Sunday 28 April 2019

कांग्रेस 2024

कांग्रेस 2024 की तैयारी कर रही है?

0कांग्रेस जिस तरह से इस चुनाव में समान विचारधारा वाले सेकुलर और क्षेत्रीय दलों को लताड़ रही है। इससे साफ़ है कि वह 2019नहीं बल्कि 2024 के चुनाव के बाद सरकार बनाने की दूरगामी रण्नीति पर सुविचारित तरीके से चल रही है। इसके विपरीत भाजपा ने सत्तारूढ़ होकर भी जिस उदारता और दूरअंदेशी से 38 छोटे दलों के साथ गठबंधन किया हैवह बेमिसाल है।       

       

   कांग्रेस ने सबसे पहले तीन राज्यों के चुनाव में सपा बसपा जैसे यूपी के दो मज़बूत सेकुलर दलों को एमपी राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में सहयोग की पेशकश की पहल के बावजूद नाराज़ किया। जिसका नतीजा यह हुआ कि वह अपने बल पर इनमें से दो राज्यों में बहुमत हासिल नहीं कर सकी। इसके बावजूद सपा बसपा ने भाजपा को वहां सत्ता में आने से रोकने को कांग्रेस को बिना मांगे समर्थन देकर उसकी सरकार बनवाई। लेकिन अहसान फरामोश कांग्रेस ने सपा बसपा का एक भी मंत्री नहीं बनाया। कांग्रेस के इस अहंकार और मनमानी का परिणाम यह हुआ कि सपा बसपा ने उसको यूपी के चुनावी गठबंधन से लाख चाहने के बावजूद बाहर का रास्ता दिखा दिया।

    हालांकि इसके पीछे कांग्रेस का जनाधार यहां लगभग खत्म हो जानाउसका वोट गठबंधन के बाद भी पूर्व में सपा बसपा को ट्रांस्फर न होकर भाजपा के साथ चले जाना और मायावती की नज़र कांग्रेस को यूपी में फिर से जीवनदान न देकर खुद पीएम बनने का अवसर आने पर अपनी दावेदारी कमजोर न होने देना भी रहा है। इतना ही नहीं जब लोकसभा उपचुनाव में सपा बसपाभाजपा को जीतने से रोकने के लिये गोरखपुर फूलपुर कैराना में आरएलडी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थेतब भी कांग्रेस महागठबंधन के वोटों में सेंध लगाकर भाजपा को अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुुंचा रही थी।

    यह केवल देश के सबसे बड़े राज्य यूपी का ही मामला नहीं है। बिहार में लालू यादव के जेल मेें होने और गठबंधन को अपनी शर्तों पर चलाने के लिये कांग्रेस ने उनके पुत्र तेजस्वी यादव से लगभग ब्लैकमेल की हद तक जाकर अपनी औकात से कहीं अधिक सीटें मांगी जिस पर तमाम हंगामा हुआ। लेकिन अंत मंे तेजस्वी को झुकना पड़ा। ऐसे ही दिल्ली में आम आदमी पार्टी के केजरीवाल ने खुद पहल करते हुए कांग्रेस को 7 में से 3 सीट का प्रस्ताव दिया और चौथी सीट किसी साझा उम्मीदवार को देकर शेष तीन सीट पर आप के लड़ने की इच्छा जताई। लेकिन कांग्रेस ने शुरू मंे यह कहकर गठबंधन से मना कर दिया कि इससे उसकी भविष्य में दिल्ली राज्य में सरकार बनाने की संभावना कम हो सकती है।

    इसके बाद कांग्रेस को असम में बदरूद्दीन अजमल की क्षेत्रीय पार्टी ने साथ मिलकर लड़ने का ऑफर दिया। वह मात्र अपनी तीन सिटिंग एमपी की सीट समझौते में कांग्रेस से छोड़ने की मांग कर रहे थे। लेकिन कांग्रेस ने उसे भी ठुकरा दिया। इसके बाद आंध््रा में कांग्रेस ने अपनी ही पार्टी मंे रहे पूर्व सीएम वाइएसआर के लोकप्रिय पुत्र जगन रेड्डी के साथ समझौता न करके डूबते जहाज़ तेलगू देशम के साथ गठबंधन किया। इतना ही नहीं महाराष्ट्र में कांग्रेस ने राज ठाकरे की मनसे का साथ न लेकर प्रकाश अंबेडकर की रिपब्लिकन पार्टी के बड़े दलित गठबंधन का भी हाथ झटक दिया।

   बंगाल में कांग्रेस ने कम्युनिस्टों के साथ मिलकर लड़ने का वादा तोड़ा तो केरल के वायनाड से उसने अपने मुखिया राहुल गांधी को चुनाव में उतारकर सीधे वामपंथियों के गढ़ में ही चुनौती देकर एक नया मोर्चा खोल दिया। अन्य कई राज्योें के ऐसे और भी कई उदाहरण हम दे सकते हैं। इससे यह पता चलता है कि कांग्रेस यह झूठा दावा करती है कि वह भाजपा  को सत्ता में आने से रोकने के लिये किसी भी गैर साम्प्रदायिक दल से हाथ मिला सकती है। कांग्रेस को अपनी भूल स्वार्थ और अहंकार का खामियाज़ा चुनाव नतीजे आने के बाद भुगतना होगा।

    भाजपा सरकार के खिलाफ चाहे जनता में जितनी भी नाराज़गी हो। लेकिन मोदी और शाह की जोड़ी इतनी आसानी से सरकार से विदा होने वाले नहीं है। 23 मई के बाद अगर एनडीए को अपने बल पर बहुमत नहीं मिला तो यह भी तय है कि कांग्रेस के नेतृत्व में बने यूपीए को एनडीए से भी कम सीटें मिलेंगी। इसका नतीजा यह होगा कि चुनाव बाद एक तीसरा मोर्चा उभर सकता है। जो भाजपा के साथ ही कांग्रेस से भी समान दूरी बनाकर चलेगा। इसमें खासतौर पर अखिलेश मायावती ममता बनर्जी जगन रेड्डी केसीआर और नवीन पटनायक आदि शामिल हो सकते हैं।

    ये सब मिलकर इतने एमपी अपने साथ जोड़ सकते हैं कि उनकी संख्या राहुल के यूपीए से भी अधिक हो जायेगी। उसके बाद तीसरा मोर्चा कांग्र्रेस को चुनौती देगा कि भाजपा को रोकना है तो कांग्रेस उसके नेतृत्व में सेकुलर सरकार बनवाये। यहां कांग्रेस खुद को चारों तरफ से घिरा पायेगी। ऐसे में यह भी हो सकता है कि भाजपा कांग्रेस को किसी भी तरह से सत्ता के खेल से बाहर रखने को मायावती को यूपी की तरह एक बार फिर सरकार बनाने को बाहर से समर्थन का कार्ड खेले। कांग्रेस ने चंद राज्यों में अपनी खोई ज़मीन वापस पाने के चक्कर में ऐसे समय में केंद्र की अपने करीब आ रही सत्ता को दूर कर दिया।

    जो उसकी एतिहासिक भूल साबित होगी। एक तरह से देखा जाये तो कांग्रेस इस चुनाव में भाजपा से न लड़कर अपने ही सहयोगियों समान विचारधारा वाले सेकुलर व क्षेत्रीय दलों से केवल इस स्वार्थ में लड़ रही है। जिससे वह2019 का चुनाव हार भी जाये तो 2024 में अपने बल पर सेकुलर दलों को खत्म करके खुद सत्ता में आ सके। कांग्रेस आज भी देश में फिर से टू पार्टी सिस्टम का सपना देख रही है। जबकि उसको ज़मीनी हकीकत यह नहीं पता कि वह तो भविष्य में खुद अपने बल पर सत्ता में क्या आयेगीउल्टा भाजपा भी आगे से अपने बल पर बहुमत नहीं ला पायेगी। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस आज भी विनाशकाल विपरीत बुध््िद के रास्ते पर चल रही है।                                           

0 अहबाब के सलूक़ से जब वास्ता पड़ा,

 षीषा तो मैं नहीं था मगर टूटना पड़ा।।                   

Sunday 21 April 2019

खामोश वोटर

अभूतपूर्व चुनाव: ख़ामोश वोटरचीख़ते लीडर!

0देश के इतिहास में शायद यह पहला अजीब चुनाव है जिसमें सभी दलों के लीडर जो मन चाहे चीख़ रहे हैं। लेकिन वोटर पहले चरण का चुनाव हो जाने के बाद भी अपने मन की बात बताने को तैयार नहीं है। वोटर की ख़ामोशी देश की राजनीति में आने वाले तूफ़ान का संकेत भी मानी जा सकती है। न ही यह चुनाव मोदी बनाम सब है। क्योंकि दोनों तरफ़ ही गठबंधन है।       

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   11 अपै्रल को पहले चरण का चुनाव 91सीटों पर हो चुका है। देश के इतिहास में शायद यह पहला चुनाव है जिसमें लीडर वोटर की ख़ामोशी को समझ नहीं पा रहे हैं। पहली बार न तो चुनाव में बैनर झंडियां पोस्टर फ्लैक्सी बोर्ड बिल्ले रिक्शे से चुनाव प्रचार दीवारों पर नारे नुक्कड़ सभायें घर घर जनसंपर्क हो रहा है। न ही जनता में इस बात पर कोई सार्थक चर्चा चल रही है कि वोट किसको दिया जाये और क्यों दिया जायेहालांकि बड़े बड़े दल के बड़े नेता ज़िला मुख्यालयों पर रैलियां पूर्व की भांति कर रहे हैं। लेकिन उनके पास कहने को कुछ खास नहीं है।

सबसे बड़ी विडंबना सत्ताधारी भाजपा के साथ देखी जा रही है कि उसने जिन 346 योजनाओं का पूरे पांच साल तक ढोल पीटा अब उनमें से किसी का भी वो नाम लेने को तैयार नहीं है। शायद इसकी वजह यह हो सकती है कि उसने उन स्कीमों पर दावा प्रचार और बयान ही अधिक जारी किये हैं जिससे वे ज़मीन पर नहीं उतर पाईं। ऐसे में विकास के नाम पर कैसे वोट मांगा जायेइसका नतीजा यह हुआ है कि हमारे पीएम पुलवामा बालाकोट और पाकिस्तान के आतंकवाद के नाम पर राष्ट्रवाद सुरक्षा और हिंदू अस्मिता के बहाने एक बार फिर साम्प्रदायिक कार्ड खेलकर हिंदू वोट बैंक को अपने साथ रखना चाहते हैं।

इतना ही नहीं वे अपने पांच साल का हिसाब न देकर अभी भी मुख्य विपक्ष कांग्रेस से 2014की तरह 70 साल का हिसाब मांग रहे हैं। अपनी पैदा की गयी समस्याओं के लिये भी नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराकर पीएम पद की गरिमा भी गिरा रहे हैं। चुनाव आयोग है कि गांधी जी के बंदरों की तरह न तो सत्ताधरी नेताओं को अलोकतांत्रिक और धर्म व जाति की राजनीति करने से रोक पा रहा है और न ही विपक्ष की जायज़ शिकायतों को सुन रहा है। उधर विपक्ष भी इस मामले में भाजपा से बहुत पीछे नहीं है। उनकी तरफ से भी ऐसे ऐसे बयान आ रहे हैं जिनसे शिष्टाचार चुनावी आचार संहिता और सभ्यता का पता चलता है।

लेकिन एक अंतर है कि ऐसे मामलों में चुनाव आयोग शिकायत की प्रतीक्षा न करके स्वयं संज्ञान लेकर त्वरित कार्यवाही कर रहा है। सवाल असली यह है कि जनता इतनी चुप क्यों हैहमंे लगता है कि जनता ने अपना मन पहले ही बना लिया है कि उसको किसको वोट देना हैनेता चाहे कुछ दावा करें लेकिन असली मुद्दों पर वे चर्चा करने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में जनता का धर्म जाति और क्षेत्र के आधार पर बंटवारा हो चुका है। अगर सरसरी तौर पर देखा जाये तो उच्च जातियों का वोट अधिकांश भाजपा के साथ ध्रुवीकृत हो चुका है।

उधर मुसलमान भाजपा के खिलाफ पहले से ही एक साथ रहा है। इस बार दलितों का भी भाजपा के खिलाफ मूड नज़र आ रहा है। आदिवासियों को भी भाजपा के राज से निराशा और धोखा मिला है। सारा चुनाव एक तरह से पिछड़ी जातियों के बीच सिमट कर रह गया है। इनकी तादाद सबसे अधिक मानी जाती है। ओबीसी का एक हिस्सा यह मानकर भाजपा के साथ जुड़ चुका है कि वही हिंदुओं का भला कर सकती है। दूसरी तरफ पिछड़ोें में ही एक हिस्सा ऐसा महसूस करता है कि भाजपा ने 2014 में उनका वोट तो लिया लेकिन काम अधिक अगड़ों के हित में किया।

भाजपा सरकार पर इस मामले में आरक्षण के रोस्टर में छेड़छाड़ और रिज़र्वेशन को धीरे धीरे ख़त्म करने की गुप्त साज़िश करने का पिछड़ों के एक वर्ग का आरोप रहा है। मोदी सरकार ने वास्तव में कई काम ऐसे किये भी हैं। जिनसे पिछड़ों की इस आशंका को बल मिला है। इसका नतीजा यह हुआ है कि सवर्ण दलित और मुसलमानों का वोट तय हो चुका है कि कहां जाना है। इसलिये कोई भी दल या नेता उसको अपनी ओर खींचने को बड़ा या गंभीर प्रयास नहीं कर रहा है। हालांकि यूपी के सुल्तानपुर में भाजपा प्रत्याशी मेनका गांधी ने मुसलमानों को अपने पक्ष में वोट न करने पर उनका काम न करने की धमकी ज़रूर दी है।

लेकिन मुसलमान जानते हैं कि इस बार वे जीतेंगी ही नहीं। सवाल यह भी है कि अगर मेनका जीत भी जाती हैं तो उनको उन हिंदुओं का काम भी क्यों करना चाहिये जो उनको वोट नहीं देंगेक्योंकि जीतने के बावजूद उनको100 प्रतिशत वोट तो मिलेंगे नहीं। तो क्या वोट न देने वाले मुसलमानों का काम न करके ही अपने मुस्लिम विरोधी होने का प्रमाण देंगी?सवाल तो मोदी सरकार से भी किया जाना चाहिये कि उनको पूर देश में केवल 31 प्रतिशत वोट मिले थे तो उन्होंने बाकी 69 प्रतिशत लोगों का काम क्यों कियाक्या भाजपा को वोट न देने वालों में बड़ी संख्या में हिंदू शामिल नहीं थे?

क्या लोकतंत्र में ऐसा कहीं होता है कि जो जीत गया वो केवल खुद को वोट देने वालों का प्रतिनिधि मानकर काम करेगाइसका मतलब भाजपा का नारा सबका साथ सबका विकास एक धोखा थाउसको यह भी कहना चाहिये था कि जो साथ नहीं देंगे उनको दुश्मन मानकर विकास नहीं उनका विनाश करेंगभारत के इतिहास में पहली बार हमारे पीएम से लेकर मोदी सरकार के मंत्रियों मुख्यमंत्रियों गवर्नर सांसद विधायक और नेताओं ने राजनीति को निचले स्तर तक गिरा दिया है।

यही वजह है कि सभी दलों के नेता चीख़ रहे हैं। चिल्ला रहे हैं। बौखला रहे हैं। भड़का रहे हैं। बहका रहे हैं। धमका रहे हैं। हड़का रहे हैं। ललचा रहे हैं। भटका रहे हैं। टकरा रहे हैं। लड़वा रहे हैं। लेकिन मतदाता पर कोई असर नहीं हो रहा है। जो ज़हर नेता पहले ही बो चुके हैं। उसकी नफ़रत अलगाव टकराव और हिंसा की फ़सल लहलहा रही है। घटिया वोटबैंक की सियासत करने वाले नेता एक बात याद रखें कि यह दौर तो जैसे तैसे नुकसान तबाही और बरबादी के बाद गुज़र ही जायेगा लेकिन उनको इतिहास बहुत बुरे दौर के लिये माफ नहीं करेगा। हम आशा करते हैं कि एक दिन ज़रूर आयेगा जब लोग धर्म जाति क्षेत्र और निजी स्वार्थ से उूपर उठकर तर्क तथ्य और सत्य के आधार पर वास्तविक मुद्दों पर वोट किया करेेंगे।                                       

0 उसके होंठों की तरफ़ ना देख वो क्या कहता है,

   उसके क़दमांे की तरफ़ देख वो कहां जाता है।।                   

साध्वी प्रज्ञा

साध्वी प्रज्ञा: भाजपा का बदलता चेहरा!

0भोपाल से भाजपा ने आतंक की आरोपी साध्वी प्रज्ञा को टिकट देकर अपना मुस्लिम विरोधी चेहरा एक बार फिर खुलकर दिखा दिया है। साध्वी को अपना लोकसभा प्रत्याशी बनाकर भाजपा ने यह भी साबित कर दिया है कि वह आतंक को केवल इस्लाम से जोड़कर देखती है। संतोष की बात यह है कि खुद हिंदू बड़ी संख्या में भाजपा के इस डरावने फैसले का विरोध कर रहे हैं।        

         

   कहते हैं जंग और मुहब्बत में सब कुछ जायज़ है। लेकिन आज इसमें एक तीसरी चीज़ सियासत भी जुड़ गयी है। पहले कांग्रेस पर यह आरोप लगता था कि वह चुनाव जीतने सत्ता हासिल करने और उसको बनाये रखने के लिये साम दाम दंड भेद का ढके छिपे तरीकों से इस्तेमाल करती है। लेकिन जब उसकी ये हरकतें मीडिया या न्यायपालिका तक पहुंच जाती थी तो वह आलोचना निंदा और कार्यवाही के डर से अपने ऐसे फैसलों को कई बार क़दम खींचकर वापस भी ले लेती थी। उसमें थोड़ी बहुत शर्म नैतिकता और लोकतंत्र बचा हुआ था।

   लेकिन 2014 के बाद जब से मोदी पीएम बने और तीन दशक बाद किसी एक पार्टी को अपने दम पर केंद्र में सत्ता में आने को पूर्ण बहुमत मिला। तब से सत्ताधरी दल ने नैतिकता मानवता और निष्पक्षता को पूरी तरह ताक पर रख दिया है। तमाम लोकतांत्रिक मूल्यों को पूरी बेशर्मी से चुनचुनकर ख़त्म किया जा रहा है। नियम कानून और लोकलाज की तो बात ही क्या है। हालत इतनी ख़राब है कि चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट की लताड़ का भी मोदी सरकार पर कई बार असर नज़र नहीं आता है। साध्वी प्रज्ञा पर एक नहीं कई आतंकी घटनाओं के आरोप हैं।

   उन पर कई मामलों मंे चार्जशीट भी दाखि़ल हो चुकी है। खुद सरकारी वकील यह आरोप लगाकर अपने पद से इस्तीफा दे चुकी है कि उनपर मोदी सरकार प्रज्ञा के मामले में केस की पैरवी ठीक से न करने का बेजा दबाव बना रही थी। साध्वी के खिलाफ आतंकी घटना में शामिल होने के सबूत इतने ठोस और मज़बूत हैं कि खुद एनआईए अदालत के जज इस पर नाराज़गी और दुख जता चुके हैं कि साध्वी के खिलाफ सरकार ठीक से पैरवी नहीं कर रही है। दरअसल सच यह है कि साध्वी के तार कहीं न कहीं संघ परिवार से जुड़े पाये गये थे।

   जिससे मोदी सरकार की मजबूरी हो गयी कि वह चाहे जो करे साध्वी को आतंक के इस मामले से क्लीन चिट दिलाये। हालांकि साध्वी अभी स्वास्थ्य कारणों से ज़मानत पर है। लेकिन उसको भाजपा ने भोपाल से चुनाव मंे उतारकर अपना मुस्लिम पूर्वाग्रह और मानवता विरोधी चेहरा एक बार फिर से दिखा दिया है। साध्वी ने बेशर्मी से शहीद एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे पर कीचड़ उछाली है। लेकिन बात बात पर पुलिस सेना और शहीदों की दुहाई देकर उनके नाम पर वोट मांगने वाली भाजपा साध्वी की इस संविधान विरोधी देशद्रोही और अपरााधिक हरकत पर चुप्पी साध गयी है।

    हालांकि पीएम मोदी अकसर ऐसा करते रहे हैं। लेकिन इस मामले से भाजपा ने राजनीति का पूरा नैरेटिव बदल कर रख दिया है। इस बार चुनाव में उसने बाबरी मस्जिद शहीद करने के आरोपी आडवाणी जोशी और उमा भारती को किनारे कर मुस्लिम विरोधी आतंकी हत्या की आरोपी साध्वी को अपना टिकट थमाकर यह संदेश दिया है कि वह मुस्लिम विरोधी और हिंदू साम्प्रदायिकता की सियासत में किसी सीमा तक भी जा सकती है। सोचने की बात है कि अगर कोई मुस्लिम आतंक के आरोप में पुलिस द्वारा पकड़ा जाता है तो भाजपा उसको पहले दिन से ही आतंकी बताती है।

    हालत यह है कि जब कोई बेकसूर मुस्लिम आतंक के आरोप से 10 से 20 साल बाद बरी भी हो जाता है तो भाजपा उसको आतंकी बताने से बाज़ नहीं आती । यहां तक कि उसको भाजपा की सरकारें इतने लंबे समय तक बिना अपराध जेल में रखने और उसके परिवार के तबाह और बर्बाद होने पर माफी तो दूर मुआवज़ा तक नहीं देती। एक समय था जब भाजपा कहती थी कि यह ठीक है कि सारे मुसलमान आतंकी नहीं हैं। लेकिन यह भी सच है कि जो भी आतंक के आरोप में पकड़े जाते हैं।

    वे सब मुसलमान ही होते हैं। जबकि इसकी वजह यह थी कि भाजपा सरकारें या उसकी सोच के अधिकारी मुस्लिम विरोधी होने की वजह से वाह वाह लूटने और संघ के एक सोचे समझे मिशन के तौर पर जानबूझकर अधिकांश निर्दोष मुसलमानों को आतंक के फर्जी आरोपों में जेल भेजते रहे हैं। अब भाजपा खुलेआम बेशर्मी से यह दावा कर रही है कि केवल मुसलमान ही आतंकी हो सकते हैं। उनका यह दावा भी है कि हिंदू कभी भी कहीं भी किसी हाल में आतंकी हो ही नहीं सकता। जबकि इतिहास गवाह है कि अनेक हिंदू आतंकवाद के आरोप में देश में न केवल पकड़े गये हैं।

    बल्कि कोर्ट में आरोप साबित होने पर उनको सज़ा भी दी गयी है। लिट्टे दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी संगठन रहा है। उसने हमारे पूर्व पीएम राजीव गांधी की जान भी ली थी। सिखों का खालिस्तान के लिये आतंक का लंबा दौर रहा है। माओवादी जिस तरह से आयेदिन सुरक्षा बलों पर हमले कर 78 सीआरपीएफ वालों की एक झटके में जान ले लेते हैं। उनमें भी लगभग सभी हिंदू ही शामिल हैं। पूर्व उत्तर में जहां जहां अलगाववाद और हिंसा की घटनायेें चलती रहती हैं। उनमें बड़ा हिस्सा हिंदुओं का भी शामिल रहा है। हालत तो यह है कि अगर निष्पक्ष जांच हो जाये तो संघ परिवार के भी कई लोग आतंक के आरोपों में दोषी साबित हो सकते हैं।

    इतिहास याद करें तो देश का सबसे पहला आतंकी नाथूराम गोडसे खुद संघ परिवार की विचारधारा से जुड़ा था। हालांकि गोडसे संघ के किसी पद पर नहीं था लेकिन उसने जिन कारणों से महात्मा गांधी को मारा वे कारण संघ की सोच से मेल खाते थे। हम यह नहीं दावा कर सकते कि मुस्लिम या हिंदू यानी किसी खास मज़हब के लोग ही आतंकी होते हैं। लेकिन यह भी नहीं मान सकते कि केवल मुस्लिम ही आतंकी होते हैं।                                            

0 राज़ शीशे से कभी पूछना तन्हाई में,

  कितना नुकसान है पत्थर से शनासाई में।।                   

Tuesday 9 April 2019

गुरुग्राम और घोटकी

गुरूग्राम-घोटकीः रोग की जड़ पहचानिये!

0होली पर हरियाणा के गुरूग्राम में एक मुस्लिम परिवार पर कुछ बहुसंख्यकों ने हमला किया। उध्र होली की पूर्व संध््या पर पाकिस्तान के सिंध् प्रांत के घोटकी क्षेत्रा में दो नाबालिग हिंदू लड़कियों का वहां के चार बहुसंख्यकों ने अपहरण कर उनको जबरन मुसलमान बनाकर उनसे निकाह कर लिया। दोनों ही घटनाओं पर कापफी हंगामा मचा लेकिन बाद में सरकारों ने लीपापोती कर अगली घटना होने तक मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया।       

       

   गुरूग्राम में होली के दिन कुछ मुस्लिम बच्चे अपने घर के पास के मैदान में क्रिकेट खेल रहे थे। तभी वहां से कुछ हिंदू युवक गुज़रे और उन बच्चो से कहा कि क्रिकेट खेलना है तो पाकिस्तान जाओ। दोनों पक्षों में कुछ नोकझोंक हुयी और बीचबचाव कराने आये मुस्लिम बच्चो के परिवार के मुखिया को होली खेल रहे युवकों ने पीट दिया। इसके बाद मुस्लिम बच्चे अपने घर चले गये। हिंदू युवकों का गुस्सा इतने से भी शांत नहीं हुआ। वे थोड़ी देर बाद ही लगभग दो दर्जन लड़कों को हॉकी लोहे की रॉड और लाठियों से लैस करके मुस्लिम परिवार के घर में घुसे और परिवार के मुखिया को चारों तरपफ से घेरकर जमकर पीटा।

पीड़ित को बचाने जब परिवार के अन्य सदस्य यहां तक कि महिलायें आगे आईं तो उनको भी पीटा गया। हद तो तब हो गयी जब डरकर पलंग के नीचे छिप गये चार साल के छोटे बच्चे को रोने की आवाज़ सुनकर तलाश कर पीटा गया। इतना ही नहीं हमलावरों के सर पर नपफ़रत और हिंसा का ऐसा भूत सवार था कि उन्होंने एक साल के गोद के बच्चे को भी एक महिला की गोद से छीनकर पटख़ दिया। महिलाओं को गंदी गालियां दीं और घर में तोड़पफोड़ के साथ ही जेवर और नकदी भी लूट ली गयी। हालांकि बाद में इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने से सरकार ने मजबूरन रिपोर्ट दर्ज कर एक आरोपी को पकड़कर जेल भेज दिया।

    लेकिन सबसे अपफसोस की बात यह रही कि संघ भाजपा और सरकार के किसी मंत्राी सांसद या विधयक ने इस घटना की निंदा तक नहीं की। यहां तक कि छोटी छोटी बातों पर ट्वीट करने वाले हमारे प्रधन सेवक और अमीरों के चौकीदार पीएम मोदी जी ने भी इस दुखद घटना पर एक शब्द नहीं बोला। उध्र पाकिस्तान में होली से एक दिन पहले जिन दो हिंदू नाबालिग बहनों का अपहरण करके उनसे जबरन र्ध्मपरिवर्तन कराकर निकाह किया गया। उनके मामले में वहां की पुलिस ने तब तक रपट तक दर्ज नहीं की। जब तक कि हमारी विदेश मंत्राी ने इस मामले को ट्विटर पर उठाकर पाक स्थित भारतीय दूतावास से इस मामले की रपट तलब नहीं की।

हालांकि इस सारे वाद विवाद में ट्विटर पर ही उनकी पाक के सूचना मंत्राी चौध्री पफवाद हुसैन से नोकझोंक भी हुयी। चौध्री का दावा था कि यह उनका अंदरूनी मामला है। लेकिन वे भूल गये कि कश्मीर भारत का भी अंदरूनी मामला है। जिसमें पाक 70 साल से टांग अड़ा रहा है। यह हालत तब है जबकि पाक की टांग भारत चार बार तोड़ भी चुका है। इसके साथ ही चौध्री ने सुषमा स्वराज पर यह कहकर भी व्यंग्य कसा कि यह मोदी का भारत नहीं है। जहां आपकी पार्टी मुसलमान विरोध्ी सियासत पर जिं़दा है। हालांकि यह बात किसी हद तक ठीक भी है।

लेकिन सच यह भी है कि पाक में अल्पसंख्यक हिंदुओं की हालत भारत के मुसलमानों से कई गुना बदतर है। उनकी आबादी भी इसीलिये दिन ब दिन कम होती जा रही है। भारत में मुसलमानों का अपहरण और उनका र्ध्म परिवर्तन व मुस्लिम लड़कियों को हिंदू बनाकर जबरन शादी कर लेने का एक मामला भी 36 साल की पत्राकारिता में हमारे सामने नहीं आया। अगर समस्या को गहराई से देखा जाये तो भारत पाक ही नहीं दुनिया और खासतौर पर एशिया के अध्किांश मुल्कों में अल्पसंख्यकों के साथ चाहे उनका र्ध्म कुछ भी होलगातार पक्षपात हमले और अन्याय के मामले अकसर सामने आते रहे हैं।

इसका मतलब यह है कि जो जहां कमजोर और असहाय है। उसको सताया और मारा ही जाता है। हमें ये सोच बदलनी होगी कि अगर हम शक्तिशाली हैंकिसी देश में बहुसंख्यक हैंया हम सत्ता में हैं। तो कमज़ोर गरीब और अल्पसंख्यक के साथ कुछ भी करने का हमें लाइसेंस मिल जाता है। कम से कम हमारी भारतीय सभ्यता और संस्कृति और मुसलमानों का इस्लाम तो इसकी बिल्कुल इजाज़त ही नहीं देता है। हम सबको मानवीय निष्पक्ष और सेकुलर होकर गुरूग्राम और घोटकी की घटना को देखना चाहिये। दरअसल ये दोनों घटनायें रोग नहीं हैं।

रोग का लक्ष्ण मात्रा हैं। हमें असली रोग की जड़ में जाकर उसकी वजह को पहचानना होगा। नहीं तो कुछ दिन बाद हमारे सामने नया गुरूग्राम और घोटकी का हादसा होगा। एक बार पिफर हम नयी घटना होने तक सरकार पुलिस और कोर्ट से न्याय की उम्मीद कर रहे होंगे जबकि इसकी जड़ें हमारे अंदर नपफरत अन्याय स्वार्थ और पक्षपात के रूप पफलपफूल रही हैं। ज़ाहिर है आज नहीं तो कल इसका इलाज जड़ से करना होगा। नहीं तो दोनों पक्ष घटनाओं की गिनती ही गिनते रहेंगे।                                         

0 उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिपफ़,

 हमें यक़ीन था हमारा क़सूर निकलेगा।।