Thursday 28 December 2023

इंडिया गठबंधन

इंडिया गठबंधन को नेता नहीं वैकल्पिक नीतियों की ज़रूरत है !
0सब जानते हैं कि जीवतं लोकतंत्र के लिये विपक्ष का मज़बूत होना ज़रूरी है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने इस ज़रूरत को समझा है। तीन राज्यों में करारी हार के बाद उसको शायद इंडिया गठबंधन का महत्व और अधिक नज़र आने लगा है। अब वह क्षेत्रीय दलों के साथ झुककर समझौता करने को शायद तैयार हो जाये? इन राज्यों की हार ने उसको यह भी संदेश दिया है कि वह अगर उदार हिंदुत्व के रास्ते पर चलेगी तो भाजपा को ही मज़बूत करेगी। पिछली बैठक में खड़गे का नाम पीएम पद के लिये सामने आया लेकिन खड़गे ने खुद इसे टालकर भाजपा के जाल में फंसने से गठबंधन को बचा लिया, क्योंकि मोदी की टक्कर का नेता विपक्ष तो क्या आज खुद भाजपा के पास भी नहीं है। राहुल गांधी की भारत न्याय यात्रा का दूसरा भाग सही दिशा में सही क़दम है।      
 _-इक़बाल हिंदुस्तानी_ 
     *ये कैसा शख़्स है कितनी ही अच्छी बात कहो,*
     *कोई न कोई बुराई का पहलू निकाल लेता है ।।* 
          यह सच है कि कांग्रेस ने चार राज्यों के चुनाव में अपने इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों को भाव नहीं दिया था। यह भी सही है कि इस अहंकार या भूल की वजह से उसको कुछ सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है। लेकिन पूरी वास्तविकता यह भी नहीं है कि वह केवल इसी एकमात्र कारण से बुरी तरह तीन राज्यों में हार गयी हो। हां उसकी नाकामी के अनेक कारणों में यह भी एक कारण माना जा सकता है। लेकिन अच्छी बात यह है कि कांग्रेस को इस गल्ती का अहसास हुआ है। अब वह अधिक उदार और गंभीरता के साथ भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दलों के साथ सीट समझौता करने को तैयार होती नज़र आ रही है। इंडिया गठबंधन मूल रूप से इसलिये बना था कि भाजपा विरोधी अधिक से अधिक दल साथ मिलकर लड़ें लेकिन वह अपनी पहली ही परीक्षा में तब असफल होता नज़र आया जब चार राज्यों के चुनाव में आप और सपा जैसे उसके घटक दलों ने अपने उम्मीदवार थोक में इसलिये उतार दिये क्योंकि कांग्रेस उनको चंद सीट भी समझौते में देने को तैयार नहीं थी। हालांकि इन छोटे दलों ने भी अपनी हैसियत से अधिक सीटों पर प्रत्याशी उतारकर भाजपा से अधिक कांग्रेस को सबक सिखाने के लिये जनहित राष्ट्रहित या गठबंधन को दांव पर लगाकर कोई अच्छा संदेश नहीं दिया लेकिन जब बात व्यक्ति दल या निजी स्वार्थ की आ जाती है तो अकसर यही देखने को मिलता है। इस दौरान यह भी सुनने को मिला कि इंडिया गठबंधन तो राज्यों की बजाये लोकसभा चुनाव के लिये बना है। हिमाचल और कर्नाटक चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस को यह खुशफहमी हो रही थी कि वह क्षेत्रीय दलों का भाजपा विरोधी वोट अपने पाले में कर भाजपा को आगे भी विधानसभा चुनाव में अकेले ही हरा सकती है। यह बात किसी हद तक केंद्र के चुनाव में सही साबित हो सकती थी लेकिन वह भी आंशिक तौर पर जहां कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा से है। देश में लगभग 200 संसदीय सीट ऐसी हैं। जहां कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा से है। 150 सीट एमपी की ऐसी हैं। जहां क्षेत्रीय दल अपना खासा प्रभाव रखते हैं। इंडिया गठबंधन का सारा ज़ोर इस बात पर है कि अगर सारे विपक्षी दल मिलकर एनडीए गठबंधन के प्रत्याशियों के खिलाफ एक ही उम्मीदवार हर सीट पर उतार सकें तो भाजपा को बहुमत मिलने से रोका जा सकता है। लेकिन यह एक काल्पनिक सी बात है। सबसे पहली बात तो यह है कि सारे विपक्षी एक नहीं हो सकते। मिसाल के तौर पर बीजद वाईएसआर कांग्रेस बीआरएस बसपा अन्नाद्रमुक टीडीपी अकाली दल और कई छोटे जातीय क्षेत्रीय और आदिवासी दल इंडिया या एनडीए सहित किसी भी गठबंधन का हिस्सा बनने को तैयार नहीं हैं। इसके साथ ही आम आदमी पार्टी कम्यनिस्ट और तृणमूल कांग्रेस जैसे दलों का अपने अपने प्रभाव वाले राज्यों में कांग्रेस के साथ सीट बंटवारा हो ही जायेगा इस पर राजनीति के जानकार कई लोगों को भारी शक है। इंडिया गठबंधन को यह भी याद रखना होगा कि पिछली बार यूपी में सपा बसपा का गठबंधन होने के बावजूद बीएसपी का दलित और सपा का यादव वोट एक दूसरे को ट्रांस्फर नहीं हो सका था। इसलिये यह गणित लगाना व्यवहारिक नहीं होगा कि राजनीति में दो दल मिल जाये तो वह दो और दो चार हो ही जायेंगे। कभी कभी एक और एक ग्यारह भी हो जाते हैं। जो लोग सपा को वोट देना चाहते हैं वे कांग्रेस या बसपा के साथ सीट समझौता होने पर कभी कभी जहां सपा का अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा होता वहां भाजपा के साथ चले जाते हैं। ऐसा ही कहीं कहीं एनडीए गठबंधन के साथ भी संभव है। यह मानना भी सही नहीं लगता कि भाजपा के पास आज भी देश में 38 प्रतिशत वोट है तो बाकी का 62 प्रतिशत अगर विपक्ष का एक साझा उम्मीदवार मौजूद हो तो उसके साथ चला जायेगा? कम लोगों को पता है कि भाजपा ने 2019 के आम चुनाव मंे 221 सीट 50 प्रतिशत से अधिक वोट लेकर जीती थीं। जाहिर बात है कि यहां विपक्षी एकता यानी एक के मुकाबले एक प्रत्याशी का गणित काम नहीं करेगा। इंडिया गठबंधन को यह भी समझना चाहिये कि उसका मुकाबला केवल भाजपा से नहीं बल्कि अपराजय से दिखने वाले पीएम मोदी दर्जनों संगठन वाले आरएसएस शक्तिशाली सरकार चुनाव आयोग आयकर विभाग ईडी मीडिया काॅरपोरेट और साम दाम दंड भेद यानी किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने वाली मशीनरी से है। यानी आज देश में लोकतंत्र होने का दावा करने के बावजूद सब दलों के लिये लेवल प्लेयिंग फील्ड नहीं है। हिंदुत्व और बहुसंख्यकवाद की साम्प्रदायिक तानाशाह राजनीति का मुकाबला करने के लिये कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के पास न तो घर घर जाकर संघ की तरह एक खास विचारधारा के लिये काम करने वाले कार्यकर्ता हैं और न ही संगठन व पर्याप्त धन है। इसके साथ ही विपक्ष के पास संघ परिवार की तरह सोशल मीडिया पर अपनी बात पहुंचाने के लिये करोड़ों लोगों के व्हाट्सएप गु्रप तक कहीं नज़र नहीं आते। मोदी सरकार बने 9 साल से अधिक बीत गये आज तक हमारे पास मोबाइल पर विपक्ष का कोई मैसेज ग्रुप या एसएमएस नहीं आया जबकि भाजपा के बधाई संदेश और राजनीतिक खबरें व चुनावी प्रचार थोक में आता रहता है। हम गारंटी से यह तो नहीं कह सकते कि इंडिया गठबंधन 2024 का चुनाव लड़ने से पहले ही हार गया है क्योंकि भाजपा 2019 में जिस सेचुरेशन प्वाइंट पर पहुंच चुकी है। उससे अब वह और आगे नहीं जा सकती लेकिन विपक्ष कांग्रेस और इंडिया गठबंधन एंटी इंकम्बैंसी को जनता तक ठीक से पहंुचा सके तो उसकी सीटें कुछ कम कर अपनी सांसद संख्या काफी बढ़ा सकता है। क्या वह सचमुच ऐसा करेगा?      
 नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday 21 December 2023

लोकतंत्र को खतरा?

*सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज क्यों उठा रहे हैं अदालत पर उंगली ?* 
0 सर्वोच्च अदालत के रिटायर्ड जज जस्टिस नारिमन ने सेवानिवृत्त होने के बाद सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की है। आपको याद होगा जस्टिस नारिमन उन चार जजों में शामिल रहे हैं। जिन्होंने 2014 के बाद प्रैस वार्ता कर सुप्रीम कोर्ट की आज़ादी और लोकतंत्र को ख़तरा बताया था। हाल ही में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के कश्मीर की धारा 370 हटाने राज्य का विशेष दर्जा खत्म कर उसके दो टुकड़े कर केंद्र शासित प्रदेश बनाने के सरकार के फैसले पर, महाराष्ट्र में शिंदे सरकार बनाने के स्पीकर के निर्णय पर और केरल के राज्यपाल के विवादित व्यवहार पर तथा बीबीसी की डाक्यमेंट्री के बाद उस पर पड़े आयकर के छापे पर सुप्रीम कोर्ट के सो मोटो ना लेने पर उंगली उठाई है।    
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
     हमने सोचा था जाकर उससे पफ़रियाद करेंगे,
     कम्बख़्त वो भी उसका चाहने वाला निकला।।
  सुप्रीम कोर्ट को एक संस्था के तौर पर कमज़ोर बताने और लोकतंत्र को देश में ख़तरा समझने वाले जस्टिस नारिमन अकेेले नहीं हैं। हाल ही में  सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस संजय कौल और उनसे पूर्व रिटायर्ड जज जस्टिस मदन लोकुर जाने माने वकील प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट बार एसोसियेशन के पूर्व मुखिया दुष्यंत दवे सहित दर्जनों रिटायर्ड अधिकारी वरिष्ठ पत्रकार साहित्यकार लेखक मानव अधिकार कार्यकर्ता स्वतंत्र चिंतक और संविधान के जानकार लगातार समय समय पर आगाह कर रहे हैं कि कौन कौन सी बातें हमारे लोकतंत्र के लिये ख़तरा बन सकती हैं। जस्टिस नारिमन सहित अन्य कई जानकार कहते हैं कि जिस तरह से चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में सरकार ने कानून बनाकर तीन सदस्यों की कमैटी से चीफ जस्टिस को अलग कर उनकी जगह केंद्र के एक वरिष्ठ मंत्री पीएम और विपक्ष के नेता को रखा है। उससे चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल उठता है। उनका यह भी कहना है कि जिस तरह से चार साल बाद कश्मीर की धारा 370 के केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया वह सवाल खड़े करता है। उनको लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को यह संज्ञान लेना चाहिये था कि क्या केंद्र सरकार इसको खत्म करने के संवैधानिक तरीके अपनाने के साथ ही किसी राज्य को केंद्र शासित बना सकती है? क्या संविधान इसकी इजाज़त देता है? उनका यह भी कहना है कि कोर्ट ने कैसे साॅलिसीटर जनरल के केवल मौखिक आश्वासन को मानकर यह फैसला दे दिया कि भविष्य में कश्मीर को फिर से पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जायेगा। क्या कोर्ट ने यह तय मान लिया कि 2024 के चुनाव के बाद मोदी सरकार ही फिर से जीतकर आयेगी और उसके साॅलिसीटर जनरल वही रहेंगे जो आज हैं और वही केंद्र सरकार की तरफ से कोर्ट में यह वादा कर अमल भी करायेंगे? दूसरा मुद्दा नारिमन ने यह उठाया है कि जिस तरह से केरल के गवर्नर 23 महीने से राज्य सरकार के तमाम बिलों को दबाये बैठे रहे और मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचने के बाद उन बिलों को विचार के लिये राष्ट्रपति के पास भेज देते हैं। उस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कोई निर्णायक एक्शन नहीं लिया। जस्टिस नारिमन यह भी कहते हैं कि जिस तरह से मीडिया को सेंसर किया जाता है। उस पर कोर्ट ने लोकतंत्र का चैथा स्तंभ माने वाले मीडिया को खुलकर संरक्षण नहीं दिया। मिसाल के तौर पर बीबीसी की चर्चित डाक्यूमेंट्री के बाद जब उसके कार्यालय पर आयकर का छापा पड़ा तो कोर्ट ने सो मोटो लेकर उसका बचाव नहीं किया। इलैक्ट्राॅरल बांड का मामला भी कोर्ट में लंबे समय से लटका हुआ है। लेकिन कुल चंदे का लगभग 90 प्रतिशत सत्ताधारी दल को जाने से चुनाव में लेवल प्लेयिंग फील्ड नज़र नहीं आता है। सवाल यह भी उठ रहा है कि सुप्रीम कोर्ट लोकतंत्र का महत्वपूर्ण अंग है। उस पर लोकतंत्र की रक्षा का दायित्व है। अगर वह सरकार के दबाव में या उसके समर्थन में निर्णय करने या उसके खिलाफ मामलों को टालने में लगा नज़र आयेगा तो जस्टिस नारिमन जैसे निष्पक्ष जज बेशक उंगली उठा सकते हैं। सिविल सोसायटी के लोग भी कोर्ट के निर्णयों की स्वस्थ आलोचना कर सकते हैं। लेकिन सवाल यह भी है कि जब जस्टिस नारिमन जैसे जज सेवा में थे तब उन्होेंने वो निर्णय क्यों नहीं किये जो आज वो सुप्रीम कोर्ट की दूसरी बैंचो द्वारा ना दिये जाने पर नाराज़गी दर्ज कर रहे हैं। इससे पहले जब स्वीडन के गोटेनबर्ग विश्वविद्यालय से जुड़ी संस्था वी डेम इंस्टीट्यूट ने अपनी 2020 की लोकतंत्र रिपोर्ट में भारत में लोकतंत्र दिन ब दिन कमज़ोर होने का दावा किया था तो उसको विदेशी संस्था की रिपोर्ट में पूर्वाग्रह होने का आरोप लगाकर सरकार ने खारिज कर दिया था। उस रिपोर्ट में उदार लोकतंत्र सूचकांक में भारत का स्थान 179 देशों में 90 वां बताया गया था। जबकि हमारे पड़ौसी देश श्रीलंका का 70 और नेपाल का 72 था। लेकिन संतोष की बात यह थी कि पाकिस्तान का 126 और बंगलादेश का 154 वां  स्थान था। यह रिपोर्ट डेटा चार्ट डेटा एनालिटिक्स ग्राफिक्स और मैप पर आधारित होने के साथ ही 3000 से अधिक विशेषज्ञों की सेवा 400 संकेतकों की कसौटी पर भारत के भी बड़ी संख्या में जानकारों को शामिल करके बनाने का दावा किया गया था। जिनको समाज सियासत और मीडिया की अच्छी समझ होती है। वी डेम का कहना था कि भारत में मोदी सरकार बनने से दो साल पहले ही मीडिया की स्वतंत्रता विचारों की विभिन्नता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सिविल सोसायटी की आज़ादी चुनावों की गुणवत्ता और शिक्षा का खुलापन कम होने लगा था। लेकिन केंद्र में 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद इन मामलों में बहुत तेज़ी से गिरावट आने लगी। संस्था का यह भी दावा था कि भारत अब लोकतंत्र न कहलाये जाने वाले देशों की श्रेणी में आने के बिल्कुल करीब पहंुच चुका है। यह बात पता नहीं कितनी सही है? लेकिन जिस तरह से विरोध व आलोचना करने वाले मीडिया सिविल सोसायटी स्वतंत्र विचारकों और विपक्ष को सरकार निशाने पर ले रही है और सुप्रीम कोर्ट उन मामलों पर या तो चुप्पी साध लेता है या फिर सरकार के पक्ष में फैसला देता नज़र आता है। उससे जस्टिस नारिमन जैसे जजों व अन्य लोगों को लोकतंत्र पर ख़तरा नज़र आ रहा है तो चिंता की बात है।    
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 14 December 2023

आकाश की बीएसपी

*बसपा: आकाश करंेगे अब ज़मीन से जुड़ी राजनीति ?
0 2008 में मायावती ने अपनी आत्मकथा ‘मेरे संघर्षमय जीवन का सफ़रनामा’ जारी करते हुए कहा था कि वह जब कभी भी अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित करेंगी वह उनके परिवार यानी रिश्तेदार नहीं होगा। लेकिन अब उन्होंने अपने सगे भतीजे आकाश आनंद को अपना सियासी वारिस बनाया है। बहनजी दूसरे दलों के परिवारवाद का भी विरोध करती रही हैं। लेकिन सब जानते हैं कि आज के नेताओं की कथनी करनी में अंतर होना कोई खास बात नहीं है। देखने वाली बात यह भी है कि बहनजी ने तेज़ी से रसातल में जा रही पार्टी की कमान अपने भतीजे को वरिष्ठ व अनुभवी बसपा नेताओं को किनारे करके सौंपने में तनिक भी संकोच नहीं किया।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी
     तुम आसमां की बुलंदी से जल्द लौट आना,
     मुझे ज़मीं के मसाइल पर बात करनी है।।
            बहनजी जिस राज्य में तीन बार भाजपा के सहयोग से व एक बार बसपा के बहुमत के बल पर यानी चार चार बार सीएम बनी उस यूपी में आज बसपा का मात्र एक एमएलए है। राजस्थान में उसके विधायकांे की संख्या 6 से घटकर 4 हो गयी जबकि एमपी और छत्तीसगढ़ में दो से शून्य हो गयी। तेलंगाना में उसका खाता तक नहीं खुला है। पूरे देश में आज बसपा की हालत खराब है। उसका ग्राफ दिन ब दिन गिरता जा रहा है। मान्यवर कांशीराम के समय के संस्थापक बसपा नेताओं आर के चैधरी सोनेलाल पटेल ओमप्रकाश राजभर व स्वामी प्रसाद मौर्य आदि की लंबी सूची है जिनको या तो मायावती ने पार्टी से निकाल दिया या वे अपनी उपेक्षा और अपमान से आहत होकर खुद ही पार्टी से अलग हो गये। जिन आकाश आनंद को माया ने अपना उत्तराधिकारी बनाया है। वह सबसे पहले 2017 में बसपा की एक रैली में सामने आये थे। उसके बाद उनको 2019 के आम चुनाव में चुनाव प्रबंधन और प्रचार की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी गयी। 2022 में आकाश ने माया के साथ कंधे से कंधा मिलाकर यूपी के विधानसभा चुनाव में काम किया। लेकिन नतीजा अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन रहा। आकाश ने डा. अंबेडकर के जन्म की वर्षगांठ पर राजस्थान में 13 कि.मी. लंबी स्वाभिमान संकल्प यात्रा भी निकाली। कुछ ही माह पूर्व माया ने आकाश को पार्टी का राष्ट्रीय समन्यक बनाया था। यह सही है कि आकाश ने लंदन से एमबीए की डिग्री हासिल की है। लेकिन उनको राजनीति का कोई विशेष ज्ञान व अनुभव नहीं है। उनको ऐसे दौर में बसपा की कमान मिलने जा रही है। जबकि बसपा तमाम उतार चढ़ाव देखने के बाद अब लगातार रसातल में जाती नज़र आ रही है। आकाश से आशा की जा रही है कि वह बसपा को अगर सीध्ेा आकाश की उूंचाई तक न भी ले जा सकें तो कम से रसातल में और नीचे जाने से रोककर उसे ज़मीन पर ला सकें। एक समय था जब बसपा यूपी में ही नहीं पूरी हिंदी पट्टी में दलितों की आवाज़ बन गयी थी। उसको कुछ सीट और सम्मानजनक वोट भी देश के कई राज्यों में मिलते थे। हालांकि वह आज भी राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा रखती है। लेकिन उसके जनाधार मंे बहुत तेज़ी से गिरावट आ रही है। बसपा की विचारधारा उसी दिन सवालों के घेरे में आ गयी थी जिस दिन उसने जिन वर्ग और जााति के खिलाफ दलितों के उत्पीड़न अन्याय और शोषण का आरोप लगाकर मोर्चा खोला। उनके साथ ही सत्ता की खातिर हाथ मिला लिया था। यह उसका वैचारिक दिवालियापन था। यही उसका शिखर काल था। वह बहुजन से सर्वजन की पार्टी बनने चली थी। लेकिन अल्पजन का दल बन गयी। यह एक शाॅर्ट टर्म गेम था। उसी दिन से बसपा की उल्टी गिनती शुरू हो गयी थी। बसपा ने अपने दूसरे नंबर के मज़बूत समर्थक मुस्लिम समुदाय को भी समय समय पर उपेक्षित अपमानित और आरोपित करके खो दिया। पिछली बार आम चुनाव में जब बसपा ने यूपी में सपा रालोद के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा तो उसका दलित वोट सपा को नहीं गया। लेकिन सपा का मुस्लिम वोट उसको थोक में मिलने से बसपा की ज़ीरो सीट बढ़कर दस हो गयीं। उसके बावजूद बहनजी ने मुसलमानों और सपा का अहसान मानने की बजाये बयान दिया कि बसपा को गठबंधन का कोई लाभ नहीं हुआ। जबकि सच यह है कि सपा को पहले की तरह पांच ही संसदीय सीट मिली थी। जिससे यह बात सपा कह सकती थी। लेकिन बसपा ने गठबंधन गलतबयानी कर तोड़ दिया। बहनजी के इस आत्मघाती एकतरफा और मनमाने फैसले की वजह राजनीतिक जानकार भाजपा का उनसे गोपनीय राजनीतिक गठबंधन मानते हैं। कांग्रेस ने तो कई बार खुलेआम कहा भी कि बसपा नेत्री करप्शन के आरोपों की चल रही जांच से जेल जाने के डर से भाजपा के दबाव में विपक्ष को नुकसान पहंुचाने के लिये काम कर रही हैं। इतना ही नहीं कई बार बहनजी ने मुसलमानों को लेकर उल्टे सीधे बयान दिये। उन्होंने हाल ही में हुए चार राज्यों के चुनाव में यहां तक कह दिया कि चाहे बीजेपी जीत जाये लेकिन कांग्रेस को नहीं जीतने देना है। बाद में उस विवादित व चर्चित बयान वाले वीडियो को बसपा ने कांग्रेस की चाल बताते हुए फर्जी बता दिया। हाल ही में बसपा ने अपने मुस्लिम सांसद दानिश अली को भाजपा की पूंजीपति समर्थक नीतियों का खुलकर विरोध करने पर पार्टी से निकाल दिया। इससे एक बार फिर बहनजी पर भाजपा को चोरी छिपे सपोर्ट करने का आरोप लगा। बसपा पर सड़क पर उतरकर आंदोलन न करने का भी आरोप लगता रहा है। सीएए से लेकर दलितों के खिलाफ हिंसा तक पर वह आंदोलन का हिस्सा बनने को तैयार नहीं होती है। यहां तक कि बसपा जनहित के किसी मुद्दे पर धरना प्रदर्शन या ज्ञापन तक नहीं देती। जिससे आज जनता से उसका सरोकार खत्म होता जा रहा हैै। ज़ाहिर है कि बसपा केवल सत्ता की सियासत करती है। इसका मतलब वह अगर दस बीस साल तक सत्ता में नहीं आयेगी तो जनता का कोई काम भला या विकास नहीं कर सकती। अकसर यही देखने में आया है कि बसपा केवल तभी सड़क पर उतरती है। जब उसकी सुप्रीमो पर व्यक्तिगत हमला होता है। अपनी हार के कारणों का गंभीरता से पता लगाकर उनको दूर करने की बजाये बसपा कभी मतदाताओं तो कभी ईवीएम पर दोष मढ़ देती है। बसपा में कभी भी दूसरी रैंक के नेताओं को  पनपने नहीं दिया गया। जिसका नतीजा यह हुआ कि उसका कैडर भी धीरे धीरे उसका साथ छोड़ता गया। एक दौर था जब बसपा से अति पिछड़ा वर्ग भी जुड़ा था लेकिन जब बहनजी ने अपने कोर वोट दलित उसमें भी जाटव पर अधिक फोकस किया तो भाजपा ने गैर यादव ओबीसी की तरह गैर जाटव दलित को अपने पाले में खींचने में सफलता हासिल कर ली। ऐसा लगता है कि आकाश का बसपा में कोई विरोध नहीं करेगा क्योंकि अब बसपा में लोकतंत्र अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विचारों की विभिन्नता नहीं रह गयी है। अगर अपवाद के तौर पर कोई बसपा नेता आकाश का विरोध करेगा भी तो बहनजी उसको अपना पक्ष रखने का मौका देने की बजाये सीध्ेा बाहर का रास्ता दिखा देंगी। देखना यह है कि आकाश दलितों के कांग्रेस भाजपा या आज़ाद समाज पार्टी की ओर जाने से रोकने को क्या नया करते हैं?      
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday 7 December 2023

कांग्रेस की सोच?

*कांग्रेस भाजपा का हिंदुत्व का एजेंडा खुद आगे बढ़ाती रही है ?* 
0हिंदुत्व भाजपा का कोर एजेंडा है। लेकिन कांग्रेस बार बार नरम हिंदुत्व अपनाकर भाजपा की पिच पर खेलकर भगवा दल के हाथ मज़बूत करके यह भूल करती है कि इससे भाजपा का कट्टर साम्प्रदायिक मुस्लिम विरोधी कुछ हिंदू वोट उसके साथ आ जायेगा। अगर पूर्व पीएम राजीव गांधी द्वारा बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाने से लेकर अयोध्या से चुनाव प्रचार शुरू करने की भूल को फिलहाल छोड़ भी दिया जाये तो हाल ही में तीन राज्यों के चुनाव में कांग्रेस के नेता कमलनाथ के इस बयान को कैसे अनदेखा किया जाये कि राममंदिर बनाने के लिये कांग्रेस ने ही शुरूआत की थी। छत्तीसगढ़ और एमपी की कांग्रेस सरकारें रामगमनपथ कौशल्या माता मंदिर निर्माण और अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर लगातार चुप्पी साध रही थीं।    
   *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
     न इधर उधर की बात कर यह बता काफ़िला क्यों लुटा,
     मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।।
  पीएम मोदी ने तीन राज्यों में भाजपा के चुनाव जीतते ही सबसे पहले भाषण में जो तीन अहम बातें कहीं वे ये हैं कि जनता ने तुष्टिकरण वंशवाद और करप्शन के खिलाफ जनादेश दिया है। सबका साथ सबका विकास भाजपा का केवल नारा है। भाजपा किस तरह की राजनीति करती है। यह किसी से छिपा नहीं है। तुष्टिकरण से उनका मतलब कांग्रेस व अन्य सेकुलर दलों द्वारा मुसलमानों को उनके हिस्से से अधिक सरकारी सुविधायें उपलब्ध् कराना है। जोकि केवल चुनावी जुमला और दुष्प्रचार है। वंशवाद से उनका मतलब कांग्रेस पर गांधी परिवार का खानदानी कब्ज़ा है। भ्रष्टाचार को लेकर मोदी सरकार जिस तरह से चुनचुनकर जानबूझकर विपक्षी नेताओं को ही निशाना बनाती रही है। उसका मतलब यही निकलता है कि भाजपा और उसके घटक तो दूध के ध्ुाले हैं। काफी समय पहले ही कांग्रेसमुक्त भारत का नारा देने वाली भाजपा का मकसद रहा है कि कांग्रेस को हिंदू विरोधी देश विरोधी और विकास विरोधी मुस्लिम समर्थक बेईमान पार्टी बनाकर पेश किया जाये। इस अभियान में भाजपा काफी हद तक सफल भी रही है। इसका अंजाम ये हुआ है कि कांग्रेस बार बार हिंदुओं को यह अहसास दिलाने का प्रयास करती रहती है कि वह भी भाजपा की तरह हिंदू समर्थक दल ही है। राहुल गांधी भाजपा के इस जाल में फंसकर खुद को पक्का सच्चा हिंदू साबित करने के लिये गुजरात चुनाव के दौरान मंदिर मंदिर दर्शन करने गये। उन्होंने अपनी जाति और गौत्र भी मीडिया के सामने बार बार सार्वजनिक किया। भगवा वस्त्र भी धारण किये। पूजा पाठ और तिलक भी ज़ाहिर किया। लेकिन इस सब से ना तो कांग्रेस का कोई राजनीतिक लाभ हुआ और ना ही भाजपा को कोई नुकसान हुआ। उल्टा भाजपा ने यह व्यंग्य ज़रूर किया कि भाजपा ने हिंदुत्व को राजनीति का ऐसा केंद्र बना दिया है कि जिसकी उपेक्षा वो दल भी नहीं कर सकते जो पहले केवल टोपियां लगाकर रोज़ा अफ़तार ईदगाह और मस्जिद व मज़ारों पर जाकर खुद को सेकुलर दिखाया करते थे। यह बात सच भी थी। इसका सियासी फायदा भी भाजपा को मिला। इतिहास गवाह है कि कांग्रेस की सरकारों ने कभी भाजपा संघ या उसके हिंदुत्व अभियान से सख्ती से निबटने को ठोस कार्यवाही करने की हिम्मत या इरादा ज़ाहिर नहीं किया बल्कि वह उसके साथ नूरा कुश्ती लड़कर अपने दो मज़बूत वोटबैंक मुसलमानों और दलितों को डराकर वोट लेकर राज करती रही। इसके बाद कांग्रेस शासित राज्यों में नरम हिंदुत्व अपनाकर हिंदुओं को यह संदेश देने की कोशिश की गयी कि कांग्रेस भी भाजपा से कुछ कम हिंदूवादी नहीं है। साथ ही कांग्रेस सरकारों ने मुसलमानों के मामलों में दूरी बनानी शुरू कर दी। हद यह हो गयी कि जब राजस्थान के एक मुस्लिम युवक की हरियाणा में दर्दनाक माॅब लिंचिंग हुयी तो राजस्थान सरकार ने हत्यारों के हिंूद संगठनों से जुड़े होने की वजह से अधिक सख्ती नहीं दिखाई। उधर छत्तीसगढ़ में हिंदू मुस्लिम दंगे में साहू जाति के एक युवक की हत्या होने पर उसके परिवार को 50 लाख मुआवज़ा और सरकारी नौकरी तत्काल दी गयी। लेकिन इस हत्या के खिलापफ बंद के दौरान दो मुस्लिम लोगों को भीड़ द्वारा पीट पीटकर मार देने पर कांग्रेस सरकार ने ना तो सख़्त कानूनी कार्यवाही की ना ही उनके परिवार को नौकरी या मुआवज़ा दिया। पीड़ित परिवार बाद में जब हाईकोर्ट गया तब मजबूरी में सरकार ने कुछ मुआवज़ा दिया। ऐसे ही हिंदूवादी संगठन समय समय पर ईसाई आदिवासियों के खिलाफ सामूहिक बहिष्कार उनके मुर्दे दफन करने का विरोध और उनसे किसी भी प्रकार का लेनदेन करने वालों का विरोध खुलेआम करते रहे लेकिन हिंदू वोट के मोह में कांग्रेस सरकार चुपचाप तमाशा देखती रही। जब कभी मुसलमानों पर अत्याचार अन्याय या पक्षपात हुआ कांग्रेस सरकार चुप्पी साधकर ना केवल उनके मामलों में दूरी बनाती नज़र आई बल्कि उनके लिये सहायता सहयोग या विशेष योजनाओं से भी परहेज़ किया जाता रहा। हद यह हो गयी कि कांग्रेस सरकार के मंत्री विधायक और अधिकारी तक अल्पसंख्यकों के यहां उदघाटन शिलन्यास और विवाह समारोह में कम से कम जाने लगे। जिससे उन पर मुस्लिम तुष्किरण और हिंदू विरोधी होने का आरोप ना लगे। ऐसा करते हुए उनको यह भी भरोसा बना रहा कि मुसलमान नाराज़ होकर भी उनको ही वोट करेगा। उसके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है लेकिन अगर हिंदू नाराज़ हुआ तो वह न केवल भाजपा के साथ बना रहेगा बल्कि जो आज कांग्रेस के साथ है वह भी धीरे धीरे भाजपा के पाले में जा सकता है। सच यह है कि आंकड़े बता रहे हैं कि बहुत थोड़े से ही सही हर सीट पर कई हज़ार मुसलमान कांग्रेस के अहंकार और अन्य सेकुलर दलों से तालमेल ना करने से खफा होकर सपा बसपा आप या अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ गये हैं। यह अजीब बात है कि एक तरफ कांग्रेस नेता राहुल गांधी पूरे देश में घूम घूमकर भारत जोड़ो यात्रा के दौरान मुहब्बत की दुकान खोलते रहे और दूसरी तरफ उनकी पार्टी कांग्रेस के राज में उसकी सरकारें मुसलमानों के साथ उनके जायज़ मामलों पर भी दूरी बनाकर इसलिये चुप्पी साधे रहीं जिससे हिंदू वोट उनसे नाराज़ होकर भाजपा के साथ ना चला जाये। उनको यह बात समझ नहीं आई कि हिंदुत्व भाजपा का मिशन है। इस मिशन को चाहे जो आगे बढ़ाये वह भाजपा की सफलता और उसी की उपलब्धि माना जायेगा और ज़ाहिर सी बात है। इसका श्रेय लाभ और चुनाव में वोट भी भाजपा को ही मिलेगा। कांग्रेस आज तक यह तय नहीं कर पा रही कि उसकी मूल विचारधारा सोच और मकसद है क्या? वह संघ परिवार के प्रोपेगंडे का विरोध खंडन और काट किस तरह से करे?    
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Monday 4 December 2023

3 बीजेपी एक कांग्रेस

*कांग्रेस भाजपा का मुक़ाबला लोकसभा चुनाव में भी नहीं कर पायेगी !*  

0 पांच नहीं चार नहीं बल्कि हमारा कहना है कि भाजपा का मुकाबला तीन राज्यों में सीधे कांग्रेस से था। इन सबमें वह जीतकर अपना मकसद सौ प्रतिशत हासिल कर चुकी है। हालांकि 2018 के इन राज्यों के चुनाव नतीजों को देखें तो पता चलता है कि इन तीनों में कांग्रेस जीती थी। लेकिन 6 माह बाद ही हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इन राज्यों की कुल 65 संसदीय सीटों में से 62 जीत ली थीं। कहने का मतलब यह है कि राज्यों और केंद्र के चुनाव में मुद्दे अलग अलग हो सकते हैं। हालांकि आगे बदलाव भी हो सकता है लेकिन इसके आसार नज़र नहीं आ रहे हैं। अब तो भाजपा का मनोबल पहले से अधिक बढ़ गया है। कांग्रेस के साथ ही इंडिया गठबंधन भी कमज़ोर हुआ है।    

      *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 

     ‘‘भाजपा ने तलाश ली विपक्षी ओबीसी सियासत की काट’’ कुछ दिन पहले जब हमने यह लेख लिखा और यह शक जताया कि तीन दिसंबर को 5 राज्यों के चुनाव नतीजों से यह साफ हो जायेगा कि इन राज्यों के चुनाव में इंडिया गठबंधन नाकाम हो गया है। इसकी वजह सपा का एमपी में 70 सीटों पर कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ना था। साथ ही यह भी आगाह किया था कि कांग्रेस की जिन समाज कल्याण की योजनाआंे को भाजपा चुनावी रेवड़ी बताकर पहले आलोचना करती आ रही है। अब उनको खुद भाजपा न केवल अपना रही है बल्कि चुनाव जीतने को उससे भी आगे बढ़कर लागू करने का दावा कर रही है। हमने यह भी जता दिया था कि इन राज्यों में चुनाव भाजपा अपने स्थानीय नेतृत्व की बजाये पीएम मोदी की छवि के सहारे लड़ रही है। जिससे भाजपा का मुकाबला कांग्रेस या समूचा विपक्ष भाजपा के संगठन मीडिया चुनावी चंदे सीबीआई ईडी इनकम टैैक्स काॅरपोरेट सरकारी मशीनरी चुनाव आयोग पुलिस और किसी हद तक न्यायपालिका का दुरूपयोग करने से रोकने में नाकाम रहेगा। हमने इस आर्टिकिल में यह भी बताया था कि विपक्ष चाहे कुछ कर ले वह पीएम मोदी की छवि महामानव, हिंदू राजा और लोकप्रिय हिंदूवादी नेता की बन जाने का किसी भी तरह से मुकाबला नहीं कर सकता। इस लेख से हमारे कुछ सेकुलर साथी नाराज़ भी हुए। उनका कहना था कि आप भाजपा आरएसएस और पीएम मोदी को कुछ अधिक ही बढ़ा चढ़ाकर पेश करते हैं। उनको लगता था कि अब हिंदुत्व का जादू उतार पर है। जबकि हमें पता है कि अभी तो मुसलमानों के ही एक वर्ग के सर से पूरी दुनिया में इस्लामी राज कायम करने का भूत नहीं उतरा तो हिंदुओं के एक वर्ग के दिमाग से हिंदुत्व विश्वगुरू और हिंदूराज का भूत मात्र 9 साल में कैसे उतर सकता है? अमित शाह तो दावा करते हैं कि भाजपा 50 साल तक राज करेगी लेकिन हमें भी इतना तो लगता ही है कि भाजपा कम से 25 साल आराम से पूरे कर लेगी? आगे क्या होगा यह कांग्रेस कम्युनिस्ट और क्षेत्रीय दलों की राजनीति के साथ जनता के मूड पर निर्भर करेगा कि वह धार्मिक मुद्दों को आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर कब तक नुकसान उठाकर भी प्राथमिकता देगी? उसको परउत्पीड़न में कब तक परम आनंद आता रहेगा? वह पड़ौसी मुल्कों की धार्मिक कट्टरता से तबाही का कब सबक सीखेगी? लिखने के लिये भाजपा की जीत और कांग्रेस की हार के अनेक कारण कई दिनों तक चुनाव विशेषज्ञ खोज खोज कर आपको बताते रहेंगे। उनमें से कुछ सही भी होंगे। लेकिन सबसे बड़ी बात जो इस समय दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ पढ़ी जा सकती है वह यह है कि भाजपा ने हिंदुत्व के साथ ही विपक्ष खासतौर पर कांग्रेस की जनहित की योजनाओं को अपनाकर हिमाचल और कर्नाटक की हार का न केवल कांग्रेस से बदला ले लिया है बल्कि उसने अपना कुछ कुछ कांग्रेसीकरण करके सियासत में लंबी पारी खेलने का मन भी बना लिया है। अप्रत्यक्ष रूप से देखा जाये तो यह विपक्ष यानी कांग्रेस के एजेंडे की जीत भी मानी जा सकती है। लेकिन कांग्रेस और विपक्ष की अधिकांश पार्टियों पर भाजपा ने जो मुस्लिम तुष्टिकरण और हिंदू विरोधी होने का आरोप बार बार लगाया है। वह हिंदुओं के एक वर्ग के दिमाग में घर कर गया है। उनको यह प्रचार भी सही लगने लगा है कि भाजपा के अलावा कोई भी विपक्षी दल आतंकवाद पर इतना कड़ा स्टैंड नहीं ले सकता जैसाकि भाजपा ने इस्राइल और हमास के मामले में खुलकर लिया है। हम जानबूझकर यहां उन योजनाओं की विस्तार से चर्चा नहीं करना चाहते जिनको आधार बनाकर भाजपा ने कांग्रेस को छत्तीसगढ़ जैसे उन राज्यों में भी धूल चटा दी है। जहां कांग्रेस न केवल बहुत आराम से चुनाव जीतती नज़र आ रही थी बल्कि भाजपा समर्थक गोदी मीडिया के एक्ज़िट पोल भी सरकार को नाराज़ करने का जोखिम मोल लेकर यह बता रहे थे कि वहां कांगे्रस बहुत आगे है। जिस तरह से पिछली बार मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद पार्टी में सिंधिया की बगावत का सियासी लाभ उठाकर भाजपा ने कांग्रेस की सरकार पूरी बेशर्मी और सत्ता का दुरूपयोग कर गिरा दी थी। उसकी या लगभग दो दशक से चल रही भाजपा सरकार की एंटी इनकम्बैंसी का कोई लाभ या जनता की सहानुभूति भी कांग्रेस को नहीं मिली। कांग्रेस यह भी नहीं समझ पाई कि एमपी में सिंधिया और राजस्थान में पायलट जैसे युवा नेतृत्व को दरकिनार कर कमलनाथ व अशोक गहलौत जैसे बूढे़ और चुके हुए नेताओं को आगे कर सीएम बनाकर और मोदी के मुकाबले चुनाव मैदान में उतारकर उसने भारी भूल की है। हालांकि आंकड़े गवाह हैं कि 2018 के मुकाबले कांग्रेस का वोट शेयर ना के बराबर ही घटा है लेकिन भाजपा ने बेहतर चुनाव मैनेजमेंट के द्वारा अपना वोटबैंक कांग्रेस से कहीं अधिक बढ़ा लिया। जिससे कांग्रेस को इस अनपेक्षित और करारी हार का सामना करना पड़ा है। मिसाल के तौर पर राजस्थान में पिछले चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 41 था जो इस बार मामूली घटकर 39.53 हुआ। जबकि भाजपा का 41.1 से बढ़कर 41.69 हुआ है लेकिन दोनों की सीट में भारी अंतर आ गया है। ऐसे ही एमपी के चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 41 से घटकर 40.43 हुआ लेकिन भाजपा का 41.1 से बढ़कर सीधे 48.61 तक पहुंच गया जिससे सीटों की संख्या मंे भारी उलटफेर हो गया है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 43.1 से घटकर 42.19 हुआ जबकि भाजपा का 33 से बढ़कर 46.28 हो गया। जिससे उसकी सीट 15 से बढ़कर 54 और कांग्रेस की 68 से घटकर 35 रह गयीं। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा ने अपना वोट अन्य गैर कांग्रेस दलों से छीनकर बढ़ाया है। कांग्रेस के लिये यही संतोष की बात हो सकती है कि उसने दक्षिण के एक ऐसे राज्य में सत्ता हासिल कर ली है। जिसमंे कुछ माह पहले तक भाजपा उससे आगे लग रही थी। अंत में एक बात और कि जिन उत्तर भारत के राज्यों में भाजपा का पहले ही दबदबा रहा है। उनमें एक बार फिर से उसने ज़बरदस्त वापसी करके यह साबित कर दिया है कि उसको अब आज़ादी के बाद के दौर की कांग्रेस जैसा लंबी पारी खेलने का मौका मिल गया है।   
*नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Sunday 26 November 2023

जातीय जनगणना और भाजपा

*भाजपा ने तलाश ली विपक्षी ओबीसी सियासत की काट ?* 

0 तीन दिसंबर को जब 5 राज्यों के चुनाव के नतीजे आयेंगे तो कुछ बातें साफ हो जायेंगी। इंडिया नामक विपक्षी गठबंधन ने भाजपा के खिलाफ जो साझा उम्मीदवार खड़ा करने का दावा किया था। वह इन राज्यों में नाकाम हो गया है। लोकसभा चुनाव में भी सफल होगा यह कोई दावे से नहीं कह सकता। इसके साथ ही भाजपा ने विपक्ष खासतौर पर कांग्रेस के पांच गारंटी के जवाब में उससे भी आगे बढ़कर लोकलुभावन चुनावी घोषणायें करने में बाज़ी मारने का दांव चला है। विपक्ष का अंतिम हथियार जातीय जनगणना का पहले विरोध करने वाली भाजपा ने वक़्त की नज़ाकत को देखते हुए कहना शुरू कर दिया है कि वह इसके खिलाफ़ नहीं रही है। साथ ही उसने पिछड़ों में अति व अत्यंत पिछड़ों का मुद्दा उठाकर इसकी काट तलाश ली है।    

  *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 

      2024 के संसदीय चुनाव में भाजपा नीत राजग और कांग्रेस नीत इंडिया गठबंधन में निर्णायक जंग होना तय माना जा रहा है। लेकिन 5 राज्यों के चुनाव में जिस तरह इंडिया के विपक्षी घटक दलों में आपस में जूतों में दाल बंटती नज़र आई है। उससे साफ है कि लोकसभा चुनाव में भी इंडिया के घटक दलों की एकता रेगिस्तान में पानी तलाशने की कवायद से अधिक साबित होना मुश्किल है। खासतौर पर जिस तरह से सपा और कांग्रेस के बीच एमपी के विधानसभा चुनाव को लेकर तलवारें खिंची है। उससे यह भी पता लग गया है कि विपक्षी गठबंधन के दलों के हित देश और जनता से कहीं उूपर हैं। शायद यह कम था कि इंडिया गठबंधन से बसपा बीआरएस वाईएसआर कांग्रेस बीजेडी अन्नाद्रमुक एमआईएम टीडीपी जनतादल सेकुलर आदि कई भाजपा विरोधी दल पहले ही अलग हैं। इसके साथ ही सपा टीएमसी आम आदमी पार्टी और कम्युनिस्ट उसमें शामिल होते हुए भी जिस तरह से एक एक सीट के लिये अभी से संघर्ष करते नज़र आ रहे हैं। उससे ज़ाहिर है कि उनकी लड़ाई भाजपा से अधिक खुद आपस में ही होनी है। हो रही है। और आगे भी होगी। इसकी सबसे बड़ी वजह यह लगती है कि विपक्ष के लगभग सभी दलों का टारगेट अब पिछड़ी जातियां दलित और अल्पसंख्यक काॅमन हो चुके हैं। जिन जनहित की सुविधाओं को कल तक भाजपा रेवड़ी बांटना कहती थी। उनको उसने विपक्ष से भी दो हाथ आगे बढ़कर अपनाना शुरू कर दिया है। यह अलग सवाल है कि उसके दावों पर जनता कितना भरोसा करती है? मतदाताओं का यह शक अपनी जगह वाजिब लगता है कि भाजपा ने ये गारंटी सस्ती व निशुल्क सुविधायें या खातों में सीधे धन भेजने की कवायद विपक्ष के ऐसे वादों से पहले उन राज्यों में क्यों अंजाम नहीं दीं, जहां उसकी राज्य सरकारें पहले से चल रही हैं। साथ ही पुरानी पेंशन स्कीम विपक्ष ने भाजपा के गले की फांस बना दी है। हिमाचल और कर्नाटक में तो उसके कांगे्रस से हारने की बड़ी वजहों में से एक यही मानी जा रही है। इसके लिये बीच का रास्ता निकालने को भाजपा सरकार ने एक उच्च स्तरीय कमैटी भी बना दी है। लेकिन लगता नहीं है कि सरकारी मशीनरी और टीचर्स बिना शर्त पुरानी पेंशन बहाली से कम पर मान सकते हैं। कोई माने या ना माने यह तो लगता ही है कि भाजपा का हिंदुत्व का मुद्दा अब उतना कारगर नहीं रहा जितना वह 2014 तक चुनाव में हुआ करता था। हालांकि इस सच से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हिंदुत्व और राममंदिर अभी भी भाजपा को एक सीमित ही सही लेकिन एक वर्ग का वोट दिलाने में सहायक बन रहे हैं। इसके साथ ही भाजपा ने सत्ता मीडिया और काॅरपोरेट के द्वारा पीएम मोदी की छवि महामानव, लोकप्रिय हिंदूवादी नेता और हिंदूराज का सूत्रपात करने वाले राजा की बना दी है। जिसका उसको काफी बड़ा लाभ वोटबैंक के तौर पर मिल रहा है। साथ ही लाभार्थी वर्ग की एक नई फौज भी केंद्र और राज्य की भाजपा सरकारों ने अपने पक्ष में खड़ी कर दी हैं। लेकिन करप्शन महंगाई और बेराज़गारी का उसके पास कोई ठोस जवाब आज भी नहीं है। साथ ही इनकम टैक्स सीबीआई और ईडी को जिस तरह से चुनचुनकर विपक्षी नेताओं के पीछे लगाया जा रहा है। साथ ही करप्ट विपक्षी नेताओं के भाजपा में शामिल होने पर उनके खिलाफ पहले से चल रहे मामले खत्म कर देना या उनको ठंडे बस्ते में डाल देना जनता के एक वर्ग को बुरा लग रहा है। लेकिन भाजपा के लिये सबसे बड़ी समस्या बनने जा रहे पिछड़ों की जनगणना का मामला अब उल्टा विपक्ष के लिये मुसीबत बन सकता है। इसकी वजह यह है कि भाजपा ने जिस तरह से पहले यादव माइनस ओबीसी और जाटव मानइस दलित का नारा देकर सपा बसपा को यूपी के चुनाव में और आरजेडी को बिहार में निशाने पर लिया था। ठीक उसी तरह अब भाजपा ने यह समझ लिया है कि वह न तो पिछड़ों की जनगणना की मांग को लंबे समय तक टाल सकती है और ना ही ओबीसी की गिनती होने पर उनके बढ़े हुए आरक्षण की मांग की उपेक्षा कर पायेगी। इसलिये भाजपा सरकार ने बहुत पहले जो पिछड़ों के आरक्षण की समीक्षा करने को रोहिणी कमीशन बनाया था। उसकी रिपोर्ट वह सार्वजनिक कर यह दांव चलने जा रही है कि पिछड़ों के नाम पर जो 27 प्रतिशत आरक्षण मिला उसका बड़ा हिस्सा बहुत छोटी पिछड़ी यादव जैसी जाति हड़प कर गयी। कमीशन ने बड़ी बारीकी से जांच कर यह सिफारिश की है कि पिछड़ों की तीन कैटेगिरी पिछड़ा अति पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ा बनाकर उन तीनों को मिलने वाले आरक्षण का प्रतिशत अलग अलग तय किया जाये। इस तरह से भाजपा पिछड़ों मेें ही आरक्षण को लेकर सियासत तेज़ करने जा रही है। भाजपा ऐसा करके यह बताना चाहेगी कि पिछड़ों की गिनती या उनका आरक्षण बढ़ाने से अधिक उनको पहले से मिल रहे आरक्षण को न्यायसंगत तरीके से उन तक उनकी आबादी के अनुपात में ठीक से पहुंचाने की ज़रूरत है। इस मामले में कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक ना करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को भी हथियार बनायेगी। साथ ही जिस तरह से भाजपा सरकार चुनाव आयोग मीडिया चुनावी बांड प्रशासनिक मशीनरी पुलिस और न्यायपालिका कारपोरेट का अपने पक्ष में खुलकर राजनीतिक लाभ लेने के लिये दुरूपयोग कर रही है। उससे इंडिया की लड़ाई उसके खिलाफ एक के सामने एक उम्मीदवार ओबीसी की गिनती और जनहित की गारंटी भी अब फीकी पड़ती नज़र आने लगी है। 

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

सुब्रत राय सहारा

*सुब्रत राय सहारा : हम थे जिनके सहारे, वो हुए ना हमारे!* 

0 जिस इंसान ने अपने बेटे की 500 करोड़ से अधिक की एतिहासिक शादी की। जिस शादी में तत्कालीन पीएम वाजपेयी जैसे कई बड़े नेता अनेक केंद्रीय मंत्री लगभग सभी मुख्यमंत्री दर्जनों विपक्षी नेता काॅरपोरेट जगत फिल्म जगत और लगभग हर क्षेत्र की प्रमुख हस्तियां शामिल हुयीं। वीवीआईपी बारातियांे को लाने ले जाने के लिये थोक में चार्टर्ड प्लेन उपलब्ध कराये गये। अमिताभ बच्चन जैसे सदी के महान कलाकार जिस शादी को यादगार बनाने के लिये अपने परिवार और दूसरे जाने माने अभिनेताओं के साथ मुलायम सिंह और अमर सिंह की मौजूदगी में नाच रहे हों। उसके बारे में और क्या लिखा जाये। जब मुश्किल हालात के चलते वही बेटा अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने विदेश से नहीं आ सका। इसे दुखद विडंबना ही कहेंगे।     

    _-इक़बाल हिंदुस्तानी_ 

     1948 में बंगलादेश के ढाका में पैदा हुए सहारा ग्रुप के मुखिया सुब्रत राय सहारा का पिछले दिनों निधन हो गया। उन्होंने अपने पिता के निधन के बाद परिवार की ज़िम्मेदारी अपने सर पर आने के बाद स्कूटर से दुकान दुकान नमकीन बेचने का काम 2000 रूपये की पूंजी से शुरू किया था। उन्होंने नमकीन सप्लाई करते करते सोचा क्यों ना दुकानदारों की बचत को जमा करने के लिये कोई चिटफंड कंपनी शुरू की जाये। 1978 में उन्होंने जब यह कंपनी शुरू की तो दुकानदारों को उसमें कम से कम एक रूपया तक जमा करने की सुविधा दी। कुछ समय में ही उनका ध्ंाधा इतना अच्छा चला कि उन्होंने सहारा नाम की कंपनी का टेकओवर कर लिया। फिर सुब्रत राय ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। देखते देखते ही उनकी कंपनी में 11 लाख से अधिक कर्मचारी अधिकारी और एजेंट जुड़ गये। एक समय ऐसा आया जब सहारा ग्रुप की विभिन्न कंपनी में 13 करोड़ से अधिक लोगों का धन जमा हो गया। इस दौरान सहारा ने समाजसेवा देशभक्ति पर्यावरण बचाओ गरीब कन्याओं की शादी और राजनीतिक हस्तियों से अपने रिश्ते मज़बूत बनाकर देश में सहारा समूह की धाक जमा दी। उन्होंने सहारा स्पाॅन्सर्ड क्रिकेट हाॅकी टीम एयरलाइन मीडिया चैनल अखबार फाॅर्मूला वन की टीम सहारा सिटी सहारा फिल्म सिटी झीलें यानी तरह तरह के सहारा प्रोडक्ट और 10 शहरों में 764 एकड़ ज़मीनें खरीदकर सहारा गु्रप को आसमान पर पहुंचा दिया। सहारा में निवेश करने वालों को 30 से 40 प्रतिशत का रिटर्न देने के लिये उन्होंने अधिक से अधिक लोगों का निवेश हासिल करने का अभियान चला रखा था। जब जमा धन की मयाद पूरी हो जाती तो उसको लौटाने की बजाये आगे सहारा परिवार सिल्वर और गोल्डन नाम की और आकर्षक व अधिक रिटर्न देने वाली स्कीमों में फिर से निवेश कराने पर जोर देता था। अधिकांश परिचित निवेशक इससे सहमत होकर आगे फिर से पुरानी रकम को और बढ़ाकर निवेश को तैयार भी हो जाते थे। यह वह दौर था जब सहारा का सिक्का चल रहा था। उनकी साख आसमान छू रही थी। फिर एक दिन आया जब सहारा का कारोबार अपने उत्कर्ष यानी सेचुरेशन पर पहंुच गया। यहां से और आगे जाने का रास्ता नहीं था। उस दौर में सहारा आज के अंबानी अडानी से भी आगे नज़र आते थे। उधर जैसा कि होता है। उनके प्रशंसकों की तादाद बढ़ने के साथ ही उनके विरोधी प्रतिद्वन्द्वी और उनकी दिन दूनी रात चैगुनी प्रगति से खार खाये चंद राजनेता व अधिकारी की सूची भी दिन ब दिन लंबी होती जा रही थी। 2009 में सहारा ने अपनी रियल स्टेट कंपनियों के नाम से 24000 करोड़ के बाॅन्ड जारी किये। 3 करोड़ से अधिक लोगों ने इनके लिये आवेदन किया। बस यहीं से सहारा के बुरे दिन की शुरूआत हो गयी। हुआ यह कि सत्ता और तमाम बड़े लोगों की नज़दीकी के चलते सहारा ग्रुप ने बाॅन्ड जारी करने में सेबी के नियमों का पूरी तरह से पालन नहीं किया। इंदौर के एक निवेशक रोशनलाल ने सहारा की शिकायत नेशनल हाउसिंग बैंक काॅरपोरेशन को कर दी। सहारा को एनएचबीसी का नोटिस आया। लेकिन सहारा ने उसको यह कहकर कोई भाव नहीं दिया कि यह काम आपका नहीं सेबी का है। बैंक ने वह नोटिस सहारा का अहंकारी जवाब और अपनी जांच की सिफारिश सेबी को भेज दी। सेबी ने जब सहारा से इस बाबत जानकारी मांगी तो सहारा ग्रुप अपनी अकड़ में एक बड़ी भूल कर गया। उसने 127 ट्रक में 31669 कार्टन रखकर कागजात सेबी के पास भेजकर चुनौती दी कि पढ़ सकते हो तो इन डाक्यूमंेट को चैक कर के देख लो किस किस ने क्या जमा किया है? इतने ट्रक एक साथ सेबी के आॅफिस के सामने लग जाने से पूरे मुंबई में जाम लग गया। मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज चली तो मामला तूल पकड़ गया। उधर सेबी के पास सहारा ग्रुप की दो कंपनी की पहले ही शिकायत पहंुच चुकी थी। सहारा पर निवेशकों का भुगतान समय पर करने का दबाव बढ़ रहा था। ऐसे में सहारा ने 24000 करोड़ का पब्लिक इश्यू लाने का फैसला किया। लेकिन सेबी ने इसकी अनुमति ना देकर उल्टा निवेशकों का धन 15 प्रतिशत ब्याज के साथ तत्काल वापस करने का सहारा को अल्टीमेटम दे दिया। सहारा इसके खिलाफ कोर्ट पहुंच गया। लेकिन उसने कोई राहत ना देते हुए यह और पूछ लिया कि बताओ आपके पास पैसा किस किस का है? सेबी को जांच में पता लग चुका था कि असली निवेशक बहुत कम थे। 4600 निवेशक ही पैसा वापस लेने आये। जिससे यह शक और बढ़ता गया। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि सहारा आगे लोगों का धन जमा नहीं करेगा। जो अब तक जमा किया है। वह धन सेबी को देगा। सेबी निवेशकों को वापस देगा। 2014 में जब आदेश का पालन नहीं हुआ तो सहारा प्रमुख को कोर्ट ने जेल भेज दिया। सहारा के सारे खाते सीज़ कर हर तरह का लेनदेन प्रोपर्टी की खरीद फरोख्त बंद हो गयी। दरअसल 1996 में भी आयकर के एक असिस्टेंट कमिश्नर ने सहारा को एक नोटिस भेजकर यह पूछने की हिमाकत की थी कि वह बताये कि उसके पास किसका कितना धन लगा हुआ है? सहारा ने उसका जवाब अगले दिन देश के लगभग सभी बड़े अखबारों में पूरे पेज का विज्ञापन छापकर लिखा था कि हमारे यहां अटल बिहारी वाजपेयी नरसिम्हा राव चन्द्रशेखर मुलायम सिंह पीए संगमा कांशीराम मनमोहन सिंह बेनी प्रसाद जनेश्वर मिश्र कलराज मिश्र कमलनाथ राजेश पायलट जैसे लोगों का पैसा जमा है। किसी भी नेता ने इसका खंडन भी नहीं किया। इस एड के छपने से देश में हंगामा मचा। सरकार भी हिल गयी। उसके बाद उस असिस्टेंट कमिश्नर के साथ ही उसके बोस को भी दो माह की जबरन छुट्टी पर सज़ा के तौर पर भेज दिया गया। नये आईटी कमिश्नर ने उस मामले की आगे जांच करने की बजाये लीपापोती कर उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। हालांकि मामला एक बार फिर से तूल पकड़ने पर वीवीआईपी डिपोज़िट की जांच की खानापूरी कर उसी साल सब कुछ ओके होने की क्लीनचिट दे दी गयी। लेकिन एक के बाद एक झटका लगने से सहारा समूह जैसे फर्श से अर्श तक पहुंचा था वैसे ही अर्श से फर्श पर वापस आ गया। इसीलिये कहते हैं कि मंज़िल सही होने के साथ ही उस तक पहुंचने के रास्ते भी सही होने चाहिये वर्ना आप कितने ही बड़े कितने ही ताकतवर और कितने ही धनी क्यों ना हों एक समय ऐसा भी आता है। जब आप जिनका सहारा बनते हैं वही आपको बुरे समय में सहारा देने तक नहीं आते हैं।

 *0 बुलंदी पर पहंुचना कोई कमाल नहीं,

  बुलंदी पर ठहरना कमाल होता है।* 

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 9 November 2023

मराठा आरक्षण

मराठा आंदोलन: रिज़र्वेशन नहीं मार्गदर्शन की ज़रूरत !

0 महाराष्ट्र में मराठा समुदाय की 33 प्रतिशत आबादी है। प्रदेश के अब तक बने कुल 16 में से 11 मुख्यमंत्री मराठा ही बने हैं। वर्तमान सीएम और डिप्टी सीएम भी मराठा ही हैं। साथ ही मंत्रिमंडल के 29 में से आध्ेा मंत्री भी मराठा हैं। इतना ही नहीं राज्य की अधिकांश डीम्ड यूनिवर्सिटी और निजी काॅलेज भी मराठा ही चला रहे हैं। सवाल उठता है कि राजनीतिक और सामाजिक रूप से आगे माने वाले मराठा फिर भी आरक्षण क्यों मांग रहे हैं? 2018 में राज्य की भाजपा सरकार ने मराठा आरक्षण का बिल पास किया था लेकिन यह लागू होने से पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने ना तो मराठा जाति को पिछड़ा माना और ना ही कोई असमान्य परिस्थिति मानकर 50 प्रतिशत की इंदिरा साहनी केस में लगाई आरक्षण की सीमा तोड़ने की राज्य सरकार को अनुमति ही दी गयी।      

    _-इक़बाल हिंदुस्तानी_ 

      मनोज जारंग पाटिल के एक नये व अंजान नाम से आमरण अनशन से शुरू हुआ मराठा आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन फिलहाल तो दो माह के लिये राज्य सरकार को दी गयी मोहलत के साथ थम गया है। लेकिन आरक्षण की मांग को लेकर अब तक आधा दर्जन से अधिक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। हालांकि मराठा आरक्षण की मांग कई दशक पुरानी है लेकिन राज्य की पहली सरकारें इसको लगातार टालती रही हैं। 15 साल तक चली कांग्रेस एनसीपी की साझा सरकार अपने अंतिम दौर में इसको लागू करने का मन बना भी रही थी। लेकिन कांग्रेस ने अंतिम समय में ऐसा करने से यह सोचकर हाथ खींच लिये थे कि कहीं इससे उसके शासित अन्य राज्यों में अगर अगड़ी जातियों की इस तरह की मांगों ने सर उठाना शुरू कर दिया तो वह राजनीतिक रूप से लाभ कम नुकसान अधिक उठा सकती है। कुछ साल पहले महाराष्ट्र सरकार ने मराठा समाज की हालत जानने के लिये हाईकोर्ट के तीन रिटायर्ड जजों का आयोग बनाया था। इस आयोग की सिफारिश पर राज्य सरकार ने 16 प्रतिशत मराठा आरक्षण देने का फैसला लिया। लेकिन हाईकोर्ट ने इसे शिक्षा के क्षेत्र में 12 और सरकारी सेवा के लिये 13 प्रतिशत तक सीमित कर दिया। यही प्रस्ताव महाराष्ट्र बैकवर्ड क्लास कमीशन ने भी दिया था। मराठा आयोग ने राज्य के कुल 355 में से प्रत्येक ताल्लुका के दो दो गांव के 45000 परिवारों की गहन जांच की। जिनमें आधी से अधिक मराठा आबादी थी। 76 प्रतिशत मराठा कृषि से जुड़े पाये गये। इनमें से 70 प्रतिशत कच्छ में रहते हैं। 13 प्रतिशत मराठी अशिक्षित हैं। 35 प्रतिशत प्राइमरी 43 प्रतिशत हाईस्कूल 67 प्रतिशत इंटर पास हैं। तकनीकी और पेशेवर रूप से एक प्रतिशत से भी कम मराठा दक्ष पाये गये। नवंबर 2015 की रिपोर्ट में आयोग ने मराठा समाज को सामाजिक आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा बताया था। सर्वे में पाया गया कि मराठा पूरे राज्य में बिखरे हुए हैं। शांतिकाल में वे खेती से जुड़े हुए थे। लेकिन जब जब जंगे हुयीं उनका एक हिस्सा सेना में जाकर लड़ा। जिससे उनकी पूरी जाति की छवि ही वारियर क्लास की बन गयी। जबकि सच यह था कि उनका बड़ा हिस्सा ना केवल खेती कर रहा था बल्कि खेती में भी मज़दूरी अधिक कर रहा था। सारा पेंच इस बात पर फंसा कि मराठा का एक वर्ग पहले से ही कुनबी माना जाता है। जिसकी गिनती पिछड़ों में होती रही है। उसको आरक्षण का लाभ भी मिलता रहा है। लेकिन जब सभी मराठाओं को आरक्षण देने का सवाल आया तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि कोई असमान्य स्थिति नहीं है और साथ ही मराठा समुदाय का राज्य मंे वर्चस्व है और वह अग्रणी भागीदारी के साथ राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल है। सबसे बड़ी अदालत ने राज्य की इस मामले में पुनर्विचार याचिका भी निरस्त कर दी। केंद्र सरकार और कोर्ट शायद यह भी सावधानी बरत रहे हैं कि अगर आज सम्पन्न और समृध्द समझे जाने वाले मराठाओं को परंपरा तोड़कर आरक्षण दे दिया गया तो कल गुजरात के पाटीदार हरियाणा के जाट और अहीर रेजिमंेट की अलग से मांग कर रहे यादव सड़कों पर उतर सकते हैं। यादवों का यह भी तर्क है कि जब सरकार 28 नई रेजिमेंट बना ही रही है तो उसको अहीर के नाम से एक और नई रेजिमेंट बनाने में क्या समस्या है? महाराष्ट्र सरकार ने एक बार फिर से 7 सितंबर को रिटायर्ड जस्टिस संदीप शिंदे के नेतृत्व में पांच लोगों की नई समिति बना दी है जो इस बात पर विचार करेगी कि कैसे कुनबी मराठाओं की तरह शेष मराठाओं को ओबीसी आरक्षण दिया जा सकता है? इसके लिये निज़ाम के राज के समय के दस्तावेज़ों को आधार बनाकर ऐसा तरीका तलाशा जायेगा। जिससे आगे सुप्रीम कोर्ट में क्यूरेटिव याचिका लगाकर मराठा आरक्षण का रास्ता साफ किया जा सके। समिति ने अब तक 1.73 करोड़ दस्तावेज़ की छानबीन कर 11,530 काग़ज कुनबी के पक्ष में हासिल कर लिये हैं। हालांकि सरकार कुछ भी कर ले मराठा आरक्षण की राह इसलिये भी मुश्किल है कि इससे एक बार फिर आरक्षण का जिन्न बोतल से बाहर आया तो मंडल आयोग लागू होने के दौर की तरह उसको वापस बोतल में बंद करना नामुमकिन हो जायेगा। सरकार जो नहीं बताना चाहती है। वो यह है कि मंडल आयोग के दौर मंे ही जब मराठाओं ने देखा कि दलितों की तरह ही अब उनसे पिछड़ी और कम योग्य जातियां ओबीसी आरक्षण मिलने से जहां उनसे आगे जा रही हैं और वे खुद कृषि घाटे का सौदा बनने, पीढ़ी दर पीढ़ी खेती की ज़मीन घटते जाने और महाराष्ट्र का सीएम देवेंद्र फड़नवीस के रूप में एक बृहम्ण के बनने से राज्य की सियासत से मराठा वर्चस्व कम होने से पिछड़ रहे हैं तो उन्होंने आरक्षण की मांग तेज़ कर दी। उधर भाजपा सरकार ने कोआॅपरेटिव में बुनियादी बदलाव करते हुए जब भ्रष्टाचार के आरोपों की व्यापाक जांच करनी शुरू की तो उन पर से अधिकांश मराठा का कब्ज़ा भी खत्म या कम होने लगा। उधर राजनीतिक तौर पर भी कई मराठा क्षत्रप भाजपा सरकार के निशाने पर आये तो मराठा समाज में नाराज़गी और उपेक्षा की भावना और बढ़ने लगी। जब मराठा समाज को राजनीतिक आर्थिक और अन्य क्षेत्रों में नुकसान महसूस हुआ तो उन्होंने हर साल 50 से अधिक मार्च निकालने शुरू कर दिये। भाजपा सरकार ने उनको आरक्षण देकर साधना चाहा लेकिन सुप्रीम कोर्ट के स्टे से मामला फिर से बिगड़ गया। अन्य पिछड़ा वर्ग में भी मराठा आरक्षण का विरोध शुरू हो गया है। उनको लगता है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने एक बार मराठा आरक्षण निरस्त कर दिया तो कहीं ऐसा ना हो कि उनके कोटे में मराठा को भी शामिल कर उनका हिस्सा कम कर दिया जाये। जबकि सीएम शिंदे राजनीतिक नुकसान की आशंका और विपक्षी दलों द्वारा ऐसे सवाल उठाने पर पहले ही साफ कर चुके हैं कि ओबीसी के वर्तमान कोटे में कटौती कर मराठा आरक्षण देने का कोई प्रस्ताव नहीं है। अब दो ही रास्ते बचे हैं। जिससे केंद्र सरकार संविधान में संशोधन कर मराठा आरक्षण को कोर्ट की सुनवाई से बाहर कर सकती है या फिर सुप्रीम कोर्ट में नये सिरे से अपील कर उसको मराठा आरक्षण के लिये सहमत किया जा सकता है। लेकिन चुनावी साल में ये दोनों ही विकल्प कठिन नज़र आते हैं। एक काम जो किया जा सकता है वह कोई सरकार करने को तैयार नज़र आती। वह यह है कि बजाये नये वर्गों या जातियों को आरक्षण देने के ऐसी समाजवादी समानतावादी और सर्वसमावेशी आर्थिक नीतियां बनाई जायें। जिससे अधिक से अधिक नये रोज़गार और स्कूल काॅलेज बने। जिसमें सभी को उनकी आबादी आवश्यकता और आज के दौर के हिसाब से उनका अधिक से अधिक उचित हिस्सा मिल सके। इसलिये हम कह सकते हैं कि मराठा जाट या पाटीदारों को रिज़र्वेशन नहीं बल्कि सही मार्गदर्शन की ज़रूरत है। जिससे वे ऐसी सरकारें बना सकें जो यह न्यायसंगत काम कर सकें।  

 *0 क़तरा गर एहतजाज करे भी तो क्या करे,*
*दरिया तो सब के सब समंदर से जा मिले।*
*हर कोई दौड़ता है यहां भीड़ की तरफ़,*
*फिर यह भी चाहता है मुझे रास्ता मिले।।*

*नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Sunday 5 November 2023

70 घंटे काम...

*काम के घंटे नहीं काम करने वाले बढ़ाये जाने चाहिये !* 

0जाने माने काॅरपोरेटर और दिग्गज आईटी कंपनी इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने कहा है कि अगर नौजवान अपने देश से प्यार करते हैं तो उनको सप्ताह में कम से कम 70 घंटे काम करना चाहिये। उधर स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि इतना अधिक काम करना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है। मेडिकल एक्सपर्ट दावा करते हैं कि आजकल पहले ही युवाओं पर इतना काम का बोझ है कि उनको इसके तनाव के चलते हार्ट अटैक ब्लड पे्रशर और डायबिटीज़ की समस्याओं का बहुत कम उम्र में ही सामना करना पड़ रहा है। साथ ही ट्रेड यूनियन और सामाजिक संगठन भी मूर्ति की इस सलाह को युवाओं का आर्थिक और मानसिक शोषण करने वाला पूंजीवादी सोच का नमूना बताकर विरोध में उतर आये हैं।      

   *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 

      तीन साल पहले भी इंफोसिस संस्थापक मूर्ति ने युवाओं से देश को आगे ले जाने के लिये 60 घंटे काम करने की अपील की थी। यह बात किसी हद तक सही है कि राष्ट्र निर्माण अनुशासन और समर्पण मांगता है लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारे देश में काम करने वाले योग्य और प्रतिभाशाली युवाओं की कमी है जो मूर्ति उन ही लोगों से अधिक काम करने की अपील कर रहे हैं जिनपर पहले ही कम वेतन में अपने टारगेट पूरा करने का जानलेवा दबाव है। कंपनियों के चेयरमैन डायरेक्टर एमडी और दूसरे सलाहकार सप्ताह में कितने घंटे काम करते हैं? यह भी पूछा जाना चाहिये कि उनकी सेलरी कई गुना क्यों बढ़ रही है? इंफोसिस के सीईओ की कमाई ही कंपनी के नये कर्मचारी से 2200 गुना अधिक है। 2008 में कंपनी के सीईओ का वेतन 80 लाख और किसी नये भर्ती कर्मचारी का वेतन 2.75 लाख था। मनी कंट्रोल की रिपोर्ट बताती है कि 10 साल बाद यह सौ गुना बढ़कर जहां 80 करोड़ हो गया वहीं नये भर्ती कर्मचारी का वेतन केवल 3.60 लाख ही हुआ क्योें? एक सप्ताह में तो मात्र 168 घंटे ही होते हैं। ऐसे में मूर्ति जी सीईओ को कितने गुना बढ़े घंटे काम करने की सलाह देंगे और कैसे देंगे? क्योंकि 2.75 लाख वाले कर्मचारी को तो उन्होंने 3.60 लाख सेलरी होने पर पहले से डेढ़ गुना से अधिक काम करने की सलाह दे दी लेकिन यही देशभक्ति और भारत को विकसित राष्ट्र बनाने की सलाह सीईओ को क्यों नहीं दे रहे? क्या यह सब कंपनी का मुनाफा बढ़ाने की सोची समझी कवायद का हिस्सा तो नहीं? पश्चिमी देश आज अधिक काम से नहीं बल्कि तकनीक आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस व रोबोटिक्स से गुणात्मक विकास को बढ़ा रहे हैं। साथ ही वे अपने यहां शोध पर अधिक धन खर्च कर रहे हैं। उल्टा हमारे देश में 2008 में शोध पर खर्च होने वाला पैसा 0.8 प्रतिशत से घटाकर 0.7 कर दिया गया है। माना कि अधिक काम करने से अधिक प्रोडक्शन होगा जिससे देश की जीडीपी और तेज़ी से बढ़ेगी लेकिन यह काम कारपोरेट नये लोगों को रोज़गार देकर क्यों नहीं करता? देश केवल जीडीपी बढ़ने से नहीं नये रोज़गार बढ़ने और वर्तमान कामगारों का वेतन बढ़ने से उपभोग बढ़ने से बढ़ता है। जबकि देखने में यह आ रहा है कि पंूजी का केंद्रीयकरण लगातार बढ़ता जा रहा है। असमानता बढ़ी है। हमारे देश में बेरोज़गारी और भुखमरी पहले ही चरम पर है। जिन देशों की आबादी कम है अगर वे यह बात कहें तो समझ में आती है कि अगर विदेशी कामगारों को बुलाकर अधिक उत्पादन किया जायेगा तो बाहर के काम करने वाले अपना वेतन अपने देश भेज देंगे। लेकिन हमारे देश की आबादी आज दुनिया में सबसे अधिक हो चुकी है। एक अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर संगठन की जनवरी 2023 में जारी शोध रिपोर्ट वर्किंग टाइम एंड वर्क लाइफ बैलंेस एराउंड द वल्र्ड बताती है कि दक्षिण और पूर्वी एशिया में लोग औसत 48 से 49 घंटे यानी पहले ही अधिक काम करते हैं। उत्तरी अमेरिका में 37.9 और अधिकांश यूरूपीय देशों में लोग 37.2 घंटे ही काम कर रहे हैं। मूर्ति जर्मनी फ्रांस और बेल्जियम जैसे जिन देशों की अधिक घंटे की मिसाल भारत में पेश कर रहे हैं। उनको यह याद नहीं इन देशों ने द्वितीय विश्व युध्द के बाद हुए भारी नुकसान से उबरने के लिये यह प्रयोग कुछ समय के लिये मजबूरी में किया था। आज वे भी काम के घंटे घटा रहे हैं। भारत और एशिया के अधिकांश देश भी उन यूरूपीय देशों से प्रेरणा लेकर ही युवाओं के तनाव को कम कर उनकी कार्यक्षमता और स्वास्थ्य बेहतर बनाने को इसी रास्ते पर चल रहे हैं। नई रिसर्च बता रही हैं कि अधिक काम करने से या अधिक समय काम करने से नहीं बल्कि अधिक गुणवत्ता और अधिक दक्षता से काम करके देश को आगे ले जाया जा सकता है। जो लोग काम और अपने जीवन परिवार मनोरंजन व्यायाम मित्रों और समाज के बीच तालमेल बनाकर चलते हैं। वे अपना काम कम समय में और ज़्यादा बेहतर कर पाते हैं। आने वाला समय सप्ताह में 70 घंटा नहीं पांच दिन से चार दिन यानी मुश्किल से 30 से 35 घंटे काम की तरफ जाने वाला है। शोध में यह भी पाया गया कि जो लोग विवाहित हैं और एक साथ रहकर एक ही स्थान पर सर्विस करते हैं। उनकी कार्यक्षमता उन लोगों से बेहतर है जो अकेले रहते हैं। महिलाओं के मामले में यह बात और भी सकारात्मक और सुरक्षात्मक पायी गयी है कि वे अकेले रहकर बेहतर काम नहीं कर पातीं। कोरोना के बाद जब अधिकांश कंपनियों ने पहले मजबूरी और बाद में अपना मुनाफा बढ़ाने को वर्क फ्राम होम की कल्चर शुरू की तो इसका भी कर्मचारियों पर बुरा असर पड़ा। इससे कर्मचारी एक तरह से 7 से 8 घंटे की बजाये 12 से 16 घंटे तक काम करने को मजबूर हो गये। इसकी वजह उनका घर से बाहर निकलना बंद होना और अकसर इंटरनेट का काम ना करना या देर रात तक कंपनी की मेल सवाल और आॅर्डर आते रहना था। इस दौरान कंपनियों ने ओवर टाइम देने का विकल्प भी लगभग बंद कर दिया। पंूजीवाद में उद्योगपतियों और  कारपोरेट की कम पैसे में अधिक काम लेने की देशभक्ति और राष्ट्रवाद के नाम पर मुनाफा कमाने की मंशा किसी से छिपी नहीं रही है। 1886 में अमेरिका के शिकागो शहर में काम के बढ़े घंटे कम करने की मांग को लेकर एतिहासिक संघर्ष होने के बाद मानवीय सामाजिक और नैतिक आधार पर कारखाने वाले नौकरी के घंटे कम करने को तैयार हुए थे। आज फिर वही पूंजीवाद राजनैतिक दलों को मोटा चंदा देकर उनके सत्ता में आने पर कई देशों में अपने हिसाब से काम के घंटे और रोज़गार की कठिन शर्ते बनवा रहा है। मज़दूरों का तो मशहूर नारा ही रहा है कि 8 घंटे काम के 8 घंटे आराम और 8 घंटे सामाजिक सरोकरा के। लेकिन आज सरकारें सत्ता में बने रहने या सत्ता में आने के लिये काॅरपोरेट की बेजा नाजायज़ और अमानवीय मांगों के सामने नतमस्तक नज़र आती हैं। हमारा देश वल्र्ड हंगर इंडैक्स में जहां लगातार उूपर जा रहा है वहीं प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से मात्र 2.65 डाॅलर आय के हिसाब से पूरी दुनिया की तो बात ही क्या जी20 के देशों में भी काफी नीचे है।

 *0 मेरे बच्चे तुम्हारे लफ्ज़ को रोटी समझते हैं,*
*ज़रा तक़रीर कर दीजे कि इनका पेट भर जाये।* 

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 19 October 2023

निठारी कांड

निठारी कांड: आरूषि के बाद सीबीआई की दूसरी बड़ी नाकामी ?
0‘‘सीबीआई ने इस पूरी जांच का कचरा बना दिया। सबूत इकट्ठा करने के बुनियादी नियमों तक की धज्जियां उड़ाई। इस केस की जांच को देखकर ऐसा लगता है जैसे एक गरीब नौकर को राक्षस बना देने की कोेशिश हुयी है।’’-हाईकोर्ट। 16 हत्याओं कई बलात्कर और बच्चो के मानव अंग निकालकर काटकर खाने के सनसनीखेज़ आरोपों से पूरे देश को हिला देने वाले निठारी कांड का जो फैसला इलाहाबाद की हाईकोर्ट के बैंच के दो जजों ने 308 पेज में सुनाया है। उसमें यह बात कहते हुए हालांकि मुख्य आरोपी बनाये गये सुरेंद्र कोहली और उसके स्वामी मोनिंदर पंधेर को पुख्ता सबूत ना मिलने पर फांसी की सज़ा से बरी कर दिया गया है लेकिन इसके लिये कौन ज़िम्मेदार है यह सवाल अपनी जगह खड़ा है।      
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
      2006 में हुआ नोएडा का चर्चित निठारी केस आज भी सबको याद होगा। निठारी में स्थित मोनिंदर पंध्ेार की कोठी डी-5 में 16 बच्चो को उसके नौकर सुरेंद्र कोहली के साथ मिलकर अपहरण करने कुछ बच्चियों के साथ रेप करने उनके अंग काटकर पकाने और उनको खाने के दिल दहलाने वाले आरोप लगे थे। मामला अति संवेदनशील और मीडिया में चर्चा में आने के बाद जांच सीबीआई को दी गयी थी। सीबीआई ने जांच के नाम पर नौकर सुरेंद्र कोहली का 164 का इकबालिया बयान एक सीडी में रिकाॅर्ड कर सीबीआई की गाज़ियाबाद कोर्ट में पेश किया। जिस पर सीबीआई ने उनको फांसी की सज़ा सुना दी। लेकिन कानून के मुताबिक मौत की सज़ा कन्फर्म करने को जब यह मामला अपील में हाईकोर्ट की इलाहाबाद बैंच में गया तो टिक नहीं सका। सवाल यह है कि कोर्ट ने तो अपना फैसला उपलब्ध सबूत गवाह और अन्य जानकारी के आधार पर सुना दिया लेकिन उन 16 मासूमों का हत्यारा आदमखोर या बलात्कारी आखिर था कौन अगर कोहली और पंधेर बेकसूर हैं? सीबीआई ने सबूत के नाम पर जो सीडी कोर्ट में पेश् की उसे कोर्ट ने पुख्ता सबूत नहीं माना। कोर्ट ने कहा कि जिस कैमरे से कोहली के बयान रिकाॅर्ड किये गये उसकी राॅ फुटेज यानी मेन चिप पेश की जाये। हैरत की बात यह कि वह सीबीआई के पास थी ही नहीं। इससे कोर्ट का वीडियो बयान एडिटेड होने का शक और बढ़ गया। कोर्ट ने कोहली के बयान पर उसके अपने हस्ताक्षर और उस मजिस्ट्रेट के साइन ना होने को भी सीबीआई की केस प्रोपर्टी पूरी ज़िम्मेदारी से ना रखने की बड़ी खामी माना। कोर्ट ने इस बात पर भी सीबीआई की जमकर खिंचाई की कि एक साल तक आप हर मामले में कोहली और पंधेर को बराबर का कसूरवार मानकर चलते हैं। लेकिन बाद में किस आधार पर अचानक कोठी के मालिक पंधेर को बचाते हुए सारा गुनाह कोहली के सर पर डाल दिया? यह समझ से परे है। एक जैसे मामले में कोहली पर 16 और पंधेर पर 6 केस क्यों बने? यूपी सरकार की आगरा और सीबीआई की फोरंेसिक टीम अलग अलग सैंपिल लेती हैं लेकिन उनको एक पीली बैडशीट एक गद्दा और एक बैड ही मिलता है लेकिन बाथरूम में वाशबेसिन पर लगा खून मिलने के बाद भी जांच के लिये उसके मिलान को जांच एजेंसी आरोपियों या मरने वालों के परिवार के ब्लड या डीएनए संैपिल तक नहीं लेती क्यों? अलबत्ता सोफे पर लगे वीर्य के सैंपिल ज़रूर जांच के बाद कोहली या पंधेर के नहीं पाये जाते हैं। दूसरी सबसे बड़ी कमी कोर्ट ने सीबीआई की यह पकड़ी कि उसका कहना है कि हत्या करने के बाद लाशें पोलिथिन में पैक कर कोठी डी5 और डी6 के बीच मौजूद पीछे के जिस नाले में डाली गयी वे बहकर 200 से 500 मीटर दूर चली गयीं। जबकि यह नाला तो सूखा था तो डैड बाॅडी वहां से आगे कैसे गयीं? वहां तो लाशों का ढेर लग जाना चाहिये था? कोर्ट इस बात पर भी हैरान था कि 16 मर्डर हुए। उनके अंग भंग किये गये। उनको काटा गया। पकाया गया। खाया गया। शायद रेप भी हुए हों लेकिन किसी को कानो कान ख़बर नहीं हुयी? किसी ने कोई आवाज़ नहीं सुनी किसी ने कोई खून नहीं देखा किसी ने कोई गंध महसूस नहीं की जबकि जांच में दावा किया गया है कि लाशें वाशरूम और बाथरूम में कई कई घंटे पड़ी रहती थीं? सीबीआई इतने वीभत्स हृदय विदारक और गंभीर केस का एक भी चश्मदीद गवाह तक पेश नहीं कर पाई? कोर्ट का सवाल था कि एक भी वैज्ञानिक फोरेंसिक जैसे कपड़ा बर्तन दीवार फर्श पर बरामद कोई ठोस सबूत कोहली की सीडी के अलावा सीबीआई के पास नहीं है। यहां तक कि जिस कोहली पर बच्चो के अंग खाने का आरोप है उसके दांतों की जांच में या किसी और तरह से मानव रेशा तक नहीं मिला? कोर्ट ने इस बात पर भी जांच एजेंसी को फटकार लगाई कि यह मामला इतना हाईप्रोफाइल था कि मीडिया सरकार का महिला कल्याण विभाग और बाल कल्याण विभाग बार बार इस मामले को मानव अंगों की तस्करी से जुड़ा होने का शक जता रहा था। यह भी तथ्य है कि पंधेर की डी 5 कोठी के ठीक बराबर में उसका पड़ौसी जो डी 6 में रहता था, वह कुछ समय पहले एक किडनी रैकिट चलाने के आरोप में पकड़ा गया था। जिस सूखे नाले में ये सब डैड बाॅडी मिली वह नाला डी5 और डी6 के बीच था। लेकिन फिर भी आश्चर्यजनक ढंग से सीबीआई ने उस किडनी रैकिट चलाने के पड़ौसी आरोपी से एक बार भी पूछताछ करने का कष्ट तक नहीं किया? कोर्ट अंत में इस नतीजे पर पहंुचा कि पुलिस ने इस केस पर पूरी मेहनत ना करके अपना काम आसान करने को कोहली को पुलिसिया स्टाइल में टाॅर्चर कर उससे सारा जुर्म कबूल करा लिया लेकिन उसका एक मेडिकल तक नहीं कराया क्योंकि सीबीआई कोर्ट के तलब करने पर उसकी मेडिकल रिपोर्ट का एक भी पर्चा कोर्ट में पेश नहीं कर सकी है। यहां तक नाले से जो 16 कंकाल मिले उनसे भी कोहली का कोई संबंध सीबीआई साबित नहीं कर सकी है। इससे पता लगता है कि हमारी विख्यात जांच एजेंसी भी कितनी लापरवाही चालू और पुलिस के परंपरागत थर्ड डिग्री के तौर तरीकों का प्रयोग कर जांच को नाकाम कर सकती है। यही आरोप सीबीआई पर चर्चित आरूषि कांड में भी लगा था। लेकिन यहां सीबीआई से यह सहानुभूति भी रखी जानी चाहिये कि उसको जिस तरह से आजकल विपक्षी नेताओं पत्रकारों और सरकार विरोधी संगठनों से निबटने में लगाया जाता है। उससे भी उसकी कार्यक्षमता प्रभावित होना स्वाभाविक ही है। यह भी हो सकता है कि निठारी केस में भी उस पर कोई राजनीतिक दबाव रहा हो क्योंकि सरकारें किसी भी दल की हों वे जांच एजेंसी पुलिस और अधिकारियों का अपने सियासी हितों के लिये दुरूपयोग करने से परहेज़ करती नहीं हैं।
 *0 ना इधर उधर की बात कर यह बता कारवां क्या लुटा,*
  *मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।*  
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Friday 13 October 2023

एक राष्ट्र एक चुनाव...

*आज वन नेशन वन इलैक्शन, कल वन पार्टी वन पोलिटीशियन ?* 

0 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ साथ ही होते थे। लेकिन इसके बाद यूपी बिहार बंगाल पंजाब व उड़ीसा में बनी विपक्षी गठबंधन की सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायीं। इससे पहले केरल में 1957 में बनी पहली वामपंथी सरकार भी केंद्र की कांग्रेस सरकार को हज़म नहीं हुयी और उसको कुछ बहाने बनाकर समय से पहले बर्खास्त कर 1960 में मिडटर्म इलैक्शन कराये गये। ऐसे ही 1972 में होने वाले संसदीय चुनाव राजनीतिक कारणों से कुछ समय पहले 1971 में ही करा दिये गये। विपक्ष को लगता है यह सरकारी पैसा बचाने प्रशासनिक मशीनरी और सुरक्षा बलों पर पड़ने वाले बार बार अतिरिक्त काम के दबाव और आचार संहिता लगने से रूकने वाले विकास के बहाने सियासी लाभ को किया जा रहा है।     

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      1983, 1999 और अंतिम बार 2018 में विधि आयोग ने एक साथ लोकसभा और राज्यों की सभी विधानसभाओं के चुनाव कराने को मसौदा रिपोर्ट जारी की थी। वर्तमान समय में आन्ध्र प्रदेश अरूणाचल प्रदेश ओडिशा और सिक्किम मेें विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ होते हैं। लोकसभा के पूर्व महासचित पीडीटी आचारी कहते हैं कि एक राष्ट्र एक चुनाव वाली बात व्यवहारिक रूप से इसलिये संभव नज़र नहीं आती क्योंकि किसी भी लोकसभा या विधानसभा का कार्यकाल संविधान के सैक्शन 83 भाग दो और 172 में पांच साल निर्धारित है। ऐसे में कोई केंद्र सरकार जबरन एक साथ चुनाव कराने की अपनी ज़िद पूरी करने के लिये कैसे उसको समय से पहले भंग कर सकती है? अगर वह ऐसा करेगी तो मामला सुप्रीम कोर्ट जायेगा जहां वह संविधान की दुहाई देकर संविधान संशोधन को उसके मूल ढांचे में दखल बताकर बहाल करने की गुहार लगायेगी। हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ उसको बहाल भी कर दे। अलबत्ता यह शक्ति और इच्छा उस राज्य की विधानसभा यानी सरकार के पास सुरक्षित है कि वह जब चाहे विधानसभा भंग कर नये चुनाव करा सकती है। लेकिन वह समय से पहले ऐसा क्यों करेगी? अगर कोई सरकार अल्पमत में आ जाती है तो उसको कैसे बनाये रखा जा सकता है? इसके बाद 6 माह के अंदर नये चुनाव कराना ज़रूरी होता है। हालांकि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में वन नेशन वन इलैक्शन पर विचार करने और इसके कानूनी और संवैधनिक पहलू पर गंभीरता से विचार कर कोई ऐसा सर्वमान्य हल निकालने को एक समिति बनाई गयी है। लेकिन मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने इसका पहले ही बहिष्कार कर दिया है। सवाल यह भी है कि दल बदल विरोधी कानून के रहते कैसे किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के साथ साथ वैकल्पिक सरकार बनाने के लिये रचनात्मक या सकारात्मक प्रस्ताव लाया जाये जिससे वर्तमान सरकार तो गिर जाये लेकिन विधानसभा का कार्यकाल पूरा करने के लिये उसी समय साथ साथ नई वैकल्पिक सरकार भी बन जाये? अगर चुनाव के बाद त्रिशंकु लोकसभा या विधानसभा आती है तो चुनाव से बचने को कैसे सरकार हर हाल में दल बदल विरोधी कानून रहते बनाई जायेगी? अगर दल बदल विरोधी कानून खत्म किया जाता है तो आयाराम गयाराम की अवसरवादी खरीद फरोख़्त यानी हाॅर्स ट्रेडिंग कैसे रोकी जायेगी? आप नेता आतिशी एक राष्ट्र एक चुनाव को आॅप्रशन लोटस को वैध बनाने की चाल करार देती हैं। उनका कहना है कि यह संविधान की मूल रचना पर हमला होगा। उनको लगता है कि इससे दलबदल कर जनप्रतिधियों की खरीद कानूनी बन जायेगी। पूंजीवाद के इस दौर में क्या कोई भी टाटा बिरला अडानी अंबानी मंुहमांगी रकम देकर अपनी पसंद के सांसद और विधायक खरीकर क्या अपने हित में सरकार बना सकेगा? इस प्रस्ताव के विरोधियों का कहना है कि यह संघवाद की भावना के खिलाफ होगा क्योेंकि भारत को संविधान में राज्यों का संघ माना गया है। उनका यह भी कहना है कि बार बार चुनाव होना लोकतंत्र के मज़बूत होने की पहचान है। इससे मतदाताओं को जल्दी जल्दी और बार बार अपनी पसंद ज़ाहिर करने अपनी मांगों को पूरा कराने और दलों व नेताओं की जवाबदेही का मौका मिलता है। साथ ही विकास की गति तेज़ होने के साथ सरकारें अपने किये वादे पूरे करने रोज़गार बढ़ाने चुनावी खर्च नंबर एक और दो में कालाधन बाज़ार में आने से अर्थव्यवस्था को गति मिलती है। 2015 में आईडीएफसी संस्था के सर्वे में यह तथ्य सामने आया था कि सब चुनाव एक साथ कराने से 77 प्रतिशत लोग एक ही दल एक ही गठबंधन को वोट कर सकते हैं जबकि यही चुनाव अलग अलग 6 माह के अंतराल से होने पर यह प्रतिशत 61 रह गया। यह भी माना जाता है कि एक साथ चुनाव कराने से राष्ट्रीय दलों को लाभ और क्षेत्रीय दलों को राजनीतिक नुकसान होने की संभावना प्रबल है। यह बात जगजाहिर है कि देश और प्रदेश के मुद्दे मांगे और समस्यायें अलग अलग होती हैं। इसलिये वर्तमान व्यवस्था ही अधिक कारगर और सार्थक मानने वालों की कमी नहीं है। विरोधी दलों का तो यहां तक दावा है कि यह सारी कवायद भाजपा वन पार्टी वन पोलिटीशियन राज के लिये कर रही है। उनका कहना है कि हर राज्य में भाजपा वोट खींचने के लिये मोदी जी को पीएम के रूप में सरकारी खर्च पर आगे कर देती है। इससे पांच साल कहीं ना कहीं मोदी जी को चुनाव प्रचार में लगे रहना पड़ता है। इसलिये भाजपा चाहती है कि वह एक बार में ही पूरे देश और सभी प्रदेशों में राष्ट्रीय मुद्दों पर चुनाव जीत ले। विपक्ष यह भी आरोप लगाता है कि भाजपा अनेकता में एकता की बजाये एक धर्म एक जाति एक भाषा एक रंग की संकीर्ण नीति को आगे बढ़ाते हुए एक देश एक चुनाव की डगर पर आगे बढ़ रही है। राजद नेता तेजस्वी यादव ऐसी ही आशंका जताते हुए कहते हैं कि आज एक देश एक चुनाव की बात हो रही है उसके बाद एक नेता एक दल और एक धर्म जैसी बात की जायेगी। और भी आशंकायें हैं।

0 जम्हूरियत वो तर्ज़ ए अमल है कि जिसमें,

  बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते।     

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 5 October 2023

ओपीएस बनाम एनपीएस

*ओपीएस बनाम एनपीएसः भाजपा का रूख़ अधिक व्यवहारिक है ?* 

0 पुरानी पेंशन योजना बहाली संयुक्त मंच के राष्ट्रीय संयोजक व आॅल इंडिया रेलवे मेन्स फेडरेशन के महामंत्री शिव गोपाल मिश्रा के अनुसार 1 जनवरी 2004 के बाद सरकारी सेवा में आये कर्मचारियों के लिये एनपीएस यानी न्यू पेंशन स्कीम एक बड़ा धोखा ही साबित हुयी है। पिछले दिनों 20 से अधिक राज्यों के कर्मचारियों के 400 से अधिक संगठनों ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एकत्र होकर पुरानी पेंशन को तत्काल लागू करने की सरकार से मांग की। मुख्य विपक्षी दल कांगे्रस और आप जैसी पार्टियां जहां ओपीएस के पक्ष में खुलकर बोल रही हैं, वहीं भाजपा एनडीए की वाजपेयी सरकार द्वारा चालू की गयी नई पेंशन स्कीम का बचाव करने के साथ ही बीच का रास्ता तलाश रही है।      

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      नई पुरानी सरकारी पेंशन का मामला अब पक्ष विपक्ष के बीच चुनावी मुद्दा बनता जा रहा है। उल्लेखनीय है कि भाजपा के नेतृत्व में बनी एनडीए की अटल सरकार ने दिसंबर 2003 में पुरानी पेंशन की सुविधा खत्म कर दी थी। सरकार का कहना था कि यह सुविधा सरकारी कर्मचारियों को बिना उनके योगदान के भविष्य में देते रहना संभव नहीं है। केंद्र के साथ ही राज्यों की अधिकांश सरकारें भी इस बात से सहमत होकर नई पेंशन स्कीम अपनाने को तैयार हो गयी थीं। बाद में जब कर्मचारियों को नई पेंशन स्कीम में अपने वेतन से दस प्रतिशत राशि का सहयोग देने के बावजूद बहुत कम पेंशन मिली तो इस योजना का विरोध होना शुरू हो गया। नई पेंशन में पुरानी पेंशन की तरह अंतिम वेतन की आधी राशि मिलने की गारंटी या समय समय पर सरकार द्वारा दिये जाने वाले महंगाई भत्ते की बढ़ोत्तरी की व्यवस्था भी ना होने से कर्मचारी और अधिक नाराज़ होने लगे। सरकार ने अपनी ओर से दी जाने वाली सहयोग राशि बढ़ाकर 14 प्रतिशत कर इस गुस्से को थामना चाहा लेकिन मर्ज़ बढ़ता गया जैसे जैसे दवा की वाली कहावत लागू हो गयी। रिटायर्ड कर्मचारी इस बात से भी खफ़ा थे कि उनको रिटायरमेंट के समय मिलने वाली राशि पर भी सरकार ने टैक्स वसूलना शुरू कर दिया। शुरू शुरू में तो भाजपा ने कर्मचारियों की पुरानी पेंशन बहाली की मांग की उपेक्षा की लेकिन जब से कांग्रेस और आप ने अपने शासित राज्यों में ओपीएस बहाल की तो भाजपा पर भी पुरानी पेंशन बहाल करने या नई पेंशन में सुधार करने का राजनीतिक दबाव बढ़ता जा रहा है। अभी तक न्यूनतम पेंशन 9000 और अधिकतक 62,500 रूपये ओपीएस मेें मिलती थी। जिसके लिये कर्मचारियों को अपने वेतन से एक रूपया भी नहीं देना होता था। हाल ही में आरबीआई के रिसर्च पेपर में विस्तार से स्टडी करके बताया गया है कि ओपीएस के मुकाबले एनपीएस में सरकार को साढ़े चार गुना कम योगदान देना होता है। साथ रिज़र्व बैंक की इस कमैटी ने चेतावनी दी है कि एनपीएस की जगह फिर से ओपीएस को लाना उल्टी चाल चलना होगा जिससे दीर्घ अवधि में राज्यों की आर्थिक हालत इतनी खराब हो जायेगी कि उनका जीडीपी का जो खर्च आज पेंशन में 0.1 प्रतिशत जा रहा है वह 2050 तक चार से पांच गुना बढ़कर 0.5 तक पहुंच जायेगा। आज जो नई पेंशन में राज्यों का 4 लाख करोड़ खर्च हो रहा है वह बढ़कर 17 लाख करोड़ से अधिक हो सकता है। इससे राज्यों का कुल आय का 38 प्रतिशत हिस्सा जाने से राजकोषीय घाटा इतना बढ़ेगा कि उनके पास विकास के लिये पूरा पैसा तो क्या बचेगा वे दिवालिया होने के कगार पर भी पहुंच सकते हैं। आज 50 लाख से अधिक सरकारी कर्मचारी नई पेंशन में ढाई लाख करोड़ से अधिक का योगदान कर रहे हैं। सरकार का कहना है कि जिन कर्मचारियों की सेवा अभी मात्र 10 साल से कम रही है उनको ही रिटायर होने पर बहुत कम पेंशन मिल रही है। जिनकी सेवा 25 से 30 साल हो जायेगी उनको आखि़री वेतन का लगभग 30 से 40 प्रतिशत अवश्य ही मिलने लगेगा। केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने कर्मचारियों की न्यूनतम पेंशन हर हाल में अंतिम सेलरी की आधी रकम मिलने की मांग पूरी करने के लिये विचार करने के लिये वित्त सचिव टीवी स्वामीनाथन के नेतृत्व में चार सदस्यों की उच्च समिति का गठन कर नई और पुरानी पेंशन की विसंगतियों को दूर बीच का रास्ता निकालने का प्रयास शुरू किया है। सरकार का यह कहना किसी हद तक सही लगता है कि ओपीएस में ना तो कर्मचारियों का कोई योगदान था और ना ही सरकार के पास इसको बढ़ाते जाने का कोई आय का अतिरिक्त साधन था जिससे इसमेें समय समय पर महंगाई भत्ता और जुड़ जाने से सरकार के लिये इसका बढ़ता बोझ सहन करना असंभव होता जा रहा था। आंकड़ों के हिसाब से यह बात सही भी नज़र आती है क्योंकि 1990 में पेंशन देनदारी केंद्र सरकार की जहां 3272 करोड़ थी तो 2020-21 में वही बढ़कर 58 गुना यानी 1,90,886 करोड़ और राज्यों की 3131 करोड़ से 125 गुना बढ़कर 3,86,001 करोड़  हो गयी थी। भाजपा का यह कहना किसी हद तक व्यवहारिक लगता है कि  सरकारी कर्मचारियों को पुरानी पेंशन देने की स्थिति में सरकार नहीं है। हालांकि हमारा मानना भी यही है कि अगर सरकार के पास पर्याप्त संसाधन हो तो सरकारी कर्मचारियों को पुरानी पेंशन बहाल करने में देर नहीं करनी चाहिये लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि विपक्ष ने कई राज्यों की खराब आर्थिक हालत के बावजूद केवल चुनावी लाभ के लिये पुरानी पेंशन बहाल कर दी है या राज्यों की सत्ता में आने पर ओपीएस बहाल करने का आत्मघाती एलान कर दिया है। सवाल यह भी है कि जिस देश में 80 प्रतिशत जनता 20 रूपये रोज़ पर गुज़ारा कर रही हो। जहां करोड़ों लोगों को किसी भी तरह का रोज़गार ही उपलब्ध ना हो या जहां बड़ी तादाद में लोग गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे हों वहां आज की न्यूनतम सरकारी सेलरी लगभग 20 से 30  हज़ार लेने वालों को बिना किसी योगदान के पुरानी पेंशन हर हाल में क्यों दी जानी चाहिये? गीतकार जावेद अख़्तर ने शायद इसीलिये कहा है-

0 ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना हामी भर लेना

  बहुत है फ़ायदे इसमें मगर अच्छा नहीं लगता,

  बुलंदी पर उन्हें मिट्टी की खुश्बू तक नहीं आती

  ये वो शाख़ें हैं जिन को अब शजर अच्छा नहीं लगता।    

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 28 September 2023

बसपा सांसद बनाम भाजपा सांसद

*दानिश बनाम विधूड़ी: दो एमपी नहीं दो विचारधाराओं का विवाद ?* 

0भाजपा सांसद रमेश विधूड़ी ने बसपा सांसद दानिश अली को नई संसद में जिन साम्प्रदायिक घृणास्पद और ज़हरीले विशेषणों से संबोधित किया। वे कोई अचानक या भावावेश में लगाये लांछन नहीं थे बल्कि  एक विचारधारा एक सोचे समझे अभियान और बड़े मिशन का हिस्सा है। यह अजीब बात है कि एक तरफ संघ कहता है कि मुसलमान भी हमारे हैं। दूसरी तरफ भाजपा मुस्लिम मित्र बनाकर उनके वोट लेने की कोशिश कर रही है। तीसरी तरफ हमारे पीएम मोदी जी पसमांदा मुसलमानों को पार्टी से जोड़ने के लिये भाजपा नेताओं को उनके बीच जाने की सलाह देते हैं। लेकिन इस सब कवायद के साथ अल्पसंख्यकों खासतौर पर मुसलमानों को ज़लील करने की मुहिम भी जारी है।      

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      भाजपा के कई आकर्षक नारों में एक नारा रहा है ‘तुष्टिकरण किसी का नहीं लेकिन न्याय सबको।’ लेकिन व्यवहार में ऐसा होता नज़र नहीं आता। संसद में जब भाजपा के एमपी विध्ूाड़ी बसपा एमपी दानिश अली को अपशब्दों से नवाज़ रहे थे। उस समय उनके पीछे बैठे पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा सांसद हर्षवर्धन जैसे सीनियर भाजपा नेता हंस रहे थे। इतना ही नहीं उनका बयान केवल संसद के रिकाॅर्ड से हटाया गया और उनको पार्टी ने कारण बताओ नोटिस जारी किया लेकिन यह लेख लिखे जाने तक उनके खिलाफ कोई ठोस कार्यवाही होने की खबर नहीं है। सवाल यह है कि क्या अगर ऐसा ही बयान किसी विपक्षी सांसद ने भाजपा सांसद के खिलाफ दिया होता तो सरकार का रूख़ यही होता? मुसलमानों को निशाने पर लेेने की देश में आज हालत यह है कि केरल में सेना के एक जवान ने चर्चा में आने के लिये अपने ही दोस्त से अपनी पीठ पर ब्लेड से पीएफआई खुदवाकर खुद पर इस प्रतिबंधित संगठन के हमले के आरोप में कई मुसलमानों को फर्जी तरीके से फंसाना चाहा लेकिन पुलिस ने मामला खोल दिया। गोहत्या गोमांस और चोरी जैसे मामूली आरोपों में मुसलमानों की माॅब लिंचिंग आम बात हो चुकी है। जिनमें सरकारें ना तो तत्काल सख़्त कानूनी कार्यवाही करती हैं न ही मृतक के परिवार को अकसर मुआवज़ा या नौकरी देती है। कोर्ट के स्टे के बावजूद चर्चित व विवादित बाबरी मस्जिद शहीद कर दी गयी। लेकिन इसके लिये आज तक किसी को सज़ा नहीं मिली। सपा नेता आज़म खान डाक्टर कफील खान एक्टर शाहरूख खान के बेटे और उमर खालिद व गुजरात दंगों की गैंग रेप पीड़ित बिल्कीस बानो को न्याय मिलता नज़र नहीं आता। बुल्डोज़र की कार्यवाही एकतरफा गैर कानूनी और बदले की भावना से समय समय पर मुसलमानों पर अधिक होती नज़र आती है। एनआरसी  सीएए को मुसलमानों को टारगेट करने के लिये लाया जा रहा था। पहली बार सरकारी सम्पत्ति के नुकसान की वसूली इसके आंदोलनकारियों से उस समय ऐसा कोई कानून मौजूद ना होने के बावजूद की गयी। इसके खिलाफ चलने वाले शाहीन बाग के आंदोलन को कुचलने के लिये पूर्वी दिल्ली में दंगा हुआ और अनेक बेकसूर लोगों को इस दंगे के आरोप में जेल भेज दिया गया। उनमें से कुछ को आज तक ज़मानत नहीं मिली। अनेक कुख्यात अपराधियों को पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया जिनमें से अनेक बृहम्ण व अल्पसंख्यक समाज के लोगों के मारे जाने की घटनाओं पर विपक्ष ने फर्जी होने का आरोप लगाया। सोशल मीडिया पर मुस्लिम औरतों को बदनाम करने के लिये सुल्ली डील और बुल्ली सेल, मुसलमानों को कपड़ों से पहचान लेने का दावा, सड़क या सार्वजनिक स्थानों पर पांच मिनट की नमाज़ पर भी रोक, तीन तलाक पर अपराधिक कानून बनाना, लव जेहाद और धर्म परिवर्तन के नाम पर मुसलमानों के अंतरधार्मिक विवाहों को रोकना जबकि मुस्लिम लड़कियों के ऐसा करने व मुसलमानों के हिंदू बनने को घरवापसी बताकर सही ठहराना न्याय नहीं कहा जा सकता है। 80 बनाम 20 की लड़ाई असम में मियां म्यूज़ियम बंद करना, मुसलमानों को सब्ज़ी की महंगाई का कसूरवार बताना हलाल बनाम झटका हिजाब विवाद पैगंबर का अपमान करने वाली नूपुर शर्मा के खिलाफ आज तक ठोस कार्यवाही ना होना अतिक्रमण हटाने के नाम पर उत्तराखंड व गुजरात में कई मज़ार हटा देना, मुजफ्फरनगर के एक स्कूल में एक मुस्लिम बच्चे की दूसरे बच्चो स ेपिटाई कराने के संगीन मामले को समझौता कराकर दबाना, काॅमन सिविल कोड, कश्मीर फाइल और केरल स्टोरी जैसी झूठी और फर्जी फिल्में बनवाकर मुसलमानों को बदनाम करना, हज सब्सिडी खत्म करना, कोरोना जेहाद के नाम पर तब्लीगी जमात के बहाने मुसलमानों को विलेन बनाना, मुस्लिम पहचान से जुड़े शहरों मार्गों और रेलवे स्टेशनों के नाम थोक में बदलते जाना, उत्तराखंड के उत्तरकाशी के पुरूलिया में एक लड़की के अपहरण के आरोप में मुसलमानों को राज्य छोड़ने की धमकी देना, हरिद्वार धर्म संसद में मुसलमानों के नरसंहार की खुली धमकी देना, ट्रेन में आरपीएफ के सिपाही द्वारा हेट स्पीच देकर अपने एक अधिकारी की हत्या के बाद मुसलमानों को चुनचुनकर मारना और मीडिया का दिन रात मुसलमानों के खिलाफ चलने वाला झूठा भड़काने वाला और नफ़रती एजेंडा सुप्रीम कोर्ट के बार बार आदेश के बावजूद नहीं रोकना बताता है कि ये सब खुद या अनजाने में नहीं बल्कि एक संगठन एक पार्टी और उसकी सत्ता के इशारे व सपोर्ट संग बांटो और राज करो की सियासत और चुनाव दर चुनाव इसी बहाने जीतने की सोची समझी योजना के तहत होता आ रहा है। दूसरी तरफ केंद्रीय मंत्री के खिलाफ हेट स्पीच के आरोप होने के बावजूद दिल्ली पुलिस रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती, असम के सीएम पर लंबे समय से करप्शन के आरोप हैं लेकिन भाजपा में आने पर उनको इनाम के तौर पर मुख्यमंत्री बना दिया जाता है। महाराष्ट्र में 70 हज़ार करोड़ के घोटाले के आरोपी को भाजपा डिप्टी सीएम बनाकर उनके खिलाफ जांच की फाइल ठंडे बस्ते में डाल देती है। भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह से लेकर केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा सहित पक्ष और विपक्ष के उन नेताओं की लंबी लिस्ट है जिनको भाजपा में शामिल हो जाने के बाद ना केवल जांच से आज़ादी मिल गयी बल्कि उनको पद देकर पुरस्कार दिया गया है। यही मामला बसपा सांसद दानिश को गाली देने वाले भाजपा सांसद विधूड़ी का लग रहा है जिनका अतीत पहले भी विवादित रहा है लेकिन उनको भाजपा ने ना तो पार्टी से निकाला और ना ही कोई ठोस कानूनी कार्यवाही की गयी जिससे लगता है कि भाजपा सबको समान न्याय नहीं दे रही है। मुसलमानों के साथ इस तरह का सौतेला व्यवहार अपमान और उत्पीड़ने व अन्याय करने के बावजूद उनसे वोट और सपोर्ट की उम्मीद करना दुश्यंत त्यागी के शब्दों में यही कह सकते है।

0 उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें,

 चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये।।  

 *0लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

महिला आरक्षण

महिला आरक्षण के लिये संसद की सीटें भी बढ़ेंगी ?
0 लेडीज़ को पार्लियामंेट और राज्य विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिये 128 वें संविधान संशोधन के साथ नारी शक्ति वंदन अधिनियम बिल संसद के दोनों सदनों में लगभग सर्वसम्मति से पास हो गया है। लेकिन यह कानून नई जनगणना और संसदीय सीटों का नया परिसीमन होने के बाद ही लागू होगा। 2021 में होने वाली जनगणना कोरोना महामारी की वजह से सरकार ने टाल दी थी, लेकिन 2022 या इस साल भी यह क्यों नहीं हुयी और आगे कब तक टलती रहेगी यह कोई नहीं कह सकता। मतलब साफ है कि 2024 के आम चुनाव में महिला आरक्षण लागू होने नहीं जा रहा है। लेकिन यह 2029 के चुनाव में भी लागू हो ही जायेगा यह दावा भी कोई नहीं कर सकता। कांग्रेस सहित विपक्ष और भाजपा सरकार दोनों ही लेडीज़ रिज़र्वेशन का श्रेय लेने की होड़ करते नज़र आ रहे हैं।      
   *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
नई लोकसभा में 888 एमपी बैठने की सीट बनाई गयी हैं। यह दूरदर्शिता का फैसला है। जनगणना और नये परिसीमन के बाद लोकसभा की वर्तमना 545 सीट अगर बढ़ती हैं तो उनके लिये पहले ही व्यवस्था कर दी गयी है। इससे महिलाओं के लिये एक तिहाई सीट रिज़र्व होने का पुरूषों के नेतृत्व पर कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं पड़ेगा। 1951 में तत्कालीन 489 संसदीय सीटों को बढ़ाकर 494 और 1961 के बाद 522 और अंतिम बार 1971 में 543 नई जनगणना और परिसीमन के बाद किया गया था। इसके बाद यह सवाल उठने लगा कि दक्षिण के जो राज्य देशहित में जनसंख्या नियंत्रण कर परिवार नियोजन कर रहे हैं। अगर उत्तर भारत की तेजी से बढ़ती आबादी के हिसाब से सीटों का परिसीमन कर उनके सांसदों और विधायकों की संख्या बढ़ती है तो इससे एक नया विरोधाभास खड़ा होगा। उत्तर बनाम दक्षिण का विवाद बढ़ता देख तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने संविधान में 42 वां संशोधन कर नये परिसीमन को 2001 तक के लिये रोक दिया। इसका मकसद देश में परिवार नियोजन को बढ़ावा देना था। सन 2000 में 91 वां संविधान संशोधन कर एनडीए की वाजपेयी सरकार ने इस रोक को आगामी 25 साल और बढ़ाकर नये परिसीमन की मयाद 2026 कर दी। नये परिसीमन पर इस 50 साल की रोक का मकसद जनसंख्या का टीएफआर 2.1 यानि जन्म और मृत्यु दर समानता पर लाकर स्थिर करना था। हालांकि आज़ादी से पहले ही लिंग के आधार पर होने वाले पक्षपात को खत्म करने की आवाज़ उठने लगी थी। लेकिन फिर भी संविधान सभा की महिला सदस्यों ने उस समय लोकसभा और विधानसभाओं में महिला आरक्षण का संविधान प्रावधान करने पर जोर नहीं दिया। संविधान सभा की सदस्य रेणुका राय का कहना था कि भविष्य में जब सबको समान अवसर मिलेंगे तो योग्य महिलाएं जनरल सीटों पर ही अपनी भागीदारी खुद बढ़ाती जायेंगी। बदकिस्मती से ऐसा व्यवहारिक रूप से कई दशक तक भी हो नहीं सका। इसके बाद राजीव गांधी सरकार द्वारा 73 और 74 वें संविधान संशोधन के बाद जब महिलाओं को ग्राम सभाओं और स्थानीय निकायों में 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया तो लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में भी ऐसा ही करने की मांग तेज़ होने लगी। इसके बाद पहली बार 1996 में संसद में महिला आरक्षण बिल आया लेकिन यह पास नहीं हो सका। इसके बाद 2008 में यूपीए सरकार ने यही बिल राज्यसभा में 186 बनाम एक वोट के अंतर से पास कर दिया। लेकिन लोकसभा में सपा बसपा और राजद जैसे यूपीए के घटकों के इसमें ओबीसी व अल्पसंख्यक महिलाओं के लिये अलग से दलितों व आदिवासियों की तरह आरक्षण की मांग पूरी ना होने पर विरोध के चलते यह वहां पास नहीं हो सका और अंत में लोकसभा भंग होने के साथ ही लैप्स हो गया। विपक्ष का अब भी आरोप है कि मोदी सरकार ने यह बिल केवल 2024 में होने वाले संसदीय चुनाव में महिलाओं के वोट खींचने के लिये संसद के नये भवन में पेश किया है। अन्यथा इसको लागू करने के लिये एक तयशुदा प्रोग्राम पेश किया जाना चाहिये था। इसके साथ ही आरक्षण का विस्तार राज्यसभा और राज्य की विधान परिषदों में भी किये जाने की मांग हो रही है। इसके साथ ही ओबीसी और अल्पसंख्यक महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये आरक्षण में आरक्षण की मांग अभी भी जारी है। लेकिन वर्तमान सरकार के तौर तरीकों और इरादों को देखकर लगता नहीं वह इस बिल में फिलहाल कोई संशोधन पेश करने को राजी होगी। ऐसा इसलिये भी लग रहा है क्योंकि ओबीसी आरक्षण के लिये जाति की गणना होना ज़रूरी है। जिसके लिये मोदी सरकार किसी कीमत पर तैयार नहीं है। विधानमंडलों में महिला आरक्षण जब लागू होगा तब होगा लेकिन भविष्य में यह भी देखना होगा कि प्रधान और चेयरमैन की तरह उनके पति पिता भाई पुत्र या ससुर उनको कठपुतली बनाकर बैकडोर से अपनी सत्ता ना चलाने लगें। इसके लिये समतावादी नीतियां लागू कर समाज में महिलाओं का लगातार हर क्षेत्र में सशक्तिकरण करने के लिये उनका आर्थिक और शैक्षिक स्तर उठाना होगा। यह आरक्षण हालांकि फिलहाल 15 साल के लिये लागू होना है। लेकिन दलितों व आदिवासियों के लिये 70 साल से लागू आरक्षण भी सिवाय सांकेतिक के उनकी दयनीय स्थिति में कोई आमूल चूल बदलाव नहीं कर पाया है।

0 हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये

आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी

शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिये।

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीपफ एडिटर हैं।*

Wednesday 6 September 2023

कोटा में बढ़ते सुसाइड...

*कोटाः कैरियर बनाने के चक्कर में जान दांव पर?* 

0 हर बच्चा पढ़ लिखकर डाॅक्टर इंजीनियर या कोई बड़ा प्रोफेशनल बनना ही चाहे यह ज़रूरी नहीं है। लेकिन उसके माता पिता अकसर यही चाहते हैं कि जो वे खुद नहीं बन पाये या जो वे हैं या फिर वे जो सपने अपने बच्चो के लिये देखते हैं। उनके बच्चे को हर हाल में हर कीमत पर और हर जुगाड़ से वही बनना है। यहीं से बच्चो और अभिभावकों का द्वन्द्व शुरू होता है। यह माना जा सकता है कि मांबाप कभी भी बच्चो का बुरा नहीं चाहते लेकिन यह भी सही है कि वे अंजाने में ही बच्चो का बुरा कर बैठते हैं। मिसाल के तौर पर कोटा में जो आजकल बच्चो की आत्महत्या के मामले बढ़ते जा रहे हैं। उसके पीछे बड़ों की यही ज़िद है कि बच्चो को हर हाल में पढ़ना ही होगा।      

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      राजस्थान की कोटा पुलिस के अनुसार इस साल अब तक जेईई और नीट क्वालिफाई करने के लिये कोचिंग करने वाले 23 छात्र छात्राओं ने आत्महत्या कर ली है। जबकि 2015 में 17, 2016 में 16, 2017 में 7, 2018 में 20, 2019 में 8, 2020 में 4, 2021 में शून्य और 2022 में 15 बच्चो ने अपनी जान दी थी। उच्च शिक्षा लेकर अपना कैरियर बनाने के लिये हर साल यहां 2 लाख बच्चे 4 हज़ार टीचर से कुल 10 कोचिंग सेंटर में पढ़ने आते हैं। इनमें से 7 बहुत बड़े जाने माने कोचिंग सेंटर हैं। यहां इन बच्चो के लिये लगभग 4 हज़ार होस्टल और 40 हज़ार से अधिक पेयिंग गेस्ट सेंटर भी हैं। राजस्थान सरकार ने इस साल बच्चो की बढ़ती आत्महत्यायें रोकने के लिये कुछ कदम उठाये हैं। जिनमें फिलहाल हर माह होने वाले टेस्ट पर अस्थायी रूप से रोक लगा दी है। प्रशासन का मानना है कि टेस्ट होने के बाद उनमें असफल रहने वाले छात्र ही अकसर अपनी जान दे रहे हैं। इसके साथ ही हाॅस्टल की छत के पंखों में विशेष प्रकार के स्प्रिंग लगाये जा रहे हैं जिससे उनमें लटकने पर दम ना घुटकर बच्चा अपने वज़न से सीधे ज़मीन पर सुरक्षित आ जाये और उसकी जान बच जाये। हाॅस्टल में एंटी सुसाइड नेट भी लगाये जा रहे हैं। जिससे छात्र के हाॅस्टल की किसी स्टोरी से कूदकर जान देने के प्रयास को जाल में फंसने से बचाया जा सके। यह सारी कवायद 27 अगस्त को दो और बच्चो के द्वारा टेस्ट में फेल होने पर आत्मघाती कदम उठाने के बाद की गई है। हालांकि पुलिस प्रशासन सरकार और बच्चो के घरवाले भी जानते हैं कि ये केवल वक्ती तौर पर उठाये जाने वाले एहतियाती कदम हैं। जिनसे कुछ समय के लिये बच्चो का बचाव हो सकता है। लेकिन उनके आत्महत्या से रोकने लिये उनकी काउंसिलिंग और साथ ही माता पिता का उन पर कुछ खास बनने का बेजा दबाव खत्म करना होगा। दरअसल कोटा में बढ़ती छात्र आत्महत्याओं ने सीएम अशोक गहलौत को चिंता में डाल दिया है। उन्होंने 18 अगस्त को कोचिंग सेंटर के संचालकों की एक मीटिंग कर बढ़ती सुसाइड के लिये उनकी ज़िम्मेदारी तय करने की बात कहकर पुलिस प्रशासन को कोचिंग सेंटर पर सख़्ती करने का इशारा दे दिया। मुख्यमंत्री ने खासतौर पर एलन नामक सबसे मशहूर कोचिंग सेंटर को निशाने पर लेते हुए कहा कि कुल 21 में 14 छात्र आपके सेंटर के ही जान देने वालों मेें शामिल हैं। हालांकि इसकी वजह यह भी है कि हर साल जो दो लाख बच्चे यहां कोचिंग लेने आते हैं। उनमें से पिछले साल भी एक लाख 25 हजार केवल इसी जाने माने संेटर पर पढ़ने आये थे। इस सेंटर का दावा है कि उसने बच्चो की काउंसिलिंग करने को 72 काउंसिलर तैनात कर रखे हैं। लेकिन इस सेंटर के बच्चो की बड़ी संख्या देखते हुए ये उूंट के मुंह में ज़ीरा यानी 1700 बच्चो पर एक काउंसिलर ही उपलब्ध है। असली प्राॅब्लम यह है कि बच्चो के मातापिता यह समझने को तैयार नहीं हैं कि हर बच्चा पढ़ना नहीं चाहता हर बच्चा डाॅक्टर इंजीनियर नहीं बनना चाहता हर बच्चा अपने घर परिवार और रिश्तेदार व दोस्तों से अलग रहने की शक्ति नहीं रखता। हर बच्चे में इन मुश्किल और थकाउू व उबाउू कोर्स को करने की प्रतिभा और साहस नहीं होता। हर बच्चा उतनी मेहनत और लगन नहीं रखता जितनी इन कोर्स को करने के लिये चाहिये। हर बच्चे में वो शौक चाहत और सेवा की भावना नहीं होती जो इन कोर्स को करने के बाद डाॅक्टर इंजीनियर बनकर बाद में नौकरी या अपना क्लीनिक व अस्पताल शुरू करने लिये चाहिये। बच्चो को अपनी ज़िद के सामने आत्महत्या कर मर जाने तक के लिये जोखिम लेने वाले मातापिता कभी बच्चे से उसके मन की बात जानने की कोशिश नहीं करते कि वह क्या चाहता है? आजकल बच्चे मोबाइल लिव इन रिलेशन और नशे के भी शिकार होने लगे हैं। उनके मातापिता को अपने बच्चे के बारे मेें कभी पता ही नहीं होता कि वह वहां रहकर जी जान से पढ़ रहा है या मौज मस्ती और टाइम पास कर रहा है? ऐसे में जब वह अचानक टेस्ट या परीक्षा में नाकाम होता है तो मातापिता उस पर खूब गुस्सा नाराज़गी और दुख जताने लगते हैं। ऐेसे में या तो बच्चा कोचिंग और घर छोड़कर हमेशा के लिये कहीं भाग जाता है या फिर अपनी जान देने के अलावा कोई दूसरा रास्ता उसको नज़र ही नहीं आता। हमार कहना है कि बच्चे उनके मातापिता और उनके कोचिंग सेंटर को यह समझना चाहिये कि हर बच्चा ना तो पास हो सकता है और ना ही उसकी रूचि ये सब करने में होती है और साथ ही उनमें से अनेक में इतनी प्रतिभा भी नहीं होती इसलिये बच्चो को उनकी पसंद सामर्थ और प्रतिभा के हिसाब से पढ़ने दें।

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 24 August 2023

नई भारतीय संहिता

*नाम बदलने से संहिताओं में क्या क्या बदल जायेगा ?* 
0भारत सरकार ने 1860 में अंग्रेज़ों द्वारा बनाई गयी आईपीसी यानी भारतीय दंड संहिता 1973 की सीआरपीसी यानी आपराधिक प्रक्रिया संहिता और 1872 के इंडियन एविडेंस एक्ट यानी भारतीय साक्ष्य अधिनियम को बदलकर एतिहासिक क़दम उठाये हैं। लेकिन विपक्ष इसके कई प्रावधानों को जनविरोधी बताकर अभी से विरोध कर रहा है। हालांकि अभी ये तीनों विधेयक संसद से पास नहीं हुए हैं। इन तीनों के ड्राफ्ट पर फिलहाल गहन विचार करने के लिये संसद की स्थायी समिति को भेजा गया है। लेकिन इस पर व्यापक चर्चा होने लगी है कि क्या इससे क्रिमनल जस्टिस सिस्टम पर कोई सार्थक व सकारात्मक अंतर पड़ेगा या केवल इन संहिताओं के नाम व कुछ धाराओं की संख्या व उनमें जोड़ घटाओ तक ही यह कवायद सीमित रहने वाली है?      
   *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
      संसदीय समिति की रिपोर्ट के बाद अगर कुछ संशोधन कर इन तीनों विधेयकों को संसद से शीतकालीन सत्र में पास किया जाता है तो इंडियन पेनल कोड को भारतीय न्याय संहिता क्रिमनल पेनल कोड को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और इंडियन एविडेंस एक्ट को भारतीय साक्ष्य विधेयक 2023 के नाम से जाना जायेगा। भारतीय दंड संहिता का पहला मसौदा थाॅमस बबिंगटन मैकाले की अध्यक्षता वाले प्रथम विधि आयोग द्वारा तैयार किया गया था। यह मसौदा इंग्लैंड के कानून के सरल संहिताकरण पर आधरित था। इसके साथ ही इसमें नैपोलियन कोड और 1825 के लुइसियाना नागरिक संहिता से भी कुछ प्रावाधन शामिल किये गये थे। आईपीसी का पहला ड्राफ्ट 1837 में काउंसिल में गवर्नर जनरल के सामने पेश किया गया था। संहिता को अंतिम रूप देने में ईस्ट इंडिया कंपनी राज को 20 साल गुजर गये। संहिता का अंतिम मसौदा 1850 में तैयार हुआ। इसको 1856 में विधान परिषद में रखा गया। इसके बाद 1857 के गदर की वजह से इसे कुछ समय को रोक दिया गया। बान्र्स पीकाॅक ने कई संशोधनों और बदलाव के बाद इसे 1 जनवरी 1860 को बाकायदा लागू किया गया। इस संहिता को 23 अध्याय में विभाजित किया गया है। जिसमें कुल 511 धारायें शामिल रही हैं। अब सरकार ने आईपीसी के 22 प्रावधानों को खत्म करने और वर्तमान 175 प्रावधानों में परिवर्तन करने का फैसला किया है। इनमें 8 नई धारायें जोड़ी गयी हैं। कुल 356 प्रावधान हैं। सरकार ने एक ओर कहा है कि यह विध्ेायक राजद्रोह कानून को पूरी तरह समाप्त करता है। जबकि राज्य के विरूध अपराध की नई धारा 150 कहती है कि भारत की संप्रभुता एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कामों लिये कड़ी कानूनी कार्यवाही की जायेगी। साथ ही माॅब लिंचिंग के अपराध के लिये 7 साल या उम्रकैद या सज़ा ए मौत की विचित्र व्यवस्था की गयी है। जबकि हत्या की सज़ा पहले ही आजीवन कारावास या फांसी रही है। ऐसा लगता है कि माॅब लिंचिंग को सरकार साधारण हत्या से कम गंभीर अपराध मानकर चल रही हैै? ऐसे ही भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता सीआरपीसी के 9 प्रावधानों को खत्म कर उसके 160 प्रावाधनों में व्यापक बदलाव कर 9 नये प्रावाधन शामिल करती है। प्रस्तावित नये विधेयक में कुल 533 धारायें शामिल हैं। भारतीय साक्ष्य विधेयक में वर्तमान अधिनियम के 5 प्रावधानों को निरस्त कर 23 प्रावधानों में परिवर्तन कर एक नया प्रावधान शामिल किया गया है। इस विध्ेायक में कुल 170 सैक्शन हैं। नये विध्ेायकों में भगौड़े अपराधियों की एक पक्षीय सुनवाई, दंड की व्यवस्था सभी आपराधिक मामलों में जीरो प्रथम सूचना रिपोर्ट के व्यापक प्रावधान, शून्य एपफआईआर को 15 दिन के अंदर संबंधित थाने में भेजना अनिवार्य, आवेदन के 120 दिनों में अनुमति ना देने पर प्राधिकरण के अपराधों के आरोपी सिविल सेवक पुलिस अफसर व अन्य कर्मचारियों पर स्वतः केस चलाने की सराहनीय प्रक्रिया शुरू हो सकेगी। एक और प्रशंसनीय काम रिपोर्ट से लेकर केस डायरी चार्जशीट और निर्णय देने की पूरी कार्यवाही का डिजिटीकरण होगा साथ ही अपील जिरह सुनवाई वीडियो काॅन्फ्रेंिसंग के ज़रिये होगी। यौन अपराधों से जुड़े मामलों की सुनवाई के दौरान पीड़ितों के बयान और तलाशी व ज़ब्ती की वीडियो बनाना अनिवार्य होगा। रिपोर्ट के 90 दिन के भीतर चार्जशीट दाखिल करनी होगी लेकिन कोर्ट इसकी सीमा 90 दिन और बढ़ा सकता है। इसके बाद कोर्ट को 60 दिन के भीतर आरोप तय करने होंगे और सुनवाई पूरी कर एक माह में फैसला देना ज़रूरी होगा। फैसला एक सप्ताह के भीतर आॅनलाइन उपलब्ध कराना होगा। ये सब सरकार के सराहनीय कदम माने जा सकते हैं। नया कानून पुलिस को 15 की बजाये 90 दिन की हिरात की इजाज़त देता है। जो आरोपी को एक तरह से अपराधी मानमकर पहले से 6 गुना समय जेल में रखने की मंशा सरकार के आलोचकों को लगती है। विपक्ष का कहना है कि इन नये कानूनों की जांच के लिये वकीलों रिटायर्ड जजों पूर्व पुलिस अफसरों सिविल सेवकों मानव अधिकार नागरिक अधिकार और महिला अधिकार के लिये आंदोलन व संघर्ष करने वालों की एक कमैटी बनाई जाये। उसका कहना है कि इन विधेयकों से संविधान के सैक्शन 14, 19 और 21 के तहत दिये गये नागरिकों के मूल अधिकारों पर गंभीर ख़तरा मंडरा रहा है। ऐसे ही शादी के झूठे बहाने सैक्स करने को लेकर नया विशेष अपराध बनाना एक नई समस्या खड़ी करेगा। छोटी चोरी आत्महत्या का असफल प्रयास और मानहानि के मामूली मामलों में कम्युनिटी सर्विस का प्रावधान एक सकारात्मक पहल मानी जा सकती है।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Saturday 5 August 2023

तीसरी अर्थव्यवस्था

अर्थव्यवस्था बड़ी होना नहीं प्रति व्यक्ति आय बढ़ना विकास है ?
0 भाजपा का दावा है कि उसकी सरकार ने देश को दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना दिया है। पीएम मोदी जी का कहना है कि अगर उनको तीसरी बार सरकार बनाने का अवसर दिया गया तो वे देश को विश्व की तीसरी बड़ी इकाॅनोमी बना देंगे। लेकिन सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश की जीडीपी उनके कार्यकाल में कांग्रेस की सरकार के मुकाबले आधी से भी कम स्पीड यानी 2014 से 2023 तक 84 प्रतिशत तो 2004 से 2014 तक दोगुने से भी अधिक यानी 183 प्रतिशत बढ़ी थी। हमारे देश के मुकाबले छटे स्थान पर ब्रिटेन की प्रति व्यक्ति आय हमसे 25 गुना अधिक है। जबकि दुनिया की तालिका में भारत प्रति व्यक्ति आय 2600 डाॅलर के हिसाब से देखा जाये तो हम 128 वें स्थान पर हैं।   

   *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 

      इंटरनेशनल माॅनेटरी फंड के अधिकृत आंकड़ों के अनुसार दुनिया में जीडीपी के हिसाब से अमेरिका 26855 बिलियन डाॅलर नंबर वन तो चीन 19374 बिलियन डाॅलर दूसरे व जापान 4410 बिलियन डाॅलर तीसरे और 4309 बिलियन डाॅलर जर्मनी चैथे और भारत 3737 बिलियन डाॅलर के साथ पांचवे स्थान पर है। 2014 से 2023 तक चीन की जीडीपी 84 तो अमेरिका की 54 प्रतिशत बढ़ी है। इनके अलावा दुनिया के टाॅप टेन देशों में से कई की जीडीपी या तो मामूली बढ़त के साथ स्थिर रही है या फिर मंदी के कारण वर्तमान से भी कुछ नीचे चली गयी है। मिसाल के तौर पर जिस यूके को हमने पांचवे पायेदान से पीछे छोड़ा है। उसकी जीडीपी बढ़त इस दौरान मात्र 3 तो फ्रांस की 2 और रूस की केवल एक प्रतिशत ही रही है। उधर ब्राजील की जीडीपी उल्टा 15 प्रतिशत पीछे चली गयी है। इसकी वजह दुनिया में आई 2008-09 की मंदी भी बनी। हालांकि भारत भी इस मंदी से प्रभावित हुआ लेकिन उसका असर बहुत हल्का सा था। हालांकि पूर्व अनुमान के अनुसार भारत आशा के अनुसार 8 से 9 प्रतिशत की स्पीड से नहीं बढ़ रहा है लेकिन अगर हम 6 प्रतिशत की जीडीपी औसत बढ़त भी बनाये रख सके तो 2027 तक जर्मनी और जापान को पीछे छोड़कर विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकते हैं। इसकी वजह यह होगा कि हमारी इकाॅनोमी तब तक 38 तो जापान और जर्मनी की 15 प्रतिशत ही बढे़गी। 2004-09 में डीडीपी 8.5 प्रतिशत तो 2004 से 2014 तक औसत 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी। आज भारत की जीडीपी 5.7 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। वह दौर एक तरह से मनमोहन सिंह सरकार का भारत में आार्थिक प्रगति का स्वर्ण काल था लेकिन अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की आड़ में मीडिया व संघ परिवार ने एक सोची समझी योजना के तहत तिल का ताड़ बनाकर उस सरकार को काल्पनिक टू जी घोटाले के बहाने इतना अधिक बदनाम कर दिया जितना उसका कसूर नहीं था। इन आंकड़ों की सहायता से हम यह समझ सकते हैं कि किसी देश की जीडीपी बढ़ने में उसकी सरकार आबादी और दूसरे देशों की मंदी कम स्पीड और प्रति व्यक्ति आय की क्या भूमिका होती है? हमारे देश में 35 करोड़ लोग पूरा पौष्टिक खाना नहीं खा पा रहे हैं। 80 करोड़ लोगों को सरकार 5 किलो अनाज देकर जीवन जीने में मदद कर रही है। देश की निचली 50 प्रतिशत आबादी सालाना आमदनी 50 हज़ार रूपये कमाकर भी कुल जीएसटी का 64 प्रतिशत चुका रही है। जबकि सबसे अमीर 10 प्रतिशत मात्र 3 प्रतिशत भागीदारी कर रहे हैं। इससे आमदनी ही नहीं खर्च और कर चुकाने के हिसाब से भी आर्थिक असमानता लगातार बढ़ती जा रही है। जबकि चोटी के एक प्रतिशत की वार्षिक आय 42 लाख है। जीएसटी हर साल हर माह पहले से अधिक बढ़ने का दावा भी सरकार अपनी उपलब्धि के तौर पर करती है जबकि जानकार बताते हैं कि इसका बड़ा कारण तेज़ी से बढ़ती बेतहाशा महंगाई भी है। महंगाई बढ़ाने में खुद सरकार पेट्रोलियम पदार्थों रसोई गैस और चुनचुनकर उपभोक्ता पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाना या कर की दरें लगातार बढ़ाते जाना भी हैै। जीडीपी प्रोडक्शन का पैमाना माना जाता है। लेकिन यह उपभोग का माप भी है। जब आप कन्ज्यूमर की एक विशाल गिनती लेकर उसे एक मामूली राशि से गुणा करेंगे तो एक बहुत बड़ी संख्या आती है। अगर क्रय मूल्य समता यानी पीपीपी के आधार पर देखा जाये तो हमारी यह 2100 अमेरिकी डाॅलर है। जबकि यूके की 49,200 डाॅलर और अमेरिका की 70,000 डाॅलर है। अगर देश के लोग गरीब हैं तो दुनिया में जीडीपी पांचवे तीसरे नंबर पर ही नहीं नंबर एक हो जाने पर भी क्या हासिल होगा? यह एक तरह से भोली सीधी सादी जनता को गुमराह करने का एक राजनीतिक झांसा ही है। सच तो यह है कि मोदी सरकार की नोटबंदी देशबंदी और जीएसटी बिना विशेषज्ञों की सलाह लिये और बिना सोचे समझे और जल्दबाज़ी में लागू करने से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहंुचा है जिससे यह वर्तमान में जहां खुद पहंुचने वाली थी उससे भी पीछे रह गयी है। इसका परिणाम तेज़ी से बढ़ती बेरोज़गारी और महंगाई है। इसके साथ ही यह भी एक बड़ा विचारणीय तथ्य है कि जिस देश में शांति भाईचारा समानता निष्पक्षता धर्मनिर्पेक्षता न्याय नहीं होगा वहां शांति नहीं रह सकती और जब शांति नहीं होगी तो ना विदेशी निवेश आयेगा और ना ही स्थानीय स्वदेशी कारोबार से अर्थव्यवस्था ठीक से फले फूलेगी।                 

 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 27 July 2023

मणिपुर हिंसा

*मणिपुर हिंसा: कारण साम्प्रदायिक, राजनीतिक या व्यवसायिक है ?*  
0मणिपुर के चुराचांदपुर सैकोट क्षेत्र से भाजपा विधायक पाओलीन लाल हाओकिप ने राज्य सरकार पर हिंसा में शामिल होने का गंभीर आरोप लगाया है। उधर नेशनल फेडरेशन आॅफ वूमेन की तीन सदस्यीय  एनी राजा निशा सिद्ध्ूा और दीक्षा द्विवेदी की टीम ने राज्य के सघन दौरे के बाद अपनी जांच रिपोर्ट में मणिपुर हिंसा को राज्य प्रायोजित बताया है। टीम का निष्कर्ष है कि इस हिंसा के पीछे जातीय टकराव नहीं बल्कि काॅरपोरेट एजेंडा है। हालांकि मणिपुर में कई माह से चल रही हिंसा पर देश सरकार विपक्ष और सुप्रीम कोर्ट का फोकस दो कुकी महिलाओं को दंगाइयों द्वारा निर्वस्त्र कर घुमाने का वीडियो दुनियाभर में वायरल होने से हंगामा मचने के बाद बढ़ा है। जबकि यह मामला 4 मई का है।          
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
      मणिपुर की आबादी लगभग 35 लाख है। इनमें मुख्य रूप से तीन वर्ग मैतई कुकी और नागा हैं। जनसंख्या में सर्वाधिक मैतई अधिकांश हिंदू हैं लेकिन इनमें मुसलमान भी शामिल हैं। नागा और कुकी ज़्यादातर ईसाई हैं। जो जनजाति में गिने जाते हैं। राज्य के कुल 60 विधायकों में से 40 मैतई हैं। अब तक बने कुल 12 मुख्यमंत्रियों में से दो ही आदिवासी हुए हैं। मैतई केवल 10 प्रतिशत मैदानी क्षेत्र में रहते हैं। जबकि बाकी 90 प्रतिशत पर्वतीय इलाके मेेें कुकी और नागा रहते हैं। पहाड़ी इलाकों में अपार खनिज संपदा है। बताया जाता है कि काॅरपोरेट की पैनी नज़र इस खनिज संपदा पर है। लेकिन आदिवासी कुकी और नागा जनजातियां किसी भी बाहरी हस्तक्षेप को किसी कीमत पर स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। मैतई समुदाय की पुरानी मांग है कि उनको भी जनजाति का दर्जा दिया जाये। जिससे वे पहाड़ में बसकर उसके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर सकें। मणिपुर हाईकोर्ट में इसके लिये एक याचिका दाखि़ल की गयी थी। इस पर हाईकोर्ट ने सरकार से इस मांग पर विचार करने को कहा तो हालात बिगड़ गये। निर्णय के अगले ही दिन मणिपुर विधानसभा की हिल एरियाज़ कमेटी ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास कर इस आदेश से दुखी होने की बात कही। इस समिति के मुखिया भाजपा विधायक डी गेंगमे हैं। हालांकि बाद मेें सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को यह कहते हुए नकार दिया कि हाईकोर्ट को ऐसा करने का कोई अधिकार ही नहीं था। लेकिन तब तक राज्य में हालात बेकाबू होने लगे थे। मैतई समाज का दावा है कि 1949 में राज्य के भारत में विलय से पहले उनको जनजाति का स्थान मिला हुआ था। कुकी और नागा मैतई की इस मांग का ज़बरदस्त विरोध करती रही हैं। उनका कहना है कि मैतई को पहले ही एससी और ओबीसी रिज़र्वेशन के साथ आर्थिक रूप से पिछडे़ वर्ग का लाभ मिल रहा है। इसके बाद 3 मई को आॅल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन मणिपुर ने इसके विरोध में आदिवासी एकजुटता रैली चुराचांदपुर जिले में आयोजित की। इसी रैली के दौरान दोनों समुदाय में हिंसा की वारदात शुरू हो गयीं। धीरे धीरे ये हिंसक झड़पें पूरे राज्य में फैल गयीं। सैकड़ों चर्च और दर्जनों मंदिर जला दिये गये। सौ से अधिक लोग मारे गये। 60 हजार से अधिक लोग बेघर हो गये। बड़े पैमाने पर दोनों समुदाय के मकान दुकान और दूसरे संस्थान तबाह कर दिये गये। सुरक्षा बलों का हथियारों का ज़खीरा लूट लिया गया। जबकि दूसरे वर्ग का आरोप है कि यह लुटने दिया गया। पुलिस एक वर्ग का साथ देती नज़र आने लगी। निर्वस्त्र महिलाओं के शर्मनाक वायरल वीडियो को लेकर भी पुलिस के तटस्थ बने रहने के आरोप लगे। सीएम एन वीरेन सिंह ने अफीम की खेती के खिलाफ बड़ा अभियान छेड़ रखा है। आरोप है कि जनजातियों में राज्य की भाजपा सरकार को लेकर पहले से ही काफी नाराज़गी पनप रही थी। इसी दौरान 3 मई को एक फेक वीडियो बड़ी तेज़ी से वायरल हुआ जिसमें दावा किया गया था कि कुकी समुदाय के कुछ उग्रवादियों ने मैती समुदाय की महिला से बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी है। इसकी तीखी प्रतिक्रिया 4 मई को कुकी समुदाय की दो महिलाओं को निर्वस्त्र कर सार्वजनिक रूप से घुमाने उनके अंगों से छेड़छाड़ और सामूहिक रेप के तौर पर निर्लज रूप में सामने आई जिससे पूरा देश शर्मसार हुआ और हिंसा के 78 दिन बाद सुप्रीम कोर्ट के कार्यवाही की चेतावनी देने के बाद सरकार मजबूरी में कुछ कार्यवाही करती नज़र आई। आरोप है कि जनजातियों के कब्ज़े वाली ज़मीन लीज पर काॅरपोरेट के हवाले करने के लिये बड़े पैमाने पर काफी लंबे समय से सख्ती से खाली कराई जा रही है। इससे सबसे अधिक कुकी समुदाय के लोग ही प्रभावित हो रहे हैं। चुराचांदपुर भी ऐसा ही एक क्षेत्र है। जिसमें इस तरह की शिकायतें सरकारी कार्यवाही और विरोध अंदर ही अंदर बढ़ने की ख़बरंे लंबे समय से आ रही थीं। इतना ही नहीं कुकी समुदाय का आरोप है कि राज्य सरकार ने अतिक्रमण के बहाने वहां तीन चर्च खुद ही गिरा दिये थे। इसके बाद जंगल से अवैध कब्ज़ा हटाने के नाम पर तेंगोपाल और कांगपोपकी क्षेत्रों से कुकी समुदाय के अनेक गांव उजाड़ दिये गये। जंगल संरक्षण के नाम पर बिना पूर्व नोटिस उनके दर्जनों घर गिरा दिये गये। इतना ही नहीं कुकी से जुड़े दो उग्रवादी समूह से सरकार ने हुए शांति समझौतों को एकतरफा तोड़ दिया। कुकी समुदाया को असभ्य म्यामार के घुसपैठिये और अफीम पैदा करने वाले कहकर एनआरसी का डर दिखाकर डराया धमकाया भी जाता रहा है। इस तरह से हम कह सकते हैं कि मैतई और कुकी के बीच अचानक यह हिंसा साम्प्रदायिक या राजनीतिक आधार पर ही नहीं बल्कि सत्ता के काॅरपोरेट हित में झुकने और एक सोची समझी दूरगामी योजना का प्रतिफल भी हो सकता है।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*

Sunday 9 July 2023

मोदी का विकल्प नहीं

*विपक्ष एक हो सकता है लेकिन उस पर मोदी का विकल्प नहीं!* 

0पटना में विपक्षी दलों ने लोकसभा की लगभग 400 सीटों पर भाजपा गठबंधन के खिलाफ़ साझा उम्मीदवार उतारने का फ़ैसला लेकर बेशक भाजपा सरकार के सामने मज़बूत चुनौती पेश की है। लेकिन यह भी सच है कि अभी भी विपक्ष के पास भाजपा की असली ताकत पीएम मोदी का कोई विकल्प नहीं है। संघ परिवार ने बड़ी मेहनत से सरकार के लाभार्थी व हिंदू समर्थक मुट्ठीभर कामों से मोदी की इमेज मीडिया मैनेज कर मार्केटिंग और ब्रांडिंग के बल पर सुपरमैन की बना दी है। 15 से 20 प्रतिशत अमीर 10 प्रतिशत लाभार्थी और 5 से 10 प्रतिशत कट्टर हिंदुत्व समर्थक मतदाता आज भी भाजपा के साथ जुड़ा हुआ है। देखना यह है कि विपक्ष इनमें से कितने और किस वर्ग के वोट अपने पास भाजपा से खींचता है।          

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      कांग्रस के नेतृत्व मेें ना सही लेकिन कांग्रेस के बैनर तले चंद विपक्षी दलों को छोड़कर लगभग सभी भाजपा पीड़ित क्षेत्रीय दल 2024 का आम चुनाव गठबंधन कर लड़ने को तैयार होते नज़र आ रहे हैं। यह अलग बात है कि यूपी में पिछली बार सपा बसपा और कांग्रेस का गठबंधन होने के बावजूद एक दूसरे को उनका वोट ट्रांस्फर ना होने से संसदीय चुनाव में कोई खास कामयाबी विरोधी दलों को नहीं मिली थी। लेकिन इतना तो तय है कि अगर विपक्षी दलों के वोटांे का बंटवारा रूका या कम हुआ तो भाजपा गठबंधन के लिये वो सीटें जीतना भी कठिन हो जायेगा, जो उसने पिछले चुनाव में बिना किसी मशक्कत के आराम से जीत लीं थीं। आंकड़े बताते हैं कि भाजपा ने 2019 के चुनाव में 46 सीट चार लाख 105 सीट 3 लाख 164 सीट दो लाख और 77 सीट एक लाख के अंतर से जीती थीं। ज़ाहिर है कि इन सीटों पर विरोधी दल गठबंधन करके वोट ना बंटने के बावजूद जीत हासिल कर ही लें इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती है। यह भी हो सकता है कि भाजपा विपक्ष के साझा उम्मीदवार से जीत तो फिर भी जाये मगर उसका जीत का अंतर कुछ कम हो जाये। बिहार महाराष्ट्र और तमिलनाडू में विपक्षी गठबंधन पहले ही भाजपा से बहुत आगे है। राजस्थान छत्तीसगढ़ और एमपी में हालांकि कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव पिछली बार जीत लिया था। लेकिन इन तीनों राज्यों में लोकसभा की कुल 65 सीट में से 62 भाजपा गठबंधन ने जीत लीं थीं। कर्नाटक गुजरात हरियाणा हिमाचल उत्तराखंड असम पंजाब और गोवा में कांगे्रस का भाजपा से सीधा मुकाबला होने जा रहा है। ये सब मिलाकर लगभग 200 सीट हो जाती हैं। केरल तेलंगाना आंध्र प्रदेश में भाजपा का कोई वजूद नहीं है। इसलिये वहां गठबंधन करना उल्टा भाजपा को वेट और जगह देना होगा। बंगाल उड़ीसा और दिल्ली में वहां की क्षेत्रीय पार्टियां इतनी मज़बूत हैं कि कांग्रेस अगर उनको अकेले लड़ने के लिये वाकओवर दे दे तो भी कांग्रेस से अधिक भाजपा का नुकसान होना तय है। रहा यूपी का सवाल यहां सपा या बसपा में से कोई एक ही दल कांग्रेस के साथ आ सकता है। अखिलेश यादव ने बहुत जल्दी मुसलमानों का मूड भांपकर अपनी कांग्रेस और भाजपा से बराबर दूरी की ज़िद को छोड़ दिया है। उनको यह बात समझ आ गयी है कि विधानसभा चुनाव में तो उनके साथ उनका सजातीय यादव और कुछ अन्य हिंदू पिछड़ा वर्ग का वोट आ भी जाता है लेकिन लोकसभा चुनाव में सिवाय मुसलमानों के उनके साथ कोई दूसरा बड़ा वोटबैंक नहीं बचा है। अगर वे कांग्रेस का साथ नहीं देंगे तो बसपा की तरह आने वाले आम चुनाव में उनकी समाजवादी पार्टी का भी सूपड़ा पूरी तरह साफ होना तय था। उनके साथ राष्ट्रीय लोकदल और चंद्रशेखर आज़ाद की दलित पार्टी का गठबंधन भाजपा के लिये अच्छी खासी मुसीबत खड़ी कर सकता है। हालांकि यह सही बात है कि अगर कांग्रेस सपा की बजाये बसपा से गठबंधन करती तो भाजपा के लिये बड़ी चुनौती साबित हो सकती थी। लेकिन बहनजी अपने दौर में किये घोटालों की जांच से जेल जाने से डरकर भाजपा को नाराज़ कर कांग्रेस के साथ किसी कीमत पर जाने का दुस्साहस नहीं कर पायेंगी। यह हिम्मत राहुल गांधी ने दिखाई है जिससे दिन ब दिन उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। अब भाजपा के सामने एक तरफ कुंआ और दूसरी तरफ खाई है। अगर वह राहुल को नहीं रोकती है तो राहुल अकेले ही उसकी खाट खड़ी करने का संकल्प ले चुके हैं। अगर वह राहुल को नहीं रोकती है तो राहुल अकेले ही उसकी खाट खड़ी करने का संकल्प ले चुके हैं। अगर वह राहुल को जेल भेजती है या दूसरं तरीकों से सताती है तो राहुल पहले से अधिक मज़बूत होते जायेंगे। यह बात अभी से साफ नज़र आ रही है कि भाजपा चाहे जो करले उसका चरमउत्कर्ष का काल गुज़र चुका है। 2024 के चुनाव में वह बहुमत से पीछे भी रह सकती है। उसकी सीटें और वोट दोनों घटेगा अगर पुलवामा जैसी कोई आकस्मिक घटना नहीं घटी। यह बात दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ़ पढ़ी जा सकती है कि कांग्रेस और राहुल गांधी की छवि पप्पू के दौर से निकलकर पहले से बेहतर और भाजपा की पकड़ जनता पर कमज़ोर हो रही है। लोगों को यह भी साफ समझ आ गया है कि कांग्रेस ही पूरे देश में भाजपा का मुकाबला कर हरा सकती है। क्षेत्रीय दलों की सीमा और उनके नेताओं के काले कारनामे जेल जाने के डर से उनको लड़ने ही नहीं देंगे। इसलिये भाजपा विरोधी मतदाता कांग्रेस की तरफ तेजी से लौटने को तैयार है।                 

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।*