Thursday 25 April 2024

मुसलमान और मोदी

*मुसलमान न होते तो भाजपा आज सत्ता में होती ?* 
0 भाजपा दस साल से केंद्र की सत्ता में है लेकिन उसके पास ऐसी कोई ठोस उपलब्धि विकास या उन्नति का ठोस प्रमाण नहीं है जिसके आधार पर वह चुनाव में वोट मांग सके। यही वजह है कि वह उन अल्पसंख्यक मुसलमानों को खुलेआम निशाना बना रही है जिनके बारे में मीडिया व्हाट्सएप और उसके लोग घर घर जाकर लोगों के कान भरते हैं। जो भाजपा कल तक सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास का दावा करती थी वह आज किसी कीमत पर भी चुनाव जीतने के लिये बिना किसी सबूत आंकड़ों और सच्चाई के मुसलमानों को ना केवल ब दनाम अपमानित और पराया कर रही है बल्कि बहुसंख्यक हिंदुओं को भी गुमराह कर भड़काकर व डराकर वोटबैंक की सियासत कर रही है।
   *-इकबाल हिन्दुस्तानी*  
अगर चुनाव आयोग निष्पक्ष निडर और कानून के अनुसार काम कर रहा होता तो किसी पार्टी किसी नेता और किसी बड़े से बड़े पद पर बैठे लीडर को हिंदू मुस्लिम जाति व धर्म के आधार पर वोट मांगने से रोकता लेकिन यहां तो चुनाव आयोग क्या मीडिया से लेकर ईडी सीबीआई व इनकम टैक्स विभाग जैसी लगभग सभी संस्थायें एक दल और उसके सहयोगियों को छोड़कर विपक्ष सरकार विरोधियों और निष्पक्ष सभी भारतीयों को लगातार निशाना बना रहा है और अफसोस की बात यह है कि कोर्ट भी इस पक्षपात अन्याय और उत्पीड़न को रोकने में अकसर नाकाम नज़र आता है। सबसे बड़े पद पर बैठा एक नेता बिना कांग्रेस का घोषणा पत्र पढ़े ही आरोप लगा देता है कि वह मुसलमानों को आपकी सम्पत्ति छीनकर बांट देगी? जबकि कांग्रेस का मेनिफैस्टो कहता है कि जातीय सर्वे के साथ ही बढ़ती आर्थिक असमानता रोकने के लिये नई नीतियां बनायेगी ना कि पहले से अर्जित किसी की सम्पत्ति छीनकर किसी को बांटेगी। जो दल मुसलमानों का विश्वास सपोर्ट और वोट लेना चाहते हैं वे उनको अधिक बच्चे पैदा करने वाला घुसपैठिया और ना जाने क्या क्या बता रहे हैं?
मुसलमानों की आबादी देश में 14 प्रतिशत से अधिक है लेकिन वे सरकारी नौकरी से लेकर निजी क्षेत्र की सेवा उद्योगों बैंक सेवा बैंक लोन सरकारी पेट्रोल पंप गैस एजेंसी राशन डीलर सरकारी ठेकों आईआईटी आईआईएम लोकसभा विधानसभा नगर निगम नगरपालिका सरकारी अस्पतालों की सेवा विभिन्न आयोगों सरकारी स्कूलों काॅलेजों यूनिवर्सिटी कोर्ट जजों पुलिस सेना प्रशासनिक अधिकारियों यानी कहीं भी 14 का आघा 7 तो दूर 3.5 प्रतिशत तक नहीं हैं। ऐसे में उनको उनके हिस्से अधिकार और अनुपात से अधिक क्या मिल रहा है?
भाजपा अकसर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती है। लेकिन उसको कोई गंभीरता से नहीं लेता। वजह साफ है कि भाजपा खुद हिंदू तुष्टिकरण की सियासत करती है। तुष्टिकरण वास्तव में किसे कहा जाये? अभी यह भी साफ नहीं है। संघ परिवार यह भी जानता है कि सेकुलर दलों पर मुस्लिम तुष्टिकरण करने का झूठा आरोप लगाने से ही भाजपा के पक्ष में जवाबी हिंदू धुरुवीकरण होता है। सबसे बड़ा मामला शाहबानो केस था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला संविधान के हिसाब से उसको उसके पति से गुजारा भत्ता दिलाने का था। लेकिन कांग्रेस की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने उसको मुसलमानों के कट्टरपंथी वर्ग को खुश करने के लिये पलट दिया।
इसके जवाब में हिंदू साम्प्रदायिकता को हवा देकर मंडल आयोग के पिछड़ा वर्ग आरक्षण से निबटने को बाबरी मस्जिद रामजन्म भूमि का आंदोलन संघ परिवार ने शुरू कर सत्ता पर कब्ज़ा जमा लिया है। ऐसा ही परिवार नियोजन का मामला है। छोटे परिवार का सम्बंध शिक्षा और सम्पन्नता से है लेकिन एक दल तो मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करता रहा है। अगर वह बढ़ती आबादी को लेकर वास्तव में चिंतित होते तो सबके लिये अनिवार्य परिवार नियोजन यानी दो बच्चो का कानून बनाने की दस साल में हिम्मत दिखाते लेकिन वे जानते हैं इससे तो उनका हिंदू वोटबैंक भी नाराज़ हो जायेगा इसलिये उनको तो बस घृणा झूठ और हिंदुत्व की राजनीति करनी है। आंकड़े बताते हैं कि तीन दशक में मुस्लिम आबादी की बढ़त मेें हिंदू आबादी की बढ़त के मुकाबले ज्यादा गिरावट आई है। आप इस अंतर को इस तरह से देख सकते हैं कि जहां हिंदू आबादी में 30 साल में 5-95 प्रतिशत कमी आई है वहीं मुस्लिम आबादी की बढ़त में इसी दौरान 8-28 प्रतिशत की कमी आई है। मतलब कहने का यह है कि जहां 2001 से 2010 तक हिंदू आबादी में पिछले दशक के मुकाबले 3-16 प्रतिशत की कमी आई वहीं मुस्लिम आबादी में गिरावट की दर बढ़त के बावजूद 4-92 रही जो एक अच्छा संकेत है। 
                 हालांकि यह दुष्प्रचार काफी समय से चल रहा है कि अगर मुस्लिमों की आबादी इसी तरह बढ़ती रही तो देश में एक दिन ऐसा आयेगा कि जब मुस्लिम हिंदुओं से अधिक हो जायेंगे। इसके साथ ही यह भय भी खूब फैलाया जाता है कि उस दिन भारत को इस्लामी राष्ट्र घोषित कर दिया जायेगा और गैर मुस्लिमों पर शरीयत कानून थोपकर उनसे मुगलकाल की तरह जजिया वसूली की जायेगी। दूसरा तथ्य इस सारी बहस में यह भुला दिया गया है कि आबादी ज्यादा बढ़ना या तेजी से बढ़ना किसी सोची समझी योजना या धर्म विशेष की वजह से नहीं है बल्कि तथ्य और सर्वे बताते हैं कि इसका सीधा संबंध शिक्षा और सम्रध्दि से है। अगर आप दलितों या गरीब हिंदुओं की आबादी की बढ़त के आंकड़े अलग से देखें तो आपको साफ साफ पता चलेगा कि उनकी बढ़त दर कहीं मुस्लिमों के बराबर तो कहीं उनसे भी अधिक है। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस तरह केरल सबसे शिक्षित राज्य है और वहां आबादी की बढ़त 4-9 प्रतिशत यानी लगभग जीरो ग्रोथ आ गयी है जिसमें मुस्लिम भी बराबर शरीक है और देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी की बढ़त असम में 30-9 से बढ़कर 34-2 प्रतिशत पाई गयी है जिसका साफ मतलब है कि बंग्लादेशी घुसपैठ से भी यह उछाल आया है। सच यह है कि भाजपा के दस साल के राज में जो नोटबंदी देशबंदी चंद पूंजीपति दोस्तों को 16 लाख माफ कर और जीएसटी की जनविरोधी आर्थिक नीतियां अपनाई गयीं हैं उससे महंगाई बेरोज़गारी व करप्शन बढ़ने से हिंदुओं का एक वर्ग अधिक ख़फा है। जिससे डरकर भाजपा असली मुद्दों से ध्यान भटकाने को हिंदू मुसलमान का राग अलाप रही है।
     *0उसके होंटो की तरफ न देख वो क्या कहता है,*
     *उसके कदमों की तरफ देख वो किधर जाता है।।*
*0 लेखक नवभारत टाइम्स के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के संपादक हैं।*

Tuesday 16 April 2024

भाजपा हराओ छोड़ें मुसलमान

मुसलमान भाजपा हराओ अभियान से करते हैं अपना ही नुकसान ?
0 आम चुनाव शुरू हो चुका है। सब वोटर अपनी पसंद की पाटीर्, प्रत्याशी या जाति व धर्म के आधार पर वोट देते हैं। संविधान ने उनको यह अधिकार दिया है। लेकिन मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी चिंता भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये किसी भी सेकुलर दल को वोट देने की होती है। वह इस एक सूत्रीय अभियान को छिपाता भी नहीं है। यही वजह है कि उसके वोट से जीतने वाला चुनाव के बाद उसकी खास चिंता भी नहीं करता है। लेकिन मुसलमान को यह नहीं पता कि उसके भाजपा हराओ नारे से हिंदू समाज में रिएक्शन से ध्रुवीकरण होने से देश की मुस्लिम बहुल 100 से अधिक सीटों पर भाजपा मजबूत होती रही है! यही वजह है कि आज भाजपा केंद्र व देश के आधे राज्यों में राज कर रही है।
     -इकबाल हिंदुस्तानी   
ऐसा माना जाता है कि भाजपा और मुसलमान दोनों एक दूसरे का विरोध लंबे समय से करते रहे हैं। लेकिन सच यह है कि मुसलमान ऐसा करके भाजपा को आज सरकार बनाने से नहीं रोक पा रहे हैं। दूसरी तरफ मुसलमानों का वोट ना मिलने से भाजपा को लोकसभा और राज्यों के चुनाव में मुसलमानों को अपना प्रत्याशी ना बनाने का मौका मिल गया है। इस बार भी भाजपा ने पूरे देश में केरल की एक सीट से एक मात्र मुसलमान अब्दुल सलाम को अपना प्रत्याशी बनाया है। भाजपा सरकारों पर मुसलमानों के साथ पक्षपात उनका उत्पीड़न और अन्याय करने का आरोप भी विपक्ष लगाता रहता है। लेकिन खुद सेकुलर दल भी मुसलमानों के मुद्दों पर उनके पक्ष में बोलने से हिंदू वोट ना मिलने की आशंका से डरे रहते हैं। हमारा मानना है कि मुसलमानों को अगर भाजपा पसंद नहीं है तो उनको देश के आधे से अधिक हिंदुओं की तरह अपनी पसंद की पार्टी को वोट देने का हक है लेकिन यह सच उनको समझना होगा जब वे केवल भाजपा हराओ अभियान के तहत कांग्रेस सपा बसपा क्षेत्रीय दल या निर्दलीय उम्मीदवार तक को वोट देने को तैयार हो जाते हैं तो इससे ना केवल उनके अपने अकेले जिताने लायक वोट बैंक का बंटवारा हो जाता है बल्कि प्रतिक्रिया में हिंदू समाज के बहुमत को गोलबंद कर भाजपा की जीत का रास्ता भी खुल जाता है। 
इसके बाद सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार का मुसलमानों के साथ सौतेला व्यवहार चुनाव के दौरान उनके विरोध से कुछ गैर मुस्लिमों को न्यायसंगत लगने लगता है। जबकि भाजपा को हिंदुत्व की राजनीति के लिये यह काम हर हाल में करना ही था। यहां मुसलमानों को यह बात समझनी चाहिये कि अगर वे किसी दल को सकारात्मक वोट देने की नई परंपरा अपनाते हैं तो उनका वोट इधर उधर खराब ना होकर एक ही पार्टी को जाने से वह दल मज़बूत होगा और वह यह भी मानेगा कि मुसलमानों ने उसको वोट देकर उस पर ज़िम्मेदारी डाल दी है कि सत्ता में आने पर उनका भी बराबर काम करे या विपक्ष में रहने पर उनके जायज़ मुद्दों के लिये भी आंदोलन संघर्ष या विरोघ प्रदर्शन करने को तैयार रहे। लेकिन जब मुसलमान किसी सीट पर किसी को और किसी सीट पर किसी को केवल इस वजह से वोट देते हैं कि ऐसा करने से भाजपा हार जायेगी तो इससे ऐसा कोई सही सही पैमाना नहीं बन पाता कि जिससे यह पता लग सके कि वास्तव में मुसलमानों ने उस भाजपा विरोधी केंडीडेट को ही वोट दिया है जो जीता है। इससे भाजपा तो ज़रूर उनसे ख़फा होगी लेकिन जीतने वाला उनका एहसान ज़रा भी नहीं मानेगा। 
खासतौर पर यूपी में मुस्लिम मतों का बंटवारा सपा कांग्रेस गठबंधन व बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार या कहीं मज़बूत व बहुमत वाली हिंदू जाति के निर्दलीय उम्मीदवार तक में साफ दिखाई दे रहा है। इसकी वजह यह है कि मैरिट पर मुस्लिम की पहली पसंद आज भी सपा बनी हुयी है लेकिन उसके पास ऐसा कोई नपा तुला सही सही पैमाना नहीं है कि कौन सी सीट पर भाजपा को हराने के लिये वह किस उम्मीदवार के साथ गारंटी से जीत की उम्मीद कर सकता है? इसके लिये उसे हारने का जोखिम उठाकर भी अपना दल या प्रत्याशी पहले से तय करने की ज़रूरत है। इसमें वह यह ज़रूर तय कर सकता है कि उम्मीदवार इतना कमज़ोर ना हो कि वह मुख्य मुकाबले से पहले ही बाहर दिखाई दे रहा हो। ऐसे में वह किसी दूसरे विकल्प पर विचार कर सकता है। पूरे देश में ऐसी 102 लोकसभा सीट हैं जिनपर मुस्लिमों की तादाद हार जीत के नतीजे तय करने की हालत में है। इनमें से कश्मीर की अनंतनाग बारामूला और श्रीनगर 3 असम की ढुबरी करीमगंज बरपेटा और नावगांग 4 बिहार की किशनगंज 1 छत्तीसगढ़ की रायपुर 1 केरल की मलापपुरम व पोन्नानी 2 लक्षदीप की 1 और पश्चिम बंगाल की जंगीपुर बहरामपुर मुर्शिदाबाद 3 संसदीय सीट सहित कुल 15 सीटें ऐसी भी हैं जिनमें मुसलमानों की मतसंख्या आधे से ज्यादा है। 
इसके साथ ही सबसे अधिक मुस्लिम मतों वाले संसदीय क्षेत्र का राज्य यूपी है जिसमें रामपुर मंे 49 प्रतिशत, मुरादाबाद में 46 बिजनौर में 42 अमरोहा सहारनपुर में 39 मुजफ्फरनगर में 38 बलरामपुर में 37 बहराइच में 35 बरेली में 34 मेरठ में 33 श्रीवस्ती में 26 बागपत में 25 गाजियाबाद पीलीभीत व संतकबीरनगर में 24 बाराबंकी में 22 बदायूं बुलंदशहर और लखनउू में 21 फीसदी मुस्लिम वोट हैं। लंबे समय तक यह होता रहा है कि मुसलमान भाजपा को हराने के लिये तमाम शिकायतों और कमियों के बावजूद कांग्रेस के साथ अन्य कोई विकल्प ना होने से एकतरफा जाता रहा लेकिन जैसे जैसे उसे क्षेत्रीय दल विकल्प के तौर पर उपलब्ध हुए वह उनके साथ हो लिया। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि लोकसभा की जिन 38 सीटों पर मुसलमान वोट 30 से 50 फीसदी हैं उन पर ही हिंदू वोटों का जवाबी ध्रुवीकरण होने से भाजपा और उसके सहयोगी दल ज्यादा मजबूत माने जाते हैं और जिन 49 सीटों पर मुस्लिम मतों की संख्या 20 से 30 फीसदी है वहां वे किसी एक हिंदू जाति के केंडीडेट के साथ जाकर सीट निकालने में सफल हो जाते हैं। इसके विपरीत जिन 15 सीटों पर वे बहुमत में हैं उनमें भी बहुसंख्यक हिंदुओं की तरह बंटवारा होने से कई बार वे वहां के अल्पसंख्यक उम्मीदवार से मात खा जाते हैं। इसका बेहतर समाधान यह है कि मुसलमान चाहे भाजपा को वोट करें या ना करें या कम करें कुछ मुसलमान भाजपा को वोट करते भी हैं ऐसा विगत चुनाव के आंकड़े बताते हैं लकिन इसमें उनका विरोध या बाॅयकाट करने की ज़रूरत इसलिये भी नहीं है क्योंकि आज भी देश के आधेे से अधिक हिंदू भाजपा को वोट नहीं देते लेकिन उनके साथ कोई सौतेला व्यवहार नहीं हो रहा है।
0 मैं आज ज़द पे अगर हूं तो खुशगुमान न हो,
 चिराग़ सबके बुझेंगे हवा किसी की नहीं ।।
 *नोट- लेखक नवभार टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के एडिटर हैं।*

Friday 5 April 2024

एनकाउंटर स्पेशलिस्ट

जब मंुबई पर एनकाउंटर स्पेशलिस्ट्स का राज चलता था!
0 यूपी सहित देश के कई राज्यों में बदमाशों को फर्जी मुठभेड़ों में मारने का चलन देखने में कुछ अधिक ही आ रहा है। लेकिन कानूनन यह सही नहीं माना जा सकता है। देश की आर्थिक राजधानी में 1990 का दशक अचानक गैंगवार बढ़ने का दौर था। एक समय था जब महाराष्ट्र की राजधनी मंुबई में पुलिस दारोगा प्रदीप शर्मा विजय सालस्कर प्रफुल भोंसले दया नायक सचिन वाजे़ अरूण बरूडे रविंद्र आंगरे असलम मोमिन मुहम्मद तनवीर और सदफ़ मोडक अंडर वल्र्ड की चुनौती से निबटने को शासन प्रशासन की तरफ से हीरो की तरह सामने आये। इन पुलिस अफसरों को गेंगस्टर्स से भिड़ने के लिये फ्रंी हैंड दिया गया। जिसका नतीजा यह हुआ कि इन्होंने जिस अपराधी को माफिया बताकर मार डाला इनसे उस पर कभी कोई सवाल नहीं पूछा गया। बाद में आरोप लगने पर जांच हुयी तो पता चला कि इसमें पैसे का खेल चल रहा था।      
    -इक़बाल हिंदुस्तानी
मार्च 2019 में जब बाॅम्बे हाईकोर्ट ने एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रदीप शर्मा और अन्य एक दर्जन पुलिस वालों को रामनारायण गुप्ता उर्फ लखन भैया को फर्जी मुठभेड़ में मारने के आरोप में पहली बार सज़ा सुनाई तो पता चला कि मुंबई में जिन बदमाशों माफियाओं और अंडर वल्र्ड के नाम पर बड़े पैमाने पर एनकाउंटर कर अपने नंबर बढ़ाने का कुछ पुलिस अफसर खेल कर रहे थे। उसकी वास्तविकता कुछ और ही थी। आश्चर्य की बात यह है कि प्रदीप शर्मा पर हत्या का आरोप साबित होने से पहले किसी ने सोचा भी नहीं था कि नायक खलनायक भी हो सकते हैं? अजीब बात यह है कि प्रदीप शर्मा के अलावा बाकी मामालों में ना तो आरोपों की गंभीरता से किसी और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की जांच हुयी और ना ही सज़ा मिलने का सवाल उठा। आंकड़े बताते हैं कि मंुबई एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दारोगा प्रदीप शर्मा ने सौ से अधिक विजय सालस्कर ने लगभग 75 प्रफुल भोंसले ने 70 और दया नायक ने लगभग 80 लोगों को मुठभेड़ में ठिकाने लगा दिया। यह वह दौर था जब अंडर वल्र्ड खुद एक दूसरे गैंग के बदमाशों को भी पुलिस से सेटिंग या मुखबरी करके मारने का मौका तलाश करता था। 1998 में जब दाउूद इब्राहीम और छोटा राजन गैंग के दो बदमाश पुलिस मुठभेड़ में मारे गये तो तत्कालीन शिवसेना भाजपा युति की सरकार ने पुलिस को आगे भी ऐसे एनकाउंटर करने के लिये फ्री हैंड देने की घोषणा कर दी। 
जिससे एनकाउंटर विशेषज्ञ पुलिस अधिकारियों को अपना काम करने का खुला मौका मिल गया। 1996 से लेकर 2000 तक मुंबई पुलिस के इन एनकाउंटर स्पेशलिस्ट्स ने 400 से अधिक गुंडो मवाली बदमाशों को मार डाला। बताया जाता है इनमें से अधिकांश पुलिस एनकाउंटर विशेषज्ञ 1983 बैच के थे। इनको आईपीएस अरविंद ईनामदार ने प्रशिक्षित किया था। इनमें से कुछ रिटायर होने तक एनकाउंटर को लेकर विवाद आरोप और निलंबन का सामना करने को भी मजबूर हुए। इन एनकाउंटर स्पेशलिस्ट्स का बदमाशों पर इतना डर छाने लगा था कि उस समय का एक कुख्यात गैंगेस्टर अरूण गवली तो जान बचाने के लिये राजनीति में आ गया। उसने एक चुनाव भी लड़ा। इस चुनाव के दौरान एक दिन अचानक एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालस्कर किसी कानूनी काम से उसकी गली के बाहर अपनी कार पार्क कर रहे थे तो गवली इतना डर गया कि उसने उसी समय कुछ पत्रकारों को अपने निवास पर बुलाकर आरोप लगाया कि सालस्कर उसका एनकाउंटर करने आये हैं। इस खौफ में अरूण गवली अपना वोट डालने भी घर से नहीं निकला। जबकि ऐसा कुछ नहीं था कि सालस्कर उसको ठिकाने लगाने आये हों। 
मानवाधिकारवादी, कानून में विश्वास रखने वाले और विपक्ष के कुछ नेता जहां इस तरह के थोक मंे हुए एनकाउंटर को गलत बताकर लगातार विरोध करते थे तो वहीं कुछ नागरिक कोर्ट कचहरी में सालोें तक चक्कर लगाने के बाद भी इन बदमाशों को सज़ा ना मिलने से इस शाॅर्टकट और तत्काल मौत की सज़ा को सही बताते थे। पुलिस के अधिकांश वरिष्ठ अधिकारी जहां इन एनकाउंटर स्पेशलिस्ट का सरकार के दबाव मंे बचाव करते थे वहीं  कुछ अपवाद और ईमानदार कानून के रखवाले यह कहकर विरोध भी करने लगे थे कि एनकाउंटर के नाम पर कुछ स्पेशलिस्ट अपने रिपोर्ट कार्ड को चमकाने के लिये मामूली अपराध करने वालों को भी मार गिराते हैं। जांच करने पर ये तथ्य भी सामने आये कि कुछ स्पेशलिस्ट सिविल विवाद हाथ में लेकर ऐसे लोगों को भी मुठभेड़ में मार डालते थे जो बिल्डर या कमीशन के चक्कर में एक दूसरे को सबक सिखाना चाहते थे। हालांकि विवाद आरोप प्रत्यारोप और बदनामी बढ़ने व सरकार के खिलाफ ऐसे मामले बड़ी संख्या में कोर्ट जाने पर पुलिस के मुखिया को अपने अधीन एनकाउंटर स्पेशलिस्ट को यह चेतावनी देने पर मजबूर होना पड़ा कि ऐसे मामले किसी कीमत पर भी सहन नहीं किये जायेंगे। लेकिन दबे छिपे कम ज्यादा यह अभियान जारी रहा। 
इसी दौर की एक रोचक जानकारी यह भी खुली कि कई बार कुछ जूनियर व सीध्ेा सादे पुलिस वाले एनकाउंटर स्पेशलिस्ट से अपील करते कि उनका नाम भी मुठभेड़ करने वाली टीम में फर्जी तौर पर शामिल कर लिया जाये जिससे उनका भी कुछ नाम हो जाये। ऐसा हुआ भी लेकिन जब फर्जी एनकाउंटर की जांच हुयी और हत्या का अपराध साबित हुआ तो यह बिना मुठभेड़ किये नाम कमाने वाले पुलिस वाले भी जेल चले गये। जिस लखन भैया के फर्जी एनकाउंटर में एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रदीप शर्मा को हाईकोर्ट से सज़ा मिली है। उसमंे यह भी सामने आया कि शर्मा ने डी एन नगर अंधेरी पुलिस स्टेशन मंे एक गोपनीय आॅफिस बना रखा था। वह पुलिस की बजाये प्रावेट वाहन प्रयोग कर लोगों को उठा लाता था। पुलिस स्टेशन में रवानगी वापसी केस डायरी जीडी का कोई रिकाॅर्ड नहीं रखा जाता था। 11 नवंबर 2016 को शर्मा के मुठभेड़ दल ने ऐसा ही फर्जी दावा कर लखन भैया को मार डाला था। घटना से चार घंटे पहले ही लखन के भाई रामप्रसाद ने बड़े अफसरों को ऐसी फर्जी मुठभेड़ की आशंका की शिकायत भेजी थी जो बाद में पुलिस के लिये गले की फांस बन गयी।
0 मैं आज ज़द पे अगर हूं तो खुशगुमान न हो,
  चराग़ सब के बुझेंगे हवा किसी की नहीं।।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटेकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।*

Thursday 28 March 2024

केजरीवाल जेल में...

केजरीवाल को जेल: आप को फायदा, भाजपा को नुकसान ?
0यह विडंबना ही है कि जिस पार्टी का जन्म करप्शन के खिलाफ चले एक जन आंदोलन से हुआ आज उसका मुखिया भ्रष्टाचार के आरोप में ही जेल में है। हालांकि अभी यह तय नहीं है कि उनको जल्दी ही ज़मानत मिलेगी या लंबे समय तक जेल में ही रहना होगा? लेकिन इतना साफ है कि यह कोई कानूनी नहीं राजनीतिक लड़ाई है। गौर से देखा जाये तो यह देश को करप्शन से मुक्त कराने की मुहिम भी नहीं है क्योंकि जो भी विपक्षी नेता करप्शन के गंभीर आरोप छापा जांच के बाद या जेल जाने के डर से भाजपा में शरीक हो जाता है उसके खिलाफ या तो जांच ठंडे बस्ते में चली जाती है या स्लो हो जाती है। खुद भाजपा नेता भी दूध के ध्ुाले हो ऐसा भी नज़र नहीं आता है।      
    -इक़बाल हिंदुस्तानी
दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल शायद देश के पहले सीएम हैं जिन्होंने जेल जाने के बावजूद अपने पद पर बने रहने का निर्णय लिया है। हालांकि जेल से शासन चलाने में संवैधानिक रूप से कोई रोक नहीं है लेकिन नैतिकता के आधार पर जेल जाने केस चलने या आरोप लगने पर त्यागपत्र देने की अब तक परंपरा रही है। ऐसा भी पहली बार हुआ है कि आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के बाद किसी मुख्यमंत्री को जेल भेजा गया है। इसकी बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि आम आदमी पार्टी ने उस कांग्रेस से दिल्ली में चुनावी गठबंधन किया है। जिसका भाजपा से छत्तीस का आंकड़ा यानी सीधी चुनौती मिल रही है। यही वजह है कि बिहार में नीतीश कुमार ने जहां इस दबाव में इंडिया गठबंधन यानी कांग्रेस से किनारा कर फिर से एनडीए का दामन थामने में ही अपनी भलाई समझी तो वहीं बंगाल में ममता बनर्जी ने इडी और सीबीआई को अपने दर पर दस्तक देने से रोकने को कांग्रेस से पल्ला झाड़ लिया है। उधर 70,000 करोड़ के घोटाले में गले तक डूबे एनसीपी के अजित पवार ने जेल जाने की बजाये भाजपा से हाथ मिलाकर डिप्टी सीएम बनने में ही अपनी खैर समझी। पंजाब मंे आप के सीएम मान ने मोदी सरकार से पंगा न लेकर कांग्रेस के साथ सीटों का समझौता करने से मना कर अपनी जान बचाई है। 
आंध््राा में टीडीपी के मुखिया और पूर्व सीएम चन्दरबाबू नायडू ने भी जांच से डरकर भाजपा से गठबंधन कर लिया है। उड़ीसा में नवीन पटनायक गठबंधन करते करते फिलहाल तो छिटक गये लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद वे भी भाजपा के साथ आने को मजबूर होंगे जब केंद्र सरकार उनको जांच एजंसियों के ज़रिये घेरेगी। कर्नाटक में जेडीएस और यूपी में आरएलडी पहले ही भाजपा के मोहपाश में घुटने टेक चुके हैं। बसपा की मुखिया मायावती ने जेल जाने के डर से पहले ही अपनी पार्टी का जनाज़ा खुद निकाल लिया है। यह अलग बात है कि वे सीधे भाजपा के साथ गठबंधन न करके अपने दलित वोटबैंक और कुछ मुसलमानों को विपक्ष में जाने से रोकर भाजपा की जीत का रास्ता आसान करती रही हैं। ठीक ऐसे ही एमआईएम के ओवैसी मुसलमानों के पक्ष में बड़े बड़े बयान देकर भाजपा की चोर दरवाजे़ से मदद करते रहे हैं जिसका इनाम उनको आज तक किसी भी एजेंसी की जांच से बचाकर दिया जाता रहा है। कहने का मतलब यह है कि करप्शन के नाम पर विपक्ष में भी उन नेताओं दलों और सरकारों को टारगेट किया जा रहा है जो भाजपा के लिये चुनौती विरोध व हार का कारण बन सकती हैं। दिल्ली हालांकि पूर्ण राज्य नहीं है। उसकी आबादी भी बहुत कम है। लेकिन राजधानी क्षेत्र होने की वजह से केजरीवाल पूरी दुनिया की नज़र में छाते रहे हैं। 
संयोग से आप सरकार ने जिस तरह निशुल्क बिजली पानी और क्वालिटी एजुकेशन व हैल्थ सुविधायें उपलब्ध कराने के साथ करप्शन फ्री जन उपयोगी सेवायें दिल्ली की जनता को देकर नया माॅडल सामने रखा उसको भाजपा अपने लिये चुनौती मानकर चलती है। पंजाब में बंपर बहुमत से सरकार बनाकर आप नेशनल पार्टी का दर्जा भी हासिल कर चुकी है। यही वजह है कि आप और भाजपा का लगातार टकराव चलता रहा है। भाजपा केजरीवाल और उनकी पार्टी की ईमानदार छवि को खत्म करने के लिये लगातार करप्शन के आरोप लगाती रही है। उसके स्वास्थ्य मंत्री डिप्टी सीएम और राज्यसभा सांसद पहले ही विभिन्न आरोपों में जेल में हैं। कई विधायक भी जेल और जांच के घेरे में आ चुके हैं। केजरीवाल के जेल जाने के बाद भी सीएम पद से रिज़ाइन ना करने की एक वजह यह भी हो सकती है उनको अपने किसी अन्य नेता पर भरोसा नहीं है। उन्होंने पार्टी के सत्ता में आते ही योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे वरिष्ठ लोगों को वनमैन शो के रूप में खुद को सर्वेसर्वा बनाने के लिये बाहर का रास्ता दिखाकर आत्मघाती रास्ता अपनाया था। ऐसे ही शाहीन बाग जैसे मशहूर सीएए विरोधी आंदोलन , दिल्ली दंगों व अल्पसंख्यकों के मकानों पर बुल्डोज़र चलाने पर उन्होंने अपराधिक चुप्पी साध ली थी जिसकी कीमत उनको आज चुकानी पड़ रही है। 
यह भी तथ्य है कि केजरीवाल उनकी आप और उसके दूसरे नेता व विधायक भी अन्य दलों की तरह गलत भ्रष्ट और अनैतिक हो सकते हैं। लेकिन यहां सौ टके का सवाल यही है कि केवल विपक्ष के नेताओं को ही निशाना क्यों बनाया जा रहा है। दूसरे जिस तरह के हल्के सबूत केजरीवाल वे दूसरे विरोधी दलों के नेताओं को जांच आरोप व जेल भेजने के लिये प्रयोग किये जा रहे हैं जिस तरह से उनको लंबे समय तक ज़मानत देने का सरकारी एजंसियां विरोध करती हैं और जिस तरह से इससे गंभीर और आपत्तिजनक मामलों में भाजपा या एनडीए के नेताओं को बचाया जाता रहा है उससे राहुल गांधी के इस आरोप में दम लगता है कि भारत में लोकतंत्र धीरे धीरे खत्म किया जा रहा है क्योंकि यहां लेवल प्लेयिंग फील्ड नहीं रह गया है। यह भी नज़र आ रहा है कि भाजपा भले ही इस बार 400 पार का नारा दे रही हो लेकिन वह साधारण बहुमत लाने को लेकर भी सशंकित है। इसकी वजह महाराष्ट्र बिहार बंगाल और कर्नाटक आदि राज्यों से आ रहे वे निष्पक्ष व विश्वसनीय सर्वे हैं जिनमें भाजपा की सीट कम होने का दावा किया गया है। इसकी वजह यह भी है कि जहां जहां भाजपा पहले से ही लगभग सभी सीटें जीत चुकी है। वहां उसके और बढ़ने की बजाये महंगाई बेरोज़गारी व करप्शन की वजह से पहले से कम सीट लाने का अनुमान लगाना समझ में आता है। 
दूसरी तरफ यूपी को छोड़कर दक्षिण के किसी राज्य में उसकी सीट बढ़ने या खाता खुलने के आसार कम ही नज़र आते हैं। इसकी एक वजह इंडिया गठबंधन में अधिकांश राज्यों में सीट समझौता होना माना जा रहा है। भाजपा का राम मंदिर उद्घाटन और सीएए लागू करने का कार्ड भी कोई खास असर करता नहीं लग रहा है। इलैक्टोरल बांड के खुलासे ने भी भाजपा को करप्शन के मुद्दे पर बचाव की मुद्रा में आने को मजबूर कर दिया है। यह अलग बात है कि इस मामले में विपक्ष भी पूरी तरह से साफ सुथरा साबित नहीं हो रहा है लेकिन चंद कंपनियों पर छापा मारकर उनसे मोटी रकम चुनावी बांड के ज़रिये लेना और फिर जांच खत्म या पंेडिंग कर देना और आरोपी को सरकारी गवाह बनाकर विपक्ष के नेताओं को फंसा देना भी उस न्यूटल वोटर को नहीं पच रहा है जो पक्ष विपक्ष किसी के भी साथ पहले से अंधभक्त की तरह नहीं जुड़ा है। हालांकि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मतदाता राज्यों में अलग अलग दलों को वोट करता रहा है। यही वजह है कि दो दो बार दिल्ली विधानसभा में जहां आप को जबरदस्त बहुमत मिल रहा है वहीं लोकसभा चुनाव मंे भाजपा सभी सातों सीटें जीत ले रही है। लेकिन इस बार आप का कांग्रेस से सीट समझौता होने और केजरीवाल व उनकी सरकार को भाजपा की केंद्र सरकार द्वारा बार बार हर कदम पर घेरा जाना तय करेगा कि जनता को यह कदम कितना पसंद आ रहा है?      नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के एडिटर हैं।

सायबर क्राइम से बचें...

सायबर क्राइम से बचें: लालच में फंसे तो लुट जायेंगे आप!
0 आज के दौर में मोबाइल ने नेट को घर घर तक पहंुचा दिया है। दिन रात लोग व्हाट्सएप इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे मनोरंजक एप का मज़ा ले रहे हैं। ईमेल भेजते हैं। पैसे का लेनदेन और टिकट की खरीद आॅनलाइन करते हैं। शाॅपिंग करते हैं। आॅडियो वीडियो मैसेज और काॅल का सुख लेते हैं। लेकिन सायबर कैफे बढ़ने के साथ साथ सायबर क्राइम भी बढ़ते जा रहे हैं। कुछ सावधानी जागरूकता और समझदारी से हम आॅनलाइन होने वाली चीटिंग फ्राॅड और नये नये स्कैम के जाल से बच सकते हैं। इसके लिये न केवल हमें इंटरनेट पर होने वाली चालाकियों से खुद को होशियार रखना होगा बल्कि अपने अंदर मौजूद लालच पर भी काबू पाना होगा। आज के लेख में आपको ऐसे ही कुछ टिप देने हैं।      
   -इक़बाल हिंदुस्तानी
कई बार आपके फोन पर अंजान काॅल आती है जो आपसे तरह तरह के बहाने बनाकर कुछ रूपये वैरिफिकेशन के नाम किसी खास एकाउंट में भेजने की बात कहते हैं। उनका दावा होता है कि अगर उनके बताये नंबर पर यह छोटी सी रकम भेज देते हैं तो आपको उसके बाद इनाम के तौर पर यही रकम डबल करके वापस आपके एकाउंट में भेज दी जायेगी। जबकि आपने एक बार यह गल्ती कर दी तो डबल तो दूर आपकी भेजा गया पैसा भी आपको वापस नहीं मिलेगा। आप एक बार इस झांसे में फंसे तो मामला यहीं खत्म नहीं होगा बल्कि वे आपसे आपकी और भी पर्सनल डिटेल भी मांगेगे। इसके बाद आपके मोबाइल पर ओटीपी आयेगा। अगर आपने उनके चक्कर में फंसकर वो ओटीपी शेयर कर दिया तो आपका बैंक एकाउंट खाली होने में देर नहीं लगेगी। हमें यह बात जान लेनी चाहिये कि बैंक कभी भी आपको फोन करके ऐसी कोई गोपनीय व्यक्तिगत जानकारी नहीं मांगता। ओटीपी मांगने का तो मतलब ही नहीं है। कभी कभी नौकरी देने फिल्म में काम करने या किसी सरकारी स्कीम का लाभ देने के नाम पर आपको किसी अंजान आॅफिस या सुनसान जगह में बने रिसाॅर्ट व होटल में बुलाया जायेगा। अगर आप लालच में बिना सोचे समझे वहां पहुंुच गये तो बातों बातों में आपकी फोटो आॅडियो व वीडियो रिकाॅर्ड कर उसको अश्लील बनाकर आपको ब्लैकमेल करके बाद में मंुहमांगी रकम वसूल की जायेगी। 
ऐसे में बिना डरे ब्लैकमेल होने की बजाये पुलिस को खबर करें तो रकम मांगने वाले चुप होकर बैठ जायेंगे। कभी भी बिना पैसा दिये सैक्स मनपसंद खूबसूरत लड़की से शादी लिव इन रिलेशनशिप निशुल्क पिकनिक के जाल में ना फंसे वरना बाद में पछताने और उसकी भारी कीमत चुकाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। यूट्यूब इंस्टाग्राम और फेसबुक व एक्स पर कई बार लाइक शेयर रिट्वीट करने के बहाने आपको कुछ इनाम देने की चाल चली जाती है। इसके लिये आपको एक अंजान ग्रुप में जोड़कर वहां पहले से सैट अपने फर्जी व नकली सदस्यों से स्क्रीन शाॅर्ट्स शेयर कराकर यह दावा किया जाता है कि हमने ऐसा किया तो वास्तव में पैसा उनके एकाउंट में आ गया। ऐसे में इंसान के अंदर का लालच जाग जाता है और वह ना चाहते हुए भी जाल में फंस जाता है। इसका बचाव यह है कि आज ही अपने व्हाट्सएप एकाउंट की सेटिंग में जाकर प्राइवेसी पर क्लिक कर एवरीवन की जगह आॅनली माई काॅन्टैक्ट्स पर क्लिक कर दें। इससे आपको आपकी बिना अनुमति के कोई किसी ग्रुप में नहीं जोड़ सकेगा। यह भी जान लेना ज़रूरी है कि लाइक या शेयर करने का कोई पैसा कहीं नहीं मिलता है यह सरासर धोखा झूठ और मक्कारी ही होती है। आपको इंटरव्यू पार्ट टाइम जाॅब और वर्क फ्राॅम होम के नाम पर भी धोखा दिया जा सकता है। 
याद रखिये आज के दौर में पढे़ लिखे नौजवानों को नौकरी नहीं मिल रही है। ऐसे में आपको घर बैठे बिना किसी आवेदन बिना किसी ठोस काम और बिना योग्यता के जाने कोई क्यों नौकरी कारोबार या लाभ दे सकता है? ऐसे ही कई बार काॅल आती है कि हम बिजली कंपनी से बोल रहे हैं। आपका बिल हमारे रिकाॅर्ड के हिसाब से जमा नहीं हुआ है। आपकी लाइट रात दस बजे काट दी जायेगाी। अगर आप कनेक्शन बचाना चाहते हैं तो इस लिंक पर मांगी गयी जानकारी तत्काल दीजिये। टेलिकाॅम विभाग ट्राई नेट कंपनी के नाम से भी केवाईसी पूरा करने के बहाने फर्जी काॅल आने लगी हैं जिनमें आपसे गोपनीय डाक्यूमंेट आधार पैन कार्ड एटीएम कार्ड या बैंक डिटेल फीड करने को कहा जाता है। इसमें आपसे कई बार स्टार 401 हैश डायल करने को कहा जाता है जिससे आपके मोबाइल में काॅल फाॅरवर्डिंग फीचर आॅन हो जाता है। ऐसा होने से आपकी सभी काॅल स्कैम करने वाले के नंबर पर फाॅरवर्ड हो जाती है। इसके बाद वह आपके फोन की सभी गोपनीय जानकारी आराम से चुरा लेता है। फिर आपको चूना लगाने से कोई नहीं रोक सकता। कई बार ऐसी काॅल करके आपको एनी डेस्क जैसी रिमोट एप डाउन लोड करा दी जाती है जिससे आपके फोन का कंट्रोल फ्राॅड करने वाले के हाथ में चला जाता है। याद रखने की बात यह है कि बैंक बिजली कंपनी टेलिकाॅम डिपार्टमेंट या कोई भी सरकारी विभाग आपसे ऐसी गोपनीय महत्वपूर्ण व संवेदनशील जानकारियां कभी भी फोन पर नहीं मांगता है। 
कभी कभी आपको मैसेज पर रेंस्पोंस ना करने पर बैंक का कोई अधिकारी आपसे आपके खाते से जुड़ी कुछ ज़रूरी बातें जानने सत्यापित करने या किसी चैक पर शक हाने पर सच जानने के लिये आपको बैंक बुला सकता है। यूपीआई के नाम पर एक धोखा आम है कि किसी से पैसा पाने के लिये आपका पिन पूछा जाता है जबकि पैसा देने के लिये पिन की ज़रूरत होती है ना कि पैसा लेने के लिये। आजकल आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस तकनीक से आपकी आपके परिवार के किसी सदस्य या करीबी रिश्तेदार की हू ब हू आवाज़ बनाकर उसकी फोटो लगाकर और उसके नंबर को ही हैक कर काॅल करके आपसे कुछ पैसा मांगा जा सकता है जिसके लिये आपको काॅल काटकर फिर से काॅल बैक कर सच पता लगाने की ज़रूरत होती है नहीं तो आप लुट सकते हैं। यूपीआई पिन बार बार बदलते रहिये। पब्लिक वाईफाई का इस्तेमाल कर पैसे का लेनदेन ना करें क्योंकि इससे आपका पिन पासवर्ड और गोपनीय जानकारी आसानी से काॅपी हो जाती है। किसी भी अंजान आदमी के भेजे ईमेल मैसेज या लिंक पर भूलकर भी क्लिक ना करें। कभी भी किसी कंपनी का कस्टमर नंबर गूगल पर सर्च ना कर उसकी वेबसाइट पर ही चैक करें क्योंकि गूगल पर लोगों ने जानी मानी कंपनियों के नाम से नकली फर्जी और फेक कस्टमर नंबर देकर लोगों को ठगने का जाल बिछा रखा है। 
अपने सभी एकाउंट के पासवर्ड मुश्किल से मुश्किल और अलग अलग रखे्रं। भूलकर भी अपनी या परिवार के किसी सदस्य की जन्मतिथि या कार बाइक का नंबर व एक दो तीन चार तथा एबीसीडी पासवर्ड ना रखें क्योेंकि ये स्कैमर का काम आसान कर देते हैं। अपनी पर्सनल जानकारी फोटो वीडियो घर आॅफिस की पिक अपनी यात्रा सूचना कभी भी नेट पर शेयर ना करें इससे बदमाशों का निशाना बन सकते हैं। इतना कुछ एलर्ट रहने के बाद या भूल से फिर भी आपके साथ कोई धोखा चीटिंग या स्कैम हो जाये तो डरकर ब्लैकमेल ना हों बल्कि पुलिस सायबर क्राइम सैल उपभोक्ता फोरम सिविल कोर्ट बैंक या बैंकिंग लोकपाल सायबरक्राइम डाॅट जीओवी डाॅट इन या 1930 पर काॅल कर शिकायत कर अपना पैसा या मान सम्मान वापस पा सकते हैं।    
0 शराफ़तों की यहां कोई एहमियत ही नहीं,
  किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है।
 *नोट- लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के एडिटर और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

Wednesday 20 March 2024

खुली किताब परीक्षा

*खुली किताब एग्ज़ाम से पहले स्टूडेंट्स का दिमाग खोलना होगा!* 
0 सेंटरल बोर्ड आॅफ सेकंड्री एजुकेशन यानी सीबीएसई ने हाईस्कूल और इंटर के पहले साल में एक बार फिर से ओपन बुक एग्ज़ाम की योजना बनाई है। वैसे तो यह प्लान विद्यार्थियों के लिये पुराना ही है। 2014 में सबसे पहले यह व्यवस्था लागू की गयी थी। तब हिंदी अंग्रेज़ी गणित विज्ञान और सोशल साइंस कक्षा 9 और अर्थशास्त्र जीव विज्ञान व भूगोल कक्षा 11 के लिये यह सुविधा दी गयी थी। स्टूडेंट्स को चार माह पहले दिये गये स्टडी मैटीरियल से सहायता लेने की छूट दी गयी थी। लेकिन बिना कोई ठोस कारण बताये इस व्यवस्था को 2017 में बंद कर दिया गया । उच्च शिक्षा में खुली किताब परीक्षा काफी समय से उपलब्ध रही है जिसमें 2019 में आखि़री सलाहकार समिति की सिफारिश पर इंजीनियरिंग काॅलेजों में ओपन बुक एग्ज़ाम की परंपरा रही है।      
  -इक़बाल हिंदुस्तानी
खुली किताब परीक्षा का विचार नया नहीं है। लेकिन फिलहाल सीबीएसई ने यह प्रयोग चुनिदा स्कूलों में पायलट आधार पर करने का निर्णय लिया है। हालांकि यह बोर्ड के एग्ज़ाम में लागू नहीं होगा। दिल्ली यूनिवर्सिटी जेएनयू एएमयू और जामिया मिलिया इस्लामिया आईआईटी दिल्ली इंदौर और बाॅम्बे ने भी काफी पहले खुली किताब परीक्षा की शुरूआत कर दी थी। ऐसे ही केरल के उच्च शिक्षा परीक्षा सुधार आयोग ने भी आंतरिक व प्रायोगिक परीक्षाओं के लिये ओपन बुक एग्ज़ाम का सुझाव दिया है। आमतौर पर लोग यह समझते हैं कि याद करके इम्तहान देने के मुकाबले किताब से देखकर सवालों के जवाब देने से छात्र छात्रायें आसानी से न केवल पास हो जायेंगे बल्कि उनके टाॅप करने यानी शत प्रतिशत नंबर लाने की संभावना भी नकल की तरह बहुत हद तक बढ़ जायेगी जबकि असलियत इसके विपरीत है। खुली किताब परीक्षा का मकसद बच्चो की समझ सीख और बौधिक क्षमता का परीक्षण होता है। आॅल इंडिया मेडिकल साइंस की भुवनेश्वर शाखा के मेडिकल के छात्रों के बीच 2021 में किये गये एक सर्वे मंे पता चला है कि इस तरह की परीक्षा से छात्रों का तनाव काफी हद तक कम हो जाता है। 2020 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय प्रेस की आॅनलाइन पायलट स्टडी में खुली किताब परीक्षा की व्यवस्था की जांच में पाया गया कि 79 प्रतिशत छात्र पास तो 21 प्रतिशत असफल हुए थे। 
लेकिन इस सिस्टम से लगभग सभी छात्र तनावमुक्त पाये गये। हालांकि 2020 की नई शिक्षा नीति में खुली किताब परीक्षा के बारे कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा गया है लेकिन इतना ज़रूर है कि इसमें एक नई गुणवत्तापरक सक्षम और अधिक सिखाने वाली परीक्षा पर खासा जोर दिया गया है। दरअसल अब तक किताबों कुंजियों और ट्यूशन  में बच्चो को अधिक से अधिक रटाने यानी याद कराने पर फोकस किया जाता रहा है लेकिन जब हम बच्चो को परीक्षा में आये सवालों का जवाब लिखने के लिये किताब में पढ़ने उत्तर खुद तलाशने और विश्लेषण की सुविधा उपलब्ध कराते हैं तो उनका दिमाग याद करने के मुकाबले सोचने समझने और अपनी पहले से प्राप्त जानकारी को लागू करने के लिये तेजी से काम करना शुरू करता है। आज का दौर सृजन चिंतन और सूचना व सहयोग का है। पुरानी परीक्षा प्रणाली में लगातार बढ़ते तनाव के कारण हर साल परीक्षा में असफल होेकर बड़ी संख्या में छात्र छात्रायें आत्महत्या भी करते रहे हैं। इस कारण से भी समाज के जागरूक नागरिक शिक्षक और अभिभावक खुली पुस्तक परीक्षा का स्वागत करते नज़र आ रहे हैं। हालांकि यह भी सच है कि 2013-14 में जब पहली बार ओपन बुक एग्ज़ाम की शुरूआत हुयी थी तब टीचर और छात्र छात्राओं के माता पिता ही इस सिस्टम का यह कहकर विरोध कर रहे थे कि इससे बच्चे सीखना याद करना और ज्ञान अर्जित करना ही छोड़ देंगे। 
 इस बार यह जानकारी मिल रही है कि सीबीएसई नये सिस्टम को लागू करने से पहले इसकेे पक्ष में मानसिक तैयारी अनुकूल वातावरण और इस व्यवस्था की उपयोगिता लाभ व सकारात्मक प्रभाव का व्यापक प्रचार प्रसार करने की भी तैयारी कर रही है। इसके साथ हमें इस तथ्य पर भी विचार करना होगा कि इस नई व्यवस्था के प्रश्नपत्र तैयार करने के लिये पेपर सैटर को भी नये सिरे से ट्रनिंग देनी होगी। ऐसा ना करने से बिना व्यापक जानकारी के उनके लिये नयी परीक्षा प्रणाली लागू करने को प्रश्नपत्र के नये अंदाज़ में सवाल तैयार करना स्वयं एक बड़ी चुनौती होगी। इसकी वजह यह है कि नई परीक्षा प्रणाली के लिये पूछे जाने वाले सवालों में कोर्स की किताबों के साथ काफी सवाल काल्पनिक पूछे जायेंगे जिसके लिये अभी वर्तमान टीचर्स को कोई विशेष अनुभव नहीं है। खुली किताब इम्तेहान का यह मतलब नहीं है कि आप जो भी सवाल परीक्षा में आये उसको किताब से आराम से देखकर नकल कर दें। इसके लिये छात्र छात्रा को अपना खुद का विवेक प्रतिभा जानकारी और समझदारी का प्रयोग करना होगा। अगर आसान शब्दों में कहें तो खुली पुस्तक परीक्षा अकादमिक से व्यवहारिक ज्ञान की ओर पहला क़दम मानी जा सकती है। अभी तक देखने में यह आया है कि जो विद्यार्थी जितना अधिक रट सकता है वह उतना ही अधिक अंक लाने में सफल हो जाता है। रिसर्च में यह साबित हो चुका है कि रटने के लिये किसी का योग्य प्रतिभावान और जानकार होना ज़रूरी नहीं होता है। 
 यही वजह है कि अब ओपन बुक एग्ज़ाम के द्वारा इस मिथक को तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है कि जो बच्चे अधिक माकर््स नहीं ला पाते वे कम काबिल नहीं हैं। यह अलग बात है कि इस नई परीक्षा प्रणाली से उन टीचर्स और कोचिंग सेंटर का धंधा काफी घाटे में में जा सकता है जो बच्चो को बुनियादी काम की और ज्ञान की व्यवहारिक जानकारी के बजाये केवल अधिक से अधिक अंक लाने की जुगत में केवल किताबी तोता बनाने में लगे रहते हैं। नई परीक्षा प्रणाली से एक संभावना यह भी जताई जा रही है कि इसके लागू होने के बाद नकल माफिया पर भी कुछ हद तक नकेल कसी जा सकती है क्योंकि अगर कोई पेपर आउट भी होता है तो उसका जवाब मुश्किल होगा।
0 मकतब ए इश्क का दस्तूर निराला देखा,
 उसको छुट्टी ना मिली जिसने सबक याद किया।            
 *नोट- लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

Thursday 7 March 2024

देश में कितने गरीब

80 करोड़ लोग 5 किलो अनाज पर तो देश में कितने गरीब हैं ?
0 नीति आयोग ने पहले कहा था कि देश में 11.28 प्रतिशत गरीब हैं लेकिन बाद में उसने दावा किया कि इनकी संख्या 5 प्रतिशत से अधिक नहीं है। इस अनुमान का आधार नेशनल संैपल सर्वे द्वारा प्रकाशित 2022-23 के हाउसहोल्ड कंज़म्पशन एक्सपेंडीचर सर्वे को बताया जाता है। आयोग के अनुसार शहरों में प्रति माह 6459 रू आय का 39 प्रतिशत भोजन पर  और गांवों में 3773 रू. में से 46 प्रतिशत खाने पर खर्च करने वाले लोग गरीब नहीं हैं। सवाल यह है कि अगर नीति आयोग के आंकड़े सही है तो सरकार 81.35 करोड़ लोगों को गरीब मानकर निशुल्क अनाज क्यों दे रही है? क्या मनरेगा में रजिस्टर्ड 15.4 करोड़ लोग और उज्जवला योजना में गैस पाये जो लोग एक साल में केवल 3.7 सिलेंडर ही खरीद पा रहे हैं वे अमीर हैं?        
    *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
 देश में गरीबों की वास्तविक संख्या जानने से पहले यह देखा जाये कि हमारे माननीय सांसदों की आर्थिक हालत क्या है तो पता चलता है कि संसद पर एक तरह से पूंजीपतियों या उनके प्रतिनिधियों का अघोषित अधिपत्य स्थापित होने लगा है। एडीआर यानी एसोसियेशन आॅफ़ डेमोक्रेटिक रिफाॅम्र्स ने 2023 में एक सर्वे कर बताया था कि हमारे सांसदों की औसत सम्पत्ति 38.33 करोड़ रूपये है। लोकसभा और राज्यसभा के कुल सांसदों में से 7 प्रतिशत अरबपति हैं। उधर देश के किसानों की आय औसत भारतीय से भी कम है। विडंबना यह है कि 40 प्रतिशत एमपी पर क्रिमनल केस चल रहे हैं। इनमें से जिन 25 प्रतिशत सांसदों पर बेहद संगीन अपराधिक मामले चल रहे हैं वे और भी अधिक अमीर हैं। स्वच्छ छवि वाले एमपी की संपत्ति 30 करोड़ तो अपराधिक छवि वाले एमपी की संपत्ति 50 करोड़ से अधिक है। सरकार के आयुष्मान भारत के द्वारा निशुल्क इलाज के दावों के बावजूद एनएसएसओ की रिपोर्ट बताती है कि शहरी इलाकों में 5.91 और गांवों में 7.13 प्रतिशत खर्च दवाओं पर हो रहा है। ऐसे ही शहरी आबादी जहां ईंधन पर अपनी आय का 6.26 तो गावों की आबादी 6.66 प्रतिशत खर्च करती है। 2004 से 2012 के दौरान हमारी विकास दर आज़ादी के बाद की सबसे अधिक यानी 8 प्रतिशत थी जिसमें 14 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आ गये थे। 
पहले गरीबी से बाहर आने का पैमाना लोेगों की व्यक्तिगत खपत को माना जाता था लेकिन पिछले दस साल से यूएनडीपी ने इस पैमाने को बदल दिया है। भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के गरीबी मापने के 10 पैमानों में दो अपनी तरफ से जोड़ दिये हैं। इनमें एक तो स्टैंडर्ड आॅफ लिविंग में सुधार मानते हुए परिवार में बैंक एकाउंट और महिला की डिलीवरी अस्पताल या नर्सिंग होम में होना माना गया है। ज़ाहिर है कि पिछले कुछ सालों में पीएम जनधन योजना के तहत 40 करोड़ से अधिक लोगों के खाते बैंकों में खुले हैं। इसके साथ जागरूकता बढ़ने से 80 प्रतिशत महिलायें बच्चो को जन्म देने के समय चिकित्सा संस्थानों में भर्ती होने लगी हैं। नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रहमण्यम ने 17 जुलाई 2023 को बताया था कि 2019-21 तक देश की 14.96 प्रतिशत आबादी गरीब थी यानी पांच साल में 13.5 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आ गये। हैरत की बात यह रही कि इसके 6 माह बाद ही नीति आयोग के एक चर्चा पत्र जारी कर दावा किया कि 2022-23 तक देश में गरीबों की तादाद घटकर 11.28 प्रतिशत ही रह गयी है। आयोग ने इस तरह पिछले 9 साल में 24.82 करोड़ लोगों के निर्धनता से मुक्त होने का दावा कर दिया। 
इसके बाद फरवरी 2024 में आयोग ने देश में 5 प्रतिशत आबादी ही बीपीएल रह जाने का अनोखा दावा कर एक तरह से एक माह में ही 8 करोड़ गरीब कम होने का चमत्कार वाला एलान कर दिया। गरीबी कम होने का सीधा आधार देश की जीडीपी बढ़ना भी माना जाता है। लेकिन अगर हम कोविड लाॅकडाउन नोटबंदी और जीएसटी का असर अर्थव्यवस्था पर देखें तो करोड़ों लोगों की असंगठित क्षेत्र में नौकरियां गयीं हैं। इसके बाद गांव के वे लोग या तो कृषि की ओर लौटे या फिर मनरेगा में काम करके अपने परिवार को जैसे तैसे जीवन यापन के लिये स्वरोज़गार की तरफ रूख़ किया। इस काम के लिये उन्होंने अपने परिवार के दूसरे सदस्यों को भी अपने साथ जोड़ा जिसका आंकड़ा सरकार ने इस्तेमाल करते हुए उसकी नौकरी और उसकी भारी भरकम सेलरी को भाव न देते हुए उसके पूरे परिवार की पहले से कम आय के बावजूद रोज़गार की बढ़ी हुयी संख्या के आंकड़े जारी कर दिये। यही वजह है कि घरेलू बचत दर तेजी से गिरी है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन इस तरह के परिवार के सदस्यों के काम को जिसमें उनको कोई वेतन नहीं मिलता रोज़गार नहीं मानती है। यह भी एक तथ्य है कि जीडीपी या अर्थव्यवस्था का साइज़ बढ़ने से ही प्रति व्यक्ति आय नहीं बढ़ती क्योंकि अडानी अंबानी और आम आदमी की कुल आय जोड़कर उसको देश की कुल आबादी से भाग देकर औसत आय निकाली जाती है। 
जिससे वास्तविक स्थिति और लोगों की असली आमदनी सामने नहीं आती है। सर्वे के आंकड़े यह भी बताते हैं कि लोगों की आय और खर्च लगभग उतना ही है जितने अनुपात में पहले था। महंगाई और बेरोज़गारी की बढ़ती दर को देखा जाये तो बढ़ी आय और घरों में होने वाले नये खर्च का समीकरण मेल नहीं खाता है। आर्थिक विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि चूंकि यह सर्वे 11 साल बाद आया है जिससे इसके आंकड़े काफी सीमा तक बढ़े हुए लगते हैं लेकिन उस अनुपात में नहीं बढ़े हैं जिस हिसाब से किसी बढ़ती हुयी प्रगतिशील और सकारात्मक समावेशी इकाॅनोमी में यह प्राकृतिक रूप से स्वयं ही बढ़ने चाहिये। 2017-18 में ऐसी ही हकीकत का आईना दिखाती सर्वे रिपोर्ट को सरकार ने मानने से मना कर दिया था। इसका मतलब यह माना जा सकता है कि सरकार गरीबी को नापने में भी वही खेल कर रही है जो वह अन्य क्षेत्रा में आंकड़ों की बाज़ीगरी अकसर करती रही है। दुष्यंत का शेर याद आ रहा है-
0 तेरा निज़ाम है सिल दे ज़बान शायर की,
  यह एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिये।।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार ैके संपादक हैं।*