Thursday 19 October 2023

निठारी कांड

निठारी कांड: आरूषि के बाद सीबीआई की दूसरी बड़ी नाकामी ?
0‘‘सीबीआई ने इस पूरी जांच का कचरा बना दिया। सबूत इकट्ठा करने के बुनियादी नियमों तक की धज्जियां उड़ाई। इस केस की जांच को देखकर ऐसा लगता है जैसे एक गरीब नौकर को राक्षस बना देने की कोेशिश हुयी है।’’-हाईकोर्ट। 16 हत्याओं कई बलात्कर और बच्चो के मानव अंग निकालकर काटकर खाने के सनसनीखेज़ आरोपों से पूरे देश को हिला देने वाले निठारी कांड का जो फैसला इलाहाबाद की हाईकोर्ट के बैंच के दो जजों ने 308 पेज में सुनाया है। उसमें यह बात कहते हुए हालांकि मुख्य आरोपी बनाये गये सुरेंद्र कोहली और उसके स्वामी मोनिंदर पंधेर को पुख्ता सबूत ना मिलने पर फांसी की सज़ा से बरी कर दिया गया है लेकिन इसके लिये कौन ज़िम्मेदार है यह सवाल अपनी जगह खड़ा है।      
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
      2006 में हुआ नोएडा का चर्चित निठारी केस आज भी सबको याद होगा। निठारी में स्थित मोनिंदर पंध्ेार की कोठी डी-5 में 16 बच्चो को उसके नौकर सुरेंद्र कोहली के साथ मिलकर अपहरण करने कुछ बच्चियों के साथ रेप करने उनके अंग काटकर पकाने और उनको खाने के दिल दहलाने वाले आरोप लगे थे। मामला अति संवेदनशील और मीडिया में चर्चा में आने के बाद जांच सीबीआई को दी गयी थी। सीबीआई ने जांच के नाम पर नौकर सुरेंद्र कोहली का 164 का इकबालिया बयान एक सीडी में रिकाॅर्ड कर सीबीआई की गाज़ियाबाद कोर्ट में पेश किया। जिस पर सीबीआई ने उनको फांसी की सज़ा सुना दी। लेकिन कानून के मुताबिक मौत की सज़ा कन्फर्म करने को जब यह मामला अपील में हाईकोर्ट की इलाहाबाद बैंच में गया तो टिक नहीं सका। सवाल यह है कि कोर्ट ने तो अपना फैसला उपलब्ध सबूत गवाह और अन्य जानकारी के आधार पर सुना दिया लेकिन उन 16 मासूमों का हत्यारा आदमखोर या बलात्कारी आखिर था कौन अगर कोहली और पंधेर बेकसूर हैं? सीबीआई ने सबूत के नाम पर जो सीडी कोर्ट में पेश् की उसे कोर्ट ने पुख्ता सबूत नहीं माना। कोर्ट ने कहा कि जिस कैमरे से कोहली के बयान रिकाॅर्ड किये गये उसकी राॅ फुटेज यानी मेन चिप पेश की जाये। हैरत की बात यह कि वह सीबीआई के पास थी ही नहीं। इससे कोर्ट का वीडियो बयान एडिटेड होने का शक और बढ़ गया। कोर्ट ने कोहली के बयान पर उसके अपने हस्ताक्षर और उस मजिस्ट्रेट के साइन ना होने को भी सीबीआई की केस प्रोपर्टी पूरी ज़िम्मेदारी से ना रखने की बड़ी खामी माना। कोर्ट ने इस बात पर भी सीबीआई की जमकर खिंचाई की कि एक साल तक आप हर मामले में कोहली और पंधेर को बराबर का कसूरवार मानकर चलते हैं। लेकिन बाद में किस आधार पर अचानक कोठी के मालिक पंधेर को बचाते हुए सारा गुनाह कोहली के सर पर डाल दिया? यह समझ से परे है। एक जैसे मामले में कोहली पर 16 और पंधेर पर 6 केस क्यों बने? यूपी सरकार की आगरा और सीबीआई की फोरंेसिक टीम अलग अलग सैंपिल लेती हैं लेकिन उनको एक पीली बैडशीट एक गद्दा और एक बैड ही मिलता है लेकिन बाथरूम में वाशबेसिन पर लगा खून मिलने के बाद भी जांच के लिये उसके मिलान को जांच एजेंसी आरोपियों या मरने वालों के परिवार के ब्लड या डीएनए संैपिल तक नहीं लेती क्यों? अलबत्ता सोफे पर लगे वीर्य के सैंपिल ज़रूर जांच के बाद कोहली या पंधेर के नहीं पाये जाते हैं। दूसरी सबसे बड़ी कमी कोर्ट ने सीबीआई की यह पकड़ी कि उसका कहना है कि हत्या करने के बाद लाशें पोलिथिन में पैक कर कोठी डी5 और डी6 के बीच मौजूद पीछे के जिस नाले में डाली गयी वे बहकर 200 से 500 मीटर दूर चली गयीं। जबकि यह नाला तो सूखा था तो डैड बाॅडी वहां से आगे कैसे गयीं? वहां तो लाशों का ढेर लग जाना चाहिये था? कोर्ट इस बात पर भी हैरान था कि 16 मर्डर हुए। उनके अंग भंग किये गये। उनको काटा गया। पकाया गया। खाया गया। शायद रेप भी हुए हों लेकिन किसी को कानो कान ख़बर नहीं हुयी? किसी ने कोई आवाज़ नहीं सुनी किसी ने कोई खून नहीं देखा किसी ने कोई गंध महसूस नहीं की जबकि जांच में दावा किया गया है कि लाशें वाशरूम और बाथरूम में कई कई घंटे पड़ी रहती थीं? सीबीआई इतने वीभत्स हृदय विदारक और गंभीर केस का एक भी चश्मदीद गवाह तक पेश नहीं कर पाई? कोर्ट का सवाल था कि एक भी वैज्ञानिक फोरेंसिक जैसे कपड़ा बर्तन दीवार फर्श पर बरामद कोई ठोस सबूत कोहली की सीडी के अलावा सीबीआई के पास नहीं है। यहां तक कि जिस कोहली पर बच्चो के अंग खाने का आरोप है उसके दांतों की जांच में या किसी और तरह से मानव रेशा तक नहीं मिला? कोर्ट ने इस बात पर भी जांच एजेंसी को फटकार लगाई कि यह मामला इतना हाईप्रोफाइल था कि मीडिया सरकार का महिला कल्याण विभाग और बाल कल्याण विभाग बार बार इस मामले को मानव अंगों की तस्करी से जुड़ा होने का शक जता रहा था। यह भी तथ्य है कि पंधेर की डी 5 कोठी के ठीक बराबर में उसका पड़ौसी जो डी 6 में रहता था, वह कुछ समय पहले एक किडनी रैकिट चलाने के आरोप में पकड़ा गया था। जिस सूखे नाले में ये सब डैड बाॅडी मिली वह नाला डी5 और डी6 के बीच था। लेकिन फिर भी आश्चर्यजनक ढंग से सीबीआई ने उस किडनी रैकिट चलाने के पड़ौसी आरोपी से एक बार भी पूछताछ करने का कष्ट तक नहीं किया? कोर्ट अंत में इस नतीजे पर पहंुचा कि पुलिस ने इस केस पर पूरी मेहनत ना करके अपना काम आसान करने को कोहली को पुलिसिया स्टाइल में टाॅर्चर कर उससे सारा जुर्म कबूल करा लिया लेकिन उसका एक मेडिकल तक नहीं कराया क्योंकि सीबीआई कोर्ट के तलब करने पर उसकी मेडिकल रिपोर्ट का एक भी पर्चा कोर्ट में पेश नहीं कर सकी है। यहां तक नाले से जो 16 कंकाल मिले उनसे भी कोहली का कोई संबंध सीबीआई साबित नहीं कर सकी है। इससे पता लगता है कि हमारी विख्यात जांच एजेंसी भी कितनी लापरवाही चालू और पुलिस के परंपरागत थर्ड डिग्री के तौर तरीकों का प्रयोग कर जांच को नाकाम कर सकती है। यही आरोप सीबीआई पर चर्चित आरूषि कांड में भी लगा था। लेकिन यहां सीबीआई से यह सहानुभूति भी रखी जानी चाहिये कि उसको जिस तरह से आजकल विपक्षी नेताओं पत्रकारों और सरकार विरोधी संगठनों से निबटने में लगाया जाता है। उससे भी उसकी कार्यक्षमता प्रभावित होना स्वाभाविक ही है। यह भी हो सकता है कि निठारी केस में भी उस पर कोई राजनीतिक दबाव रहा हो क्योंकि सरकारें किसी भी दल की हों वे जांच एजेंसी पुलिस और अधिकारियों का अपने सियासी हितों के लिये दुरूपयोग करने से परहेज़ करती नहीं हैं।
 *0 ना इधर उधर की बात कर यह बता कारवां क्या लुटा,*
  *मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।*  
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Friday 13 October 2023

एक राष्ट्र एक चुनाव...

*आज वन नेशन वन इलैक्शन, कल वन पार्टी वन पोलिटीशियन ?* 

0 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ साथ ही होते थे। लेकिन इसके बाद यूपी बिहार बंगाल पंजाब व उड़ीसा में बनी विपक्षी गठबंधन की सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायीं। इससे पहले केरल में 1957 में बनी पहली वामपंथी सरकार भी केंद्र की कांग्रेस सरकार को हज़म नहीं हुयी और उसको कुछ बहाने बनाकर समय से पहले बर्खास्त कर 1960 में मिडटर्म इलैक्शन कराये गये। ऐसे ही 1972 में होने वाले संसदीय चुनाव राजनीतिक कारणों से कुछ समय पहले 1971 में ही करा दिये गये। विपक्ष को लगता है यह सरकारी पैसा बचाने प्रशासनिक मशीनरी और सुरक्षा बलों पर पड़ने वाले बार बार अतिरिक्त काम के दबाव और आचार संहिता लगने से रूकने वाले विकास के बहाने सियासी लाभ को किया जा रहा है।     

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      1983, 1999 और अंतिम बार 2018 में विधि आयोग ने एक साथ लोकसभा और राज्यों की सभी विधानसभाओं के चुनाव कराने को मसौदा रिपोर्ट जारी की थी। वर्तमान समय में आन्ध्र प्रदेश अरूणाचल प्रदेश ओडिशा और सिक्किम मेें विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ होते हैं। लोकसभा के पूर्व महासचित पीडीटी आचारी कहते हैं कि एक राष्ट्र एक चुनाव वाली बात व्यवहारिक रूप से इसलिये संभव नज़र नहीं आती क्योंकि किसी भी लोकसभा या विधानसभा का कार्यकाल संविधान के सैक्शन 83 भाग दो और 172 में पांच साल निर्धारित है। ऐसे में कोई केंद्र सरकार जबरन एक साथ चुनाव कराने की अपनी ज़िद पूरी करने के लिये कैसे उसको समय से पहले भंग कर सकती है? अगर वह ऐसा करेगी तो मामला सुप्रीम कोर्ट जायेगा जहां वह संविधान की दुहाई देकर संविधान संशोधन को उसके मूल ढांचे में दखल बताकर बहाल करने की गुहार लगायेगी। हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ उसको बहाल भी कर दे। अलबत्ता यह शक्ति और इच्छा उस राज्य की विधानसभा यानी सरकार के पास सुरक्षित है कि वह जब चाहे विधानसभा भंग कर नये चुनाव करा सकती है। लेकिन वह समय से पहले ऐसा क्यों करेगी? अगर कोई सरकार अल्पमत में आ जाती है तो उसको कैसे बनाये रखा जा सकता है? इसके बाद 6 माह के अंदर नये चुनाव कराना ज़रूरी होता है। हालांकि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में वन नेशन वन इलैक्शन पर विचार करने और इसके कानूनी और संवैधनिक पहलू पर गंभीरता से विचार कर कोई ऐसा सर्वमान्य हल निकालने को एक समिति बनाई गयी है। लेकिन मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने इसका पहले ही बहिष्कार कर दिया है। सवाल यह भी है कि दल बदल विरोधी कानून के रहते कैसे किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के साथ साथ वैकल्पिक सरकार बनाने के लिये रचनात्मक या सकारात्मक प्रस्ताव लाया जाये जिससे वर्तमान सरकार तो गिर जाये लेकिन विधानसभा का कार्यकाल पूरा करने के लिये उसी समय साथ साथ नई वैकल्पिक सरकार भी बन जाये? अगर चुनाव के बाद त्रिशंकु लोकसभा या विधानसभा आती है तो चुनाव से बचने को कैसे सरकार हर हाल में दल बदल विरोधी कानून रहते बनाई जायेगी? अगर दल बदल विरोधी कानून खत्म किया जाता है तो आयाराम गयाराम की अवसरवादी खरीद फरोख़्त यानी हाॅर्स ट्रेडिंग कैसे रोकी जायेगी? आप नेता आतिशी एक राष्ट्र एक चुनाव को आॅप्रशन लोटस को वैध बनाने की चाल करार देती हैं। उनका कहना है कि यह संविधान की मूल रचना पर हमला होगा। उनको लगता है कि इससे दलबदल कर जनप्रतिधियों की खरीद कानूनी बन जायेगी। पूंजीवाद के इस दौर में क्या कोई भी टाटा बिरला अडानी अंबानी मंुहमांगी रकम देकर अपनी पसंद के सांसद और विधायक खरीकर क्या अपने हित में सरकार बना सकेगा? इस प्रस्ताव के विरोधियों का कहना है कि यह संघवाद की भावना के खिलाफ होगा क्योेंकि भारत को संविधान में राज्यों का संघ माना गया है। उनका यह भी कहना है कि बार बार चुनाव होना लोकतंत्र के मज़बूत होने की पहचान है। इससे मतदाताओं को जल्दी जल्दी और बार बार अपनी पसंद ज़ाहिर करने अपनी मांगों को पूरा कराने और दलों व नेताओं की जवाबदेही का मौका मिलता है। साथ ही विकास की गति तेज़ होने के साथ सरकारें अपने किये वादे पूरे करने रोज़गार बढ़ाने चुनावी खर्च नंबर एक और दो में कालाधन बाज़ार में आने से अर्थव्यवस्था को गति मिलती है। 2015 में आईडीएफसी संस्था के सर्वे में यह तथ्य सामने आया था कि सब चुनाव एक साथ कराने से 77 प्रतिशत लोग एक ही दल एक ही गठबंधन को वोट कर सकते हैं जबकि यही चुनाव अलग अलग 6 माह के अंतराल से होने पर यह प्रतिशत 61 रह गया। यह भी माना जाता है कि एक साथ चुनाव कराने से राष्ट्रीय दलों को लाभ और क्षेत्रीय दलों को राजनीतिक नुकसान होने की संभावना प्रबल है। यह बात जगजाहिर है कि देश और प्रदेश के मुद्दे मांगे और समस्यायें अलग अलग होती हैं। इसलिये वर्तमान व्यवस्था ही अधिक कारगर और सार्थक मानने वालों की कमी नहीं है। विरोधी दलों का तो यहां तक दावा है कि यह सारी कवायद भाजपा वन पार्टी वन पोलिटीशियन राज के लिये कर रही है। उनका कहना है कि हर राज्य में भाजपा वोट खींचने के लिये मोदी जी को पीएम के रूप में सरकारी खर्च पर आगे कर देती है। इससे पांच साल कहीं ना कहीं मोदी जी को चुनाव प्रचार में लगे रहना पड़ता है। इसलिये भाजपा चाहती है कि वह एक बार में ही पूरे देश और सभी प्रदेशों में राष्ट्रीय मुद्दों पर चुनाव जीत ले। विपक्ष यह भी आरोप लगाता है कि भाजपा अनेकता में एकता की बजाये एक धर्म एक जाति एक भाषा एक रंग की संकीर्ण नीति को आगे बढ़ाते हुए एक देश एक चुनाव की डगर पर आगे बढ़ रही है। राजद नेता तेजस्वी यादव ऐसी ही आशंका जताते हुए कहते हैं कि आज एक देश एक चुनाव की बात हो रही है उसके बाद एक नेता एक दल और एक धर्म जैसी बात की जायेगी। और भी आशंकायें हैं।

0 जम्हूरियत वो तर्ज़ ए अमल है कि जिसमें,

  बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते।     

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 5 October 2023

ओपीएस बनाम एनपीएस

*ओपीएस बनाम एनपीएसः भाजपा का रूख़ अधिक व्यवहारिक है ?* 

0 पुरानी पेंशन योजना बहाली संयुक्त मंच के राष्ट्रीय संयोजक व आॅल इंडिया रेलवे मेन्स फेडरेशन के महामंत्री शिव गोपाल मिश्रा के अनुसार 1 जनवरी 2004 के बाद सरकारी सेवा में आये कर्मचारियों के लिये एनपीएस यानी न्यू पेंशन स्कीम एक बड़ा धोखा ही साबित हुयी है। पिछले दिनों 20 से अधिक राज्यों के कर्मचारियों के 400 से अधिक संगठनों ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एकत्र होकर पुरानी पेंशन को तत्काल लागू करने की सरकार से मांग की। मुख्य विपक्षी दल कांगे्रस और आप जैसी पार्टियां जहां ओपीएस के पक्ष में खुलकर बोल रही हैं, वहीं भाजपा एनडीए की वाजपेयी सरकार द्वारा चालू की गयी नई पेंशन स्कीम का बचाव करने के साथ ही बीच का रास्ता तलाश रही है।      

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      नई पुरानी सरकारी पेंशन का मामला अब पक्ष विपक्ष के बीच चुनावी मुद्दा बनता जा रहा है। उल्लेखनीय है कि भाजपा के नेतृत्व में बनी एनडीए की अटल सरकार ने दिसंबर 2003 में पुरानी पेंशन की सुविधा खत्म कर दी थी। सरकार का कहना था कि यह सुविधा सरकारी कर्मचारियों को बिना उनके योगदान के भविष्य में देते रहना संभव नहीं है। केंद्र के साथ ही राज्यों की अधिकांश सरकारें भी इस बात से सहमत होकर नई पेंशन स्कीम अपनाने को तैयार हो गयी थीं। बाद में जब कर्मचारियों को नई पेंशन स्कीम में अपने वेतन से दस प्रतिशत राशि का सहयोग देने के बावजूद बहुत कम पेंशन मिली तो इस योजना का विरोध होना शुरू हो गया। नई पेंशन में पुरानी पेंशन की तरह अंतिम वेतन की आधी राशि मिलने की गारंटी या समय समय पर सरकार द्वारा दिये जाने वाले महंगाई भत्ते की बढ़ोत्तरी की व्यवस्था भी ना होने से कर्मचारी और अधिक नाराज़ होने लगे। सरकार ने अपनी ओर से दी जाने वाली सहयोग राशि बढ़ाकर 14 प्रतिशत कर इस गुस्से को थामना चाहा लेकिन मर्ज़ बढ़ता गया जैसे जैसे दवा की वाली कहावत लागू हो गयी। रिटायर्ड कर्मचारी इस बात से भी खफ़ा थे कि उनको रिटायरमेंट के समय मिलने वाली राशि पर भी सरकार ने टैक्स वसूलना शुरू कर दिया। शुरू शुरू में तो भाजपा ने कर्मचारियों की पुरानी पेंशन बहाली की मांग की उपेक्षा की लेकिन जब से कांग्रेस और आप ने अपने शासित राज्यों में ओपीएस बहाल की तो भाजपा पर भी पुरानी पेंशन बहाल करने या नई पेंशन में सुधार करने का राजनीतिक दबाव बढ़ता जा रहा है। अभी तक न्यूनतम पेंशन 9000 और अधिकतक 62,500 रूपये ओपीएस मेें मिलती थी। जिसके लिये कर्मचारियों को अपने वेतन से एक रूपया भी नहीं देना होता था। हाल ही में आरबीआई के रिसर्च पेपर में विस्तार से स्टडी करके बताया गया है कि ओपीएस के मुकाबले एनपीएस में सरकार को साढ़े चार गुना कम योगदान देना होता है। साथ रिज़र्व बैंक की इस कमैटी ने चेतावनी दी है कि एनपीएस की जगह फिर से ओपीएस को लाना उल्टी चाल चलना होगा जिससे दीर्घ अवधि में राज्यों की आर्थिक हालत इतनी खराब हो जायेगी कि उनका जीडीपी का जो खर्च आज पेंशन में 0.1 प्रतिशत जा रहा है वह 2050 तक चार से पांच गुना बढ़कर 0.5 तक पहुंच जायेगा। आज जो नई पेंशन में राज्यों का 4 लाख करोड़ खर्च हो रहा है वह बढ़कर 17 लाख करोड़ से अधिक हो सकता है। इससे राज्यों का कुल आय का 38 प्रतिशत हिस्सा जाने से राजकोषीय घाटा इतना बढ़ेगा कि उनके पास विकास के लिये पूरा पैसा तो क्या बचेगा वे दिवालिया होने के कगार पर भी पहुंच सकते हैं। आज 50 लाख से अधिक सरकारी कर्मचारी नई पेंशन में ढाई लाख करोड़ से अधिक का योगदान कर रहे हैं। सरकार का कहना है कि जिन कर्मचारियों की सेवा अभी मात्र 10 साल से कम रही है उनको ही रिटायर होने पर बहुत कम पेंशन मिल रही है। जिनकी सेवा 25 से 30 साल हो जायेगी उनको आखि़री वेतन का लगभग 30 से 40 प्रतिशत अवश्य ही मिलने लगेगा। केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने कर्मचारियों की न्यूनतम पेंशन हर हाल में अंतिम सेलरी की आधी रकम मिलने की मांग पूरी करने के लिये विचार करने के लिये वित्त सचिव टीवी स्वामीनाथन के नेतृत्व में चार सदस्यों की उच्च समिति का गठन कर नई और पुरानी पेंशन की विसंगतियों को दूर बीच का रास्ता निकालने का प्रयास शुरू किया है। सरकार का यह कहना किसी हद तक सही लगता है कि ओपीएस में ना तो कर्मचारियों का कोई योगदान था और ना ही सरकार के पास इसको बढ़ाते जाने का कोई आय का अतिरिक्त साधन था जिससे इसमेें समय समय पर महंगाई भत्ता और जुड़ जाने से सरकार के लिये इसका बढ़ता बोझ सहन करना असंभव होता जा रहा था। आंकड़ों के हिसाब से यह बात सही भी नज़र आती है क्योंकि 1990 में पेंशन देनदारी केंद्र सरकार की जहां 3272 करोड़ थी तो 2020-21 में वही बढ़कर 58 गुना यानी 1,90,886 करोड़ और राज्यों की 3131 करोड़ से 125 गुना बढ़कर 3,86,001 करोड़  हो गयी थी। भाजपा का यह कहना किसी हद तक व्यवहारिक लगता है कि  सरकारी कर्मचारियों को पुरानी पेंशन देने की स्थिति में सरकार नहीं है। हालांकि हमारा मानना भी यही है कि अगर सरकार के पास पर्याप्त संसाधन हो तो सरकारी कर्मचारियों को पुरानी पेंशन बहाल करने में देर नहीं करनी चाहिये लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि विपक्ष ने कई राज्यों की खराब आर्थिक हालत के बावजूद केवल चुनावी लाभ के लिये पुरानी पेंशन बहाल कर दी है या राज्यों की सत्ता में आने पर ओपीएस बहाल करने का आत्मघाती एलान कर दिया है। सवाल यह भी है कि जिस देश में 80 प्रतिशत जनता 20 रूपये रोज़ पर गुज़ारा कर रही हो। जहां करोड़ों लोगों को किसी भी तरह का रोज़गार ही उपलब्ध ना हो या जहां बड़ी तादाद में लोग गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे हों वहां आज की न्यूनतम सरकारी सेलरी लगभग 20 से 30  हज़ार लेने वालों को बिना किसी योगदान के पुरानी पेंशन हर हाल में क्यों दी जानी चाहिये? गीतकार जावेद अख़्तर ने शायद इसीलिये कहा है-

0 ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना हामी भर लेना

  बहुत है फ़ायदे इसमें मगर अच्छा नहीं लगता,

  बुलंदी पर उन्हें मिट्टी की खुश्बू तक नहीं आती

  ये वो शाख़ें हैं जिन को अब शजर अच्छा नहीं लगता।    

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*