वजह से शोर मचा रहे हैं।

   

सोचने वाली बात है कि खुद भाजपा ने 2014 का लोकसभा चुनाव 10 हज़ार करोड़ से अधिक धन खर्च जीता था। क्या यह बात किसी से छिपी हुयी है कि वह धन चैक या नंबर एक के तरीके से नहीं आया था। अभी भी भाजपा सहित सारे दल अपने चंदे का 80 प्रतिशत 20,000 रू. से कम  वाला बताते हैं। जिसका कोई नाम पता रिकॉर्ड पर नहीं होता है। इसी लिये सारे दल आरटीआई के दायरे में भी नहीं आना चाहते। भाजपा को यह कहावत याद रखनी चाहिये कि जिनके खुद के घर शीशे के होते हैं। वो दूसरों पर पत्थर नहीं उछाला करते।        

 

दूसरों पर जब तब्सरा किया कीजिये

आईना सामने रख लिया कीजिये।।

Thursday 1 December 2016

नोटबन्दी पर लाजवाब मोदी

तर्कहीन मोदी रो ही सकते हैं! 
पीएम मोदी नोटबंदी पर चारों तरफ से घिरे नज़र आ रहे हैं। संसद का सत्र चालू होने के बावजूद वे संसद का सामना नहीं कर पा रहे। जबकि बाहर वे बोलने और फालतू बोलने का कोई मौका छोड़ते नहीं। विपक्ष अब उन पर पूरी तरह से हावी हो चुका है। खासतौर पर ममता केजरीवाल और मायावती ने उनको लाजवाब कर दिया है। देश में अपने इस कदम का 90 प्रतिशत समर्थन होने के दावे के बावजूद मोदी संसद में मतदान के नियम के तहत इस मुद्दे पर चर्चा कराने से डर गये हैं। उनको यह भय भी सता रहा है कि उनको काले धन वाले इस कदम से नाराज़ होकर कोई नुकसान न पहंुचा दें। उनके पास इस मामले में अपनी सफाई देने के लिये कोई ठोस तर्क बाकी नहीं रह गया है।        यही वजह है कि वे अपने कई भाषणों में भावुक होकर रो देते हैं। अब तक घरों में रोने को महिलाओं का आखि़री हथियार माना जाता रहा है। आजकल मोदी इस हथियार का आंसू बहाकर बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। सच तो यह है कि तानाशाही वनमैन शो या अहंकार की वजह से उन्होंने अपने इस फैसले में गोपनीयता के बहाने किसी को शरीक ही नहीं किया था। बाहर से भले ही आरबीआई उनकी कैबिनेट और सहयोगी दल मोदी के इस मनमाने निर्णय के साथ खुद को दिखा रहे हों। लेकिन आज की वास्तविकता यही है कि मोदी को सबने इस मुद्दे पर जवाब देने को अकेला छोड़ दिया है। आडवाणी जोशी और सिन्हा जैसे बीजेपी के सीनियर लीडर अंदर अंदर काफी खुश होंगे कि चलो हमें किनारे करने का सबक मोदी को मिल गया।        वे सोच रहे होंगे कि अब उूंट पहाड़ के नीचे आया है। पूर्व आरएसएस नेता गोविंदाचार्य मुंहफट और विवादित बीजेपी सांसद सुब्रहमण्यम स्वामी पूर्व मंत्री और वरिष्ठ पत्रकार अरूण शौरी फिल्म अभिनेता शत्रुघन सिन्हा  और एनडीए की मुख्य सहयोगी शिवसेना तक ने इस मुद्दे पर मोदी को जमकर खरी खोटी सुनाई है। अब तक तटस्थ या पर्दे के पीछे से एनडीए के साथ रहने वाली अन्नाद्रमुक भी इस मामले में मोदी के खिलाफ मुखर हो गयी है। हालत इतनी खराब है कि भाजपा सरकार के लिये अकसर नरम रहने वाले नवीन पटनायक नीतीश कुमार और मुलायम सिंह को भी आम जनता के बढ़ते गुस्से बेरोज़गारी और अराजकता के कारण कालेधन के खिलाफ होने की सफाई देते हुए नोटबंदी बिना पूरी तैयारी के करने की खुलकर आलोचना करनी पड़ी है।        ईमानदार और बोल्ड नेता की छवि वाले केजरीवाल और ममता बनर्जी ने तो इस मुद्दे को मोदी सरकार के खिलाफ इतना बड़ा आंदोलन बना दिया है कि कांग्रेस को यह देखकर डर लगने लगा कि कहीं मुख्य विपक्षी नेता की उसकी पदवी ये दोनों न छीन लें। सबसे खराब बात यह हो रही है कि मोदी अपनी गल्ती न मानकर सारे विपक्ष को कालेधन का संरक्षक साबित करने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। ऐसा दुस्साहस और कुतर्क मोदी इस सच्चाई और हकीकत के बावजूद कर रहे हैं कि कालेधन से चुनाव लड़ने के मामले में बीजेपी किसी दल से पीछे नहीं है। वे पहली बार जीवन में एमपी बनते ही पीएम बन गये हैं। इसलिये उनको यह बात भी समझ में नहीं आ रही कि लोकतंत्र में विपक्ष को सरकार का विरोध करने का संवैधानिक हक हासिल होता है।       मोदी यह भी भूल रहे हैं कि विपक्ष के पास इस मुद्दे पर खोने को कुछ नहीें है। जबकि मोदी बीजेपी और उनकी सरकार का बहुत कुछ दांव पर लगा है। आजकल तात्कालिक सियासत अधिक काम करती है। फिलहाल तो आम आदमी बेहद परेशान और बेरोज़गारी का शिकार हो चला है। लंबे समय के बाद इस से देश को या जनता को क्या लाभ होगा। यह आम आदमी सुनने को तैयार ही नहीं है। मोदी से भारी चूक हुयी है। वे माने या ना मानें। इसका अंजाम उनको यूपी के चुनाव में साफ दिखाई दे सकता है। अगर मोदी नोटबंदी से मरने वालों के परिवार को मुआवज़ा और गरीबी की रेखा से नीचे वालों को कालेधन से लाभ के तौर पर कुछ नकद दे दें तो बात बन कुछ बन सकती है।