Friday 27 August 2021

तालिबान का विरोध

बर्बर तालिबान का विरोध होना ही चाहिये लेकिन करे कौन ?

0 आतंकवाद उग्रवाद नक्सलवाद साम्प्रदायिक हिंसा छुआछूत रंगभेद धार्मिक तुष्टिकरण माॅब लिंचिंग मज़हबी सियासत जबरन धर्म परिवर्तन महिला उत्पीड़न इंटरफे़थ मैरिज का विरोध खाप पंचायती गैर कानूनी फै़सले जातिवादी पक्षपात  अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना लोकतंत्र पर तानाशाही और धर्मनिर्पेक्षता पर बहुसंख्यकवाद को प्राथमिकता देना एक ही वायरस से पैदा होने वाली छोटी बड़ी अनेक बीमारियों के नाम हैंइस वायरस का नाम है अमानवीयता।

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  0 मज़हब को लौटा ले उसकी जगह दे दे,

    इंसान सलीके़ के तहज़ीब क़रीने की ।।

          अफ़गानिस्तान में तालिबान एक बार फिर सत्ता में लौट आये हैं। तालिबान बर्बर कट्टरपंथी दकियानूसी साम्प्रदायिकमहिला अल्पसंख्क समानता मानवता विरोधीहिंसक अमानवीय अतीतजीवी अंधविश्वासी और ज़ालिम थेहैं और रहेंगे। उनका फिलहाल यह झांसा देना कि वे बदल गये हैं। महज़ एक रण्नीति का सियासी हिस्सा है। जब वे पहले की तरह पूरी तरह सत्ता पर काबिज़ हो जायेंगे। वे वही जंगली हरकतें दोहरायेंगे जो उन्होंने 1996 से 2001 तक पूरी दुनिया की परवाह ना करते हुए अंजाम दी थी। दरअसल तालिबान जिस मज़हबी हकूमत की दुहाई देते हैं। उसमें बुनियादी बदलाव की तनिक भी गुंजाइश ही नहीं है। तालिबान बदलाव के तमाम दावों के साथ बार बार यह ज़रूर दोहरा रहा है कि वे इस्लाम के हिसाब से ही सरकार चलायेंगे। कहने को तो पूरी दुनिया मंे मुसलमानों के 57 मुल्क हैं। उनमें भी कई देशों में शरीया कानून लागू हैं। लेकिन तालिबान का इस्लाम शरीया और उसकी मज़हबी व्याख्या पूरी दुनिया से अलग ही है। बहरहाल हम यहां इस बहस में नहीं जाना चाहते कि असली और सही इस्लाम और शरीया कौन सी हैक्योंकि इस मुद्दे पर खुद इस्लामी विद्वान एकराय नहीं हैं। हमारा तो दो टूक मानना है कि धर्म पर्सनल चीज़ है। उसको पब्लिक यानी सरकार में नहीं लाना चाहिये। ये दो पैमाने भी नहीं चलेंगे कि कहीं आप बहुसंख्यक हैं तो अपना धर्म सरकार का धर्म बना देते हैं और अगर कहीं आप अल्पसंख्यक हैं तो वहां सेकुलर राज की मांग करते हैं। सच तो यह है कि आज सभी धर्म और उनकी मान्यतायें उनकी शिक्षायें निर्देश आदेश सज़ायें टैक्स सिस्टम और हज़ारों साल पहले जीवन जीने के तौर तरीके़ इतने पुराने असमान और अव्यवहारिक हो चुके हैं कि कोई भी समाज कोई भी देश और कोई भी सम्प्रदाय आज वैज्ञानिक आधुनिक प्रगातिशील विवेकशील तर्कशील मानवीय नैतिक समानता का नज़रिया अपनाये बिना आगे बढ़ना तो दूर सम्मान और बराबरी के साथ जिं़दा भी नहीं रह सकता। तालिबानियों के काबुल पर क़ब्जे़ से चंद खुलकर तो अधिकांश मन ही मन खुश होने वाले नादान मूर्ख और अपनी ही कौम के दुश्मन मुसलमानों को कुछ गलतफ़हमियां दूर कर लेनी चाहिये। तालिबान ने रूस को अकेले नहीं हराया था। उसमें अमेरिका पाकिस्तान सऊदी अरब सहित पूरी दुनिया के कई मुस्लिम और अमेरिका के मित्र देशों सहित मदरसों के कट्टर आलिमों ने पैसे हथियार प्रशिक्षण और नास्तिकों से आर पार की जंग के नाम पर उनको मानव बम बनाने में अनेक तरह से तालिबान की मदद की थी। अमेरिका की यूनिवर्सिटियों में बाकायदा एक जेहादी कोर्स तैयार किया गया था। जिससे तालिबान को इस्लाम बचाने के लिये कम्युनिस्टों के सफ़ाये की ज़रूरत समझाई गयी थी। आज यही गल्ती अमेरिका को भारी पड़ रही है। उसके बाद अमेरिका को तालिबान राज से कोई शिकायत तब तक नहीं थी। जब तक अलकायदा ने वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला नहीं कर दिया। अमेरिका ने तब भी अपने पैदा किये तालिबान पर सीधा हमला ना कर पहले अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को अपने हवाले करने को अपील की थी। लेकिन जब तालिबान सरकार ने उस पर कान नहीं दिये तो अमेरिका ने उस पर धावा बोला। अमेरिका के हमला करते ही तालिबान सत्ता छोड़ दुम दबाकर अफगानिस्तान की रहस्यमय पहेली बन चुकी पहाडि़यों में जा कर छिप गया। जिनसे अमेरिकी सैनिक परिचित नहीं थे। साथ ही अमेरिका का साथ देने का नाटक करने वाला पाकिस्तान भी पर्दे के पीछे तालिबान के बड़े नेताओं को अपने यहां छिपाने हथियार देने हमले की जानकारी लीक करने और शरण देने में लगा रहा। 2012 में अमेरिका ने ओसामा को पाकिस्तान के एबटाबाद में बिना उसकी परमीशन व सूचित किये मारकर अलकायदा को ख़त्म करने का अपना मिशन पूरा कर लिया। इसके बाद उसे तालिबान के फिर से अफ़गानिस्तान की सत्ता में आने या ना आने से कोई खास लेना देना नहीं था। उसने भारत जैसे अपने मित्र देशों के साथ मिलकर कई अरब डाॅलर खर्च कर अफगानिस्तान का विकास वहां लोकतंत्र की स्थापना सड़कें पुल बांध संसद भवन अस्पताल स्कूल महिला शिक्षा और अल्पसंयकों को बराबर अधिकार दिलाने को चुनाव कराकर सरकार बनवाई । लेकिन पहले करज़ई और फिर ग़नी सरकार उसके सुरक्षा बल उसकी पुलिस सरकारी अधिकारी कर्मचारी और जनता का एक वर्ग अमेरिका की बजाये तालिबान से ही सहानुभूति रखे रहा। आखि़र अमेरिका वहां कब तक रहताकितना पैसा खर्च करताकितने अमेरिकी सैनिक अपनी जान देतेएक ना एक दिन तो उसको वहां से बाहर निकलना ही था। ज़रूरत इस बात की थी कि खुद अफ़गान जनता और उसकी सरकार सुरक्षा बल तालिबान से लड़ते विरोध करते और उसको बदलने या सत्ता से दूर रहने पर मजबूर करते। लेकिन वे सब एक कट्टरपंथी विचारधारा और तालिबान के जान देने या लेने के जज़्बे के सामने नहीं टिक सके। अमेरिका यह भूल गया कि वह एक देश को बर्बर युग से निकालकर सीध्ेा यूरूप जैसा माॅर्डन सेकुलर और खुला देश नहीं बना सकता। कम लोगों को पता होगा कि अमेरिका ने फरवरी 2020 में क़तर के दोहा में तालिबान से शांति समझौता किया था। जिसके तहत अमेरिका ने अफ़गानिस्तान छोड़ा और बदले में तालिबान ने तब से अब तक अमेरिकी सैनिाकों पर कोई बड़ा हमला नहीं किया। हमारा गोदी मीडिया तालिबान को भी चंद कट्टर मुस्लिमों के बहाने हिंदू मुस्लिम मुद्दा बनाने पर तुला है। जबकि मंुबई के बड़े विख्यात राष्ट्रीय प्रगतिशील संगठन इंडियन मुस्लिम फ़ॅार सेक्युलर डेमोक्रेसी का वो शानदार और साहसी बयान उसको चर्चा करने के लायक नहीं लगा। जिसमें उसने दो टूक कहा है कि अब धर्म आधारित राज्य का समय ख़त्म हो चुका है और अफ़गानिस्तान में इस्लामी अमीरात बनाने की कोशिश ही मनुष्य विरोधी है। इस तरह की निष्पक्ष और उदार सोच वाले लोग ही सही मायने में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का विरोध करने और यहां मुसलमानों व कमजोर व गरीब हिंदुओं के साथ होने वाले पक्षपात पर बोलने व तालिबानियों का खुला विरोध करने का अपने सेकुलर हिंदू भाइयों के साथ मिलकर आवाज़ उठाने का नैतिक अधिकार रखते हैं।   

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Saturday 21 August 2021

देश का बंटवारा क्यों हुआ?

इतिहास देखें आखि़र देश के बंटवारे के लिये कौन जि़म्मेदार है ?

0 14 अगस्त 1947 को देश का बंटवारा हुआ था। इसी दिन पाकिस्तान बना था। लाखों लोग अपना घरबार छोड़कर पाक से भारत और भारत से पाकिस्तान गये थे। 1950 तक 4000 मुसलमान हर दिन रेल से पाकिस्तान जाते रहे। बंटवारे के दौरान लगभग 90 लाख शरणार्थी पंजाब से पाकिस्तान गये तो करीब 12 लाख उधर से भारत आये। दोनों तरफ हुए दंगों में 13 लाख लोग मारे गये तो एक लाख से अधिक महिलाओं के साथ बर्बर बलात्कार हुए। इतना ही नहीं डेढ़ करोड़ लोग विस्थापन को मजबूर हुए। सच है विभाजन विभीषिका ही था लेकिन उसका स्मृति दिवस मनाने से अब क्या हासिल होगा?

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  0 उसके होंठो की तरफ़ ना देख वो क्या कहता है,

    उसके क़दमों की तरफ़ देख वो किधर जाता है।।

          पीएम मोदी ने कहा है कि यह दिन हमें भेदभाव वैमनस्य और दुर्भावना के ज़हर को खत्म करने के लिये न केवल प्रेरित करेगा बल्कि इससे एकता सामाजिक सद्भाव और मानवीय संवेदनायें भी मज़बूत होंगी। उनकी बातें सुनने में तो अच्छी और बेहतर लगती हैं। लेकिन उनकी सरकार की कथनी करनी में अब तक ज़मीन आसमान का अंतर देखा गया है। हमारे पीएम आंदोलनकारियों को कपड़ों से पहचानने एक राज्य का चुनाव जीतने को कब्रिस्तान शमशान और ईद दिवाली पर बराबर बिजली व धर्म के आधार पर नागरिकता देने वाला विभाजनकारी कानून सीएए बनाते हैं। वे खुद को हिंदू और राष्ट्रवादी एक साथ जोड़कर बताने में गुरेज़ नहीं करते। वे अल्पसंख्यकों की माॅब लिंचिंग पर रहस्यमयी चुप्पी साध लेते हैं। जबकि बहुसंख्यकों की धार्मिक गतिविधियों में देश के एक धर्मनिर्पेक्ष राष्ट्र होने के बावजूद खुलकर हिस्सा लेते हैं। वे दलितों से होने वाले पक्षपात और जातीय हमलों पर भी रण्नीतिक ढंग से चुनचुनकर बयान देते हैं। वे खुद को पिछड़ी जाति का बताते हैं। लेकिन उनकी जाति की गणना कराने से परहेज़ करते हैं। वे गरीबों किसानों महिलाओं और कमज़ोर वर्गों की समस्याओं पर कभी गंभीरता से विचार कर समाधन का प्रयास करते नज़र नहीं आते। यहां तक कि वे मुख्य विरोधी दलों विपक्ष शासित राज्यों सेकुलर निष्पक्ष और योग्य हिंदुओं से भी असहमति जताने पर सीधे संवाद और संघ परिवार के कुछ अति उत्साही संगठनों द्वारा भाजपा विरोधियों के साथ आपत्तिजनक व्यवहार नारेबाज़ी या हमलों पर कभी कठोर शब्दों में निंदा या कानूनी कार्यवाही उसी शैली में नहीं करा पाते जिस तरह से अल्पसंख्यकों दलितों या कुछ गरीबों द्वारा ऐसी ही कोई विवादित या गैर कानूनी हरकत करने पर सरकार बेहद सक्रियता अति उत्साह और दमन की भावना का प्रदर्शन करती रहती है। क्या यह समानता का व्यवहार कहा जा सकता हैऐसे ही अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप कांग्रेस सपा बसपा व अन्य क्षेत्रीय दलों पर भाजपा लंबे समय से लगाती रही है। जो आज खुद भाजपा पर बहुसंख्यक वोटबैंक की राजनीति करने को लेकर लग रहे हैं। जानकार लोगों का तो कहना यह रहा है कि देश का बंटवारा एक दुखद और डरावना दिन था। इस दिन को बुरा सपना मानकर भूल जाना ही बेहतर है। आज भी भारत में ऐसे लोगों की काफी बड़ी तादाद है। जिनको विभाजन की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। लाखों लोग रातो रात अपने घर परिवार रिश्तेदार दोस्त स्टेटस कारोबार ज़मीन जायदाद जे़वर दौलत पूजा स्थल और अपनी जन्मभूमि छोड़कर लुटपिटकर इधर से उधर और उधर से इधर आये और गये। 14 अगस्त भारत के इतिहास की वो मनहूस तारीख़ है जो आंसुओं से लिखी गयी। दरअसल यह दिलों भावनाओं और खून के रिश्तों का बंटवारा था। यह भी सच है कि भुलाने की लाख कोशिशों के बावजूद भारतमाता के सीने पर लगा यह घाव लंबे समय तक हरा रहेगा और बेकसूर इंसानों असहाय औरतों व मासूम बच्चों की दिल को चीर देने वाली चीखें़ आने वाली कई पीढि़यों के दिल व दिमाग़ पर दस्तक देती ही रहेंगी। देखना यह होगा कि विभाजन किन हालात में हुआइसके लिये कौन कौन जि़म्मेदार थावे कौन से कारण थे जिनकी वजह से बंटवारा अपरिहार्य हो गयासवाल यह भी है कि जब बंटवारा तय हो ही गया था तो इसके लिये तय 8 माह का समय आबादी के इधर से उधर शांतिपूर्वक आने जाने के लिये अंगे्रजों द्वारा क्यों नहीं दिया गयाहाल ही में सुप्रीम कोर्ट में सच्चर कमैटी की सिफारिशों पर अमल रोकने के लिये एक याचिका दायर की गयी थी। उसमें यह भी मांग की गयी है कि देश के बंटवारे के लिये गांधी जी नेहरू और पटेल को दोषी घोषित किया जाये। इससे पहले मुहम्मद अली जिन्नाह और अंग्रेज़ों को बंटवारे लिये जि़म्मेदार बताया जाता रहा है। हालांकि जिन्नाह की पहल पर मुस्लिम लीग ने 1940 में पहली बार अलग मुस्लिम देश का प्रस्ताव पास किया। लेकिन इतिहास गवाह है कि 1937 में ही हिंदू महासभा वीर सावरकर की हिंदू मुस्लिम टू नेशन थ्योरी पर काम कर रही थी। इतना ही नहीं एक बड़ा वर्ग यह भी मानता है कि भारत के बंटवारे लिये मुसलमान जि़म्मेदार हैं। जबकि सच यह है कि जो मुसलमान आज भारत में रहते हैं। वे बंटवारे के कभी भी पक्ष में नहीं थे। उनके पास पाकिस्तान जाने का विकल्प था। लेकिन वे नहीं गये। अफ़सोस तब होता है। जब भारत में रहने वाले देशप्रेमी मुसलमानों से ही देशभक्ति का प्रमाण मांगा जाता है। कम लोगों को पता होगा कि बंटवारे के लिये जनमत करने को 1946 में जो चुनाव हुआ था। उसमें देश की कुल आबादी में से केवल 14 प्रतिशत उन लोगों को ही वोट देने का अधिकार था। जिनके पास ज़मीन थीआयकरदाता थे और अपर प्राइमरी या मैट्रिकुलेशन पास थे। इन 14 प्रतिशत में से भी मुसलमान मात्र 3.25 प्रतिशत थे। उस समय कुल मतदान 58.5 प्रतिशत हुआ था। जिससे मुसलमानों की कुल आबादी में से 1.65 प्रतिशत ने वोट दिया था। सबसे बड़ी बात मुसलमानों ने केवल उन 82 सीटों पर वोट डाले थे। जो उनके लिये रिज़र्व थीं। उनमें से केवल 49 सीट मुस्लिम लीग जीती थी। जो कुल सीटांे का 55 प्रतिशत होती हैं। यानी मुसलमानों की कुल आबादी में से एक प्रतिशत से भी कम यानी 00.82 ने यह तय किया था कि पाकिस्तान बनना चाहिये। इतिहास गवाह है कि ऐसे अधिकांश मुसलमान पाकिस्तान चले भी गये तो सवाल यह उठता है कि फिर भारत को प्यार करने वाले भारत में रहने वाले और अपने हिंदू व अन्य धर्म के हमवतनों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर भारत के लिये अपनी जान तक देने वाले मुसलमानों को देश के बंटवारे पाक समर्थक और भारत विरोधी होने का तमग़ा किस आधार पर दिया जाता है?   

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Monday 9 August 2021

चिंगारी अखबार बधाई का पात्र

प्रेरक हैं डाॅ. दाऊद के विचार,बधाई का पात्र है चिंगारी अख़बार!

0 6 अगस्त को चिंगारी में नगीना के डाॅ. दाऊद का आईना शीर्षक से लेख ग़रीबों से प्रेम करो और उनके पास बैठो’ वास्तव में पूरे समाज के लिये दर्पण है। डा. साहब ने जिस तरह से आत्मसाक्षात्कार करने की हिम्मत दिखाई है। वैसी मिसाल कम ही देखने को मिलती है। साथ ही जिस तरह से चिंगारी ने उनके नसीहत आमेज़ विचारों को संपादकीय पृष्ठ पर प्रमुखता से जगह दी है। उससे एक बार फिर साबित हो गया है कि एडिटर भाई सूर्यमणि रघुवंशी बाबूजी की जलाई समाजिक नैतिक और मानवीय मूल्यों की मशाल को आगे बढ़ा रहे हैं। आम आदमी हो या खास आदमी सबको अपनी बात कहने का मौका चिंगारी जैसा जन माध्यम बराबर दे रहा है।

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  0 ग़मों की आंच पर आंसू उबाल कर देखो,

    बनेंगे रंग जो किसी पर भी डाल कर देखो।

    तुम्हारे दिल की चुभन भी ज़रूर कम होगी,

    किसी के पांव से कांटा निकाल कर देखो ।।

                       डा. साहब ने अपने बेबाक विचारों का जो दर्पण पूरी ईमानदारी और साफ़गोई से हम सबको दिखाया है। वह घर घर की कहानी है। अगर आप ग़ौर से देखेंगे तो आपको लगेगा अरे यह तो मेरे साथ भी हो रहा है। लेकिन सच यह है कि डा. साहब की तरह सबमें इसे क़बूल करने और खुद को आईना दिखाने की हिम्मत नहीं होती। सबसे अच्छी बात यह है कि डा. साहब ने खुद इसका एतराफ़ करने का साहस किया है। डा. साहब को इस बात का अहसास होना कि उनका सब मान सम्मान करते हैं। उनको सब जानते पहचानते हैं। वह बहुत मशहूर इंसान हो चुके हैं। बड़े बड़े लोगोें से उनके रिश्ते हैं। उनका हर ज़रूरी काम बहुत जल्दी हो जाता है। यह भी सही है कि दौलत के साथ शौहरत का नशा भी सर चढ़कर बोलता है। यानी दुख ही नहीं सुख में भी इंसान की नींद उड़ जाती है। अचानक डा. साहब के साथ भी जब यही हुआ तो उन्होंने रात के दो बजे नींद ना आने पर एक किताब खोली और उसमें लिखा था कि ग़रीबों से मुहब्बत करो उनके पास बैठो...। ‘‘लेकिन मैं तो ग़रीबों को जानता ही नहीं... न दूर के  न पास केमेरे हालात क्या बदले मैंने सब ही से नाता तोड़ लिया।’’ इतना ही नहीं इसके बाद डा. साहब ने एक एक करके जिन घटनाओं अपने खून के रिश्तों और पड़ौस के ग़रीबों के बारे में अपनी कोताही को सिलसिलेवार गिनवाया है। लेख की यही लाइनें हमारे दिल को छू जाती हैं। डा. साहब अकसर अख़बार मंे लेख लिखते रहे हैं। लेकिन इस लेख के बाद उनकी इज़्ज़त अहमियत और क़द्र हमारे दिल में बेहद बढ़ गयी है। ऐसा हम इसलिये भी कह रहे हैं। हम जितने भी लेख आजकल पढ़ते हैं। वे अकसर दूसरों की शिकायतों कमियों और बुराइयों पर ही केंद्रित होते हैं। लेकिन सच यह है कि हम चाहे जिस वर्ग पर क़लम चलायें। कहीं ना कहीं हम खुद भी उस वर्ग की कमी और ग़ल्ती का हिस्सा बने होते हैं। मिसाल के तौर पर सब दहेज़ देना बुरा समझते हैं। लेकिन उनको दहेज़ लेना बुरा नहीं लगता। सब रिश्वतखोरी को एक बड़ी बुराई मानते हैं। लेकिन जब उनका अपना कोई किसी ऐसी पोस्ट पर तैनात हो जाता है। जहां रोज़ अनगिनत नोट बरसते हैं तो वे उसको अपनी खुशकिस्मती बताकर पेश करते हैं। हमें दूसरों की साम्प्रदायिकता और जातिवाद बुरा लगता है। लेकिन हम खुद उसमें जब बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं। उसका राजनीतिक सामाजिक और व्यक्तिगत लाभ उठाते हैं तो उसका नकारात्मक पक्ष भुला देते हैं। ऐसी और भी अनेक मिसालें हम यहां पेश कर सकते हैं। लेकिन फिलहाल अपनी बात उस मुद्दे पर केंद्रित करना चाहते हैं। जिसमें हम सबने अच्छा और सच्चा होने का लबादा ओढ़ रखा है। समाज व्यक्तियों से ही बनता है। अगर आदमी सही होगा तभी देश समाज और सरकार भी सही हो सकती है। आज सब दूसरों को सुधारना चाहते हैं। वैसे तो अच्छा होने के लिये किसी खास धर्म को मानना भी ज़रूरी नहीं है। अगर इंसान मानवता समानता नैतिकता न्याय अमनचैन और भाईचारे को भी अपनाता हो तो एक अच्छा और बेहतर समाज बन सकता है। लेकिन अगर धर्म की बात करें तो जाने माने मुफ़ती तारिक़ जमील का एक चर्चित वीडियो सोशल मीडिया पर काफी लंबे समय से वायरल हो रहा है। उसमें सबसे खास बात जो हमें अपील टू माइंड लगी वो यहां डा. साहब के विचारों में भी झलकती है। वह यह है कि मज़हब दो तरह के हक़ूक़ बताता है। एक अल्लाह के लिये यानी कलमा नमाज़ रोज़ा ज़कात और हज। दूसरे बंदों के लिये जो केवल मुसलमानों के लिये नहीं बल्कि हमवतनों पूरी दुनियां के इंसानांे यहां तक कि जानवरों पक्षियों और पेड़ पौधें यानी पूर ब्रहमांड के लिये हैं। साथ ही यह भी कहा है कि अगर ईश्वर के कामों में कोई कमी या ग़ल्ती रह गयी तो वह चाहे तो माफ भी कर सकता है। लेकिन अगर किसी बंदे का दिल दुखाया बेईमानी की धोखा दिया जु़ल्म किया नाइंसाफी की पक्षपात किया कम तोला कम नापा झूठ बोला तल्ख़ बोला मिलावट की रिश्वत ली या नाजायज़ लाभ को घूस दी हत्या की किसी भी तरह से सताया धमकाया उसका रास्ता रोका बहनों का हिस्सा नहीं दिया मांबाप का सहारा नहीं बने बिजली और सरकारी टैक्स चुराया यहां तक कि सार्वजनिक स्थानों पर अतिक्रमण किया तो अल्लाह इन मामलों में माफ नहीं करेगा। वह कहेगा कि पहले उस बंदे से माफ़ कराकर आओ जिसके साथ यह सब अनर्थ किया है। ऐसे में वो बंदा माफ नहीं करता है तो आपके सवाब जो नमाज़ रोज़ा हज ज़कात या सदके वगैरा से आपने किये थे। उसके खाते में चले जायेंगे और हिसाब अगर तब भी पूरा नहीं होता तो उसके गुनाह आपके खाते में डाल दिये जायेंगे। कहने का मतलब यह है कि जो लोग इस ग़लतफ़हमी में हैं कि वे अल्लाह के हक़ अदा कर रहे हैंइसलिये उनकी जन्नत पक्की है। वे जब तक बंदों के साथ अच्छा और सच्चा सलूक नहीं करेंगे। उनको अल्लाह के लिये किये उन कामों का भी कोई फ़ायदा नहीं होगा जो वे खुद के पाक साफ और अल्लाह का नेक बंदा होने की गारंटी मानकर कर रहे हैं। वैसे यह अलग बात है कि अल्लाह जिसको चाहे जिस बात पर सज़ा और इनाम दे सकता है। लेकिन हमने तो डा. साहब की बात पर बहुत पहले अमल करते हुए अपने रिश्तेदारों दोस्तों और ज़रूरतमंद ग़रीब लोगों की एक लिस्ट बनाई हुयी है। जिनसे हर इतवार को बारी बारी से मिलते रहते हैं। साथ ही जो शहर से बाहर रहते हैं। उनसे ए टू जै़ड सीरियल में एक एक कर फोन पर खैरियत लेते रहते हैं। पिछले साल और इस साल लाॅकडाउन में भी जिनको जो भी ज़रूरत थी। जो हम खुद मदद कर सकते थे। वो खुद की। बाक़ी जो अपने ही सक्षम लोग हैं। जिनमें मेरे लगभग सभी भाई बहन और बेटियां शामिल हैं। साथ ही विधायक भाई तसलीम अहमद उनके भाई हाजी दिलशाद पूर्व चेयरमैन मुअज़्ज़म खां साहनपुर के पूर्व चेयरमैन खुर्शीद मंसूरी और मेरे दोस्त मुअज़्ज़म इंजीनियर क़ाज़ी आसिफ़ मुत्तकी वगैरा से कई ज़रूरतमंदों की राशन किट आॅक्सीजन गैस और नक़द मदद कराई है। अभी भी अपनी कुल वार्षिक आय का दस प्रतिशत हम मदद में देते हैं।

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Sunday 1 August 2021

भागवत की सकारात्मक पहल

भागवत के बयानोें पर विवाद नहीं सकारात्मक संवाद की ज़रूरत!

0हाल ही में संघ प्रमुख मोहन भागवत के कुछ नयेचर्चित और सकारात्मक बयान आये हैं। उनका स्वागत किया जाना चाहिये। भागवत की गिनती आजकल देश के प्रमुख शक्तिशाली लोगों में होती है। उनका दर्जा पीएम मोदी और भाजपा मुखिया से भी बड़ा माना जाता है। आरएसएस मुखिया ने मुसलमानों की माॅब लिंचिंग करने वालों को हिंदू विरोधी बताया है। उन्होंने मुसलमानों को एनआरसी से ना डरने और भारत में सबके अधिकार बराबर होने व सब धर्मों के सुरक्षित होने की बात भी कही है। ये एक अच्छी शुरूआत है।

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  0 आ जाओ कि इस फ़र्क ए नज़र को भी मिटा दें,

   दुनिया ये समझती है कि तुम और हो हम और ।।

        मोहन भागवत ने कहा है कि सभी भारतीयों का डीएनए एक है। इस बार उन्होंने सब भारतवासियों को हिंदू बताने की जि़द छोड़ दी है। कुछ समय पहले उन्होंने देश में माॅब लिंचिंग की घटनायें होने से इनकार किया था। लेकिन इस बार ना केवल ऐसी घटनाओं को दुर्भाग्यपूर्ण माना है बल्कि ऐसे लोगों को हिंदू विरोधी करार दिया हैजो माॅब लिंचिंग करते हैं। उन्होंने हरियाणा के भाजपा प्रवक्ता सूरजपाल अम्मू जैसे उन मुट्ठीभर कट्टर फायरब्रांड हिंदू नेताओं को भी जमकर लताड़ा है जो आयेदिन देश से मुसलमानों को निकालने की बेतुकी बातें करते हैं। इससे पहले भागवत यह भी कह चुके हैं कि मुसलमानों के बिना भारत अध्ूारा है। उनका कहना है कि हिंदुत्व में मुसलमान भी समाहित हैं। उनका दो टूक कहना है कि देश में एकता के बिना विकास संभव नहीं है। उनका यह कहना भी सही है कि हिंदू मुस्लिम संघर्ष का एकमात्र समाधन संवाद है। संघ प्रमुख का यह कहना कि हम एक लोकतंत्र में हैं। यहां हिंदुओं या मुसलमानों का प्रभुत्व नहीं हो सकताकेवल भारतीयों का वर्चस्व हो सकता है। ज़ाहिर बात है कि भारत के 20 करोड़ मुसलमानों को ना तो देश से निकाला जा सकता है न ही बंगाल की खाड़ी में डाला जा सकता है और न ही घर वापसी के नाम पर हिंदू बनाया जा सकता है। जो कट्टरपंथी नेता मुसलमानों के बारे में आयेदिन उल्टे सीध्ेा बयान जारी कर खुद को हिंदुओं का मसीहा साबित करना चाहते हैं। वे खुद भी जानते हैं कि ऐसा करके अपनी साम्प्रदायिक राजनीति तो चमकाई जा सकती है। लेकिन मुसलमानों को तमाम बुरा भला कहने के बावजूद अपनी नफरतभरी और अतिवादी किसी भी योजना पर वे किसी कीमत पर भी अमल नहीं कर सकते। ये कठिन नहीं असंभव है। भागवत ने यह कहकर स्थिति और साफ कर दी कि उनके इस वक्तव्य का मतलब छवि बनाना या वोटबैंक की राजनीति करना नहीं है। हालांकि इसके बावजूद विपक्षी नेता एमआईएम मुखिया ओवैसी ने माॅब लिंचिंग की घटनाओं को हिंदुत्व की देन और बसपा प्रमुख मायावती ने भागवत के बयान पर मुंह में राम बगल में छुरी की कहावत याद दिलाते हुए तीखी प्रतिक्रिया देने में देर नहीं लगाई। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि अगर भागवत को मुसलमानों की इतनी ही चिंता है तो माॅब लिंचिंग करने वालों को केंद्रीय मंत्री फूल माला क्यों पहनाते हैंसाथ ही ऐसे मामलों में भाजपा की राज्य सरकारें आरोपियोें के साथ खड़ी क्यों नज़र आती हैंआरोपियों के पक्ष में महापंचायत बुलाकर भाजपा प्रवक्ता आपत्तिजनक बयान क्यों देते हैंक्या यह संभव है कि संघ भाजपा और उनकी सरकारें ना चाहें तब भी माॅब लिंचिंग की घटनायें लगातार होती रहेंकहीं ऐसा तो नहीं कि संघ प्रमुख एक सोची समझी रण्नीति के तहत केवल हिंदू मुस्लिम एकता के बयान देते रहें और भाजपा व उनके अन्य हिंदू संगठन व उनकी सरकारें एक सुनियोजित एजेंडे के तहत अपना काम बदस्तूर अंजाम दे रही होंये अलग बात है कि ओवैसी और मायावती खुद मुसलमानों के हित में कोई ठोस काम ना करके अंदरखाने भाजपा को लाभ पहंुचाने वाले बयान और अलग चुनाव लड़कर संघ की विचारधारा को ही मज़बूत बनाने के आरोप झेल रहे हैं। सवाल यह है कि क्या संघ को ऐसा बयान देने से कोई राजनीतिक लाभ होगासंघ जानता है कि मुसलमान इसके बावजूद भाजपा को वोट नहीं देने लगेगालेकिन यह हो सकता है कि भाजपा को समर्थन देने वाले हिंदुओं का एक उदार वर्ग माॅब लिंचिंग जैसी हिंसक घटनाओं से नाराज़ होकर भाजपा का साथ छोड़ जाये। यह भी हो सकता है कि दुनिया की नज़र में भाजपा और संघ की खराब होती छवि को सुधारने के लिये संघ अपनी मुस्लिम विरोधी रण्नीति पर पुनर्विचार कर रहा हो। संघ और मुसलमान दोनों को यह भी पता है कि देश में मुस्लिम विरोधी माहौल बनाकर एक दो चुनाव तो जीते जा सकते हैं। लेकिन कांग्रेस की तरह अगर लंबे समय तक राज करना है तो दलितों सेकुलर हिंदुओं और मुसलमानों को भी भाजपा के साथ जोड़कर कट्टर हिंदू वोटबैंक का विस्तार कर उसे उदार हिंदू वोटबैंक में बदलना मजबूरी होगी। इसकी वजह यह हो सकती है कि भाजपा अपने चरम उत्कर्ष पर पहंुच चुकी है। उसको कट्टर हिंदुओं का जितना समर्थन मिलना था। मिल चुका है। अब वह सत्ता में है तो आज नहीं तो कल उसको अपने राजकाज का हिसाब देना ही होगा। कांग्रेस नेहरू परिवार और विपक्ष पर आरोपों से आगे काम चलने वाला नहीं। सिवाय हिंदू मुस्लिम के उसकी अब तक कानून व्यवस्था रोज़गार शिक्षा चिकित्सा अर्थव्यवस्था और विदेश नीति पर कोई विशेष उपलब्धि नहीं है। अलबत्ता जनकल्याण की कुछ योजनाओं सड़क निर्माण बिजली शौचालय जलनल योजना पीएम रसोई गैस योजना पीएम आवास योजना आदि कुछ काम जो हर सरकार में चलते ही रहते हैंउनमें भाजपा सरकार ने बढ़त हासिल की है। इससे उसके वोटबैंक में असफल नोटबंदी देशबंदी और जीएसटी से जो कमी आती वो रूक सकती है। आगे इसमें बढ़ोत्तरी होने की संभावना बहुत कम है। उधर मुसलमानों की उपेक्षा पक्षपात आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार माॅब लिंचिंग और उनके खिलाफ बढत़ी सामूहिक हिंसा उस पर पुलिस प्रशासन व शासन का एकतरफा रूख़  उनके लिये भी भागवत के बदले अंदाज़ उदार रूख़ और बदलते माहौल में हिंदू मुस्लिम एकता भाईचारे और उनकी सुरक्षा व उन्नति के लिये बातचीत का एक दरवाज़ा खोलता है। जहां तक सेकुलर दलों और मुसलमानों के अपने राजनीतिक व धार्मिक नेताओें का सवाल है। वे उनकी समस्याओं पक्षपात और हमलोें का कोई हल न तो आज तक तलाश पाये हैं न ही इसकी कोई ठोस पहल और संभावना नज़र आती है। इसलिये बेहतर यही होगा कि मुसलमान संघ प्रमुख के इस बयान पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हुए संघ और भाजपा सरकारों के साथ सकारात्मक संवाद का सिलसिला शुरू करे और अपनी रोज़गार शिक्षा स्वास्थ्य सुरक्षा व समानता की मांगे उनके सामने रखंे साथ ही हिंदू समाज को उनसे कोई समस्या या वाजिब शिकायत हो तो उसका समाधान भी आपसी बातचीत से करने की कोशिश करे। फिलहाल इसके सिवा कोई दूसरा रास्ता उनके पास नहीं है।

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।