Saturday 26 March 2022

कांग्रेस और भाजपा

कई दशक कांग्रेस भाजपा का मुक़ाबला नहीं कर पायेगी?

0 पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद एक बार फिर साबित हो गया है कि आज देश में सबसे मज़बूत भाजपा और सबसे मजबूर कांग्रेस पार्टी बन चुकी है। आज़ादी के बाद का इतिहास देखें तो कांग्रेस केंद्र और राज्यों में एकछत्र राज करने वाली एकमात्र पार्टी थी। लेकिन 55 साल पहले कांग्रेस तमिलनाडू में हारी, 45 साल पहले बंगाल में हारी ,33 साल पहले यूपी और बिहार में हारी 32 साल पहले उड़ीसा में हारी और 27 साल पहले गुजरात में हारी व 12 साल पहले दिल्ली में हारी तो कभी सत्ता में नहीं लौटी। उत्तराखंड और पंजाब में भी लगता है उसके साथ यही कहानी दोहराई जायेगी। इतना ही नहीं राज्यों के साथ साथ कांग्रेस केंद्र में भी इसीलिये कमज़ोर होती जा रही है। 

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      पंजाब मंे चुनाव हारने के बाद कांग्रेस पार्टी आज देश के मात्र दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता में रह गयी है। जुम्मा जुम्मा आठ दिन की आम आदमी पार्टी भी उसकी बराबरी करते हुए देश की ऐसी दूसरी पार्टी बन गयी है। जिसका राज दो राज्यों मेें हो गया है। हालांकि कांग्रेस का आधार संगठन और वोटबैंक आज भी भाजपा के बाद सबसे बड़ा है। आप को पूरे देश में ऐसा करने में अभी कई दशक लग सकते हैं। अब यह सवाल भी उठने लगा है कि कांग्रेेस 2024 के चुनाव के बाद मुख्य विपक्ष भी रह पायेगी या नहीं? कांग्रेस पर सबसे बड़ा आरोप वंशवादी पार्टी होने का लगता रहा है। लेकिन राज्यों के स्तर पर देखंे तो अखिलेश यादव तेजस्वी यादव नवीन पटनायक उद्ध्व ठाकरे और सुखवीर बादल सहित कई और पार्टी मुखिया अपने पिता की राजनीतिक विरासत के सहारे ही यहां तक पहंुचे हैं। लेकिन उनको लेकर इतनी हायतौबा नहीं मचती जितना निशाना राहुल गांधी पर साधा जाता है। इतना ही नहीं कांग्रे्रसमुक्त भारत का सपना देखने वाली भाजपा में भी पीयूष गोयल ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रवेश वर्मा पूनम महाजन और अनुराग ठाकुर व वरूण गांधी जैसे वंशवादी नेताओं की एक लंबी लिस्ट है। खुद कांग्रेस में भी कई और लीडर वंशवादी हैं। लेकिन उनको टारगेट नहीं किया जाता। इसकी वजह यह है कि राहुल गांधी आज तक सियासी तौर पर परिपक्व नहीं हो सके हैं। उनके पास कांग्रेस का कोई बड़ा पद भी नहीं है। लेकिन वह कांग्रेस को ऐसे चलाते हैं। जैसे कांग्रेस उनकी सियासी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी हो। मिसाल के तौर पर कांग्रेस की प्रसीडेंट सोनिया गांधी हैं। उसके 9 महासचिवों में प्रियंका गांधी भी एक हैं। लेकिन राहुल इनमें शामिल नहीं हैं। राहुल किसी राज्य के प्रभारी भी नहीं हैं। कांग्रेस की एक वर्किंग कमैटी है। जिसके कुल 20 सदस्य हैं। राहुल गांधी उन 20 में से एक हैं। लेकिन गांधी परिवार से होने की वजह से वह फैसले इस तरह से करते हैं। जैसे वह कांग्रेस के सर्वेसर्वा हों? राहुल गांधी 2019 तक कांग्रेस के प्रेसीडेंट थे। लेकिन आम चुनाव में बुरी तरह हार के बाद उन्होंने नैतिक जि़म्मेदारी लेते हुए यह पद छोड़ दिया था। उसके बाद सोनिया फिर से कांग्रेस की कार्यवाहक मुखिया बन गयी थीं। लेकिन वह कभी भी किसी पब्लिक रैली जनसभा चुनाव प्रचार या इंटरव्यू में सामने नहीं आती। दूसरी तरफ बिना किसी बड़े पद के हर जगह राहुल गांधी कांग्रेस के एकमात्र चेहरे के तौर पब्लिक में आते हैं। उधर प्रियंका गांधी को कांग्रेसी बहुत बड़ा तुरूप के पत्ता मानकर चल रहे थे। लेकिन यूपी में प्रियंका ने जो सराहनीय विपक्ष के तौर पर संघर्ष किया उसके बाद हुए चुनाव में कांग्रेस की सीट और वोट और भी कम हो गये। उधर सोशल मीडिया के द्वारा संघ परिवार राहुल को पप्पू और प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू को विलेन बनाने मंे लगा रहता है। राहुल गांधी ने एक बड़ी गल्ती और की है। उन्होंने कभी किसी राज्य के चुनाव प्रचार की जि़म्मेदारी लेकर कांग्रेस को जीत नहीं दिलाई। साथ ही वे मोदी की तरह किसी राज्य के सीएम भी नहीं बने। इतना ही नहीं 2004 से 2014 तक उनको तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह ने कई बार केंद्र में अपनी पंसद का मंत्रालय लेकर काम करने का प्रस्ताव दिया। जिससे राहुल अपनी योग्यता का लोहा मनवा सकते थे। लेकिन वह लगातार मना करते रहे। कांग्रेस ने भाजपा के गुजरात और आप के दिल्ली माॅडल की तरह किसी राज्य को आदर्श बनाकर जनता के सामने नहीं रखा। ऐसे ही कांग्रेस ने अन्य दलों की तरह किसी गैर गांधी कांग्रेसी को राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर कभी उभरने नहीं दिया। इतना ही कई राज्यों में सरकार में रहते वहां के मुख्यमंत्रियों का इतना अपमान उपेक्षा और कद कम करने की साजि़श की गयी कि वे कांग्रेसी नेता मजबूर होेकर क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर कांग्रेस से अलग होकर नये दल बनाकर कांग्रेस का अपने राज्य से नाम व निशान मिटाने में लग गये। हाल ही में पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ राहुल और प्रियंका ने उनको सीएम पद से हटाकर यह खेल किया। अगर आप गिनना चाहें तो ममता बनर्जी से लेकर हिमंत विस्व सर्मा तक देश के कम से कम 8 राज्यों में ऐसे सीएम या मुख्य क्षेत्रीय विपक्षी दल के  नेता आपको मिल जायेंगे जिनको कांग्रेस ने पार्टी से बाहर जाने को ज़लील किया। हमें नहीं लगता कांग्रेस अपनी भूलों को सुधारेगी। राहुल गांधी ट्विटर के अलावा भाजपा के प्रचार अभियान का जवाब देने को जब तक ज़मीन पर उतरकर अनशन आंदोलन और पदयात्रा नहीं करेंगे। कांग्रेस का ग्राफ दिन ब दिन गिरता ही जायेगा। कांग्रेस को शायद यह गलतफहमी है कि जब लोग भाजपा की साम्प्रदायिक समाजविरोधी और संकीर्ण नीतियों से तंग आकर तौबा करना चाहेंगे तो वे खुद ही कांग्रेस के पास वोट व सपोर्ट करने आयेंगे। लेकिन कांग्रेस यह भूल रही है कि उसकी जगह तेज़ी से सपा बसपा आरजेडी टीएमसी एनसीपी और आम आदमी पार्टी राज्यों में और भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर लेती जा रही है। मिसाल के तौर पर जिन राज्यों की सत्ता से कांग्रेस एक बार बाहर हो गयी और वहां उसकी जगह भाजपा या किसी क्षेत्रीय दल ने ले ली वहां फिर कभी अपवाद छोड़कर कांग्रेस की वापसी सत्ता में नहीं हो पाती है। इतना ही नहीं आज के दौर में जहां जिस राज्य में जिस दल का राज है। वहां उसी दल के सांसद भी लोकसभा चुनाव में जीतने लगे हैं। कांग्रेस अपनी अकेला चलने की अकड़ छोड़कर जब तक क्षेत्रीय दलों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर मज़बूत विचारधारा और काॅमन मिनिमम प्रोग्राम के आधार पर साझा मोर्चा नहीं बनायेगी। उसके वापस केंद्र की सत्ता में आने के दूर दूर तक आसार नहीं हैं। दूसरी बात पीएम मोदी का कोई विकल्प कांग्रेस के पास नहीं खुद भाजपा या किसी अन्य दल के पास भी आज नहीं है। कोई माने या ना माने मोदी देश के एक बड़े हिंदू वर्ग के दिलों पर राज करने लगे हैं। यही वजह है कि महंगाई बेरोज़गारी और कोरोना में तमाम नुकसान उठाकर भी जनता का बहुमत न केवल उनको केंद्र में बार बार सत्ता सौंप रहा है बल्कि उनके नाम पर कई राज्यों में भी भाजपा जीत रही है। अगर कांग्रेस अन्य सेकुलर दलों को साथ लेकर जनता का हिंदुत्व से कट्टर बन रहे दिमाग का ब्रेनवाश बड़े पैमाने पर आज नहीं करेगी तो वह कई दशक सत्ता से दूर रहेगी।                                         

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।

भाजपा और मुसलमान

*भाजपा और मुसलमान एक दूसरे का विरोध क्यों करते हैं?*

0एबीपी लाइव डोटकाॅम की ख़बर के अनुसार यूपी में रामपुर की विलासपुर सीट से लगभग 300 वोट से बड़ी मुश्किल से जीते भाजपा विधायक और पूर्व मंत्री बलदेव सिंह औलख ने आरोप लगाया है कि मुसलमानों ने हमारी सरकार की तमाम लाभकारी योजनाआंे का लाभ उठाया लेकिन फिर भी विधानसभा चुनाव में भाजपा को सपोर्ट नहीं किया। उन्होंने चेतावनी भी दी कि अब यूपी में बुल्डोज़र और तेज़ चलेगा। औलख ने यहां तक कह दिया कि अब हमें यह सोचना पड़ेगा कि भाजपा को हराने के लिये कोई कसर ना छोड़ने वाले मुसलमानों का क्या करना है? यह सच है कि मुसलमान आमतौर पर भाजपा को वोट नहीं देते लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि भाजपा मुसलमानों के विरोध का कोई मौक़ा नहीं छोड़ती ऐसा क्यों है?    

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       विश्वसनी सर्वे एजंसी के आंकड़ों के हिसाब से देखें तो इस चुनाव में मुसलमानों ने सपा को सबसे अधिक 79 परसेंट वोट किया है। लेकिन यही सर्वे बताता है कि उनका 8 परसेंट वोट भाजपा को भी गया है। जबकि पिछले चुनाव में उनका 19 परसेंट वोट लेने वाली बसपा को इस बार केवल 6 परसेंट मतदान हुआ है। यानी भाजपा से भी कम। उधर यादवों ने सपा को सर्वाधिक 83 परसेंट वोट किया है। ऐसे ही जाटवों ने बसपा को सबसे अधिक 65 परसेंट वोट दिया है। लेकिन भाजपा नेता जब केवल मुसलमानों को वोट ना देने के लिये टारगेट करते हैं तो मुसलमानों की यह शिकायत सही नज़र आती है कि उनको तो केवल मुसलमानों पर निशाना साधना है। इस बात को इस तरह भी समझा जा सकता है कि भाजपा को केवल 41 परसेंट लोगों ने वोट दिया है। इसका मतलब साफ है कि उनको 59 परसेंट जनता ने नापसंद किया है। लेकिन भाजपा नेता आधे से अधिक जनता को बुल्डोज़र तेज़ चलाने की धमकी नहीं देते क्योंकि वे सब मुसलमान नहीं हैं? सवाल यह भी है कि लोकतंत्र में क्या यह होता है कि जो वोट नहीं देगा उसको सरकार सबक़ सिखायेगी? अगर ऐसा ही है तो फिर भाजपा नेता मुसलमानों के साथ साथ यादवों और जाटवों को क्यों नहीं चेतावनी देते? रही बात सरकारी सुविधायें लेकर भी वोट ना देने की तो क्या ये सुविधायें भाजपा पार्टी दे रही है या सरकार? अगर सरकार दे रही है तो वो तो सबकी ही होती है। इसमें अहसान या उसके बदले में वोट की आशा करने का क्या मतलब है? सरकार तो उस सार्वजनिक धन व राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय संसाधनों की मात्र चैकीदार है जिसको जनता यानी असली मालिक कभी भी बदल सकता है। क्या यह बताने की भी ज़रूरत है कि जो भी लाभार्थी योजनायें चलायी जा रही हैं उनमें तरह तरह के टैक्स के द्वारा सभी धर्मों और जातियों का योगदान होता है। इसमें यह तर्क भी काम नहीं करता कि इनकम टैक्स कितने मुसलमान देते हैं? क्योंकि कम लोगों को मालूम है कि न तो सरकारी योजनायें केवल आयकर से चलती हैं और ना ही 138 करोड़ की आबादी में से मात्र 6 करोड़ रिटर्न भरने वाले सभी लोग कर अदा करते हैं। इनमें से केवल डेढ़ करोड़ लोग ही टैक्स चुकाते हैं। अलबत्ता जीएसटी और दूसरे कई तरह के चार्ज व फीस जो सरकार की इनकम का बहुत बड़ा साधन हैं। उनमें कम या अधिक सभी लोगों का हिस्सा सरकार को मिलता ही है। यहां एक सवाल यह भी उठता है कि जिस दिन से जनसंघ या भाजपा बनी और उसने एक के बाद एक चुनाव जीतकर सरकार बनानी शुरू की वह हिंदुत्व के नाम पर मुसलमानों का विरोध क्यों करती रही है? इस विरोध के बड़े कारण देखें तो चाहे बाबरी मस्जिद का मामला हो, कश्मीर की धारा 370 हो या काॅमन सिविल कोड भाजपा ने अकसर वो स्टैंड लिया जो मुसलमानों की सोच के खिलाफ माना जाता रहा है? इतना ही नहीं भाजपा ने आतंकवाद को मुसलमानों से जोड़ा और आडवाणी ने रथयात्रा निकालकर पूरे देश में ऐसा माहौल बनाया जिससे हिंदू मुस्लिम के बीच दरार बढ़ती गयी। गुजरात में 2002 के दंगों को लेकर देश विदेश में जो छवि बनी उससे यह धरणा और भी मज़बूत हुयी कि मुसलमान भाजपा राज में ना केवल सुरक्षित नहीं है बल्कि उसको अत्याचार होने पर न्याय भी नहीं मिलेगा? इतना ही नहीं 3 तलाक से लेकर असम में जिस तरह से एनआरसी की कवायद हुयी उससे भी यह संदेश गया कि भाजपा सरकार जानबूझकर मुसलमानों को टारगेट कर रही है? जब सीएए आया और उसके मुसलमान विरोधी प्रावधन के खिलाफ मुसलमानोें ने आंदोलन किया तो यूपी में जिस तरह गैर कानूनी तरीके से अनावश्यक बल प्रयोग कर उनको सबक सिखाया गया उससे भी यही लगा कि भाजपा सरकारें हिंदू समर्थक कम मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह से अधिक काम कर रही हैं? दिल्ली के शाहीन बाग में ऐतिहासिक शांतिपूर्ण धरना देने वाली मुस्लिम महिलाओं को जिस तरह से टारगेट किया गया और इसके बाद पूर्वी दिल्ली में दंगा हुआ और सीएए विरोधी आंदोलन करने वालों को उसमें चुनचुन कर फंसाया गया। उससे भी यह लगना स्वाभाविक ही है कि मुसलमानों को संविधान में दिये गये समान  नागरिक अधिकार अब ना केवल दिये नहीं दिये जायेंगे बल्कि वे अगर इस प्रयास का विरोध लोकतांत्रिक तरीके से शांतिपूर्ण ढंग से भी करेंगे तो उनको ऐसा सबक सिखाया जायेगा कि वे भविष्य में ऐसा करने से पहले सौ बार सोचें। हालांकि जिन लोगों ने सीएए विरोधी आंदोलन में कानून हाथ में लिया उनको सज़ा मिलनी ही चाहिये थी। लेकिन यह भेदभावपूर्ण नहीं होना चाहिये क्योंकि हरियाणा में जाटों और राजस्थान में गूजरों व गुजरात में पटेलों ने आरक्षण की मांग को लेकर जो हिंसक आंदोलन किये उनको बिना सख्त कार्यवाही के लिये छोड़ दिया गया। ऐसे ही एंटी रोमियों अभियान लव जेहाद विरोधी कानून और यूएपीए का जमकर भाजपा सरकारों ने मुसलमानों के साथ साथ अपने विरोधी अन्य वर्ग के लोगों के खिलाफ दुरूपयोग किया है। डाॅक्टर कफील खान उमर खालिद से आज़म खान तक जिस तरह बड़े मुस्लिम नाम वाले लोगों को सुनियोजित तरीके से फंसाकर आज तक बिना अपराध साबित हुए उनकी ज़मानत का विरोध कर जेल में रखा गया है। बुल्ली सेल और सुल्ली डील जैसे मुस्लिम महिला विरोधी और भी अनेक मामले गिनाये जा सकते हैं। जिससे मुसलमानों में यह धारणा  बनी कि उनको जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है। मुसलमानों की यह भी बड़ी शिकायत है कि भाजपा उनको उनकी आबादी के अनुपात में चुनाव में लड़ने को टिकट नहीं देती जिससे उनका लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व कम होता जा रहा है। इस पर भाजपा का यह तर्क किसी हद तक ठीक लगता है कि टिकट देते समय प्रत्याशी के जीतने की संभावना सबसे बड़ा कारण होता है। यह भी सच है कि शुरू शुरू में भाजपा ने चंद मुसलमानों को टिकट दिये लेकिन उनको उनके समाज के वोट ना मिलने और हिंदुओं के वोट उस उम्मीदवार के मुसलमान होने से कम मिलने से वो सब हारते रहे। लेकिन यहां सौ टके का सवाल फिर यही पूछा जायेगा कि भाजपा जब हर मुद्दे हर मामले और हर मोड़ पर मुसलमानों का विरोध करती रहेगी तो मुसलमान उसको वोट कैसे देगा? आज अगर लाभार्थी योजना से भाजपा का एक नया वोटबैंक बन रहा है तो उसमें 8 परसेंट मुसलमान भी जुड़ने लगा है जो आगे और भी बढ़ सकता है।                                        

 *0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।*

Sunday 13 March 2022

2022 की जीत

यूपी में लाभार्थी, महिलायें और दलित भाजपा के बने खेवनहार!

0पांच राज्यों के चुनाव में से जहां चार राज्यों में भाजपा सत्ता में वापसी करती साफ नज़र आ रही है। वहीं कांग्रेस को खत्म कर राष्ट्रीय राजनीति में तेज़ी से अपनी जगह बनाती आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से दिल्ली के बाद पंजाब में रिकाॅर्ड जीत हासिल की है। उससे यह साफ हो गया है कि अब भारत की राजनीति हिंदुत्व के दौर से लाभार्थी के दौर में प्रवेश कर रही है। इन पांच राज्यों में से यूपी की जीत इसलिये भी भाजपा के लिये अहम थी कि इसी से वह 2024 का आम चुनाव जीतने के बारे में सोच सकती है। आपको याद होगा हम लगातार यह बात लिखते रहे हैं कि पिछड़ी जातियों का बहुमत यूपी में आज भी भाजपा के साथ है और यूपी वही जीतेगी।   

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       जिस समय हम यह लेख लिख रहे हैं। उस समय तक पांच राज्यों के पूरे नतीजे दलगत आधार पर सीटें उनको मिले वोट और भाजपा व आप को बहुमत देने वाले मतदाताओं का विस्तार से विवरण सामने नहीं आया है। लेकिन इतना साफ हो गया है कि भाजपा पांच में से चार राज्यों में फिर से सरकार बनाने जा रही है। यह भी दीवार पर लिखी इबारत की तरह तय हो गया है कि एक के बाद एक राज्य खोती जा रही कांग्रेस के ताबूत में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने पंजाब में उससे दिल्ली की तरह सत्ता छीनकर कांग्रेसमुक्त भारत बनाने के भाजपा के अभियान को ही आगे बढ़ा दिया है। जहां तक यूपी का सवाल है। यहां संघ परिवार गुजरात के बाद यूपी को अपनी दूसरी प्रयोगशाला बनाने में सफल होता नज़र आ रहा है। जिस तरह से पिछले पांच साल में योगी ने यूपी जैसे देश के सबसे बड़े राज्य में राज किया है। एक तरह से जनता ने उस पर मुहर लगा दी है। संघ योगी को भविष्य के पीएम के तौर पर प्रोजैक्ट कर रहा है। अगर भाजपा यूपी या योगी हार जाती तो उसका 2024 का केंद्र की सत्ता में आने का सपना भी पूरा होना मुश्किल हो सकता था। हालांकि यह सबको पहले से ही पता था कि यूपी में अगर भाजपा सत्ता में वापसी करती भी है तो उसको पहले की बराबर सीटें और वोट नहीं मिल पायेंगे। लेकिन यहां मोदी योगी और भाजपा ने इस धारणा को आधा झुठला दिया। हालांकि उनकी सीटंे तो कम हुयीं लेकिन वोट उल्टा कुछ बढ़ रहे हैं। इसके पीछे का राजनीतिक समीकरण समझने के लिये हमें यह देखना होगा कि वो कौन सा नया वोट है। जो भाजपा का 5 से 10 प्रतिशत वोट सपा गठबंधन के साथ जाने के बावजूद उसके साथ नया आया है। सपा 21 फीसदी से जहां इस चुनाव में 36 फीसदी वोट तक पहंुचती लग रही है। वहीं बसपा का वोट 22 फीसदी से घटकर 13 फीसदी तक नीचे आता लग रहा है। उधर भाजपा 39 फीसदी से 43 फीसदी तक पहंुचती नज़र आ रही है। इसकी वजह यह भी है कि मुकाबला सीधा हो गया है। कांग्रेस का वोट भी घट गया है। अन्य छोटे दल और निर्दलीय भी वोट कम काट सके हैं। इसमें मतदान का 10 से 15 प्रतिशत अधिक वोट तो महिलाओं का माना जा रहा है। जिन्होंने अपने परिवार के मुखिया या पुरूषों से अलग राह चलते हुए बेरोज़गारी महंगाई या कोरोना से हुए नुकसान को दरकिनार करते हुए योगी सरकार के कथित महिला सुरक्षा पर चुपचाप अतिरिक्त लगभग 5 प्रतिशत मतदान किया है। इसके साथ ही निशुल्क अनाज शौचालय उज्जवला गैस कनैक्शन जलनल योजना निशुल्कआवास श्रमिक नकद सहायता पेंशन जनधन खातों में नकद स्थांतरण किसान सम्मान योजना मुद्रा लोन व अन्य कल्याणकारी स्कीमों की वजह से लगभग 10 प्रतिशत का एक नया वोटबैंक बन गया है। जो कि बिना किसी चर्चा के खामोशी के साथ भाजपा के पक्ष में मतदान करके आया है। इतना ही नहीं यूपी में बसपा ने भाजपा के साथ एक गोपनीय समझौते के तहत अपने दलित वोट का जाटव वर्ग भी एक तिहाई भाजपा को अपने संगठन को दिये गुप्त संदेश के द्वारा चुपचाप ट्रांस्फर करा दिया है। इनमें से एक हिस्सा वह भी है। जो यह देखकर भाजपा के साथ आराम से चला गया है कि भाजपा ने तीन तीन बार बहनजी को मुख्यमंत्री बनवाया है। साथ ही जाटव वोट ने उन सीटों पर भी सपा गठबंधन को हराने के लिये भाजपा का रूख़ किया है। जहां मुस्लिम मतदाता उसे थोक में सपा या उसके सहयोगी दलों के साथ जाता दिखा है। जाटव वोट को बहनजी अपने बयानों में इशारा कर रही थीं कि उनका बड़ा विरोधी सपा है। भाजपा नहीं। यूपी में भाजपा की जीत में लाभार्थियों का योगदान यूं भी आंका जा सकता है कि पंजाब में जिस तरह से आप ने कांग्रेस का सफाया किया है। उसके पीछे उसकी कोई खास विचारधारा या उसूल नहीं हैं। बल्कि निशुल्क बिजली पानी हर महिला को पेंशन और सस्ता व बढि़या चिकित्सा व शिक्षा का माॅडल ही है। यानी उसकी जीत का आधार भी एक तरह से वही लाभार्थी का बन रहा नया वर्ग है। साथ ही भाजपा के लिये योगी भी मोदी के बाद एक तरह से हिंदू ब्रांड बनकर उभरे हैं। जिसमें उनकी सख़्त शासक की छवि लाॅ एंड आॅर्डर पर मायावती की तरह कड़ी नज़र और एक वर्ग विशेष को काबू में रखना भी खूबी मानी जा रही है। एक तरह से देखा जाये तो भाजपा ने यह समझ लिया था कि हिंदुत्व की वोट दिलाने की अपनी सीमा है। संघ परिवार यह भी मानकर चल रहा था कि 5 साल में कुछ ना कुछ एंटी इनकम्बैंसी भी होनी ही है। उसने इन सबसे होने वाले नुकसान की वैकल्पिक पूर्ति के लिये पहले ही योजना तैयार कर काम बड़े पैमाने पर शुरू कर दिया था। जिसका उसे आज चुनाव में लाभ मिला है। उधर चुनाव को त्रिकोणात्मक बनाने की बजाये बसपा ने रहस्यमयी चुप्पी साधकर इन आशंकाओं को बल दिया कि वे जांच होने पर जेल जाने से डरकर गुप्त रूप से भाजपा की मदद कर रही हैं। इससे ना केवल उनको सवर्ण और मुसलमान वोट नहीं मिले बल्कि उनका कोर वोटबैंक यानी जाटव भी उनसे इस बार काफी हद तक छिटक गया। अखिलेश यादव भी चुनाव आने से दो तीन महीने पहले ही एक्टिव हुए। उन्होंने पिछड़ों का विश्वास पूरी तरह प्राप्त नहीं किया और कुछ छोटे दलों व स्वामी प्रसाद मौर्य धर्म सिंह सैनी व दारा सिंह चैहान जैसे गिनती के पिछड़े नेताओं के भाजपा से सपा में आने से यह समझा लिया कि वे कमंडल को मंडल से हरा देंगे। दलबदल करने वाले नेताओं की हालत इतनी पतली थी कि इनमें से एक तो खुद अपना ही चुनाव हार गये। अखिलेष यह भी भूल गये कि उनको तो किसान आंदोलन और जाट घर से बुलाकर खुद चुनावी मुकाबले में लाये हैं।                                        

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।

मायावती और मुसलमान

     बहनजी मुसलमानों की नहीं बसपा चिंता करें!


0बसपा प्रमुख मायावती ने कहा है कि मुसलमानों ने बसपा को वोट नहीं दिया। क्या मुसलमानों ने उनसे वादा किया था? जिससे उनका काफी कोर वोट दलित भी सपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये भाजपा में चला गया। उनका यह भी दावा है कि केवल बीएसपी ही बीजेपी को सरकार बनाने से रोक सकती थी। उनको यह भी पता चल गया कि उनको मीडिया ने भाजपा की बी टीम बताकर बदनाम किया है। हैरत की बात यह है कि बहनजी जितनी चिंता मुसलमानों की भाजपा के राज में कर रही हैं उतनी दलितों की नहीं कर रही कि उनका क्या होगा? वे अपने सबसे खास सतीश मिश्रा से बृहम्ण वोट का भी हिसाब नहीं मांग रहीं हैं? यह भी नहीं बता रहीं कि जो टिकट उन्होंने दलित वोटबैंक के एवज़ में बेचे उनके पैसे वापस होंगे या नहीं?  


                  -इक़बाल हिंदुस्तानी


       आम भारतीयों की एक मिसाल है घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने। इसमें संशोधन कर अम्मा की जगह बहनजी भी किया जा सकता है। सबको पता है कि बसपा में टिकट करोड़ों में बिकता है। इसको आप जबरन पार्टी चंदा भी कह सकते हैं। जबकि इसके विपरीत अन्य दल अपने प्रत्याशियों को टिकट के साथ चुनाव ठीक से लड़ने को लाखों रूपया पार्टी फंड भी देते हैं। हमने इस बारे में पता किया तो कई बसपा प्रत्याशियों ने करोड़ों में टिकट खरीदने का यह कारण बताया कि इससे उनको बसपा का एकमुश्त दलित वोट बैंक बोनस के तौर मिल जाता है। लेकिन इस बार जिस तरह से खदु दलित वोट का बड़ा हिस्सा बसपा को छोड़ अपनी विरोधी समझी जाने वाली भाजपा में चला गया। उससे यह मिथक भी टूट गया है। कायदे से तो बहनजी को उन 402 प्रत्याशियों के टिकट के पैसे वापस करने चाहिये। जिनको वे अपने दलित वोट भी नहीं दिला सकीं हैं। भविष्य में बसपा के टिकट के खरीदार काफी कम हो जायेंगे। वैसे भी यह दुकानदारी उन कर्मठ और गरीब बसपा कार्यकर्ताओं व नेताओं के खिलाफ थी जो लंबे समय से बसपा में काम करने के बावजूद टिकट नहीं खरीद पाते थे। बहनजी का यह भी कहना है कि मीडिया ने उनको भाजपा की बी टीम बताकर बदनाम कर दिया। क्या वास्तव में ऐसा नहीं है? बहनजी को जवाब देना चाहिये कि जब सब विपक्षी दलों के बड़े बड़े नेता मोदी सरकार और राज्य की भाजपा सरकारों की जांच की आंच झेल रहे हैं तो औवेसी और वे ही इस तरह की छापेमारी और जेल से कैसे बचे हुए हैं? जबकि उनके खिलाफ तो गंभीर घोटालों के आरोप व केस हैं। बहनजी को यह भी बताना चाहिये कि जब मान्यवर कांशीराम ने पहली बार मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और साझा सरकार बनी तो सपा से आधी सीटें होते हुए भी उन्होंने सपा से धोखा करते हुए मुलायम सरकार से समर्थन वापस लेकर भाजपा के साथ मिलकर चोर दरवाजे से सरकार क्यों बनाई? इतना ही नहीं इसके बाद दो दो बार वे भाजपा के समर्थन से सीएम क्यों बनीं? उनके कानूनी सलाहकर सतीश मिश्रा ने बेशक उनकी पैरवी कर उनको जेल जाने से बचाया लेकिन उनकी आत्मघाती सलाह पर बहनजी ने उन ही बृहम्णों के लिये बसपा के दरवाजे क्यों खोले जिनको दलित अपना सबसे बड़ा विरोधी मानता है? जिस बसपा को मान्यवर कांशीराम ने लंबा संघर्ष करके डीएस 4 और बामसेफ के द्वारा राजनीति में स्थापित किया था। उनके मिशन में साथ चलने वाले पुराने नेताओं स्वामी प्रसाद मौर्य लालजी वर्मा व राम अचल राजभर जैसे ज़मीन से जुड़े पुराने दो दर्जन दलित और पिछड़े नेताओं को बाहर का रास्ता क्यों दिखाया? ऐसे ही पूर्व शिक्षा मंत्री शाकिर अली से लेकर नसीमुद्दीन सिद्दीकी तक एक दर्जन बड़े मुस्लिम नेताओं को राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पहचान बनते ही पार्टी से बाहर क्योें किया गया? इतना ही जि़ला बिजनौर में ही बसपा की स्थापना से जुड़े शेख सुलेमान पप्पू और जावेद आफताब एडवोकेट जैसे पुराने नेताओं को बसपा से बाहर जाने को मजबूर किसने किया? पिछले लोकसभा चुनाव में सपा बसपा का गठबंधन हुआ। बसपा को सपा का वोट ट्रांस्फर हुआ जिससे वह शून्य से 10 सीट पर पहुंच गयी। लेकिन दलित वोट सपा में ना जाने से वह एक भी नया एमपी नहीं जिता सकी। फिर भी बहनजी ने उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की कहावत याद दिलाते हुए गठबंधन किसके दबाव में तोड़ा? बहनजी ने न केवल बार बार बयान दिया कि हमारी बड़ी दुश्मन भाजपा नहीं सपा है बल्कि सपा के मुसलमाना के सामने मुसलमान और यादव के सामने यादव प्रत्याशी जानबूझकर इस रण्नीति के तहत उतारे जिससे पिछले चुनाव की तरह इनके वोट बंट जायें और भाजपा आराम से जीत जाये? बसपा के प्रोग्राम में आप सलाम या नमस्ते भी नहीं कर सकते, आपको जयभीम का अभिवादन की करना होगा तो मुसलमान या सवर्ण व पिछड़े आपकी गुलामी क्यों स्वीकार करें? बसपा के हर बैनर पोस्टर और बोर्ड पर दलित महापुरूष अंबेडकर नारायण गुरू ज्योति बा फुले और कांशीराम का नाम व फोटो आपको लगानी ज़रूरी है लेकिन अन्य समाज के महापुरूषों का उल्लेख नहीं होगा, क्यों? ऐसे ही बसपा के राज में बहनजी ने कई जिलों के नाम बदलकर गौतमबुध्द नगर और ज्योति बा फुले नगर तो किये लेकिन इनमें से कोई भी मुस्लिम पिछड़ा या दलित के नाम पर नहीं रखा। बहनजी को वोट और टिकट बेचने को नोट सबसे चाहिये। लेकिन काम व नाम केवल दलितों के होंगे। इतना ही नहीं बहनजी ने कई बार मुसलमानों पर खुलेआम आरोप लगया कि उनका एक प्रत्याशी मेरठ में कट्टरपंथी था तो उसको बसपा का टिकट देकर दलित समाज का वोट भाजपा को दिलाकर उसको हरवा दिया? बहनजी को इस सवाल का भी जवाब देना होगा कि वे अगर भाजपा की बी टीम नहीं हैं तो पूरे चुनाव मंे चुपचाप अपने घर में छिपकर क्यों बैठी रहीं? क्या यह चर्चा सही है कि वे अंदरखाने भाजपा से गुप्त समझौता कर चुकी हैं जिससे भविष्य में उनको भाजपा सरकार न केवल अभयदान जारी रखेगी बल्कि कोई बड़ा पद भी दे सकती है? बहनजी अपनी कमियां नालायकी और गलत नीतियां छिपाकर जिस तरह से मुसलमानों को टारगेट कर रही हैं। उससे मुसलमानों का नहीं बसपा और दलितों का अधिक नुकसान होगा। जहां तक दलितों के साथ मुसलमानों के मिलकर भाजपा को हराने का सवाल है। वह इसलिये व्यवहारिक नहीं रह गया कि मुसलमानों का भरोसा बहनजी पर नहीं है। इतना ही नहीं पहले तो उनको शक था लेकिन इस चुनाव से उनको पूरा यकीन हो गया है कि बसपा भाजपा की बी टीम ही है। बहनजी को यह नहीं मालूम यह उनका आखि़री चुनाव था। जिस तरह से महाराष्ट्र में अंबेडकर की रिपब्लिकन पार्टी खत्म हो गयी उसी तरह से यूपी से बसपा गायब हो रही है। जहां तक मुसलमानों का सवाल है। वे भाजपा राज में जीना सीख रहे हैं। उनको भी विभिन्न सरकारी स्कीमों का लाभ बराबर नहीं उनकी आबादी से अधिक मिल रहा है। लाॅ एंड आॅर्डर की सख़्ती से भी अधिकांश मुसलमानों को कोई शिकायत नहीं है। यही वजह है कि उनका कुछ वोट भी दलितों की तरह भाजपा को जा रहा है। रही बात पक्षपात अन्याय और अत्याचार की वो उनपर दलितों की तरह पहले भी होता था। अब भी कम अधिक हो रहा है। बहनजी दलितों और अपनी बसपा की चिंता करें उनका क्या होगा???                                        


 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।