Monday 26 October 2015

Hindu muslim to world

हिन्दू और मुसलमान पर बोलते आंकड़े....
ध्यान से पढना मित्रों और सोचना ----250 वर्ष का इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि जो आधुनिक विश्व मतलब 1800 के बाद जो दुनिया मे तरक़्क़ी हुई, उस मे पश्चिम मुल्को यानी सिर्फ यहूदी और ईसाई लोगो का ही हाथ है। हिन्दू और मुस्लिम का इस विकास मे 1% का भी योगदान नही है।  --- अब आप देखिये के 1800 से लेकर 1940 तक हिंदू और मुसलमान सिर्फ बादशाहत या गद्दी के लिये लड़ते रहे। अगर आप दुनिया के 100 बड़े वैज्ञानिको के नाम लिखे तो बस एक या दो नाम हिन्दू और मुसलमान के मिलेंगे।  --- पूरी दुनिया मे 61 इस्लामी मुल्क है, जिनकी जनसंख्या 1.50 अरब के करीब है, और कुल 435 यूनिवर्सिटी है। दूसरी तरफ हिन्दू की जनसंख्या 1.26 अरब के क़रीब है और 385 यूनिवर्सिटी है, जबकि अमेरिका मे 3 हज़ार से अधिक, जापान मे 900 से अधिक यूनिवर्सिटी है। ईसाई दुनिया के 45% नौजवान यूनिवर्सिटी तक पहुंचते है, वही मुसलमान के नौजवान 2% और हिन्दू के नौजवान 8 % तक यूनिवर्सिटी तक पहुंचते है। दुनिया के 200 बड़ी यूनिवर्सिटी मे से 54 अमेरिका, 24 इंग्लेंड, 17 ऑस्ट्रेलिया, 10 चीन, 10 जापान, 10 हॉलॅंड, 9 फ़्राँस, 8 जर्मनी, 2 भारत और 1 इस्लामी मुल्क मे है। --- अब हम आर्थिक रूप से देखते है। अमेरिका का जी.डी.पी 14.9 ट्रिलियन डॉलर है जबकि पूरे इस्लामिक मुल्क का कुल जी.डी.पी 3.5 ट्रिलियन डॉलर है। वही भारत का 1.87 ट्रिलियन डॉलर है। दुनिया मे इस समय 38000 मल्टिनॅशनल कंपनी है, इन मे से 32000 कंपनी सिर्फ अमेरिका और युरोप मे है।  --- अभी तक दुनिया के 10000 बड़ी अविष्कारो मे 6103 अविष्कार अकेले अमेरिका मे और 8410 अविष्कार ईसाई या यहूदी ने किये है। दुनिया के 50 अमीरो मे 20 अमेरिका से, 5 इंग्लेंड से, 3 चीन, 2 मक्सिको, 2 भारत और 1 अरब मुल्क से है। अब आप खुद अंदाजा लगाइये के हिन्दू और मुसलमान की इस धरती पे क्या औकात है। --- अब हम आप को बताते है के हम हिन्दू और मुसलमान जनहित, परोपकार या समाज सेवा मे भी ईसाई और यहूदी से पीछे है। रेडक्रॉस जो दुनिया का सब से बड़ा मानवीय संगठन है। इस के बारे मे बताने की जरूरत नही है।  --- बिल- मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन मे बिल गेट्स ने 10 बिलियन डॉलर से इस फाउंडेशन की बुनियाद रखी है। जो कि पूरे विश्व के 8 करोड़ बच्चो की सेहत का ख्याल रखती है, जबकि हम जानते है कि भारत मे कई अरबपति है। मुकेश अंबानी अपना घर बनाने मे 4000 करोड़ खर्च कर सकते है, और अरब का अमीर शहज़ादा अपना स्पेशल जहाज पर 500 मिलियन डॉलर खर्च कर सकता है मगर मानवीय सहायता के लिये आगे नही आ सकता है।  --- बस हर हर महादेव और अल्लाह हो अकबर के नारे लगाने मे हम सबसे आगे हैं।

साहित्य पुरस्कार वापसी

⭕⭕साहित्यकार पुरस्कार न लौटाएं तो और क्या करें.......
देश में बढ़ रही असहिष्णुता कट्टरता और तीन  साहित्यकारों की उनके विचारों के कारण एवं यूपी के दादरी में एक मुस्लिम की गोमांस खाने की अफवाह पर हत्या होने के बाद विरोध के तौर पर लगभग तीन दर्जन से अधिक साहित्यकार अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार और पद्म सम्मान वापस कर चुके हैं। इनमें अधिकांश लेखक क्षेत्रीय भाषाओं के हैं। इनमें से कुछ ने विरोध के तौर पर अकादमी से त्यागपत्रा भी दे दिया है। इनके साथ ऐसे लेखक भी काफी बड़ी संख्या में हैं जो इनके मकसद में तो साथ हैं लेकिन वे पुरस्कार लौटाने या अकादमी से इस्तीफा देने को सही तरीका नहीं मानते हैं। छोटा ही सही लेकिन लेखकों का एक तीसरा वर्ग भी है जो इन दोनों वर्गों पर राजनीति से प्रेरित होकर नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ कांग्रेस और वामपंथी दलों के इशारे पर दुष्प्रचार अभियान चलाने का आरोप लगा रहा है।

उसका यह भी सवाल है कि जब इससे पहले 1984 में सिक्खों का नरसंहार हुआ या गुजरात दंगे और आपातकाल लगा तब  इन लेखकों ने विरोध में ऐसे कदम क्यों नहीं उठाये? वैसे लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने और सहमत असहमत होने का अधिकार होता है लेकिन यह अपने आप में कोई दमदार तर्क नहीं है कि अगर आपने अतीत में कोई ग़ल्ती की है तो आज आप उसका सुधार नहीं कर सकते। इतना ही नहीं नयनतारा सहगल ने इंदिरा गांधी की रिश्तेदार होने के बावजूद अपना लेखकीय धर्म निभाते हुए इमरजैंसी का खुलकर विरोध किया था और वो जयप्रकाश नारायण की पत्रिका एवरीमैन में इंदिरा शासन के खिलाफ लगातार लिखती रहीं जिसका नतीजा यह हुआ कि उनके पति को सरकार ने प्रताड़ित किया।  दूसरी बात पुरस्कार लौटाने वाले कुछ लेखकों का जन्म ही आपातकाल के बाद हुआ है।

अजीब बात यह है कि मोदी के मंत्रिमंडल में जगमोहन और मेनका गांधी जैसे आपातकाल समर्थक पहले ही मौजूद हैं। मेरी समझ में नहीं आता अगर मोदी सरकार और भाजपा की नीयत साफ है तो वो लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाने पर इतना हायतौबा क्यों मचा रहे हैं? पुरस्कार लौटाने की शुरूआत कर्नाटक के लेखक ने की जहां कांग्रेस की सरकार है। एम एम कालबुर्गी की हत्या भी इसी राज्य में हुयी थी। नरेंद्र डाभोलकर की हत्या कांग्रेस के राज में महाराष्ट्र में हुयी थी जबकि बीफ मर्डर यूपी के दादरी में हुआ जहां सपा की सरकार है। जिन लेखकों ने पुरस्कार लौटाये हैं अगर आप उनको पढ़ें तो पायेंगे उनमें से कई कांग्रेस के कटु आलोचक रहें हैं लेकिन भाजपा और संघ परिवार हर किसी को विरोध करने पर कांग्रेसी मानकर राजनीतिक विरोध करता है।

यह ठीक है कि जब 1989 में राजीव सरकार ने सलमान रश्दी की किताब ‘सैटेनिक वर्सेज’ पर पाबंदी लगाई थी तब उदार वादी बुद्धिजीवियों धर्मा कुमार जैसे नाम मात्र के लोगों ने इसका विरोध किया था। ऐसे ही शाहबानो केस में जब राजीव सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटकर मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेके या प्रगतिशील तर्कवादी और महिलावादी बंगलादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन को बंगाल या दिल्ली में शरण देने में मुस्लिम वोटबैंक के ख़फ़ा होने के डर से न सिर्फ सेकुलर समझी जाने वाली पार्टियों ने आनाकानी की, उनकी किताब पर प्रतिबंध लगाया बल्कि आज मुखर होने वाले लेखक भी कमोबेश चुप्पी साध गये तो उससे यह संदेश गया कि इनकी उदारता और धर्मनिर्पेक्षता एकतरफा है। यह उलाहना तसलीमा नसरीन ने दिया भी है।

इसके बावजूद सवाल यह है कि अगर लेखक अपना विरोध दर्ज करना चाहते हैं तो उनके पास अपने विचार लिखने के अलावा और क्या क्या विकल्प हैं? यह कड़वा सच है कि आज किताबें और पत्र पत्रिकाओं में विचार पढ़ने वाले मुट्ठीभर लोग ही हैं ऐसे में लेखकों को ऐसे किसी रास्ते की तलाश थी जिससे उनकी बात पूरे देश में चर्चा का विषय बन सके। यह रास्ता उनको मीडिया ने ज़बरदस्त कवरेज देकर पुरस्कार वापसी के ज़रिये दिखा दिया। बस फिर क्या था एक के बाद एक प्रेरणा लेकर यह सिलसिला शुरू हो गया। पहले तो मोदी सरकार ने इसको नज़रअंदाज़ करना ही बेहतर समझा लेकिन तीन दर्जन से अधिक पुरस्कार वापस होने से संघ परिवार और बीजेपी सरकार पर यह नैतिक दबाव और शर्मिंदगी बढ़ी कि वो इस मसले पर चुप्पी तोड़े।

हालांकि मजबूरी में पीएम मोदी ने इस मसले पर औपचारिक बयान दिया जिसमें गंभीरता कम और राजनीति अधिक थी लेकिन सच यही है कि यह बयान बेमन से दिया गया है जिससे इस बयान का कोई असर नहीं होने जा रहा है। सबसे पहली बात तो सरकार और बीजेपी को यह समझनी चाहिये कि साहित्यकारों का विरोध उनका संवैधानिक अधिकार है जिससे ऐसा करने वालों को अपना विरोधी या शत्रु नहीं मानना चाहिये। अगर पीएम मोदी या उनका कोई सीनियर मंत्री बजाये विरोधी लेखकों को चिढ़ाने या आरोप लगाने के उनसे मिलकर साझा प्रैसवार्ता कर यह ऐलान करते कि देश में कट्टरपंथ, अनुदारता और अभिव्यक्ति के लिये ख़तरा किसी कीमत पर सहन नहीं किया जायेगा और जिन लोगों की हत्या हुयी है उनके मामलों की जांच सीबीआई से कराकर अपराधियों को जल्दी और सख़्त सज़ा दी जायेगी जिससे भविष्य में ऐसी घटनायें फिर से न हों तो हम समझते हैं यह मामला तूल पकड़ने से पहले ही ख़त्म हो जाता।

ऐसे ही साहित्य अकादमी ने कालबुर्गी के लिये अगर दिल्ली में एक शोकसभा कर हत्या की निंदा और सरकार से अभिव्यक्ति और जीवन के अधिकार की रक्षा को सर्वोच्चता देने की मांग की होती तो लेखक अकादमी और उसके प्रेसीडेंट के खिलाफ मोर्चा खोलने को सड़क पर उतरन के लिये मजबूर न होते लेकिन यहां सवाल सरकार बीजेपी संघ परिवार और अकादमी की मंशा पर उठते हैं कि वे पीड़ितों के पक्ष में दिल से न होकर आरोपियों से हमदर्दी उनकी विचारधारा से सहमति के कारण रखते नज़र आये। दादरी मामले में पहली बार एक पशु के लिये बेकसूर इंसान की जान मात्र अफवाह पर लिये जाने के बावजूद भाजपा के कुछ नेता हत्यारों के पक्ष में खुलकर सामने आ गये जिससे मोदी सरकार की किरकिरी उनके शक के घेरे में आने पर और ज्यादा हुयी।

हमारा कहना तो यह है कि लेखकों ने ठीक समय पर ठीक मुद्दा उठाया है लेकिन उनको भविष्य में भूल सुधार कर कट्टरता हिंसा साम्प्रदायिकता पर हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक यानी पक्षपाती रूख़ नहीं अपनाना चाहिये वर्ना यह रोग विरोध के बाद भी और बढ़ता ही जायेगा। दूसरी बात लेखकों को समझना चाहिये कि वे विरोध में पुरस्कार वापस कर चंद दिनों के लिये मीडिया की चर्चा में तो आ सकते हैं सरकार को सफाई देने को मजबूर कर सकते हैं पीड़ितों के परिवार से हमदर्दी जाहिर कर सकते हैं लेकिन उनको असली काम समाज की सोच बदलने का करना है जिसको सेकुलर और साम्प्रदायिक दोनों खेमों ने अपने सियासी लाभ के लिये लंबे समय से अभियान चलाकर लगातार नफरत हिंसा और अलगाव को बढ़ाया है।

मानसिक और वैचारिक आधार पर अगर निष्पक्षता और ईमानदारी से साहित्यकारों ने समाज की सोच स्वस्थ बनाने का निडरता से सतत प्रयास नहीं किया तो नोट कर लीजिये उनके तमाम नेक इरादों को दिखावटी और बनावटी विरोध के तौर पर देखा जायेगा और हिंदू साम्प्रदायिकता कट्टरता असहिष्णुता और दो वर्गों के बीच अलगाव व हिंसा आगे और बढ़ती ही जायेगी। संघ परिवार ऐसा कर भारत को हिंदू राष्ट्र तो नहीं बना सकेगा लेकिन सेकुलर खेमे की इन दोगली नीतियों से हिंदुत्व की सियासत आगे भी लंबे समय तक परवान चढ़ती रहेगी।

0घर सजाने का तसव्वुद तो बहुत बाद का है,
पहले ये तय हो कि इस घर को बचाये कैसे।

Sunday 25 October 2015

17 Camel will

A father left 17 Camels as an Asset for his Three Sons.

When the Father passed away, his sons opened up the will.

The Will of the Father stated that the Eldest son should get Half of 17 Camels,

The Middle Son should be given 1/3rd of 17 Camels,

Youngest Son should be given 1/9th of the 17 Camels,

As it is not possible to divide 17 into half or 17 by 3 or 17 by 9, the sons started to fight with each other.

So, they decided to go to a wise man.

The wise man listened patiently about the Will. The wise man, after giving this thought, brought one camel of his own & added the same to 17. That increased the total to 18 camels.

Now, he started reading the deceased father’s will.

Half of 18 = 9.
So he gave 9 camels
to the eldest son.

1/3rd of 18 = 6.
So he gave 6 camels
to the middle son.

1/9th of 18 = 2.
So he gave 2 camels
to the youngest son.

Now add this up:
9 + 6 + 2 = 17 &
This leaves 1 camel,
which the wise man took back.

MORAL: The attitude of negotiation & problem solving is to find the 18th camel i.e. the common ground. Once a person is able to find the common ground, the issue is resolved. It is difficult at times.

However, to reach a solution, the first step is to believe that there is a solution. If we think that there is no solution, we won’t be able to reach any!

If you liked this story,  please share with all. You might spark a thought, inspire & possibly change a life forever!
����������������

A very interesting management lesson.

Thursday 15 October 2015

HABITS/ CHARACTOR A B C

Can u judge who is the better person out of these 3 ?

Mr A - He had frienship with bad politicians, consults astrologers, two wives, chain smoker, drinks eight to 10 times a day.

Mr B - He was kicked out of office twice, sleeps till noon, used opium in college & drinks whiskey every evening.

Mr C - He is a decorated war hero,a vegetarian, doesn't smoke , doesn't drink  and never cheated on his wife.

You would want Mr.C rite.















But..
Mr. A was Franklin Roosevelt!

Mr. B was Winston Churchill!!

Mr C Was ADOLF HITLER!!!

Strange but true..
Its risky to judge anyone by his habits !
Character is a complex phenomenon.

So every person in ur life is important ,don't judge them ,accept them.
�� Three beautiful thoughts 

1. None can destroy iron, but its own rust can!
Likewise, none can destroy a person, but his own mindset can.

2. Ups and downs in life are very important to keep us going, because a straight line even in an E.C.G. means we are not alive.

3. The same Boiling Water that hardens the egg, Will Soften the Potato!
It depends upon Individual's reaction To stressful circumstances!

Tuesday 13 October 2015

गाय: सियासत कौन कर रहा है?

�� गाय: सभी पक्ष गलत?-इक़बाल हिंदुस्तानी
गाय हिंदू भाइयों के लिये हज़ारों साल से पूजनीय और सम्माननीय रही है। गाय में सौ करोड़ देवी देवताओं का वास माना जाता है। गाय एक समय था हमारी खेती के लिये भी लाइफलाइन मानी जाती थी लेकिन आज तर्क और यथार्थ यह है कि प्रसिध्द अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला कहते हैं कि गाय घाटे का सौदा बन चुकी है इसलिये उसे चाहे कानून बनाकर जितना भी बचाने की कोशिश की जाये वह बचेगी नहीं लेकिन यह अलग बहस का मुद्दा है फिलहाल तो यह आस्था और श्रद्धा का विषय है। अल्पसंख्यक, आर्यसमाजी, नास्तिक, सेकुलर तर्कवादी और उदारवादी कोई भी हो उनको यह अधिकार नहीं है कि वे हिंदू भाइयों की भावना और आस्था को ठेस पहुंचायें या मज़ाक उड़ायें लेकिन जब यूपी के दादरी में एक मुस्लिम को केवल इस शक पर जान से मार दिया जाता है कि शायद उसने गाय का मांस खाया है तो इसमें राजनीति का खेल प्रवेश कर जाता है।

हर वर्ग की धार्मिक भावना का सम्मान किया जाना चाहिये लेकिन आप भावना आहत होने का संदेह होने मात्र से गाय के लिये किसी की जान ले लेंगे और कानून हाथ में लेंगे यह अधिकार किसी भी सभ्य समाज में किसी भी वर्ग को नहीं दिया जा सकता। सबको पता है कि हमारे देश में जहां अल्पसंख्यक मुस्लिम साम्प्रदायिकता और हिंदू जातिवाद की सियासत सेकुलर समीकरण के नाम पर की जाती रही है वहीं बहुसंख्यक हिंदू साम्प्रदायिकता की राजनीति भी भारतीय जनता के नाम पर एक पार्टी कई दशक से कर रही है। सबसे पहला सवाल तो यही पूछा जाना चाहिये कि जब एक हिंदूवादी सरकार केंद्र में डेढ़ साल से सत्ता में है तो वह पूरे देश में गोकशी पर कानून बनाकर अब तक रोक क्यों नहीं लगा रही है? क्या उसे भी मुस्लिम वोटबैंक की तरह अपने हिंदू वोटबैंक के दरक जाने का ख़तरा है?

अगर हां तो आप सेकुलर राजनीति के नाम पर मुस्लिमों का धार्मिक और मानसिक तुष्टिकरण करने वाले कथित सेकुलर दलों से कहां अलग हैं? आप तो उनसे भी अधिक ख़तरनाक और हिंसक हैं क्योंकि जब अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता का मुकाबला बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता से किया जाता है तो वह अकसर बेलगाम और फासिस्ट हो जाती है जिससे देश में अलगाव और आतंकवाद को फलने फूलने का बेहतर अवसर मिल जाता है। यूपीए की सरकार के दौरान जब आज के पीएम मोदी साहब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनावी रैली किया करते थे तो चिल्ला चिल्लाकर दावा करते थे कि यूपी में पिंक रेवोलूशन यानी गुलाबी क्रांति हो रही है….आज आप सत्ता में हैं तो कैसे भारत दुनिया का गोमांस सप्लाई का दो नंबर का देश बन गया?

दूसरी बात यूपी में गोकशी पर कानूनी रोक है लेकिन एक पत्रकार के रूप में हम तीन दशक से ज़्यादा से देख रहे हैं कि पुलिस की जेब गर्म कर गोकशी न केवल हो रही है बल्कि इसमें खुद हिंदू बड़ी संख्या में शामिल हैं। मुस्लिम और उर्दू अरबी नामों पर धोखा देने को लगभग सारे बड़े स्लॉटर हाउस खुद गैर मुस्लिमों ने खोल रखें हैं और तो और गाय और हिंदुओं की भड़काने वाली सियासत करने वाले यूपी के एक भाजपा विधायक का नाम तो आजकल गोमांस निर्यात करने वाली फर्म के डायरेक्टर के तौर पर सामने आ रहा है और तो और जब कोई हिंदू अपनी घरेलू गाय को खुले बाज़ार में पेट भरने के लिये खुल छोड़ देता है और वह इधर उधर डंडे खाकर कूड़ा करकट और पॉलिथिन से अपना पेट भरती फिरती है या दूध न देने पर कोई हिंदू मौत के घाट के उतारने को गाय को किसी क़साई के हाथ बेच देता है तब गोरक्षकों की भावना आहत नहीं होती।

जब यूपी के एक गांव में एक गाय कुएं में गिर जाती है और सारे गोरक्षक खड़े तमाशा देखते हैं तो एक मुस्लिम युवक कुंए में उतरता है और घबराई गाय की बार बार लात खाकर भी उसे बचाकर मौत के मुंह से सुरक्षित बाहर ले आता है लेकिन गोरक्षक उसका स्वागत नहीं करते। एक दाढ़ी वाले बड़े मियां जब रोज़ अपनी दुकान के सामने से गुज़रने वाली गाय को पुचकारकर रोटी खिलाते हैं तब गोरक्षक उनका कभी सम्मान नहीं करते लेकिन दादरी में अख़लाक़ को केवल शक की बिना पर पीट पीटकर मौत के घाट उतार देते हैं जबकि उसने न तो गोकशी की थी और न ही उसने गोमांस खाया था। एक तरफ संघ परिवार दावा करता है कि जो मुस्लिम देशभक्त हैं उनसे हमें कोई शिकायत नहीं लेकिन अख़लाक़ का बेटा तो वायुसेना में देश को अपनी सेवा दे रहा है और कैसा देशभक्त मुसलमान चाहिये आपको?

केंद्रीय संस्कृति मंत्री इस घटना को पहले तो गलतफहमी का मामला बताकर न्यायोचित ठहराते हैं और फिर हत्यारों के पक्ष में इसकी सीधे निंदा करने की बजाये हादसा ठहराते हैं क्या इसका यह मतलब नहीं निकलता कि अगर अख़लाक ने वास्तव में गाय का मांस खाया होता तो उसकी हत्या सही थी? गोभक्तों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस काटजू ललकारते हैं कि वे भी गोमांस खाते हैं और कोई पशु किसी इंसान की माता नहीं हो सकता। राजद के लालू और रघुवंश दावा करते हैं कि खुद विदेश में हिंदू गोमांस खाते हैं और रिषि मुनि भी आदिकाल में गोमांस खाते थे लेकिन ये ताकतवर लोग हैं इनका गोभक्त कुछ नहीं बिगाड़ पाते। कश्मीर में एक निर्दलीय विधायक इंजीनियर अब्दुल रशीद बीफ पार्टी देते हैं तो विधानसभा में उनकी पिटाई हो जाती है चूंकि वह मुस्लिम हैं।

हालांकि उनका बीफ पार्टी देकर गोभक्तों को चिढ़ाना और काटजू लालू व रघुवंश का इस तरह का बयान भी उतना ही गलत है लेकिन यहां दुखद और आश्चर्य की बात यह है कि गुस्सा केवल मुस्लिमों पर उतर रहा है इसके पीछे सियासत नहीं तो और क्या है? हालांकि पीएम मोदी ने काफी थू थू होने पर इस बारे मेें अप्रत्यक्ष बयान दिया कि हिंदू मुस्लिम किसी भी मुद्दे पर आपस में न लड़कर गरीबी से लड़े और भड़काने व बांटने वाले बयान देने वाले नेताओं के बयानों पर कान न दें चाहें ऐसा करने वाले वे खुद मोदी ही क्यों न हों लेकिन सवाल यह है कि यह नफरत हिंसा और बदले की जो आग आज गाय को लेकर लगी है इसके लिये क्या खुद संघ परिवार दोषी नहीं है जिसने हिंदुओं के दिमाग़ में लंबे समय से यह ज़हर मुसलमानों के बारे में भरा है और बात बात पर लोग आपे से बाहर होकर एक वर्ग का नाम सुनते ही कानून हाथ में लेकर उनको सबक सिखाने पर उतर आते हैं।

हाल ही में मैनपुरी में गोकशी की अफवाह पर हुयी हिंसा में दक्षिणपंथी शक्तियों का खुलकर नाम सामने आया है। ऐसे ही मुसलमान जब जानते हैं कि गाय हिंदुओं की पूजनीय और माता मानी जाती है तो कानून हो या न हो क्यों चोरी छिपे गोकशी और गोवंश का अवैध कारोबार करने से बाज़ नहीं आते? और यह तय है कि जिस दिन मुसलमानों ने गाय के कारोबार से हाथ खींच लिये उसके पांच से दस साल के अंदर गाय के दर्शन दुर्लभ हो जायेंगे। ऐसे ही हमारी कानून व्यवस्था इतनी कमज़ोर लेट और लचर हो चुकी है कि लोग बात बात पर कानून हाथ में लेकर हाथो हाथ आरोपी को सबक सिखाने पर मजबूर होने लगे हैं यह अलग बात है कि इसके पीछे राजनीति अधिक है वास्तविक समस्या कम है।

गाय पर गंदी और घटिया सियासत करने वाले चाहे बहुसंख्यक नेता हों या अल्पसंख्यक एक बात साफ समझ लेनी चाहिये कि अगर गाय को बहाना बनाकर इस तरह केवल मुस्लिमों पर हमले होते रहेंगे तो वो दिन दूर नहीं जब मुस्लिम भी बदले में कानून हाथ में लेने लगेंगे और इससे देश गृहयुद्ध आतंकवाद और अलगाववाद का शिकार हो सकता है।

सच की हालत किसी तवायफ़ जैसी है, तलबगार बहुत हैं तरफ़दार कोई नहीं ।।