Thursday 26 January 2017

26 जनवरी

*गण का तंत्र कब होगा ?*


26 जनवरी की पूर्व संध्या पर हमारे प्रेसीडेंट प्रणव मुखर्जी परंपरागत भाषण देंगे। इसके बाद विभिन्न राज्यों की झांकियों और हमारी सेना के हथियारों की राजपथ पर परेड होगी। लेकिन कहीं भी देश मंे इस अवसर पर गंभीरता से इस बात पर विचार नहीं होगा कि भारत में गण का तंत्र कब स्थापित होगा? इस बारे में गांधी जी ने आज़ादी मिलने से 25 साल पहले ही यह आशंका जता दी थी कि भारतीयों को कुछ कारणों से वह सिस्टम नहीं मिलेगा जिससे वे खुश हो सकें। बापू को यह अहसास भी था कि लोग शासन प्रशासन से तंग आकर यह कहने लगेंगे कि इससे तो अंग्रेजों का राज ही अच्छा था। उनकी हकूमत में हम गुलाम भले ही थे लेेकिन प्रशासन बेहतर था और पारदर्शिता के साथ न्याय मिलता था।

  

गांधी जी का कहना था कि अन्याय, प्रशासन का बोझ, चुनावों का दोष और अमीरों द्वारा आम आदमी का शोषण बदस्तूर जारी रहेगा। बापू को एक मात्र आशा की किरण धीरे धीरे ही सही शिक्षा का बढ़ता प्रचार प्रसार था। हालांकि एजुकेशन से उनका मतलब केवल डिग्री व कैरियर बनाना नहीं था। वे चाहते थे कि पढ़े लिखे आदमी के हाथ के साथ ही दिमाग और दिल भी खुलने चाहिये। आज हालत यह है कि हमारे देश में विश्व स्तर की स्वास्थ्य सेवायें तो उपलब्ध हो रही हैं। लेकिन इनको आम आदमी की पहंुच तक हम नहीं ले जा सकें हैं। उल्टा विदेशियों को यह अपने देश के खर्च के मुकाबले सस्ती लगती है। हमारे यहां मेडिकल कॉलेज और लॉ कालेज कैसे खुलते हैं?

 

 इन क्षेत्रों के विशेषज्ञ इन कालेजों को कैसे जेब गर्म करके मान्यता देते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है। हालत इतनी ख़राब है कि जनउपयोगी सेवाओं की भी हमारी प्रशासनिक मशीनरी आम आदमी से अच्छी खासी रिश्वत वसूल रही है। मिसाल के तौर पर प्रधनमंत्री की तीन करोड़ गरीब लोगों को निशुल्क गैस कनेक्शन की योजना भी बिना एजेंसी को सुविधा शुल्क चुकाये आगे नहीं बढ़ती है। ऐसे ही सरकारी कर्मचारी और अधिकारी बीपीएल कार्ड बनाने बीमारों का इलाज करने दवा देने मेडिकल बनाने एंबुलैंस उपलब्ध कराने थाने में पीड़ित की रपट दर्ज करने विकलांगों का चिकित्सा प्रमाण पत्र बनाने विधवाओं और वृध्दों की पेंशन बनाने आदि में भी पैसा खाने में ज़रा भी नहीं शर्माते हैं।

 

आज चुनाव और सियासत में कालाधन और मूल्यहीनता का जो दबदबा है। उसके बारे में भी गांधी जी ने पहले ही अनुमान लगा लिया था। हमारे समाज की जातिवादी और लालची सोच को देखकर उन्होंने इसकी चर्चा भी अपने पत्र मेें की थी। उनका मानना था कि जिस दिन आम आदमी सत्ता के दुरूपयोग के खिलाफ आवाज़ उठाने के लायक हो जायेगा। उस दिन भारत का लोकतंत्र परिपक्व होने लगेगा। जब आम भारतीय शासन प्रशासन को अपने हिसाब से चलने को मजबूर करने की हालत में आ जायेगा उस दिन सही मायने में स्वराज आ जायेगा। पिछले दिनों जो नोटबंदी हुयी। उससे जिस कालेधन वाले को सरकार ने सबक सिखाना चाहा था।

 

वह तो अपनी ब्लैकमनी व्हाइट करने में कामयाब हो गया। लेकिन आम जनता जिसका कालेधन में कोई हिस्सा नहीं था। हमारी करप्श्ट मशीनरी की जनविरोधी और अमीर समर्थक कार्यशैली से पिस गया। एक मिसाल है कि कालेकोट सफेद कोट और भूरे कोट से भारत में किसी भी आम आदमी का बिना लुटे पिटे और मरे बचना बहुत कठिन है।

         

*कहां तो तय था चराग़ां हरेक घर के लिये,*

*कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये ।। *

Tuesday 24 January 2017

मुलायम बनाम अखिलेश

*मुलायम अखिलेश का नाटक ?*


यूपी चुनाव का पहला दौर शुरू हो चुका है। लेकिन  अभी तक कुछ लोग यह मानने को तैयार नहीं हैं कि सपा में साइकिल को लेकर मुलायम और अखिलेश में जो रस्साकशी चली वह नाटक नहीं हकीकत थी। शुरू में पत्रकार राहुल कंवल ने ट्वीट कर दावा किया था कि उन्होंने यूपी के सीएम अखिलेश के सलाहकार हावर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर स्टीव जॉर्डिंग का वह ई मेल पकड़ा है। जिसमें उन्होंने राज्य की जनता की सहानुभूति हासिल करने के लिये अखिलेश को सोची समझी रण्नीति के तहत अपने पिता और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के साथ यह ड्रामा करने के लिये बाकायदा प्लान बनाकर दिया था। हालांकि सोशल नेटवर्किंग पर यह ईमेल जारी होते ही स्टीव जॉर्डिंग ने इसका खंडन कर दिया।

 

इसके बावजूद सपा और अखिलेश के विरोधियों ने यह कहकर इस खंडन को मानने से साफ मना कर दिया कि अगर वास्तव यह नाटक है तो स्टीव और अखिलेश इसे स्वीकार कैसे कर सकते हैं? जानकारों का अभी भी दावा है कि मुलायम सिंह राजनीति के मंझे हुए कलाकार हैं। उन्होंने एक तीर से कई शिकार किये हैं। अनुमान और आरोप है कि पहला दांव मुलायम सिंह ने अखिलेश को अपनी जगह सीएम बनाकर चला था। वे तभी जानते थे कि जिसके सर पर सीएम का ताज सजेगा वही कल पार्टी का सुप्रीमो भी बनेगा। वह चाहते तो अपने साथ कदम से कदम मिलाकर आज तक चले आ रहे अपने छोटे भाई शिवपाल को मुख्यमंत्री बना सकते थे।

 

लेकिन उन्होंने शिवपाल को यह कहकर धोखे में रखा कि अखिलेश नाम का ही मुख्यमंत्री रहेगा। जब पार्टी के मुखिया वह रहेंगे तो सरकार उनकी मर्जी के बिना कुछ नहीें कर पायेगी। यह बात साढ़े चार साल तक सही होती भी नज़र आई। लेकिन जब चुनाव करीब आये तो एक सोची समझी चाल के तहत मुलायम सिंह ने अपने बेटे अखिलेश की छवि चमकदार बनाने के साथ उनकी सरकार की कमियों से नज़र हटाने को एक शानदार नाटक करना शुरू कर दिया। मुलायम सिंह एक तरफ अपने भाई शिवपाल को यह भरोसा दिलाते रहे कि अखिलेश उनकी पकड़ से बाहर नहीं जा सकते तो दूसरी तरफ अपने को सियासत का चाणक्य समझने वाले अमर सिंह को भी पहली बार ऐसा गच्चा दिया कि अमर सिंह अभी तक अपने बाल नोच रहे हैं।

 

कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि मुलायम सिंह अगर जीते जी सपा की कमान भी अखिलेश को सौंपते तो शिवपाल विद्रोह कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नाटक रचा जिससे यह लगे कि वह अखिलेश के हाथों मात खा गये। *क्या मुलायम सिंह यह मामूली सी बात नहीं जानते होंगे कि सपा का नाम और चुनाव चिन्ह विवाद होने पर उसी को मिलेगा जिसके साथ सपा के निर्वाचित जनप्रतिनिधि और सपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के आध्ेा से अधिक पार्षद होंगे।* एक बार को यह दलील अगर मान भी ली जाये कि सपा के सांसद और विधायक इसलिये सीएम अखिलेश के पाले में चले गये होंगे क्योेंकि उनको आगे सियासत करनी है। टिकट चाहिये और मंत्री पद भी अखिलेश ही दे सकते हैं।

 

लेकिन सपा के राष्ट्रीय पार्षद बिना किसी सैटिंग के कैसे मुलायम को छोड़कर अखिलेश के साथ चले गये? एक बात और जो शक नहीं नाटक का यकीन दिलाती है। वह यह है कि मुलायम सिंह ने चुनाव आयोग में अखिलेश के 4700 से अधिक शपथ पत्रों के मुकाबले मात्र एक अपना ही शपथ पत्र क्यों दिया? जबकि वह जानते थे कि चुनाव चिन्ह कानून 1971 के तहत बहुमत वाले को पार्टी का नाम व चिन्ह मिलता है?  

Friday 20 January 2017

कश्मीर की ज़ायरा

ज़ायरा दंगल आप ही जीतोगी!

कश्मीर की 16 साल की किशोरी ज़ायरा ने फिलहाल भले ही कट्टरपंथियों के दबाव में बिना गलती की माफी मांग ली हो। लेकिन पूरे देश से जिस तरह उसके साथ लोग खड़े हुए हैं। उससे यह तय है कि कट्टरपंथी बनाम उदारपंथी दंगल में आखि़रकार जीत ज़ायरा जैसे कलाकारों की ही होनी है। अगर ज़ायरा की उम्र समझ और नज़रिये के हिसाब से देखा जाये तो उसने वो ही किया जो उसको कश्मीर के वर्तमान हालात में ठीक लगा। हालांकि ज़ायरा ने अपने पक्ष में उमड़े ज़ोरदार समर्थन के बाद वह माफीनाम फेसबुक वॉल से हटा लिया है। लेकिन इस परिप्रेक्षय को सही संदर्भ में समझने की भी ज़रूरत है। ज़ायरा ने जब दंगल फिल्म में पहलवान का रोल करने का फैसला किया तब कोई विरोध नहीं हुआ।

इसके बाद जब दंगल फिल्म रिलीज़ हुयी और सारी दुनिया में आमिर खान की इस फिल्म की चर्चा और प्रशंसा हुयी तब भी ज़ायरा को किसी ने कश्मीर में बुरा नहीं कहा। लेकिन अचानक जब ज़ायरा कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफती से मिलने पहंुची तो सोशल नेटवर्किंग पर उसकी ट्रॉलिंग शुरू हो गयी। दरअसल कश्मीर मंे आतंकवादी बुरहान वानी के खात्मे के बाद महबूबा की सरकार तेज़ी से अलोकप्रिय हो रही है। हालांकि जब महबूबा के मरहूम पिता मुफती सईद ने भाजपा से गठबंधन करके साझा सरकार बनाई थी। तब से ही कश्मीर का एक बड़ा वर्ग वहां की सरकार से बुरी तरह चिढ़ा हुआ है। लेकिन वह उसको सत्ता से 6 साल से पहले कार्यकाल पूरा किये बिना कुछ करले हटा भी नहीं सकता।

अब इस खीज को निकालने का मौका कट्टरपंथी और आतंकवाद समर्थकों को ज़ायरा की सीएम महबूबा से मुलाकात के बाद मिल गया। हालांकि उन्होंने ज़ायरा को फिल्म में काम करने या ऐसा करके भारत की मुख्यधारा में शामिल होने के आरोप में हमला करने या बहिष्कार करने की धमकी नहीं दी। *लेकिन यह भी सच है कि कश्मीर अब पूरी तरह उन कट्टरपंथियों की तरफ झुक चुका है। जिनको किसी मुस्लिम लेडी का फिल्मों में काम करना तो दूर बिना नकाब या हिजाब के घर से बाहर निकलना भी मंजूर नहीं है। यह ज़्यादा पुरानी बात नहीं है। जब कश्मीर की तीन होनहार लड़कियों के प्रगाश बैंड को इन जैसे कट्टरपंथियों ने डरा धमकाकर बंद करा दिया था।*

यहां तक कि जब इन जैसे रूढ़िवादियों को प्रगाश बैंड की लड़कियों ने कोई भाव नहीं दिया तो इन्होंने उनके खिलाफ फतवा जारी करा दिया। इसके बाद उन लड़कियों के पक्ष में कोई मुसलमान तो जावेद अख़्तर जैसा गीतकार अपवाद के तौर पर ही सामने आया। जहां तक ऐसे मामलों में गैर मुस्लिमों के सपोर्ट का सवाल है। उससे पीड़ित को नैतिक बल तो मिलता है। लेकिन वह कट्टरपंथियों और आतंकवादियों के सामने डटकर खड़ा नहीं हो पाता। आज नतीजा सामने है। प्रगाश बैंड और उन तीन लड़कियों को कोई नहीं जानता कि वे कहां हैं ?

 

शायद उस जैसी घटनाओं से डरकर ही ज़ायरा जैसी कमसिन बच्ची ने वक्त की नज़ाकत समझते हुए बिना गल्ती की माफी मांगने में ही अपनी भलाई समझी होगी। लेकिन इसके साथ ही एक बात और सच है। इतिहास गवाह है कि कट्टरपंथी हांे या आतंकवादी उनकी आज नहीं तो कल इस दंगल में हार होनी है। यह ठीक है कि सब लोग उसूलों आज़ादी और अपने संवैधानिक अधिकारों के लिये अपनी जान दांव पर नहीं लगाया करते। लेकिन यह भी सच है कि प्रगतिशील उदार और आधुनिक वैज्ञानिक सोच के लोग ही आगे चलकर दुनिया में बचेंगे। कट्टरपंथी चाहे जिस देश और धर्म के हों या तो वे बदलेंगे या धीरे धीरे ख़त्म हो जायेंगे। तब तक हमारे आपके पास वेट एंड वाच ही है।

Sunday 8 January 2017

अबु और अब्बा

*अबु बचा पाते ना किसी के अब्बा*

इक़बाल हिन्दुस्तानी  

Gold: 5469

 

अबु आज़मी समाजवादी पार्टी या देश के इतने बड़े नेता नहीं है कि हम उनके लिये अपना ब्लॉग लिखकर समय और कीबोर्ड पर अपनी उंगलियों को ज़हमत देना गवाराह करते। लेकिन यहां सवाल नये साल के स्वागत समारोह के बाद बंगलूर में घटी उस महिला विरोधी सोच का है। जिसका अबु एक तरह से प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। *दरअसल देश में ऐसा काफी बड़ा वर्ग हैै। जिसका मानना है कि महिलाओं के साथ अगर छेड़छाड़ बलात्कार और गुंडागर्दी होती है तो उसके लिये वे ही दोषी होती हैं। यह ठीक उसी तरह की सोच है जिस तरह कुछ मुसलमान अपनी कट्टरता दकियानूसी परंपराओं और फ़तवों की वजह से विकास और उन्नति के हर क्षेत्र मेें पिछड़ने का आरोप अमेरिका इस्राईल और हिंदुओं आदि पर पक्षपात व साज़िश बताकर लगाते रहे हैं।*

 

इस तरह की सोच का सबसे बड़ा नुकसान उन लोगों को ही होता है। सवाल यह है कि अगर कुछ पल को अबु का यह सुझाव मान भी लिया जाये कि हर महिला अपने घर से एक चौकीदार यानी अपने अब्बा भय्या बेटे और खाविंद को लेकर ही निकलेगी तो उनसे पूछा जाना चाहिये कि जहां महिला को छेड़ने वाले बंगलूर की तरह भीड़ के रैले में आयेंगे वहां एक अकेले अब्बा क्या हिफाज़त करेंगे? दूसरी बात क्या ऐसा मुमकिन है कि हर महिला हर समय एक मर्द को साथ लेकर घर से निकले? नहीं यह बिल्कुल भी मुमकिन नहीं है। इसका नतीजा यह होगा कि बिना नियम कानून के ही महिलायें एक बार फिर से घरोें मेें कैद होकर रह जायेंगी।

 

न तो वे पढ़ाई के लिये अकेले जा सकेंगी और न ही नौकरी से लेकर घरेलू काम के लिये उनका बाहर निकलना संभव होगा। दिन छिपने के बाद तो उनको कोई मर्द अपने साथ भी बाज़ार ले जाना पसंद नहीं करेगा। इस तरह से संविधान द्वारा दिये गये उनके बराबरी के हकों का हनन शुरू हो जायेगा। इसी तरह जो अबु आज उन महिलाओं के छोटे कपड़ों को उनसे छेड़छाड़ की वजह बता रहे हैं। उनको यह भी जवाब देना चाहिये कि 70 से 80 साल की बूढ़ी औरतों दुधमंुही नाजुक बच्चियों से लेकर नीचे से उूपर तक साड़ी और हिजाब नकाब से ढकी महिलाओं के साथ आयेदिन बलात्कार क्यों होता है? यहां तक कि अस्पताल में भी महिला रोगी सुरक्षित नहीं हैं।

 

और तो और शर्म और चिंता की बात यह है कि जिन अब्बाओं या पतियों को अबु उनकी लाज का रखवाला बनाकर हर समय परछाई की तरह साथ रखने की बात कर रहे हैं। ऐसे केस आज काफी बड़ी तादाद में सामने आ रहे हैं। जिनमें बच्चियो किशोरियों और लड़कियों की इज़्ज़त लूटने वाले ये भेड़िये घर के अंदर या करीब के रिश्तेदार की शक्ल में  ही मौजूद होते हैं। यहां तक कि उनको पढ़ाने वाला गुरू तक कई बार उनके जिस्म से खेलने लगता है। सवाल यह है कि ऐसा क्यों होता है? हमारा जवाब है कि समाज में नैतिकता और शुचिता नहीं है। इसका एक बड़ा कारण तो यह है ही। लेकिन इससे भी बड़ा कारण यह है कि सबसे पहले लड़की का परिवार उसके साथ हुए अपराध के लिये उल्टा उसी को कसूरवार बताता है।

 

इसके बाद पुलिस अकसर रिपोर्ट दर्ज नहीं करती। इसके बाद दसियों साल तक चलने वाला कोर्ट केस उस पीड़िता से एक बार नहीं अनेक बार रेप करता है। प्रतिवादी वकील उस पीड़िता से जानबूझकर ऐसे सवाल करता है। जिससे अन्य मामलों में पीड़ित महिलायें अदालत जाने से डरती हैं। अबु को यह बात समझ लेनी चाहिये कि भारत को अरब नहीं बनाया जा सकता लेकिन ऐसा सिस्टम ज़रूर बनाया जा सकता है जिससे जल्दी न्याय हो।

Saturday 7 January 2017

आरएसएस से कुमार के 16 सवाल

आरएसएस के लोगो से ये 16 प्रश्न आप कीजिये इनके जवाब ये लोग नही दे पायेगे
उलटा आप को गाली देगे या ब्लॉक करके भाग जायेगे या विरोधियो का फोटोशॉप पोस्ट डालेगे,
(1) आरएसएस ने आज़ादी की लड़ाई क्यों नही लड़ी ?
(2) आरएसएस हिन्दू हित की बात करता है उसकी वेशभुषा विदेशी क्यों है
(3) सुभाषचन्द्र बॉस आज़ाद हिन्द सेना का गठन कर रहे थे तब संघ ने सेना में शामिल होने से हिन्दू युवकों को क्यों रोका
(4) संघ के वीर सावरकर अंग्रेजो से 21 माफ़ी देकर जेल से क्यों छूटे जबकि 436 लोग और थे सेलुलर जेल में,
(5) आरएसएस के पहले अधिवेशन में 1925 में द्विराष्ट्र सिद्धान्त हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र का प्रस्ताव क्यों पारित किया गया जबकि एक तरफ आप लोग अखंड भारत की बात करते है
(6) 1942 में असहयोग आंदोलन का बहिष्कार करता है संघ ऐसा पत्र ब्रिटिश गवर्मेंट को क्यों लिखा अगर ये पत्र न लिखते तो देश 1942 में आज़ाद हो जाता
(7) गांधी जी के हत्या के प्रयास संघ आज़ादी के पूर्व से कर रहा था क्यों ? गांधी जी पर आज़ादी के पूर्व 5 बार संघियों ने हमले किये क्यों
(8) संघ प्रमुख केशव बलिराम हेडगांवकर ने कहा हे हिंदुओ को अपनी ताकत का उपयोग अंगेजो के खिलाफ न करते हुए देश में मुस्लिम क्रिश्चियन और दलितों के खिलाफ करना चाहीये ऐसा क्यों ?
(9) कहते हे दो धार्मिक शक्तिया एक दूसरे के खिलाफ काम करती है तो देश टूटने की कगार पर होता है संघ और मुस्लिम लीग एक दूसरे के विपरीत थी इस कारण देश टुटा में संघ के लोगो से पूछना चाहता हूँ आप तो अखंड भारत की बात करते हो ऐसा क्यों हुआ
(10) आरएसएस हिन्दू हित की बात करती है 1925 से 1947 के बीच ईसाई धर्मान्तरण के खिलाफ कोई आंदोलन क्यों नही चलाया ?
(11) जब देश आज़ाद हुआ 15 अगस्त 1947 को संघ के लोग राष्ट्रध्वज तिरँगे को पेरो में कुचल रहे थे तिरँगा जला रहे थे क्यों ?
(12) संघ के स्वयंसेवक अटल बिहारी बाजपाई ने क्रन्तिकारी लीलाधर बाजपई के खिलाफ क्यों गवाही दी जिससे उन्हें 2 वर्ष का कारावास हुआ
(13) पिछड़ा दलित आदिवासी भी संघी हे तो नासिक के काला राम मंदिर में प्रवेश मुद्दे पर बाबा डॉ अम्बरेडकर जी ने आन्दोलन किया तो उस आन्दोलन का विरोध क्यों किया ?
(14) संघ ने हिन्दू समाज के हित में किया कोई एक कार्य बताये जिससे हिन्दू समाज का निम्नवर्ग का तबका लाभान्वित हुआ हो
(15) संघ के लोग अपने आप को राष्ट्रवादी समझते है 1925 से 1947 के बीच वन्देमातरम् का नारा क्यों नही लगाया अंग्रेजो का इतना डर था क्या
(16) संघ / विहिप / और अन्य हिंदूवादी संघटन के प्रमुख दलित आदिवासी समूह से क्यों नही बने क्या ये हिन्दू नही है ?
-एस के कुमार , मोबाइल (9568732168)

Wednesday 4 January 2017

हिंदुस्तानी गोल्ड मेम्बर

भली लगे या बुरी NBT

*बीजेपी को मुस्लिम वोट नहीं चाहिये?*

इक़बाल हिन्दुस्तानी  Friday December 30, 2016  

Gold: 5408

टाइम्स पॉइंट्स

*5408 पॉइंट्स के साथ इक़बाल हिन्दुस्तानी बन गए हैं टाइम्स पॉइंट्स प्रोग्राम में गोल्ड मेंबर । टाइम्स पॉइंट्स के बारे में और जानने के लिए यहां क्लिक करें।*

भाजपा के एक सांसद ने कहा है कि उनकी पार्टी को मुसलमानों के वोट चाहिये। उन्होंने इसकी वजह भी बताई है। उनका दावा है कि बीजेपी चूंकि देशभक्त पार्टी है। इसलिये मुस्लिम उनकी पार्टी को वोट नहीं देता। इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि मुसलमान देशविरोधी होता है? हैरत की बात यह है कि यह सांसद महोदय दिल्ली की एक लोकसभा क्षेत्र से चुनकर आते हैं। इतना ही नहीं इनके पिता दिल्ली के सीएम रह चुके हैं। हमने माना यह कोई ऐसी वजह नहीं है कि इससे कोई सांसद बेतुका या झूठा बयान नहीं दे सकता। लेकिन सोचने की बात यह है कि क्या किसी लोकतांत्रिक धर्मनिर्पेक्ष और मिश्रित आबादी वाले देश के किसी जनप्रतिधि और पार्टी के एमपी को ऐसी बात कहनी चाहिये?

 

आप कहेंगे कहनी तो नहीं चाहिये। लेकिन यह भी एक नंगा सच है कि हमारे देश मेें विभिन्न दलों के नेता न केवल ऐसी बातें कहते हैं बल्कि वे देश के लोगों को आपस में दंगों में लड़ा भी देते हैं। वे बाज़ार बंद कराने के आंदोलन के नाम पर सार्वजनिक सम्पत्ति को तबाह और बरबाद भी करा देते हैं। वे धार्मिक जातीय और क्षेत्रीय आधार पर समाज को बांटने और आग लगाने के काम खुलेआम करते रहते हैं। ऐसे कामों के आरोप लगने और दिखावे के लिये पुलिस रिपोर्ट होने पर जांच का खेल चलता है और चोर-चोर मौसेरे भाई की तरह सभी दल के नेताओं से एक दूसरे को क्लीन चिट मिलती रहती है। वे ही लोग कानून बनाते हैं। वे ही लोग समय समय पर अपनी नेतागिरी और सियासत चमकाने के लिये कानून तोड़ते भी रहते हैं।

 

उनका न तो पुलिस कुछ बिगाड़ पाती है और न ही मामला कोर्ट में चार्जशीट तक पहुंच पाता है। कई बार तो ऐसे नेताओं के खिलाफ उनके जीते जी उनको अदालत का समन और वारंट भी तामील नहीं हो पाता। वे खुलेआम कानून का मज़ाक उड़ाकर भी पूरे सिस्टम को धमकाते रहते हैं कि अगर उनको गिरफ्तार किया गया तो पूरे इलाके में, उनके प्रदेश में यहां तक कि देश में आग लगने की धौंस देते हैं। कोई भी पार्टी या नेता ऐसा कैसे कह सकता है कि हमें अमुक धर्म या जाति के लोगों का वोट नहीं चाहिये। इस अनैतिक और नफरत फैलाने वाले बयान के पीछे कहीं न कहीं यह दुर्भावना भी छिपी है कि देखो हिंदुओं हमने दो टूक मुसलमानों को अपनी पार्टी को वोट देने से मना कर दिया। क्यों?

 

क्योंकि हिंदुओं के इतने वोट हमें मिल जायेंगे कि हमें इन मुल्लाओं के चंद वोटों की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी? इससे उसी साम्प्रदायिक ध्ु्रावीकरण की राजनीति का गंदा खेल खेला जाता है। जो अयोध््या विवाद के बाद पूरे देश में घृणा और अलगाव की सियासत का बांटो और राज करो का अंग्रेज़ों वाला फार्मूला अपनाकर भारतीयों के बीच वोटों की राजनीति का घिनौना खेल लंबे समय से चल रहा है। बीजेपी के इस सांसद से कोई पूछे कि क्या मुसलमान बीजेपी को वोट देने को उतावले हो रहे हैं? जो आप उनको अपनी पार्टी को अपवित्र करने से बचाने के लिये उनके वोट लेने से मना कर रहे हैं? हमने तो यह देखा है कि मुसलमान बीजेपी को अपना सबसे बड़ा विरोधी मानता है।

 

हम यहां यह दावा नहीं कर रहे कि ऐसा वास्तव में है या नहीं? लेकिन जो मुसलमान बीजेपी को हराने के लिये कांग्रेस बसपा सपा वामपंथी और किसी भी क्षेत्रीय दल को यहां तक निर्दलीय तक को सामूहिक वोट करता हो, उससे वोट न देने का भाजपा सांसद का बयान अजीब और हास्यास्पद ही कहा जायेगा। रहा सवाल बीजेपी के देशभक्त होने का वह तो इसी बात से साबित हो जाता है कि जो पार्टी देश के आज़ादी के आंदोलन से दूर रही और जनता को धर्म के नाम पर बांटती हो वह कुछ भी हो देशभक्त कैसे हो सकती है?

Tuesday 3 January 2017

तैमूर और शमी की पत्नी

तैमूर के नाम और शमी की पत्नी के कपड़ों पर सवाल

इक़बाल हिन्दुस्तानी  

करीना और सै ने अपने बेटे का नाम तैमूर रखा तो एक वर्ग ने इसका विरोध किया। इसके बाद क्रिकेटर शमी की पत्नी ने स्लीवलेस कुर्ता पहन लिया तो दूसरे वर्ग ने उनको मज़हब की दुहाई देनी शुरू कर दी। मुझे नहीं लगता दोनों में कोई खास फर्क है। दोनों ही तालिबानी सोच से ग्रस्त लगते हैं। अंतर केवल इतना हो सकता है कि एक का विरोध हिंदू कट्टरपंथी कर रहे थे तो दूसरी तरफ मुसलमान ही शमी के मुसलमान होने पर सवाल उठा रहे थे। इसका एक अच्छा यानी सकारात्मक पहलू भी है। दोनों तरफ के तालिबान चीख़ पुकार मचाकर खुद ही थक गये। किसी ने उनको घास तक नहीं डाली।

 

न तो तैमूर का नाम बदला गया और ना ही शमी की पत्नी ने उनका गुस्सा शांत करने को या किसी फ़तवे के डर से अपनी पोशाक आगे से उनके हिसाब से पहनने का वादा किया। उल्टा तैमूर के नाना ऋषि कपूर ने और शमी व उनके पिता ने बच्चे का नाम और शमी की पत्नी की ड्रेस का विरोध करने वालों की क्लास जमकर लगा दी। एक तरह से कहा जाये तो दोनों तरफ के कट्टरपंथियों को चेतावनी और चुनौती दी गयी कि उनको जो करना है कर लो। वे अपने हिसाब से अपनी निजी जिंदगी जियेंगे। सोचने की बात है कि करीना सैफ हों या कोई भी परिवार अपने बच्चे का नाम क्या रखना है यह उनका अपना मामला है। किसी को इसका तालिबानी ठेका लेने की इजाज़त कैसे दी जा सकती है?

 

क्या कोई ऐसा कानून है जिसके हिसाब से कोई परिवार पहले भारत सरकार द्वारा जारी की गयी नामों की सूची से अपने बच्चे का नाम चुनने को मजबूर हो? या कोई ऐसा नियम है कि कोई स्थानीय निकाय किसी बच्चे के नाम का रजिस्ट्रेशन तब तक नहीं करेगा जब कि देश के कट्टरपंथी उस नाम का अनुमोदन न कर दें? यह तो वही बात हुयी मान न मान मैं तेरा मेहमान। या बेगानी शादी मेें अब्दुल्लाह दीवाना। ऐसे ही क्रिकेटर शमी ही नहीं किसी की पत्नी कौन से कपड़े पहनेगी और कहां जायेगी कैसे फोटो खिंचवायेगी उसको कहां नेट पर अपलोड करेगी? इसका ठेका किसी और को किसने दिया है?

 

मेरे हिसाब से तो यहां तक आज़ादी होनी चाहिये कि किसी की पत्नी कौन से कपड़े कब पहनेगी और उनको पहनकर कहां जाना चाहेगी इस बात का फैसला उसका पति या सास ससुर तक को भी करने का हक़ नहीं है। अलबत्ता इतना माना जा सकता है कि उस महिला को परिवार सलाह दे सकता है कि कहां कौन से कपड़े बेहतर और ज़्यादा अच्छे लगेंगे। जिस तरह से कोई महिला किसी मर्द पर यह नहीं थोपती कि उसको कौन से और कैसे कपड़े कब पहनने हैं। ठीक उसी तरह से महिलाओं का भी संविधान के हिसाब से बराबर अधिकार है। पत्नियां भी अपने पति को या मां बहन अपने बेटे व भाई को कई बार शादी या पार्टी के मौके पर केवल सलाह ही देती हैं कि इस मौके पर उनपर कौन से कपड़े ज्यादा फब सकते हैं।

 

सोचने की बात है कि देश में लोकतंत्र है। ऐसा कोई नियम कानून नहीं है कि कौन अपने बच्चे का नाम क्या रखेगा या कौन महिला कौन से कपड़े पहनेगी? मगर फिर भी देश में तालिबानों का एक तबका बार-बार सिर उठाता रहता है। यह अलग बात है कि उनको समाज सरकार और नियम कानून का सहारा अपनी मनमानी चलाने को नहीं मिलता। मगर यह ख़तरा तो सदैव बना ही रहता है कि इस समय जिस तरह की सरकारें हमारे देश में चुनकर आ रही हैं। उनमें से कोई सरकार कभी भी ऐसा तालिबानी फरमान वोटबैंक के चक्कर में बाकायदा कानून बनाकर लागू कर सकती है।