Monday 11 March 2019

बालाकोट

बालाकोट: चुनावी मुद्दा क्यों नहीं ?

0विपक्ष को इस बात पर भारी एतराज़ है कि बालाकोट प्रिएम्टिव स्ट्राइक मोदी सरकार चुनावी मुद्दा बना रही हैइसमें कोई दो राय नहीं है कि पुलवामा का बदला लेने से देश का राजनैतिक विमर्श पूरी तरह बदल चुका है। यही वजह है कि अब विपक्ष और निष्पक्ष लोगांे ने यह सवाल उठाना शुरू कर दिया है कि बालाकोट में कितने आतंकी मरे?लेकिन मोदी समर्थकों को इससे कोई मतलब नहीं है।      

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   14 फ़रवरी से पहले देश का राजनीतिक माहौल बिल्कुल अलग था। विपक्ष ने मोदी सरकार को राफेल सौदे मंे गड़बड़ी से लेकर खेती किसानी बेरोज़गारी नोटबंदी जीएसटी और रोटी कपड़ा मकान जैसी बुनियादी ज़रूरतोें को पूरा करने मंे नाकाम होने पर घेरकर बैकफुट पर धकेल दिया था। लेकिन अचानक कश्मीर में पुलवामा हमले में हमारे 40 से अधिक सुरक्षाकर्मी शहीद होने के बाद देश का सारा फोकस कश्मीर पाकिस्तान और आतंकवाद की समस्या की ओर चला गया।

इसके बाद 26 फ़रवरी को पुलवामा का बदला लेने के लिये हमारी बहादुर सेना ने पाकिस्तान के बालाकोट में प्रिएम्टिव गैर सैनिक स्ट्राइक किया। इसके बाद हमारे मीडिया मंे कहा गया कि इस बदले की कार्यवाही में जैश ए मुहम्मद के 300 से 600 आतंकी मारे गये। हालांकि सेना और सरकार ने इस बारे में कोई अधिकृत आंकड़ा जारी नहीं किया। लेकिन भाजपा मुखिया बिना किसी ठोस सबूत के 250 आतंकियों के मरने का दावा करके विपक्ष के सवालों से घिर गये। उधर पाकिस्तान ने दावा किया कि बालाकोट हमले में केवल एक नागरिक की मौत हुयी है।

इसके बाद विदेशी मीडिया ने भी किसी आतंकी के मरने की पुष्टि नहीं की। हालांकि अगले दिन पाकिस्तान के कुछ जंगी विमानों ने भी एलओसी पार कर हमारे देश में घुसने की कोशिश की लेकिन हमारी वायुसेना ने उसके मनसूबे पूरे नहीं होने दिये। इसके बाद हमारा एक विंग कमांडर पायलट अभिनंदन पाकिस्तान द्वारा पकड़ा गया लेकिन 24 घंटे के अंदर ही उसको हम वापस देश लाने में कामयाब रहे। कुल मिलाकर पहली बार पाकिस्तान  भारत के सामने झुकता नज़र आया। ये सब कुछ तो वहीं ख़त्म हो गया। लेकिन देश में इसके बाद चुनावी समीकरण पूरी तरह बदलते नज़र आये।

14 फ़रवरी से पहले जहां मोदी सरकार विपक्ष के दबाव मेें लग रही थी। वह 26फ़रवरी के बाद विपक्ष पर हावी होने लगी। सत्ता पक्ष और विपक्ष की बात कुछ देर को न भी करें तो देश के बुध््िदजीवी निष्पक्ष मीडिया और सुलझे हुए नागरिकों का कहना है कि आर्थिक सामाजिक रोज़गार किसान और कानून व्यवस्था के असली मुद्दों को दरकिनार कर भाजपा की मोदी सरकार द्वारा बालाकोट को चुनावी मुद्दा बनाना ठीक नहीं है। सवाल यह है कि क्या राष्ट्रीय सुरक्षा वास्तव में बेरोज़गारी रोटी कपड़ा मकान सड़क बिजली शिक्षा स्वास्थ्य और कानून व्यवस्था से बड़ा मुद्दा नहीं है?

अगर देश ही ख़तरे में हो तो लोग पहले अपनी सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देंगे या बुनियादी अवश्यकताओं को?सवाल यह भी है कि क्या 1965, 1971और 1999 की सीमित जंग के बाद तत्कालीन सरकारों को राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे का चुनावी लाभ नहीं मिला थातो यही चुनावी लाभ मोदी सरकार को क्यों नहीं मिलना चाहियेदूसरा सवाल यह भी है कि 26/11 के मुंबई हमले के बाद कांग्रेस सरकार ने पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिये कोई स्ट्राइक करने की इजाज़त सेना को क्यों नहीं दी थी?अगर जब कभी कांग्रेस सरकार ने पाक के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक की भी थी तो उसको सार्वजनिक करने से किसने रोका था?

अगर आज मोदी सरकार ने बाकायदा14 फरवरी के आतंकी हमले का बदला पाकिस्तान से लेने का खुलेआम ऐलान करके 12 दिन के अंदर पाकिस्तान में घुसकर बालाकोट में सेना द्वारा बम बरसाये हैं तो इसका श्रेय उसको क्यों नहीं मिलेगाहालांकि इसके बाद पाकिस्तान ने भी ऐसा ही करने की नाकाम कोशिश की है। लेकिन पूरी दुनिया में इस बार पाकिस्तान अलग थलग पड़ गया है। उसकी आतंक समर्थक छवि और आर्थिक रूप से लगभग दिवालिया हो जाने से दुनिया उसको भाव नहीं दे रही है।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब हमारे देश में साम्प्रदायिकता धर्म जाति क्षेत्र भाषा कालाधन हिंसा झूठ पेड और फेक न्यूज़ झूठे वादे फर्जी दावे नक़ली चुनावी सर्वे अफ़वाहें गोदी मीडिया और यहां तक कि दंगों कराकर लाशों तक पर बेशर्मी और बेहिसी से चुनावी राजनीति कर सत्ता हासिल की जा सकती है तो बालाकोट जैसा राष्ट्रीय सुरक्षा का बड़ा और संवेदनशील मुद्दा चुनावी मुद्दा बनने से कैसे रोका जा सकता है?

दरअसल यह विपक्ष की नालायकी और खासतौर पर कांग्रेस का अपने निजि राजनीतिक स्वार्थ में क्षेत्रीय व सेकुलर दलों से उसका झुककर तालमेल न करना ही भाजपा को बालाकोट से एक बार फिर से 2019 के चुनाव जीतने को खुला मैदान देने की वजह मानी जानी चाहिये। वर्ना यूपी में सपा बसपा और लोकदल के महागठबंधन के बाद आज भी कोई यह दावा नहीं कर रहा कि बालाकोट के बाद यहां भाजपा पहले की तरह 80 में से 73 तो दूर 40 सीट भी आराम से जीत पायेगी

राष्ट्रवाद को सर्वोपरि मानकर वोट करने का जहां तक मतदाता और आम आदमी का सवाल है तो उसकी सोच समझ और परिपक्वता को इन शातिर राजनेताओं स्वार्थी नौकरशाही गोदी मीडिया और धनपशुओं ने धूर्त कॉकस बनाकर अपना गुलाम बना लिया है। ऐसा लगता है कि यह अंध्ेारा ख़त्म तो ज़रूर होगा लेकिन इसमें 5 से 10साल नहीं शायद कई दशक लग सकते हैं।                                    

0 मेरे बच्चे तुम्हारे लफ़्ज़ को रोटी समझते हैं,

  ज़रा तक़रीर कर दीजे कि इनका पेट भर जाये।।                   

पुलवामा

पुलवामाः कुछ भी करोदेश सुरक्षित करो!

0 कश्मीर में सीआरपीएफ़ के जवानों की जान जिसने भी ली है। आज नहीं तो कल उसको इसकी कीमत चुकानी ही होगी। देश की सुरक्षा और एकता के मामले में हम सब सेना के साथ हैं। पाकिस्तान आतंकवादियों और अलगाववादियों की इस मामले में हम कोई सफ़ाई नहीं सुनेंगे। लेकिल सबसे बड़ा सवाल यह है कि ऐसा क्या किया जाये जिससे हम पर ऐसे हमले फिर कभी न हों?      

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   पुलवामा हमले के बाद देशवासियों की भावनाओं और सरकार की सेना को जवाबी कार्यवाही की छूट को देखते हुए यह तय है कि देश के 40 से अधिक जवानों की शहादत का बदला हर हाल में लिया जायेगा। सवाल यह है कि ऐसा क्या किया जाये जिससे यह मसला हमेशा के लिये हल हो जायेइससे पहले उड़ी और पठानकोट पर भी ऐसे ही आतंकी हमले हो चुके हैं। बदले में हम पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक कर चुके हैं। इसका मतलब सर्जिकल स्ट्राइक से दुश्मन ने सबक नहीं लिया। जब देश मंे नोटबंदी की गयी थी तब भी यह कहा गया था कि इससे आतंकवादियों और नक्सलवादियों की कमर टूट जायेगी।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पाकिस्तान का मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा ख़त्म किया जा चुका है। सिंध्ुा घाटी की हमारे हिस्से की 3 नदियों का पानी पाकिस्तान जाने से रोकने के लिये सरकार बांध बनाने का काम तेज़ कर चुकी है। हमले की ज़िम्मेदारी लेने वाले जैश ए मुहम्मद के मुखिया मौलाना मसूद अज़हर को विश्व आतंकी घोषित कराने की मुहिम भी हमारी सरकार ने तेज़ कर दी है। अलगाववादी कश्मीरी नेताओं की सुरक्षा व अन्य सुविधायें वापस ली जा रही हैं। कुछ को जेल भी भेजा जा चुका है। धारा 35ए ख़त्म करने की भी तैयारी चल रही है।

इससे कश्मीर घाटी में अगर कोई विरोध बढ़ेगा तो उससे निबटने को वहां अतिरिक्त सुरक्षा बल भेजे गये हैं। पाकिस्तान को आतंकवाद के लिये पूरी दुनिया में हर तरह से घेरने के लिये हमारी सरकार ने पेशबंदी शुरू कर दी है। सेना को जवाबी कार्यवाही करने के लिये सरकार ने खुली छूट दी है। लेकिन सरकार ने हमले के लिये चूक की ज़िम्मेदारी न तो खुद ली है और न ही किसी एजेंसी और अधिकारी पर डाली है। उधर हमारा मीडिया पाकिस्तान से जंग के लिये ज़ोरदार माहौल बना रहा है। साथ ही देशभर में कश्मीरी छात्रों नौकरीपेशा लोगांे और व्यापारियों पर कुछ जगह पर हमलों की ख़बरों के बीच पीएम मोदी ने ऐसा न करने की अपील देर से ही सही लेकिन की है।

     मेघालय के गवर्नर तथागत राय ने बाकायदा कश्मीरियों के बहिष्कार की अपील कर दी है। भाजपा के मुखिया अमित शाह असम को कश्मीर न बनने देने का ऐलान चुनावी लाभ के लिये कर रहे हैं। देहरादून में संघ परिवार से जुड़े कुछ संगठनों के दबाव में कुछ कॉलेजों ने भविष्य में कश्मीरी छात्रों को प्रवेश न देने का ऐलान कर दिया है। कुछ लोगों ने कश्मीरियों को होटल और मकान किराये पर न देने के बोर्ड लगा दिये हैं। सुकमा में जब हमारे 76 जवान शहीद हुए थे। तब छत्तीसगढ़ के लोगों के साथ देश में ऐसा कहीं नहीं हुआ था।

कश्मीर हमारा है तो कश्मीरी भी हमारे ही हैं। यह सोच संविधान विरोधी देशविरोधी और सरासर गलत है कि अगर किसी राज्य धर्म या जाति के किसी आदमी ने कोई गलत काम किया है तो उसके सभी लोगों को इसके लिये कसूरवार मानकर सज़ा दी जाये। साथ ही जो लोग यह समझते हैं कि वे पाकिस्तान पर हमले की मांग करके खुद को देशभक्त और हमले का विरोध करने वालों को देश्द्रोही साबित कर सकते हैं। वे भी नादान और भावुक हैं। अगर आप इतिहास पढ़कर देखें तो पाकिस्तान हमसे एक दो नहीं चार चार जंग हार चुका है। लेकिन वो अपनी नापाक हरकतों से बाज़ नहीं आया है।

पाकिस्तान और भारत दोनों के पास परमाणु बम भी है। अगर भविष्य में जंग शुरू होती है तो यह नहीं कहा जा सकता कि परमाणु बम का इस्तेमाल किसी हालत मंे नहीं होगा। जर्मनी के हिरोशीमा नागासाकी पर परमाणु बम के हमले से मानवता का कितना नुकसान हुआ था। यह किसी से छिपा नहीं है। इसके बावजूद हम यह नहीं कह सकते कि पाकिस्तान से जंग होनी ही नहीं चाहिये। लेकिन जंग एक बार शुरू हो जाये तो वो कैसे ख़त्म होगी और क्या भयंकर व भयावह रूप ले लेगी यह कोई भी गारंटी से नहीं कह सकता। इसके साथ ही जान माल का नुकसान भी दोनों देशों का कम या अधिक होता ही है।

अगर ऐसी जंग हो जिसमें केवल पाकिस्तान को पूरी तरह ख़त्म कर दिया जाये और हमारा कोई नुकसान न हो तो यह काम ज़रूर किया जाना चाहिये। दरअसल कश्मीर के तीन हिस्से हैं। एक कश्मीर घाटीजहां लगभग सारे मुसलमान रहते हैं। दो जम्मू जहां लगभग सारे हिंदू रहते हैं। तीसरा लद्दाख़ जहां लगभग सारे बौध््द रहते हैं। जम्मू और लद्दाख़ में कोई प्रॉब्लम नहीं है। घाटी के भी कुछ ही ज़िलों में अलगाववादी आतंकवादी और कट्टरपंथी हावी हैं। इसका एक बड़ा कारण उनका धर्म भी है। अगर यह क्षेत्रीय अस्मिता और कश्मीरी पहचान का सवाल होता तो घाटी से तीन लाख से अधिक कश्मीरी पंडितों को जबरन डरा धमकाकर नहीं निकाला जाता।

     केवल धर्म अलग होने की वजह से भारत ही नहीं दुनिया का कोई भी देश अपने किसी राज्य को अलग होने की इजाज़त नहीं दे सकता। देश के 8 राज्य ऐसे हैं जहां हिंदू अल्पसंख्यक हैं। अगर एक बार यह घातक देशविरोधी सिलसिला शुरू हुआ तो यह रूकने का नाम नहीं लेगा। अब तक मोदी सरकार जिस तरह से कश्मीर के सैनिक समाधान का प्रयास करती रही है। उससे हालात दिन ब दिन बिगड़ते ही गये हैं। कश्मीर को संविधान के दायरे में कुछ अतिरिक्त स्वायत्ता देकर इसका बातचीत से राजनीतिक हल किया जाये तो शायद कोई रास्ता निकल सकता है। नहीं तो बातचीत हो या जंग पूरा देश मोदी सरकार के साथ खड़ा है।                                  

0 न इधर उधर की बात कर यह बता काफ़िला क्यों लुटा,

  मुझे रहज़नों से गिला नहीं तरी रहबरी का सवाल है।।                   

 

हिन्दू अल्पसंख्यक?

8 राज्यों में हिंदुओं से अन्याय क्यों?

0 2011 की जनगणना के अनुसार हिंदू पंजाब में 38.40 मणिपुर में 31.39 अरूणाचल में29.00 कश्मीर में 28.44 मेघालय में 11.53नागालैंड में 8.75 मिजोरम में 2.75 और लक्षदीप में 2.5 प्रतिशत है। कायदे से यहां बहुत पहले ही हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया जाना चाहिये था। लेकिन दुख की बात है कि यह मामला लंबे समय से कोर्ट में लटका हुआ है।     

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   सुप्रीम कोर्ट ने अल्पसंख्यक आयोग से 3 माह में 8 राज्यों में हिंदुओं के अल्पसंख्यक होने के बारे में रिपोर्ट देने को कहा है। कोर्ट का सवाल है कि जिन राज्यों में हिंदुओं की आबादी वहां रहने वाले दूसरे समुदायोें से कम है तो उनको क्यों नहीं अल्पसंख्यक का दर्जा देकर वे सब लाभ दिये जायें जो संविधान द्वारा अल्पसंख्यकों को दिये गये हैंकोर्ट ने यह भी जानना चाहा है कि क्या राज्य विशेष में आबादी के आधार पर अल्पसंख्यक दर्जा केंद्र के स्तर से अलग किया जा सकता हैदरअसल संविधान में अल्पसंख्यकों को जो दर्जा दिया गया है।

उसको हमारे राजनेताओं ने आज तक ठीक से या तो समझा नहीं है या फिर वे जानबूझकर उसको ठीक से लागू ही नहीं करना चाहतेयह निर्विवाद सच है कि बहुसंख्यकों के पास हर राज्य और देश में एक तरह का संख्या बल होता है। यह संख्या बल इतना शक्तिशाली और मनमाना होता है कि अगर वहां संविधान और लोकतंत्र ठीक से लागू न हो तो वे अल्पसंख्यकों को बराबरी का अधिकार तो दूर उनका जीना भी मुश्किल कर सकते हैं। सही मायने में अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार की नहीं बल्कि सुरक्षा समानता और सम्मान की ज़रूरत ही अधिक होती हैै।

भारत में केंद्र के स्तर पर देखा जाये तो लगभग80 प्रतिशत आबादी के साथ हिंदू सम्प्रदाय बहुसंख्यक है। दूसरी तरफ मुसलमान सिख ईसाई पारसी जैन यहूदी और बौध्द जैसे छोटे छोटे अन्य समुदाय हैं। जिनकी जनसंख्या 14प्रतिशत से लेकर एक प्रतिशत से भी कम तक है। एक तरह से इनको कानून समाज विकास रोज़गार सरकारी सुविधाओं और संसाधनों के मामले में किसी भी तरह के पक्षपात अन्याय या उपेक्षा से बचाने के लिये संविधान ने एक तरह का सुरक्षा कवच दिया है। लेकिन हमारे राजनेताओं ने इनको अपने वोटबैंक और सियासत के हिसाब से गलत इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।

मिसाल के तौर पर मुसलमानों को जहां सेकुलर दलों की सरकारों ने आर्थिक शैक्षिक और व्यवसायिक तौर पर पिछड़ा बनाये रखा वहीं उनको मज़हबी दकियानूसी और कट्टरपंथी मामलों में लकीर का फ़कीर बनाकर तुष्टिकरण किया गया। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण शाहबानों केस में राजीव गांधी की सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट का तर्कसंगत मानवीय और लैंगिक समानता के आधार पर दिया गया एतिहासिक फैसला बदला जाना है। इसका न केवल खुद मुसलमानों को सीधा नुकसान हुआ बल्कि इस पक्षपात तुष्टिकरण और कट्टरपंथ के सामने सरकारों के झुकने से हिंदुओं में असंतोष और आक्रोष पैदा हुआ।

जिसको संघ और भाजपा ने राजनीतिक धार देकर सत्ता पाने देश के माहौल को असहिष्णु बनाने और मुसलमानों को देश की सबसे बड़ी समस्या प्रचारित करने में काफी हद तक सफलता भी हासिल कर ली। हिंदुओं की बड़ी संख्या को यह सवाल चुभना स्वाभाविक है कि दुनिया की एक मात्र सर्वाधिक हिंदू आबादी वाले देश में भी अल्पसंख्यकों को उनसे अधिक और विशेष अधिकार क्यों और कैसे दिये जा सकते हैंमिसाल के तौर पर कब्रिस्तानों की चारदीवारी इमामों को वेतन और मदरसों को अनुदान कुछ ऐसे ही चर्चित मुद्दे रहे हैं। जिनसे हिंदू मुस्लिम के बीच दीवार और दरार बनाने में सियासत को पंख लग गये हैं।

इसके साथ ही प्रतीकात्मक तौर पर सेकुलर नेताओं की रोज़ा अफ़तार ईदगाह पर जाकर मुसलमानों को मुबारकबाद और हज सब्सिडी कुछ ऐसे चुनावी मुद्दे बना दिये गये हैं। जिनसे मुसलमानों को कोई फायदा नहीं हुआ लेकिन हिंदुओं के दिलों में ये बात बैठा दी गयी कि देखिये आपके ही देश में आपके साथ कितना सौतेलापन और अन्याय हो रहा हैसंविधान की मूल स्थापनाओं से टकराने वाले अल्पसंख्यकों के धार्मिक आस्थाओं के मुद्दों पर भी धर्मनिर्पेक्ष दलों ने दोहरा रूख अपनाया। जिससे प्रगतिशील उदार और सहिष्णु हिंदू समाज धीरे धीरे कट्टर साम्प्रदायिक और संकीर्ण होता चला गया।

हमारा मानना है कि धर्म जाति क्षेत्र और भाषा के आधार पर न्याय सबको दिया जाये लेकिन तुष्टिकरण किसी का भी नहीं होना चाहिये। केंद्र के स्तर पर भले ही हिंदुओं को बहुसंख्यक होने की वजह से कोई विशेष लाभ न दिया जाये लेकिन जिन आठ राज्यों में वे जनसंख्या के हिसाब से वास्तव में अल्पसंख्यक हैं। वहां उनको अल्पसंख्यक का दर्जा देकर समानता सम्मान और हर तरह की सुरक्षा दी ही जानी चाहिये।                                 

0 बेवजह सरहदों पर इल्ज़ाम है बंटवारे का,

  लोग मुद्दतों से एक घर में जुदा रहते हैं।।                   

राहुल बनाम मोदी

मोदी पर भारी पड़ रहे हैं राहुल?

0 एक साल पहले तक लगता था कि मोदी एक बार फिर बिना किसी चुनौती के 2019 में पीएम बन जायेंगे। लेकिन हालात ने कुछ ऐसी करवट बदली कि पप्पू समझे जाने वाले कांग्रेस मुखिया राहुल गांधी लगातार संघर्ष करते करते आज मोदी के विकल्प के तौर पर स्थापित होते नज़र आ रहे हैं। कई मामलों में राहुल मोदी पर भारी पड़ रहे हैं।     

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   अगर बात सोशल मीडिया से शुरू करें तो पहली बार बजट पर राहुल गांधी ने पीएम मोदी से आगे रहकर ट्विटर पर बाज़ी मार ली है। बजट पर राहुल के आधे से अधिक ट्विीट लाइक शेयर और रिट्विीट के साथ ट्रेंड कर रहे थे। उधर मोदी के बजट ट्विीट को कोई खास भाव नहीं मिला। यहां तक कि जिस बजट को मोदी सरकार आने वाले चुनाव में गेम चेंजर बता रही थी। उसको पूर्ण बजट न होने से पूंजी बाज़ार शेयर बाज़ार और विदेशी निवेशकों ने कोई विशेष वेट नहीं दिया। उनको पता है कि मोदी सरकार के वापस जीतने की संभावना लगातार कम होती जा रही है।

ऐसे में केंद्र में जो नई सरकार चुनकर आयेगी वही पूर्ण बजट पेश करेगी। उसी नई सरकार से ही देश की आर्थिक नीतियों भी तय होंगी। इतना ही नहीं चापलूस गोदी मीडिया की बात छोड़ दें तो अंतर्राष्ट्रीय निष्पक्ष सर्वे एजंसियों का कहना है कि मोदी की लोकप्रियता दिन ब दिन कम हो रही है तो राहुल की जनता में पसंद बढ़ती जा रही है। कर्नाटक में भाजपा की सरकार न बनने के बाद तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद से सारे राजनीतिक समीकरण उलट पलट हो गये हैं। जिस तरह से कांग्रेस ने इन राज्यों में किसानों के कर्ज माफ किये हैं।

उससे पूरे देश में राहुल गांधी को किसान उम्मीद की निगाह से देख रहे हैं। इसके साथ ही राहुल गांधी ने जिस कामयाबी से देश की दूसरी बड़ी समस्या बेरोज़गारी को उठाया है। उससे नौजवानों की नज़र भी राहुल गांधी पर गड़ गयी है। उधर राफेल विमान घोटाले मेें जिस खूबसूरती से राहुल गांधी ने मोदी सरकार को चौकीदार की जगह चोर बताकर घेरा है। यह नारा बोफोर्स घोटाले से भी बड़ा बनता जा रहा है। हालांकि सच अभी सामने नहीं आया है। लेकिन बच्चे बच्चे की ज़बान पर यह नारा गंूजने लगा है। इससे संघ परिवार भी सकते में आ गया है।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले की जांच से मना करने पर मोदी सरकार को कुछ राहत मिलती लग रही थी। लेकिन राहुल गांधी ने जिस चतुराई से कोर्ट के फैसले से पल्ला झाड़कर मोदी सरकार पर राफेल में बेईमानी का आरोप दोहराना चालू रखा है। उससे आम जनता में यह संदेश जा रहा है कि वास्तव में राफेल सौदे में कुछ गड़बड़ ज़रूर हुयी है। उधर मोदी सरकार राफेल घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से न कराकर भी खुद को संदेह के घेरे में लाती जा रही है। हालांकि मोदी भाजपा और संघ अपना घिसा पिटा नेहरू इंदिरा राजीव और पूर्व की कांग्रेस सरकार विरोधी प्रचार अभियान जारी रखे हैं।

लेकिन इन नारों को सुनते सुनते अब जनता बोर हो चुकी है। लोगों का सवाल मोदी सरकार से है कि उसने उन मुद्दों पर पांच साल में क्या किया जिन पर वह आज भी सत्ता से बाहर हो चुकी कांग्रेस व विपक्ष को घेरना चाहती है। राम मंदिर के मुद्दे पर मोदी को चुनाव जीतने की बड़ी उम्मीद थी। लेकिन इस मामले पर तत्काल फैसला न देकर सुप्रीम कोर्ट ने संघ परिवार के सपने पर पानी फेर दिया है। चुनाव से ठीक पहले सवर्ण गरीबों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने का तीर भी मोदी सरकार का तुक्का ही साबित होता नज़र आ रहा है।

       उधर राहुल गांधी ने मोदी सरकार के अंतरिम बजट में किये गये लोकलुभावन दावों और वादों की पोल खोलकर मास्टर स्ट्रोक समझे जा रहे इस दांव को भी नाकाम कर दिया है। राहुल गांधी का सवाल है कि बजट में नौजवानों के रोज़गार का मुद्दा नज़रअंदाज़ क्यों किया गया हैमोदी सरकार किसानों को हर साल 6000 सहायता का दांव  खेलकर भी राहुल गांधी के किसानों को हर साल 20 हज़ार मदद के ऐलान पर बैकफुट पर जाने को मजबूर होती नज़र आ रही है। इतना ही दो साल से मिनिमम बेसिक इनकम की चर्चा करते रहने के बावजूद मोदी सरकार बजट में इसका प्रावधान करने की हिम्मत नहीं दिखा सकी है।

जबकि राहुल गांधी ने कांग्रेस के सत्ता में आने पर हर गरीब को न्यूनतम गारंटी इनकम का खाका पेश कर सुनहरा सपना दिखा दिया है। ज़ाहिर बात है कि इस बारे में लोग अब मोदी पर नहीं राहुल पर ही भरोसा कर सकते हैं क्योंकि मोदी ने अपने पूरे कार्यकाल मंे ऐसा कदम नहीं उठाया। उधर राइट टू इन्फोरमेशनराइट टू एजुकेशनराइट टू एम्प्लॉयमेंट और राइट टू फूड आदि की योजनायें अपने यूपीए कार्यकाल में लाने से कांग्रेस ने अपनी गरीब समर्थक छवि पहले ही बना रखी है। उधर मोदी सरकार ने जिस तरह से हर मामले में बड़े पूंजीपतियों उद्योगपतियों और धन्नासेठों का साथ देकर अपनी पार्टी और अपने करप्ट नेताओं का निजी भला कराया है।

    उससे मोदी सरकार की छवि सूटबूट वाली अमीरों की हमदर्द और जनविरोधी सरकार की बननी ही थी। राहुल गांधी ने अपनी बहन प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में उतारकर भाजपा की मुसीबत और ज्यादा बढ़ा दी है। उदार हिंदुत्व गाय राम मंदिर और विपक्ष के अन्य दलों के साथ कांग्रेस जितना अधिक तालमेल बनाकर सूझबूझ  के साथ चलेगी उतना ही राहुल गांधी की छवि मोदी के मुकाबले मज़बूत होती जायेगी।                              

0 अदब की बात है मुनीर तुम ज़रा सोचो तो,

 जो शख़्स सुनता हैवह बोल भी सकता है।।