Friday 19 December 2014

मोदी नहीं विकास की जीत

विकास के एजेंडे पर हुयी मोदी की जीत का स्वागत करता हूं

इक़बाल हिंदुस्तानी May 23, 2014परिचर्चा 3 Comments

-इक़बाल हिंदुस्तानी-

-चुनाव अनुमान गलत होने का मतलब सोच गलत होना नहीं है!-

चुनाव नतीजे आने से पहले मैंने अपने आकलन के आधार पर एक लेख लिखा था जिसमें मेरा अनुमान था कि शायद बंगाल और तमिलनाडु की तरह यूपी और बिहार में भी क्षेत्रीय दल एनडीए और विशेष रूप से भाजपा की सीटें एक सीमा से आगे बढ़ने से रोक सकते हैं। इसी आकलन के हिसाब से मैंने यह आशंका जताई थी कि शायद मोदी के विकास के एजेंडे पर जातिवाद, अल्पसंख्यकवाद और क्षेत्रीयता भारी पड़ सकती है जिससे भाजपा सबसे बड़ा दल और राजग सबसे आगे रहने के बावजूद सरकार बनाने के लिये ज़रूरी आंकड़ा ना जुटा पाये। मेरे इस लेख पर आर सिंह जैसे सुलझे हुए कई लेखकों ने बहुत सकारात्मक टिप्पणी की है वहीं एक दो लोगों ने सीधे अपने संस्कार दिखाते हुए अपशब्दों का सहारा लिया है। कुछ लोगों ने मुझे फोन करके भी अपनी नाराज़गी दर्ज की है।

मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि मेरा आकलन गलत साबित हुआ है लेकिन मेरी सोच गलत नहीं है और इसके लिये आप मुझे गाली भी देते हैं तो भी मैं लिखना बंद नहीं कर सकता। रहा मोदी की जीत का सवाल तो मैं यह भी साफ कर दूं कि अगर यह जीत विकास के एजेंडे पर हुयी है तो मैं इसका स्वागत करता हूं, क्योंकि इस समय देश के सामने एनडीए के अलावा कोई सशक्त विकल्प मौजूद नहीं था। जहां तक मेरी इस सोच का सवाल है कि भाजपा हिंदू साम्प्रदायिकता की राजनीति करती रही है लेकिन इस बार मोदी ने चुनाव का एजेंडा काफी सीमा तक सबका साथ-सबका विकास बना दिया, मैं उस पर अभी भी कायम हूं। किसी व्यक्ति, दल या गठबंधन का अंधसमर्थन या विरोध तो कोई पेड वर्कर ही कर सकता है कोई भी निष्पक्ष लेखक वही लिखेगा जो उसको ठीक लगेगा और मैंने यही किया है जिसका मुझे कोई अफसोस नहीं है।

जो लोग चुनाव नतीजे आने से पहले ही मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की धमकी दे रहे थे, अगर वे मोदी सरकार बनने के बाद और बेलगाम और बदज़बान हो जाते हैं या तो कोई हैरत की बात नहीं है, क्योंकि इसीलिये ऐसे लोगों को फासिस्ट कहा जाता है। ऐसी हिंसक सोच के अतिवादी तत्व वामपंथी और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के नाम पर भी अपनी अवैध गतिविधियां चलाते रहे हैं। भाजपा को स्पश्ट बहुमत मिलने के बावजूद यह जान लेना ज़रूरी है कि देश में पड़े कुल मतों का उसे अभी भी 31 प्रतिशत मिला है। अगर उसके घटकों को पड़े 8 प्रतिशत मत भी मोदी के खाते में जोड़ लिये जायें तो भी मतदान करने वाले 61 प्रतिशत मतदाता उसके पक्ष में नहीं रहा है तो क्या इन सबको देश से निकाल दिया जाये? सच्चा कलमकार भांड या किराये का टट्टू नहीं हो सकता, उसको वह लिखना होता है, जो सच होता है और सच कभी किसी के पक्ष में होता है, कभी उसी के खिलाफ भी होता है।

मेरा मानना है कि मानववादी, देशभक्त और समाज के व्यापक हित में लिखने वाले लेखक को निर्भय और गुटनिरपेक्ष होना चाहिये जिससे वह मुद्दों के आधार पर अपने तटस्थ दृष्टिकोण से काले को काला और सफेद को सफेद कह सके। मेरे पहले लिखे गये लेखों में इस बात को उजागर किया गया है कि मुसलमानों को वोट बैंक बनाकर रखने वालों ने दरअसल हिंदू जातिवाद और मुस्लिम साम्प्रदायिकता का मिश्रण बना दिया है जो भ्रष्टाचार महंगाई और घोटालों के साथ विकासहीनता से लंबे समय तक चलने वाला नहीं है। सेकुलरिज़्म के नाम पर किसी सरकार का हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक दिखने का आज नहीं तो कल यही नतीजा होना था। मैं अपने स्वभाव के हिसाब से बिना किसी दबाव के लिखता हूं और इसके लिये आप कोई भी आरोप लगाये, मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

मैं मोदी या भाजपा का अंधसमर्थन करके राष्ट्रवादी या असली देशभक्त होने का प्रमाण पत्र भी किसी से लेना नहीं चाहता। यह मेरी संविधान से मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है जिसके तहत मुझे जो ठीक लगता है, मैं बिना किसी लालच और डर के वही लिखता हूं, इससे कई बार मुस्लिम कट्टरपंथी भी बुरी तरह ख़फ़ा होकर धमकियां देते रहे हैं लेकिन मुझे निष्पक्षता और ईमानदारी से लिखने के लिये सत्य और तथ्य ही काफी हैं। मेरे नाम को देखकर मुझपर अनर्गल टिप्पणी करना मेरी नहीं टिप्पणी करने वाले की साम्प्रदायिकता और संकीर्णता का पता चलता है। जहां तक आकलन की बात है तो 2004 में टीवी चैनलों के सर्वे में एनडीए को 248 से 284 सीट दी गयीं थीं जबकि उनको 189 ही मिलीं थीं। उधर कांग्रेस को 164 से 190 दी गयीं थीं लेकिन उसको 222 सीट मिलीं थीं।

इतना ही नहीं, एक बार फिर 2009 में एक्ज़िट पोल में एनडीए को 175 से 197 सीटें दी गयीं, लेकिन उसको इस बार भी 116 जबकि कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए को दी गयी 191 से 198 की जगह 262 सीटें मिलीं थीं। क्या इसका मतलब यह निकाला जाये कि हमारा इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों बार भाजपा की तरफ झुका हुआ था और कांग्रेस से दुर्भावना रखकर उसकी सीटें जान-बूझकर कम दिखा रहा था? अगर दो बार ऐसा हो सकता है तो तीसरी बार इस आशंका को कैसे नकारा जा सकता है कि इस बार ऐसा नहीं होगा? अगर देश के स्तर पर चुनाव सर्वे दो दो बार गलत हो सकता है तो मेरा एक लेखक के रूप में आकलन या अनुमान गलत क्यों नहीं हो सकता? जहां तक मेरी सोच का सवाल है तो उसको पहले लिखे गये लेखों में देखा जा सकता है।

20 अप्रैल को ‘मुस्लिम वोटों का बंटवारा लोकतंत्र के लिये अच्छा संकेत’ 15 अपै्रल को ‘मोदी लहर को भाजपा की बताने का मतलब?’ 7 अप्रैल को बुखारी से ज्यादा सियासत तो आम मुसलमान समझता है।’ 30 मार्च को ‘इमरान मसूदः मुसलमानों का दुश्मन और मोदी का दोस्त’ 11 मार्च को ‘मोदी ने चुनाव का एजेंडा विकास तो तय कर ही दिया है’ 17 फरवरी को ‘दिल्ली में बनेगी अब भाजपा की सरकार’ 15 फरवरी को ‘मुसलमानों के वोट भी ले सकती है भाजपा’ 12 जनवरी को ‘कांग्रेस चाहे जो कर ले, भाजपा की बढ़त को नहीं रोक सकती’ 6 जनवरी को ‘मनमोहन जी आपने 10 साल में देश को पूरी तरह तबाह कर दिया है’ 28 दिसंबर को ‘केजरीवाल ने कांग्रेस की क़ब्र खोद दी है अब दफ़नाना बाकी है।’

12 दिसंबर को प्रवक्ता के संपादक भाई संजीव सिन्हा का नाम मतदाता सूची से भाजपा समर्थक मानकर काट देने पर ‘संभावित विरोध से मताधिकार छीनना लोकतंत्र की हत्या’ 17 नवंबर को ‘कांग्रेस के ना चाहते हुए भी राहुल पर भारी पड़ रहे हैं मोदी’ 16 सितंबर को दंगे तो साम्प्रदायिकता नाम के रोग का लक्ष्ण मात्र हैं’ 17 जुलाई को ‘सेकुलर दलों की अल्पसंख्यक राजनीति भाजपा का खाद पानी’ और 16 मई को ‘बर्क को वंदे मातरम से परहेज़ है तो सांसदी छोड़ें’ लेख में दो टूक लिखा था कि अगर किसी कट्टरपंथी मुसलमान को अपना धर्म इतना ही प्यारा है तो उसको चाहिये कि वह वंदे मातरम से स्थायी रूप से बचने के लिये अपनी सांसदी से त्यागपत्र दे और अपने घर बैठकर अपने मज़हब का ईमानदारी से निर्वाह करे। भविष्य में भी मुझे जो प्रमाण, आंकड़ों, तथ्य और सत्य के हिसाब से ठीक लगेगा मैं वही लिखूंगा चाहे इसका कोई कुछ भी मतलब निकाले मैं इसकी परवाह नहीं करता हूं।
क़ीमत अदा करोगे तो लिख देंगे क़सीदे,
ये लोग व्यापारी हैं फ़नकार मत समझ।।

Photo- love jehad

Thursday 11 December 2014

आर टी आई का हश्र

अकेले मोदी जी के चाहने से क्या क्या बदल सकता है?
        -इक़बाल हिंदुस्तानी
0भाजपा के और नेता व सरकारी मशीनरी उसी ढर्रे पर चल रहे है!
   पीएम नरेंद्र मोदी एक गठबंधन सरकार के मुखिया हैं। यह ठीक है कि उनकी पार्टी भाजपा को अपने बल पर भी बहुमत प्राप्त है लेकिन यह भी सच है कि यह बहुमत दिलाने में गठबंधन दलों का भी योगदान रहा है। यही वजह है कि अभी तक किसी खास मुद्दे पर भाजपा और घटक दलों में आरपार की खींचतान नहीं हुयी है लेकिन सवाल यह है कि हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है जिसमें पीएम चाहे कितना ही शक्तिशाली और योग्य हो वह अकेले पूरी व्यवस्था को न तो बदल सकता है और न ही चला सकता है। यह मानना ही पड़ेगा कि मोदी 30 साल बाद किसी बहुमत प्राप्त पार्टी के पीएम बने हैं। चुनाव से पहले गुजरात के विकास मॉडल की मीडिया में बहुत चर्चा रही थी जिससे उनको विकास के लिये लोगों ने इतना भारी सपोर्ट दिया है।
    कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार से जीडीपी दर लगातार गिरने और महंगाई बढ़ने से लोगों का मोहभंग हो चला था साथ ही आरटीआई के ज़रिये एक के बाद एक घोटाले जब सामने आये तो यह लगने लगा था कि मनमोहन सरकार का भष्टाचार पर अपने बेलगाम घटक दलों की वजह से नहीं बल्कि खुद कांग्रेसियों की मनमानी के चलते कोई नियंत्रण नहीं है। इस बात का ख़याल मोदी को भी है इसीलिये उन्होंने अपनी सरकार को कुछ मामलों में बिल्कुल अलग तरीके से चलाने का फैसला किया है। यह मोदी की ही जीतोड़ कोशिशों का नतीजा है कि डब्ल्यू टी ओ में भारत की खाद्य सुरक्षा नीति को अमेरिका सपोर्ट देने को मजबूर हुआ जिससे हमारे देश के 85 करोड़ लोगों को लाभ मिलेगा। भारत का कहना रहा है कि उसकी बड़ी आबादी गरीब है जिसको खाद्यान सुरक्षा मिलना बेहद ज़रूरी है।
   पाकिस्तान के मामले में भी मोदी के नेतृत्व में बनी राजग सरकार ने जैसे को तैसा की मुंहतोड़ जवाबी नीति बनाकर उसकी सर्दियों से पहले फायर कवर देकर सीमा पर आतंकवादियों की भारत में घुसपैठ लगभग नाकाम कर दी है। पड़ौसी देशों चीन, श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार और भूटान तक से आपसी रिश्ते यूपीए सरकार के मुकाबले एनडीए सरकार मज़बूत करने की लगातार कोशिश कर रही है लेकिन जहां तक देश के अंदर के हालात है वे कुछ खास बदलते नज़र नहीं आ रहे हैैं। विदेशी मीडिया ने तो मोदी सरकार के 6 माह पूरे होने से पहले ही यह कहना भी शुरू कर दिया है कि मोदी सरकार विदेशी निवेश के लिये जो कुछ कह रही है उसका असर ज़मीन पर अभी कुछ खास दिखाई नहीं दे रहा है। इसकी वजह भी समझ में आती है कि अकेले मोदी के चाहने या ऐलान करने से हमारे देश की लेटलतीफ और भ्रष्ट व्यवस्था रातोरात बदलने वाली नहीं है।
   इस भ्रष्ट सिस्टम को भ्रष्ट बनाये रखने में ना सिर्फ नेताओं बल्कि अफसरशाही का भी निहित स्वार्थ छिपा है। मिसाल के तौर पर यूपीए सरकार के ज़माने में जनहित का एक कानून आया था-सूचना का अधिकार यानी आरटीआई। आप माने या ना मानें आरटीआई ने कई बड़े घोटालों को बेनकाब किया। इसका नतीजा यह हुआ कि घोटाले बाज़ इस कानून को ख़त्म करने या कमजोर करने में लग गये। आज हालत यह है कि मोदी की तमाम कोशिशों और पारदर्शिता की घोषणाओं के बावजूद अगस्त 2014 से सूचना का अधिकार आयोग का कोई अध्यक्ष ही नहीं है। इतना ही नहीं महाराष्ट्र में प्रेसीडेंट रूल के दौरान जब विधनसभा चुनाव हो रहे थे वहां के राज्यपाल ने एक आदेश जारी कर दिया कि सरकारी मशीनरी सूचना देने से पहले यह जांच करे कि सूचना का इस्तेमाल जनहित में ही होगा।
   आरटीआई कानून ऐसी कोई शर्त नहीं लगाता। ऐसा दावा नहीं किया जा सकता कि यूपीए सरकार आम आदमी और गरीबों के हित सबसे उूपर रख कर शासन चला रही थी क्योंकि उनका एजेंडा भी ट्रिंकल डाउन यानी विकास के फायदों के रिसकर सभी वर्गों तक पहुंचने का था। इसके लिये उनका एकमात्र लक्ष्य जीडीपी दर को लगातार बढ़ाने का प्रयास करना था। देश के धनी वर्ग को यूपीए सरकार से यह शिकायत रही है कि वह सरकारी धन राइट्स बेस्ट एप्रोच के ज़रिये गरीबों पर बेवजह और फालतू लुटाकर उनको निकम्मा बना रहा है। इसका सबूत वे मनरेगा से मज़दूरों का बिहार और बंगाल जैसे गरीब राज्यों से पलायन रूकने और उनका मजबूरन मेहनताना बढ़ाने को मानता था। मीडिया के ज़रिये मध्यवर्ग के सहयोग से इस सोच के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया गया।
   खासतौर पर कांग्रेस को भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ निशाने पर लेने के लिये इस तरह की गरीब समर्थक योजनाओं को चलाने का कसूरवार ठहराया गया था जिससे इसके केंद्र और राज्यों में बनी भाजपा नीत सरकारों पर इस बात का दबाव होना स्वाभाविक है कि वह यूपीए सरकार इन आम आदमी समर्थक नीतियों को पलटे। हालांकि यह इतना आसान नहीं है क्योेंकि आम और गरीब आदमी की तादाद हमारे देश में इतनी अधिक है कि कोई भी सरकार उनको ख़फा करके जीतना तो दूर चल भी नहीं सकती। राजस्थान की भाजपा सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून के किसान समर्थक प्रावधानों को पलटने का काम शुरू कर दिया है। केंद्र के बाद सबसे पहले वसुंधरा सरकार ने ही श्रम कानूनों को मज़दूरों की बजाये उद्योगपतियों के पक्ष में मोड़ने का काम अंजाम दिया है।  सरकारी अस्पतालों में प्रफी दवा का काम रोक दिया गया है।
    मनरेगा को केंद्र ने 200 ज़िलों तक सीमित करके इसका बजट कम कर दिया है। पर्यावरण सम्बंधी प्रावधनों पर इसके बाद भी ढील दी जा रही है कि केदारनाथ और कश्मीर की आपदा इसी नालायकी की वजह से आई थी। खाद्य सुरक्षा कानून हालांकि अभी तक लागू नहीं हो पा रहा है लेकिन इसी सोच का नतीजा रहा है कि भूख सूचकांक में भारत ने सात अंकों की छलांग लगाई है। आरटीई यानी शिक्षा का अधिकार कानून का परिणाम है कि प्राथमिक शिक्षा में प्रवेश का आंकड़ा 95 प्रतिशत तक जा पहुंचा है। मोदी सरकार का सारा जोर विदेशी निवेश बढ़ाने और उद्योग व्यापार के लिये खुला मैदान बनाने का है लेकिन वह यह भूल रही है कि पेट्रोल डीजल को वह खुले बाज़ार के सहारे पहले ही छोड़ चुकी है और इंटरनेशनल मार्केट में इनके रेट घटने पर वह यूपीए सरकार की तरह अब इन पर एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाकर अपनी टैक्स वसूली बढ़ा रही है।
    साथ ही रसोई गैस के सिलेंडर 12 से घटाकर 9 करने के साथ ही वह उसकी सब्सिडी 20 रू0 किलो यानी 284 रू0 प्रति सिलेंडर फिक्स करने जा रही है। डीज़ल की तरह अप्रैल से गैस पर हर माह सब्सिडी कम करके वह उसको बाज़ार रेट पर बेचना चाहती है। ये कुछ ऐसी बातें हैं जिनसे मोदी सरकार से आम जनता का मोहभंग हो सकता है।  
0तुम आसमां की बुलंदी से जल्द लौट आना]
मुझे ज़मीं के मसाइल पर बात करनी है ।।

























Wednesday 14 May 2014

Media & money

मोदी मीडिया और मनी भी नहीं दिला पायेंगे भाजपा को बहुमत?
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0विकास के एजेंडे पर सांप्रदायिकता, जातिवाद व क्षेत्रीयता भारी!
    300 से ज्यादा सीटें जीतेंगे- पहला दावा। मिशन 272 पूरा होने जा रहा है-दूसरा दावा। बहुमत मिले या ना मिले सबसे बड़ा दल भाजपा ही होगी- तीसरा दावा। और अब तो हद ही हो गयी जब मोदी के सबसे बड़े सिपहसालार अमित शाह ने कहा कि हमें किसी से भी सपोर्ट लेकर सरकार बनाने में किसी दल से परहेज़ नहीं है। इससे पहले मोदी एक साक्षात्कार में कह चुके हैं कि हम राजनीतिक छुआछूत में विश्वास नहीं करते। कमाल है एक तरफ नीतीश कुमार और नवीन पटनायक जैसे क्षेत्रीय नेता मोदी के नाम पर पहले से ही परहेज़ कर रहे हैं दूसरी तरफ शाह का यह बयान आते ही ममता बनर्जी और मायावती को अपने समर्थकों को यह सफाई देनी पड़ती है कि वे किसी कीमत पर दंगे के आरोपी मोदी को सरकार बनाने में मदद नहीं करेंगी।
   तीसरी तरफ यूपीए एनडीए और तीसरा मोर्चा की कहानी को शॉर्ट करते हुए कांग्रेस मोदी को रोकने के लिये कुछ भी करने से परहेज़ नहीं करने की एक सूत्रीय रण्नीति पर चल रही है जिससे लड़ाई मोदी बनाम सारा विपक्ष हो चुकी है, ऐसे में भाजपा का यह दावा कितना हास्यस्पद और आत्मश्लाघा का लगता है कि हमें कोई समर्थन देगा तो हम ले लेंगे। अरे भाई आपको बिना मांगे समर्थन कोई क्या देगा आपको तो अपनी शर्तों पर भी कोई सपोर्ट देने को तैयार नहीं है। वैसे भी एक अंग्रेजी की मिसाल है- बैगर कैन नॉट भी चूज़र। चुनाव के अंतिम चरण तक भाजपा को यह बात दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ नज़र आ  रही है कि एनडीए को 200 से 225 तक ही सीटें मिलने जा रही हैं। ऐसे में मोदी के नाम पर अन्य क्षेत्रीय दलों को सपोर्ट के लिये राज़ी करना मुश्किल ही नहीं असंभव हो सकता है।
    अगर किसी चमत्कार से भाजपा गठबंधन को ढाई सौ तक सीटें मिल जायें तो ही बाकी एमपी जुटाये जा सकते हैं। यह ठीक है कि  भाजपा के पीएम पद के प्रत्याशी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र भाई मोदी से कोई सहमत हो या असहमत, प्रेम करे या घृणा और समर्थन करे या विरोध लेकिन उनके 2014 के चुनाव को विकास के एजेंडे पर लाकर सत्ताधारी यूपीए गठबंधन के लिये बड़ी चुनौती बन जाने को अब कांग्रेस और सपा के नेता भी स्वीकार करने को मजबूर हो रहे हैं। यह बहस का विषय हो सकता है कि गुजरात पहले से ही और राज्यों के मुकाबले विकसित था या मोदी के शासनकाल में ही उसने विकसित राज्य का दर्जा हासिल किया है लेकिन इस सच से मोदी के विरोधी भी इन्कार नहीं कर सकते कि आज मोदी को भाजपा ने अगर पीएम पद का प्रत्याशी प्रोजेक्ट किया है तो इसके पीछे उनकी कट्टर हिंदूवादी छवि कम उनका विकासपुरूषवाला चेहरा ज्यादा उजागर किया जा रहा है।
   इतना ही नहीं मोदी भाजपा का परंपरागत एजेंडा राम मंदिर, समान आचार संहिता और कश्मीर की धारा 370 हटाने का मुद्दा पहले कहीं भी नहीं उठा रहे थे लेकिन असम और बनारस में जिस तरह से मोदी ने यू टर्न लेकर अपना पुराना हिंदूवादी चेहरा  अचानक चमकाना शुरू किया उससे लगा कि विकास का एजेंडा जब जातिवादी और क्षेत्रवादी शक्तियों के स्पीड ब्रेकर से झटका खाने लगा तो भाजपा को भी अपना पुराना आज़माया हुआ सांप्रदायिक कार्ड खेलना चाहिये।
   इससे पहले भाजपा नेता गिरिराज मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने और विहिप नेता प्रवीण तोगड़िया मुस्लिमों को हिंदू बस्तियों से खदेड़ने का अपना छिपा एजेंडा पहले ही रह रहकर झलक दिखा रहे थे जिस पर मोदी ने उनको एक सोची समझी रण्नीति के तहत वाजपेयी उदार और आडवाणी कट्टर वाली छवि की तरह दोस्ताना झिड़की दी थी कि मेरे समर्थक प्लीज़ ऐसी बातें ना करें जिससे मिशन को नुकसान हो लेकिन जब उन्होंने संघ परिवार के गुप्त सर्वे में यह पाया कि विकास के नाम पर सरकार बनाने लायक सीटें जीतना टेढ़ी खीर होगी तो वे कारपोरेट सैक्टर की क्रोनी मनी और पेड न्यूज़ के ट्रेडर पत्रकारों के मीडिया के बाद अपने हिंदूवादी एजेंडे का सहारा लेने को खुलकर मैदान मंे आ गये लेकिन तब तक देर चुकी थी और लगता यह है कि अव्वल तो भाजपा की सीट 200 से ज्यादा नहीं आ रही और उसके नाम के दो दर्जन घटकों को छोड़ दिया जाये तो शिवसेना, तेलगूदेशम, अकाली दल और लोजपा मिलकर भी दो दर्जन सीटों का आंकड़ा पार कर पायें तो बहुत होगा।
    इस तरह हमारा पहले की तरह अनुमान यही है कि एनडीए की गाड़ी 225 सीट के आसपास मोदी के नाम पर आ कर अटक सकती है। एक तथ्य और सत्य यह भी है कि मोदी को यूपीए की नालायकी, भ्रष्टाचार और महंगाई का अधिक लाभ मिल रहा है। मोदी, भाजपा और संघ इस नतीजे पर शायद पहंुच चुके हैं कि भाजपा को अगर सत्ता में आना है तो हिंदूवादी एजेंडा छोड़ा भले ही ना जाये लेकिन उस पर ज़ोर देने से शांतिपसंद और सेकुलर सोच का हिंदू ही उनके समर्थन में आने को तैयार नहीं होता। इसलिये बहुत सोच समझकर यह रण्नीति बनाई गयी थी कि चुनाव भ्रष्टाचार के खिलाफ और सबका साथ सबका विकास मुद्दे पर लड़ा जाये तो ज्यादा मत और अधिक समर्थन जुटाया जा सकता है।
    सेकुलर माने जाने वाले नेता चाहे जितने दावे करंे लेकिन मैं यह बात मानने को तैयार नहीं हूं कि गुजरात में मोदी केवल 2002 के दंगों और साम्प्रदायिकता की वजह से लगातार जीत रहे हैं। देश की जनता भ्र्रष्टाचार से भी तंग आ चुकी है वह हर कीमत पर इससे छुटकारा चाहती है, यही वजह है कि केजरीवाल की जुम्मा जुम्मा आठ दिन की आम आदमी पार्टी से उसे भाजपा से ज्यादा उम्मीद नज़र आई तो उसने दिल्ली में आप को सर आंखों पर लेने में देर नहीं लगाई। आज भी केजरीवाल की नीयत पर उसे शक नहीं है भले ही वह उसकी काम करने की शैली और कुछ नीतियों से सहमत नहीं हो। दरअसल मोदी भाजपा की कमज़ोरी और ताकत दोनों ही बन चुके है। इस समय हैसियत में वह पार्टी में सबसे प्रभावशाली नेता माने जाते हैं।
    उन्हें चुनौती देने वाला कोई दूसरा विकासपुरूषनहीं है। ऐसा माना जा रहा है कि अगर भाजपा 200 तक लोकसभा सीटें भी जीत जाती है तो चुनाव के बाद मोदी की जगह किसी और उदार भाजपा नेता को पीएम बनाने के प्रस्ताव पर जयललिता, नवीन पटनायक, ममता बनर्जी और मायावती को राजग के साथ आने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी। इन सबके आने के अपने अपने क्षेत्रीय समीकरण और विशेष राजनीतिक कारण है। कोई भाजपा या विकास का प्रेमी होने के कारण नहीं आयेगा। इन सबके साथ एक कारण सामान्य है कि कांग्रेस के बजाये भाजपा के साथ काम करना इनको सहज और लाभ का सौदा लगता है लेकिन ममता और माया इस बार जो भाषा बोल रही हैं उससे हालात बदले हुए भी लग रहे हैं।
0 मेरे बच्चे तुम्हारे लफ्ज़ को रोटी समझते हैं,

 ज़रा तक़रीर कर दीजे कि इनका पेट भर जाये।

अभिवक्ति

प्रवक्ता व संजय द्विवेदी ने सच अभिव्यक्ति कर जुर्म नहीं किया!
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 कांग्रेस चुनाव में अपनी तय हार सामने देखकर बौखला रही है ?
    संजय द्विवेदी मीडिया की दुनिया का एक ऐसा जाना पहचाना नाम है जो कोई नौसीखिया पत्रकार नहीं है बल्कि वह जानकारी का ख़ज़ाना होने की बदौलत दैनिक भास्कर नवभारत हरिभूमि और ज़ी नीव्ज़ में संपादक समाचार संपादक और एंकर जैसे अहम पदों पर रह चुके हैं। उन्होंने कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह के अभिनंदन ग्रंथ का संपादन किया है। साथ ही राहुल गांधी, अन्ना हज़ारे और अरविंद केजरीवाल की समय समय पर अपनी लेखनी से सकारात्मक बातों की खुलकर तारीफ करने में कभी कंजूसी नहीं की है।
    साथ ही जिस भाजपा और संघ परिवार का आज उनको अंधसमर्थक बताया जा रहा है उसकी कमियों और नाकामियों पर उन्होंने टिप्पणी और विश्लेषण करने में ज़रूरत होने पर पक्षपात भी नहीं किया है। ऐसे ही जिस प्रवक्ता डॉटकॉम पर उनको लिखने पर प्रवक्ता की निष्पक्षता पर उंगली उठाई जा रही है उसने सभी विचारधारा के लेखकों को अपनी बात ना केवल कहने का पूरा अवसर दिया है बल्कि अपने तीन साल पूरे होने पर मुझ जैसे उन कलमकारों को भी सम्मानित किया है जिनके विचार संघ परिवार और भाजपा के खिलाफ अकसर रहते हैं।
   प्रवक्ता का नारा है कि जो लोग अपने स्वभाव और बिना किसी के प्रभाव के लिखते हैं उनको यह अभिव्यक्ति की आज़ादी हमारे संविधान ने दी है। प्रवक्ता इस नारे को केवल उच्चारित ही नहीं करता बल्कि पूरी वास्तविकता और सच्चाई के साथ इस बात को अंगीकार भी करता है जिसका सबूत प्रवक्ता पर लगे सभी तरह के लेखकों और उनके विभिन्न प्रकार के विचारोें को उनके नाम के फोल्डर को खोलकर कभी भी देखा जा सकता है। रहा विचारधारा विशेष के पक्ष में झुकाव तो ऐसा कौन सा पोर्टल चैनल और समाचार पत्र समूह है जिसका किसी की तरफ झुकाव या लगाव ना हो।
   सबको अपनी बात कहने का बराबर मौका देने के बावजूद अगर कोई पोर्टल या समूह अपनी पसंद की विचारधारा को प्राथमिकता के आधार पर प्रकाशित करता है तो इसमें कौन सा आसमान फट पड़ता है। हां आपत्ति तब ज़रूर हो सकती थी जब केवल एक ही विचार के लोगों को इस पोर्टल पर जगह दी जाती और दूसरे विचार को अपनी प्रतिक्रिया या टिप्पणी करने से भी अलग रखा जाता। अब सवाल यह है कि अगर संजय द्विवेदी किसी स्वायत्त संस्थान में सेवारत हैं तो क्या अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी को सरकार के चरणों में समर्पित कर दें?
   जब वे कांग्रेस, राहुल गांधी या अर्जुन सिंह की शान में अपनी कलम चलाये ंतो ठीक और जब पूरे देश में विलेन बन चुकी अब तक सबसे भ्रष्ट और बेईमान कांग्र्रेस के खिलाफ सच बयान करें तो उनके खिलाफ कार्यवाही की आवाज़ बुलंद की जाये? सच से पीएम हों या सीएम किसी का अपमान नहीं हुआ करता। यहां यह बात दोहराने की ज़रूरत नहीं है कि हमारे पीएम मनमोहन सिंह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार योग्य और सौम्य होने के बावजूद एक नेता के नाते पूरी तरह असफल हो चुके हैं और हालत यह हो चुकी है कि वे ना केवल जनता से चुनकर आने में संकोच करते रहे बल्कि उनको मुख्य चुनाव प्रचारक बनाये जाने से भी आज कांग्रेस मुंह चुरा रही है ।
   ये दो पैमाने कैसे चल सकते हैं लोकतंत्र में? कांग्रेस माने या ना माने यह बात दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ नज़र आ रही है कि यूपीए का बोरिया बिस्तर बंधने जा रहा है। अगर गठबंधन के नाम पर पीएम मनमोहन सिंह ने भ्रष्टाचार और महंगाई से अपनी कुर्सी बचाने के लिये समझौता किया है तो इससे जनता के हितों पर आंच आई है और इस बात को अगर संजय द्विवेदी और प्रवक्ता आगे बढ़ा रहे हैं तो इसमें उनका पूर्वाग्रह या बदनीयत कहां से दिखाई दे रही है? वे तो वही कह रहे हैं जो जनता यानी देश के हित में है।
   अगर कांग्रेस को विश्वास नहीं हो रहा तो 16 मई तक प्रतीक्षा कर ले इसके बाद दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा। इससे पहले असहमति के बावजूद एम एफ हुसैन, तसलीमा नसरीन, आशीष नंदी और सलमान रश्दी को लेकर राज्य और केंद्र की सरकारें जो रूख अख़्तियार करती रहीं हैं उससे भी यही संदेश गया है कि हमारी सरकारों के लिये अभिव्यक्ति की आज़ादी की कीमत पर अपने वोटबैंक को प्राथमिकता देना आम बात है। यह अकेला मामला नहीं है जिससे यह साबित होता है कि हम समय के साथ उदार होने की बजाये कट्टर होते जा रहे हैं।
   दरअसल यही तो तालिबानी , तानाशाही और फासिस्टवादी सोच होती है कि जो हम मानते हैं वही सबको मानना होगा और जो नहीं मानेगा उसको हम नुकसान पहंुचायेंगे। जबकि होना यह चाहिये कि हम अपना विरोध दर्ज करने को कानूनी तरीके अपनायें और अगर फिर भी नाकाम रहें तो अंतिम विकल्प के तौर पर हम उस फिल्म, किताब या कलाकार से अपनी असहमति व्यक्त कर सकते हैं।
0 नज़र बचाके निकल सकते हो निकल जाओ,

  मैं एक आईना हूं मेरी अपनी ज़िम्मेदारी है।

मुस्लिम वोट

मुसलिम वोट का बंटवारा लोकतंत्र के लिये अच्छा संकेत \
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0ध्रुवीकरण से देश की मुस्लिमबहुल 102 सीटों पर भाजपा मज़बूत!
        2014 के लोकसभा चुनाव की एक अच्छी बात यह है कि इस बार मुस्लिम वोट एकजुट यानी वोटबैंक की तरह मतदान नहीं कर रहा है। हालांकि मुस्लिमों का एक बड़ा वर्ग इस मकसद पर तो आज भी एकराय है कि बीजेपी को सत्ता में आने से रोका जाये लेकिन अबकि बार इस एक सूत्रीय मिशन पर नहीं चल रहा है कि पहले मुस्लिम भाई, फिर इलाकाई और इसके बाद कांग्रेस आई। खासतौर पर यूपी में मुस्लिम मतों का बंटवारा सपा बसपा में साफ दिखाई दे रहा है। इसकी वजह यह है कि मैरिट पर मुस्लिम की पहली पसंद आज भी सपा बनी हुयी है लेकिन मुज़फ्फरनगर दंगे और मुलायम सिंह यादव के उल्टे  सीधे बयानों से नाराज़गी के बावजूद वह बसपा या कांग्रेस को पहले नंबर पर गले उतारने को तैयार नहीं है। उसका दिल तो सपा को चाहता है लेकिन वोटों का समीकरण उसके दिमाग को बसपा की तरफ खींचता है।
   इसका नतीजा यह हो रहा है कि वह हर हाल में बंट रहा है। इसके विपरीत मुस्लिम वोट बैंक को एक रखने वाला चर्चित लोटा नमक डालने के लिये इस बार हिंदू वोट के ध््रुावीकरण का जाने अनजाने सहयोगी बन गया है। भाजपा नेता डा. सुब्रमण्यम स्वामी की यह हार्दिक इच्छा इस चुनाव मंे काफी सीमा तक पूरी होती दिखाई दे रही है। हालत यह है कि जो दलित बहनजी के नाम पर आंख बंद कर बसपा के हाथी पर मुहर लगाया करता था उसका भी थोड़ा सा ही सही लेकिन एक हिस्सा भाजपा को जवाबी हिंदू ध्रुवीकरण के कारण जाने की ख़बरें आ रही हैं। इसमें मोदी के सहयोगी अमित शाह की बदला लेने या बहनजी के द्वारा हरिजनों को केवल रिज़र्व सीटों पर मजबूरी में टिकट देने और मुसलमानों को उनसे अधिक 19 टिकट दिये जाने का बयान भी आग में घी का काम कर रहा है।
   ऐसे ही सपा के बड़बोले नेता आज़म खां और सहारनपुर से कांग्रेस प्रत्याशी इमरान मसूद का साम्प्रदायिक बयान भी हिंदू ध््रुावीकरण का कारण बनता नज़र आ रहा है।  साथ साथ बुखारी की कांग्रेस के पक्ष में वोट की अपील मुस्लिम वोटों को तो कांग्रेस के पक्ष में एकजुट कर नहीं पायेगी लेकिन इससे भी प्रतिक्रिया के तौर पर भाजपा को लाभ होता नज़र आ रहा है। पूरे देश में ऐसी 102 लोकसभा सीट हैं जिनपर मुस्लिमों की तादाद हार जीत के नतीजे तय करने की हालत में है। इनमें से कश्मीर की अनंतनाग बारामूला और श्रीनगर 3 असम की ढुबरी करीमगंज बरपेटा और नावगांग 4 बिहार की किशनगंज 1 छत्तीसगढ़ की रायपुर 1 केरल की मलापपुरम व पोन्नानी 2 लक्षदीप की 1 और पश्चिम बंगाल की जंगीपुर बहरामपुर मुर्शिदाबाद 3 संसदीय सीट सहित कुल 15 सीटें ऐसी भी हैं जिनमें मुसलमानों की मतसंख्या आधे से ज्यादा है।
     इसके साथ ही सबसे अधिक मुस्लिम मतों वाले संसदीय क्षेत्र का राज्य यूपी है जिसमें रामपुर मंे 49 प्रतिशत, मुरादाबाद में 46 बिजनौर में 42 अमरोहा सहारनपुर में 39 मुजफ्फरनगर में 38 बलरामपुर में 37 बहराइच में 35 बरेली में 34 मेरठ में 33 श्रीवस्ती में 26 बागपत में 25 गाज़ियाबाद पीलीभीत व संतकबीरनगर में 24 बाराबंकी में 22 बदायूं बुलंदशहर और लखनउफ में 21फीसदी मुस्लिम वोट हैं। लंबे समय तक यह होता रहा है कि मुसलमान भाजपा को हराने के लिये तमाम शिकायतों और कमियों के बावजूद कांग्रेस के साथ अन्य कोई विकल्प ना होने से एकतरफा जाता रहा लेकिन जैसे जैसे उसे क्षेत्रीय दल विकल्प के तौर पर उपलब्ध हुए वह उनके साथ हो लिया। इसके बावजूद मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ राजस्थान गुजरात के चुनाव में मुसलमानों ने कांग्रेस के इतना भ्रष्ट होने के बावजूद भाजपा के डर से 75 प्रतिशत वोट दिये थे।
   इतना ही नहीं दिल्ली में आम आदमी पार्टी का सेकुलर और परंपरागत दलों से बेहतर विकल्प मौजूद होने के बावजूद उसने वोट बंटने से भाजपा के जीतने के डर से कांग्रेस को उक्त राज्यों से भी अधिक यानी कुल 78 प्रतिशत वोट दिये जिसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस के कुल जीते 8 विधयकों में से आधे यानी 4 मुस्लिम एमएलए हैं और दो सिख। दरअसल यह बात मुसलमानों को भी समझने की ज़रूरत है कि जिसे वह धर्मनिर्पेक्षता समझते हैं वह कई क्षेत्रीय और जातीय दलों की उनका भयादोहन कर अपनी जीत पक्की कर सत्ता की मलाई खुद खाने की एक सोची समझी चाल है इसीलिये आज बहनजी को यूपी में बजाये अपने अच्छे काम गिनाने के उनको यह समझाना पड़ रहा है कि जिन इलाकों में सपा का आधार वोट बैंक यानी यादव नहीं है वहां मुसलमान बसपा के वोटबैंक दलित के साथ मिलकर मोदी को पीएम बनने से रोक सकते हैं।
   इसके बाद भी मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग भाजपा और मोदी की जीत की चिंता किये बिना सपा को सकारात्मक वोट करता नज़र आ रहा है जिसका कहना है कि सपा ने उनके लिये बसपा से बेहतर काम किये हैं इसलिये जीते या हारे हम सपा को ही वोट करेंगे। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि लोकसभा की जिन 38 सीटों पर मुसलमान वोट 30 से 50 फीसदी हैं उन पर ही हिंदू वोटों का जवाबी ध्रुवीकरण होने से भाजपा और उसके सहयोगी दल ज्यादा मज़बूत माने जाते हैं और जिन 49 सीटों पर मुस्लिम मतों की संख्या 20 से 30 फीसदी है वहां वे किसी एक हिंदू जाति के केंडीडेट के साथ जाकर सीट निकालने में सफल हो जाते हैं। इसके विपरीत जिन 15 सीटों पर वे बहुमत में हैं उनमें भी बहुसंख्यक हिंदुओं की तरह बंटवारा होने से कई बार वे वहां के अल्पसंख्यक उम्मीदवार से मात खा जाते हैं।
   बहनजी के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि वे मुसलमानों से वोट लेकर 2007 में जब यूपी की सीएम बनी थीं तो दलितों को ही सारी तवज्जो क्यों दे रही थीं? इतना ही नहीं जब बहनजी 2012 में सपा से चुनाव हारी  तो उनका दावा था कि मुसलमानों ने उनके साथ धोखा किया। क्या बहनजी ने मुसलमानों के वोट पहले से अपने लिये तय कर रखे थे जो धोखा कहा ? बहनजी की बदले की भावना से काम करने की हालत यह थी कि उन्होंने बसपा की सरकार बनते ही पहला काम यह किया कि सपा सरकार की जो अच्छी योजनायें भी चल रहीं थी वे भी बंद कर दीं और लखनउू में स्मारकों पर बेतहाशा धन बहाना शुरू कर दिया। इसके साथ ही उनकी सरकार में खूब जमकर भ्रष्टाचार हुआ। हालत यह हो गयी कि जो पैसा अल्पसंख्यकों के लिये केंद्र सरकार ने वजीफे या दूसरी योजनाओं के मद में भेजा था उसको बहनजी ने वापस लौटा दिया और खुद भी उनकी खास मदद नहीं की।
   बहनजी से मुसलमानों ने यह सवाल भी उठाया कि उनके हर पोस्टर बैनर पर पांच दलित महापुरूषों अंबेडकर, ज्योतिबाफुले, शाहूजीमहाराज, नारायणगुरू और कांशीराम  के फोटो बने हैं जब उनका वोट भी सरकार बनाने के लिये चाहिये तो उनके एक भी महापुरूष का फोटो इन पांच में शामिल क्यों नहीं है। यह  सवाल उनको वोट देने वाले ब्रहम्णों सहित अन्य हिंदू जातियांे ने भी उठाया था जिसका कोई सटीक जवाब ना मिलने पर गैर दलित जातियों ने भी उनसे किनारा कर लिया है। अगर आंकड़ों के आईने मंे देखें तो मुस्लिम तुष्टिकरण की बात तो सच्चर कमैटी की रिपोर्ट बेशक झुठलाती है लेकिन हिंदुत्व के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा जातिवाद और मुस्लिम साम्प्रदायिकता का कॉकटेल काफी हद तक सही लगता है जिसको धर्मनिर्पेक्षता का नाम दिया जाता है।
   यह ठीक है कि किसी भी देश के अल्पसंख्यक धर्म के नाम पर एकजुट होने की कोशिश अकसर किया करते हैं क्योंकि बहुसंख्यकों के साथ पूर्व पीएम अटल बिहारी के अनुसार संख्याबल होता है। इसका एक नमूना यह है कि यूपी के स्थानीय निकायों में सभासदों के कुल 11816 पद हैं जिनमें से 3681 मुस्लिमों के पास हैं। राज्य में उनकी आबादी 18.5 के अनुपात में यह आंकड़ा 31.5 है। ऐसे ही बिजनौर ज़िले में मुस्लिम की आबादी 41.70 है जबकि पूरे जनपद में नगर पालिका और नगर पंचायतों के 19 में से उनके पास 17 चेयरमैन पद हैं। इससे उनका कोई खास भला नहीं होता बल्कि जवाबी ध्रुवीकरण होने से पूरे देश में उनका प्रतिनिधित्व कम ही हो सकता है।
   इसका बेहतर समाधन यह है कि मुसलमान चाहे भाजपा को वोट करें या ना करें या कम करें लेकिन नकारात्मक मतदान ना करके उनको जो सुशासन और विकास के साथ कमजोर और गरीब के हक़ में लगे उसको सपोर्ट करें इससे देश में जाति और साम्प्रदायिकता की राजनीति धीरे धीरे कम होगी और चुनाव राजनीति और सरकार सुशासन व विकास के एजेंडे पर आने को मजबूर होगी।   
  0उसके होठों की तरफ़ ना देख वो क्या कहता है,

   उसके क़दमों की तरफ़ देख वो किधर जाता है।।