Thursday 20 May 2021

दूसरी कोरोना लहर का पीक

अनुमानः कोरोना मई के अंत तक कम लेने लगेगा जान ?

0 आईआईटी कानपुर के कंप्यूटर साइंस विशेषज्ञ मणींद्र अग्रवाल ने अपै्रल में कहा था कि कोरोना वायरस के स्वरूप में अगर कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ तो मई के पहले सप्ताह से कोविड केस अपने चरम पर पहंुचकर घटने लगेंगे। वास्तव में 7 मई को दूसरी कोरोना लहर के सबसे अधिक4,14,280 पॉज़िटिव केस सामने आये थे। अब देश के जाने माने वायरोलॉजिस्ट डा. शाहिद जमील ने अनुमान लगाया है कि मई के अंत तक कोरोना से जाने वाली जान का आंकड़ा भी धीरे धीरे कम होने लगेगा।     

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   सवाल यह उठ रहा है कि जब कोरोना के केस अपने शिखर पर पहुंच कर 7 मई से नीचे आने लगे हैं। ऐसे में कोरोना से होने वाली मौत का आंकड़ा अभी भी 4500 से भी उूपर जाकर बढ़ता ही क्यों जा रहा हैदरअसल कम लोगों को पता है कि संक्रमण और मृत्यु के आंकड़े कैसे हम तक पहंुचते हैंहालांकि यह बात परेशान करने वाली ज़रूर है कि जब कोरोना की दैनिक जांच लगभग 18 लाख 50हज़ार के औसत पर बने रहने के बावजूद पॉज़िटिव पाये जाने वाले केस घटकर 19 मई को 2,67,246 तक पहुंच चुके हैं। फिर भी मौत का आंकड़ा उसी अनुपात में कम क्यों नहीं हो रहा है?

    इतना ही नहीं उल्टा इस आंकड़े के बढ़ते जाने से लोगों की चिंता बढ़ना भी स्वाभाविक माना जा सकता है। लेकिन इसके लिये हमें थोड़ा संयम सूझबूझ और आंकड़ों की प्रक्रिया को बारीकी से समझना होगा। वास्तविकता यह है कि संक्रमण के आंकड़े जहां प्रतिदिन हमारे सामने आ रहे हैं। वहीं मौत के आंकड़े सामने आने में कुछ दिन की देरी हो रही है। आमतौर पर संक्रमण और मौत के आंकड़े 12 से 14 दिन आगे पीछे चलते हैं। इसकी वजह यह है कि जब किसी आदमी को कोरोना होता है तो उसकी जांच से उसी दिन पता लग जाता है।

    यही वजह है कि कोरोना पॉज़िटिव होने का उसका आंकड़ा उसी दिन सरकार के रिकॉर्ड पर दर्ज होेकर सार्वजनिक हो जाता है। लेकिन जहां तक मौत का सवाल है तो कुल कोरोना पॉज़िटिव में से लगभग एक प्रतिशत के आसपास लोगों की मौत होती है। कोरोना वायरस किसी भी इंसान की बॉडी में जाकर पहले चार से पांच दिन चुपचाप छिप जाता है। इसके बाद वह शरीर में एक्टिव होता है। इसीलिये कहा जाता है कि कोरोना मरीज़ का पांचवा और छटा दिन बहुत जोखिम वाला होता है। इस दिन कोरोना का वायरस इंसान की छाती में प्रवेश कर जाये तो उसके फेफड़ों में संक्रमण करने लगता है।

   यहां कोरोना वायरस खून के थक्के जमाकर हमारे लंग्स को अपनी पूरी क्षमता से काम करने से रोकने लगता है। इससे कोरोना रोगी को सांस लेने में प्रॉब्लम आने लगती है। फिर उनको ऑक्सीजन आईसीयू और वेंटिलेटर उपलब्ध उनकी क्षमतानुसार होता है। इस दौरान एक से दो सप्ताह बाद मरीज़ के मरने की नौबत आती है। इससे पॉज़िटिव आने और जान से जाने में एक से दो सप्ताह का अंतर आ जाता है। अधिकांश रोगी तब तक यह मानने को भी तैयार नहीं होते कि उनको कोेरोना हुआ है।

    इसकी वजह यह है कि अव्वल तो90 प्रतिशत से ज़्यादा लोग इस मौसम में बुखार खांसी नज़ला छींके गले में खराश कमर दर्द घुटनों में दर्द पूरे जिस्म के जोड़ों में दर्द या कमज़ोरी को कोरोना मानते ही नहीं। दूसरे ना तो छोटे शहरों कस्बों और गांवों में बुखार या वायरल होने पर जांच कराने की सुविधा है और ना ही हमारे समाज में परंपरा है कि जान लें कि कहीं कोरोना तो नहीं है। इस दौरान अगर पता लग जाता तो परिवार के अन्य सदस्यों को कोरोना पॉज़िटिव होने से बचाया जा सकता था। लेकिन हमारे यहां तर्क व वैज्ञानिक सोच के अभाव में कोरोना कन्फर्म होने के बाद भी शिक्षित तक भावुक परिवार में कोरोना रोगी को आइसोलेट नहीं किया जाता।

   ऐसे में उन कोरोना पॉज़िटिव की तो बात ही क्या करें जिनको खुद पता नहीं होता कि वे कोरोना का शिकार हो चुके हैं। यानी वे असिप्टोमैटिक होते हैं जिनको कोरोना बीमारी का कोई लक्ष्ण प्रकट ही नहीं होता है। संक्रमण और मौत के आंकड़े एक से दो सप्ताह आगे पीछे चलने की वजह यह भी है कि कई राज्य कोरोना जांच के लिये लिये गये खून के नमूने या आंकड़े तो केंद्र सरकार को तत्काल यानी उसी दिन भेज देते हैं। लेकिन मौत के आंकड़े रोके रखते हैं। कुछ राज्य तो इतने लेट लतीफ है कि मौत के आंकड़े कई दिन बाद ही नहीं एक से दो सप्ताह बाद भी भेज रहे हैं।

    हिंदी दैनिक जनसत्ता के अनुसार मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र के उदाहरण से आंकड़ों के इस खेल को समझते हैं। वहां 17 मई को 1019 मौत रिकॉर्ड पर लाई गयीं। गहराई से जांच पड़ताल करने पर पता लगा कि इनमें से 289मौत तो 15 से 17 मई के बीच हुयी हैं। जबकि 227 एक सप्ताह के दौरान की हैं। इतना ही नहीं 484 मौत तो एक सप्ताह से अधिक पुरानी थीं। ऐसे ही कर्नाटक का मामला जांच में सामने आया कि 476 मौत का आंकड़ा जो उसने हाल ही में जारी किया था। उनमें अप्रैल और मार्च में हुयी मौते भी शामिल थीं।

    ऐसे ही उत्तराखंड ने हाल ही में 223मौत का आंकड़ा जारी किया तो इतने छोटे राज्य के महाराष्ट्र कर्नाटक तमिलनाडु और यूपी के दैनिक 300मौत के आंकड़े के लगभग आसपास पहुंचने पर केंद्र की सरकार की चिंता बढ़ गयी। बाद में जांच में पता लगा कि इस भारी भरकम आंकड़े में 80 मौत पुरानी भी शामिल थीं। इस तरह से आप समझ सकते हैं कि मौत के अब भी सामने आ रहे बढ़े हुए आंकड़े उतने डरावने नहीं हैं। जितने यह देखने सुनने और पढ़ने में लगते हैं। एक बात और कुछ विशेषज्ञ वरिष्ठ चिकित्सक और समाज विज्ञानी दावा कर रहे हैं कि संक्रमण ही नहीं बल्कि मौत के आंकड़े भी सरकार अपराध बेरोज़गारी और जीडीपी के आंकड़ों की तरह बहुत कम करके बता रही है।

  अगर हम इस दावे में कुछ सच्चाई मान भी लें तो इसमें एक सकारात्क बात छिपी हुयी है। गैर सरकारी आंकड़े20 से 25 गुना अधिक बताये जा रहे हैं। इस हिसाब से कोरोना की दूसरी लहर और एक साल से अब तक चल रही पहली लहर में कम से हमारे देश की आधी आबादी कोरोना पॉज़िटिव हो चुकी हो चुकी होगी। अभी भी जानकार सूत्रों का कहना है कि यह लहर जून जुलाई तक ही पूरी तरह नीचे आयेगी। यानी तब तक हमारी आबादी का 15 से20 प्रतिशत हिस्सा और कोरोना से रू ब रू हो चुका होगा। हैल्थ मैग्जीन लांसेट के अनुसार किसी भी देश की सौ प्रतिशत आबादी को कोई महामारी नहीं होती है।

    खासतौर पर बच्चे नौजवानों का एक वर्ग घरों में रहने वाली कुछ महिलायें और विशेष मेहनतकश वर्ग अपनी ज़बरदस्त मज़बूत इम्युनिटी की वजह से इससे अछूता रहता है। तीसरी लहर आने तक देश की कम से कम एक चौथाई आबादी का वैक्सीनेशन हो चुका होगा। आधी से अधिक आबादी में कोरोना से लड़कर एंटी बॉडी यानी एक तरह से हर्ड इम्युनिटी पैदा हो चुकी होगी। इस तरह से आप आशावादी रहिये। अच्छा सोचिये। सकारात्मक सोच रखिये। कोरोना हारेगा। आप और हम सब इसी साल कोरोना से जंग जीतेंगे। फिर धीरे धीरे लॉकडाउन खुलेंगे। अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटेगी। हम सबकी ज़िंदगी में खुशियां एक बार फिर से दस्तक देंगी। विश्वास कीजिये यह सब ज्यादा दूर नहीं है। लेकिन मॉस्क फिज़िकल डिस्टेंसिंग और हैंडवाश याद रखिये।                                                

 

 

Monday 10 May 2021

5 राज्यों के नतीजे

5 राज्यों के चुनाव: कांग्रेस साफ़

भाजपा माफ़,कम्युनिस्ट हाफ!़

0 2 मई को जब पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आये तो ये देश की राजनीति का टर्निंग प्वॉइंट बन गये। पुडुचेरी में सत्ता गंवाकर और असम व बंगाल में गठबंधन के बावजूद पूरी तरह साफ होने के कारण ये देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के लिये बहुत बड़ा धक्का हैं। भाजपा जिस तरह से केंद्र और अनके राज्यों में अब तक की सबसे विवादित सरकारें चला रही हैं। उस हिसाब से देखा जाये तो कोरोना की दूसरी लहर से महाविनाश के बाद भी परिणामों से ऐसा लगता है कि जनता ने उसको आमतौर पर माफ तो कर दिया लेकिन कुछ राज्यांे में सबक भी सिखाया है। उधर कम्युनिस्ट जहां केरल में परंपरा तोड़कर एक बार फिर से सत्ता में लौट आये हैं। वहीं वे 34 साल राज करके बंगाल में अब पूरी तरह से खत्म होते नज़र आ रहे हैं।       

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   अगर बात बंगाल से शुरू करें तो वहां बेशक ममता बनर्जी की टीएमसी ने भाजपा के हिंदुत्व के साथ पूरी केंद्र सरकार मीडिया संघ परिवार कॉरपोरेट सीबीआई ईडी इनकम टैक्स एनआईए चुनाव आयोग और पीएम मोदी व गृहमंत्री शाह को उनके साम दाम दंड भेद के बावजूद चुनाव जीतकर क्षेत्रीय अस्मिता जनहित की राजनीति बंगाली मानुष के जवाबी ध््राुवीकरण से यह दिखा दिया है कि भाजपा को कैसे मनमानी करने से रोका जा सकता है। लेकिन यह भी सच है कि जिस तरह से भाजपा ने वहां के मुख्य विपक्षी गठबंधन कम्युनिस्ट व कांग्रेस को पूरी तरह किनारे लगाकर अपनी सीट 3 से बढ़ाकर एक झटके में 77 कर ली हैं।

    आने वाले समय में वह विपक्ष में रहकर एक तरह से रोज़ चुनाव की तैयारी करेगी और हो सकता है कि अगली बार सत्ता में आकर ही दम ले। पीएम मोदी ने जिस तरह से ममता को दीदी ओ दीदी कहकर चिढ़ाया और बंगाल भाजपा मुखिया घोष ने अश्लीलता की हद पार करते हुए यहां तक कह दिया कि ममता चोट लगने का जो नाटक कर रही है उससे पता चलता है कि वह आधे कपड़े ही पहनती है। इसके साथ ही अमित शाह ने शुरू से ही 200 से अधिक सीट जीतने का दावा किया वह सब मिलकर बंगाल के मतदाताओं खासतौर पर महिलाओं को बहुत नागवार लगा।

    जिस तरह से केजरीवाल ने दिल्ली में भाजपा का सत्ता में आने का सपना अपने जनहित के कामों के साथ ही जवाबी अपनी हिंदू पहचान से तोड़ा था। वही काम अब ममता ने अपना गोत्र चंडी पाठ दुर्गा पूजा पंडालों के लिये सरकारी दान और कई मंदिरों में जाकर लड़ाई हिंदू बनाम मुस्लिम होने से रोक दी। इतना ही नहीं सूती साड़ी हवाई चप्पल सादा मकान अपने खर्च पर सरकारी डाक बंगलों में ठहरना अपनी पेंशन ना लेना और दूसरे कई आम आदमी जैसे काम ममता की तीसरी रिकॉर्ड जीत के लिये मज़बूत आधार बन गये। उधर वामपंथी और कांग्रेस का बेमेल गठबंधन एक तो लोगों को पसंद नहीं आया।

    दूसरे कांग्रेस के खिलाफ भाजपा ने अपने व्हाट्सएप ग्रुपों से इतना ज़हर घोल दिया है कि वह अब कांग्रेसमुक्त भारत बनाने में लगभग सफल नज़र आ रही है। कम्युनिस्टों के पास चुनाव लड़ने को भाजपा के बराबर तो क्या सत्ताधारी टीएमसी के बराबर भी संसाधन नहीं थे। जिनको ममता से नाराज़गी थी। वे विपक्ष में कांग्रेस और कम्युनिस्टों को छोड़कर इस बार भाजपा के पाले में चले गये। तीन विवादित कानूनों के खिलाफ किसानों का गुस्सा भी किसी सीमा तक बंगाल के चुनाव में देखा जा सकता है।

    इतना ही नहीं कांग्रस और वामपंथियों ने फुरफुरा शरीफ मज़ार के कट्टरपंथी मैनेजर अब्बास सिद्दीकी के हाल ही में बने इंडियन सेकुलर फ्रंट से गठबंधन करके भाजपा के इस आरोप को खुद ही सही साबित कर दिया कि इनको मुस्लिम साम्प्रदायिकता और उनके तुष्टिकरण से कोई परहेज़ नहीं है। इतना ही नहीं यही गल्ती कांग्र्रेस ने असम में कट्टरपंथी मुस्लिम नेता बदरूद्दीन अजमल की यूडीएफ से पैक्ट करके कर दी। मौके की नज़ाकत ना समझते हुए अजमल ने एक से बढ़कर एक भड़काने वाले बयान भी खूब जारी किये। यही वजह थी कि भाजपा सीएए और अन्य तमाम कमियों व शिकायतोें के बावजूद असम का चुनाव हिंदू मुस्लिम बनाकर आराम से जीतने में एक बार फिर सफल हो गयी।

    यही नहीं कांग्रेस ने केरल में भी मुस्लिम लीग के साथ अपना साम्प्रदायिक गठबंधन जारी रखा। कांग्रेस ने वहां सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर भी बिल्कुल भाजपा जैसा रूख़ अपनाया था। आपको याद होगा इस विषय पर हमने पहले ही एक लेख लिखकर कांग्रेस का यह आत्मघाती क़दम बताया था। जिसका बदला अब वहां की महिलाओं ने कांग्रेस गठबंधन से इस चुनाव में ले लिया है। जबकि वहां कई दशकों से बारी बारी से वामपंथी और कांग्रेस सत्ता में आते रहे हैं। लेकिन इस बार वहां यह परंपरा टूट गयी है।

    इतना ही नहीं कांग्रेस वहां मुस्लिम लीग से गठबंधन करने के बावजूद इस बार बड़ी संख्या में मुसलमानों को कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जाने से नहीं रोक पायी। इसकी वजह यह बताई जाती है कि पिनराई विजयन की वामपंथी सरकार जिस तरह वहां सबके विकास के निष्पक्ष काम कर ही है। उसका असर मुसलमानों की सोच पर यह देखकर भी पड़ा है कि अगर कम्युनिस्ट हारे तो केरल में भी आगे हिंदू साम्प्रदायिकता के बल पर भाजपा मज़बूत होने लगेगी। उनको वामपंथी यह भी समझाने में सफल होते लगे कि हिंदू साम्प्रदायिकता यानी भाजपा का मुकाबला मुसलमान साम्प्रदायिकता यानी मुस्लिम लीग के साथ मिलकर कांग्रेस नहीं कर पायेगी।

    इसके अलावा कम्युनिस्ट सीएम विजयन ने जिस समर्पण मेहनत और योग्यता से बाढ़ और कोरोना संकट का सामना किया । उसकी केरल की जनता ने ही नहीं पूरे देश और विदेशों तक में चर्चा हो रही है। केरल में 2019 के चुनाव में20 में से 19 लोकसभा सीट जीतने वाली कांग्रेस के लिये यह एक और बड़ा झटका है। कांग्रेस की चुनाव से पहले पुडुचेरी में सरकार थी। जो भाजपा ने चुनाव से कुछ ही दिन पहले उसके कुछ विधायकों से त्यागपत्र दिलाकर अपने जाने पहचाने तौर तरीकों से गिरा दी थी। इस बार चुनाव में कांग्रेस इस केंद्र शासित छोटे से प्रदेश की सत्ता भी गंवा बैठी है।

    हालांकि इसका राष्ट्रीय राजनीति पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ता। लेकिन जब कांग्रेस केंद्र के साथ ही एक के बाद एक बड़े राज्यों की सत्ता से बाहर होती जा रही है और फिर कई बार से वहां वापस सत्ता में भी नहीं आ पा रही है तो यह कांग्रेस सत्ता के बचे खुचे राज्यों की गिनती बढ़ाने में तो कुछ मदद कर ही रहा था। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस पुडुचेरी असम बंगाल और केरल में पांच में से चार राज्यों में अपना बहुत कुछ सरमाया लुटा बैठी है। वह केवल तमिलनाडु में डीएमके के साथ बहुत छोटा साझेदार बनकर चंद सीट जीतकर अपने दिल को समझा सकती है कि उसने पांच में एक राज्य आंशिक रूप से जीता है।

    जहां तक कम्युनिस्टों का सवाल है। उनके लिये कभी खुशी कभी ग़म वाला मामला है। यानी वे जीत भी गये हैं और हार भी गये हैं। मतलब हाफ रह गये हैं। उधर तमिलनाडु मेें डीएमके गठबंधन के स्टालिन ने ऐसे समय में10 साल बाद एआईडीएमके को भाजपा से गठबंधन करने बावजूद हराया है। जबकि उसकी एकमात्र नेत्री जयललिता अब दुनिया में नहीं रही है। जयललिता का कोई विकल्प उनके दल के पास नहीं है। उधर स्टालिन को अपने पिता करूणानिधि से राजनीति घुट्टी में मिली है। उनके सीएम बनने के बाद ना केवल एआईडीएमके बल्कि भाजपा को भी उनको सत्ता से बाहर करने में लंबे समय तक संघर्ष करना होगा। कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि अगर राजनीतिक दल पढ़ना चाहें तो इन चुनावी नतीजों में सबके लिये कुछ ना कुछ राजनीतिक रण्नीतिक और सामाजिक संदेश हैैं।