Sunday 26 June 2022

शिवसेना में विद्रोह

*महाराष्ट्रः सरकार तो नहीं बचेगी, शिवसेना ठाकरे की ही रहेगी?*

0एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना विधायकों में जो बग़ावत हुयी है। उससे आज नहीं तो कल ठाकरे सरकार का जाना तो लगभग तय है। लेकिन कम लोगों को पता है कि यह वास्तव में महाराष्ट्र सरकार से अधिक उस मुंबई महानगर निगम पर कब्जे़ की लड़ाई की बानगी है जिसका बजट देश के लगभग एक दर्जन से अधिक छोटे राज्यों से अधिक यानी 26000 करोड़ का है। कुछ माह बाद इसके चुनाव होने हैं। इसके साथ ही यह 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले की उस कवायद का भी हिस्सा है। जिसमें भाजपा को महाराष्ट्र बंगाल व तमिलनाडू में 2019 के बाद बदले समीरणों को बहुमत पाने में बाधा बनने से हर हाल में रोकना है। दल बदल कानून से बचने में शिंदे गुट कामयाब होता है या नहीं यह देखना रोचक होगा।    

     *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      शिवसेना ने पिछला विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़ा था। दोनों को साझा रूप से बहुमत भी मिल गया था। लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर दोनों में विवाद होने के बाद गठबंधन टूट गया था। इसके बाद शरद पवार जैसे वरिष्ठ राजनीतिज्ञ ने उध्दव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना की एनसीपी और कांग्रेस के सपोर्ट से सरकार बनवा दी थी। दरअसल उसी समय एकनाथ शिंदे को सीएम बनाये जाने का प्रस्ताव था। लेकिन अंतिम क्षणों में पवार ने ठाकरे को सीएम बनने के लिये तैयार किया था। इससे आज के विद्रोह की बुनियाद उसी दिन पड़ गयी थी। इसके बाद ये आरोप लगातार लगते रहे कि ठाकरे पवार के इस एहसान की वजह से शिवसेना से अधिक एनसीपी को वेट देने लगे हैं। उधर भाजपा के पूर्व सीएम देवेंद्र फड़नवीस एनसीपी में नाकाम विद्रोह कराकर शपथ लेकर भी बहुमत साबित ना कर पाने के बाद लगातार तीन दलों की महा विकास अघाड़ी सरकार को तोड़ने का प्रयास करते रहे। उधर केंद्र की मोदी सरकार ने ठाकरे सरकार के कई मंत्री से लेकर विधायकों व एनसीपी के कुछ नेताओं पर केंद्रीय एजेंसियों की जांच की तलवार लटकाकर व कुछ को जेल भेजकर इतना अधिक दबाव बना दिया कि उनके पास शिवसेना से बगावत करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। इस असंतोष और बेचैनी का इशारा ठाकरे सरकार को हाल ही में हुए राज्यसभा और विधान परिषद के चुनावों में महा अघाड़ी के विधायकों का भाजपा के पक्ष में मतदान करने से मिल गया था। ठाकरे ने शक होने पर शिंदे को तलब कर उनसे सफाई मांगी तो वह कोरा झूठ बोलकर अपने आंसुओं की आड़ में बच निकले। इसके बाद शिंदे ने दिल्ली के इशारे पर ईडी की जांच से बचने मोटी रकम का लालच असंतुष्ट विधायकों को मंत्री पद दिलाने व खुद उपमुख्यमंत्री बनने और ठाकरे के हिंदुत्व से हटने व शिवसेना मंत्रियों व विधायकों को सीएम ठाकरे द्वारा भाव ना देने के बहाने भड़काकर विद्रोह को अंजाम तक पहंुचा दिया। इस विद्रोह से पहले तो ठाकरे और पूरी शिवसेना सकते में आ गयी। इसके साथ ही सहयोगी दल एनसीपी और कांगे्रस भी ठगे से रह गये। लेकिन जैसे ही शिंदे ने यह बयान दिया कि उनके साथ एक बहुत बड़ी शक्ति यानी भाजपा है तो पवार ने घाघ राजनेता की तरह ठाकरे सरकार  बनाने की तरह उसे बचाने को एक बार फिर पूरी मज़बूती और परिपक्वता से कमान संभाल ली। ठाकरे ने उनकी सलाह मानते हुए सीएम आवास तो तत्काल छोड़ दिया। लेकिन पद से रिज़ाइन नहीं किया। इसका नतीजा यह हुआ कि जो शिंदे पूरी शिवसेना अपने साथ होने का दावा कर रहे थे। वे बाद में कहने लगे कि उनके साथ दो तिहाई शिवसेना विधायक हैं। एक बार पहले ही आधी रात को शपथ लेकर सरकार ना बना पाने वाले फड़नवीस की भाजपा ने भी फिर से लज्जित होने से बचने को शिंदे से यह बयान पलटवा दिया कि उनके साथ कोई केंद्रीय राजनीतिक दल है। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। इतने समय में ही शिवसेना शुरू के झटकों से उभरकर बचाव की मुद्रा छोड़ अपने परंपरागत आक्रामक रूप में वापस आ गयी। उसने सरकार जाती देख अंतिम समय तक कानूनी लड़ाई के साथ ही अपनी पार्टी बचाने और विद्रोही विधायकों को सड़क पर जनता के बीच धोखेबाज़ डरपोक और मराठी अस्मिता का सौदा करने वाले साबित करने की जंग का एलान कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि विद्रोही शिंदे गुट वहीं अटक गया है। इस दौरान यह प्रस्ताव भी आया कि ठाकरे महा अघाड़ी छोड़कर भाजपा के साथ आयें। लेकिन ठाकरे ने इससे मना कर दिया। अब तक का रिकार्ड देखा जाये तो ठाकरे सरकार कोरोना से लेकर कानून व्यवस्था और राज्य की उन्नति व विकास में देश के कुछ गिने चुने सफल सीएम में गिने जाते हैं। अपवाद के तौर पर पालघर में तीन साधुओं की माॅब लिंचिंग उनकी बड़ी नाकामी रही हैै। लेकिन दिल्ली के साथ उनके रिश्ते कभी भी सामान्य नहीं रहे। जब जब मोदी सरकार सीबीआई व ईडी ने ठाकरे सरकार पर हमला बोला उन्होंने बिना डरे जवाबी धावा बोला है। इसके साथ ही भाजपा के खास रहे रिपब्लिक चैनल के अर्णव गोस्वामी फिल्म कलाकार सुशांत राजपूत कंगना रानौत नवनीत राणा या नूपुर शर्मा ठाकरे ने कानूनी कार्यवाही की पहल करके केंद्र सरकार को सीधी चुनौती दी है। बुल्ली डील एप और सुल्ली सेल जैसे मुस्लिम महिलाओं की बोली लगाने वालों और मस्जिद से अज़ान के समय हनुमान चालीसा का लाउड स्पीकर पर पाठ करने वालों के खिलाफ भी ठाकरे सरकार ने पूरी सख़्ती से कार्यवाही कर भाजपा की हिंदुत्ववादी नहीं मुस्लिम विरोधी हरकतों पर ना झुकने का कड़ा संदेश दिया है। उनका एक मंत्री शाहरूख़ खान के बेटे को ईडी द्वारा फर्जी केस में फंसाये जाने पर ईडी के एक चर्चित अधिकारी से भी भिड़ चुका है। जिसकी कीमत वह आज जेल जाकर चुका रहा है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ठाकरे की सरकार भले ही चली जाये लेकिन वह झुककर भाजपा से अब समझौता करने वाले नहीं है। जहां तक संगठन का सवाल है। इसमें कोई दो राय नहीं शिंदे के साथ शिवसैनिक और मराठी जनता का बड़ा वर्ग क्षेत्रीय अस्मिता मराठी मानुस और ठाकरे परिवार के प्रति अटूट वफादारी की वजह से नहीं आयेगा। यह भी तय है कि जब कभी भी शिंदे अपने विद्रोही विधायकों के साथ मुंबई विधानसभा में स्पीकर के चुनाव अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान या अपने विद्रोह को कानूनी साबित करने को अपना पक्ष रखने आयेंगे उनका मूल शिवसेना इतना जोरदार विरोध करेगी कि सब बागी एमएलए उनके साथ नहीं रह पायेंगे। वैसे भी उनके आने से पहले ही उनके 12 से 16 विधायक पार्टी से निकालकर उनका पक्ष कमजोर कर दिया जायेगा। जिससे वे विधायकी खो सकते हैं। 

*नोट-लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर एवं  नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

           


Monday 20 June 2022

अग्निवीर

*अग्निवीर: समस्या 4 साल की नहीं 8 साल की है ?* 

0सेना में भर्ती के लिये मोदी सरकार ने अग्निवीर योजना पेश की है। इसका मकसद ना केवल युवाओं को रोज़गार देना है बल्कि उनके मन में देशभक्ति की भावना को बढ़ाना और मां भारती की सेवा का अधिक से अधिक युवाओं को मौका देना है। इसीलिये इसका सेवाकाल 15 की जगह 4 साल रखा गया है। चार साल की सेवा के बाद 75 प्रतिशत को 12 लाख रू. व 25 प्रतिशत को स्थायी सैनिक बनने का गौरव भी मैरिट के आधार पर मिलेगा। लेकिन इस योजना की अवधि 4 साल होना कुछ युवाओं को भा नहीं रहा है। वे इसके विरोध में सड़कों पर उतर आये हैं। कुछ जगह विरोध हिंसक भी हो गया है। जोकि बिल्कुल गलत है। विरोध पेंशन ना मिलने को लेकर भी है। लेकिन यह समस्या केवल पेंशन या अवधि चार साल से अधिक मोदी सरकार के 8 साल के कार्यकाल की आार्थिक नीतियों को लेकर अधिक है।    

      *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 

      1991 में हमारे देश में कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने पूंजीवादी आर्थिक नीतियां खुलकर अपनानी शुरू कर दी थीं। उसके बाद देवगौड़ा गुजराल की संयुक्त मोर्चा वाजपेयी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और मनमोहन सिंह की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की वामपंथी दलों के सहयोग से बनी सरकारें भी लगातार समाजवाद का रास्ता छोड़कर एकतरफा पूंजीवाद का पक्ष लेती नज़र आने लगीं। 2014 में बनी भाजपा की मोदी सरकार ने इस मामले में पिछली सरकारों के पंूजीपतियों के पक्ष में साफ नज़र ना आने को बीच बीच में रोज़गार का अधिकार यानी मनरेगा सूचना का अधिकार यानी आरटीआई शिक्षा अधिकार और भोजन का अधिकार जैसे कुछ ऐसे काम करने की भी ज़हमत नहीं की जिससे यह भ्रम हो कि यह सरकार भी कुछ कुछ समाजवादी है। यह सारी भूमिका हमने इसलिये बताई कि अग्निवीर योजना में 75 प्रतिशत सैनिकों को चार साल बाद 12 लाख रू. अन्य सरकारी सेवाओं में 10 प्रतिशत आरक्षण व प्राथमिकता और अन्य तमाम सुविधायें मिलने के बावजूद पेंशन ना मिलना सरकार की पूंजीवादी नीतियों की मजबूरी है। सरकार बहुत तेज़ी से अपने उपक्रमों का निजीकरण कर रही है। इसमें इस बात का भी ख़याल नहीं रखा जा रहा है कि केवल नुकसान में चलने वाली सरकारी कंपनियों को बेचा जाये। मोदी सरकार का मानना है कि व्यापार करना सरकार का काम ही नहीं है। पंूजीपतियों को नवरत्न सरकारी कंपनियां भी औनपौने दाम पर बची जा रही हैं। कारपोरेट का टैक्स लगातार कम किया जा रहा है। उनको सस्ती दर पर बैंक लोन दिया जा रहा है। उनका लाखों करोड़ का एनपीए यानी बुरा कर्ज़ बड़ी तेजी से पहले राइट आॅफ और फिर माफ किया जा रहा है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार ऐसा करके इन बड़े पूंजीपतियों से भाजपा के लिये मोटा चुनावी चंदा ले रही है। इलैक्ट्रोरल बांड के ज़रिये सभी दलों को मिलने वाले चंदे को देखा जाये तो इसमें भाजपा सबसे आगे नज़र भी आती है। वैसे भाजपा ही नहीं सभी दलों को इसके अलावा भी चंदा मिलता रहा है। जिसका हिसाब किताब चुनाव आयोग के पास भी नहीं है। सत्ताधरी दल चाहे आज भाजपा हो या कल कांग्रेस या दूसरे दल रहे हों या आज अन्य राज्यों मंे सेकुलर दल हों उनके पास पैसा उगाहने के अन्य नैतिक और अनैतिक तरीके भी रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि जिस तरह से 2004 में वाजपेयी सरकार ने केंद्र में सरकारी कर्मचारियों की पेंशन बंद कर दी थी। उसके बाद न केवल भाजपा शासित बल्कि अन्य दलों की अधिकांश राज्य सरकारों ने भी अपने अपने कर्मचारियों की पेंशन बंद कर दी थीं। आज हालत यह है कि केंद्र सरकार हो या राज्य सराकारें सबके पास धन की कमी है। यही वजह है कि वे कई सालों से लाखों पद खाली होने के बाद भी सरकारी भर्ती खोलने को तैयार नहीं हैं। मोदी पीएम बनने से पहले हर साल दो करोड़ रोज़गार देने का वादा करके सत्ता मंे आये थे। लेकिन उनके 8 साल के कुल कार्यकाल में भी इतने रोज़गार शायद पैदा नहीं हुए होंगे। उधर किसान पहले ही पेरशान हैं। महंगाई से आम आदमी का दम घुट रहा है। लेकिन मोदी सरकार ने इन वास्तविक समस्याओं से लोगों का माइंड हटाने केे लिये भावनात्मक मुद्दे ही बार बार उठाये हैं। सवाल यह है कि अग्निवीर योजना से सबको ना सही लेकिन कुछ युवाओं को कुछ समय का तो रोज़गार मिलेगा। बढ़ती आबादी और घटती आमदनी के दौर में सरकार बिना पेंशन व कम समय की नौकरी के अलावा चाहकर भी और क्या कर सकती है? जब 2019 में हमने मोदी सरकार को एक बार फिर से सत्ता में लाने को बहुमत दिया था तो क्या हम इस सच से अंजान थे कि मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां क्या हैं? अगर हमने सांस्कृतिक धार्मिक जातीय क्षेत्रीय और एक वर्ग विशेष को मुख्य धारा में लाने के नाम पर कानूनी गैर कानूनी सरकारी बल प्रयोग करने को वोट दिया था तो आज मोदी सरकार की गल्ती कहां है? पंूजीवादी नीतियों का प्रतिफल यही होना था यही हो रहा है। आज निजी शिक्षा और निजी इलाज आम आदमी ही नहीं मीडियम क्लास की पहंुच से भी बाहर होता जा रहा है। सरकारी कार्यालयों में करप्शन किसी से छिपा नहीं है। लेकिन भाजपा की प्राथमिकता में जो राम मंदिर धारा 370 और काॅमन सिविल कोड जैसे मुद्दे थे। वह उन पर पूरी ईमानदारी और लगन से काम कर ही रही है। दो वादे मोदी सरकार ने पूरे कर दिये है। तीसरा भी अगले आम चुनाव से पहले पूरा होने के पूरे आसार हैं। हमें पूरा विश्वास है कि इन और इन जैसे अन्य राष्ट्रवादी मुद्दों पर ही मोदी जी 2024 में न केवल तीसरी बार पीएम बन जायेंगे बल्कि भाजपा के वोट और सीट दोनों पहले से और बढ़ जायेंगे। इसकी वजह यह है कि गोदी मीडिया ने देश के जनमानस को दिन रात एक करके विकास रोटी रोज़ी नौकरी पेंशन शिक्षा चिकित्सा समानता मानवता गरिमा नागरिक अधिकार संविधान न्याय और सुशासन जैसे मुद्दों  को गैर ज़रूरी और नफ़रत हिंसा हिंदू मुस्लिम बैर हिंदू राष्ट्र नकाब हिजाब जनसंख्या बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद मथुरा की ईदगाह समान नागरिक संहिता सड़क पर नमाज़ मस्जिद की अज़ान कपड़ों से पहचान हिंसा आगज़नी का आरोप लगने पर बिना अपराधी साबित हुए किसी के घर चलने वाले बुल्डोज़र का जोशभरा आंखो देखा हाल और स्टूडियो में रोज़ नागरिकों में आपसी दरार बढ़ाने वाली गरमा गरम सड़कछाप बहसों को जनता के सबसे बड़े सवाल मांग और मकसद बना रखा है। सवाल यह है कि ऐसे में चार साल की सेवा और पेंशन की बात कौन सुनेगा?  

नोट-लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।

Sunday 12 June 2022

सब धर्मों का सम्मान

*सब धर्मों का सम्मान तभी होगा जब कानून का सम्मान होगा!* 
0दो भाजपा प्रवक्ताओं ने इस्लाम के पैगं़बर हज़रत मुहम्मद के बारे में कुछ अपमानजनक बोला तो भाजपा ने उनमें से एक को पार्टी से बाहर कर दिया और दूसरे को 6 साल को सस्पैंड कर दिया। भाजपा ने यह भी सफाई दी कि वह सब धर्मों का बराबर सम्मान करती है। इसके बाद हज़ूर की शान में गुस्ताख़ी करने वाले इन दोनों नेताओं के खिलाफ़ पुलिस ने रिपोर्ट भी दर्ज कर ली। हो सकता है कि कुछ समय जांच के बाद पुलिस इनको गिरफ़तार भी कर ले। लेकिन यह विवाद इसके बाद भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। देश में कई जगह इस मामले में प्रदर्शन आगज़नी और हिंसा हुयी है। कुछ कट्टरपंथी आरोपियों को चैराहे पर फांसी देने की मांग कर रहे हैं। जबकि एक आतंकी संगठन ने दोनों को आत्मघाती बम से उड़ाने की धमकी दी है। जो कि ग़लत है।    
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
      आमतौर पर दुनिया के देश लोकतंत्र और राजशाही दो ही तरीकों से चलते हैं। बताया जाता है कि हमारे देश में लोकतंत्र है। जिसके लिये संविधान यानी नियम कानून बनाये गये हैं। यह भी माना जाता है कि देश के सभी नागरिक समान हैं। हालांकि व्यवहारिक रूप में ऐसा कम ही देखने को मिलता है। उनको अभिव्यक्ति की आज़ादी तो है लेकिन एक दूसरे की यह स्वतंत्रता वहां समाप्त हो जाती है। जहां से दूसरे की शुरू होती है। पैग़ंबर का मामला तो ताज़ा है। अगर आप इतिहास देखें तो सारे फ़साद वहीं से शुरू होते हैं। जहां हम कानून का सम्मान नहीं करते। मिसाल के तौर पर इस्लाम ही नहीं सभी धर्म आस्था यानी ईमान से चलते हैं। मतलब यह है कि आस्था का आप केवल सम्मान कर सकते हैं। उसको प्रमाणिक वैज्ञानिक तर्कसंगत उचित सही सच न्यायसंगत और सार्वभौमिक साबित नहीं कर सकते। इसलिये ऐसे कानून बनाये गये हैं कि कोई किसी के धर्म को उनके अवतार को पवित्र धार्मिक ग्रंथों को उनके ईश्वर देवी देवता मंदिर मस्जिद इमाम पुजारी और धर्म से जुड़ी मान्यताओं को बुरा नहीं कहेगा। यानी किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचायेगा। कोई अगर जानबूझकर ऐसा करेगा तो उसके खिलाफ कानून अपना काम करेगा। लेकिन यह भी देखने में आता है कि कुछ लोग अलग अलग कारणों से लगातार इस तरह के बयान काम और हरकतें करने से बाज़ नहीं आते। जिससे समाज के विभिन्न वर्गों में आपसी तनाव टकराव हिंसा और अशांति पैदा होती है। इससे ना केवल देश का आर्थिक सामाजिक और कानून व्यवस्था का नुकसान होता है बल्कि ये मामले कभी कभी विदेशों तक में देश को बदनाम और अपमानित करा देते हैं। जैसा कि पैगं़बर वाले वर्तमान मामले में इस बार हुआ है। अगर भाजपा प्रवक्ताओं के विवादित बयान देते ही भाजपा व उसकी सरकार तत्काल हरकत में आती और जो कार्यवाही अरब देशों के विरोध दर्ज करने के बाद हुयी है, वह अपने भारतीय नागरिकों के विरोध व नाराज़गी को दूर करने के लिये पहले ही हो जाती तो इससे आज के मुश्किल हालात से बचा जा सकता था। खैर फिर भी देर आयद दुरस्त आयद मानकर हमें यह संतोष करना होगा कि कार्यवाही की गयी है। वैसे ही अगर हम गहराई से देखें तो यह मामला जितना तूल पकड़ गया है। वह एक लक्ष्ण मात्र है। रोग यह है कि हम संविधान में सबको बराबर अधिकार दिये जाने के बावजूद व्यवहार में समान नहीं मान रहे हैं। सच यह भी है कि हम सब एक दूसरे को कानून से चलने को तो कहते हैं। मगर खुद उस पर अमल नहीं करते। इतना ही नहीं आरोपियों के खिलाफ रपट भी दर्ज हो गयी है। आगे सज़ा देने का काम कोर्ट का है। सवाल यह भी है कि जब आरोपियों को सत्ताधारी दल ने अनुशासन की कार्यवाही करके सज़ा दे दी तो भी लोग संतुष्ट क्यों नहीं हो पा रहे हैं? लेकिन कुछ कट्टरपंथी आरोपियों को अपने हिसाब से सज़ा देने की मांग कर रहे हैं। ऐसे ही मस्जिदंे नमाज़ पढ़ने के लिये होती हैं। लेकिन कई बार जुमे की नमाज़ के बाद नमाज़ी बड़ी तादाद में बिना पुलिस प्रशासन से अनुमति लिये वापसी में प्रदर्शन करना शुरू कर देते हैं। प्रदर्शन करो लेकिन अनुमति लेकर। सरकार और मुसलमानों दोनों को यह समझने की ज़रूरत है कि उनके बीच कुछ सालों से आपसी विश्वास कम क्यों हो रहा है? क्या मुसलमानों की इस शिकायत में कुछ दम नहीं है कि सरकार उनके साथ समानता का व्यवहार नहीं कर रही है? साथ ही मुसलमानों को यह समझना ही होगा कि उनको सरकार से अगर अपनी जायज़ बात मनवानी है तो कानून का रास्ता ही अपनाना होगा। अगर कुछ लोग आंदोलन के नाम पर कानून हाथ में लेंगे तो उनकी मांगे तो पूरी होंगी ही नहीं साथ ही सरकार उनसे बेहद सख़्ती से पेश आयेगी। जिससे उनका उल्टा और अधिक नुकसान ही होगा। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश में बहुमत की जगह बहुसंख्यकवाद ने ले ली है। इसी वजह से पहले जो सेकुलर दल जाति और अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता की सियासत करते थे। आज उसके विकल्प के रूप में भाजपा हिंदू तुष्टिकरण करके बहुसंख्यकवाद की राजनीति कर रही है। यह अलग बात है कि आज भाजपा के ये दो प्रवक्ता अल्पसंख्यकोें के खिलाफ ज़हर उगलते हुए अचानक लक्ष्मण रेखा पार करके ना केवल भारतीय मुसलमानों बल्कि देश के सेकुलर भारतीयों व दुनिया के दो अरब मुसलमानों के दिल को दुखाकर उनकी नज़र में इस्लाम के दुश्मन बन चुके हैं। लेकिन सच यह है कि कई साल से देश में जिस तरह की राजनीति चल रही है। जिस तरह के बयान कानून और घटनायें चुनचुनकर हो रही हैं। जिस तरह से एक वर्ग विशेष को टारगेट किया जा रहा है। जिस तरह से धर्म के नाम पर एक वर्ग विशेष के नरसंहार का खुला आव्हान किया जाता रहा है। उससे एक ऐसा माहौल बना जिसमें ये दो प्रवक्ता एक दूसरे से आगे निकलकर अपने वरिष्ठ नेताओं पार्टी पदाधिकारियों और कुछ बडे़े सरकारी ओहदों पर बैठे अपने आक़ाओं को खुश करने के लिये कानून और धर्म की मर्यादा व सीमा भूलकर मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहचा बैठे। लेकिन अब खुद भाजपा ने अपने तीन दर्जन से अधिक फायर ब्रांड नेताओं की सूची बनाकर उनमें से दो दर्जन से अधिक को संभल कर बोलने की चेतावनी जारी कर यह भरोस दिलाया है कि देश संविधान से चलेगा और सबका सम्मान होगा।  
 *नोट-लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*