Monday 20 July 2020

ऑनलाइन पढ़ाई

*बच्चो की पढ़ाई ऑनलाइन,* 
*बड़ों का फ़ोन ‘क्वारंटाइन’!*

*0कोरोना ने हमारी ज़िंदगी के तौर तरीकों को पूरी तरह बदलकर रख दिया है। मास्क, फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग और बार बार हाथ धोना जहां हमारा रूटीन बन गया है। वहीं जिन बच्चो को हम मोबाइल से दूर रखना चाहते थे। आज उनको ऑनलाइन पढ़ाई के चलते बड़ों को अपना फोन उनको देना पड़ रहा है। इससे मांबाप घर से बाहर भी जायें तो उनको अपना मोबाइल घर पर ही ‘क्वारंटाइन’ करना होता है। दूसरी तरफ डिजिटल कारोबारी इस मौके का जमकर लाभ उठा रहे हैं।*           

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   यह रिसर्च का विषय है कि ऑलाइन पढ़ाई का आइडिया प्राइवेट स्कूलों की आमदनी बनाये रखने का जुगाड़ था? या सरकार का शिक्षकों को कोरोना लॉकडाउन के दौर मेें व्यस्त रखने की योजना थी? डिजिटल कंपनियों का अपना व्यापार बढ़ाने का सोचा समझा प्लान था? या फिर माता पिता का अपने बच्चो को घर बैठकर सारे दिन टीवी देखने और तरह तरह की कुराफात से रोकने का देसी नुस्खा था? अब देखने में यह आ रहा है कि ऑनलाइन पढ़ाई का कॉन्सेप्ट सामने आने के बाद डिजिटल कारोबार में तेज़ उछाल आया है। जबकि कोरोना संकट के दौरान खाने पीने के सामान के बाद यही एकमात्र धंधा था।

जो लोगों के घर पर खाली रहने से हर टाइम मोबाइल पर उंगलियां घुमाने से खूब फल फूल रहा था। इसके बाद जब बच्चो की पढ़ाई ऑनलाइन होने लगी तो अचानक घर घर एक क्रांति हुयी । जो मांबाप बच्चो को अपने मोबाइल को हाथ तक नहीं लगाने देते थे। वे बच्चो को इस बात के लिये मनाने लगे कि फिलहाल वे उनके मोबाइल से काम चला लें। लॉकडाउन खुलने के बाद वे उनको उनकी पसंद का बढ़िया सा नया स्मार्ट फोन खरीद कर देेंगे। जिन बच्चो को उनके बड़ों ने अपनी मर्जी से अपना मोबाइल उनके हवाले खुद नहीं किया।

उन स्मार्ट बच्चो ने अपना साल ख़राब होने का डर दिखाकर अपने माता पिता बड़ी बहन भाई का मोबाइल भारतीय जुगाड़ से अपने आप हथिया लिया। जहां बड़े अपना मोबाइल किसी हाल में नहीं छोड़ना चाहते थे। उनको कोरोना के लॉकडाउन में अपनी जेब ढीली करनी पड़ी। कुछ को अपने बच्चो को पहले कभी दिये गये मोबाइल हर वक्त चलाने की वजह से छीनकर रखने का पश्चाताप करते हुए अपनी इस भूल पर अफसोस जताकर ससम्मान वापस करने पड़े। इसके साथ कुछ बच्चो के मोबाइल जो खराब करके या या एक सोची समझी चाल के तहत खराब बताकर बड़ों ने कोरोना के लॉकडाउन से पहले ही लॉकडाउन करके एक गुमनाम कोने में छिपाये हुए थे।

वे भी झाड़ पोंछकर मजबूरन बाहर निकालने पड़े। लेकिन सबसे बड़ी समस्या नेटवर्क को लेकर खड़ी हुयी। जिसका संज्ञान मोबाइल कंपनी से लेकर सरकार या स्कूल किसी ने नहीं लिया। यह ठीक है कि वजह चाहे जो रही हो स्कूल कॉलेज कोरोना की वजह से बंद होने के कारण पूरे देश में प्राइमरी के बच्चो से लेकर यूनिवर्सिटी के बड़े छात्रों की पढ़ाई और परीक्षा अचानक ऑनलाइन शुरू करने का तुगलकी फरमान जारी कर दिया गया। वह भी तब जबकि इस देश में खुद सरकारी आंकड़ों के हिसाब से केवल 56 प्रतिशत लोगों के पास ही स्मार्ट फोन या कंप्यूटर लैपटॉप व टैब्लेट आदि की सुविधा है।

इतना ही नहीं कश्मीर जैसे राज्य में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद आज तक केवल सरकार ने 3जी और 4जी नेट चालू नहीं किया है। दूसरे वहां एक साल से लॉकडाउन होने की वजह से लोगों के पास रोज़गार ना होने से अपने मोबाइल चलाने को नेट रिचार्ज कराने तक को धन नहीं है। ऐसे ही पूरे देश में 10 से 12 करोड़ लोगों का रोज़गार लॉकडाउन की वजह से पूरी तरह या आंशिक रूप से चले जाने की वजह से वे अपना स्मार्ट फोन रिचार्ज कराने या खराब होने पर मरम्मत कराने की हालत में नहीं हैं। बाज़ारवादी डिजिटल प्लेटफॉर्म सरकार और स्कूलों पर अपना लाभ कमाने का एजेंडा थोपने पर इसके बावजूद कामयाब रहे।

जबकि कई क्षेत्रों में इंटरनेट या तो काम नहीं करता या फिर सिग्नल और लाइट कभी कभी ही आती है। प्रॉब्लम यह थी कि पढ़ाई और एक्ज़ाम की स्कीम तानाशाही तरीकों से जारी हो चुकी थीं। माता पिता के दिल की धड़कनें किसी टाइम बम पर बैठे फिल्मी हीरो जैसी हो चुकी थीं। यह सबकुछ ऑनलाइन करने से पहले यह तक नहीं देखा गया कि हमारे डिजिटल प्लेटफॉर्म इतना लोड संभाल पायेंगे या नहीं? जब करोड़ों ईमेल अटैचमंेट के ज़रिये लाखों असाइनमेंट टीचर्स और स्टूडैंट्स के बीच आने जाने लगे तो वैबसाइट्स क्रैश होनी शुरू हो गयीं।

अपलोड डाउनलोड बीच में ही अटककर मोबाइल हैंग होने लगे। ऑनलाइन ओपन बुक एक्ज़ाम में लाखों बच्चो के क्वेशचन पेपर डाउनलोड ही नहीं हुए। तीन घंटे के तय टाइम में अगर घंटे दो घंटे बाद जैसे तैसे रूक रूक कर डाउनलोड हुए भी तो जवाब लिखने का टाइम निकल चुका था। उसके बाद जब तक जवाब अपलोड करने की बारी आई। नेट तब भी स्लो या जाम था। सवाल यह है कि ऐसे बच्चो को ऑफलाइन एक्ज़ाम का विकल्प कब मिलेगा? अगर ऑफलाइन परीक्षा ही देनी थी तो फिर ऑनलाइन में क्यों इतना सर खपाया?

साथ ही कोरोना से बचने को वह बच्चा जो घर पर ऑनलाइन पढ़ रहा था अब इम्तहान देने कैसे जायेगा? दिल्ली यूनिवर्सिटी के ऐसे ही तुगलकी फैसले को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट ने वहां के प्रशासन को खूब खरी खोटी सुनाई। लेकिन कई राज्यों द्वारा ऑनलाइन ओपन बुक एक्ज़ाम कैंसिल कर विगत सेमेस्टर और बच्चे की अब तक की इंटरनल पर्फोरमेंस के आधार पर बिना परीक्षा पास करने की अपील पर यूजीसी कान देने को तैयार नहीं है।

स्कूल कॉलेज यह मांग भी मानने को तैयार नहीं हैं कि जो बच्चे नेट कनेक्ट ना होने की हालत में घर की छत या आसपास के किसी पेड़ पर चढ़कर भी जब स्कैन रिप्लाई शीट किसी दूसरे की ईमेल आईडी से भेजने में नाकाम हो गये तो उनको अपना जवाब कूरियर से भेजने का विकल्प दिया जाये। यह विडंबना ही है कि एक तरफ अमेरिका ब्रिटेन और यूरूपीय देशों में जहां डिजिटल प्लेटफॉर्म काफी व्यापक पर्याप्त और मज़बूत हालत में हैं। वहां लोग फिर से स्कूल कॉलेज जाने को उतावले हो रहे हैं। वहीं हमारे यहां उल्टा ऑनलाइन का विकल्प तब भी जबरन बच्चो पर थोपा जा रहा है। जबकि हमारे यहां शत प्रतिशत लोगों के पास ये सुविधायें उपलब्ध ही नहीं हैं।                                                                          

।लेखक  स्वतंत्र पत्रकार हैं।

Monday 13 July 2020

विकास दुबे का एनकाउंटर

*विकास दुबे: सज़ा पर दो राय नहीं लेकिन ऐसे नहीं!*

*0विकास दुबे माफिया डॉन था। उस पर 60 से अधिक हत्या लूट व अन्य गंभीर केस दर्ज थे।  उसको कानून के ज़रिये सज़ा मिलनी चाहिये थी। पुलिस ने उसको सज़ा ए मौत दे दी। अभी यह जांच के बाद पता चलेगा कि उसका एनकाउंटर फ़र्ज़ी था या असली? लेकिन जो जानकारी अब तक सामने आ रही हैं। उससे यह शक गहरा रहा है कि कहीं पुलिस खुद तो जज नहीं बन गयी?*      

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   दरअसल विकास दुबे का मामला इतना सीधा और आसान नहीं है। ऐसा लग रहा है कि पुलिस ने विकास दुबे को फर्जी एनकाउंटर में ठिकाने लगाकर 8 पुलिसवालों की हत्या का हिसाब बराबर कर लिया है। कुछ नादान लोगों का यह भी कहना है कि ऐसे लोगों का यही इलाज है। हमारे सीएम भी कह चुके हैं कि अपराध करेंगे तो ठोक दिये जायेंगे। योगी सरकार बनने के बाद दुबे का एनकाउंटर 119 वीं ऐसी घटना है। भाजपा सरकार बनने के बाद हर ज़िले में टॉप टेन कुख्यात अपराधी छांटकर उनको राज्य से बाहर या उूपर पहंुचाने का बाकायदा घोषित अभियान चला था।

    वे सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान कानून हाथ में लेने वालों से बदला लेने की बात भी कह चुके हैं। लोकतंत्र और काननू के राज में जबकि बदले और ठोकने की कोई व्यवस्था ही नहीं है। लेकिन जनता का एक वर्ग आज लोकतंत्र संविधान और कानून के राज के खिलाफ खुलकर बोलने लगा है। यह वर्ग सेना के राज की बात भी गाहे बगाहे करता रहा है। यह वर्ग साम्प्रदायिकता और जातिवाद के साथ ही पूंजीवाद मंे भी अथाह आस्था रखता है। यह वर्ग नागरिकों के बराबर अधिकार के पक्ष मंे भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि विकास दुबे का एनकाउंटर पहला या आखि़री है।

     ऐसा भी नहीं है कि फर्जी एनकाउंटर केवल यूपी में ही हो रहे हों। किसी माफिया या बदमाश का फर्जी एनकाउंटर में मारा जाना तो फिर भी अधिक चिंता या चर्चा का विषय नहीं बनता है। लेकिन पुलिस हिरासत पूछताछ और रिमांड के दौरान थर्ड डिग्री टॉर्चर से होने वाली आम लोगों की मौतें आज सामान्य बात है। ऐसा नहीं है कि इसके लिये केवल पुलिस ही ज़िम्मेदार है। अगर आप गहराई से जांच पड़ताल करेंगे तो पायेंगे कि मजिस्ट्रेट बिना गंभीरता से अपनी ड्यूटी पूरी किये आरोपी की रिमांड दे देते हैं। इसके साथ ही पुलिस की पिटाई से बुरी तरह घायल और कभी कभी मरणासन्न आरोपी को सरकारी डाक्टर फिटनैस सर्टिफिकेट भी देते रहे हैं।

    इतना ही नहीं हमारे बड़े बड़े नेताओं अफसरों और शक्तिशाली लोगों के इशारे पर बेकसूर लोगों को पकड़ा जाना और कसूरवारों को छोड़ा जाना हमारे सिस्टम का हिस्सा बन चुका है। राजनेता अपनी सियासी पकड़ मज़बूत बनाने और अपने विरोधी को कमज़ोर करने के लिये अकसर बदमाशों का बेशर्मी से इस्तेमाल करते रहे हैं। सभी दलों के राज में कुछ गांवों मुहल्लों और इलाकों के वोटोें का ठेका ऐसे माफिया अपने सर लेकर बाकायदा सरकार का नाजायज़ लाभ पुलिस से बचकर लेते रहे हैं। यहां तक कि अनेक पुलिस वाले अपने विभाग सरकार या जनता की बजाये बदमाशों का साथ देते नज़र आते हैं।

     यहां रिश्वत या दबाव में ऐसा करने की चर्चा करना इस लिये बेकार है क्योेंकि केवल पुलिस नहीं हमारे सिस्टम के हर विभाग हर वर्ग और हर क्षेत्र में ऐसा होता आ रहा है। जब यह कहा जाता है कि विकास दुबे थाने में एक दर्जा प्राप्त मंत्री की हत्या करके भी साफ बच जाता है। तब हमें यह भी याद रखना चाहिये कि अकसर पुलिस और राजनेता भी कई मामलों में ऐसा करके बाइज़्ज़त बरी हो जाते हैं। वकील पत्रकार और पैसे वाले भी कई बार अपने रसूख से कानून के खिलाफ काम करके शॉर्टकट से निकल जाते हैं। *2001 से 2018 के बीच पुलिस हिरासत में 1727 लोग मारे जा चुके हैं।*

    *लेकिन इन मामलों में अब तक केवल 26 अधिकारियों को दोषी ठहराया गया है। जिनमें से अधिकांश ज़मानत पर हैं। *गृहमंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2016 से 2018 तक पुलिस हिरासत में 427 तो न्यायिक हिरासत में 5049 लोगों की जान जा चुकी है।* मानवाधिकार कार्यकर्ता और अधिवक्ता जसवंत सिंह खालरा को तमाम लोगोें की मौजूदगी में पंजाब पुलिस ने 1995 में उठाया था। खालरा का कसूर यह था कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल कर आरोप लगाया था कि 1990 से 1995 के बीच पुलिस ने सैंकड़ों लोगों को गैर कानूनी तौर पर उठाया और मारकर गोपनीय तरीके से उनको ठिकाने लगा दिया।

    खालरा आज तक लापता हैं। सुप्रीम कोर्ट ने खालरा को मृत मानकर 20 साल बाद उनके परिवार को 10 लाख रू. मुआवज़ा देने का आदेश दिया है। इतना ही नहीं तमिलनाडू पुलिस की हिरासत में हाल ही में जयराज और बेनिक्स की हत्या ताज़ा मामला है। सरकारी सिविल इंजीनियर बलवंत सिंह मुल्तानी के रहस्यमय तरीके से गायब होने के बाद उनकी मौत के मामले में पंजाब के पूर्व डीजीपी सुमदेश सिंह सैनी सहित कई वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने मंे पुलिस को तीन दशक लग गये।

    ऐसे ही महाराष्ट्र में अपै्रल 2014 में एगनेलो वाल्डरिस पश्चिम बंगाल मंे काजी नसरूद्दीन की जनवरी 2013 में पुलिस हिरासत में असहनीय यातनायें दिये जाने से मौत हो गयी थी। सुप्रीम कोर्ट मनुभाई रतिलाल पटेल बनाम गुजरात मामले मेें दो टूक कह चुका है कि रिमांड के मामले में मजिस्ट्रेट न्यायिक कार्य करता है। उसे धारा 167 के तहत इस बात से पूरी तरह संतुष्ट होकर ही पुलिस की रिमांड पर फैसला करना चाहिये कि क्या उसके विवेक के हिसाब से पुलिस 24 घंटे में इस काम को पूरा नहीं कर सकती थी।

   हमें यहां यह भी याद रखना होगा कि क्रिकेट सट्टेबाज संजीव चावला को ब्रिटेन से भारत प्रत्यर्पित कराने में दिल्ली पुलिस को इसी एक तर्क के कारण दो दशक लग गये थे कि भारत में पुलिस हिरासत और जेल में उसकी जान को ख़तरा है। जो भोले या मूर्ख लोग आज विकास दुबे की एक्सट्रा ज्युडूशियल किलिंग को सही ठहराकर बल्लियों उछल रहे हैं। उनको उस दिन से डरना चाहिये जब उनको या उनके किसी अपने को पुलिस बिना कोर्ट में पेश किये बिना सबूत बिना गवाह और बिना किसी दस्तावेज़ और जांच के सीधे विकास दुबे की तरह मौत के घाट उतार सकती है। इसलिये लोकतंत्र बचाना है तो कानून के राज को सबको मानना ही होगा।                                                                       

Saturday 4 July 2020

जनसँख्या नियंत्रण


शिक्षित महिलायें हल कर रही हैं आबादी की प्रोब्लम!

0दि सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम स्टेटिस्टिकल रिपोर्ट 2018 का सर्वे बता रहा है कि देश की बढ़ती आबादी की समस्या का समाधान पढ़ी लिखी और विशेष रूप से उच्च शिक्षित महिलायें बखूबी अंजाम दे रही हैं। खुशी की बात यह है कि देश के जिन 22 राज्यों में यह सर्वे किया गया है। उससे पता चलता है कि इनमें से 13 में जनसंख्या अनुपात बहुत तेज़ी से नीचे आ रहा है। इससे एक बार फिर यह साबित हो रहा है कि बढ़ती जनसंख्या का कोई विशेष संबंध धर्म से नहीं शिक्षा से है।        

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   ज्नसंख्या नियंत्रण पर एक ताज़ा सर्वे बता रहा है कि हिंदी पट्टी के बड़ी जनसंख्या के राज्य यूपी बिहार व एमपी और अन्य राज्यों में असम आज भी आबादी स्थिर रखने की आदर्श टीएफआर यानी टोटल फर्टिलिटी रेट 2.1 को लांघकर 2.4 से लेकर 3.2 प्रतिशत तक पहुंच रहे हैं। उधर पूर्वदक्षिण और पश्चिम के अनेक राज्य बढ़ती शिक्षा और सम्पन्नता से अब एक या दो बच्चों के फार्मूले पर सख्ती से अमल कर रहे हैं। यानी देश के आधे से अधिक राज्य पॉपुलेशन रिप्लेसमेंट रेट 2.1 पर पहले ही पहुंच चुके हैं। सर्वे मंे यह भी देखने को मिला है कि जिन राज्यों में हाल ही के वर्षों में तेजी से बढ़ती आबादी पर लगाम लगी है।

   वहां वे अपने राज्य से दूर दराज़ के क्षेत्रों मेें काम की तलाश में जाने वाले प्रवासी मज़दूरों के लिये घर पर अपने परिवार के बीच रहकर ही रोज़गार करने के संसाधनों को बढ़ाने पर खासा ज़ोर दे रहे हैं। इसकी वजह यह भी है कि अगर ये राज्य ऐसा नहीं करेंगे तो एक बार फिर से इनके राज्यों में श्रम की कमी होने से उद्योग धंधे माल की न्यूनतम लागत की वजह से बाहर का रास्ता अपना सकते हैं। इसके साथ ही ये राज्य अपने वरिष्ठ नागरिकों के लिये समाज कल्याण की अधिक से अधिक योजनायें लागू करने के साथ साथ उनके लिये बेहतर स्वास्थ्य सुविधायंे भी अपने राज्य में ही उपलब्ध कराने का प्रयास कर रहे हैं।

    सबसे बड़ी संतोष की बात यह है कि यह सर्वे साफ बता रहा है कि टीएफआर यानी शिशु जन्म दर और महिला शिक्षा के बीच सीधा रिश्ता है। मिसाल के तौर पर स्नातक महिलाओं के बीच 1.7 इंटर पास के बीच 1.8 और हाईस्कूल पास के बीच 1.9 जबकि प्राइमरी शिक्षा प्राप्त महिला का आंकड़ा जहां 2.5 तो अनपढ़ लेडी के बच्चों की जन्मदर 3.0 प्रतिशत तक पायी गयी है। सर्वे से यह भी सीख मिलती है कि जन्म दर को नियंत्रित रखने के लिये जहां लड़कियों को हर हाल में ना केवल पढ़ाया जाना चाहिये बल्कि उनको उच्च शिक्षित कर परिवार नियोजन के साधनों को पहले से और अधिक सुलभ सस्ता और आसान बनाया जाना चाहिये।

    इस तथ्य पर भी काम होना चाहिये कि लड़कियों की घटती जन्मदर को कैसे रोका जायेक्योंकि 2016-18 में जहां 1000 लड़कों पर 899 लड़कियां पैदा हो रही थीं। वहीं2012-14 में यह दर 906 थी। हमारे लिये यह भी चिंता और शर्म की बात होनी चाहिये कि जो शिक्षित महिलायें हमारी बढ़ती जनसंख्या का हल हमारे सामने पेश कर रही हैं। हमारा निष्ठुर स्वार्थी और लिंगभेद करने वाला पक्षपाती समाज उनकी जन्म से पहले ही कोख में जान लेने से आज भी बाज़ नहीं आ रहा है। यूएनएफपी स्टेट ऑफ वर्ल्ड पॉपुलेशन रिपोर्ट2020 बता रही है कि भारत में 4 लाख 60हज़ार कन्यायें हर साल गर्भ में ही लड़कों की चाह में मार दी जाती हैं।

    अगर हम सरकारी नारे बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ पर गंभीरता से अमल करें तो इस समस्या का समाधान हो सकता है। पिछले दिनों राज्यसभा में शिवसेना के सांसद अनिल देसाई ने एक प्राइवेट बिल पेश किया था। जिसमें संविधान में संशोधन कर एक नया कानून बनाने की मांग की गयी है। इस कानून के तहत हर भारतीय परिवार को केवल दो बच्चों तक पैदा करने की छूट होगी। यदि कोई इस कानून का उल्लंघन करेगा तो उससे सरकारी नौकरी शिक्षा इलाज सस्ता राशन रेलवे रिज़र्वेशन और अन्य सरकारी सुविधा छीन ली जायेंगी।

    हैरत की बात है कि जहालत से आबादी बढ़ रही है और दूसरी तरफ ऐसे लोगों को शिक्षा से वंचित करने का कानून लाने की मांग हो रही है। साथ ही अपने परिवार को दो बच्चो तक सीमित कर सहयोग करने वालों को कुछ अतिरिक्त यानी सरकारी नौकरी आयकर मंे छूट व अन्य सरकारी सुविधाएं भी दी जायेंगी। असम तेलंगाना आंध्र प्रदेश महाराष्ट्र राजस्थान गुजरात एमपी छत्तीसगढ़ उड़ीसा बिहार और उत्तराखंड जैसे राज्यों में पहले ही इस तरह के कानून मौजूद हैं। जिनमें स्थानीय निकाय पंचायत ग्राम प्रधान के चुनाव व सरकारी सेवा से ऐसे लोगों को वंचित रखने का प्रावधान किया गया है।

    जिनके दो से अधिक बच्चे हैं। लेकिन ज़मीनी सच यह है कि इससे इन राज्यों की आबादी को कम करने में कोई सहायता नहीं मिली है। दो बच्चो पर ज़ोर देने वालों का दावा है कि देश में संसाधन कम हैं। जबकि यह आधा सच है। पूरा सच यह है कि जितने संसाधन पूंजी और सुख सुविधायें हमारे देश में उपलब्ध हैं। उनमें से आधे से अधिक पर केवल एक प्रतिशत अमीर और शक्तिशाली लोगों का कब्ज़ा है।

    आबादी घटाने की बात सुनने में अच्छी लगती है। लेकिन यह ख़तरा भी बना रहता है कि अगर एक बार यह वर्तमान आबादी से नीचे गयी तो फिर यूरूप और जापान की तरह सरकारें आबादी बढ़ाने के लिये लोगों को प्रेरित और पुरस्कृत करने को मजबूर हो जाती हैं। चीन में एक बच्चे की सख़्त नीति लागू करने के बाद मानव शक्ति उपलब्ध्ता में गिरावट के बाद वहां की सरकार इसमें छूट दे चुकी है। हमारे देश में सियासी लाभ लेने के लिये लंबे समय से यह भी दुष्प्रचार किया जा रहा है कि मुसलमान चार चार शादी और 25 बच्चे पैदा करते हैं।

    जबकि सरकारी आंकड़े बताते हैं कि दलित पिछड़ों और गरीब उच्च जाति के हिंदू भी अधिक बच्चे पैदा करते हैं। इसके विपरीत शिक्षित और सम्पन्न मुसलमानों के भी एक या दो ही बच्चे होते हैं। इसकी एक मिसाल सबसे शिक्षित राज्य केरल और सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाला राज्य कश्मीर भी है। जिनमें मुसलमानों की आबादी का अनुपात अन्य शिक्षित व सम्पन्न राज्योें के हिंदुओं की तरह कम है।