Monday 30 December 2019

झारखंड की हार

झारखंड की हारमोदी का जादू बरक़रार?

0हाल ही में हुए झारखंड चुनाव में भाजपा की हार से कुछ लोगों को लग रहा है कि मोदी का जादू लोगों से सर से धीरे धीरे ही सही उतरने लगा है। इससे पहले महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव में भाजपा की सीटें कम हुयी थीं। साथ ही देश में सीएए और एनआरसी को लेकर  को लेकर जो व्यापक विरोध हुआ। उससे जहां मोदी सरकार बैकफुट पर आ गयी वहीं उसकी विदेशों मंे भी किरकिरी हुयी है।

       

  भाजपा ने झारखंड महाराष्ट्र और हरियाणा में पिछले चुनाव जीतने के बाद एक बड़ा और नया प्रयोग किया था। उसने इन तीनों राज्यों मेें जिन जातियों की सबसे अधिक आबादी थी। उनका मुख्यमंत्री ना बनाकर दूसरी जातियों का सीएम बनाया था। उसको लगता था कि इन राज्यों में अब तक आदिवासी मराठा और जाट यानी जिन जातियों का चीफ़ मिनिस्टर बनता आया है। उनकी जनसंख्या लगभग 30 प्रतिशत के आसपास रही है। यानी इनके अलावा जो 70प्रतिशत जातियां हर बार नेतृत्व से वंचित रह जाती हैं। अगर उनको इन राज्यों का नेतृत्व सौंपा जायेगा तो वे भाजपा के पक्ष में अगली बार और अधिक मतदान करेंगी।

साथ ही भाजपा को लगता था कि इन राज्यों की जो सबसे बड़ी जातियां हैं। उनके मतों का एक बड़ा हिस्सा भी उसके खाते मंे हिंदुत्व की वजह से आना तय है। लेकिन एक नहीं दो नहीं तीनों राज्यों में भाजपा का यह दांव उल्टा पड़ गया। महाराष्ट्र में जहां शिवसेना ने उससे नेतृत्व ढाई ढाई साल करने की मांग रखी और उसके स्वीकार ना करने पर कांग्रेस जैसी अपनी चिर विरोधी पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाकर उसको झटका दिया। वहीं झारखंड में कांग्रेस ने वहां की क्षेत्रीय पार्टी जेएमएम के साथ जूनियर पार्टनर तक बनकर अपने पुराने घटक आजसू से अहंकार में अलग होने वाली भाजपा को सरकार से बाहर करने का सफल दांव चल दिया।

ऐसे ही हरियाणा में भाजपा को चुनाव के बाद अपने बल पर बहुमत ना मिलने पर एक नये और क्षेत्रीय छोटे दल से मजबूरन झुककर उसकी शर्तों पर समझौता कर गठबंधन सरकार बनानी पड़ी। इससे पहले पिछले साल हुए तीन महत्वपूर्ण राज्य मध्य प्रदेश राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को कांग्रेस के हाथों हार का सामना करना पड़ा था। इतना ही नहीं कर्नाटक में अपने बल पर बहुमत ना मिलने से भाजपा को काफी समय तक विपक्ष में बैठना पड़ा। लेकिन बाद में उसने जोड़तोड़ कर वहां जैसे तैसे अपनी सरकार बनाई। कहने का मतलब यह है कि 2017 के बाद से भाजपा ने लगातार कई राज्यों में हार का मुंह देखा है।

इससे यह मिथक टूटने लगा है कि भाजपा एक बार किसी राज्य में चुनाव जीत गयी तो वह वहां कई दशक तक लगातार राज करेगी। इसके साथ ही यह मानना जल्दबाज़ी होगी कि एक के बाद एक राज्य मंे चुनाव हारने से जो भाजपा दो साल पहले देश के 71 प्रतिशत हिस्से पर राज कर रही थी। वह चूंकि अब मात्र 35प्रतिशत भूभाग पर सत्ता चला रही है। इसलिये उसके एक मात्र लोकप्रिय नेता और प्रधानमंत्री मोदी का जादू लोगों के सर से उतरने लगा है?सच तो यह है कि जिस तरह से 6 माह पहले केंद्र के चुनाव में भाजपा ने पहले से अधिक लोकसभा सीट और मत हासिल कर मोदी के नेतृत्व में रिकॉर्ड जीत हासिल की थी।

उससे यह साबित होता है कि मोदी की लोकप्रियता ना केवल बरक़रार है बल्कि वह पहले से और अधिक बढ़ी ही है। अब सवाल यह उठता है कि फिर पिछले दिनों मोदी सरकार को एनआरसी और सीएए को लेकर बैकफुट पर आकर देश और दुनिया को सफाई क्यों देनी पड़ीसच तो यही है कि यह मोदी सरकार का परंपरागत स्टाइल नहीं है। उसका मिज़ाज तो यही रहा है कि उसने जो बात एक बार कह दी वह उसपर डटी रहती है।

लेकिन एनआरसी को लेकर उसके होममिनिस्टर ने बार बार संसद और संसद के बाहर जो बढ़चढ़कर डरावने और बड़बोले दावे किये थे। देश और दुनिया में उस पर भारत सरकार और भाजपा की बदनामी होने पर पीएम को सामने आकर उनका खंडन करना पड़ा। यह अलग बात है कि मोदी ने ना तो सीएए वापस लेने का ऐलान किया और ना ही भविष्य में एनआरसी ना करने का वचन दिया। लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि देश में मोदी सरकार के खिलाफ सेकुलर हिंदुओं मुसलमानों और उत्तरपूर्व के आदिवासियों ने जो जोरदार आंदोलन किया उससे मोदी सरकार पहली बार सकते में आकर अपने क़दम पीछे खींचने पर मजबूर हो गयी।

मोदी सरकार को जो काम पहले करना चाहिये था। वह उसने हालात बेकाबू होते देख एनआरसी और डिटेंशन कैम्पों पर सफाई देकर बाद में किया। उसने पहली बार भारतीय मुसलमानों को यह भरोसा भी दिलाया कि उनके पास ज़रूरी कागज़ात ना होने पर उनको ना तो देश से निकाला जायेगा ना ही किसी डिटेंशन कैम्प में भेजा जायेगा। इससे देश का माहौल तो फिलहाल शांत हो गया। लेकिन पूरी दुनिया और खासतौर पर मुस्लिम मुल्कों में भाजपा और मोदी सरकार की छवि ख़राब हुयी है। मोदी सरकार पर अमेरिका से लेकर यूरूप और यूनाइटेड नेशन तक का दबाव इस बात के लिये बढ़ा है कि वह धर्म के आधार पर नागरिकता देने या छीनने का इरादा छोड़ दे।

  कहने का मतलब यह है कि एक के बाद एक राज्यों के चुनाव हारने और एनआरसी के मसले पर मोदी सरकार के पीछे हटने को मजबूर होने से यह साफ हो गया है कि उसकी हिंदू वोटबैंक की राजनीति आगे और अधिक चलने वाली नहीं है। मोदी सरकार को आज नहीं तो कल आर्थिक मंदी बेरोज़गारी करप्शन बलात्कार बढ़ते अपराध कालाधन कानून व्यवस्था और शिक्षा और चिकित्सा के सवालों का जवाब जनता को प्राथमिकता के आधार पर देना ही होगानहीं तो जैसे वह एक के बाद एक राज्य चुनाव के बाद गंवा रही है। वह दिन भी आ सकता है जबकि बिना किसी ठोस और मज़बूत विकल्प के भाजपा केंद्र की सत्ता से भी हाथ धो बैठे। जनता के सब्र का पैमाना अब धीरे धीरे छलकने लगा है। बहुत लंबे समय तक असली जनहित के मुद्दों से जनता को भटकाकर कोई भी सरकार भावात्मक मुद्दों के बल पर सत्ता में नहीं बनी रह सकती है। यह दीवार पर लिखी इबारत मोदी सरकार देख रही होगी।                

0उल्फ़त बदल गयी कभी नीयत बदल गयी,

 खुदगर्ज़ जब हुए तो फिर सीरत बदल गयी।

 अपना क़सूर दूसरों के सर पर डालकर,

 कुछ लोग सोचते हैं हक़ीक़त बदल गयी ।।

यहूदी

सारे यहूदियों से नफ़रत क्यों ?

0सईद मौलाई ईरान के जुडोका हैं। उनको जान बचाने के लिये ईरान से भागकर जर्मनी में शरण लेनी पड़ी है। उनका कसूर यह है कि उन्होंने इस्राईल के यहूदी जुडोका के साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मैच खेलने का फ़ैसला करने का दुस्साहस किया था। ईरान सरकार चाहती थी कि मौलाई अपने प्रतिद्वन्द्वी के यहूदी होने की वजह से पहले की तरह ईरानी परंपरा पर चलते हुए मैच खेलने से दो टूक मना करें। मौलाई का सवाल है कि खेल से धर्म का क्या मतलब?दूसरे उनका मानना है कि सारे यहूदियों से नफ़रत करना मानवता के खिलाफ़ है।

       

  दरअसल सईद मौलाई ईरान के मात्र एक खिलाड़ी नहीं बल्कि एक महान विचार के पैरोकार हैं। उनको पता था कि आज तक उनके देश की परंपरा रही है कि अगर उनका किसी विश्व स्तरीय मैच में मुक़ाबला इस्राईली यानी किसी यहूदी से तय हो जाये तो उनको उस मैच का बहिष्कार करना है। लेकिन मौलाई ने अपने देश की घृणित और अमानवीय परंपरा से उल्टा कदम उठाकर ईरान सरकार उसके कट्टरपंथियों और समाज के संकीर्ण तबके को सकते में डाल दिया। हालांकि मौलाई अपने देश के उस इतिहास से भी परिचित रहे होेंगे जिसमें अब तक ऐसा दुस्साहस किसी अन्य खिलाड़ी ने कभी नहीं दिखाया है।

   जानकार बताते हैं कि 2004 में ईरानी अर्श मीर ने इस्राईल के जुडोका एहुद बक्स से खेलने से साफ मना कर दिया था। एहुद के बिना खेले मैच हार जाने के इस कट्टर फैसले को जहां ईरान सरकार और शियाओं के एक वर्ग ने हाथो हाथ लिया वहीं पूरी दुनिया में खेल के बीच मज़हब के आधार पर इस तरह के घिनौने कदम की तीखी निंदा भी हुयी । इससे पहले 2016 में ईरान की इस घृणित परंपरा को आगे बढ़ाते हुए मिस्र के इस्लाम अल शाहबी ने इस्राईली खिलाड़ी के साथ मैच तो खेला लेकिन मैच हारकर खेल की परंपरा के के अनुसार इस्राईल के खिलाड़ी से हाथ मिलाने से मना कर दिया।

    इस घटना की वहां मौजूद दर्शकों के साथ पूरी दुनिया में मैच देख रहे करोड़ों लोगों ने कड़ी निंदा की थी। लेकिन शाहबी अपनी इस घटिया हरकत से मिस्र के एक कट्टरपंथी वर्ग में हीरो बन गया। सवाल यह है कि आज के वैश्वीकरण उदारीकरण और प्रगतिशील दौर में क्या किसी देश या कौम को यह शोभा देता है कि वह पूरे यहूदी समुदाय या किसी देश का बहिष्कार करे?क्या किसी से उसके धर्म के कारण नफरत और दुश्मनी की जानी चाहियेक्या यह सभ्य और सुसंस्कृत समाज की पहचान मानी जा सकती है?

    अगर हां तो भारत में उन कट्टर हिंदुओं को भी सारे मुसलमानों से नफ़रत करने का आधार मिल जायेगा जो यह अमानवीय और पूर्वाग्रहग्रस्त सोच रखते हैं कि सारे मुसलमान खराब होते हैंऐसे ही उन यूरूपीय गोरों को भी अपनी श्रेष्ठता साबित करने का अवसर मिल जायेगा जिनका आज भी यह मानना है कि सारे काले घृणित और शासित होने के लिये पैदा हुए हैं। इसके बाद हमारे देश में ब्रहम्णों के एक वर्ग को यह कहने का भी मौका मिलेगा कि हिंदू समाज में उनकी जााति ही सर्वश्रेष्ठ होती है।

    उनको ही बड़े पदों कोर्ट और शासन में रहने का जन्मजात अधिकार है। अमीरों के भी एक बड़े वर्ग को यह गुमान है कि गरीब के अधिकार उनके बराबर नहीं होने चाहिये। ऐसे ही शिक्षित और अशिक्षित और पुरूष और महिला के बीच असमानता मानने वाले लोग अपने पक्षपात अन्याय और शोषण को सही ठहराने लगेंगें। हमारा कहना है कि ईरान के शिया मुसलमान हों या पाकिस्तान के कट्टरपंथी सुन्नी अफगानिस्तान के तालिबान चीन के हिंसक कम्युनिस्ट आयरिश ईसाई मियांमार के बौध और भारत के तेज़ी से बढ़ते हिंदू कट्टरपंथी व कट्टर सोच के अधिकांश मुसलमान उन सबको अपनी पिछड़ी दकियानूसी संकीर्ण सोच बदलकर सबको साथ लेकर चलना चाहिये।                                                   

0 मज़हब को लौटा ले और उसकी जगह दे दे,

  तहज़ीब सलीके़ की और इंसान क़रीने के ।।

सर सैयद

मुसलमान आधुनिक शिक्षा में क्यों पिछड़े ?

0 बीती 17 अक्तूबर को सर सय्यद अहमद खां का जन्मदिन था। इस मौके पर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के साथ साथ देश के अनेक हिस्सों मेें यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सय्यद की याद में सर सय्यद डे मनाया गया। इस अवसर पर जहां छात्र छात्राओं ने कल्चरल प्रोग्राम पेश किये वहीं सर सय्यद और उनके आला और जदीद तालीम मिशन की भी चर्चा हुयी। लेकिन कुछ मेहमानों को सिर्फ सर सय्यद डिनर से सरोकार था। सर सय्यद का मिषन का पूरे साल चलाया जाना चाहिये। सरकार और गैर मुस्लिमों को कोसने से मुसलमानों का कोई भला होने वाला नहीं है। 

        

  अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी मुसलमानों के लिये शायद पहली ऐसी उच्च शिक्षण संस्था है। जिसका मुसलमानों का ना केवल शैक्षिक बल्कि आर्थिक समाजिक स्तर सुधारने में अहम योगदान है। सर सय्यद ने यह बात सदियों पहले समझ ली थी कि मुसलमानों को अगर दुनिया के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना है तो उनको उच्च शिक्षा में आगे बढ़ना होगा। हालांकि इसके लिये सर सय्यद ने केवल कथनी बल्कि अपनी करनी से एक भी मिसाल पेश की। अजीब बात यह है कि उस दौरान जब सर सय्यद को इस नेक और ऐतिहासिक काम के लिये सम्मानित किया जाना चाहिये था।

 उस समय उनको एएमयू बनाने के लिये प्रताड़ित किया गया। इतना ही नहीं उनको दहरिया और काफिर घोषित कर उनके खिलाफ कट्टरपंथियों ने बाकायदा क़त्ल का फ़तवा जारी कर दिया। उनके खिलाफ कुल 80 फ़तवे जारी किये गये। यहां तक कि जब यहां के कट्टर मौलानाओं के फ़तवे पर उंगलियां उठीं तो उन्होंने अपने फ़तवे की तस्दीक के लिये कुछ कट्टरपंथी अरब भेज दिये। जो वहां से हज के बहाने सर सय्यद के खिलाफ वही फ़तवा हासिल करने में कामयाब रहे।

 लेकिन सर सय्यद की महानता देखिये कि उन्होंने उन कट्टरपंथियों पर गुस्सा या नाराज़गी ना दिखलाकर यह कहा कि चलो मेरे क़त्ल के प्लान के बहाने इनको हज का मौका तो मिल गया। ऐसे ही जब सर सय्यद यूनिवर्सिटी के लिये चंदा जमा कर रहे थे। उस दौरान कुछ कट्टरपंथी जहां उनकी जान के पीछे पड़े थे। वहीं कुछ ने उनको जूतों की माला पहनाई। सर सय्यद ने उस माला से नये और महंगे जूते निकालकर बाज़ार में बेच दिये। इसके बाद जो रकम इन जूतों को बेचकर हासिल हुयी। उसकी रसीद यूनिवर्सिटी के लिये काटकर उन लोगों को शुक्रिया के ख़त के साथ भेज दी थी।

 सर सय्यद का सबसे अधिक विरोध उनको अंग्रेज़ो का एजेंट कहकर किया गया। कट्टर मौलानाओं ने उस समय अंग्रेज़ी को भी पढ़ने के खिलाफ फ़तवा जारी कर दिया। कट्टरपंथी आधुनिक शिक्षा के खिलाफ भी लामबंद हो गये। लेकिन सर सय्यद पर इस विरोध उत्पीड़न और अपमान का कभी कोई असर नहीं पड़ा। वे लगातार अपने मिशन को आगे बढ़ाते रहे। आज जो मुसलमान एएमयू में पढ़ लिखकर किसी लायक़ बन गये हैं। वे सर सय्यद की दूरअंदेशी को सलाम करते हैं। लेकिन कट्टरपंथ की दीवारें आज भी बदस्तूर मुस्लिम समाज में खड़ी हुयी हैं।

 सबको पता है कि एएमयू तक पहंुचने के लिये प्राइमरी और मिडिल शिक्षा की भी ज़रूरत है। लेकिन मुसलमानों का लगभग सारा प्रयास मस्जिद मदरसों और इज्तमा और जमात में जाने में लगा है। उनका चंदा इन कामों में इस लिये भी लगता है कि उनको मौलानाओं ने बता रखा है कि इससे उनको सवाब मिलेगा। जबकि स्कूल कालेज या यूनिवर्सिटी बनाने से उनको जन्नत मिलने का कोई मौलवी रास्ता नहीं दिखाता है। वे आज भी बैंक के लेनदेन को हराम बता रहे हैं। वे फिल्म फोटोग्राफी आकाशवाणी और शराब से जुड़े कारोबार तक को मना करते हैं।

  उनकी दिलचस्पी साइंस गणित और अंग्रेजी में आज भी नहीं है। सवाल यह है कि जब मुसलमान आर्थिक रूप से कमज़ोर बने रहेंगे तो वे महंगी होती जा रही उच्च और आध्ुानिक शिक्षा में कैसे आगे बढ़ेंगेफिर वे दूसरों को दोष देंगे?                                                       

0 काट डाले सारे षजर खुद अपने ही हाथों से,

  अजीब षख़्स है अब साया तलाष करता है  ।।

विरोध कीजिये, हिंसा नहीं

शांतिपूर्ण विरोध अधिकारहिंसा नहीं होगी स्वीकार!

0सी ए ए यानी सिटीज़न अमेंडमेंट एक्ट को लेकर पिछले दिनों देश के विभिन्न हिस्सों में जो अराजकता हिंसा और भय का माहौल बना। उसे किसी भी कीमत पर किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता। कानून का राज स्थापित करना किसी भी सरकार और सभी नागरिकों का पहला और ज़रूरी कर्तव्य है। लेकिन जिस तरह से इस कानून को लेकर मुस्लिम समाज के नेताओं और सरकार ने चुप्पी साधी उससे हालात काबू से बाहर होते गये।

        

  एनआरसी और सीएए को लेकर देश में तरह तरह की अफ़वाहें आशंकायें और आपत्तियां काफी समय से हवा में तैर रही थीं। जब यही मामला सिटीज़न एक्ट 1955 में संशोधन होने के बाद बाकायदा कानून बन गया तो इसका विरोध खुलकर सामने आ गया। जैसाकि सबको पता है कि नागरिकता कानून में संशोधन करके यह प्रावधान किया गया है कि हमारे पड़ौसी तीन मुस्लिम देशों पाकिस्तान अपफगानिस्तान और बंग्लादेश से भारत आने वाले लोगों को दो वर्गों में बांटा जायेगा।

इस संशोधन के अनुसार गैर मुस्लिम छह धर्मों के लोगांे को शरणार्थी मानकर बिना किसी लंबी जांच पड़ताल के ज़रूरी कागज़ात न होने के बावजूद भी भारत की नागरिकता दे दी जायेगी। जबकि इन मुल्कों से भारत आने वाले मुस्लिमों को घुसपैठिया मानकर डिटंेशन कैंप मंे रखा जायेगा। इस बदले हुए कानून को लेकर देश दो वर्गों में बंट गया है। एक वर्ग ने जहां इस संशोधन का स्वागत किया है। वहीं मुस्लिमसेकुलर हिंदू सिख व अन्य धर्म के लोग तथा नॉर्थ ईस्ट के लोग इसका जमकर विरोध कर रहे हैं।

हो सकता है कि सरकार को ऐसा लगा हो कि जिस तरह से तीन तलाक़ कानून कश्मीर की धारा 370 हटाने और अयोध्या के मंदिर बनाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पूरा देश शांत रहा। वैसे ही नागरिकता कानून में बदलाव पर भी कोई ज़बान नहींे खोलेगा। लेकिन इस बदलाव को लेकर मुसलमानों को लगा कि सरकार न केवल इस तरह से देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के रास्ते पर जा रही है बल्कि वह इस संशोधन के ज़रिये केवल उनको नागरिक होने के वैध या पूरे वांछित पेपर ना होने पर घुसपैठिया घोषित कर उनको डिटेंशन कैम्प भेजने की योजना बना रही हैै।

उधर सरकार के अनुमान से कई गुना अधिक सेकुलर गैर मुस्लिम भी इस कानून के खिलाफ सरकार के विरोध में सड़कों पर उतर आया। साथ ही पहले दिल्ली की जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्र छात्राओं ने सरकार के खिलापफ विरोध प्रदर्शन का जो मोर्चा खोला। उसके खिलाफ पुलिस ने जिस बर्बर तरीके से यूनिवर्सिटी के कैम्पस में बिना अनुमति घुसकर छात्र छात्राओं को हॉस्टल लाइब्रेरी और मैस में घुसकर बुरी तरह से मारा और आंसू गैस के गोले उन स्टूडेंट्स पर छोड़े जिनका विरोध प्रदर्शन या हिंसा से कोई सरोकार ही नहीं था।

उससे इन दोनों यूनिवर्सिटी के साथ ही देश की अन्य अनेक यूनिवर्सिटी के छात्र भी उनके समर्थन और सिटीज़न एक्ट के बदलाव के खिलाफ सड़कों पर उतर आये। इससे सरकार के हाथ पांव फूल गये। उसने आनन फानन में सभी यूनिवर्सियों में अनिश्चितकालीन अवकाश घोषित कर सभी छात्रों से हॉस्टल खाली करा लिये। इसके बाद सरकार अभी संभली भी नहीं थी कि इस विरोध प्रदर्शन की कमान सेकुलर हिंदुआंे ने थाम ली। एक के बाद एक शहर में सीएए का विरोध बढ़ता देख सरकार बौखला गयी। उसने धारा 144 लगाकर लोगों को शांतिपूर्ण आंदोलन से भी रोकना चाहा तो हालात और भी बिगड़ गये।

इसके बाद मुसलमानों की तरफ से इस बदलाव को संविधान विरोधी बताते हुए भारत बंद की अपील कर दी गयी। यह अपील सोशल मीडिया पर बिना किसी संगठन पार्टी या बिना किसी बड़ी मुस्लिम हस्ती के लगातार वायरल होती रही। इस दौरान मुसलमानों ने अपने कारोबार बंद रखकर जुमे का दिन होने की वजह से अपने अपने शहर की जामा मस्जिदों में बड़े पैमाने पर नमाज़ पढ़ीं। इसके बाद वे हज़ारों की तादाद में विभिन्न नगरों की सड़कों पर निकल पड़े। उनको क्या करना हैकहां जाना है?किससे अपनी मांग करनी हैकौन उनकी तरफ से मांगपत्र देगाकौन उनका नेता होगा?

यह किसी को पता नहीं था। इसका नतीजा यह हुआ कि यह भीड़ कुछ देर बाद अराजक हो गयी। जिसको जो समझ में आया। वह वो करने लगा। भीड़ का एक मनोविज्ञान होता है कि उसमें जो एक शुरू करता है। वही बाकी सब करने लगते हैं। साथ ही अगर कोई खराब भड़काने वाली या हिंसक पहल करता है तो उसको भीड़ अपना आदर्श यानी नायक मानकर उसका साहस बढ़ाने लगती है। ज़ाहिर है एक साथ इतनी बड़ी भीड़ इतनी जगह इतने शहर पुलिस काबू करने की हालत में नहीं थी। पुलिस ने बहुत संयम और समझदारी से काम लिया।

उसने कहीं हिंसा पर उतारू भीड़ को सड़क पर लाठी फटकारकर तो कहीं हवा में फायरिंग करके तो कहीं रबड़ की गोली चलाकर तो कहीं हल्का बल प्रयोग कर के नियंत्रित करना चाहा। कई जगह पुलिस प्रशान इसमें सफल भी रहा। लेकिन अधिकांश जगह पुलिस बल कम होने या हर जगह ना पहुंच पाने या उपद्रवियों का दुस्साहस बहुत अधिक बढ़ा होने से सार्वजनिक सम्पत्ति का नुकसान नहीं रोका जा सका। इसमें सबसे बड़ी कमी उन मुस्लिम नेताओं की रही जिन्होंने समय रहते अपने समाज का बढ़ता गुस्सा और खौफ़ ना समझकर सरकार से एक बार औपचारिक मुलाक़ात कर अपना विरोध तक दर्ज नहीं कराया।

इसके साथ ही जब मुस्लिम समाज अपना बेकाबू विरोध दर्ज करने सड़कों पर उतरा तो अधिकांश शहरों में चुने हुए जनप्रतिनिधि उनका नेतृत्व करने की बजाये लापता हो गये। इतना ही नहीें सरकार के एक बड़े मंत्री ने जिस तरह से लगातार एनआरसी को लेकर यह कहकर मुसलमानों को डराया कि 2024 से पहले उन सब घुसपैठियों को देश से बाहर फैंक दिया जायेगा जिनकी नागरिकता साबित नहीं होगीउससे मुसलमानों को लगा कि उनके सामने अब कोई रास्ता नहीं बचा है। ऐसे ही हमारे पीएम ने सीएए का विरोध तेज़ होने पर यहां तक कह दिया कि हम आग लगाने वालोें के कपड़ों से पहचान लेते हैं कि वे कौन लोग हैं?

यूपी के सीएम ने कहा कि जिन प्रर्दानकारियों ने सार्वजनिक व निजि सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया है। उनसे बदला लिया जायेगा। बदला?यह सरकार का काम नहीं हो सकता। अलबत्ता जिन्होंने कानून तोड़ा है। उनके खिलाफ वैसे ही सरकार को कानूनी कार्यवाही करनी चाहिये जैसे अन्य प्रदेशों में जाट गूजर और मराठा आंदोलन के दौरान सम्पत्तियों को नुकसान पहंुचाने पर सरकारों ने की थी। एक देश में एक अपराध के लिये अलग अलग लोगांे के लिये दो कानून या दो पैमाने नहीं होने चाहिये।

ऐसे ही जो सरकार छोटी छोटी बातों पर अख़बारों में बड़े बड़े विज्ञापन देकर अकसर अपनी उपलब्ध्यिों का ढिंढोरा पीटती रहती है। उसको चाहिये था कि वह विवादित सीएए लाने से पहले देश के लोगों खास तौर पर मुसलमानों उनके नेताओं व उलेमाओं से बात करके विश्वास में लेती व्यापक विचार विमर्श करती और बड़े पैमाने पर विज्ञापन देकर उनकी आशंकाओं अफवाहों व भय का समाधान करतीलेकिन उसने यह किया भी तो तूफान आने के बाद और खानापूरी करने को किया है। यही वजह है कि असम व त्रिपुरा के कुछ हिस्से और मेघालय मणिपुर और मिज़ोरम को पूरी तरह से इस कानून से बाहर रखने के बावजूद वहां के लोग सरकार पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं।         

0ऐसे माहौल में दवा क्या है दुआ क्या है,

 जहां क़ातिल ही खुद पूछे कि हुआ क्या है।।         

Sunday 15 December 2019

हिन्दू मुस्लिम एकता


हिंदू मुस्लिम एकता में बाधा कहां है?

0 देश की एकता अखंडता और विकास के लिये देश के विभिन्न धर्मों जातियों क्षेत्रों और सोच के लोगों में एकता और भाईचारा रहना बहुत ही ज़रूरी है। देश के सबसे बड़े बहुसंख्यक वर्ग हिंदू और सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी मुसलमानों के बीच भी आपसी भाईचारा और प्यार मुहब्बत हर हाल में बना रहना चाहिये। लेकिन सवाल यह है कि इसमें दिक्कत क्या हैकौन इन दोनों को अलग अलग रखना चाहता है

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  जब भी हिंदू मुस्लिम एकता की बात आती है। कुछ लोग इसमें कमी के लिये पूरी तरह सियासत को ज़िम्मेदार ठहराकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। आखि़र ऐसा क्या हुआ कि जो दोनों सम्प्रदाय सदियों से साथ रहते चले आ रहे हैं। वे एक दूसरे से दूरी महसूस करने लगे। एकता को सम्मेलन होने लगे। उनके बीच इतनी उूंची दीवार और इतनी गहरी दरार अचानक रातो रात तो नहीं पैदा हो सकती। दूसरी ओर यह भी सच है कि आज भी इन दोनों सम्प्रदायों का एक बड़ा हिस्सा पहले की तरह आपसी एकता और प्रेम के साथ रह रहा है।

ये लोग एक दूसरे के दुख सुख में भी शरीक होते हैं। एक दूसरे की सहायता और हितों का ख़याल भी रखते हैं। लेकिन फिर भी पिछले कुछ दिनों से देखने में आ रहा है कि दोनों ओर के चंद कट्टरपंथी एक दूसरे के खिलाफ दिलों में ज़हर भरने का सुनियोजित अभियान भी पहले से अधिक तेज़ी से भर रहे हैं। इसका बुरा असर भी समय समय पर विभिन्न मामूली और स्वाभाविक घटनाओं को बाकायदा एक रण्नीति के तहत साम्प्रदायिक रंग देने से टकराव बढ़ने से मॉब लिंचिंग और दंगों की छिटपुट घटनाओं के रूप में सामने आता रहा है।

ऐसा चुनाव के दौरान साम्प्रदायिक आधार पर मतों का ध््राुवीकरण कर धर्म के आधार पर घृणा फैलाकर वोट लेने के लिये भी पहले से अधिक किया जा रहा है। सवाल यह है कि जब दोनों वर्गों के लोग विभिन्न राजनीतिक दल सरकार प्रशासन और धार्मिक नेता तक एकता और भाईचारे का पाठ पढ़ा रहे हैं तो जनता का एक वर्ग एक दूसरे से नफरत बदले की भावना और सबक सिखाकर दूसरे वर्ग को हाशिये पर धकेलने के लिये दिन रात क्यों जुटा हुआ है?हालांकि हमारी बात को सच कड़वा होने की वजह से झुठलाया जायेगा। लेकिन हमें लगता है कि हिंदू मुस्लिम के बीच दरार और दीवार बनाने का काम आज का नहीं है।

यह देशविरोधी और समाज विरोधी साज़िश लंबे समय से चलती रही है। सेकुलर दलों की सरकारों में भी जिस तरह से धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यक वोटबैंक की घटिया सियासत की गयी। उसी की प्रतिक्रिया में बहुसंख्यक वोटबैंक की ओछी राजनीति को भावनात्मक और मुस्लिम विरोधी सोच से वोट करने की सीख मिली है। हालांकि पहले दोनों वर्ग के कट्टरपंथी खुलकर एक दूसरे के खिलाफ कम ही बयानबाजी करते थे। लेकिन आजकल कई मामलों में सत्ता का संरक्षण और कभी कभी पुलिस प्रशासन का अप्रत्यक्ष सहयोग भी मिल जाने से धर्म के नाम पर घृणा पक्षपात और हिंसा करने वालों का दुस्साहस बहुत अधिक बढ़ गया है।

सबसे बड़ी प्रॉब्लम यह है कि जो लोग सार्वजनिक रूप से हिंदू मुस्लिम एकता की बड़ी बड़ी बातें सम्मेलन रैली और सभायें करते हैं। वे ही लोग अकेले में अपने अपने सम्प्रदाय को दूसरे के खिलाफ जमकर भड़काते भी हैं। मिसाल के तौर पर जो लोग एक पूरे सम्प्रदाय को विदेशी हिंदू विरोधी और देशद्रोही और ना जाने हिंसक कामुक व गंदा बताते हैं। उनको कैसे राष्ट्रवादी देशभक्त और पूरे विश्व को परिवार समझने वाला माना जा सकता हैऐसे ही जो लोग खुद अल्पसंख्यक होते हुए बहुसंख्यकों को  अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं। जो लोग अपने धर्म को ही एकमात्र सच्चा और अच्छा धर्म बताते हैं।

जो लोग सभी गैर मुस्लिमों को तमाम अच्छे कामों के बावजूद नर्क में जाने वाला बताते हैं। जो लोग उन पर भरोसा ना करने उनसे दिली दोस्ती न करने उन जैसे तौर तरीके रहन सहन खान पान रस्में ना अपनाने के लिये दिन रात धार्मिक प्रचार में लगे हैं। उन मुट्ठीभर कट्टरपंथियों को क्या हक है ये नाटक और दिखावा करने का कि वे भी हिंदू मुस्लिम एकता के पैरोकार हैं। हालांकि सब जानते हैं इस्लाम हिंदू मुस्लिम एकता के साथ ही सारी मानवता के लिये अमन चैन और भाईचारे का पैगाम लेकर आया है।

आज ज़रूरत इस बात की है कि समाज में दोनों धर्मों के ऐसे कट्टरपंथियों और संकीर्णतावादी स्वार्थी और देश विरोधी व सही मायने में हिंदू मुस्लिम दोनों के दुश्मन चंद हिंदू धर्म और चंद इस्लाम के ठेकेदारों को अलग थलग किया जाये। साथ ही निडर होकर देशहित में सच्चे राष्ट्रवाद के पक्ष में सारे भारतीयों के भले के लिये संविधान को बचाने के लिये मानवता के हित में बिना किसी तमगे टैग फरमान और फतवे की परवाह  किये असली और सच्ची हिंदू मुस्लिम एकता के लिये दोनों समाज के योग्य निष्पक्ष और देशप्रेमी लोग आगे आयें और सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की पहल करें। चाहे इसके लिये कोई भी कुरबानी देनी पड़े कोई कीमत चुकानी पड़े और चाहे कोई भी धमकी मिले लेकिन हम सब देशहित में साथ मिलकर चलेंगे।                                     

0 मज़हब को लौटा ले उसकी जगह दे दे,

  इंसान क़रीने के तहज़ीब सलीके़ की ।।

अमनचैन की जीत

अमनचैन एकता और भाईचारे की जीत!

0 मंदिर मस्जिद विवाद का फै़सला आ चुका है। पूरे देश में अमनचैन एकता और भाईचारा पहले से अधिक मज़बूत हुआ है। सरकार पुलिस प्रशासन और नागरिकों ने जो देशप्रेम शांति व कानून व्यवस्था बनाये रखने का सामूहिक संकल्प लिया था। वह पूरी तरह से सफल रहा है। सभी पक्षों ने पूरी ईमानदारी और दिल से अपना वचन निभाया है। यही हमारे भारत की गंगा जमुनी साझा संस्कृति की सदियों से पहचान चली आ रही है। 

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  सदियों पुराना मंदिर मस्जिद का विवाद सौहार्दपूर्ण तरीके से सुलझ गया है। हो सकता है कि इसमें कानून और संविधान के जानकार कुछ विश्लेषण कर प्लस माइनस करें। लेकिन हमंे लगता है कि दोनों ही पक्षों ने इस फैसले को स्वीकार कर लिया है। ज़ाहिर है कि एक पक्ष ने सहर्ष स्वागत किया है तो दूसरे ने भारी मन से और देश की एकता अखंडता को सर्वोपरि मानकर इसे त्याग की भावना से मान लिया है। यह फैसला कानूनी हिसाब से पूरी तरह किसी एक पक्ष को संतुष्ट ना भी करे तो वह भी इसको व्यवहारिक  मानकर अपवाद स्वरूप कबूल करने को तैयार हो गया है।

   इस एतिहासिक और चर्चित फैसले पर कानून के हिसाब से विस्तार से चर्चा फिर कभी की जा सकती है। लेकिन फिलहाल इतना साबित हो गया है कि हमारे देश के 132 करोड़ लोग तमाम अगर मगर के बावजूद मुश्किल समय में एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने की अपनी पुरानी और सराहनीय परंपरा पर आज भी कायम हैं। आपको याद होगा जब2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले में अपना फैसला सुनाया था। उस समय सरकार और जनता दोनों ही आज से अधिक संशय और चिंतित थी।

   लेकिन आज जब सबसे बड़ी अदालत ने यह फैसला सुनाया है तो दोनों ही पक्षों के साथ सरकार ने जिस समझदारी ज़िम्मेदारी और पूरी मेहनत से लॉ एंड ऑर्डर बनाये रखने के लिये जीतोड़ कोशिशें की हैं। उसी का नतीजा है कि ना तो जीतने वाले पक्ष ने अपने वादे के अनुसार कोई जुलूस और जश्न मनाया है। न ही खुद को असंतुष्ट और हारा हुआ सा महसूस करने वाले दूसरे पक्ष के वकील के दावे के बावजूद सुन्नी वक्फ बोर्ड या अल्पसंख्यक समाज ने फैसला का किसी तरह का विरोध किया है। दोनों पक्षों ने मंदिर मस्जिद से बड़ा मुद्दा भाईचारा अमनचैन और कानून व्यवस्था को बनाये रखना माना है।

   बहुसंख्कों को पता है कि उनकी समर्थक सरकार आज केंद्र और देश के अधिकांश राज्यों मंे है। पुलिस प्रशासन भी उनकी भावनाओं का सम्मान करेगा। लेकिन उन्होंने केवल यह मानकर कि उनकी किसी बात से अल्पसंख्यक वर्ग की भावनाओं को ठेस ना पहुंचेकोई ऐसी गतिविधि नहीं की है जिससे देश का माहौल खराब हो। इसी तरह का त्याग अल्पसंख्यकों ने यह सोचकर किया है कि अगर एक मस्जिद उस जगह पर फिर से नहीं बन पा रही है।

   जहां वह पहले से मौजूद थी और हमारे बहुसंख्यक भाई खास उसी जगह को अपने भगवान राम की जन्मस्थली मानकर मंदिर बनाना चाहते हैं तो देशहित समाजहित और आपसी मुहब्बत के लिये यह कुरबानी दी जा सकती है। वैसे भी मुसलमानों के लिये नमाज पढ़ने के लिये किसी खास जगह की शर्त नहीं होती है। लेकिन यह मामला इसलिये लंबे समय तक चलता रहा क्योंकि मुसलमानों को यह डर था कि अगर एक बार उन्होंने कदम पीछे खींचे और हिंदू मुस्लिम एकता व भाईचारे के लिये मस्जिद से अपनी तरफ से पहल करते हुए दावा छोड़ दिया तो फिर यह एक तरह से साम्प्रदायिक और मनमानी के जिन्न को बोतल से बाहर निकालना होगा।

   यह आशंका उनकी किसी हद तक सही भी थी क्योंकि कुछ उग्र हिंदू नेता बार बार मथुरा और काशी की मस्जिदों पर भी दावा करने का शिगूफा छोड़ते रहते हैं। हालांकि 1991 में इस बारे में एक कानून बन चुका है कि 1947 में सभी धार्मिक स्थलों की जो स्थिति थी अब हमेशा वही बनी रहेगी। बाबरी मस्जिद राम मंदिर मामला इसमें अपवाद मानकर छोड़ दिया गया था। हमें लगता है कि मुसलमानों का रूख इस केस में दूसरे पक्ष के मुकाबले बहुत ही अधिक सराहनीय और ज़िम्मेदारी का था कि जो फैसला आयेगा वे मानेंगे।                                        

0 हवा के दोश पे रक्खे हुए चिराग़ हैं हम,

  जो बुझ गये तो हवाओं से शिकायत कैसी।।

सूर्यमणि जी

सूर्यमणि: जिनको दर्द में भी हमदर्द याद रहते हैं !

0 चिंगारी बिजनौर और आसपास के ज़िलों का शाम का लोकप्रिय दैनिक अख़बार है। चिंगारी के संपादक श्री सूर्यमणि रघुवंशी अपनी लेखनी की वजह से तो सबको प्रिय हैं ही। लेकिन सबसे बड़ी वजह उनका एक अच्छा संवेदनशील और मिलनसार इंसान होना है। इसकी मिसाल एक बार फिर तब देखने को मिली जब एक एक्सीडेंट के बाद उनको देखने वाले हमदर्दों की लंबी लाइन लग गयी।   

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  सूर्यमणि रघुवंशी उर्फ पिंटू भाई दिवाली के मौके पर एक एक्सीडेंट का शिकार हो गये थे। उनको अचानक उधर से जाते हुए बिजनौर के सदर एसडीएम ने तत्काल अपनी गाड़ी से पुलकित अस्पताल पहुंचाया। वहां उनको कुछ ही पल में बेहतरीन चिकित्सा सुविधा दी गयी। जांच कर डाक्टर ने बताया कि उनको रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट आई हैै। उनको कुछ माह बिस्तर पर गुज़ारने होंगे। अगर किसी का भी एक्सीडेंट हो जाये तो यह अनुमान नहीं होता कि कितना नुकसान होगा। ना ही यह पता होता है कि चोट सही होने में कितना समय और खर्च होगा।

    यह भी बाद में जांच में तय होता है कि हादसे की वजह क्या थीख़ता करने वाले को सज़ा मिलेगी या नहीं या कब तक मिलेगी यह तो खुद पीड़ित के साथ ही किसी को भी जानकारी नहीं होती। लेकिन इस मामले में सबसे बड़ी बात यह हुयी कि सूर्यमणि जी का केस हाईप्रोफाइल यानी वीआईपी होने के बावजूद उन्होंन शराब के नशे में उनके बेटे की बाइक को रफ़ और रैश ड्राइविंग कर पीछे से लापरवाही में टक्कर मारने वाले गरीब दलित सिख युवकों को बजाये अपनी पोज़िशन का इस्तेमाल कर अपराध से अधिक कड़ी सज़ा दिलवाने के माफ़ कर दिया।

   साथ ही उन आरोपी युवकों को कुछ दिन किसी गुरूद्वारे में सेवा करने और भविष्य में शराब पीकर वाहन ना चलाने की नसीहत कर संकल्प कराया। मामला यहीं ख़त्म नहीं होता। पिंटू भाई को देखने मिलने और उनकी कुशल क्षेम जानने वालों का जो रेला हॉस्पिटल में शुरू हुआ था। वह उनके घर जाकर आराम करने के दौरान भी पूरे ज़ोर शोर से जारी रहा। शायद पिंटू भाई को पहली बार इस बात का अहसास हुआ होगा कि जैसे वे हर गरीब अमीर छोटे बड़े आम आदमी और वीआईपी यानी हर तरह के इंसान के दुख सुख मंे ना केवल शरीक होते रहते हैं बल्कि समाज के कमज़ोर और सबसे निचले पायेदान पर खड़े आदमी के लिये अपनी कलम चलाते हैं।

   वैसे ही लोग उनके जल्दी स्वस्थ होने के लिये दिन रात हर इलाके हर ज़ात हर मज़हब हर पार्टी हर सोच के ना केवल मिलने आ रहे थे। बल्कि उनके लिये प्रार्थना और दुआयें भी कर रहे थे। यहां तक कि जैसा उन्होंने अपने उद्गार करूणा शीर्षक से चिंगारी के पूरे पेज पर लिखकर साझा किये उनके लिये मौलानाओं का एक दल अस्पताल में सामूहिक दुआ करने भी पहुुंचा। पिंटू भाई चाहते तो इस बात को रूटीन मानकर चार लाइनों में अपनी तरफ से चिंगारी में शुक्रिया भी कर सकते थे।

   लेकिन उन्होंने खुद के दर्द में शामिल होने वाले हमदर्द हर इंसान का बहुत बारीकी से अपने दिल में रिकॉर्ड रखा। हैरत और ज़िंदादिली की बात यह है कि पिंटू भाई ने दर्द में लेटे लेटे ही अपने मन की बात काग़ज़ पर लिख डाली। उन्होंने ना केवल एक्सीडेंट होने से आज तक का पूरा हाल विस्तार से बयान करके अपने उन चाहने वालों को घर बैठै पूरी बात साझा की जो उनसे मिलने नहीं जा सके या बाद में जायेंग या जो उनसे मिलने पहुंचे और उनसे अधिक समय तक बात नहीं कर सके। यह देखकर अच्छा भी लगा और आंखें नम भी हो गयी कि पिंटू भाई कितने अच्छे इंसान हैं।

   जो दर्द में भी अपने हमदर्दों की आमद से लेकर उनकी भावनाओं उनकी दुआओं और परिवार व अस्पताल के साथ ही हर उस आदमी की सेवा को याद रखते हैं। पिंटू भाई ने खुद दर्द में रहकर भी जिस तरह से उनकी सेवा में जुटे डाक्टर नर्स सफाईकर्मी से लेकर फोर्थक्लास कर्मचारी तक बाकायदा नाम याद रखकर आभार जताया और सराहना की। वह अपवाद के तौर पर ही कोई करता है। हमने अकसर यह देखा है कि जब इंसान बीमार होता है। या उसको चोट लग जाती है। तो वह आत्ममुखी हो जाता है। वह दर्द से कर्राहता हुआ खामोश रहना पसंद करता है।

    वह अपने आप में गुमसुम सा रहने लगता है। उसको किसी का ज़्यादा आना जाना बातें करना या सवाल करना पसंद नहीं आता। वह एक ही करवट से पड़ा पड़ा थक सा जाता है। वह निराश सा हो जाता है। वह चिड़चिड़ा और रिज़र्व हो जाता है। लेकिन यहां दाद देनी होगी सूर्यमणि रघुवंशी के जीवट की जो ना केवल सबसे मिलकर अच्छा महसूस कर रहे थे। बल्कि उनसे लगातार बात भी कर रहे थे। वे आने वालों की भीड़ में अपना दर्द भुला देते थे। हालांकि दर्द उनको लगातार हो रहा था। मेहमान नवाज़ी की हद यह थी कि बार बार मना करने के बावजूद वे बाहर से आने वाले मेहमानों के लिये चायपानी कराने की ज़िद पकड़ लेते थे।

    कौन आया हैवह क्या करता हैउसको कब से जानते हैंऔर उसकी विधा की कौन कौन तारीफ करता है। यह बताना तो वह किसी को भी नहीं भूलते थे। इन पंक्तियों का लेखक जब उनसे मिलने अपने भाई व चिंगारी संवाददाता नौशाद मुल्तानी और सपा नेता व जाने माने समाजसेवी तसनीम सिद्दीकी और आयशा सिद्दीकी के साथ  अस्पताल गया तो उन्होंने अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ देखते ही कहा कि चिंगारी में इनके लेखों को बहुत लोग पसंद करते हैं। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि हमारे परिवार और हमारे साथी पत्रकार इनके समसामयिक मुद्दों पर लिखे विचारों को बहुत निष्पक्ष और राष्ट्रीय स्तर का मानते हैं।

   इस अवसर पर सिद्दीकी दम्पत्ति ने उनको हज से वापसी पर अपने साथ लाये पाक ज़मज़म का पानी भेंट किया। जो उन्होंने सर माथे से लगाकर उनका सम्मान जताया। हम उनसे मिलकर उनका दुख कम करने गये थे। लेकिन उन्होेंन उल्टा हमारी तारीफ कर हमारी खुशी बढ़ाने का मौका नहीं गंवाया। बहरहाल बातें बहुत हैं। लेकिन अंत में इतना ही कहूंगा कि सूर्यमणि हमारे दौर के एक बेहतरीन इंसान हैं। जिनको बार बार सलाम करने का मन करता है। फिलहाल एक ही दुआ है। सूर्यमणि जी आप जल्दी से जल्दी ठीक हो जायें। सूर्यमणि रघुवंशी तुम जियो हज़ारों साल।                                         

0 नाम होंठों पे तेरा आये तो राहत सी मिले,

  तू तसल्ली है दिलासा है दुआ है क्या है।।

अयोध्या पर फैसला व्यवहारिक

अयोध्या: सुप्रीम कोर्ट ने मजबूरन व्यवहारिक फैसला दिया!

0 केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एक बार कहा था कि कोर्ट को फै़सले करते समय केवल कानून नहीं व्यवहारिकता का भी ध्यान रखना चाहिये। ऐसा लगता है कि मंदिर मस्जिद विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने कानून से अधिक व्यवहारिकता और आस्था का ख़याल रखा है। हालांकि कोर्ट ने दोनों पक्षों की भावनाओं का सम्मान करते हुए संतुलन बनाने का प्रयास किया है। लेकिन कड़वी और कठोर सच्चाई यह है कि अदालत इस केस को अपवाद मानकर बहुसंख्यकों को ख़फ़ा नहीं करना चाहती थी।   

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय सर्वसम्मति से आ चुका है। दोनों पक्षों ने इसे स्वीकार भी कर लिया है। एक अच्छी बात यह है कि मुस्लिम पक्ष शुरू से ही यह कहकर चल रहा था कि वे सुप्रीम कोर्ट का फैसला चाहे उनके खिलापफ ही क्यों ना हो उसको स्वीकार करेंगे। जबकि हिंदू पक्ष का साफ कहना था कि वे केवल राम मंदिर के पक्ष में आने वाले निर्णय को ही मानेंगे। लेकिन वे भी विपरीत निर्णय आने की परिस्थिति में कानून हाथ में लेकर नहीं बल्कि सरकार से शाहबानो केस की तरह संसद में कानून बनाकर मंदिर बनाने का रास्ता साफ करने की मांग कर रहे थे।

यह अलग बात है कि जो मंदिर समर्थक आज मंदिर के पक्ष में निर्णय आने पर कोर्ट के फैसले का सबसे सम्मान करने का फरमान जारी कर रहे हैं। वे ही मस्जिद के पक्ष में फैसला आने पर उसके विरोध में सड़कों पर उतरकर अराजकता फैला रहे होते। रामरथ यात्रा और कारसेवा के धोखे से मस्जिद शहीद करके वे देश को पहले भी दंगों की आग में बेझिझक झोंककर वे अपनी मंशा साफ कर चुके थे। सवाल यह है कि क्या कोर्ट के फैसले के खिलाफ अगर मुस्लिम पक्ष पुनर्विचार याचिका दाखिल करता है तो वह कोई गैर कानूनी काम कर रहा है?

हमारा कहना है-नहीं। साथ ही मुस्लिम पक्ष अगर बाबरी मस्जिद के एवज़ में कोर्ट द्वारा दी गयी पांच एकड़ ज़मीन लेने से मना करता है तो यह भी उसका कानूनी अधिकार है। सवाल यहां यह भी उठ रहा है कि क्या कोर्ट के फैसले की आलोचना हो सकती हैखुद सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जजों ने इस फैसले पर उंगली उठाई है। हालांकि आम मुसलमान तो इतना डरा हुआ है कि वह अमनचैन और अपनी जान माल सुरक्षित रखने के लिये अपनी ज़बान नहीं खोल रहा है। लेकिन समझदार उच्च शिक्षित और बुध्दिजीवी हिंदू मुसलमान व अन्य धर्मों व अन्य देशों के निष्पक्ष लोग इस फैसले पर तरह तरह के सवाल उठा रहे हैं।

उन सबको अपनी बात कहने का अधिकार है। सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि बाबरी मस्जिद में1949 में मूर्तियां रखना गलत था। साथ ही कोर्ट को लगता है कि बाबरी मस्जिद को 1992 में तोड़ना भी गलत था। वह यह भी मानता है कि मस्जिद में मुसलमाना नमाज़ भी पढ़ते थे। ऐसे में कोर्ट ने मंदिर के पक्ष में कैसे फैसला कर दियामजे़दार बात यह है कि कोर्ट ने हिंदू पक्ष के इस दावे को भी सही नहीं माना कि मस्जिद राम मंदिर या किसी अन्य मंदिर को तोड़कर बनाई गयी थी। भारतीय पुरातत्व सर्वे की रिपोर्ट से केवल इतना साबित होता है कि मस्जिद खाली जगह पर नहीं बनी थी।

लेकिन केवल इतने से ही हिंदू पक्ष का वहां कब्जे़ का दावा सही साबित नहीं होता। कोर्ट ने यह भी माना कि 1855 से 1949 तक वहां मुसलमान लगातार नमाज़ अदा करते रहे। कोर्ट ने हिंदू पक्ष की यह दलील स्वीकार की कि मस्जिद के बाहरी अहाते में 17 गुना 21 फुट का राम चबूतरा था। जहां राम की मूर्ति और पत्थर पर चरण उकेरे हुए थे। महंत रघुवर दास चाहते थे कि वहां एक मंदिर बने। लेकिन जब मुसलमानों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया तो यह मामला सब जज के पास गया। जहां महंत की मांग सबजज ने ठुकरा दी।

महंत ने इसके खिलाफ ज़िला जज के यहां अपील की। यह अपील भी नहीं मानी गयी। अपील ठुकराने के साथ ही जिला जज ने यह टिप्पणी भी कर दी कि ‘‘यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जाने वाली जगह पर मस्जिद बनाई गयी। लेकिन घटना 356साल पहले हुयी थीऔर इतने सालों बाद उसे अनहुआ नहीं किया जा सकता। अब यही किया जा सकता है कि यथास्थिति बरकरार रखी जाये।’’ जब अंतिम अपील अवध केे न्यायिक कमिश्नर के यहां की गयी तो उन्होंने भी निचली अदालतों के जजों के निर्णयों को ठीक बताया।

अपील अस्वीकार करने के साथ ही उन्होंने  बाबर को आततायी बताते हुए उसके द्वारा मंदिर तोड़े जाने का उल्लेख करते हुए लिखा कि मस्जिद परिसर में मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकतीक्योेंकि जहां वे मंदिर बनाना चाहते हैंवह मस्जिद के बहुत ही पास है। इसका मतलब यह हुआ कि सभी जज मानते थे कि राम जन्म स्थान पर मंदिर बनना चाहिये। लेकिन चूंकि वह जगह मस्जिद के पास हैऔर ऐसा करने से कानून व्यवस्था को ख़तरा हो सकता हैइसलिये मंदिर निर्माण की इजाज़त किसी जज ने नहीं दी।

   आज ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने 1885के मुक़दमों में दिये गये फैसलों को नज़र में रखकर मंदिर बनाने की अनुमति यह सोचकर दे दी कि भले ही मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनी थी। लेकिन अब वहां मस्जिद का अस्तित्व समाप्त हो चुका है। अब वहां रामलला की मूर्ति रखी है। जिसको हिंदू भगवान राम का जन्मस्थान मानते हैं। वहां तीन दशक से अधिक से निरंतर पूजा भी चल रही है। रामलला की मूर्ति हटाने और वहां फिर से मस्जिद बनाने के फैसले से पूरे देश में दंगे फसाद शुरू हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अनुमान तभी सामने आ गया था।

जब चीफ जस्टिस की बैंच ने इस केस की सुनवाई करते हुए एक तरफ यह कहा कि वे आस्था या किसी की धार्मिक भावनाओं के हिसाब से फैसला नहीं देेंगे। लेकिन दूसरी तरफ यह भी कहा कि यह मुकदमा 1500 गज़ ज़मीन के विवाद का टाइटिल सूट नहीं है। प्रधान न्यायध्ीश गोगोई ने यहां तक कह दिया कि यह केस लोगों के मनहृदय और घाव भरने का है। साथ ही बैंच ने यहां तक माना कि इस केस का निर्णय करते समय हमें जनसमुदाय और उनकी भावनाओं पर पड़ने वाले असर का भी ध्यान रखना होगा।

   वास्तव में कोर्ट ने ऐसा ही किया उसने बहुसंख्यकों की भावनाओं का कानूनी सीमा से बाहर जाकर भी प्राथमिकता के आधार पर ख़याल रखा। साथ ही संविधान और धर्मनिर्पेक्षता का सम्मान बनाये रखने को अल्पसंख्यकों को भी पांच एकड़ ज़मीन अयोध्या में ही किसी आबादी वाले स्थान पर देने का आदेश सरकार को देकर सभी नागरिकों को समान समझने की नसीहत कर दी। 1994में सुप्रीम कोर्ट इस्माईल फारूकी मामले में यह पहले ही तय कर चुका था कि इस्लाम में नमाज़ पढ़ना बुनियादी फर्ज़ है।

   लेकिन वह मस्जिद या किसी खास जगह ना होकर कहीं खुले में किसी भी ज़मीन पर हो सकती है। यही वजह है कि कोर्ट ने मस्जिद की जगह अलग से दी है। लेकिन हिंदुओं की आस्था वहां उसी स्थान पर भगवान राम का जन्म स्थान मानने से रामलला का मंदिर बनाने को मजबूरी में कोई दूसरा विकल्प ना होने से कानून को नज़रअंदाज़ करके दी है। अगर यह पहला और अंतिम अपवाद वाला मामला होने की मोदी सरकार गारंटी दे तो मुसलमानों को भी इस केस को भूलकर हिंदू मुस्लिम एकता भाईचारा और देश में अमनचैन के लिये इस कुरबानी नाइंसापफ़ी और बहुसंख्यकवाद की जीत को भारी मन से कबूल करके आगे बढ़ जाना चाहिये।                                           

0 अंधेेरे मांगने आये थे हमसे रोशनी की भीख,

  हम अपना घर ना जलाते तो और क्या करते।।

रेप की सज़ा मुठभेड़?


रेपः सज़ा जल्दी मिलेमगर ऐसे नहीं!

0 कई साल पहले दिल्ली में हुए निर्भया बलात्कार कांड के बाद अचानक जनता में बढ़ता गुस्सा देखकर सरकार ने रेप के खिलाफ़ और सख़्त कानून बनाने का झांसा देकर एक तरह से सच्चाई पर पर्दा डाल दिया था। अब हैदराबाद में एक डाक्टर के साथ हुए वीभत्स रेप और जघन्य हत्या से उपजे जनता के आक्रोष को शांत करने के लिये तेलंगाना पुलिस ने बलात्कार के चार कथित आरोपियों को तत्काल मुठभेड़ के नाम पर मौत के घाट उतारकर वाहवाह लूटी है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह समस्या का सही हल है?

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  इसमें कोई दो राय नहीं है कि बलात्कार हमारे समाज का नासूर है। यह भी सच है कि रेप के मामलों में सख़्त और शीघ्र सज़ा मिलनी चाहिये। लेकिन सवाल यह है कि ऐसा क्यों नहीं हो पाताहमारे सांसद और विधायक जिस संविधान की शपथ लेकर कानून के राज के लिये चुने गये हैं। आखि़र वे ही क्यों बलात्कार के आरोपियों की मॉब लिंचिंग की पैरवी करने लगे हैंक्या उनको लगता है कि इस देश में लोकतंत्र और अदालतें अपना काम ठीक से नहीं कर पायेंगी?

मिसाल के तौर पर पूर्व मंत्री और भाजपा के सांसद राज्यवधर््ान राठौर ने हैदराबाद के एनकाउंटर को बुराई पर अच्छाई की जीत बताया तो बीजेपी की महिला नेत्री शायना एन सी ने इस घटना को प्राकृतिक न्याय की संज्ञा दी है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने अन्य राज्यों की पुलिस को तेलंगाना पुलिस से प्रेरणा लेने की नसीहत दे डाली तो सपा सांसद जय बच्चन ने बलात्कार आरोपियों की मॉब लिंचिंग की मांग की थी। कांग्रेस नेता और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील अभिषेक मुन सिंघवी ने इस मामले को देश के मूड और भावनाओं से जोड़ते हुए अपनी खुशी का इज़हार ट्विटर पर पांच इमोजी बनाकर किया।

मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी इस तरह की सज़ा का समर्थन किया है। जबकि अभी तक यह साबित नहीं हो सका है कि पुलिस ने जिनको पकड़ा और मुठभेड़ में मारा वे ही वास्तविक बलात्कारी थे?या एनकाउंटर असली है या अधिकांश पुलिस मुठभेड़ों की तरह यह भी फर्जी मुठभेड़ है?उधर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एस ए बोबड़े ने कहा है कि न तो न्याय हाथोहाथ हो सकता है और ना ही यह बदले की भावना से किया जा सकता है क्योेंकि इससे न्याय का चरित्र ही बदल जायेगा। केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी सहित कुछ अन्य दलों के नेता और मानव अधिकार समर्थक भी पुलिस की इस कार्यवाही पर उंगली भी उठा रहे हैं।

    नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बता रहे हैं कि देश में सभी अपराध खासतौर पर बलात्कार के मामलों में न केवल कोई कमी नहीं आई है। बल्कि उनमें और भी बढ़ोत्तरी होती जा रही है। सबसे ख़तरनाक और चिंताजनक बात यह है कि जब से रेप के मामले में सज़ा ए मौत का कानून बना है। तब से आरोपी बचने को बलात्कार पीड़िता को जान से मारने की घटनायें पहले से अधिक करने लगे हैं। सवाल यह है कि जब सरकार ने निर्भया बलात्कार कांड के बाद यह दावा किया था कि रेप के कानून को सख़्त कर दिया गया है।

जिससे भविष्य में इस तरह के वीभत्स अपराधों को करते हुए लोग डरेंगे। फिर ऐसा क्या हुआ कि बलात्कार घटने की बजाये और बढ़ गये?बजाये इस तथ्य की जांच कराने के कि ऐसा अनर्थ क्यों हुआ कि एक तरफ रेप से निबटने को कानून को पहले से कठोर बनाया गया और दूसरी तरफ रेप की दर पहले से और ज्यादा बढ़ गयी। सरकार एक बार फिर वही घिसा पिटा राग अलाप रही है कि बलात्कार के बढ़ते मामलों से निबटने के लिये कानून को और सख़्त किये जाने पर विचार किया जा रहा है।

इस बारे में विचार करें तो यही लगता है कि या तो हमारी सरकार को यही नहीं पता कि कानून सख़्त करने से अपराध पहले भी कम नहीं हुए और आगे भी कम नहीं होंगे। या फिर सरकार जानबूझकर समस्या की जड़ तक जाकर इसका समाधान करने की इच्छुक ही नहीं है। सबको पता है कि कानून सख़्त हो या हल्का उसका भय अपराधियों के दिल में तभी पैदा होता है। जबकि उसके हिसाब से रेप करने वाले को सज़ा हर हाल में मिले। सच यह है कि हमारे देश में सामाजिक लोकलाज और जगहंसाई से बचने को बलात्कार पीड़ित अधिकांश मामलों को थाने ले जाया ही नहीं जाता।

दूसरी बात जो मामले पुलिस के पास पहुंचते भी हैं। उनमें रसूखदार अमीर और दबंग लोगों के खिलाफ रेप का मुकदमा दर्ज ही नहीं हो पाता। इसके बाद अगर रेप पीड़ित किसी बड़ी पहंुचजुगाड़ या कोर्ट में गुहार लगाकर रपट दर्ज कराने में सफल हो भी जाती है तो उस पर आरोपी और हाईप्रोफाइल मामलों में पुलिस हमसाज़ होकर केस वापस लेने का दबाव बनाते हैं। जब बलात्कार पीड़ित तब भी डटी रहती है। तो उसके या उसके परिवार के खिलाफ बदले की भावना से फर्जी केस दर्ज करा दिया जाता है।

उन्नाव रेप के मामले में सत्ताधारी विधायक ने न केवल अपने खिलाफ किसी कीमत पर पुलिस को रपट दर्ज नहीं करने दी। बल्कि उल्टा बलात्कार पीड़िता के पिता को पुलिस से मिलीभगत करके जेल भिजवा दिया। पीड़िता जब मुख्यमंत्री तक शिकायत ले गयी । तब भी उसकी सुनवाई नहीं हुयी। इसके बाद जब उसने आत्मदाह करने का प्रयास किया। तब उसके पिता को आरोपियों ने जेल में मौत के घाट उतार दिया गया। बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती। जब जैसे तैसे रेप का मामला दर्ज भी हो जाता है। इसके बाद मेडिकल से लेकर गवाहों को डराया धमकाया जाता है।

साथ ही कोर्ट में बलात्कार पीड़िता को इतने साल तक चक्कर लगाने पड़ते हैं कि उसका सामाजिक आर्थिक और व्यक्तिगत जीवन बर्बाद हो जाता है। कोर्ट में उससे बलात्कार के आरोपी का वकील ऐसे ऐसे अशोभनीय और अश्लील सवाल पूछता है कि वह वह महसूस करती है कि उसने कानूनी कार्यवाही करके शायद कोई अपराध किया है। दशकों के बाद अगर मामला तय भी होता है। तो उसमें अकसर कमज़ोर प्रमाणों और अध्ूारे तथ्यों के साथ गवाहोें को तोड़ लेने से आरोपी को संदेह का लाभ मिल जाता है।

कई बार देखा गया है खुद सरकारी वकील,सरकारी डॉक्टर और जांच करने वाली पुलिस अकसर बलात्कार पीड़िता का साथ न देकर आरोपी से हमसाज़ नज़र आते हैं। जेसिका लाल प्रियदर्शनी मट्टू और भंवरी देवी के कई चर्चित मामले तक अदालत के अंतिम निर्णय आने तक खुद ब खुद न्याय की चौख़ट पर दम तोड़ देते हैं। 10 से 15 प्रतिशत रेप के मामले ही कोर्ट में साबित हो पाते हैं। ऐसे में सवाल यही उठता है कि कानून सख़्त या नरम क्या करेगा जब रेप केस अंजाम तक तो दूर थाने तक ही नहीं पहंुचते और पुलिस उनको दर्ज ही करने में ही आनाकानी करती है।

इसलिये हमारा कहना है कि सरकारें देश को मूर्ख बनाना बदं कर सिस्टम ऐसा बनायें कि चाहे फांसी की जगह बलात्कार के अपराधी को आजीवन कारावास ही हो लेकिन उसको सज़ा हर हाल में और जल्दी मिले। पुलिस को सज़ा का अधिकार देने से हमारा सिस्टम कानून अदालत व संविधान की जगह बंदूक और भीड़तंत्र की भावनाओं से चलने का ख़तरा है।    

0 न इधर उधर की बात कर यह बता क़ाफ़िला क्यों लुटा,

   मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।         

 

एनआरसी बनाम सीएबी

मुसलमानों को एनआरसी नहीं सीएबी से प्रॉब्लम ?

0भाजपा सरकार ने पहले असम में एनआरसी कराया। उसमें 19 लाख लोग एनआरसी से बाहर हो गये। इनमें अधिकांश हिंदू थे। भाजपा का मक़सद इससे पूरा नहीं हुआ। उसका दावा था कि एक करोड़ से अधिक लोग असम में घुसपैठिये हैं। उसका यह भी आरोप था कि ये लगभग सभी मुसलमान हैं। यह कोई छिपी बात नहीं है कि भाजपा का एजेंडा हिंदू समर्थक नहीं मुस्लिम विरोधी अधिक रहा है। यही वजह है कि अब उसने पूरे देश में एनआरसी संविधान की मूल भावना के खिलाफ जाकर केवल मुसलमानों को बाहर रखने को करना है।

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीज़न और सीएबी यानी सिटीज़न अमेंडमेंट बिल को लेकर आज पूरे देश में हंगामा मचा हुआ है। कैब यानी नागरिकता अधिनियम1955 में संशोधन लोकसभा के दोनों सदनों में विपक्ष के ज़बरदस्त विरोध के बावजूद पास होकर कानून बन चुका है। इस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर भी हो चुके हैं। अब इस कानून को देश में लागू होने से रोकने से लिये दो ही रास्ते बचे हैं। एक सुप्रीम कोर्ट और दूसरा कानून के दायरे में शांतिपूर्ण जन आंदोलन। जहां तक कोर्ट का सवाल है। उसने कश्मीर की धारा 370 राफेल विवाद और अयोध्या पर अब तक जिस तरह का रूख़ अपनाया है।

    उससे बहुत उम्मीद इस बात की नहीं की जा सकती थी कि वह मोदी सरकार के खिलाफ कोई बहुत सख़्त कदम उठायेगा। लेकिन महाराष्ट्र में सरकार बनाने को लेकर सबसे बड़ी अदालत ने जिस तरह से लोकतंत्र को रूसवा होने से बचाया है। उससे न्यायालय से संविधान बचाने की कुछ आशा फिर से जाग उठी है। साथ ही विवादित मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई की विदाई के बाद वर्तमान चीफ जस्टिस एस ए बोबडे ने जिस तरह से हैदराबाद के चर्चित बलात्कार कांड के बाद आरोपियों के कथित पुलिस एनकाउंटर पर सख़्त रूख अपनाया है।

    उससे ऐसा लगता है कि वे न्यायपालिका की छवि को विश्वसनीय और कारगर बनाये रखने के लिये काफी सचेत हैं। जहां तक एनआरसी का सवाल है। देखने में ऐसा लगता है कि इससे किसी भी वर्ग को एतराज़ नहीं होना चाहिये। लेकिन यहां सवाल सरकार की नीयत का है। उसने केवल मुसलमानोें को इससे बाहर रखकर खुद विवादों का पिटारा खोल दिया है। किसी भी सरकार को लोकसभा की सारी 543 सीटें जीतकर भी सरकार बना लेने से संविधान की मूल संरचना में बुनियादी फेरबदल का अधिकार नहीं मिल सकता है।

    लेकिन 2014 से मोदी सरकार बनने के बाद हमारे लोकतंत्र मीडिया न्यायपालिका और सबसे बढ़कर संविधान पर लगातार हमले किये जा रहे हैं। संघ परिवार दिखावे के लिये गांधी जी का नाम लेता है। लेकिन आचरण उनकी सर्वधर्मसमभाव की सोच से उल्टा करता रहा है। कई लोगों को यह बात समझ में नहीं आ रही है कि जब मुसलमान इससे देश में सदियों से रहता आ रहा है। मुसलमानों ने देश को आज़ाद कराने में भी बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। वह आज भी देश की प्रगति और उन्नति में बराबर हर क्षेत्र में शरीक है। फिर उसको एनआरसी में धर्म के आधार पर अलग रखने का एजेंडा क्यों चलाया जा रहा है?

   सवाल यह भी उठेगा ही कि जब हमारे पड़ौसी देश श्रीलंका चीन और म्यांमार में भी कुछ नागरिकों के साथ विभिन्न कारणों से पक्षपात और उत्पीड़न हो रहा है तो केवल बंग्लादेश पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे मुस्लिम देशों के ही गैर मुस्लिम नागरिकों को एनआरसी से बाहर रह जाने पर भारतीय नागरिकता देने का फैसला मोदी सरकार ने क्यों किया हैयह भी साफ है कि पहले तो सरकार ने अपना नाकारापन दिखाते हुए सीमा पर लंबे समय तक अवैध घुसपैठ होने दी। उसके बाद बिना जांच पड़ताल के बाहर देशों से आये लगभग सभी लोगों के सभी तरह के पहचान पत्र बना डाले।

    आज आप उन चंद लाख अवैध घुसपैठियों को तलाशने लिये अपने ही करोड़ों नागरिकों से भारतीय होने का सबूत मांग रहे होउसमें भी धर्म के नाम पर खुला पक्षपात अपना हिंदू वोटबैंक मज़बूत बनाने के लिये पूरी अमानवीयता अनैतिकता और बेशर्मी से करने को कानून बदलते होसवाल यह भी है कि जिस देश में प्रधनमंत्री मोदी केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी अपनी डिग्रियां ना दिखा पाते हों और रक्षा मंत्रालय से विवादित राफेल के अहम पेपर गायब हो जाते हों। वहां आप आम मुसलमान से 30 से 40 साल पुराने काग़जात खुद को हिंदुस्तानी साबित करने को मांग रहे हैं?

    उनमें भी जो पेपर पेश किये जायेंगे आप पूर्वाग्रह और पक्षपात के कारण ज़रा सी कमी शक या नाम पते में स्पैलिंग अलग होने से उनको पूरी बेदर्दी और उनसे घृणा के कारण निरस्त कर दोगे। ऐसे में सरकार और प्रशासन पर कोई मुसलमान ही नहीं आम आदमी गरीब आदमी और अनपढ़ आदमी कैसे भरोसा कर सकता हैसरकार का मकसद जानबूझकर केवल बड़ी तादाद में मुसलमानों की नागरिकता खत्म कर उनको डिटेेंषन कैंपों में रखना और उनके सारे नागरिक अधिकार छीन लेना साफ नज़र आ रहा है।

    हमारा कहना है कि ये देश सबका है। इसको बनाने से लेकर आज़ाद कराने तक सबका ही अहम रोल रहा है। सरकारें आती जाती रहती हैं। किसी को भी ऐसा पक्षपात पूर्वाग्रह और किसी वर्ग विशेष के साथ शत्रुता का व्यवहार नहीं करना चाहिये। जिससे देश की शांति एकता और अखंडता को ख़तरा पैदा होने की आशंका हो। सत्ता और वोटबैंक की सियासत करने वालों को यह शेर याद रखना चाहिये।     

0 ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने,

 लम्हों ने ख़ता की थीसदियों ने सज़ा पाई।।