Saturday 28 April 2018

भाजपा के दलित

भाजपा से दलितों का मोहभंग ?

दलितों के एक वर्ग ने 2014 में जिस आशा से मोदी को पीएम बनाने में मतदान कर सहयोग किया था। क्या उनको और उनके प्रतिनिधियों को ऐसा आभास हो रहा है कि उनके साथ धोखा हुआ हैया फिर इस सारी कवायद का मतलब भाजपा के दलित सांसदों का अपना टिकट कटने से बचाना हैया फिर वे सपा बसपा गठबंधन मेें अपने लिये बेहतर अवसर तलाष रहे हैं?

  यूपी के बहराइच की दलित भाजपा सांसद सावित्री बाई फुले इटावा से अशोक दोहरे राबर्ट्सगंज से छोटेलाल खरवार नगीना से यशवंत सिंह और दिल्ली से भाजपा के दलित एमपी उदित राज एकाएक अपनी ही सरकार के खिलाफ आक्रामक नज़र आ रहे हैं। इन सबके हाल ही मेें दिये गये बयानों पर अगर आप विचार करें तो बस भाषा का अंतर ही दिखाई देगा। सबका घुमा फिराकर आश्य यही है कि उन्होंने जिन अपेक्षाओं के साथ भाजपा को दलित वोट थोक में दिलाये थे। सत्ता में आने के बाद भाजपा ने उन वादों और दावोें को भुला दिया है।

हालांकि भाजपा नेतृत्व इस आलोचना के पीछे दलित सांसदों का टिकट कटने का डर बता रहा है। लेकिन यह आंशिक सच हो सकता है। इतना ही नहीं बिहार से जीतकर आने वाले राम विलास पासवान भी अंदर ही अंदर यूनाइटेड जनता दल के नेता और वहां के सीएम नीतीश कुमार से कई बार गोपनीय रूप से मिलकर 2019 के चुनाव की रण्नीति पर विचार विमर्श कर चुके हैं। इन दोनों को लगता है कि भाजपा इनको इतनी कम सीटें देगी कि इनका  सियासी भविष्य धीरे धीरे शिवसेना और अकाली दल की तरह ख़तरे मंे पड़ता जायेगा।

इनको यह अहसास अभी से होने लगा है कि भाजपा का कांग्रेसमुक्त भारत का नारा आने वाले समय में विपक्षमुक्त देश में बदलने जा रहा है। अगर इनको मनचाही सीटें नहीं मिली तो यह दोनों मिलकर नया मोर्चा बनाने की सोच रहे हैं। इससे पासवान से छिटक रहा दलित वोट भी उनसे नाराज़ होकर लालू यादव के गठबंध्न के साथ जाने से रूक सकता है। हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि सावित्री बाई तो मोदी और योगी की सरकार को खुलकर दलित विरोधी बता रही हैं। वे संविधान बचाओ आरक्षण बचाओ रैली भी कर चुकी हैं। उनको भाजपा से निकाले जाने और टिकट कटने का भी भय नहीं है।

उनका कहना है कि हम अपने दलित समाज की वजह से ही यहां तक पहुंचे हैं। उनको लगता है कि भाजपा ने दलितों का वोट लेकर उनको कुछ खास नहीं दिया है। नगीना सांसद तो दो टूक आरोप लगाते घूम रहे हैं कि भाजपा ने चार साल में दलितों के लिये कुछ नहीं किया। इसकी एक बड़ी वजह हाल ही में बना सपा बसपा का गठबंधन भी माना जा रहा है। यह गठबंधन इतना मज़बूत लग रहा है कि दलित सांसदों को लगता है कि अभी से भाजपा सरकार को कोसेंगे तो उनको दल बदल कर विपक्षी गठबंधन में जाने और वहां से अगर टिकट मिल गया तो दलित समाज को फिर से खुद को वोट करने के लिये मनाने में अधिक मेहनत नहीं करनी होगी।

इतना ही नहीं दलित एक्ट को सुप्रीम कोर्ट द्वारा कमज़ोर किये जाने के लिये भी दलित समाज मोदी सरकार को दोषी मानकर चल रहा है। इसके खिलाफ दलित समाज ने 2अप्रैल को सफल भारत बंद कर भाजपा के दलित नेताओं को और भी भयभीत कर दिया है। उनको यह भी डर सता रहा है कि दलितों के मन में विपक्ष ने आरक्षण भी एक दिन ख़त्म होने का खौफ़ बैठाकर लामबंद कर लिया है। इसमें कोई दो राय भी नहीं है कि भाजपा के राज में न केवल दलितों को पहले से अधिक कुछ भी नहीं मिला है। इसके विपरीत उनपर अत्याचार और पक्षपात पहले से भी अधिक होने का आरोप लग रहा है।    

ठुकरा दो अगर दे कोई ज़िल्लत से समंदर,

  इज़्ज़त से जो मिले वो क़तरा भी बहुत है।

Thursday 26 April 2018

नोटों की कमी

नोटों की कमी से सरकार पर सवाल!
कुछ राज्यों में काफी समय से नोटों की कमी चल रही थी। फिर अचानक कई और राज्यों के एटीएम ख़ाली नज़र आने लगे हैं। इसके बाद ख़बर आई कि बैंकों में जाने वाले खाताधारकों को भी मांग के अनुसार कैश नहीं मिल पा रहा है। इसके बाद सरकार एक्टिव होती नज़र आई। लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी।

          

   पहले तमिलनाडू कर्नाटक और बिहार के कुछ ज़िलों मंे नोटों की कमी की चर्चा चल रही थी। इसके बाद अचानक एमपी गुजरात और महाराष्ट्र सहित देश के कई और राज्यों से भी ऐसी शिकायतें सामने आने लगीं कि वहां एटीएम में पर्याप्त नक़दी नहीं है। इतना ही नहीं जब लोगोें की ज़रूरत एटीएम से पूरी नहीं हुयी तो वे अपना पैसा निकालने बैंक जाने लगे। लेकिन यह क्या वहां भी उनको मांग के अनुसार धन उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। इसके बाद सरकार हरकत में आई। हालांकि यह काम रिज़र्व बैंक का था कि वह नोटों की कमी होने और देश में नकदी की कमी का संकट खड़ा होने से पहले ही इस समस्या का कोई कारगर हल तलाश लेता।

लेकिन लगता है कि ऐसे मामलों में जो हालत कांग्रेस और अन्य मिलीजुली सरकारों में दौर मंे हुआ करती थी। वही लापरवाही और आग लगने पर पानी तलाश करने की नौकरशाही की आदत बदस्तूर जारी है। इसके विपरीत अब तो मोदी सरकार ने आरबीआई सहित तमाम स्वायत्त संस्थाओं की नकेल अपने हाथ मंे लेकर उनको कठपुतली बनाया है। हालांकि सरकार ने अनमने ढंग से यह तो दबी ज़बान में स्वीकार किया कि वास्तव में नोटों की कमी है। लेकिन वह इस संकट  को पैदा होने से क्यों नहीं रोक सकी इसका उसके पास कोई माकूल जवाब नहीं है।

सरकार का दावा है कि उसने 500 के नोटोें की छपाई का काम कई गुना बढ़ा दिया है। लेकिन वह यह नहीं बता पा रही है कि उसने2000 के नोट जून 2017 से छापने बंद क्यों किये हैंइतना ही नहीं दो हज़ार का नोट इसलिये बाज़ार में कम आ रहा है क्योंकि लोगों ने एक बार फिर से बड़े नोटों की जमाखोरी शुरू कर दी है। मोदी सरकार ने जब नवंबर 2016 में नोटबंदी की थी तो उस समय कई बड़े बड़े लाभ गिनाये गये थे। लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि देश का सारा कालाधन न केवल सफेद हो गया। बल्कि कुछ लोगों ने बैंकों में पुराने नोट जमा कराने की आपाधापी में अपने पास आये जाली नोट भी अपने खातों में आराम से जमा कर दिये।

    ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि बैंकों की सब ब्रांचों के पास नक़ली नोट जांचने सुविधा तक उस समय उपलब्ध नहीं थी। नोटबंदी से न तो आतंकवाद रूका और न ही नक्सलवाद पर कोई कारगर रोक लग सकी है। ऐसे ही दो हज़ार और पांच सौ के जाली नोट भी पहले से ज़्यादा बाज़ार में आ गये हैं। नोटबंदी नाकाम होती देख मोदी सरकार ने दावा किया था कि कैशलेस न सही भविष्य में लेसकैश ट्रांज़ैक्शन को बढ़ावा दिया जायेगा। आंकड़े बताते हैं कि आज पहले से भी ज़्यादा नोट चलन में हैं। इसके साथ ही रिश्वत में बदस्तूर बड़े नोट लेकर नौकरशाह नेता और एजेंट या तो घरों में उनके अंबार लगा रहे हैं।

या फिर एक बार फिर कालाधन विदेशों में डंप किया जा रहा है। यही काम व्यापारी और उद्योगपति भी पहले की तरह कर रहा है। यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि बड़े नोटों की कमी कर्नाटक चुनाव की वजह से भी आई है। राजनीतिक दल बड़े पैमाने पर कालाधन चुनाव में चोरी छिपे खर्च करते हैं। इसके साथ यह भी चर्चा आम है कि2019 के चुनाव के लिये बैंकों से नेता अभी से पैसा बड़ी मात्रा में निकाल कर अपने पास सुरक्षित रख रहे हैं। यह भी सुना जा रहा है कि जिस तरह विजय माल्या नीरव मोदी और मेहुल चोकसी बैंकों का धन लेकर विदेश भागे हैं।

इससे लोगों में यह डर फैल रहा है कि बैंकों के ऐसे घोटाले इससे कई गुना बड़े हैं। जितने वे कम करके बताये जा रहे हैं। लोग एटीएम में पैसा न होने पर जब बैंक गये तो उनको वहां कुछ ब्रंाच में मैनेजर ने जब मांग के अनुसार धन देने में असमर्थता जताई तो उनके दिल मंे यह खौफ बैठ गया कि शायद उनका पैसा बैंकों में सुरक्षित नहीं है। उनको सरकार के प्रस्तावित कानून से भी दहशत हो रही है। जिसमें यह कहा गया था कि अगर बैंक घोटालों एनपीए या किसी और वजह से फेल होते हैं तो उनकी क्षतिपूर्ति आम जनता के जमा धन से की जायेगी।

हालांकि सरकार ने इसका उसी समय खंडन भी किया था। लेकिन इधर एक के बाद एक नाकामी से जनता का मोदी सरकार से तेज़ी से मोहभंग हो रहा है। मोदीभक्त माने या ना माने लेकिन बच्चियों और महिलाओं के साथ बढ़ती बलात्कार की घटनायें,आरोपियों को बचाती राज्यों की भाजपा सरकारंेबेरोज़गारी किसान आत्महत्या बैंक घोटाले हथियार ख़रीद पर सवाल जीएसटी से तबाह कारोबार और कालाधन विदेशों से वापस न आने सहित ऐसे मुद्दे बढ़ते जा रहे हैं। जिनपर मोदी सरकार बैकफुट पर लगती है। कभी जो लोग भाजपा का पक्का वोटबैंक होते थे। आज वो ही सबसे ज़्यादा बर्बाद होकर उससे नाराज़ नज़र आ रहे हैं। उनको लगता है-   

0 जिन पत्थरों को हमने अता की थीं धड़कनें,

  जब बोलने लगे तो हम ही पर बरस पड़े।।

Saturday 21 April 2018

क़ानून नहीं सिस्टम

बढ़ते रेप: कानून नहीं सिस्टम बदलो!

0कई साल पहले दिल्ली में हुए निर्भया बलात्कार कांड के बाद अचानक जनता में बढ़ता गुस्सा देखकर सरकार ने रेप के खिलाफ़ और सख़्त कानून बनाने का झांसा देकर एक तरह से सच्चाई पर पर्दा डाल दिया था। यही वजह है कि एक बार फिर जब देश में बलात्कार के मामले पहले से भी अधिक सामने आ रहे हैं तो सत्ता फिर से रेप के मामलों में उम्रकैद की जगह सज़ा ए मौत का लॉलीपॉप लेकर हाज़िर है।

         

   नेशनल क्राइम रिकॉर्ड बोर्ड के आंकड़े बता रहे हैं कि देश में सभी अपराध खासतौर पर बलात्कार के मामलों में न केवल कोई कमी नहीं आई है। बल्कि उनमें और भी बढ़ोत्तरी होती जा रही है। सवाल यह है कि जब सरकार ने निर्भया बलात्कार कांड के बाद यह दावा किया था कि रेप के कानून को सख़्त कर दिया गया है। जिससे भविष्य में इस तरह के वीभत्स अपराधें को करते हुए लोग डरेंगे। फिर ऐसा क्या हुआ कि बलात्कार घटने की बजाये और बढ़ गये?बजाये इस तथ्य की जांच कराने के कि ऐसा अनर्थ क्यों हुआ कि एक तरफ रेप से निबटने को कानून को पहले से कठोर बनाया गया और दूसरी तरफ रेप की दर पहले से और ज्यादा बढ़ गयी।

सरकार एक बार फिर वही घिसा पिटा राग अलाप रही है कि बलात्कार के बढ़ते मामलों से निबटने के लिये कानून को और सख़्त किये जाने पर विचार किया जा रहा है। इस बारे में विचार करें तो यही लगता है कि या तो हमारी सरकार को यही नहीं पता कि कानून सख़्त करने से अपराध पहले भी कम नहीं हुए और आगे भी कम नहीं होंगे। या फिर सरकार जानबूझकर समस्या की जड़ तक जाकर इसका समाधान करने की इच्छुक ही नहीं है। सबको पता है कि कानून सख़्त हो या हल्का उसका भय अपराधियों के दिल में तभी पैदा होता है।

जबकि उसके हिसाब से रेप करने वाले को सज़ा हर हाल में मिले। सच यह है कि हमारे देश में समाजिक लोकलाज और जगहंसाई से बचने को बलात्कार पीड़ित अधिकांश मामलों को थाने ले जाया ही नहीं जाता। दूसरी बात जो मामले पुलिस के पास पहुंचते भी हैं। उनमें रसूखदार अमीर और दबंग लोगों के खिलाफ रेप का मुकदमा दर्ज ही नहीं हो पाता। इसके बाद अगर रेप पीड़ित कोई जुगाड़ लगाकर पुलिस से सीधे या कोर्ट में गुहार लगाकर रपट दर्ज कराने में सफल हो भी जाती है तो उस पर आरोपी और पुलिस हमसाज़ होकर केस वापस लेने का दबाव बनाते हैं।

जब बलात्कार पीड़ित तब भी डटी रहती है। तो उसके या उसके परिवार के खिलाफ बदले की भावना से फर्जी केस दर्ज करा दिया जाता है। उन्नाव रेप के मामले में सत्ताधारी विधायक ने न केवल अपने खिलाफ किसी कीमत पर पुलिस को रपट दर्ज नहीं करने दी। बल्कि उल्टा बलात्कार पीड़िता के पिता को पुलिस से मिलीभगत करके जेल भिजवा दिया। पीड़िता जब मुख्यमंत्री तक शिकायत ले गयी । तब भी उसकी सुनवाई नहीं हुयी। इसके बाद जब उसने आत्मदाह करने का प्रयास किया। तब सबक सिखाने को उसके पिता को जेल में मौत के घाट उतार दिया गया।

सामान्य रेप केस में भी बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती। जब जैसे तैसे रेप का मामला दर्ज भी हो जाता है। इसके बाद मेडिकल से लेकर गवाहों को डराया धमकाया जाता है। साथ ही कोर्ट में बलात्कार पीड़िता को इतने साल तक चक्कर लगाने पड़ते हैं कि उसका सामाजिक आर्थिक और व्यक्तिगत जीवन बर्बाद हो जाता है। कोर्ट में उससे बलात्कार के आरोपी का वकील ऐसे ऐसे अशोभनीय और अश्लील सवाल पूछता है कि वह यह महसूस करती है कि उसने कानूनी कार्यवाही करके शायद कोई अपराध किया है। दशकों के बाद अगर मामला तय भी होता है।

तो उसमें अकसर कमज़ोर प्रमाणों और अध्ूारे तथ्यों के साथ गवाहोें को तोड़ लेने से आरोपी को संदेह का लाभ मिल जाता है। खुद सरकारी वकीलसरकारी डॉक्टर और जांच करने वाली पुलिस अकसर बलात्कार पीड़िता का साथ न देकर आरोपी से हमसाज़ नज़र आते हैं। जेसिका लाल प्रियदर्शनी मट्टू और भंवरी देवी के कई चर्चित बलात्कार के मामले अदालत के अंतिम निर्णय आने तक खुद ब खुद न्याय की चौख़ट पर दम तोड़ देते हैं।

10 से 15 प्रतिशत रेप के मामले ही कोर्ट में साबित हो पाते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि कानून सख़्त या नरम क्या करेगा जब रेप केस अंजाम तक तो दूर थाने तक ही नहीं पहंुचते और पुलिस उनको दर्ज ही करने में ही आनाकानी करती है। इसलिये हमारा कहना है कि सरकारें देश को मूर्ख बनाना बदं कर सिस्टम ऐसा बनायें कि चाहे फांसी की जगह बलात्कार के अपराधी को आजीवन कारावास ही हो लेकिन उसको सज़ा हर हाल में मिले।    

0 न इधर उधर की बात कर यह बता क़ाफ़िला क्यों लुटा,

   मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।

Monday 16 April 2018

आसिफ़ा गैंगरेप

कठुवा-उन्नावः मानव बनाम दानव की लड़ाई!

कुछ लोग बलात्कार और हत्या की इन वीभत्स घटनाओं को धर्म और राजनीति के चश्मे से देख रहे हैं। लेकिन हमारा मानना है कि ये मानव बनाम दानव की लड़ाई है। जो लोग अपने किसी भी स्वार्थ के लिये इंसान से शैतान बन चुके हैं। उनसे इस बारे में कुछ भी कहना बेकार है।

 

जम्मू के कठुवा में आसिफ़ा नाम की 8 साल की बच्ची का पहले अपहरण होता है। उसके बाद उससे एक सप्ताह तक सामूहिक बलात्कार होता है। इसके बाद उसकी हत्या कर के लाश जंगल मेें फैंक दी जाती है। यूपी के उन्नाव में एक लड़की के साथ सत्ताधारी दल का एक दबंग विधायक बलात्कार करता हैै। पहले तो उसकी रपट नहीं लिखी जाती। जब लिखी भी जाती है तो उस एफआईआर से विधायक का नाम निकाल दिया जाता है। इसके बाद उस युवती के पिता की आरोपी विधायक का भाई बुरी तरह पिटाई करता है। इसके बाद उल्टे उसके पिता को ही जेल भेज दिया जाता है।

जब युवती सीएम से मिलकर अपनी बात नहीं कह पाती और आत्मदाह करने का प्रयास करती है। तब उसके पिता की जेल मंे ही हत्या हो जाती है। जब मामला मीडिया के ज़रिये पूरे देश में चर्चा में आ जाता है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट स्वतः इन मामलों का संज्ञान लेकर सरकार का जवाब तलब करता है। तब जाकर इस मामले में मजबूरन सरकार कुछ करते हुए दिखती है। पीएम और सीएम पीड़ित बेटियों को न्याय दिलाने का दिखावटी बयान जारी करते हैं। सवाल यह है कि अब तक आरोपियों को बचा कौन रहा था? आरोपियोें के पक्ष में रैली कौन कर रहा था?

पीड़िता के पिता को थाने और सरकारी अस्पताल में सता कौन रहा था? किसके कहने पर यह सब हो रहा था? भाजपा सरकार का दावा है कि उसका एमएलए बेकसूर है। दिल्ली के आप के विधायकों के मामलों में कोई झूठा आरोप लगा दे तो तत्काल जेल भेज देते हैं। इतना ही नहीं कठुवा के मामले में जब आरोपियों को पकड़ा जाता है। भाजपा के दो मंत्री बेशर्मी से उनके पक्ष में सड़क पर उतर आते हैं। वहां की बार एसोसियेशन भी आरोपियों का बचाव करती है। वे 6 घंटों तक कोर्ट में चार्जशीट दाखि़ल नहीं होने देते। भाजपा दिल्ली में अपना रटा रटाया कुतर्क दोहराती है।

जब असम में ऐसा ही रेप ज़ाकिर हुसैन नाम के लड़के ने किया था। तब क्यों नहीं बोले थे? इन मामलों की गंभीरता वीभत्सता और दानवता यहीं से झलकने लगती है। सवाल यह है कि क्या ये साधरण रेप केस हैं? क्या इससे पहले किसी मामले में किसी दल ने यह कहा है कि चूंकि रेप का आरोप उनके विधायक पर लगा है। इसलिये उसके खिलाफ़ किसी कीमत पर रपट ही दर्ज नहीं की जायेगी। उसको हिरासत में लेने का तो सवाल ही नहीं उठता। उससे पूछताछ और जेल भेजने की बात तो सपने में भी नहीं सोची जा सकती। क्यों? क्योेंकि भाजपा विधायक ऐसा कर ही नहीं सकता। आरोप झूठे हैं? केस फर्जी है?

भाजपा को बदनाम करने की साज़िश है यह? 164 में बलात्कार पीड़ित लड़की के बयान होते हैं। लेकिन विधायक का नाम बार बार बोलने के बावजूद मजिस्ट्रेट एमएलए का नाम बयान में लिखता ही नहीं। अगर आप इंसान हैं तो सोशल मीडिया पर उस युवती के पिता का लहूलुहान आखि़री वीडियो देखकर आप सिहर गये होंगे। आपकी रूह कांप गयी होगी। जिसमें वो नीम बेहोश बुरी तरह घायल खून से लथपथ बार बार कर्राह रहा है। मगर पुलिस और डाक्टर उसकी मज़ाक उड़ा रहे हैं। ऐसे ही कठुवा में मासूम बच्ची के साथ हुयी दरिंदगी पर कुछ दानव सवाल कर रहे हैं  कि इसमें चीख़ने चिल्लाने की क्या बात है?

रोज़ ही देश में ऐसे सैंकड़ो बलात्कार होते रहते हैं। दरअसल असली रौंगटे खड़े करने वाली यही दानवी सोच है। अच्छा हुआ देश में मानवीय सोच के सभी धर्मों जातियों और राज्यों के संवेदनशील लोग इन दोनों मामलों में खुलकर खड़े हो चुके हैं। नामचीन खिलाड़ी और फिल्म कलाकार भी खुलकर इन मामलों में आरोपियों और सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रहे हैं। वे धर्म और क्षेत्र से उूपर उठकर मानवता के नाते चाहते हैं कि कानून सबके लिये बराबर होना चाहिये।

उनका यह भी कहना है कि विधायक हो या सांसद और सीएम हो या पीएम उनको संविधान के हिसाब से ही चलना होगा। कम लोगों को पता होगा कि कठुवा वाले मामले में उस फूल सी बच्ची का रेप और मर्डर आम बलात्कार या हत्या नहीं है। एसआईटी की चार्जशीट में यह बात खुलकर सामने आ गयी है कि कठुवा में घुमंतु जाति के मुस्लिम बकरवाल समुदाय को वहां से भगाने के लिये यह सब कुछ घिनौनी साज़िश के तौर पर किया गया है। हालांकि आरोपी अपने मकसद में एक तरह से कामयाब भी हो गये हैं। क्योेंकि उस बच्ची का परिवार डर से कठुवा छोड़कर पलायन कर गया है।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि वे कौन लोग है। जिन्होंने वर्ग विशेष के बारे में लोगों के दिमाग में इतना ज़हर और नफ़रत भर दी है कि इसके लिये लोग उनसे बदला लेने और  उनको सबक सिखाने के लिये दानवता की किसी सीमा तक भी जाने को तैयार रहते हैं? जब तक हम इस तरह के घिनौने मामलों की जड़ तक नहीं जायेंगे तब तक इस तरह की वीभत्स घटनायें साज़िशें और कुत्सित योजनायें बनती रहेंगी और अमल में भी आती रहेंगी। लेकिन हर बार ऐसी ही घिनौनी हरकते होने के बाद हम और हमारा समाज ऐसी ही किसी दूसरी घटना की प्रतीक्षा करता पाया जाता है। ये धर्म की नहीं मानव बनाम दानव की लड़ाई है।

0 कुछ ना कहने से भी छिन जाता है एजाज़ ए सुख़न,

जुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है।।

देहदान

डा. मंसूरी का देहदान मत रोको!

एक दौर था जब इस्लामी कट्टरपंथी रक्तदान को भी नाजायज़ बताते थे। नेत्रदान को वे आज भी गलत बताते हैं। देहदान का तो नाम सुनते ही वे गुस्से में लाल हो जाते हैं। लेकिन बदलते समय के साथ मुसलमान उनकी सुन नहीं रहे हैं। ऐसा करने वाले मुसलमानों का दो टूक कहना है कि यह उनका संवैधानिक और कानूनी अधिकार और मानवीय कर्तव्य है।

कानपुर के रामा डेंटल कॉलेज के जनरल मैनेजर डा. अरशद मंसूरी ने मेडिकल कॉलेज के छात्र छात्राओं के शोध के लिये मरने के बाद अपना जिस्म दान करने का ऐलान किया है। उनके देहदान का इरादा ज़ाहिर करते ही इस्लामी कट्टरपंथी उनके खिलाफ़ आग बबूला होने लगे हैं। उनका दावा है कि इंसान अपने शरीर का मालिक नहीं होता है। जो वो जिसे चाहे अपने जिस्म को मरने के बाद या पहले दान कर दे। उनका यह भी कहना है कि जिस्म अल्लाह की अमानत है। इसलिये उसको रिसर्च के लिये दे दिये जाने से ऐसे मुसलमान की जनाज़े की नमाज़ कैसे अदा की जायेगी?

उनका कहना है कि जिस्म मरने के बाद कब्रिस्तान में दफ़न होता है। उसको उसके रिश्तेदार और जान पहचान वाले मिट््टी देते हैं। इसके बाद उसको कब्र में फिर से ज़िंदा किया जाता है। उससे फ़रिश्ते हिसाब किताब करते हैं। अगर उसकी लाश कब्र में दफ़नाई ही नहीं जायेगी तो उसका आगे का हिसाब किताब कैसे होगा? इंसान की लाश सुपुर्द ए खाक होने के बाद उस पर किसी का पैर पड़ जाना तक जब गुनाह बताया गया है तो कोई मुसलमान अपना जिस्म खुद मालिक बनकर कैसे दान कर सकता है? यह अजीब बात है कि जिसका जिस्म है।

उसको दफनाने और गुनाहगार होने की चिंता नहीं है। लेकिन कट्टरपंथी देहदान के फैसले पर ज़मीन आसमान एक किये दे रहे हैं। उधर डा. अरशद का कहना है कि वे कट्टरपंथियों के इस तरह के फ़तवों से दुखी हैं। लेकिन उनके दबाव में आकर अपना मानवहित का फैसला बदलने वाले नहीं हैं। उनका कहना है कि युवा पीढ़ी को उनकी तरह रूढ़िवादी विचारों से बाहर निकलना चाहिये। उनका सोचना है कि अगर इस तरह के दकियानूसी लोगों के दबाव में आकर मुसलमान प्रगतिशील और आधुनिक क़दम नहीं उठायेंगे तो वे समाज में दूसरे वर्गों से पिछड़ जायेंगे।

उनका दो टूक कहना है कि वे समाज के हित में देहदान कर रहे हैं। उनका यह भी कहना है कि देहदान करना उनका कानूनी अधिकार है। वे यहां तक कहते हैं कि वे पहले एक इंसान और भारतीय नागरिक हैं। उनको संविधान ऐसा फ़ैसला करने का अधिकार देता है। उनका यह भी कहना है कि इस्लाम नीयत को देखता है। वे अपना जिस्म मेडिकल के बच्चो को सीखने के लिये देना चाहते हैं कि आने वाले समय में बच्चे डाक्टर बनकर ज़रूरतमंद लोगों का बेहतर इलाज कर सकेें। उनका कहना है कि किसी की जान बचाना और उसको सेहतयाब करना इंसानियत की सबसे बड़ी सेवा है।

उनका पूरा भरोसा इस बात पर है कि अल्लाह अपनी बनाई मखलूक की सेवा के लिये उनके द्वारा किया जा रहा देहदान कबूल करके उनको इसका अज्र देगा और नाराज़ नहीं होगा क्योंकि इसके पीछे उनकी मंशा नाम या दाम कमाना नहीं है। उनका यह भी कहना है कि वे किसी और को देहदान करने के लिये मजबूर नहीं कर रहे। वे उन बच्चो को भी अपनी देह पर रिसर्च न करने का विकल्प दे रहे हैं। जो यह मानते हैं कि किसी इंसान के जिस्म पर मरने के बाद रिसर्च करने से वे पाप के भागीदार बन सकते हैं। वे तो केवल इतना चाहते हैं कि जो उनके देहदान करने के बाद उनके जिस्म पर रिसर्च करना चाहें उनको धर्म की आड़ में ना रोका जाये।

इस मामले में डां मंसूरी का सामाजिक और मानवीय पक्ष मज़बूत लगता है। इतिहास गवाह है कि इस्लामी कट्टरपंथी कई चीज़ों को लंबे समय तक हराम और नाजायज़ बताते रहे हैं। लेकिन बाद में खुद मुसलमानों के दबाव में वे उन बातों पर चुप्पी साध लेते हैं। या फिर उसको खुद भी इस्तेमाल करना चालू कर जायज़ करार दे देते हैं। मिसाल के तौर पर रक्तदान, किडनी ट्रांस्प्लांट लाउड स्पीकर छपी हुयी किताबें अंग्रेजी फोटो टीवी फिल्में आकाशवाणी कम्प्यूटर स्मार्ट फोन बीमा बैंक सर्विस और ब्याज आदि की एक लंबी लिस्ट है। जिनको कट्टर मौलाना और मुफ़ती लंबे समय से नाजायज़ और हराम बताते चले आ रहे हैं।

लेकिन आज मुसलमानों की बड़ी तादाद ही नहीं खुद मौलाना तक इनको अपनाते नज़र आ रहे हैं। इंग्लिश मीडियम की अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी कायम कर मुसलमानों को दुनिया में सम्मान से जीने उच्च शिक्षित करने और सम्पन्न बनाने वाले सर सय्यद अहमद खां के खिलाफ तो कट्टरपंथियों ने जान से मारने के दर्जनों फ़तवे जारी किये थे। लेकिन अब मुसलमान यह बात समझने लगा है कि उनकी आज जो दयनीय और ख़राब हालत हुयी है। उसके लिये उनको अंग्रजी व आधुनिक तालीम प्रगति और नवीन विकास की दौड़ में बाधा बने ऐसे कट्टरपंथी अधिक ज़िम्मेदार हैं।
मेरे बच्चे तुम्हारे लफ़्ज़ को रोटी समझते हैं,

ज़रा तक़रीर कर दीजे कि इनका पेट भर जाये।