Monday 23 November 2020

बिहार चुनाव

बिहार चुनाव परिणाम एक कारण अनेक!

एक बार फिर सारे एक्ज़िट पोल झूठे साबित हो गये। बिहार ही नहीं कई अन्य राज्यों में पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं पहले चरण के चुनाव में महागठबंधन ने दो तिहाई सीटें जीतीं हैं। दूसरे चरण में वह पिछड़ने के बावजूद लगभग बराबर पर आया तो तीसरे चरण में फिसलकर सीध्ेा एक चौथाई पर पहंुच गया। इसका बड़ा कारण महिलाओं का अधिक मतदान, एनडीए का चुनाव में उच्च जातियों का ध्रुवीकरण और एआईएमआईएम का मुस्लिम वोटों में सेंध लगाना माना जा रहा है।

-इक़बाल हिंदुस्तानी

कोरोना महामारी लॉकडाउन और आर्थिक मंदी से जीडीपी माईनस में जाने के बाद बिहार राज्य का पहला चुनाव था। जिस पर पूरे देश की नज़रें यह देखने के लिये लगी हुयी थीं कि क्या देश की राजनीति बदल रही है? लेकिन बिहार ने जवाब दे दिया है कि आज भी अपवादों को छोड़कर पहले की तरह मोदी का जलवा कायम है। यह ठीक है कि जब देश में केंद्र और राज्यों के स्तर पर लगभग सभी विपक्षी दल थके हारे और ढलान पर नज़र आ रहे हैं। ऐसे में आरजेडी के युवा नेता तेजस्वी यादव ने महागठबंधन का सफल नेतृत्व करते हुए बिहार में एनडीए के जनता दल यू व भाजपा को लोहे के चने चबाने पर मजबूर ही नहीं किया बल्कि मतगणना में अंत तक कांटे की टक्कर देकर सीएम से लेकर पीएम तक की सांसे रोक कर रख दी थी। इतना ही नहीं तेजस्वी ने अपने पिता के जेल में होने धन और अन्य संसाधनों की कमी होने और चुनाव से ठीक पहले अपने दल के कई बड़े नेताओं और सहयोगी छोटे दलों के साथ छोड़ने के बावजूद इतना शानदार और जानदार चुनाव लड़ा कि जीतने वाले भी उनका लोहा मानने पर मजबूर हो गये। सबसे बड़ा आकर्षक वादा महागठबंधन का सरकार बनते ही दस लाख सराकारी नौकरी देना था। लेकिन लालू यादव के जंगल राज का जैसे ही तेजस्वी को पीएम ने युवराज बताया, चुनावी समीकरण बदल गये। चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि दो तिहाई से अधिक उच्च जातियों का वोटर एनडीए के पक्ष में इसके बाद लामबंद हो गया। पीएम की छवि उनका विकास का दावा और केंद्र सरकार भाजपा की होना भी एनडीए के पक्ष में गया। हालांकि लोकजनशक्ति पार्टी ने एनडीए से बगावत करके जदयू को 25 से 30 सीट हरा दीं। लेकिन इसकी क्षतिपूर्ति महागठबंधन के मुस्लिम वोट में सेंध लगाकर औवेसी की पार्टी एमआईएम से पूरी कर दी। अंतर बस इतना रहा कि जहां जदयू नुकसान उठाकर भी अपनी सीट काफी कम होने पर भी  सत्ता में वापस आने में कामयाब रहा वहीं महागठबंधन एमआईएम के मात्र 5 सीट जीतने और इससे अधिक पर मुस्लिम वोट बंटने व पूरे राज्य में हिंदू वोटों के भाजपा के पक्ष में प्रतिक्रिया के रूप में ध्ु्रावीकरण होने से सत्ता के पास आकर दूर रह गया। महागठबंधन की हार के कई कारण हैं। कुछ सामने आने लगे हैं। कुछ भविष्य में सामने आयेंगे। फिलहाल कांग्रेस को 70 सीट दिया जाना भी तेजस्वी की नासमझी माना जा रहा है। कांग्रेस इनमें से केवल 19 सीट जीत पाई है। इसका कारण कांग्रेस की 70 साल की सत्ता में रहकर की गयीं ढेर सारी नालायकी भ्रष्टाचार और मनमानी मानी जा रही है। खुद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता तारिक अनवर ने इस कमी को स्वीकार भी किया है। उधर तेजस्वी ने वामपंथियों को मात्र 29 सीट लड़ने को दीं थीं लेकिन वे उनमें से 16 जीतकर भाजपा और आरजेडी जैसी सबसे बड़ी पार्टियों से भी अधिक जीत का स्ट्राइक रेट का रिकॉर्ड बनाने में कामयाब रहे। बताया जाता है कि वामपंथियों ने ही महागठबंधन की चुनाव रणनीति घोषणापत्र और चुनावी मुद्दे तय करने में मदद की थी। कामरेडों ने उन सीटों पर भी महागठबंधन के प्रत्याशियों के लिये जीजान से दिन रात काम किया। जहां वे खुद चुनाव नहीं लड़ रहे थे। अगर कांग्रेस को 70 की जगह 50 सीट देकर कम्युनिस्टों को 29 की बजाये 50 सीट दी जाती तो निश्चित रूप से आज तेजस्वी बिहार के इतिहास के सबसे युवा सीएम की शपथ ले रहे होते। लेकिन आप नोट कर लीजिये आज नहीं तो कल तेजस्वी को एक दिन बिहार की सत्ता में आना ही है। इस मामले में भाजपा के पूर्व एमपी और जाने माने दलित नेता व कांग्रेसी उदित राज ने इवीएम मंे गड़बड़ी का राग एक बार फिर छेड़ा है लेकिन वीवीपेट मॉक वोटिंग और राजस्थान एमपी छत्तीसगढ़ पंजाब और दिल्ली में विधानसभा जीतने वाले गैर भाजपा दलों को बिना ठोस सबूत अपनी हार का ठीकरा इवीएम पर फोड़ने का कोई हक नहीं है। हम यह नहीं कह सकते कि ईवीएम में गड़बड़ी नहीं हो सकती लेकिन जब तक यह साबित ना हो जाये तब तक ईवीएम भी उस आरोपी की तरह निरपराध है। जिसको कोर्ट में दोषी साबित नहीं किया जा सकता है। सबसे बड़ा आरोप महागठबंधन ने उन एक दर्जन से अधिक सीटों को हराने को लेकर लगाया था। जिनपर हार जीत का मार्जिन एक हज़ार वोट से कम था। चुनाव आयोग ने इस आरोप को गंभीरता से लेते हुए यह साबित कर दिया है कि जिन सीटों पर डाक मतपत्र बड़ी संख्या में निरस्त किये गये थे। उनमें एकमात्र हिल्सा सीट है। जिसपर आरजेडी का उम्मीदवार उतने यानी 12 वोट से हारा है। जबकि कैंसिल हुए बैलेट पेपर की तादाद यहां 182 थी। इसके अलावा बाकी 10 सीट पर अगर रद्द डाक मतपत्र जोड़े भी जायें तो हार जीत का अंतर इतना अधिक है कि जीतने वाले दल पर कोई असर नहीं पड़ेगा। साथ ही इन 10 में से 3 सीट खुद आरजेडी और एक एक सीपीआई एलजेपी और निर्दलीय ने जीती है। इसके साथ ही हिल्सा सीट पर आयोग ने आरजेडी प्रत्याशी की मांग पर तत्काल फिर वोटों की गिनती भी करा दी थी। इस चुनाव मेें एलजेपी ने जहां खुद एक सीट जीतकर जदयू को काफी नुकसान और भाजपा को अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुंचाया है। वहीं यही काम औवेसी की एमआईएम ने जाने अनजाने में महागठबंधन को नुकसान पहंुचाकर 5 सीट जीतीं हैं लेकिन उसके ऐसा करने से भापजा के साथ हिंदू वोटों का जबरदस्त ध््राुवीकरण हुआ है। एक सबसे बड़ा कारण महिला वोटों का 10 प्रतिशत से अधिक मतदान एनडीए के पक्ष में गया है। इससे हार जीत की 15 सीटों का अंतर पट गया है। हालांकि महिला मतदाता नीतीश सरकार के शराब पर रोक लगाने और छात्राओं को लंबे समय से साइकिल दिये जाने से खुश होकर उनके दल के पक्ष में वोट दे रही थीं लेकिन इसका अधिक लाभ भाजपा को मिल गया। पीएम उज्जवला योजना गरीबों को मकान कई माह से निशुल्क राशन किसान सम्मान योजना विधवा पेंशन और अन्य कल्याणकारी केंद्र की योजनाओं का भी एनडीए को चुनावी जीत में लाभ मिला है। लेकिन सौ टके का सवाल यही है कि आखिर कब तक एनडीए और भाजपा भावनाओं सम्प्रदाय और जातियों की राजनीति से सत्ता पाकर सरकार बना और चला सकती है?

ओवैसी की सियासत...

औवेसी: उभरती सियासतकिसकी आफ़त,किसको राहत?

0तेलंगाना से निकलकर पहले महाराष्ट्र और अब बिहार में पांव जमा रही औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम पर आजकल पूरे देश और खासतौर पर मुसलमानों में चर्चा गर्म है। जहां कुछ लोग उनको सेकुलर दलों के वोट काटकर भाजपा को लाभ पहुंचाने वाला बता रहे हैं। वहीं मुसलमानोें का एक वर्ग जिनमें नौजवानों की बड़ी तादाद हैका मानना है कि लोकतंत्र मेें जब सबको अपनी पार्टी बनाने चुनाव लड़ने और सरकार में भागीदारी का अधिकार है तो मुसलमानों को भी ऐसा ही हक क्यों नहीं होना चाहिये।    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   बिहार चुनाव के बाद जाने माने शायर मनव्वर राणा औवेसी से बहुत नाराज़ हैं। उनका आरोप है कि औवेसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहाद उल मुस्लिमीन भाजपा की बी टीम है। वे यह भी कहते हैं कि औवेसी भाजपा के हिंदूराष्ट्र के मिशन को आगे बढ़ाने में मदद कर रहे हैं। उनका दावा है कि एमआईएम ने भले ही5 विधायक जिताकर मुसलमानों को खुश किया हो लेकिन वे यह नहीं देख पा रहे कि इन ही औवेसी ने बिहार के सीमांचल में 21 सीटों पर चुनाव लड़कर पांच के साथ 11 दूसरी मुस्लिम बहुल सीटें भी महागठबंधन को हराकर एनडीए के सत्ता में आने का रास्ता साफ कर दिया है। उनका कहना है कि मुसलमान चंद मुस्लिम विधायक जिताकर तेजस्वी के नेतृत्व में बनने वाली एक सेकुलर गरीब और पिछड़े व कमज़ोर वर्ग की समर्थक सरकार बनने से रोककर क्या हासिल कर सकते हैंउधर औवेसी ने दावा किया है कि उन्होंने चुनाव से पहले महागठबंधन के नेताओं से मिलकर चुनाव लड़ने की पेशकश की थी। लेकिन किसी ने उनको संजीदगी से नहीं लिया। इसलिये उनका यह ठेका नहीं है कि उनके अलग चुनाव लड़ने से कौन जीतता है और कौन हारता है?इसके साथ ही औवेसी ने आने वाले यूपी और बंगाल के चुनाव मंे भी अपने प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर दिया है। उन्होंने अपने आलोचकों का मंुह बंद करने को ममता बनर्जी को साथ मिलकर लड़ने और भाजपा को सरकार बनाने से रोकने का प्रस्ताव भी दे दिया है। यह ठीक है कि भारत में लोकतंत्र है। यहां किसी को भी अपनी पार्टी बनाकर चुनाव लड़ने और सरकार बनाने का अधिकार है। जहां तक औवेसी का सवाल है। बेशक उनकी पार्टी धर्म के नाम पर बनाई गयी है। साथ ही वे अधिकांश मुस्लिम मुद्दों और मुस्लिम बहुल सीटों पर चुनाव लड़कर इसकी पुष्टि भी करते रहे हैं। उनकी सभाओं में धार्मिक नारे भी लगते हैं। लेकिन अगर यह सब गैर कानूनी या असंवैधानिक होता तो उनकी पार्टी को चुनाव आयोग से पंजीकरण और मान्यता नही मिलती। यह मिल भी गयी थी तो निरस्त हो सकती थी। मगर शिवसेना और अकाली दल भी ऐसी ही धर्म आधारित पार्टी रही हैं। खुद भाजपा भले ही खुद को हिंदू पार्टी के नाम से पहचान कराने से बचती हो। लेकिन सब जानते हैं कि वह खुलेआम हिंदुत्व की राजनीति करती है। लेकिन जब कोई भी व्यक्ति या दल दूसरे धर्म के लोगों का विरोध नुकसान और उनके खिलाफ घृणा व हिंसा तक फैलाने लगता है तो वह साम्प्रदायिक और कट्टर कहलाता है। कौन कौन से सियासी दल धार्मिक की बजाये कट्टर साम्प्रदायिकता की सियासत कर रहे हैंयह किसी से छिपा नहीं है। सवाल यह उठता है कि जो भाजपा सरकार पूरे विपक्ष के पीछे हाथ धेकर पड़ी है। वह लगभग 15000 करोड़ की सम्पत्ति वाले मुस्लिम मुद्दों की सियासत करने वाले और अकसर विवादित बयान देने वाले औवेसी को लालू और मायावती की तरह जांच के नाम पर परेशान क्यों नहीं करतीउनके पास पूरे देश में सियासत करने को करोड़ों अरबों के संसाधन कहां से आ रहे हैंउनको मुख्यधारा का मीडिया इतना सयम और अहमियत किसके इशारे पर देता है कि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस सपा बसपा राजद या वामपंथियों को भी इसके मुकाबले आधा या चौथाई वेट भी नहीं मिलता हैसाथ ही अकसर देखा गया है कि टीवी चैनल औवेसी को ना केवल अपनी बात पूरी कहने का खुला मौका देते हैं बल्कि उनसे तीखे या चुभते हुए वैसे सवाल भी नहीं करते जैसे वे अन्य विपक्षी दलों से करके उनको देशद्रोही देशविरोधी और हिंदू विरोधी साबित करने पर तुले रहते हैं। सवाल यह भी है कि जो भाजपा और संघ के नेता आयेदिन कांग्रेस और कम्युनिस्टों से उल्टे सीधे सवाल पूछकर उनको पाकिस्तान आतंकवाद और मुसलमानों का एजेंट बताते रहते हैं। वे भी किसी गुप्त समझौते या छिपी हुयी योजना के तहत कभी भी औवेसी से ऐसे असुविधाजनक और मुसीबत मेें डालने वाले सवाल नहीं पूछते। इतना ही नहीं खुद औवेसी जितने हमलावर भाजपा या संघ पर नज़र आते हैं। चुनाव लड़ते समय सेकुलर दलों का अधिक नुकसान करते दिखते हैं। यानी उनकी कथनी और करनी में ज़मीन आसमान का अंतर हैै। असल खेल यह है कि भाजपा ने बड़े जतन से कांग्रेस को मुस्लिम परस्त पार्टी साबित करने का अभियान शुरू किया था। लेकिन राहुल गांधी ने गुजरात चुनाव में दर्जनों मंदिर जाकर अपना जनेउू दिखाकर खुद को शिवभक्त साबित किया तो वहां कांग्रेस बिहार की तरह भाजपा को कांटे की टक्कर देने मंे सफल हो गयी। इसके बाद कांग्रेस ने तीन तलाक कश्मीर की धारा 370दिल्ली दंगा एनआरसी सीएए और मुस्लिम मुद्दों पर चुप्पी या नपा तुला औपचारिक बयान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर हिंदुओं को राम मंदिर का ताला खुलवाने शिलान्यास कराने और भाजपा को सत्ता तक पहंुचने देने का अहसास कराया तो वह राजस्थान छत्तीसगढ़ और एमपी में नरम हिंदुत्व के बल पर भाजपा से सत्ता छीनकर अपनी सरकार बनाने में सफल हो गयी। इसके बाद भाजपा ने अपनी रण्नीति बदलकर कांग्रेस सहित तमाम क्षेत्रीय सेकुलर दलों पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाना तो जारी रखा। लेकिन पहले से बनी बनाई कट्टर साम्प्रदायिक और संकीर्ण औवेसी की मुस्लिम पार्टी एआईएमआईएम को आगे रखकर हिंदू बनाम मुस्लिम सियासत की बिसात बिछानी शुरू कर दी। आज इसी का नतीजा है कि सेकुलर दल अपना परंपरागत मुस्लिम वोटबैंक औवेसी की तरफ जाने से जहां उसको अपने सियासी वजूद के लिये नई आफ़त मान रहे हैं। वहीं सेकुलर दलों की बार बार हार से निराश बचा खुचा हिंदू वोट भी धीरे धीरे औवेेसी की मुस्लिम सियासत को बड़ा ख़तरा मानकर भाजपा की तरफ जाने को मजबूर हो सकता है। इसके कुछ नमूने हम महाराष्ट्र और बिहार में हाल ही में देख चुके हैं। यह मानना पड़ेगा कि यह संघ परिवार की कूटनीति की बड़ी सफलता है कि जिन औवेसी को आज मुसलमान अपना मसीहा समझ रहे हैं। वे जाने अंजाने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देकर उल्टा उसी हिंदू साम्प्रदायिकता को मज़बूत करेंगे जिससे लड़ने हराने और देश को बचाने का वह दावा करते हैं।