Tuesday 18 February 2014

केजरीवाल आज़ाद ?

दिल्ली में बनेगी अब भाजपा की सरकार?
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0केजरीवाल कांग्रेस भाजपा को पूरे देश में घेरने को हुए आज़ाद!
    आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली में 49 दिन में ही धराशायी हो गयी। इस दौरान मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सरकार का वीआईपी कल्चर और लालबत्ती का आतंक ही ख़त्म नहीं किया बल्कि इस छोटे से कार्यकाल मंे अपने वादे के मुताबिक 400 यूनिट तक बिजली के दाम कम कर आधे और हर महीने 20 हज़ार लीटर पानी हर घर को निशुल्क देने का काम कर दिखाया।
    इसके साथ ही निजी बिजली कम्पनियों के खातों की जांच कैग से कराने, 5500 ऑटो परमिट जारी करने, पानी टैंकर माफिया का काला ध्ंाधा बंद करने, भ्रष्टाचार रोकने को हेल्पलाइन, महिलाओें की सुरक्षा के लिये महिला गठन की प्रक्रिया की शुरूआत, नर्सरी स्कूलों की मनमानी रोकने को हेल्पलाइन और निजी स्कूलों का मेनेजमैंट कोटा ख़त्म करना, 58 नये रैनबसेरे, हायर एजुकेशन के लिये 10 हज़ार स्कॉलरशिप, करप्शन के खिलाफ़ लड़ने के दौरान शहीद हुए सिपाही के परिवार को एक करोड़ की मदद, ठेके पर चल रही नौकरियों को स्थायी करने की प्रक्रिया शुरू, 1984 के सिख विरोधी नरसंहार की जांच के लिये एसआईटी का गठन और दिल्ली में रिटेल में एफडीआई पर रोक, गैस घोटाले को लेकर मुकेश अंबानी और केंद्र के दो मंत्रियों के खिलाफ रपट के ऐसे फैसले लिये जिनको दो दशक के अपने लंबे कार्यकालों में कांग्रेस और भाजपा आज तक नहीं ले पाईं।
   इस दौरान दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और दिल्ली पुलिस की कमान दिल्ली सरकार के हाथ सौंपने की मांग को लेकर पूरी केजरीवाल कैबिनेट ने रेल भवन के पास धरना देकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और आन्ध््राा के सीएम किरण रेड्डी को भी पीछे छोड़ दिया और धरना तभी ख़त्म हुआ जब उनकी दो पुलिस अधिकारियोें को जांच के दौरान पद से हटाने की मांग मान ली गयी। केजरीवाल जिस जनलोकपाल के मुद्दे पर सियासत में आये और सरकार बनाई उसी को लेकर उनकी सरकार चली  भी गयी लेकिन वे जानते हैं कि उनकी सरकार की इस कुर्बानी से दिल्ली ही नहीं देश की जनता उनकी क़ायल हो गयी है।
   पहले तो केजरीवाल बहुमत ना मिलने से सरकार बनाना ही नहीं चाहते थे लेकिन जब कांग्रेेस ने आप को बिना शर्त बिना मांगे आपकी ही शर्तों पर उसको सरकार बनाकर अपने वादे पूरे करने की चुनौती दी तो उन्होंने जनता की राय जानी और जब वह राय कांग्रेस के सपोर्ट से सरकार बनाने के पक्ष में आ गयी तो केजरीवाल ने 28 दिसंबर को दिल्ली के सीएम की शपथ ले ली। केजरीवाल जानते थे कि उनकी सरकार का जीवन लंबा नहीं है लकिन जब कांग्रेस और भाजपा ने उनको हर सही गलत बात पर विरोध के लिये विरोध को घेरना शुरू किया तो उन्होंने जनलोकपाल बिल सीध्ेा विधनसभा में रखकर मतदान कराने का सुनियोजित फैसला किया जिससे यह साफ हो सके कि भ्रष्टाचार के मामले में कांग्रेस भाजपा दोनों की मिलीभगत है।
   जो भाजपा कर्नाटक में युदियुरप्पा को साथ लेने में बुराई नहीं समझती और उसके पीएम पद के दावेदार गुजरात में नौ साल तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं करते उससे और उम्मीद भी क्या की जा सकती थी। ऐसे ही 43 साल तक लोकपाल बिल को लटकाये रखने वाली कांग्रेस जनलोकपाल, केजरीवाल के धरने और उनके विद्रोही तौर तरीकों को लेकर लगातार संविधान, परंपरा, नियम और कानून की दुहाई देती रही लेकिन यह भूल गयी कि तेलंगाना के मुद्दे पर संसद में उसके मंत्री और दूसरे सांसद क्या अराजकता फैला रहे हैं और यह कि केजरीवाल सत्ता परिवर्तन को नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन के लिये आये थे जो काफी हद तक करने में वे कामयाब रहे हैं।
   केजरीवाल ने जनलोकपाल पर अपनी सरकार शहीद करके इस्तीफा देने के साथ विधानसभा भंग कर नये चुनाव कराने की सिफारिश भी की थी लेकिन जब उन्होंने इस्तीफा दिया तब तक उनकी सरकार अल्पमत में आ चुकी थी, ऐसी हालत में लेफ्टिनेंट गवर्नर उनकी सिफारिश मानने का मजबूर नहीं थे सो कांग्रेस सोची समझी योजना के तहत प्रेसीडेंट रूल लगाने के साथ ही विधानसभा भंग नहीं की गयी है बल्कि निलंबित रखी गयी है।
   इससे यह संभावना है कि लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा जैसे तैसे दिल्ली में अपनी सरकार बनाने में सफल हो जाये। इससे कांग्रेस और भाजपा दोनों को यह लाभ नज़र आ रहा है कि शीघ्र चुनाव होने पर केजरीवाल दो तिहाई बहुमत से दिल्ली की सत्ता में ना लौट सकें। जनता की याददाश्त कमजोर होती है जिससे पांच साल बाद हालात पता नहीं क्या हों? उधर केजरीवाल और उनकी आप टीम अब दिल्ली सरकार की ज़िम्मेदारी से बरी होकर पूरे देश में कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ लोकसभा चुनाव में पूरे दमख़म से उनकी पोल खोलने के अभियान में जुटने जा रहे हैं।
    अब यह तो समय ही बतायेगा कि केजरीवाल का फैसला सही है गलत? अरविंद केजरीवाल ने एक साल के अंदर पहले आम आदमी पार्टी बनाकर, उसके बाद दिल्ली में 28 सीटें जीतकर और आप की सरकार का सीएम बनकर कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह की 25 नवंबर 2012 की उस चुनौती का मंुहतोड़ जवाब दे दिया है जिसमें उन्होंने कहा था कि अरविंद पहले म्यूनिसिपल कारापोरेटर ही बनकर दिखा दें। ऐसे ही पूर्व सीएम शीला दीक्षित ने 22 सितंबर 2013 को कहा था कि आप जैसे दल मानसूनी कीड़ों की तरह की होती हैं, ये आती हैं, पैसे बनाती हैं और गायब हो जाती हैं।
    ये इसलिये नहीं टिक पाती क्योंकि इनके पास दृष्टि नहीं होती। ऐसे ही भाजपा नेत्री सुषमा स्वराज ने 2 दिसंबर 2013 को कहा था कि जनता आप को वोट देकर अपना मत ख़राब नहीं करना चाहती। बीजेपी के एक्स प्रेसीडेंट नितिन गडकरी ने 2 दिसंबर 13 को कहा था कि आप कांग्रेस की बी टीम है। दोनों बड़े दलों के इतने धुरंधर नेताओें के चुनाव नतीजे आने से पहले के ये बयान उनका खोखलापन बताने के लिये काफी हैं। आपको यहां यह भी याद दिला दें कि आप की सरकार बनने से पहले केवल 28 सीटें जीतने से ही दो बड़े काम लोकपाल का संसद में पास होना और भाजपा का 32 विधायकों के साथ सबसे बड़ा दल होने के बावजूद अन्य विधयकों को तोड़कर सरकार बनाने का प्रयास ना करना।
   कांग्रेस को यह भी आशा थी कि आप को सपोर्ट देकर सरकार बनवाई गयी तो वह कांग्रेस के प्रति कुछ नरम हो सकती है जबकि इस दौरान भाजपा ने कांग्रेस या आप के कुछ विधायक तोड़ लिये तो वह उसके घोटालों और भ्रष्टाचार की जांच कराकर लोकसभा चुनाव में और अधिक नुकसान पहंुचा सकती है।
    कांग्रेस यह भी मान कर चल रही थी कि आप को सपोर्ट कर के सरकार बनवाने से जनता की नाराज़गी उससे तो कम हो सकती है लेकिन नाकाम होने पर मतदाता आप से ख़फ़ा हो जायेगा।इसके विपरीत केजरीवाल ने शीला दीक्षित के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में सख़्त कदम उठाकर और होममिनिस्टर सुशील शिंदे को उनकी औकात बताकर साबित कर दिया कि वह अपने एजेंडे पर चले। नजीबाबाद के हिंदी ग़ज़लकर दुष्यंत त्यागी की ये लाइनें यहां केजरीवाल के लिये समीचीन है-
 0सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
  मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये।
  मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

  हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चहिये।।

Monday 17 February 2014

कांग्रेस की वापसी असंभव...

तीसरा मार्चो ! सरकार बनने के सबसे ज़्यादा आसार?!
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 कांग्रेस की वापसी असंभव, भाजपा की सीटें बढ़ेंगी घटक नहीं!
     2014 के लोकसभा चुनाव के बाद तीन संभावनाएं प्रबल हैं। एक- कांग्रेस की सरकार किसी कीमत पर नहीं बनेगी। दो-भाजपा की सीटंे बेशक बढ़ जायेंगी लेकिन उसको सरकार बनाने लायक घटक नहीं मिलने हैं। तीन- तीसरे मोर्चे की अल्पजीवी सरकार कांग्रेस के सपोर्ट से बन सकती है। हैरत की बात यह है कि जिस राजनीतिक समीकरण की संभावना सबसे अधिक है, मीडिया उसको कोई खास तवज्जो देने को तैयार नहीं है। हालांकि यह भी स्पश्ट है कि मीडिया चाहे इलैक्ट्रानिक हो और चाहे प्रिंट लेकिन उसके संचालक और स्वामी भी पूंजीवादी सोच के लोग हैं जिससे उनको जो अधिक फ़ायदे का सौदा नज़र आ रहा है वे उसको ज्यादा कवरेज दे रहे हैं। इस समय कारपोरेट सैक्टर भाजपा विशेषरूप से उसके पीएम पद के दावेदार नरेंद्र मोदी के पीछे एकजुट है जिससे उसने मोदी के लिये मीडिया को सैट करने का पूरा इंतज़ाम बड़े पैमाने पर किया हुआ है।
    इसकी वजह साफ है कि जिस तरह से मोदी ने गुजरात में नियम कानून को ताक पर रखकर कारपोरेट सैक्टर को सरकारी ज़मीन कौड़ियों के भाव से लेकर बैंक लोन मामूली ब्याज दर पर उपलब्ध् कराये हैं उससे उनको लगता है कि उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण का बाकी बचा एजेंडा मोदी के नेतृत्व में भाजपा ही पूरा कर सकती है। यह अलग बात है कि जिस पूंजीवाद के पड़ाव वाले मक़ाम तक आते आते कांग्रेस हांफ गयी है और वह आम आदमी को खुश करने की आध्ी अध्ूरी कोशिश करके यह दिखाना चाहती है कि उसको महंगाई और असमानता रोकने की बड़ी ि‍फक्र है उस पर अब आम जनता तिल बराबर भी विश्वास करने को तैयार नहीं है। नतीजा यह होने जा रहा है कि कांग्रेस के भ्रष्टाचार और मनमानी से तंग आकर मतदाता ना चाहते हुए भाजपा और क्षेत्रीय दलों की गोद में जाने को मजबूर है।
   यह अलग बात है कि जिस तरह से मोदी के पास कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति नहीं है उसी तरह अपने अपने अहंकार और प्रधानमंत्री पद की आस लगाये क्षेत्रीय दलों के नेताओं के पास भी सबके विकास का सुचिंतित प्रोग्राम देश की भलाई के लिये नहीं है। इस समय सबसे बड़ा नारा और दावा सबका यही है कि जो भ्रष्टाचार और महंगाई कांग्रेस ने बढ़ाई है वे उसको सत्ता में आते ही ख़त्म करेंगे और सबके लिये रोटी कपड़ा और मकान के साथ दवाई पढ़ाई व रोज़गार का इंतज़ाम करेंगे लेकिन यह कैसे होगा यह योजना किसी के पास नहीं है। सबसे बड़ा लाख टके का सवाल यह है कि अगर तीसरा मोर्चा बन भी गया तो उसका नेतृत्व कौन करेगा? हालांकि लोकतंत्र में यह मुश्किल सवाल नहीं होना चाहिये था कि यह कैसे तय हो?
   सीध सा फंडा है कि जिसकी सीटें सबसे अधिक होंगी वही मोर्चे का नेतृत्व करेगा और अगर कई दलों की सीटें बराबर आ जायें तो निर्णय लाटरी द्वारा हो सकता है लेकिन भाजपा ने एक बार मायावती को कम सीटें होने के बाद भी उनकी शर्तो पर गठबंधन कर यूपी की सीएम बनवाकर सत्तालोलुपता का रास्ता खोल दिया है जिससे क्षेत्रीय घटक का हर नेता यह चाहता है कि वह हर कीमत पर किसी भी तिगड़म से पीएम बन जाये। सवाल यह भी है कि कांग्रेस जब अपनी सरकार नहीं बना पायेगी तो वह तीसरे मोर्चे की सरकार बाहरी सपोर्ट से क्यों बनाना चाहती है?
   इसका सीधा से जवाब है कि वह चाहती है कि तीसरा मोर्चा ना केवल सरकार उसके सपोर्ट से बनाकर उसके लिये नरम रहे बल्कि वह जब उचित मौका देखे तो पहले इतिहास की तरह तीसरे मोर्चे की सरकार से समर्थन वापस लेकर मध्याव‍ि‍ध चुनाव कराकर इस बहाने ि‍फर से सत्ता में आने का रास्ता साफ करे कि देखो भाजपा तो साम्प्रदायिक होने की वजह से सरकार बना ही नहीं सकती और तीसरा मोर्चा सरकार बन भी जाये तो चला नहीं सकता। लेदेकर हम यानी कांग्रेस ही एकमात्र दल है जो सरकार अकेले और गठबंधन की बना भी सकता है और चला भी सकता है। कांग्रेस ने इसी रण्नीति के तहत दिल्ली में केजरीवाल के नेतृत्व में आप की अल्पजीवी सरकार भी बनवाई है जिसे वह सोची समझी योजना के तहत ज़लील और परेशान होकर भी संसदीय चुनाव से पहले किसी कीमत पर नहीं गिराना चाहती।
   कांग्रेस जानती है कि उसका तो आने वाले चुनाव में बुरी तरह सफ़ाया होना अब तय है लेकिन उसकी जगह विकल्प मोदी के नेतृत्व में किसी तरह से भापजा ना बने वर्ना उसको आगे चलकर ज्यादा मुसीबतों का सामना करना होगा। उसने यह सोचकर आप को आगे किया है कि वह अगर चर्चा में रहेगी तो भाजपा को जाने वाले काफी वोट और सीटें आप को चली जायेंगी। राजनीतिक जानकारों का अनुमान है कि अगर आप 300 सीटें भी लड़ती है तो उसको 15 से 30 तक सीट और 4 से 6 प्रतिशत वोट मिल सकते हैं। यह सोचने वाली बात है कि जब एक एक सीट और एक एक प्रतिशत वोट पर कांटे की टक्कर हो तो ऐसे में आप के मैदान में आने से भाजपा का खेल हर हाल में बिगड़ना तय है।
   अगर भाजपा की सीटें 200 से आगे नहीं बढ़ती जैसा कि संभावना है तो उसको 72 सीटों का जुगाड़ करना वह भी मोदी जैसे मुस्लिम विरोधी की छवि वाले नेता के नेतृत्व में लगभग असंभव हो जायेगा। यह भी मुमकिन नहीं होगा कि भाजपा सरकार बनाने के लिये मोदी की जगह किसी और उदार छवि के नेता को आगे करके सेकुलर दलों से सपोर्ट के लिये तैयार हो जाये। भाजपा के घटक अकाली दल और शिवसेना के बाद सबसे ज्यादा उम्मीद जयललिता से थी जो वामपंथियों के साथ गठबंधन करके पहले ही छिटक चुकी है। इसके साथ ही नवीन पटनायक से लेकर ममता बनर्जी और मायावती से लेकर नीतीश कुमार तक से वह साथ आने की आशा भी नहीं कर सकती।
   ऐसे में कांग्रेस की रण्नीति काम आयेगी और वह सपा बसपा, द्रमुक अन्नाद्रमुक, जनतादल यूनाइटेड राष्ट्रीय जनतादल और तृणमूल कांग्रेस व वामपंथियों के विरोधाभास के बावजूद तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने को धर्मर्निरपेक्षता और देश की एकता अखंडता बचाने के नाम पर कोई ना कोई रास्ता ज़रूर निकाल लेगी और इसी तरह से तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने की संभावना सबसे ज़्यादा प्रबल हो चुकी है। कहीं तीसरे मोर्चे को लेकर ऐसा ना हो जाये जो शायर ने कहा है-
निज़ाम ए वक़्त का खुद को अमीन कहते थे,
तमाम ऐहल ए हुनर को कमीन कहते थे ।
गिरे जो आसमां से तो अब यह समझे हैं,

वो आसमां थे जिनको ज़मीन कहते थे।।

Monday 10 February 2014

तेरी हिम्मत पे चम्मच हमें नाज़ है

  
तेरी हिम्मत पे चम्मच हमें नाज़ है
0 चमचो की बदौलत ही कई सरकारें चलीं तो कई ताज छिन गये!                 
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
     सुना आपने देहरादून के चम्मच कांड में एक दर्जन लोगों को उम्रकैद हो गयी। एक विवाह समारोह में इन लोगों ने चम्मच को लेकर हुए शुरू झगड़े में दो लोगों की हत्या कर दी थी। क्या ज़माना आ गया एक चम्मच ने पहले दो लोगों की जान ली और अब उसी चम्मच ने 12 लोगों को उम्रभर के लिये अंदर करा दिया। यह कम्बख़्त चम्मच चीज़ ही ऐसी होता है कि आदमी से ज़्यादा तवज्जो इसे दी जाने लगी है। अब देखिये ना अपने देश में कई सरकारें चमचो की वजह से बनी और उनकी मेहरबानी से ही चल रही है। हां यह अलग बात है कि जब कोई बड़ी आफत आती है तो चम्मच तोतों की तरह आंखे बदलने में ज़रा भी देर नहीं लगाते और सामने वाला हाथ मलता रह जाता है।
     कार्यालयों में कुछ लोग काम की बजाये बॉस की चमचागिरी करके ही आगे बढ़ने में विश्वास रखते हैं अब भले ही मेहनती और योग्य बंदा जलभुनकर राख ही क्यों न हो जाये, उनकी बला से। यह रास्ता आसान और हंडरेड परसेंट गारंटी से कामयाबी वाला जो है। संतरी से लेकर मंत्री तक चमचो का ही दबदबा है। थाने में आईपीसी की धराआंे से अधिक चमचो की पौबारा है। सरकारी नौकरी में तो चमचागिरी का मज़ा ही कुछ निराला है। मिसाल के तौर पर प्राइमरी में टीचर हैं तो आराम से घर बैठकर मस्ती करें बस बीएसए की चमचागिरी करना याद रखें। एमपी एमएलए के चमचे भी मज़े ले रहे हैं। अगर आप किसी बदमाश के चमचे हैं तो क्या कहने, आप न केवल मुहल्ले में सब पर रौब गालिब कर सकते हैं बल्कि पुलिस से भी आपकी खूब पटेगी।
    सियासत में तो जलवा ही चमचागिरी का है। टिकट लेना हो तो चमचागिरी से बड़ी काबलियत और कोई नहीं और मंत्री बनने से लेकर पीएम बनना हो तो भी यही हुनर काम आयेगा। मायावती और शीला इसी खूबी से सरकार चला रहे हैं तो लालू और मुलायम चमचागिरी न करने का नतीजा सत्ता से बाहर होकर भोग रहे हैं। ज्यादा पुरानी बात नहीं है आइरन लेडी कही जाने वाली पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनके चमचो, आप चाहें तो उनको तहज़ीब के दायरे में सलाहकार भी कह सकते हैं, ने सत्ता में बने रहने के लिये जनता का मूड देखने की बजाये एमरजैंसी लगाने की नेक सलाह दे डाली थी नतीजा यह हुआ कि वे उसी एक गल्ती से सत्ता से बाहर हो गयी। चमचो का कुछ नहीं बिगड़ा वे नारा लगाकर अपनी चमचागिरी का फर्ज अदा करते रहे इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा
   चमचो की कहानी लंबी है कि कैसे पंजाब में भिंडरावाला को आस्तीन का सांप बनाकर पालने की सलाह दी गयी और फिर जब इंदिरा जी की जान चली गयी तो चमचो ने राजीव जी को चमचागिरी करके पीएम बनवा दिया। चमचागिरी के बल पर एक पायलट की सरकार हवा में चलती रही और एक दिन चमचो ने फिर वही पुराना खेल दोहराया कि बाबरी मस्जिद/ रामजन्मभूमि का जिन्न बोतल से बाहर निकालने की सलाह सीधे सादे राजीव गांधी को दे डाली जिसका नतीजा सबके सामने है। इतना ही नहीं चमचो ने विदेश तक में हाथ पांव मारने शुरू किये तो भारतीय सेना को श्रीलंका के तमिल चीतों से लड़ने आ बैल मुझे मारकी तर्ज़ पर भेज दिया गया। चमचो की गलत सलाह से न केवल राजीव गांधी की कुर्सी गयी बल्कि लिट्टे की बदले की कार्यवाही में जान भी चली गयी।
  ऐसा नहीं है कि हमारे देश में ही चमचो की इतनी चलती हो बल्कि अमेरिका को देखो जो उसकी चमचागिरी करते रहते हैं वे चाहें तानाशाह हों और निकट भविष्य में उनका चुनाव कराने का इरादा भी न हो तो भी अपने अंकल सैम उनकी तरफ न खुद आंख उठाकर देखते हैं और न ही किसी को ऐसा करने की इजाज़त ही देते हैं। मिसाल के तौर पर सउूदी अरब जैसे कट्टरपंथी और पाकिस्तान जैसे आतंकवाद के पालनहार को अंकल सैम चमचागिरी करने के इनाम के तौर पर अब तक बख़्शे हुए हैं, हां एक बात और जो उनकी चमचागिरी से इनकार करता है तो वे उसे नेस्तोनाबूद करने में कोई कोर कसर भी नहीं छोड़ते।
   ओसामा बिन लादेन को ही लो जब तक वह अंकल सैम के इशारे पर रूस को अफगानिस्तान से भगाने के लिये जेहाद रूपी चमचागिरी करता रहा तो सब ठीक चलता रहा लेकिन जैसे ही उसने मुस्लिम मुल्कों से अमेरिका के चमचो का दख़ल ख़त्म करने का बीड़ा उठाया तो वह जेहादी से खूंखार आतंकवादी बन गया और चमचागिरी ख़त्म तो ओसामा भी ख़त्म। ऐसे ही इराक के सद्दाम हुसैन ने चमचागिरी से मना किया तो बिना ख़तरनाक हथियार बरामद किये ही सद्दाम की छुट्टी कर दी गयी। ताज़ा मिसाल लीबिया के कर्नल गद्दाफी की है ओबामा की चमचागिरी न कर पंगा ले रहा था, बेमौत मारा गया। आजकल पाकिस्तान चमचागिरी से ना नुकुर कर रहा है उसका भी भगवान ही मालिक है। ज़रदारी और गिलानी शायद ज़िया उल हक़ की चमचागिरी से मना करने का हश्र भूल गये हैं।
   अंकल सैम को गुस्सा आ गया तो पाक के राष्ट्रपति का चेहरा ज़र्द और प्रधानमंत्री का मुंह गिला करने लायक नहीं रहेगा। तरक्की का आज एक मात्र रास्ता है चमचागिरी। जय हो चमचो की। अगर गुस्ताख़ी माफ करें तो यूं कहा जा सकता है।
  0 जिनके आंगन में चमचो का शजर लगता है,

    उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है।। 

Sunday 9 February 2014

खुशवंत जी की चुटकुला खोज

खुशवंत जी ने पता लगाया सरदारों पर क्यों बनते हैं चुटकुले?
   -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 मनमोहन सिंह को लेकर उनकी राय से पक्षपात सामने आया!
           सबसे पहले यह स्पश्ट करदूं कि मैं इस बात के व्यक्तिगत रूप से खिलाफ हूं कि चुटकुले सरदारों या किसी भी वर्ग या जाति पर बनाये जायें। मैं यह भी उतना ही गलत मानता हूं कि किसी की अच्छाई या बुराई हम उसके धर्म जाति या पद को देखकर करें। यह एक तरह का पूर्वाग्रह ही कहा जायेगा। अब तक मेरी राय जाने माने लेखक सरदार खुशवंत सिंह के बारे में कम से कम यह तो नहीं थी कि वह भी पीएम मनमोहन सिंह का पक्ष केवल इसलिये लेंगे क्यांेकि वह भी उनकी तरह एक सरदार हैं। इतना ही नहीं खुशवंत सिंह जी ने पता नहीं कौन सी रिसर्च या सर्वे से यह भी पता लगा लिया है कि केवल पीएम मनमोहन सिंह ही नहीं बल्कि सबसे अधिक लतीफे सरदारों पर इसलिये बनाये जाते हैं क्योंकि वे दूसरों से ज़्यादा सफल होते हैं।
   साथ ही उन्होंने यह भी रहस्य उद्घाटन किया है कि सरदारों पर अधिकांुश लतीफे बनाने का यह नेक काम खुद सरदार लोग ही करते हैं। इसके साथ ही उनका यह दावा भी है कि पारसियों और मारवाड़ियों पर भी चुटकुलों की कोई कमी नहीं है क्योंकि उनके बकौल वे भी दूसरों से बेहतर हाल में हैं। खुशवंत सिंह फरमाते हैं कि अपने पर भरोसा करने वाला ही खुद पर लतीफा बना सकता है।
   अमेरिका के एक सिख भाई निरंजन सिंह ने तो इस मुद्दे पर पूरी एक किताब ही लिख डाली है। उनकी किताब का शीर्षक है ‘‘बंताइज़्मः द फिलॉसफी ऑफ सरदार जोक्स’’। अब यह तो निरंजन सिंह जी ही बता सकते हैं कि चुटकुलों में क्या फिलॉसफी होती है लेकिन यह काम वास्तव में उन्होंने हिम्मत का किया है क्योंकि ज़िंदा दिल लोग ही अपने पर हंस सकते हैं। हम बात कर रहे थे महान लेखक और वरिष्ठ पत्रकार सरदार खुशवंत सिंह जी की। उनका कहना है कि उनके दो फीसदी सिख समाज ने देश को कमाल का प्रधनमंत्री दिया है।
    ऐसा पीएम जो ईमानदार और विनम्र है। वे मनमोहन सिंह को कारगर भी बताते हैं। साथ ही मोंटेक सिंह आहलूवालिया का नाम और जोड़ते हैं कि वे भी एक सिख हैं और प्लानिंग कमीशन का काम शानदार तरीके से अंजाम दे रहे हैं।
   इन दोनों मिसालों पर हमें सख़्त एतराज़ है। मनमोहन और मोंटेक ने देश का सत्यानाश कर दिया है। मनमोहन कमाल के नहीं बल्कि धमाल और चौपाल के एक ऐसे पीएम हैं जो बेईमान सरकार चलाने का रिकॉर्ड बना रहे हैं। ऐसे पीएम को ईमानदार कैसे माना जा सकता है? क्या बेईमानी केवल रूपये पैसे की होती है? राजा जैसे बेईमान मंत्री को लंबे समय तक अपनी कैबिनेट में बनाये रखना, सुरेश कलमाड़ी को सहन करना और भ्रष्टाचार से मज़बूत कानून बनाकर लड़ने की बजाये अन्ना और उनकी टीम से लड़ना, उनका उत्पीड़न और अपमान करना कहां की विनम्रता और ईमानदारी कही जा सकती है।
   जिस आदमी की अपनी कोई साख, समझ और सोच ही न हो वह गर्व करने लायक कैसे हो सकता है? मनमोहन सही मायने में आज रबर स्टैंप की तरह के पीएम हैं तो सिर्फ इसलिये कि वह सोनिया गांधी की हर बात को सर आंखों पर रखते हैं। उन के अंदर इतनी हिम्मत और ताकत भी नहीं है कि वे जनता के बीच जाकर चुनाव लड़ सकें। वे शायद पहले ऐसे पीएम हैं जो राज्यसभा से मनोनीत होकर आते हैं। उनको अपने देश की जनता से अधिक अमेरिका, वर्ल्ड बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के हितों की चिंता रहती है। उनके ज़माने में जितनी महंगाई बढ़ी है उतनी आज तक नहींे बढ़ी। रहा सवाल मोंटेक सिंह का गरीबी के पैमाने को लेकर उनका अमानवीय रूप पूरा देश पिछले दिनों देख चुका है।
   हम यह दावा नहीं कर रहे कि ये दोनों सिख समुदाय से हैं इसलिये ख़राब या असफल हैं बल्कि यह बात नहीं मानी जा सकती कि सरदार होने की वजह से इनकी नाकामी और नालायकी पर उंगली नहीं उठाई जानी चाहिये। मनमोहन सिंह तो अलीबाबा चालीस चोर की कहानी को चरितार्थ करते नज़र आ रहे हैं। वे यह बात स्वीकार भी कर चुके हैं कि गठबंधन सरकार चलाने की अपनी मजबूरियां होती हैं। इसका मतलब वे सरकार चलाने सरकार बचाने और उसका मुखिया बने रहने के लिये कोई भी समझौता कर सकते हैं। यहां तक कि देश के हित और जनहित से भी समझौता कर सकते हैं? ऐसे पीएम को कारगर नहीं नहीं बताना चाहिये बल्कि कारागार में डाला जाना चाहिये ।
   खुशवंत सिंह के बारे मंे अब तक मेरी जो बेबाक और साफ सुथरी राय थी वह 3 दिसंबर को दैनिक हिंदी अख़बार हिंदुस्तान में उनका यह लेख पढ़कर ख़राब हो गयी क्योंकि वह एक सरदार होने की वजह से पीएम का पक्ष ले रहे हैं।
 0सोचा था हमने जा के उससे फ़रियाद करेंगे,

  कमबख़्त वो भी उसी का चाहने वाला निकला।

अफ़सर नहीं राजनेता लाइलाज ?


अफ़सरों से अधिक राजनेताओं को इलाज की ज़रूरत?
           -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 जे पी गुप्‍ता जैसे संवेदनशील अधिकारी आज भी यूपी में एक मिसाल हैंा
  यूपी में डीआईजी फायर सर्विसेज़ डी डी मिश्रा को व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा दर्ज करने पर बदले की भावना से मानसिक रोगी बताकर राहे रास्तपर लाने की कोशिश की जा रही है। इतना ही नहीं उनकी सच्ची और कड़वी बातों को सरकारी कर्मचारी आचरण नियमावली का उल्लंघन बताकर उनके खिलाफ अनुशासनहीनता का एक और मोर्चा खोला गया है। हालांकि अब मिश्रा मानसिक चिकित्सालय से अपने घर लौट आये हैं लेकिन अंदाज़ लगाया जा रहा है कि शायद उन्होंने या उनके परिवार और मित्रों ने आगे से सरकार या व्यवस्था के खिलाफ एक भी शब्द न बोलने का वायदा किया है जिसका संकेत इस बात से मिलता है कि जब मीडिया उनके घर उनका पक्ष लेने पहंुचा तो न केवल वे खुद बल्कि उनके मित्र और परिवार वाले भी डरे सहमे कुछ भी कहने को तैयार नहीं हुए।
    दरअसल डीआईजी डी डी मिश्रा का मामला नया हो सकता है लेकिन सत्ता का यह तानाशाह, अत्याचारी और क्रूर रूख़ ऐसे ईमानदार, सिध्दांतवादी और नियमानुसार चलने वाले अधिकारियों के लिये पुराना है। 1971 के बैच के आईएएस अफसर धर्म सिंह रावत को सरकारी भ्रष्टाचार सहन नहीं हुआ तो उन्होंने हर जगह तैनाती के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्रियों को बार बार शिकायत भेजी लेकिन जब किसी ने उनकी बात पर कान नहीं दिये तो वह विरोध में राजधानी लखनउू जाकर धरने पर बैठ गये। अपने पूरे कार्यकाल में वे पांच बार भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन पर गये लेकिन नीचे से उूपर तक सब मिले हुए थे, इसलिये कोई कार्यवाही किसी के खिलाफ नहीं हुयी और उनको सनकी बताया जाता रहा।
   ऐसे ही 1994 बैच के पीपीएस शैलेंद्र सिंह ने जब बड़े माफियाओं के खिलाफ कानून का डंडा चलाना चाहा तो उनको पालने वाले आका नेता शक्तिशाली दीवार बनकर उनके सामने आकर खड़े हो गये। सिंह को यह बर्दाश्त नहीं हुआ और उल्टे जब उनके खिलाफ ही अनुशासन का डंडा चलने लगा तो 2004 में उन्होंने तंग आकर सेवा से इस्तीफा दे दिया। 1976 बैच की प्रोमिला शंकर को एनसीआर की कमिश्नर के रूप में यमुना एक्सप्रैसवे के मास्टर प्लान को जबरदस्ती एप्रूव करने के लिये मजबूर किया गया जब वे इसके लिये तैयार नहीं हुयीं तो उनको बिना अनुमति विदेश जाने का आरोेेेेेप लगाकर निलंबित कर दिया गया।
   1969 बैच के सहकारी सेवा के अधिकारी के सी कर्दम ने 1976 में बदायूं के ज़िला सहकारी बैंक में एक ऐसा घोटाला पकड़ा जिसकी जांच की आंच कई बड़े सफेदपोशों तक पहुंच रही थी उनको बार बार जांच रोकने का इशारा मिला लेकिन वे जब नहीं माने तो उनको इस करोड़ों के घोटाले को दबाने के लिये मात्र 200 रूपये की रिश्वत लेने के आरोप में पकड़ लिया गया। वे कई बार धरने पर बैठे और लगातार चिल्लाते रहे कि उनको झूठा फंसाया गया है लेकिन सरकार ने एक नहीं सुनी। अदालत ने उनको ईमानदार अधिकारी माना और केस खारिज कर दिया।
   1995 में आईएएस अधिकारी राय सिंह ने प्रमुख सचिव समाज कल्याण के पद पर रहते बार बार तबादला होने पर यह कड़वा सच कहने की हिम्मत की थी कि अफसरों को ताश के पत्तों की तरह नहीं फेंटा जाना चाहिये और कुछ समय तक एक जगह काम करने का मौका दिया जाना चाहिये बस इतनी बात पर उनको भी निलंबित कर दिया गया था। इसका यह मतलब भी निकाला जा सकता है कि आज हमारी व्यवस्था इतनी भ्रष्ट हो चुकी है कि वह सुधरना तो दूर कोई ईमानदार अधिकारी उसको आईना दिखाता है तो वह तिलमिला कर उसी पर हमला करती है। ऐसे में एक बीच का रास्ता भी है जो पीसीएस जे पी गुप्ता जैसे लोगों ने अपनी संवेदनशीलता से अपनाया है।
    जे पी गुप्ता जिनको लोग प्रेम से जनप्रिय गुप्ता भी कहते हैं, एक साल से अधिक समय से नजीबाबाद के एसडीएम हैं। इस दौरान उन्होंने जहां जनता से अपने सरोकार लगातार मज़बूत किये हैं वहीं एक कवि के रूप मंे उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई है। इतना ही नहीं वे केवल  साहित्यिक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी करके रह जाते हांे बल्कि उनके व्यवहार में भी एक संवेदनशील इंसान की भावनाएं झलकती हैं। मिसाल के तौर पर वे मूक बधिर और विकालांग बच्चो के प्रेमधाम आश्रम जाते हैं तो अपने बच्चे का जन्मदिन उन अनाथ बच्चो के साथ ही मनाते हैं।
   साथ ही इस दिन उन बच्चो को फल और कपड़े बांटते हैं। इस दिन घंटों उन मासूम और पेरशान बच्चो के साथ गुज़ारने का नतीजा यह होता है कि जे पी गुप्ता उन बच्चो के दर्द और जज़्बात पर एक लंबी कविता लिख देते हैं और जब यह कविता पहली बार वे अपने मित्रों को सुनाते हैं तो सबकी आंखे गीली हो जाती हैं।
   एक घटना याद आ रही है। एक बार इस पत्रकार ने गुप्ता जी को बताया कि पास के एक गांव में एक बेहद गरीब परिवार रहता है। उसकी सरकारी स्तर पर कुछ सहायता करा दीजिये। गुप्ता जी ने कहा ठीक है। बात आई गयी हो गयी। सारी तहसील में गरीबों का सर्वे हुआ। इस बेहद गरीब परिवार का नाम उस सूची मंे संयोग से नहीं आ पाया। मैंने एक दिन गुप्ता जी को फिर याद दिलाया कि उस परिवार को आपके एसडीएम होते हुए कोई मदद नहीं मिल रही। उन्होंने कहा एक दिन मौके पर चलते हैं। वे एक शाम बिजनौर से लौैट रहे थे।
   उनका फोन आया कि मैं जलालाबाद बाईपास पर पहंुच रहा हूं। आप भी उस गांव के लिये चलने को आ जाईये। मैंने सब काम छोड़े तुरंत वहां पहुंचा। जब हम उस गांव में प्रवेश कर ही रहे थे, गुप्ता जी ने अपनी पारखी नज़रों से दूर से ताड़ लिया कि वह परिवार है क्या जिसने प्लास्टिक की पन्नी से अपना आशियाना सर छिपाने को जैसे तैसे बना रखा है। मैंने कहा हां बिल्कुल ठीक वही है।  पूरे गांव में शायद वह अकेला गरीब परिवार था जिसने सर्दी से बचने के लिये यह जुगाड़ किया हुआ था। दाद देनी पड़ेगी एसडीएम साहब की सोच और समझ की।
   पहले उन्होंने अपने स्टाफ से यह पता लगाया कि यह बेहद पात्र और ज़रूरतमंद गरीब परिवार सरकारी योजना में आवास, बीपीएल कार्ड और अन्य सुविधाओं से अब तक वंचित रह कैसे गया? जब पता लगा कि सर्वे के समय यह परिवार किराये के मकान में रह रहा था, तब उन्होंने प्रशासन की भूल का सुधार करते हुए सबसे पहले अपनी जेब से एक बड़ी धनराशि निकालकर इस परिवार को मदद के तौर पर थमाई। अपनी पत्रकारिता के तीन दशक में मैंने ऐसे ईमानदार अधिकारी तो कई देखे जो काम न होने पर पैसा लौेेेटा देते थे लेकिन किसी गरीब की अपनी जेब से बड़ी रकम देकर मदद करने वाला जेपी गुप्ता जैसा मानवप्रेमी और गरीब सेवक पहली बार देख रहा था।
   बाद में इस परिवार का बीपीएल राशनकार्ड बनाने को जेपी गुप्ता ने एक शिक्षिका का फ़र्जी बीपीएल कार्ड निरस्त किया क्योंकि वह अपने पेपर सत्यापित कराने उनके पास आई थी जबकि उसकी वेतनपर्ची मंे आय 17000 रू0 मासिक लिखी हुयी थी। ऐसे और भी कई केस हैं जिनकी लीक से अलग हटकर जेपी गुप्ता जी ने जेब से बार बार मदद की है।
   आदमी में लगन और इरादा हो तो कोई काम मुश्किल नहीं लगता। यही बात लोकप्रिय उपज़िलाधिकारी जे पी गुप्ता पर बिल्कुल ठीक लागू होती है। जब उनको यहां आये कुछ ही माह हुए थे, तभी पिछले साल स्वतंत्रता दिवस पर उन्होंने कवि सम्मेलन और मुशायरे की नई परंपरा शुरू कर दी थी। गत वर्ष यह भव्य प्रोग्राम एक बड़े बैंक्वट हाल में हुआ था। इस साल एसडीएम गुप्ता जी ने इस गंगा जमुनी कार्यक्रम को स्थायी रूप देने को इसकी भविष्य के लिये ज़िम्मेदारी नगरपालिका परिषद पर डाल दी। यानी चेयरमैन और एसडीएम चाहे जो रहे यह प्रोग्राम हर साल 15 अगस्त को बदस्तूर होता रहेगा।
    इस बार यह बात खासतौर पर नोट की गयी कि शहर में अलग अलग संस्थाओं से एसडीएम गुप्ता जी ने आधा दर्जन से अधिक द्वार स्वतंत्राता सेनानियों के नाम पर बनवाये थे। भारत टाकीज़ के पास जीर्ण क्षीर्ण पड़े तिकोने पार्क की सफाई कराकर उसकी पुताई और बिजली की झालर से सजावट होने से नेशनल हाईवे से आने जाने वाले उत्तराखंड और राजधानी दिल्ली तक के यात्रियों पर एक अच्छा मैसेज गया कि हां नजीबाबाद मंे भी 15 अगस्त जोरशोर से मनाई जा रही है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि एसडीएम जेपी गुप्ता ने अपनी मेहनत, लगन और ईमानदारी से देशभक्ति की भावना का परिचय देते हुए नगर में साहित्यिक, सांस्कृतिक और भाईचारे का माहौल बना दिया है।
    इस बार एक विशेष बात यह भी नोट की गयी कि नगर मंें मुस्लिम भाइयों की तरफ से होने वाला होली मिलन का प्रोग्राम, जिसका संयोजक इन पंक्तियों का लेखक रहता है  को भी जेपी गुप्ता जी ने संगीत के साथ अपना होली का विशष गीत पेश कर चार चांद लगाये थे। नतीजा यह हुआ कि जिस गीत को लेकर कुछ लोग आशंकाएं जता रहे थे उसको सुनकर युवा मगन होकर नाच रहे थे। सच तो यही है कि सिस्टम पीएम और सीएम से उूपर से नीचे को ठीक होना शुरू होगा लेकिन एक दूसरी हकीकत भी है कि जेपी गुप्ता जैसे अधिकारी चाहें तो विपरीत हालात में भी एक बीच का जनसेवा का रास्ता बिना व्यवस्था से टकराये निकाला जा सकता है। अहंकारी और भ्रष्ट राजनेताओं के लिये तो यही कहा जा सकता है।
0 दूसरों पर जब तब्सरा किया कीजिये,

   आईना सामने रख लिया कीजिये ।।

पेट्रोल की कीमत और सरकार

पैट्रोल के दाम बढ़ाना सरकार की मजबूरी ?
0 रूपये का मूल्य गिरने से इंटरनेषनल मार्केट में सस्ता होने के बावजूद भी तेल मिलता है महंगा!                  
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
    देश में पैट्रोल की कीमत बढ़ते बढ़ते राजधानी में 68.64 रूपये तक जा पहंुची है लेकिन हमारी सरकार एक व्यापारी की तरह अधिक से अधिक मुनाफ़ा टैक्स के रूप में कमाने से परहेज़ करने को तैयार नज़र नहीं आती। यही हालत तेल कम्पनियों के बढ़ते लाभ की है। इस बार यह बढ़ोत्तरी 1.80 रु0 है तो इससे पिछली बार 16 सितंबर को प्रति लीटर दाम 3.14 रु0 बढ़े थे। अगर पड़ौस के देशों के हिसाब से ही देखा जाये तो पाकिस्तान में 41.81रू0 और बंगलादेश में 44.80 रू0, और हमारा रोल मॉडल बनाया जा रहा अमेरिका भी इसको 42.22 रू0 की दर से बेच रहा है। भारत में जनवरी 2009 से पैट्रोल 65 प्रतिशत से भी महंगा हो चुका है।
    हालांकि आज हम अपनी ज़रूरत का 70 प्रतिशत पैट्रोल आयात करते हैं लेकिन औद्योगिक संगठन एसोचैम का अनुमान है कि 2012 आते आते हमारा आयात 85 प्रतिशत तक पहंुच जायेगा। जहां तक अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल के दाम बढ़ने का सवाल है तो मंदी के दौर में जहां यह 30 डालर तक नीचे उतर चुका है वहीं आमतौर पर 80 डालर प्रति बैरल इसके औसत रेट बने रहते हैं। 2008 में अधिकतम उूंचाई यह 147 डालर की छू चुका है। तेल की कीमतें बढ़ने का एक कारण डालर की आजकल लगातार बढ़ रही कीमत भी है। हालांकि यह माना जा रहा है कि अमेरिका मंे फिर से घिर रही मंदी की वजह से अभी तेल के दाम उस हिसाब से नहीं बढ़ रहे जिसका अनुमान लगाया जा रहा था।
    तेल के दाम में आने वाले उतार चढ़ाव के लिये कोई एक कारण ज़िम्मेदार नहीं माना जा सकता। मध्यपूर्व के तेल उत्पादक देशों में राजनीतिक अस्थिरता, जनअसंतोष और युध्द के कारण आपूर्ति मंे बाधा आने से और चीन व भारत जैसे विकासशील देशों में बढ़ती खपत के कारण इसके दामों में भारी उठापटख़ होती रहती है। चीन की विकास दर 9 तथा भारत की 8.5 प्रतिशत होने से दुनिया के अकेले इन दो देशों में ही तेल की मांग दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। जानकार सूत्रों का दावा है कि 2018 से तेल के उत्पादन में पहले स्थिरता आयेगी और उसके बाद धीरे धीरे गिरावट का दौर शुरू होकर आने वाले 40 से 50 साल में तेल की यह दौलत ख़त्म हो जायेगी।
    ऐसा नहीं है कि तेल की बढ़ती मांग से तेल के भंडारों के समाप्त होने की ही आशंका है, बल्कि सट्टेबाज़ी और बड़ी तेल कम्पनियों का इसके मूल्यांे को लेकर चलने वाला खेल इसको महंगा भी बना रहा है। शेयर बाज़ार और वित्तीय बाज़ारों में बढ़ रही अनिश्चितता और ख़स्ताहाली मुनाफाखोरों का रूख़ तेल के कारोबार की तरफ मोड़ रही है। मल्टीनेशनल कम्पनियों का प्रबंधतंत्र बाकायदा तेल के दामों को मैनिपुलेटकरता रहता है। उधर सरकार की नीति निजी वाहनों को बढ़ावा देते जाने की होने से तेल की खपत बेतहाशा बढ़ना स्वाभाविक ही है लेकिन इसकी पूर्ति कैसे होगी इस बारे में सरकार ने कोई स्थायी नीति नहीं बनाई है।
    मनमोहन सिंह जब 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार में वित्तमंत्री बने थे तो उस समय तेल मूल्यों के निर्धारण के लिये एक समिति बनाई गयी थी। एडमिनिस्ट्रेटिव प्राइज़ मैकेनिज़्म के अनुसार हर 15 दिन बाद तेल के दामों की समीक्षा किये जाने की योजना तैयार की गयी लेकिन 2004 तक यह व्यवस्था चली और उसके बाद बंद कर दी गयी। सरकार ने 1963 मंे खाद एवं रसायन मंत्रालय से अलग कर पैट्रोलियम मंत्रालय का गठन किया था। तब से अब तक कुल 48 सालों में 41 पैट्रोलियम मिनिस्टर बनाये जा चुके हैं। हालत यह है कि यूपीए की सरकार में ही अब तक मणिशंकर अय्यर, मुरली देवड़ा के बाद अब जयपाल रेड्डी सहित तीन मंत्री बनाये जा चुके हैं, यानी तेल महंगाई का ठीकरा मंत्री के सर फोड़ दिया जाता है।
    एक तरफ हमारी सरकार का दावा है कि सब्सिडी देने से उसका ख़ज़ाना ख़ाली होता जा रहा है इसलिये वह तेल बाज़ार भाव पर एक व्यापारी की तरह बेचेगी, दूसरी तरफ इन दिनों अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में पैट्रोल और डीज़ल के दाम लगातार गिरने के बाद भी वह पहले से ही काफी महंगा कर दिये गये तेल के दाम घटाने को तैयार नहीं है। इसका कारण यह बताया जाता है कि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में हमारी सरकार रूपये का बार बार अवमूल्यन करती रहती है जिससे डालर का रेट अपने आप ही बढ़ जाता है। चूंकि इंटरनेशनल मार्केट से तेल डालर में खरीदा जाता है इससे यह सस्ता होने के बावजूद हमारे लिये लगातार महंगा होता जा रहा है। वैसे भी कारपोरेट घरानों के एजेंट की तरह काम करने वाली सरकार को आम जनता के हित से क्या लेना देना?
    1967 में बने तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक के सदस्य सउूदी अरब, इराक, कुवैत, क़तर, बहरीन, सीरिया, यूएई, अल्जीरिया, मिस्र, लीबिया आदि हालांकि यह दावा करते हैं कि वे तेल का उत्पादन मांग के अनुसार बढ़ाकर इसके दाम एक सीमा से अधिक बढ़ने नहीं दंेगे लेकिन अन्य तेल उत्पादक देश ईरान, ओमान, यमन, अंगोला, नाईजीरिया, सूडान, ट्यूनीशिया, इथोपिया, ऑस्ट्रेलिया के साथ ही एशिया और यूरूप के ऐसे कई देश हैं जिन पर किसी का कोई ज़ोर नहीं है। तेल उत्पादक देशों में आजकल मची उथल पुथल भी इसके दाम बढ़ने का एक कारण मानी जाती है। पिछले दिनों ट्यूनीशिया के बाद मिस्र और लीबिया तो इस आग में झुलसे ही साथ ही यमन, बहरीन और सीरिया तक भी तेल की चिंगारी पहुुंच चुकी है। 
   कुवैत ने 14 माह का मुफ्त खाना और नक़द बोनस अपनी जनता को बांटकर तो सउूदी अरब की शाही सरकार ने जनता पर 36 अरब डालर ख़र्च करने का ऐलान करने के साथ साथ महिलाओं को भविष्य में न केवल चुनाव में वोट देने बल्कि प्रत्याशी बनने का कानून बनाने का वायदा किया है। इसके बाद वहां सरकारी सेवकों के वेतन में 15 प्रतिशत बढ़ोत्तरी भी कर दी गयी है। ऐसे ही लीबिया में विद्रोह दबाने के लिये सरकारी नौकरों के वेतन में 150 प्रतिशत की वृध्दि और हर घर को नकद मदद दी गयी है।
   उत्पादन के हिसाब से देखा जाये तो तेल का प्रतिदिन उत्पादन 3.5 करोड़ बैरल से 8 करोड़ बैरल केेे बीच रहता है। इतना भारी अंतर मांग में उतार चढ़ाव के चलते आता है। 23 जून को इसी साल अमेरिका के दबाव में अंतर्राष्ट्रीय उूर्जा एजंसी ने इसके एमरजेंसी स्टॉक में से अचानक 6 करोड़ बैरल तेल खुले बाज़ार में बेचकर तेल के दामों को ब्रैक लगाने चाहे थे लेकिन यह कदम वक्ती तौर पर ही ऐसा मकसद हासिल कर सका। 31दिसंबर 2010 को कच्चे तेल का खुले बाज़ार में दाम 91.36 डॉलर था जो आज 88 डालर रह जाने के बाद भी अब तक तेल के दाम हमारे देश में 15.38 रूपये तक बढ़ चुके हैं। बताया जाता है कि तेल की खपत तो 25 सालों में 31 प्रतिशत की दर से बढ़ी लेकिन सट्टेबाज़ी की वजह से इसके दाम ढाई गुना तक बढ़ चुके हैं। तेल की खपत 2030 तक चार गुना होने के आसार हैं।
    वैसे ओपेक के कई देशों ने अपने वादे के मुताबिक तेल का उत्पादन खपत के हिसाब से लगातार बढ़ाया है जिससे इसके दाम मात्र 30 डॉलर प्रति बैरल रह गये थे। इस संकट से निबटने के लिये पहले सउूदी अरब ने अपना तेल उत्पादन कम कर दिया और उसके बाद 1986 में अचानक घाटा पूरा करने को जब उसने उत्पादन 250 प्रतिशत तक बढ़ाया तो तेल की कीमत दस डॉलर तक आ गयी। बहरहाल सरकार चाहे तो पैट्रोल पर अपना टैक्स कम करके भी जनता को राहत दे सकती है। 
  0अच्छी नहीं है शहर के रस्तों की दोस्ती,

   आंगन में फैल जाये न बाज़ार देखना।।