Thursday 27 July 2023

मणिपुर हिंसा

*मणिपुर हिंसा: कारण साम्प्रदायिक, राजनीतिक या व्यवसायिक है ?*  
0मणिपुर के चुराचांदपुर सैकोट क्षेत्र से भाजपा विधायक पाओलीन लाल हाओकिप ने राज्य सरकार पर हिंसा में शामिल होने का गंभीर आरोप लगाया है। उधर नेशनल फेडरेशन आॅफ वूमेन की तीन सदस्यीय  एनी राजा निशा सिद्ध्ूा और दीक्षा द्विवेदी की टीम ने राज्य के सघन दौरे के बाद अपनी जांच रिपोर्ट में मणिपुर हिंसा को राज्य प्रायोजित बताया है। टीम का निष्कर्ष है कि इस हिंसा के पीछे जातीय टकराव नहीं बल्कि काॅरपोरेट एजेंडा है। हालांकि मणिपुर में कई माह से चल रही हिंसा पर देश सरकार विपक्ष और सुप्रीम कोर्ट का फोकस दो कुकी महिलाओं को दंगाइयों द्वारा निर्वस्त्र कर घुमाने का वीडियो दुनियाभर में वायरल होने से हंगामा मचने के बाद बढ़ा है। जबकि यह मामला 4 मई का है।          
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
      मणिपुर की आबादी लगभग 35 लाख है। इनमें मुख्य रूप से तीन वर्ग मैतई कुकी और नागा हैं। जनसंख्या में सर्वाधिक मैतई अधिकांश हिंदू हैं लेकिन इनमें मुसलमान भी शामिल हैं। नागा और कुकी ज़्यादातर ईसाई हैं। जो जनजाति में गिने जाते हैं। राज्य के कुल 60 विधायकों में से 40 मैतई हैं। अब तक बने कुल 12 मुख्यमंत्रियों में से दो ही आदिवासी हुए हैं। मैतई केवल 10 प्रतिशत मैदानी क्षेत्र में रहते हैं। जबकि बाकी 90 प्रतिशत पर्वतीय इलाके मेेें कुकी और नागा रहते हैं। पहाड़ी इलाकों में अपार खनिज संपदा है। बताया जाता है कि काॅरपोरेट की पैनी नज़र इस खनिज संपदा पर है। लेकिन आदिवासी कुकी और नागा जनजातियां किसी भी बाहरी हस्तक्षेप को किसी कीमत पर स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। मैतई समुदाय की पुरानी मांग है कि उनको भी जनजाति का दर्जा दिया जाये। जिससे वे पहाड़ में बसकर उसके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर सकें। मणिपुर हाईकोर्ट में इसके लिये एक याचिका दाखि़ल की गयी थी। इस पर हाईकोर्ट ने सरकार से इस मांग पर विचार करने को कहा तो हालात बिगड़ गये। निर्णय के अगले ही दिन मणिपुर विधानसभा की हिल एरियाज़ कमेटी ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास कर इस आदेश से दुखी होने की बात कही। इस समिति के मुखिया भाजपा विधायक डी गेंगमे हैं। हालांकि बाद मेें सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को यह कहते हुए नकार दिया कि हाईकोर्ट को ऐसा करने का कोई अधिकार ही नहीं था। लेकिन तब तक राज्य में हालात बेकाबू होने लगे थे। मैतई समाज का दावा है कि 1949 में राज्य के भारत में विलय से पहले उनको जनजाति का स्थान मिला हुआ था। कुकी और नागा मैतई की इस मांग का ज़बरदस्त विरोध करती रही हैं। उनका कहना है कि मैतई को पहले ही एससी और ओबीसी रिज़र्वेशन के साथ आर्थिक रूप से पिछडे़ वर्ग का लाभ मिल रहा है। इसके बाद 3 मई को आॅल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन मणिपुर ने इसके विरोध में आदिवासी एकजुटता रैली चुराचांदपुर जिले में आयोजित की। इसी रैली के दौरान दोनों समुदाय में हिंसा की वारदात शुरू हो गयीं। धीरे धीरे ये हिंसक झड़पें पूरे राज्य में फैल गयीं। सैकड़ों चर्च और दर्जनों मंदिर जला दिये गये। सौ से अधिक लोग मारे गये। 60 हजार से अधिक लोग बेघर हो गये। बड़े पैमाने पर दोनों समुदाय के मकान दुकान और दूसरे संस्थान तबाह कर दिये गये। सुरक्षा बलों का हथियारों का ज़खीरा लूट लिया गया। जबकि दूसरे वर्ग का आरोप है कि यह लुटने दिया गया। पुलिस एक वर्ग का साथ देती नज़र आने लगी। निर्वस्त्र महिलाओं के शर्मनाक वायरल वीडियो को लेकर भी पुलिस के तटस्थ बने रहने के आरोप लगे। सीएम एन वीरेन सिंह ने अफीम की खेती के खिलाफ बड़ा अभियान छेड़ रखा है। आरोप है कि जनजातियों में राज्य की भाजपा सरकार को लेकर पहले से ही काफी नाराज़गी पनप रही थी। इसी दौरान 3 मई को एक फेक वीडियो बड़ी तेज़ी से वायरल हुआ जिसमें दावा किया गया था कि कुकी समुदाय के कुछ उग्रवादियों ने मैती समुदाय की महिला से बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी है। इसकी तीखी प्रतिक्रिया 4 मई को कुकी समुदाय की दो महिलाओं को निर्वस्त्र कर सार्वजनिक रूप से घुमाने उनके अंगों से छेड़छाड़ और सामूहिक रेप के तौर पर निर्लज रूप में सामने आई जिससे पूरा देश शर्मसार हुआ और हिंसा के 78 दिन बाद सुप्रीम कोर्ट के कार्यवाही की चेतावनी देने के बाद सरकार मजबूरी में कुछ कार्यवाही करती नज़र आई। आरोप है कि जनजातियों के कब्ज़े वाली ज़मीन लीज पर काॅरपोरेट के हवाले करने के लिये बड़े पैमाने पर काफी लंबे समय से सख्ती से खाली कराई जा रही है। इससे सबसे अधिक कुकी समुदाय के लोग ही प्रभावित हो रहे हैं। चुराचांदपुर भी ऐसा ही एक क्षेत्र है। जिसमें इस तरह की शिकायतें सरकारी कार्यवाही और विरोध अंदर ही अंदर बढ़ने की ख़बरंे लंबे समय से आ रही थीं। इतना ही नहीं कुकी समुदाय का आरोप है कि राज्य सरकार ने अतिक्रमण के बहाने वहां तीन चर्च खुद ही गिरा दिये थे। इसके बाद जंगल से अवैध कब्ज़ा हटाने के नाम पर तेंगोपाल और कांगपोपकी क्षेत्रों से कुकी समुदाय के अनेक गांव उजाड़ दिये गये। जंगल संरक्षण के नाम पर बिना पूर्व नोटिस उनके दर्जनों घर गिरा दिये गये। इतना ही नहीं कुकी से जुड़े दो उग्रवादी समूह से सरकार ने हुए शांति समझौतों को एकतरफा तोड़ दिया। कुकी समुदाया को असभ्य म्यामार के घुसपैठिये और अफीम पैदा करने वाले कहकर एनआरसी का डर दिखाकर डराया धमकाया भी जाता रहा है। इस तरह से हम कह सकते हैं कि मैतई और कुकी के बीच अचानक यह हिंसा साम्प्रदायिक या राजनीतिक आधार पर ही नहीं बल्कि सत्ता के काॅरपोरेट हित में झुकने और एक सोची समझी दूरगामी योजना का प्रतिफल भी हो सकता है।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*

Sunday 9 July 2023

मोदी का विकल्प नहीं

*विपक्ष एक हो सकता है लेकिन उस पर मोदी का विकल्प नहीं!* 

0पटना में विपक्षी दलों ने लोकसभा की लगभग 400 सीटों पर भाजपा गठबंधन के खिलाफ़ साझा उम्मीदवार उतारने का फ़ैसला लेकर बेशक भाजपा सरकार के सामने मज़बूत चुनौती पेश की है। लेकिन यह भी सच है कि अभी भी विपक्ष के पास भाजपा की असली ताकत पीएम मोदी का कोई विकल्प नहीं है। संघ परिवार ने बड़ी मेहनत से सरकार के लाभार्थी व हिंदू समर्थक मुट्ठीभर कामों से मोदी की इमेज मीडिया मैनेज कर मार्केटिंग और ब्रांडिंग के बल पर सुपरमैन की बना दी है। 15 से 20 प्रतिशत अमीर 10 प्रतिशत लाभार्थी और 5 से 10 प्रतिशत कट्टर हिंदुत्व समर्थक मतदाता आज भी भाजपा के साथ जुड़ा हुआ है। देखना यह है कि विपक्ष इनमें से कितने और किस वर्ग के वोट अपने पास भाजपा से खींचता है।          

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      कांग्रस के नेतृत्व मेें ना सही लेकिन कांग्रेस के बैनर तले चंद विपक्षी दलों को छोड़कर लगभग सभी भाजपा पीड़ित क्षेत्रीय दल 2024 का आम चुनाव गठबंधन कर लड़ने को तैयार होते नज़र आ रहे हैं। यह अलग बात है कि यूपी में पिछली बार सपा बसपा और कांग्रेस का गठबंधन होने के बावजूद एक दूसरे को उनका वोट ट्रांस्फर ना होने से संसदीय चुनाव में कोई खास कामयाबी विरोधी दलों को नहीं मिली थी। लेकिन इतना तो तय है कि अगर विपक्षी दलों के वोटांे का बंटवारा रूका या कम हुआ तो भाजपा गठबंधन के लिये वो सीटें जीतना भी कठिन हो जायेगा, जो उसने पिछले चुनाव में बिना किसी मशक्कत के आराम से जीत लीं थीं। आंकड़े बताते हैं कि भाजपा ने 2019 के चुनाव में 46 सीट चार लाख 105 सीट 3 लाख 164 सीट दो लाख और 77 सीट एक लाख के अंतर से जीती थीं। ज़ाहिर है कि इन सीटों पर विरोधी दल गठबंधन करके वोट ना बंटने के बावजूद जीत हासिल कर ही लें इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती है। यह भी हो सकता है कि भाजपा विपक्ष के साझा उम्मीदवार से जीत तो फिर भी जाये मगर उसका जीत का अंतर कुछ कम हो जाये। बिहार महाराष्ट्र और तमिलनाडू में विपक्षी गठबंधन पहले ही भाजपा से बहुत आगे है। राजस्थान छत्तीसगढ़ और एमपी में हालांकि कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव पिछली बार जीत लिया था। लेकिन इन तीनों राज्यों में लोकसभा की कुल 65 सीट में से 62 भाजपा गठबंधन ने जीत लीं थीं। कर्नाटक गुजरात हरियाणा हिमाचल उत्तराखंड असम पंजाब और गोवा में कांगे्रस का भाजपा से सीधा मुकाबला होने जा रहा है। ये सब मिलाकर लगभग 200 सीट हो जाती हैं। केरल तेलंगाना आंध्र प्रदेश में भाजपा का कोई वजूद नहीं है। इसलिये वहां गठबंधन करना उल्टा भाजपा को वेट और जगह देना होगा। बंगाल उड़ीसा और दिल्ली में वहां की क्षेत्रीय पार्टियां इतनी मज़बूत हैं कि कांग्रेस अगर उनको अकेले लड़ने के लिये वाकओवर दे दे तो भी कांग्रेस से अधिक भाजपा का नुकसान होना तय है। रहा यूपी का सवाल यहां सपा या बसपा में से कोई एक ही दल कांग्रेस के साथ आ सकता है। अखिलेश यादव ने बहुत जल्दी मुसलमानों का मूड भांपकर अपनी कांग्रेस और भाजपा से बराबर दूरी की ज़िद को छोड़ दिया है। उनको यह बात समझ आ गयी है कि विधानसभा चुनाव में तो उनके साथ उनका सजातीय यादव और कुछ अन्य हिंदू पिछड़ा वर्ग का वोट आ भी जाता है लेकिन लोकसभा चुनाव में सिवाय मुसलमानों के उनके साथ कोई दूसरा बड़ा वोटबैंक नहीं बचा है। अगर वे कांग्रेस का साथ नहीं देंगे तो बसपा की तरह आने वाले आम चुनाव में उनकी समाजवादी पार्टी का भी सूपड़ा पूरी तरह साफ होना तय था। उनके साथ राष्ट्रीय लोकदल और चंद्रशेखर आज़ाद की दलित पार्टी का गठबंधन भाजपा के लिये अच्छी खासी मुसीबत खड़ी कर सकता है। हालांकि यह सही बात है कि अगर कांग्रेस सपा की बजाये बसपा से गठबंधन करती तो भाजपा के लिये बड़ी चुनौती साबित हो सकती थी। लेकिन बहनजी अपने दौर में किये घोटालों की जांच से जेल जाने से डरकर भाजपा को नाराज़ कर कांग्रेस के साथ किसी कीमत पर जाने का दुस्साहस नहीं कर पायेंगी। यह हिम्मत राहुल गांधी ने दिखाई है जिससे दिन ब दिन उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। अब भाजपा के सामने एक तरफ कुंआ और दूसरी तरफ खाई है। अगर वह राहुल को नहीं रोकती है तो राहुल अकेले ही उसकी खाट खड़ी करने का संकल्प ले चुके हैं। अगर वह राहुल को नहीं रोकती है तो राहुल अकेले ही उसकी खाट खड़ी करने का संकल्प ले चुके हैं। अगर वह राहुल को जेल भेजती है या दूसरं तरीकों से सताती है तो राहुल पहले से अधिक मज़बूत होते जायेंगे। यह बात अभी से साफ नज़र आ रही है कि भाजपा चाहे जो करले उसका चरमउत्कर्ष का काल गुज़र चुका है। 2024 के चुनाव में वह बहुमत से पीछे भी रह सकती है। उसकी सीटें और वोट दोनों घटेगा अगर पुलवामा जैसी कोई आकस्मिक घटना नहीं घटी। यह बात दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ़ पढ़ी जा सकती है कि कांग्रेस और राहुल गांधी की छवि पप्पू के दौर से निकलकर पहले से बेहतर और भाजपा की पकड़ जनता पर कमज़ोर हो रही है। लोगों को यह भी साफ समझ आ गया है कि कांग्रेस ही पूरे देश में भाजपा का मुकाबला कर हरा सकती है। क्षेत्रीय दलों की सीमा और उनके नेताओं के काले कारनामे जेल जाने के डर से उनको लड़ने ही नहीं देंगे। इसलिये भाजपा विरोधी मतदाता कांग्रेस की तरफ तेजी से लौटने को तैयार है।                 

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।*

Tuesday 4 July 2023

कॉमन सिविल कोड

*समान नागरिक संहिता नीति नहीं नीयत का सवाल है!*
0 कानून एवं न्याय संसदीय समिति के चेयरमैन और भाजपा सांसद सुशील मोदी ने कहा है कि उत्तरपूर्व और विशेष दर्जा प्राप्त आदिवासी बहुल राज्यों को काॅमन सिविल कोड से बाहर रखा जाना चाहिये। जबकि कश्मीर से धारा 370 खत्म कर उसका विशेष दर्जा केवल मुस्लिम बहुल होने की वजह से छीना जा चुका है । साथ ही उसको केंद्र शासित प्रदेश बनाकर सबक सिखाया गया है। कुल मिलाकर यह लग रहा है कि भाजपा की नीति सब नागरिकों को समान मानकर सबके लिये एक कानून बनाना नहीं बल्कि इस बहाने अपने पुराने बहुसंख्यक वोटबैंक का तुष्टिकरण कर 2024 के आम चुनाव से पहले ऐसा नरेटिव सैट करना है कि मानो यूनिफाॅर्म सिविल कोड मुसलमानों को एक से अधिक शादी करने से रोकने को लाया जा रहा है। मानो इससे उनकी बढ़ती आबादी को रोका जा सकेगा?        
    -इक़बाल हिंदुस्तानी
      मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट आफ पाॅपुलेशन स्टडीज़ के 2005-06, 2015-16 और 2019-20 के नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि मुसलमानों में 1.1 हिंदुओं में 1.3 और अन्य धार्मिक समूहों में 1.6 प्रतिशत बहुविवाह प्रचलित है। अधिक जनजातीय आबादी वाले पूर्वोत्तर के राज्यों में बहुविवाह करने वाली महिलाआंे का अनुपात सबसे अधिक है। यह मेघालय में 6.1 प्रतिशत तक है। जाति समूह की बात करें तो अनुसूचित जनजातियों में सबसे अधिक बहुविवाह प्रचलित है। हालांकि यह प्रचलन समय और शिक्षा के साथ साथ कम भी हो रहा है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि हिंदू कोड बिल में दो शादी पहले ही प्रतिबंधित हैं। जिस मुस्लिम पर्सनल लाॅ को बहुविवाह के बहाने खत्म करने की मंशा जताई जा रही है। वहां पहले ही दूसरे धर्मों और वर्गों से कम बहुविवाह होते हैं। लेकिन वोटबैंक की राजनीति लगातार इस दुष्प्रचार को गर्म रखना चाहती है कि मुसलमान और उनका पर्सनल लाॅ मानो सारे मसलों की जड़ हो? यह चर्चा भी लगातार चलाई जाती है कि मुसलमानों की आबादी अगर इसी स्पीड से बढ़ती रही तो भारत एक दिन इस्लामी देश बन सकता है। जबकि यह कोरा झूठ है। सबको पता है कि कानून दो तरह के होते हैं। चोरी डकैती और हत्या के लिये अपराधिक कानून होते हैं जो सबके लिये पहले से ही एक से हैं। इनका मुसलमानों ने कभी भी विरोध नहीं किया। नागरिक या दीवानी कानून के कुछ प्रावधान सबके लिये अलग अलग हैं। जिनमें विवाह तलाक संपत्ति उत्तराधिकारी और गोद लेना आदि चंद मामलों तक सीमित हैं। सबसे बड़ा लोचा वर्तमान केंद्र और भाजपा की राज्य सरकारों की समान नीति नहीं पक्षपात वाली नीयत को लेकर है। मिसाल के तौर पर इंडियन पैनल कोड के कानून सबके लिये एक से हैं। लेकिन क्या कोई दावे से कह सकता है कि ये सब पर एक जैसे लागू होते हैं? डा. कफील खान आज़म खान सद्दीक कप्पन और उमर खालिद के मामलों को देखिये और ओलंपिक संघ के प्रमुख रहे बृजभूषण शरण सिंह अर्णव गोस्वामी यति नरसिंहानंद और अनुराग ठाकुर के साथ कानून का दोहरापन साफ नज़र आता है। पश्चिम बंगाल और असम में बीएसएपफ का अधिकार क्षेत्र 15 किमी. से बढ़ाकर 50 किमी. कर दिया गया। जबकि गुजरात में यह सीमा 80 से घटाकर 50 किमी. कर दी गयी। ऐसे ही विपक्षी दलों की राज्य सरकारों और विपक्षी दल के नेताओं के साथ करप्शन के आरोपों को लेकर केंद्र की भाजपा सरकार अकसर सौतेला व्यवहार करती नज़र आती है। लेकिन जब यही आरोपी विपक्षी नेता भाजपा में आ जाते हैं तो उनके खिलाफ जांच एजंसियां कानूनी कार्यवाही ठंडे बस्ते में डाल देती है। हम मानते हैं कि ऐसा अपवाद के तौर पर पहले भी कांग्रेस की सरकारें करती थीं लेकिन इतना एकतरफा पक्षपात कभी नहीं हुआ। हालांकि आदर्श स्थिति यही होगी कि सबके लिये यूनिफाॅर्म सिविल कोड लागू हो जिससे महिलाओं के साथ लिंग और धर्म के आधार पर पक्षपात बंद हो लेकिन सबके साथ इसे बराबर लागू किया जायेगा। इस बात की गारंटी कौन लेगा? आपको याद होगा कि किस तरह से सीएए लाकर मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश की गयी? लव जेहाद कानून संविधान की बुनियादी भावना के खिलाफ बनाकर एक वर्ग विशेष को निशाना बनाया गया। उत्तराखंड के उत्तरकाशी के पुरौला से साधारण एक लड़की के अपहरण की घटना के बहाने कैसे मुसलमानों को खुलेआम वहां से भगाया गया जबकि दो आरोपियों में एक गैर मुस्लिम भी था लेकिन उसका ऐसा हश्र नहीं हुआ। हरिद्वार धर्म संसद में खुलेआम मुसलमानों के कत्लेआम की अपील की गयी लेकिन कानून केवल खानापूरी करता नज़र आया। भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा खुलेआम मुसलमानों का बाॅयकाट करने की बात कहते हैं लेकिन उनका कुछ नहीं होता। एक जैसा अपराध होने पर मुसलमानों के घरों और दुकानों पर अकसर बुल्डोज़र चलाने और गोहत्या के नाम पर उनकी जगह जगह माॅब लिंचिंग की शिकायतें अब आम हो चुकी हैं। ऐसे में सौ टके का बड़ा सवाल यह है कि  भाजपा सरकार पर मुसलमान समान कानून का भरोसा कैसे कर सकते हैं जबकि वह उनके साथ लगातार सौतेला पक्षपातपूर्ण और दोहरा व्यवहार कर रही है। जिसकी चर्चा अब भारत के निष्पक्ष हिंदू विपक्ष और न्यायप्रिय लोग ही नहीं बल्कि यूरूप ब्रिटेन अमेरिका और दुनिया में भी खूब बढ़ती जा रही है।
*नोट- लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*