Friday 29 April 2016

लालबिहारी "मृतक"

लालबिहारी 19 साल बाद हुए जिंदा

यूपी के सीएम हाईकोर्ट से नहीं बचा सकते अपने भ्र्रष्ट अफसरों को ! उनको यह सोचना चाहिये कि ऐसी नौबत ही क्यों आती है कि जनता को छोटे छोटे कामों के लिये अदालत का रूख़ करना पड़ता है।
     
अखिलेश यादव ने हाईकोर्ट से गुहार लगाई है कि उनके अफसरों को छोटी छोटी बात पर कोर्ट में तलब न किया जाये। सवाल यह है कि अगर उनकी सरकार इतनी ही अच्छी होती तो जनता अदालत मेें क्यों जाती ? इस पर भी उनकी पुलिस और प्रशासन इतना नाकारा भ्र्रष्ट और ढीट है कि बार बार न्यायालय के नोटिस देने समन देने और आदेश पर अमल कर जवाब दाखिल करने की बात पर कान देने को तैयार नहीं होता। इसका एक नमूना यूपी के आज़मगढ़ के लालबिहारी ‘मृतक’ हैं। आपको हैरत होगी कि एक जीते जागते आदमी को यूपी की सरकारी मशीनरी ने जेब गर्म राजस्व विभाग के कागज़ों पर मार डाला। यह मामला 1975 का है।
 
लालबिहारी को उनके किसी विरोधी या प्रतिद्वन्द्वी से पैसा खाकर राजस्व विभाग के घूसखोर स्टाफ ने मृत घोषित कर दिया। लालबिहारी ने नीचे से ऊपर तक सरकार के हर ऑफिस और हर छोटे बड़े अफसर के कार्यालय की खाक छानी। लेकिन सशरीर उपस्थित होने के बाद भी उनकी किसी ने एक न सुनी। हारकर उन्होंने 1980 में अपने नाम के साथ मृतक शब्द जोड़ लिया। इस पर भी सरकारी कारिंदों को शर्म या दया नहीं आई। वे उनकी मज़ाक उड़ाते रहे नाम आवेदन पत्र में देखकर। लेकिन किसी ने लालबिहारी की पीड़ा को समझकर उनकी समस्या का समाधान नहीं किया। जब लालबिहारी ने करो या मरो का नारा देकर अपना अभियान लखनऊ से दिल्ली तक छेड़ दिया।
 
तब कहीं जाकर उनको 1994 में ज़िंदा घोषित किया गया। इसके बाद भी सरकार को यह अहसास  नहीं हुआ कि वह उनको मुआवज़ा दे। उनसे सरकारी कर्मचारियों की गल्ती या जानबूझकर की गयी मानसिक यंत्रणा के लिये माफी भी नहीं मांगी गयी। इतना ही नहीं जब सरकार ने इस अनोखे केस के बाद भी इस मामले की जांच और किसी को ज़िम्मेदार न मानकर सज़ा तक नहीं दी तो लालबिहारी ने देश के अपने जैसे 2000 जीवित मृतकों का संगठन बना लिया। उनका कहना था कि सरकार ऐसी व्यवस्था करे कि भविष्य में किसी और लालबिहारी को जीते जी सरकारी दस्तावेज़ों में मृतक न घोषित किया जा सके। सरकार को जहां लालबिहारी को कागज़ों में जीवित मानने में 19 साल लगे।
 
वहीं इस तरह का प्रावधान करने का निर्णय लेने में 40 साल लग गये। अब जाकर यूपी सरकार ने राजस्व कर्मचारियों की मनमानी रोकने को राजस्व संहिता की भूलेख नियमावली में संशोधन का फैसला किया है। इस संशोधन के ज़रिये यह अनिवार्य किया जायेगा कि कोई लेखपाल अगर किसी को मृतक घोषित करता है तो उसको अपनी इस कार्यवाही की पुष्टि ग्राम राजस्व समिति के दो सदस्यों से करानी होगी। यह अलग बात है कि लेखपाल इन दो सदस्यों को भी अगर कुछ ‘फीलगुड’ कराकर सैट कर ले तो इनको क्या सज़ा मिलेगी। अभी यह सरकार ने साफ नहीं किया हैै। सवाल यह है कि जिस प्रदेश में एक आदमी को तहसील के निचले स्तर का एक कर्मचारी जेब गर्म कर जीते जी सरकारी दस्तावेज़ों में मृत घोषित कर देता हो।
 
इसके बाद उस अभागे आदमी को यह साबित करने में 19 साल लग गये कि वह ज़िंदा है। इसके बावजूद वह इस हरकत के ज़िम्मेदार सरकारी अमले को सज़ा तक नहीं दिला पाया। इसके बाद अगले 21 साल सरकार को यह मानने में लग गये कि इस तरह के और केस न हों इसके लिये कुछ व्यवस्था की जाये। अभी राजस्व संहिता की भूलेख नियमावली में संशोधन करने में कुल कितना समय और लगेगा यह भी कोई दावे से नहीं बता सकता। ऐसे में यूपी की सरकार का मुखिया यह कैसे कह सकता है कि हाईकोर्ट छोटे छोटे मामलों में अगर सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को तलब करेगा तो वे काम कैसे करेंगे? सच तो यह है कि भ्रष्ट शासन की वजह से ही प्रशासन और पुलिस भी भ्रष्ट हो जाती हैं।
 
आज अगर जनता को अपने छोटे छोटे कामों के लिये भी कोर्ट जाना पड़ रहा है तो साफ है कि प्रशासन ही नहीं सांसद विधायक मंत्री भी भरोसा खो रहे हैं।
 
सोचा था कि जाकर उससे फ़रियाद करेंगे,
कमबख़्त वो भी उसका चाहने वाला निकला।

संघमुक्त न कांग्रेसमुक्त

भली लगे या बुरी

देश संघमुक्त होगा न कांग्रेसमुक्त!

नीतीश की सारी कवायद राहुल गांधी की जगह खुद को मोदी का असरदार विकल्प अभी से प्रस्तुत करने की है! सियासत में कुछ भी नामुमकिन नहीं है। जो लोग यह बात जानते हैं उनको बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का संघमुक्त भारत का सपना भी असंभव नहीं लगता है। आजकल संघ परिवार और उसके समर्थक जितनी शिद्दत से इस मुद्दे पर बयान और लेख लिख कर चर्चा कर रहे हैं, उससे यह भी पता चलता है कि नीतीश ने भाजपा की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। बहुत पुरानी बात नहीं है। आम चुनाव में मोदी ने कांग्रेसमुक्त भारत का नारा दिया था। हालांकि 2014 के संसदीय चुनाव में कांग्रेस को इसका काफी नुकसान भी पहंुचा। लेकिन आज भी कांग्रेस को इस देश के बहुत बड़े वर्ग का समर्थन हासिल है। बीजेपी भले ही 17 करोड़ वोट लेकर 282 सीट जीत गयी हो लेकिन कांग्रेस 10 करोड़ वोट लेकर भी 44 सीटों पर अटक गयी।
 
इसके बावजूद कांग्रेस की कई राज्यों में सरकारें भी चल रही है। भाजपा की केंद्र सरकार पर यह आरोप भी लग रहा है कि जब वह कांग्रेस को चुनाव में नहीं हरा सकी तो अब धारा 356 का बेजा इस्तेमाल करके कांग्रेस की एक के बाद एक राज्य सरकार को गैर लोकतांत्रिक तरीकों से गिरा रही है। उत्तराखंड के मामले ने इस आरोप को और बल दिया है। सच तो यह है कि 2014 में भाजपा वोट और सपोर्ट की जिन उूंचाइयों पर पहुंची थी। अब उससे लगातार नीचे आ रही है। उधर कांग्रेस का बुरा वक्त गुज़र चुका है। वह दिन ब दिन विपक्ष में रहकर अपनी हालत में मोदी सरकार की नालायकी और  गल्तियों से सुधार कर रही है। सबसे बड़ी समस्या अगर कोई है तो वह राहुल गांधी की है।
 
कांग्रेस ने यह कसम खा रखी है कि उसका नेतृत्व जन्मजात ही चलेगा। नीतीश कुमार ने इन दोनों बातों को अच्छी तरह से समझ लिया है। उनको लगता है कि राहुल गांधी नरेंद्र मोदी का विकल्प नहीं बन सकते। उनको यह भी लगता है कि मोदी ने जो सपने जनता को दिखाये थे। वो न पूरे होने थे और न ही हुए हैं और न ही आगे होंगे। ऐसे में 2019 के चुनाव आते आते मोदी के एक नये विकल्प की देश को ज़रूरत होगी। जो कम से कम कांग्रेस के पास मौजूद नहीं होगा। मतलब मोदी अपनी कमियों और असफलताओं से जो जगह ख़ाली करेंगे। उसको भरने के लिये देश के सामने कोई दूसरा नेता विपक्ष में होना चाहिये।
 
नीतीश कुमार यह भी जानते हैं कि मोदी को एक बार फिर पीएम बनने से रोकने के लिये कांग्रेस तमाम ना नुकुर करने के बावजूद उनके नाम पर राज़ी हो सकती है। कांग्रेस का यह इतिहास भी रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं नीतीश ने भाजपा की बुनियाद यानी संघ पर धावा बोला है। वह अपने नारे को यह कहकर भी न्यायोचित ठहरा सकते हैं कि अगर कांग्रेसमुक्त भारत का बीजेपी का नारा सही है तो सांप्रदायिक फासिस्ट और संकीर्ण संघमुक्त भारत का उनका नारा और भी उचित है। हालांकि अभी नीतीश कुमार को इस नारे पर यूपी में लोकदल के अजित सिंह और झारखंड में बाबूलाल मरांडी का ही सपोर्ट खुलकर मिला है। लेकिन यह भी सच है कि जिस तरह वामनेता युचुरी ने उनके अभियान का स्वागत किया है।
 
आगे चलकर ममता माया और जयललिता के साथ ही ऐसे कई क्षेत्रीय दल उनके पक्ष में लामबंद हो सकते हैं । जो कांग्रेस और भाजपा दोनों से समान दूरी बनाकर रखना चाहते हैं। नीतीश यह दूर की कौड़ी इसलिये भी लाये हैं क्योेंकि पीएम बनने से पहले मोदी के पास भी गुजरात का सीएम रहने के अलावा कोई संसदीय अनुभव नहीं था। इस मामले में नीतीश कुमार तो केंद्र में भी कई बार कैबिनेट मिनिस्टर रह चुके हैं। नीतीश कुमार के साथ एक प्लस प्वाइंट यह भी है कि उनका राजनीतिक जीवन अब तक बेदाग़ रहा हैै। वह एक ऐसे राज्य बिहार के लंबे समय से सीएम हैं जिसको देश की राजनीतिक दिशा तय करने का श्रेय मिलता रहा है।
 
कुल मिलाकर मोदी और नीतीश कुमार को एक बात समझने की बराबर ज़रूरत है कि कांग्रेसमुक्त और संघमुक्त भारत का नारा न देकर भ्रष्टाचारमुक्त और साम्प्रदायिकतामुक्त भारत का नारा अधिक कारगर और सकारात्मक हो सकता है। लोकतंत्र में किसी पार्टी संगठन या विचार को आप ख़त्म नहीं कर सकते न ही ऐसा करना संवैधानिक है।
 
गले मिलकर छुरा घोपने का रिवाज है यहां,
क्या शहर है क़ायदे का दुश्मन नहीं मिलता।।

Sunday 24 April 2016

Indian economy

[9:20PM, 7/26/2015] Iqbal Hindustani: उधोगों के लिये भूमिग्रहण
            का हश्र
SEZ जैसा होगा..........
CAG की रिपोर्ट बताती है-
2007 से 2013 के बीच स्पेशल इकोनोमिक ज़ोन के लिये थोक में किसानो की 45635 हेक्टेयर ज़मीन छीनी गयी। जिन 576 परियोजनाओं को SEZ के नाम पर मंज़ूरी दी गयी थी उनमें से 392 ही रजिस्टर्ड हुईं। इनमें से भी सिर्फ 170 में ही काम शुरू हुआ। इनमें से भी मात्र 3.8% ही कुल निर्यात का हिस्सा दे पाये हैं ।
सवाल ये है बाक़ी ज़मीन का क्या हुआ?
आधी से ज़्यादा खाली पड़ी है।
बड़ा हिस्सा डेवलपर्स ने कब्ज़ा लिया है जो वहां मकान स्कूल और अस्पताल बनाकर चांदी काट रहे हैं।
सबसे दुखद और आक्रोश की बात इसमें से अधिकाँश ज़मीन का किसानों को मुआवज़ा भी नहीं मिला है जिस से या तो वे खेत मज़दूर बन गए हैं या आत्महत्या करने को मजबूर हैं ��������
[9:20PM, 7/26/2015] Iqbal Hindustani: भारतीय अर्थव्यवस्था:एक नज़र
GDP में कितना योगदान
सर्विस सैक्टर 57%
रोज़गार-27%
मैन्युफैक्चरिंग 18.4%
रोज़गार-24.3%
कृषि क्षेत्र-14.4%
रोज़गार-49%
[9:20PM, 7/26/2015] Iqbal Hindustani: मोदी सरकार को अमीरों की एजेंट बताकर बदनाम किया जा रहा है
जबकि इस साल कॉर्पोरेट सैक्टर को मात्र 572923 करोड़ ₹
जबकि जनता को 220972 करोड़ की "भारी" सब्सिडी दी गयी है।
साथ ही सरकार जनता को दी जा रही सब्सिडी से लोगों के जीवन स्तर में कोई सुधार न आने से इसकी समीक्षा यानी धीरे धीरे खत्म करने की सोच रही है।
तो इसमें क्या बुराई है?
कमबख्त "झूठा" प्रचार कर रहे हैं ��������

Population

[11:14AM, 7/24/2015] Iqbal Hindustani: ईसाई मुस्लिम आबादी
2010
ईसाई 2.17 अरब
मुस्लिम 1.60 अरब
2050
ईसाई 2.9      31%
मुस्लिम 2.8.   30%
हिन्दू 13.2%  2010
" "    14.9% 2050
श्रोत-पीयू रिसर्च सेंटर
[11:56AM, 7/25/2015] Iqbal Hindustani: शिक्षा बनाम आबादी .....
केरल 2001-2011 के दौरान देश की जनसंख्या वृद्धि दर 17.6 को काफी पीछे छोड़कर 4.9% यानि लगभग ज़ीरो ग्रोथ पापुलेशन पर आ गया है। ख़ास बात ये है केरल में मुस्लिमों की भी बड़ी तादाद है लेकिन वे भी बराबर परिवार नियोजन अपना रहे हैं
इसका मतलब एक बार फिर साबित हो गया बढ़ती आबादी का संबंध धर्म नहीं अशिक्षा से ज़्यादा है। ��
[11:02AM, 7/27/2015] Iqbal Hindustani: घटने लगी मुस्लिम आबादी की बढ़त- भारत सरकार
��संघ परिवार को अब ये प्रोपेगंडा वापस लेना होगा कि मुस्लिमों की आबादी 2001 की तरह 29.5% बढ़ती रहेगी तो वे देश में 220 साल में हिंदुओं के बराबर हो जाएंगे।
हिंदुओं की आबादी तब 19.9% की दर से बढ़ रही थी यानि दोनों में 2.62 -1.83= 0.79 का भारी अंतर था।
हिन्दू 1991 में 69,01,00000 से 2001 में बढ़कर 82,76,00000 हुए तो मुस्लिम इस दौरान 10,67,00000 से बढ़कर 13,82,00000 हुए थे।
दिलचस्प बात ये है कि इस एक दशक में ईसाई 2.36% बढ़कर 1,90,00000 से 2,24,00000 हो गए थे जिस से हिन्दूवादियों ने लगे हाथ उनका हिसाब जोड़कर ये भी दावा कर दिया था कि वे इस स्पीड से 670 साल में आबादी में हिंदुओं को पीछे छोड़ देंगे।
अब केंद्र में हिंदूवादी सरकार होने से संघ परिवार ये आरोप भी नहीं लगा सकता कि जनगणना के ये आंकड़े ग़लत हैं।
हमारा कहना है जैसे जैसे विकास शिक्षा और सम्पन्नता बढ़ेगी मुस्लिम आबादी की बढ़त हिंदुओं के बराबर आती जायेगी जैसे आज वो दलित जनसंख्या की बढ़त से भी नीचे आ चुकी है।
[11:02AM, 7/27/2015] Iqbal Hindustani: जनगणना 2011: पिछले दशक में 24% बढ़ी मुस्लिम आबादी, धीमी हुई वृद्धि की रफ्तार
टाइम्स न्यूज नेटवर्क| Jan 22, 2015, 07.59AM I
जनगणना 2011: पिछले दशक में 24% बढ़ी मुस्लिम आबादी

भारती जैन, नई दिल्ली

जल्द ही जारी होने वाले धार्मिक समूहों की जनसंख्या पर आधारितजनगणना के ताजा आंकड़ों के मुताबिक 2001 से 2011 के बीच मुस्लिमों की जनसंख्या में 24 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है, जिससे देश की कुल जनसंख्या में मुस्लिमों की संख्या 13.4 फीसदी से बढ़कर 14.2 फीसदी हो गई।

हालांकि 1991 से 2001 के दशक की 29 फीसदी वृद्धि दर के मुकाबले पिछले दशक (2001-2011) के दौरान मुस्लिमों की जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट आई है लेकिन यह अब भी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है, जोकि पिछले दशक के दौरान 18 फीसदी रही।
हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया को मिले डेटा के मुताबिक मुस्लिमों की जनसंख्या में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी असम में हुई। 2001 की जनगणना के मुताबिक असम में मुस्लिमों की जनसंख्या 30.9 फीसदी थी जो एक दशक बाद बढ़कर 34.2 फीसदी हो गई। बांग्लादेश से आने वाले अवैध अप्रवासी हमेशा से असम के लिए एक समस्या रहे हैं।
[11:02AM, 7/27/2015] Iqbal Hindustani: नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे...
1993-1998 के दौरान
हिन्दू प्रजनन 3.20% से घटकर 2.78% हुआ
तो मुस्लिम प्रजनन 4.41 से घटकर 3.59 हो गया।
यानी हिंदुओं में जनसंख्या गिरावट दर 0.52 थी तो मुस्लिमों में 0.82% थी।
एक से अधिक शादी को लेकर भी मुस्लिमों पर ऊँगली उठाई जाती है लेकिन सरकारी आंकड़े बोल रहे हैं कि हिन्दू 5.80% तो मुस्लिम 5.73 दूसरी शादी करते हैं।
(सूत्र-जनवाणी दैनिक 23 जनवरी 2015 पेज 6 लेखक सुभाष गाताडे)
[4:10PM, 8/26/2015] Iqbal Hindustani: 2001-2011 आबादी
हिन्दू 96.63 करोड़ 79.8%
मुस्लिम 17.22 14.2%
ईसाई-2.78  2.3%
सिख- 2.08. 1.7%
बौद्ध- 84लाख 0.7%
जैन- 45 लाख 0.4%

हिन्दू उदारता

यह है हिंदुओं की उदारता

0 क्या मुस्लिम भी इस तरह के बदलाव के लिये तैयार हो सकते हैं?
            बॉम्बे हाईकोर्ट ने महिलाओं के पक्ष में एक फैसला दिया। सरकार ने उसको लागू कराने की हुंकार भरी। और देखते देखते ही 400 साल की एक परंपरा शनि शिंगणापुर मंदिर में टूट गयी। इसी के साथ नासिक के द्वादश ज्योतिर्लिंग एक त्रयंबकेश्वर मंदिर में भी महिलाओं के साथ भेदभाव ख़त्म हो गया। इसकी सबसे अहम वजह यह रही कि संविधान का अनुच्छेद 14 कहता है कि किसी के साथ भी लिंग के आधार पर पक्षपात नहीं किया जा सकता। केरल के सबरीमाला पद्मनाभस्वामी मंदिर और मुंबई की हाजी अली दरगाह में भी महिलाओं को बराबर हक देने की मांग अभी जारी है। दूसरी तरफ ऐसा ही एक मामला सुप्रीम कोर्ट में कुछ प्रगतिशील मुस्लिम महिलाओं की ओर से चल रहा है।
 
इसमें मुस्लिम महिलाओं के साथ मुस्लिम समाज में होने वाले भेदभाव और पक्षपात का विरोध किया गया है। इस मामले का रोचक पहलू यह है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बिना नोटिस मिले ही इस केस में पार्टी बनने कोर्ट पहुंच गया है। उसका पक्ष और भी दिलचस्प है। बोर्ड का दावा है कि इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट विचार नहीं कर सकता। कोर्ट ने हालांकि उदारता और नम्रता का परिचय देते हुए बोर्ड को इस मामले में एक पक्ष स्वीकार कर अपनी बात कहने का मौका दिया है। सवाल यह है कि यह देश संविधान के हिसाब से चलेगा या पर्सनल कानून के ? यह ठीक है कि पर्सनल लॉ को लागू करने की इजाज़त भी संविधान में दी गयी है।
 
लेकिन उसमें साथ साथ यह भी कहा गया है कि सरकार यह प्रयास करे कि सभी समाज और वर्गों के लोेग धीरे धीरे कॉमन सिविल कोड अपनाने को राज़ी हो जायें। हालांकि समय बदलता रहता है। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि जो काम पहले नहीं हुआ वह अब क्यों किया जा रहा है ? एक समय था जब संविधान निर्माता और वोटों की खातिर ही सही आज सभी दलों और नेताओं के चहेते हो रहे डा. भीमराव अंबेडकर का कानून मंत्री के तौर पर 1951 में संसद में लाया गया हिंदू कोड बिल संघ परिवार के ज़बरदस्त विरोध के चलते औंधे मंुह गिर गया था। इसी से ख़फा होकर बाबा साहब ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।
 
हालांकि बाद में यह बिल किश्तों मेें हिंदू विवाह, हिंदू उत्तराधिकार और गुज़ारा व गोद कानून रूप में बारी बारी से पास हुआ। जहां तक बराबरी का सवाल है। इसमें हिंदू समाज को भी 55 साल लग गये। अब जाकर 2005 में संयुक्त हिंदू परिवार की सम्पत्ति में पुत्र और पुत्री को समान हक दिये जा सके हैं। कहने का मतलब यह है कि देर से ही सही हिंदू समाज ने यह सच स्वीकार किया है कि महिलाओं को भी हर क्षेत्र मंे बराबर अधिकार मिलने ही चाहिये। दूसरी तरफ मुस्लिम समाज में जब शाहबानों मामला आया तो सुप्रीम कोर्ट ने संविधान को सर्वोपरि रखकर उसके पक्ष में फैसला दिया था। लेकिन तत्कालीन कांग्रेस की राजीव सरकार ने मुस्लिम वोटबैंक को खुश करने के लिये इस फैसले को पलट दिया।
 
इस से हिंदू साम्प्रदायिकता को पर लग गये। हालांकि यह केस मुस्लिम समाज का महिला और पुरूष रिश्ते को लेकर अंदरूनी मामला माना जाता है। लेकिन यह भी सच है कि इससे एक ख़राब संदेश यह गया कि मुस्लिम समाज आज भी प्रगतिशील और उदार बनकर महिला पुरूष का भेदभाव ख़त्म करने को तैयार नहीं है। इससे एक बार फिर वही बुनियादी बहस छिड़ जाती है । जिसमें यह माना जाता है कि मुसलमानों के लिये धर्म और संविधान में से एक चुनने की बात आये तो वे धर्म को चुनेंगे। हालांकि ऐसा कोई सर्वे या जनमत संग्रह कभी हुआ नहीं लेकिन यह भी मानना होगा कि मुस्लिम समाज आज भी और वर्गों के मुकाबले अधिक कट्टर व संकीर्ण बना हुआ है।
 
देखने वाली बात यह है कि अगर मुस्लिम समाज कट्टरता संकीर्णता और मर्द व औरत के बीच के भेदभाव को ख़त्म करने को आज भी तैयार नहीं होता तो संघ परिवार या भाजपा ही नहीं खुद कथित सेकुलर दल उसका साथ किस सीमा तक दे सकते हैं ? अब वह समय आ गया है । जब मुस्लिम समाज को एक साथ तीन तलाक हलाला बैंक सूद फोटो फिल्म संगीत पर्दा मॉडल निकाहनामा परिवार नियोजन व काफिरों के प्रति अपनी कठोर सोच आदि उलझे हुए मुद्दों को सुलझाना ही होगा।   
 
घर से मस्जिद बहुत दूर है चलो यूं कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये ।।

Wednesday 13 April 2016

आईपीएल बनाम पीआईएल

भली लगे या बुरी


महाराष्ट्र में सरकार को प्यासे नागरिकों से ज्यादा खेल की चिंता ! कल तक बीजेपी विपक्ष में रहकर कांग्रेसे और एनसीपी पर किसान और गरीब विरोधी होने का आरोप लगाती थी। आज वह खुद सत्ता में आकर भरे पेट लोगों के क्रिकेट के लिये 60 लाख लीटर पानी बहाने को तो तैयार है। लेकिन लातूर के उन 55000 घरों की उसको चिंता नहीं है। जिनको मात्र 20 लीटर पानी में रोज़ गुज़ारा करना पड़ रहा है। अभी भी वह मीडिया और कोर्ट की वजह से बैकफुट पर आई है न कि उसको खुद सद्बुध्दि आई है।
 
अंग्रेजी की एक कहावत है- पॉवर मेक्स करप्ट एंड एब्स्लूट पॉवर मेक्स एब्स्लूट करप्ट। जो बीजेपी विपक्ष में रहकर बड़े बड़े दावे करती थी। आज सत्ता में आने के बाद केंद्र में ही नहीं राज्यों में भी एक एक कर सब वादों से पलटती जा रही है। महाराष्ट्र में जब सूखे की वजह से किसान आत्महत्या कर रहे थे। तब यही बीजेपी कांग्रेस और एनसीपी की साझा सरकार पर रोज़ आरोप लगाती थी। उसका कहना था कि सरकार संवेदनहीन है। बीजेपी यह भी कहती थी कि एक तरफ लोग सूखे और पानी की कमी की वजह से भूखे प्यासे मर रहे हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार अपने मज़े में मस्त है। अब जब महाराष्ट्र की जनता ने बीजेपी के झूठे वादों और फर्जी दावों के झांसे में आकर उसको सत्ता की बागडोर सौंप दी है तो उसके काम करने के तरीकों में कोई बड़ा अंतर नहीं आया है।
 
आईपीएल यानी इंडियन प्रीमियर लीग के क्रिकेट मैच मुंबई में कराने के लिये वहां की सरकार मैदान को हरा भरा रखने को 60 लाख लीटर पानी देने की कवायद शुरू कर ही चुकी थी। वो तो भला हो मीडिया और कोर्ट का जो यह सवाल उठा कि पानी पहले किसे दिया जाना चाहिये? फडनवीस सरकार शायद मीडिया की आवाज़ को अनसुना भी कर देती लेकिन जब पीआईएल यानी पब्लिक इंट्रेस्ट लिटीगेशन के ज़रिये मामला मुंबई हाईकोर्ट पहुंच गया तो वह मजबूर हो गयी। इतना ही नहीं इससे पहले गैर सरकारी संस्थाओें और समाजसेवी संगठनों ने सरकार से ऐसी ही गुहार लगाई थी।

लेकिन उसने एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया। हाईकोर्ट ने जब फडनवीस सरकार को बाकायदा फटकार लगाकर जवाब तलब किया कि वह ऐसा कैसे कर सकती है? तो उसको जनता के नाराज़ होने और अगली बार वोट न मिलने का खयाल आया। राज्य के लातूर ज़िले के 55000 घरों में प्रति दिन मात्र 20 लीटर पानी ही मिल पा रहा है। हैरत और दुख की बात यह है कि सरकारी टैंकरों के मुकाबले पानी माफिया वहां अधिक टैंकर चोरी छिपे ले जाकर पानी का अवैध कारोबार कर रहा है। लोग पानी की एक एक बूंद को तरस रहे हैं। इसके बाद भी फडनवीस की बीजेपी सरकार के बेशर्म नेता और अफसर अपने इस जनविरोधी कदम का बचाव करते हैं।

उनका दावा है कि खेल अपनी जगह हैं और प्यासे लोग अपनी जगह। वे यह भी कहने से नहीं चूकते कि जब तक लोगों को पीने का पानी मिले क्या तब तक राज्य के सारे और काम रोक दिये जायें? इतना ही नहीं खुद सीएम फडनवीस जब भारतमाता की जय के नारे को लेकर फालतू बयानबाज़ी में उलझे हों तो और नेताओं से क्या आशा की जा सकती है? महाराष्ट्र देश का ऐसा पहला राज्य बन गया है जहां विधानसभा में एक विधायक के भारतमााता की जय न बोलने पर  उसको सदन से निष्कासित कर दिया गया। वह भी तब जब संविधान या कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। फडनवीस मोदी की तरह संघ के खासम खास बनने के लिये यह दावा भी कर चुके हैं कि जो कोई भारतमाता की जय नहीं बोलेगा उसको देश में रहने का हक नहीं है।

यह कितनी बड़ी विडंबना है कि खुद फडनवीस भारतमाता के प्यासे बच्चो को पानी तक उपलब्ध न कराकर धन कमाने को आईपीएल के लिये लाखों लीटर पानी बहा रहे हैं। इसके बावजूद अपनी करतूत छिपाने को भारतमाता की जय का नारा लगाने को मुद्दा बना रहे हैं। ऐसे ही महाराष्ट्र के ही विदर्भ में किसान लगातार सूखे और कर्ज के बोझ में दबकर जान दे रहे हैं। फडनवीस को इन भारतमाता के बेटों की कतई चिंता नहीं है। चिंता है तो केवल भारतमाता की जय के नारे की। भारतमाता ऐसी हालत में कैसे खुश हो सकती है जबकि उसके बच्चे प्यासे हों? जबकि उसके बच्चे आत्महत्या कर रहे हों? जबकि उसके बच्चो के साथ उनके अल्पसंख्यक होने की वजह से विधानसभा में पक्षपात किया जा रहा हो? जबकि उसके बच्चो को देश से निकालने की धमकी दी जा रही हो? मोदी हों या फडनवीस उनकी कथनी करनी भी एक नहीं है, समय के साथ साथ यह भी बार बार साबित होता जा रहा है।

लगी है प्यास चलो रेत निचोड़ा जाये,
अपने हिस्से में समंदर नहीं आने वाला।