Tuesday 28 February 2017

1cror to netaji by a muslim

एक मुस्लिम व्यापारी ने अपनी सारी पूँजी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी को दे दिया था।.
मेमन अब्दुल हबीब युसूफ मार्फानी सौराष्ट्र के धोराजी शहर के रहने वाले थे और अंग्रेजों के समय के बहुत बड़े व्यापारी थे आज़ादी की लडाई जब लड़ी जा रही थी तब मेमन अब्दुल युसूफ हुसैन मार्फानी का परिवार रंगून में था ‘आज़ाद हिन्द फौज’ को आर्थिक रूप से मदद करने वाले मेमन अब्दुल हबीब युसूफ मार्फानी पहले व्यक्ति थे मेमन अब्दुल युसूफ हुसैन मार्फानी ने अपनी सारी जायदाद,पैसा जिसकी कीमत उस ज़माने में १ करोड़ रूपए की थी उसको ‘आजाद हिन्द बैंक’ में दे दी थी
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने मेमन अब्दुल हबीब युसूफ मार्फानी का धन्यवाद देते हुए उनको 'सेवक ऐ हिन्द' का खिताब दिया था इतिहासकार राज मल कासलीवाल अपनी किताब 'नेताजी आजाद हिन्द फौज एंड आफ्टर' में बताया है की नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने उनके इस दान पर कहा था की ----'हबीब सेठ ने आजाद हिन्द फौज की मदद करी है उनक यह योगदान हमेशा याद रखा जायेगा'
इतना ही नहीं नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज' में ४० % मुसलमान थे आजाद हिन्द फौज में जिस व्यक्ति को सेना में भर्ती करने का काम सौंपा गया था उनका नाम गुलाम हुसैन मुश्ताक रंदेरी था वह भी गुजरात के सूरत के रहने वाले थे 'आजाद हिन्द फौज' में बहुत सारे मुसलमान थे जो बड़े अफसर और सिपाही के पद पर थे उनमें से कुछ इस प्रकार हैं --जनरल शाहनवाज़ खान,कर्नल अज़ीज़ अहमद,अशरफउद्दीन चौधरी,कर्नल हबीबुर्रहमान,अब्दुल रहमान खान,अशरफ मंडल,आमिर हयात,अख्तर अली,अहमद खान,ऐ के मिर्ज़ा,अबू खान,एस अख्तर अली,अहमदुल्लाह,ताजुद्दीन और हैदराबाद के आबिद हसन सफरानी थे जिन्होंने ही सबसे पहले 'जय हिन्द'का नारा दिया था और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को सबसे पहले 'नेताजी'कहकर संबोधित किया था
आजतक का किसी भी भारतीय व्यति का सबसे अधिक व्यक्तिगत पूँजी का दान है ये।बिना पैसो के कोई जंग जीती नहीं जाती ..और ये आर्टिकल टाइम्स ऑफ़ इंडिया में भी छापा गया था ...
प्रूफ:- http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2012-07-14/ahmedabad/32674336_1_netaji-azad-hind-fauz-bose
आपको ये भी पता होना चाहिए कि "जय हिन्द' का नारा भी एक मुस्लिम आजाद हिन्द फ़ौजी (जर्मनी से डिग्री प्राप्त भारतीय इंजिनियर) आबिद हसन की देन है। आज भी देखिये तो बिना हल्ला गुल्ला मचाय अज़ीम प्रेमजी ने बारह हज़ार तीन सौ करोड़ (12300 करोड़) रूपए समाज के लिए दान कर दिया है।
मोदीजी हमेशा गुजरात से आने वालों में गाँधी जी का और सरदार वल्लभभाई पटेल का ज़िर्क करते है लेकिन मोदी कभी भी अब्बास तैयबजी,मेमन अब्दुल हबीब युसूफ मार्फानी और

गुलाम हुसैन मुश्ताक रंदेरी

का ज़िक्र नहीं करते क्योंकि वह आरएसएस के पुराने प्रचारक रहे है और आरएसएस के लिए

किसी भी मुसलमान का

महिमामंडन करना और उसको हीरो की तरह पेश करना और सच बात बोलना मुश्किल ही नहीं ना मुमकिन है।

Sunday 26 February 2017

तारिक फ़तेह की शैतानी...

*तारिक़ मियां ऐसे नहीं होगी फ़तेह!*

 

 

 

तारिक फतेह पाकिस्तान के मूल नागरिक हैं। अब उन्होंने कनाडा की नागरिकता ले ली है। आजकल वे भारत के एक टीवी चैनल पर फतेह का फ़तवा नाम से प्रोग्राम चला रहे हैं। सलमान रूशदी और तस्लीमा नसरीन के बाद वे शायद तीसरे मुसलमान हैं। जो मुसलमानों की नज़र में विलेन बनते जा रहे हैं। जश्ने रेख्ता प्रोग्राम में उनका कुछ लोगों ने ज़बरदस्त विरोध किया। इतना ही नहीं उनको प्रोग्राम छोड़कर जाने के लिये मजबूर कर दिया गया। इससे पहले उनके प्रोग्राम पर रोक लगाने के लिये एक याचिका भी कोर्ट में दाखिल की जा चुकी है।

हम समझते हैं कि जिस तरह तारिक को अपनी बात कहने का हक है। उसी तरह उनके विचारों से सहमत न होने, उनके विचारों का विरोध करने और उनके प्रोग्राम पर रोक लगाने के लिये कानून का सहारा लेने का उन मुसलमानों को भी संवैधानिक अधिकार है। जो उनसे सहमत नहीं है। लेकिन बात इतनी ही रहती तो कोई विवाद नहीं होता। अब समस्या यह आ रही है कि एक तरफ तारिक का मकसद साफ नहीं है कि वे चाहते क्या हैं? उनके प्रोग्राम का नाम ही गलत है।

वजह वे कोई मुफ़ती तो है नहीं। फिर प्रोग्राम का नाम फतेह का फ़तवा क्यों रखा गया? इसी से झलक रहा है कि तारिक और उस मोदी के अंधभक्त चैनल की नीयत मुसलमानों का सुधार नहीं बल्कि उनको चिढ़ाना और लज्जित करना ही अधिक है। तारिक को खुद मुस्लिम होने की वजह से यह बात तो कम से कम पता होगी कि जिस डाक्टर पर मरीज़ का भरोसा नहीं होता वह उससे इलाज नहीं कराता। ऐसे ही जिस वकील पर विश्वास नहीं होता आदमी उस पर अपना केस लेकर नहीं जाता।
यहां तक कि कानून भी इस बात की इजाज़त देता है कि अगर आपको किसी जज की निष्पक्षता पर यकीन नहीं है तो आप अपना मुकदमा किसी दूसरे जज की अदालत में भेजने की गुजारिश कर सकते हैं। दरअसल मुसलमानों को लगता है कि तारिक संघ परिवार के हाथों में खेल रहे हैं। उनके हावभाव भाषा शैली और आचार व्यवहार मुसलमानों को लेकर बेहद आक्रामक और ज़लील करने वाला है। सवाल यह है कि ऐसे आदमी की बात मुसलमान कैसे संजीदगी से सुनेगा?

मिसाल के तौर पर जब आरएसएस मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से छुटकारा दिलाने का दावा उनके समान अधिकार की रक्षा के नाम पर करता है तो मुसलमान उनसे गुजरात और अन्य राज्यों में दंगों के दौरान की गयी बलात्कार और वहशी हरकतों को भाजपा की सरकारों द्वारा जानबूझकर ना रोक पाने की साज़िश पर सवाल पूछता है। हम यह तो मानते हैं कि मुसलमानों को कट्टरपंथ जहालत और बात बात पर उग्रता का रास्ता छोड़कर विकास प्रगतिशीलता शिक्षा और आपसी मेल मिलाप के लिये दूसरे मज़हब के लोगों के साथ मिलजुलकर रहना चाहिये।
लेकिन यह काम तभी हो सकता है। जब आप मुसलमानों के दिल में हमदर्दी और मुहब्बत का जज़्बा पैदा कर सकें। सेकुलर और उदार मानवतावादी यह काम काफी बेहतर ढंग से कर सकते हैं। फ़तेह की हार तो उसी दिन हो चुकी हैै। जिस दिन से उनको मुसलमानों ने अपना दुश्मन वन मानना शुरू कर दिया। हमें लगता है कि मुसलमानों को भी यह सोचना चाहिये कि वे तारिक फ़तेह को नाम और दाम कमाने में अंजाने में मदद तो नहीं कर रहे हैैं? तारिक को कानून के दायरे में अपने प्रगतिशील और तार्किक विचार व्यक्त करने के लिये उनके हाल पर छोड़ दिया जाना चाहिये। तारिक से असहमत होते हुए भी मुसलमानों को उनके विरोध में कोई गैर कानूनी हरकत नहीं करनी चाहिये। लेकिन इतना तय है कि तारिक जैसे अतिवादी मुसलमानों को ऐसे बदल नहीं सकते।

*उसके होंठों की तरफ़ ना देख वो क्या कहता है,*
*उसके क़दमों की तरफ़ देख वो किधर जाता है।*

Wednesday 15 February 2017

वोटों का बंटवारा

*वोटों का बंटवारा ही तो लोकतंत्र है !*
-इक़बाल हिंदुस्तानी
Nbt blog
आजकल 5 राज्यों के चुनाव क्षेत्रीय दलों सहित कांग्रेस और भाजपा के लिये जीने मरने का सवाल बन गये हैं। इनमें भी सबसे बड़े स्टेट यूपी के चुनाव को सब दलोें ने नाक का सवाल बना लिया है। कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता यूपी होकर ही जाता है। शुरू में भाजपा ने केंद्र की तरह यहां भी अपने चुनाव का फोकस विकास पर रखने का दावा किया था। लेकिन धीरे धीरे जब उससे इस सवाल का जवाब नहीं दिया जा सका कि उसने केंद्र में रहकर अब तक कौन कौन से विकास के काम किये हैं तो वह फिर से अपने सांप्रदायिक एजेंडे यानी उग्र हिंदुत्व पर लौट आई है। उधर समाजवादी पार्टी और उसके नेता मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अभी तक अपना सारा ज़ोर अब तक किये यूपी के विकास पर लगा रखा है।
अजीब बात यह है कि यूपी आज भी धर्म और जाति की राजनीति से बाहर आता नज़र नहीं आ रहा है। एक तरफ सवर्ण दलित और मुस्लिम व यावद समाज के अधिकांश मतदाताओं ने भाजपा बसपा व सपा का वोटबैंक का तमग़ा लगवाकर अपनी हैसियत एक तरह से चुनाव में ख़त्म कर ली है। वहीं इन चारों वर्गों के वोटों के अलावा पिछड़े वर्ग के मतदाताओं ने खुद को सही मायने में फ्लोटिंग वोट बना रखा है। अब हालत यह है कि सभी प्रमुख दलों की नज़र इस बात पर लगी है कि इस फ्लोटिंग वोट को कैसे अपनी तरफ खींचा जाये? बहुत कम लोगों को पता होगा कि जिन धर्म जाति और वर्ग के लोगों को हम किसी खास दल का समर्थक मानकर चलते हैं।

उनमें से कभी कभी तो यह देखने में आता है कि उनकी कुल संख्या का आधा हिस्सा भी उस कथित दल के साथ नहीं जाता है। *मिसाल के तौर पर मेरे सामने चुनावी सर्वे करने वाली प्रतिष्ठित एजेंसी सीएसडीएस का एक चार्ट मौजूद है। एजेंसी के अनुसार 2012 के चुनाव में सपा को मुसलमानों के 39 प्रतिशत वोट मिले थे। जबकि यादव वोट उसको 66 प्रतिशत ही मिले थे। ऐसे ही बसपा का वोटबैंक समझे जाने वाले जाटव उसको इस चुनाव में 62 प्रतिशत ही मिले थे। जबकि 2007 के चुनाव में यह फीसद 86 था। इसी तरह जो ब्रहम्ण राजपूत और वैश्य भाजपा का पक्का वोटबैंक समझे जाते हैं। वे 2012 के चुनाव में उसको क्रमशः 38, 29 और 42 प्रतिशत ही मिल सके थे।*

कहने का मतलब यह है कि न केवल पिछड़ों का बल्कि इन वोटबैंक माने जाने वाले वर्गों का भी अच्छा खासा हिस्सा उन दलों में बंटता है। जिनको इनके खिलाफ माना जाता रहा है। हमारी यह बात समझ से बाहर है कि अगर लोग विकास बिजली और कानून व्यवस्था के मुद््दे पर अपनी परंपरागत पार्टियों से हटकर सकारात्मक वोट करते हैं तो इसमें वोटोें के ठेकेदारों को क्या परेशानी है? आजकल अपनी बैठकों में सवर्ण हिंदुओं के ठेकेदार इस बात को लेकर बहुत दुबले हुए जा रहे हैं कि ‘‘मुल्ले’’ तो एक हो रहे हैं। लेकिन हिंदू जाति के नाम पर बंट रहा है। उनसे कोई पूछे कि क्या मुसलमान वोट सपा बसपा कांग्रेस एमआईएम आज़ाद उम्मीदवार और यहां तक कि एक मामूली हिस्सा ही सही भाजपा तक को नहीं मिलते?

ऐसे ही दलित वाटों खासतौर पर गैर जाटव वोटों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा कांग्रेस और सपा की तरफ जाता रहा है। इसी तरह प्रत्याशी की वजह से ही सही सवर्णों का का गैर भाजपा समर्थक आधे से कुछ कम वोट सपा बसपा और अन्य दलों में जाता ही रहा है। हमारा कहना तो यह है कि यह अपने आप में सकारात्मक और लोकतांत्रिक बदलाव है कि अब लोग जाति धर्म के नाम पर नहीं विकास के एजेंडे पर भी वोट देने लगे हैं।

Sunday 5 February 2017

रूपये का इतिहास...

*रूपये का इतिहास*
जरूर पढे
प्राचीन भारतीय मुद्रा प्रणाली*
अपने बचचौ को जरुर पढायै.

फूटी कौड़ी (Phootie Cowrie) से कौड़ी,
कौड़ी से दमड़ी (Damri),
दमड़ी से धेला (Dhela),
धेला से पाई (Pie),
पाई से पैसा (Paisa),
पैसा से आना (Aana),
आना से रुपया (Rupya) बना।
256 दमड़ी = 192 पाई = 128 धेला = 64 पैसा (old) = 16 आना = 1 रुपया

1) 3 फूटी कौड़ी -  1 कौड़ी
2) 10 कौड़ी -  1 दमड़ी
3) 2 दमड़ी -  1 धेला
4) 1.5 पाई -  1 धेला
5) 3 पाई -  1 पैसा ( पुराना)
6) 4 पैसा -  1 आना
7) 16 आना - 1 रुपया

प्राचीन मुद्रा की इन्हीं इकाइयों ने हमारी बोल-चाल की भाषा को कई कहावतें दी हैं, जो पहले की तरह अब भी प्रचलित हैं। देखिए :
●एक 'फूटी कौड़ी' भी नहीं दूंगा।
●'धेले' का काम नहीं करती हमारी बहू !
●चमड़ी जाये पर 'दमड़ी' न जाये।
●'पाई-पाई' का हिसाब रखना।
●सोलह 'आने' सच

Our children n grand children must know the old history of small coins. Our one Rupee was consisting of 256 parts called DAMRI.

Friday 3 February 2017

बीजेपी के बोल.....

भली लगे या बुरी

*भाजपा नेताओं की बौखलाहट?*

इक़बाल हिन्दुस्तानी  Thursday February 02, 2017  

Gold: 5530

टाइम्स पॉइंट्स

5530 पॉइंट्स के साथ इक़बाल हिन्दुस्तानी बन गए हैं टाइम्स पॉइंट्स प्रोग्राम में गोल्ड मेंबर । टाइम्स पॉइंट्स के बारे में और जानने के लिए यहां क्लिक करें।

 

 

0

जिस भाजपा की केंद्र और 9$4 राज्यों में सरकार है। वह  आने वाले 5 राज्यों के चुनाव में पंजाब व गोवा में आम आदमी पार्टी और खासतौर पर यूपी में सपा कांग्रेस गठबंधन की चुनौती से इतना बौखला जायेगी। यह किसी ने सोचा भी नहीं होगा। लेकिन बीजेपी के नेता यहां जो बयान दे रहे हैं। उससे उनकी निराशा हताशा और बौखलाहट साफ पता लग रही है। अपनी भड़काउू बयानबाज़ी से नेशनल लेविल पर पहचान बनाने वाले केंद्रीय राज्यमंत्री संजीव बालियान का कहना है कि मुलायम सिंह ने यूपी की सियासत में साम्प्रदायिकता को बढ़ाया है। बालियान यहीं नहीं रूके। उन्होंने अपनी कुंठा यह कहकर निकाली कि सिंह अब मरने ही वाले हैं।

 

अगर यही बात कोई सपा नेता जवाबी तौर पर अटल जी के बारे में कहता तो भाजपा क्या चुप बैठती? बालियान को यह भी शर्म नहीं आई कि उनकी पार्टी खुद साम्प्रदायिकता और राम मंदिर आंदोलन के बल पर 2 सीटों से आज 282 सीटों तक लोकसभा में पहुंची है। साथ ही वह खुद दंगों के आरोपी हैं। मुज़फ्फरनगर दंगों के दूसरे आरोपी भाजपा नेता और विधायक संगीत सोम पिछले दिनों दंगोें की आपत्तिजनक भड़काउू सीडी लोगों को दिखाकर वोट मांग रहे थे। उनके खिलाफ चुनाव आयोग ने एफआईआर दर्ज कराई है। इससे पहले भाजपा नेता साक्षी महाराज खुलेआम मुसलमानों  के खिलाफ ज़हर उगलने के आरोप में चुनाव आयोग द्वारा हड़काये जा चुके हैं।

 

उनके खिलाफ भी चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन का मामला दर्ज किया गया है। दंगों के ही एक और आरोपी भाजपा विधायक सुरेश राणा का दावा है कि अगर वे चुनाव जीतते हैं तो मुरादाबाद और देवबंद सहित आसपास के मुस्लिम बहुल ज़िलों में कफर््यू ज़रूर लगवायेंगे। राणा भाजपा के शायद इतिहास में पहले नेता होेंगे जो कफर््यू को अपनी उपलब्धि के तौर पर पेश कर रहे हैं। या उनकी मंशा इस तरह से मुसलमानों को पुलिस और पीएसी से मेरठ के हाशिमपुरा व मलिायाना की तरह सबक सिखवाने की होगी। लेकिन हैरत की बात यह है कि ऐसा करने से गैर मुस्लिमों को कोई परेशानी या नुकसान नहीं होगा? इसकी गांरटी कौन ले सकता है?

 

उधर बिजनौर में भाजपा ने जिस महिला को टिकट दिया है। उसके पति पर बिजनौर में दंगा भड़काने का मामला दर्ज है। अजीब बात यह है कि इस सीट पर चुनाव प्रचार के लिये खुद पीएम मोदी आने वाले हैं। इससे विपक्ष के इस आरोप को बल मिलता है कि मोदी खुद इस तहर की उग्र हिंदूवादी और दंगों की सियासत करते रहे हैं। इसीलिये वे इस तरह के अभियान को और बढ़ावा दे रहे हैं। इससे पहले भाजपा नेता विनय कटियार कांग्रेस की प्रियंका गांधी पर आपत्तिजनक बयान दे चुके हैं। वे बार बार मुसलमानों और मदरसों के साथ ही दारूल उलूम देवबंद पर भी बहुत ख़राब और बेबुनियाद आरोप लगा चुके हैं। उनकी औकात भाजपा में दलित नेता की बजाये इस तरह के ज़हरीले बोलों पर ही टिकी लगती है।

 

भाजपा सांसद हुकम सिंह कैराना से कथित हिंदू पलायन को कानून व्यवस्था की बजाये मुस्लिम अपराधियों के आतंक का मुद्दा बनाने की नाकाम कोशिश पहले ही कर चुके हैं। भाजपा के राष्ट्रीय प्रमुख अमित शाह खुद 2014 में लोकसभा चुनाव में चुनाव आचार संहिता के एक मामले में चुनाव आयोग द्वारा कराई गयी एक रपट में नामज़द हुए थे। इतना ही नहीं भाजपा नेताओं के कुछ विवादित मामले और भी सामने आये हैं। जो मुझे इस टाइम याद नहीं आ रहे हैं। दूसरी तरफ भाजपा अख़बारों में विकास और यूपी  को आगे ले जाने के झूठे वादे कर रही है। क्या इससे यह नहीं माना जाना चाहिये कि भाजपा विकास पर चुनाव नहीं लड़ सकती क्योंकि उसने किसी राज्य या केंद्र में विकास किया ही नहीं है।

Wednesday 1 February 2017

मुस्लिम तुष्टिकरण क्यों?

*मुस्लिम तुष्टिकरण क्या होता है?*

इक़बाल हिन्दुस्तानी  

भाजपा अकसर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती है। लेकिन उसको कोई गंभीरता से नहीं लेता। वजह साफ है कि भाजपा खुद हिंदू तुष्टिकरण की सियासत करती है। तुष्टिकरण वास्तव में किसे कहा जाये? अभी यह भी साफ नहीं है। संघ परिवार यह भी जानता है कि सेकुलर दलों के मुस्लिम तुष्टिकरण करने से ही जवाबी हिंदू ध्रुवीकरण होता है। इसलिये मुझे नहीं लगता कि वह कभी यह चाहेगा कि धर्मनिर्पेक्ष पार्टियां मुसलमानों को खुश करने वाले दिखावे के काम करना बंद कर दें। आपको याद दिला देें कि कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम नूर बरकती ने प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ न केवल नुकसान पहुुुंचाने का बयान जारी किया था बल्कि इस बयान की भाषा भी बेहद आपत्तिजनक थी।

 

हालांकि मीडिया में इसको फ़तवा बताकर प्रचारित किया गया। लेकिन यह फ़तवा इसलिये नहीं माना जा सकता क्योंकि इमाम बुखारी की तरह बरकती भी मुफ़ती ही नहीं है। इस्लाम में मुफती ही फ़तवा जारी कर सकता है। साधारण मौलवी और इमाम जो कुछ कहते हैं। उसका कोई खास महत्व नहीं होता है क्योंकि यह उनकी सोच सलाह या अपील व बयान तक ही सीमित रहती है। अजीब बात यह हुयी कि बरकती की इस घटिया हरकती की केवल मौलाना महमूद मदनी ने निंदा की थी। पूरे देश में इस पर सेकुलर दलों से लेकर निष्पक्ष और मानवतावादी बुध््िदजीवियों ने अपने होंट सी लिये थे। इसके बाद बंगाल के ध्ूालागढ़ में जब साम्प्रदायिक हिंसा का आरोप अल्पसंख्यकों पर लगा तो उस पर भी सेकुलर खेमा खामोश रहा।

 

बंगाल में मालदा की साम्प्रदायिक हिंसा पर भी एकतरफा चुप्पी साध ली गयी थी। इतना ही नहीं मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव में स्त्रीवादी लेखिका तस्लीमा नसरीन को वहां की वाममोर्चा सरकार ने 2007 में बाहर का रास्ता दिखा दिया था। इससे पहले उनकी किताब द्विखंडितों पर रोक लगा दी गयी थी। कांग्रेस सरकार ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के डर से तस्लीमा को दिल्ली में महीनों नज़रबंद रखा। अब एक महिला बंगाल की सीएम बनी तो तस्लीमा को उम्मीद जागी थी कि वह एक दूसरी महिला का दर्द समझेगी। लेकिन यह क्या कोलकाता पुस्तक मेले में तस्लीमा की आत्मकथा के 7 वंे खंड ‘निर्वासन’ का लोकार्पण नहीं होने दिया गया।

   

अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का एक नमूना हिंदूवादी यह भी पेश करते हैं कि कोलकाता पुलिस ने वहां पिछले दिनों ब्लूचिस्तान पर एक सेमिनार इसलिये नहीं होने दिया कहीं इससे बंगाल के मुसलमान कोई गलत संदेश न निकाल लेें। ऐसे एक नहीं अनेक और मामले गिनाये जा सकते हैं। सबसे बड़ा मामला शाहबानो केस था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला संविधान के हिसाब से उसको उसके पति से गुज़ारा भत्ता दिलाने का था। लेकिन कांग्रेस की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने उसको मुसलमानों के कट्टरपंथी वर्ग को खुश करने के लिये पलट दिया।

 

*हालांकि तमिलनाडू में हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के ऐसे ही एक फैसले के खिलाफ तमिल परंपरा के नाम पर न केवल हिंसक प्रदर्शन हुए बल्कि केंद्र और राज्य ने एक राय होकर एक अध्यादेश पास कर कथित हिंदू तुष्टिकरण का काम किया। इतना ही नहीं वहां थाने जलते रहे पुलिस पिटती रही और आम जनजीवन बुरी तरह तबाह कर दिया गया लेकिन कश्मीर के मुसलमानों पर आयेदिन चलने वाली पेलेट गन तमिलों पर पता नहीं क्यों इस्तेमाल करने से परहेज़ किया गया?* हमारे कहने का मतलब यह है कि हिंदू हो या मुस्लिम सभी कट्टरपंथी साम्प्रदायिक और अलगाववादी तत्वों के साथ कानून को एक सा ही व्यवहार करना चाहिये। अगर धर्म जाति और क्षेत्र देखकर सरकारें अदालतें और बुध्दिजीवी विरोध और समर्थन करेंगे तो इसका आगे चलकर बहुत बुरा नतीजा निकल सकता है। किसी भी वर्ग को यह नहीं महसूस होना चाहिये कि उनके साथ सौतेलापन हुआ है।