Sunday 20 December 2020

कॉंग्रेस नेता नहीं नीति बदले...

कांग्रेस की असली प्रॉब्लम नेता नहीं नीतियां हैं!

0सोनिया गांधी की जगह राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान सौंपने की कवायद एक बार फिर शुरू हो गयी है। कांग्रेस के 23 बड़े नेताओं ने कुछ दिन पहले कांग्रेस हाईकमान को पत्र लिखकर कुछ मांग और सुझाव दिये थे। दो बार संसदीय और बार बार विभिन्न राज्य विधानसभाओं के चुनाव हारने के बाद भी कांग्रेस को यह समझ में नहीं आ रहा कि उसकी मुख्य समस्या पार्टी मुखिया नहीं बल्कि गलतभ्रष्ट और बारी बारी से सभी वर्गों की साम्प्रदायिकताओें को बढ़ावा देना रहा हैै।  

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   कांग्रेस को ताज़ा झटका केरल के स्थानीय निकाय चुनाव मंे लगा है।  इसकी एक बड़ी वजह कांग्रेस का वहां कट्टर मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठन जमात ए इस्लामी के सियासी विंग वैलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया से गठबंधन और हाल ही में क्षेत्रीय दल केरल कांग्रेस के एक गुट का उससे अलग हो जाना माना जा रहा है। वहां कांग्रेस ने संसदीय चुनाव में कुल 20 में से 19 एमपी जिताये थे। इससे पहले कांग्रेस द्वारा शासित राजस्थान में पंचायत चुनाव में कांग्रेस को भाजपा के हाथों शिकस्त खानी पड़ी थी। एमपी में वह अपनी बनी बनाई सरकार भाजपा के हाथों गंवा चुकी है। इससे पहले राजस्थान में भी उसकी सरकार गिरते गिरते बची है। सियासी जानकारांे का कहना है कि कांग्रेस वहां भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायेगी। सच तो यह है कि इन राज्यों में सिंधिया और पायलट जैसे युवाओं को सीएम बनाया जाना चाहिये था। जोकि कांग्रेस ने हिम्मत नहीं दिखाई। बिहार चुनाव में आरजेडी का बेड़ा गर्क करने में भी कांग्रेस को दी गयी 70 सीट मानी जा रही हैं। जिनमें से कांग्रेस मात्र 19 जीती है। इनमें से अधिकांश भाजपा जीती है। इससे पहले यूपी चुनाव में भी कांग्रेस ने सपा से गठबंधन कर लगभग 100सीटें झटक ली थीं। लेकिन उनमें से वह मात्र 6ही जीत सकी थी। इनमें से भी अधिकांश उसकी मुख्य विरोधी भाजपा जीत गयी थी। अखिलेश को कांग्रेस से गठबंधन से पहले मुलायम सिंह ने यही डर जताकर आगाह भी किया था। लेकिन उन्होंने उनकी बात को वेट नहीं दिया था। आंध्रा से अलग होकर बना तेलंगाना हो या उसकी राजधानी हैदराबाद वहां भी कांग्रेस की हालत दिन ब दिन पतली होती जा रही है। इसके विपरीत जुमा जुमा आठ दिन की पार्टी भाजपा वहां निगम चुनाव में इस बार4 से सीध्ेा 48 सीट पर पहुंच गयी है। आप अगर पीछे मुड़कर देखंे तो कांग्रेस एक बार जिस राज्य में चुनाव हार गयी और वहां कोई क्षेत्रीय या अन्य राष्ट्रीय दल सत्ता में आ गया। वहां से कांग्रेस की सदा के लिये विदाई हो गयी। मिसाल के तौर पर यूपी बिहार बंगाल गुजरात त्रिपुरा आंध्रा उड़ीसा दिल्ली तमिलनाडू कर्नाटक महाराष्ट्र सहित यह सूची लंबी है। अब कांग्रेस केवल उन ही राज्यों में विधानसभा चुनाव कभी कभी जीत जाती है। जहां भाजपा का कोई तीसरा और स्थानीय विकल्प नहीं है। दरअसल ऐसा इसलिये हो रहा है क्योंकि कांग्रेस को दीवार पर लिखा यह सच नज़र नहीं आ रहा है कि जनता अब उससे उकता चुकी है। उसके पास जनता के लिये कोई नया सपना नई योजना और विकास का नया मॉडल नहीं है। इसके साथ ही कांग्रेस को यह बात भी समझ में नहीं आ रही कि इस बार उसका पाला जनता पार्टी जनता दल या भाजपा नहीं मोदी और आरएसएस जैसे घाघ नेता और तिगड़मी संगठन से पड़ा है। संघ परिवार ने मेनस्ट्रीम मीडिया सोशल मीडिया खासतौर पर वाट्सएप की फर्जी और फेक पोस्ट्ससंघ की लाखों शाख़ाओं और घर घर संघ वर्कर्स ने जाकर कांग्रेस नेहरू सोनिया राजीव और राहुल की छवि देशविरोधी राष्ट्रविरोधी हिंदू विरोधी मुस्लिम परस्त पाकिस्तान परस्त और इटली और ईसाई समर्थक बना दी है। कांग्रेस पर करप्शन वंशवाद जातिवाद कमीशनखोरी भाईभतीजावाद क्षेत्रवाद भाषावाद और मनमानी के इतने सारे आरोप चिपका दिये गये हैं कि इनका कांग्रेस को खुद अहसास नहीं है कि उसकी छवि कितने बड़े विलेन राक्षस और भस्मासुर की बन चुकी है। कांग्रेस आज भी अपनी कमियों को स्वीकार कर उनमंे सुधार की गंभीर कोशिश करती नज़र नहीं आ रही हैै। विचारकों दार्शनिकोे और समाजविज्ञानियों का कहना है कि जब इंसान अपनी गल्ती मान लेता है तो उसमें उसी दिन से सुधार शुरू हो जाता है। लेकिन कांग्रेस यह मानने को तैयार ही नहीं है कि उसने शाहबानो मामले में मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेककर सुप्रीम कोर्ट का वाजिब मानवीय फैसला पलटकर हिंदू साम्प्रदायिकता का जिन्न खुद बोतल से बाहर उस समय निकाला था। जब उसने उनको भी खुश करने के लिये दशकोें पुराना राममंदिर का विवादित ताला खोला था। उसके बाद राजीव गांधी ने अयोध्या में राममंदिर शिलन्यास करके संघ परिवार की मंुह मांगी मुराद पूरी कर दी। कांग्रेस ने 52 प्रतिशत से अधिक आबादी वाली पिछड़ी जातियों को आज़ादी के 30 साल बाद तक उपेक्षित रखकर केवल      मुस्लिम और दलित वोट बैंक के बल पर चुनाव जीत जीतकर ब्रहम्ण ठाकुर और चंद गिनी चुनी जातियों व वर्गों का एकक्षत्र राज चलाकर उनको विपक्षी दलों के साथ हर कीमत पर जाने को मजबूर किया। जनता पार्टी की सरकार ने पिछड़ी जातियों की भलाई के लिये पहली बार मंडल आयोग बनाया। उसकी सिफारिशों पर अमल करके जनता दल की सरकार ने पिछड़ों को आरक्षण दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि आज उच्च जातियों से कहीं अधिक पिछड़ी जातियां भाजपा के साथ गोलबंद हो चुकी हैं। नोटबंदी तालाबंदी और रोज़गारबंदी से बुरी तरह नुकसान उठाने और पहले से भी अधिक भ्रष्टाचार जंगलराज और तानाशाही के बावजूद आज गैर दलित गैर मुस्लिम गैर अल्पसंख्यक गैर यादव और कुछ और गिनी चुनी आबादी को अपवाद मानकर छोड़ दें तो वे कांग्रेस की बजाये भाजपा के साथ केवल इसलिये चिपकी हुयी हैं कि वे कांग्रेस को भाजपा से बेहतर विकल्प नहीं मानती। क्षेत्रीय दलों में उनका कुछ विश्वास बचा हुआ है। लेकिन वह भी भाजपा जैसी संघ कॉरपोरेट केंद्रीय सत्ता सीबीआई एनआईए ईडी मीडिया सोशल मीडिया ट्रॉल आर्मी सुप्रीम कोर्ट और अन्य कानूनी गैर कानूनी साम दाम दंड भेद के सामने कब तक और कैसे टिकी रहेंगीयह देखना दिलचस्प होगा। कांग्रेस की केवल एक बात मंे दम है कि वह मोदी मीडिया और संघ की तरह हर सही गलत हथकंडा और बांटोे व राज करो की घटिया नीतियां अपनाकर सत्ता में वापसी नहीं करना चाहती तो इसके लिये भी कांग्रेस को अपनी काहिली और खामियां दूर कर जनता का ब्रेनवाश करना होगा और लंबे समय तक वेट एंड वाच की नीति अपनानी होगी। यह बात भी सही है कि आप कुछ लोगों को हमेशा मूर्ख बना सकते हैं। सब लोगों को कुछ समय तक मूर्ख बना सकते हैं। लेकिन सबको हमेशा हमेशा मूर्ख नहीं बना सकतेजैसा कि भाजपा संघ और मोदी  अब तक बनाने में कामयाब लग रहे हैं।                                    

0 लेखक ब्लॉगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Monday 14 December 2020

किसान और पक्ष विपक्ष

किसान के लिये क्या सत्तापक्ष क्या विपक्ष!

0किसान आंदोलन चलते हुए दो सप्ताह से अधिक बीत चुके हैं। लेकिन सरकार उनकी भलाई के नाम पर बनाये गये तीनों नये कानून बिना शर्त वापस लेने को किसी कीमत पर तैयार नहीं है। विडंबना यह है कि जो विपक्ष यानी कांग्रेस और क्षेत्रीय दल आज किसानों की हमदर्दी में मगरमच्छ वाले आंसू बहा रहे हैं। वे कल तक सत्ता में रहते वही सब कुछ कर रहे थे। जो कि आज भाजपा कर रही है। जबकि भाजपा विपक्ष में रहते किसानों के लिये बड़े बड़े दावे और वादे करती थी।    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   आज देश में कॉरपोरेट सैक्टर इतना मज़बूत हो चुका है कि सरकार चाहे कांग्रेस की हो भाजपा की हो या सेकुलर क्षेत्रीय दलों की लेकिन वे सब सत्ता में तो गरीब कमज़ोर और पिछड़े व किसानों का वोट लेकर आती हैं। मगर सरकार बनते ही वे काम अधिकांश पूंजीपति उद्योगपति और व्यापारियों के पक्ष में करने लगती हैं। मिसाल के तौर पर कर्नाटक में हाल ही में एक कानून पास हुआ है। जिसमेें कृषि भूमि खरीदने के लिये किसी का कृषक होने की शर्त हटा दी गयी है। कर्नाटक में भाजपा सरकार है। उसने यह भी नहीं परवाह की कि आजकल किसान पहले ही अपनी मांगों को लेकर बड़ा विरोध आंदोलन चला रहा है। भाजपा का रूख़ किसानों को लेकर किसी से छिपा हुआ नहीं है। लेकिन हैरत और दुख की बात यह है कि वहां की क्षेत्रीय पार्टी जनता दल सेकुलर ने कानून में इस संशोधन का खुलकर समर्थन किया है। हालांकि इसके लिये उसकी पूर्व सहयोगी कांग्रेस और दूसरी विरोधी पार्टियोें के साथ ही किसान संगठन भी जमकर आलोचना कर रहे हैं। लेकिन जद सेकुलर के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री कुमार स्वामी को इसमें कुछ गलत नहीं लगता। उनको एक बार फिर पहले की तरह कांग्रेस की बजाये भाजपा के साथ दिखना अच्छा लग रहा है। हालत यह है कि सत्ता का सुख पाने को कुमार स्वामी किसानों के खिलाफ जाने में भी शर्म महसूस नहीं कर रहे। इतना ही नहीं पंजाब के अकाली दल ने किसानों के पक्ष में हालांकि मोदी सरकार से समर्थन वापस ले लिया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन तीन कानूनों को लाने के बाद ही केंद्र सरकार अचानक किसान विरोधी हो गयीनहीं सबको पता है कि 2014से ही मोदी सरकार हिंदुत्व के नाम पर खुलकर कॉरपोरेट के साथ खड़ी है। ऐसे में जब सरकार आवारा पंूजी यानी कॉरपोरेट के साथ है तो वह किसानों के हित में लाख दावे करे लेकिन उनका भला कर ही नहीं सकती। लेकिन अकाली दल केंद्र की सत्ता में तब तक भाजपा के साथ बना रहा जब तक कि खुद किसान खुलकर अकाली भाजपा गठबंधन के खिलाफ मैदान में नहीं उतर आये। अकाली दल को किसानों के कांग्रेस के साथ जाने का डर था। ऐसे ही आप बिहार में भाजपा के गठबंधन सहयोगी जनता दल यूनाइटेड का नाटक देख सकते हैं। एक तरफ नीतीश कुमार किसानों के साथ होने का दावा करते हैं। दूसरी तरफ किसान विरोधी बिलों को पास कराने में संसद में उनको कोई दिक्कत नहीं होती है। इतना ही नहीं आंकड़े बताते हैं कि पांच प्रतिशत से भी कम किसानों को बिहार में अपनी फसल एमएसपी पर बेचने का अवसर मिलता है। साथ ही एक दशक पहले ही नीतीश सरकार एपीएमसी और मंडी समिति में न्यूनतम समर्थन मूल्य के खिलाफ किसानों की फसल मंडी से बाहर खरीदने को निजी क्षेत्र को अनुमति दे चुकी है। हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की क्षेत्रीय पार्टी भाजपा के साथ सरकार में बने रहने के लिये लगातार दोहरा खेल खेल रही है। वह भाजपा को किसानों से बात करने उनका आंदोलन ख़त्म करने को उनकी मांगे मानने और किसानों पर बल प्रयोग ना करने की बार बार नेक सलाह तो दे रही है। लेकिन मोदी सरकार द्वारा कानून किसी हाल में वापस ना लेेने के दो टूक ऐलान और किसानों को दिल्ली में घुसने से रोकने को अवरोध लगाने पानी की बौछार करने और किसानों पर तरह तरह आरोप लगाने पर वह चुप्पी साधे बैठी है। इतना ही नहीं वामपंथियों व लोकदल को छोड़कर सपा बसपा शिवसेना टीएमसी टीआरएस एनसीपी द्रमुक अन्नाद्रमुक एजीपी एआईएमआईएम वाईएसआर कांग्रेस आम आदमी पार्टी जैसी क्षेत्रीय और धर्मनिर्पेक्ष पार्टियां मात्र किसानों के पक्ष में बयान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करती दिखाई दे रही हैं। वजह यह है कि इनका झुकाव भी बड़े पूंजीपतियों की तरफ हो रहा है। यह बड़े अफसोस और चिंता की बात है कि जिस किसान को देश का अन्नदाता माना जाता है। उसको आज सरकार ही नहीं लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपनी लड़ाई खुद लड़ने के लिये अकेला छोड़ दिया है। कहने को देश में लोकतंत्र है। विपक्ष है। न्यायालय हैं। मीडिया है। लेकिन किसानों की पीड़ा सरकार ही नहीं बाकी सब भी समझने को तैयार नहीं हैं। इतना ही नहीं हर सरकार और सियासी पार्टी किसानों से वोट लेकर सत्ता का सुख तो भोगना चाहती है। लेकिन जिस पंूजीपति से नोट लेती है। जब कानून बनाने की बात आती है तो उस कॉरपोरेट के पक्ष में पूरी बशर्मी और अनैतिकता के साथ खड़ी नज़र आती है। इसकी वजह हालांकि हमारे किसानों में भी अन्य वर्गों व समुदायों की तरह ही धर्म और जाति के नाम पर भावुक होकर वोट देने की पुरानी बीमारी भी है। लेकिन इसका नुकसान आज यह हो रहा है कि भाजपा और मीडिया मिलकर एक सुर में किसानों के जायज़ आंदोलन को तरह तरह के गंभीर आरोप लगाकर ना केवल बदनाम कर रहे हैं। बल्कि यह अहंकारी दावा भी कर रहे हैं कि ये मुट्ठीभर किसान विपक्ष खालिस्तानियों माओवादियों पाकिस्तानियों चीनियों और देशविरोधी शक्तियों के हाथों में खेलकर गुमराह हो गये हैं। जबकि अधिकंाश किसान उनके साथ है। इसका प्रमाण वे यह कहकर देते हैं कि देश में लोकसभा से लेकर तमाम विधानसभाओं पंचायतों स्थानीय निकाय और अन्य उपचुनाव भाजपा लगातार किसानों के वोट और सपोर्ट के बिना नहीं जीत सकती थी। भाजपा की इस बात में काफी दम भी नज़र आता है। लेकिन सवाल तो यह है कि किसानों की समझ में यह बात जाने कैसे और कब तक आयेगी???                            

Saturday 5 December 2020

किसान आंदोलन

सरकारकिसान और कॉरपोरेट!

0मोदी सरकार का वादा था कि वह 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर देगी। लेकिन जब से सरकार ने खेती को लेकर तीन नये कानून बनाये हैं। तब से पूरे देश का किसान इनके खिलाफ आंदोलन कर रहा है। कृषि विशेषज्ञों का दावा है कि सरकार के इन कानूनों से केवल उद्योग जगत को ही लाभ होगा। सवाल यह है कि सरकार किसान और कॉरपोरेट के परस्पर विरोधी हितों को एक साथ कैसे साध सकती है?    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   अगर आप किसानों से जुड़े विवादित तीनों नये कानूनों को विस्तार से पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा कि ये यूपीए की मनमोहन सरकार के ड्रॉफ्ट का ही एक हिस्सा हैं। दरअसल 1991में जब कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने देश को मिश्रित अर्थव्यवस्था यानी समाजवादी प्लस पूंजीवादी से निकालकर एल पी जी मतलब लिबरल प्राइवेट और ग्लोबल की तरफ ले जाने का एकतरफा निर्णय किया था। तब से ही ऐसे कानूनों की नींव पड़ गयी थी। यहां तक कि जीएसटी आधार सब्सिडी रिटेल एफडीआई और मज़दूर विरोधी श्रम कानून तक का मसौदा कांग्रेस नीतिगत रूप से पहले ही तैयार कर गयी थी। लेकिन जनविरोध बढ़ता देख उसकी हिम्मत इनको इस तरह से लागू करने की नहीं हो सकी जिस तरह से आज मोदी सरकार कर रही है। सच तो यह है कि मोदी सरकार का नोटबंदी का ही एकमात्र नया विचार था। जो बुरी तरह ना केवल नाकाम हो गया बल्कि इसने अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया। किसान नये कानूनों को ठीक से जानते भी नहीं। ना ही इनको बनाते समय किसान नेताओं उनकी यूनियनों या कृषि विशेषज्ञों से ठीक से व्यापक विचार विमर्श ही किया गया। किसानों का सबसे बड़ा विरोध इन कानूनों केे ज़रिये एमएसपी यानी फसलों का मिनिमम सपोर्ट प्राइस ख़त्म करना है। अब तक किसानों को अन्याय और शोषण से बचाने का सबसे बड़ा सुरक्षा कवच एमएसपी ही था। इतना ही नहीं इन नये कानूनों के अनुसार किसान के साथ अब अगर प्राइवेट पार्टी पक्षपात और बेईमानी करेगी तो वह कोर्ट भी नहीं जा सकेगा। स्वामीनाथन कमैटी की सिफारिश के मुताबिक एमएसपी तय करना और अनुबंध की शर्तों को तोड़ने के खिलाफ किसान को अदालत जाने का सबसे बड़ा अधिकार दिया जाना था। सबको पता है कि सरकार खुलकर कॉरपोरेट के हाथों में खेल रही है। इसकी वजह2014 से मोटे चुनावी चंदे से चुनाव लड़वाने और हर सरकारी मामले में दख़ल देने की कॉरपोरेट की बढ़ती दिलचस्पी को साफ देखा जा सकता है। यह भी किसी से छिपा नहीं रह गया है कि कॉरपोरेट सबसे अधिक किस पार्टी और किस नेता का चहेता बना हुआ है। यह भी आईने की तरह साफ है कि आज़ादी के बाद से कौन सी सरकार खुलेआम पूरी बेशर्मी और ढीटता के साथ जनविरोधी निर्णय कॉरपोरेट के पक्ष में एक के बाद एक करती रही है। लेकिन यहां यह भी सोचना चाहिये कि जब यही जनता और किसान चुनाव के समय मतदान करते हुए हिंदू मुसलमान बनकर भावनात्मक मुद्दों पर अपने हितों के खिलाफ ही वोट देते हुए ज़रा भी नहीं हिचकता तो क्यों नहीं सरकार उन पूंजीपतियों के हित में झुके जो अपनी पाई पाई का चंदा देते हुए सरकार बनने के बनने के बाद उसको करोड़ों अरबों के लाभ में वसूलने की समझ और ताकत कहीं अधिक रखता है। सवाल यह भी उठ रहा है कि कांग्रेस शासित पंजाब के किसान ही आंदोलन में आगे क्यों हैं?सच यह है  कि पंजाब का किसान बहुत मज़बूत और जागरूक है। वह अकेला ही हरित क्रांति के तहत देश की ज़रूरत का 80 प्रतिशत गेंहू उगाता है। इतना ही नहीं भाजपा शासित हरियाणा का किसान भी कंध्ेा से कंधा मिलाकर सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरा है। कुल 40 किसान मज़दूर यूनियनों की अपील पर यूपी उड़ीसा कर्नाटक बंगाल और केरल राज्य का किसान भी सरकार के इन तीनों कानूनों का तीखा विरोध कर रहा है। यह बात आंशिक रूप से सही हो सकती है कि अधिकांश भाजपा शासित राज्यों के कुछ किसान अभी भी मोदी सरकार पर यह विश्वास करके चुप्पी साधे हों कि मोदी उनका नुकसान कर ही नहीं सकते। हालांकि कृषि संविधान के हिसाब से राज्यों का विषय है। लेकिन मोदी सरकार ने इस पर खुद तीन कानून बनाकर इसके खिलाफ बनाये गये पंजाब सरकार के कानून को भी ओवरटेक कर दिया है। फिर सवाल यह भी है कि क्या भाजपा के राज्यपाल और राष्ट्रपति पंजाब सरकार के इस केंद्र विरोधी कानून को हस्ताक्षर कर मान्यता देंगेअगर यह मामला कोर्ट जायेगा तो वहां के हालात देखते हुए लगता नहीं कि कोर्ट इस मामले में केंद्र के खिलाफ कोई स्टे करेगाएक सवाल यह उठ रहा है कि किसानों ने आंदोलन करने से पहले सरकार से बात क्यों नहीं कीविरोध प्रदर्शन करने से पहले किसान प्रतिनिधि तीन बार सरकार से बात करने दिल्ली आये लेकिन कृषि मंत्री ने उनको मिलने का टाइम तक नहीं दिया। सरकार की नीयत में खोट इससे भी पता चलता है कि वह एमएसपी नहीं हटाने का दावा तो कर रही है। लेकिन इसको कानूनी रूप देने को तैयार नहीं है क्योंकि इससे उसका चहेता कॉरपोरेट मनमाने दामों पर फ़सलें खरीदकर किसानों का शोषण नहीं कर सकेगाकिसानों का डर और नाराज़गी बिल्कुल वाजिब और जायज़ है कि सरकार जब किसानों को कॉरपोरेट के हवाले करके खुद बीच में से निकल जायेगी तो बड़े बड़े व्यापारी पंूजीपति उद्योगपति और विदेशी कंपनियां उनसे एग्रीमंेट के नाम पर ना केवल औने पौने दामों में बेशकीमती उपज एक तरह से लूट लेंगी बल्कि उनको बंधक बनाकर धीरे धीरे उनकी ज़मीनें भी एक दिन कब्ज़ा लेंगी जिससे वे या तो अपने ही खेतों में दिहाड़ी मज़दूर बन जायेंगे या फिर शहरों में आकर पेट भरने को रोज़गार तलाश करने को मजबूर हो जायेंगे। किसानों की यह मांग बिल्कुल सही और संवैधानिक है कि सरकार देश की आबादी के आधे से अधिक यानी किसानों को कॉरपोरेट के रहमो करम पर छोड़कर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती। अगर वह कॉरपोरेट सैक्टर को खेती किसानी में लाना चाहती है तो पहले किसान और खेतीहर मज़दूरों के लिये वैकल्पिक रोज़गार की व्यवस्था करना उसका कर्तव्य बनता है।                                       

लव जेहाद क्या है?

लव जेहाद है बहानाथोड़ी हक़ीक़तबाक़ी फ़साना!

0गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी ने केरल के चर्चित हादिया मामले में इसी साल 4 फ़रवरी को संसद में स्पश्ट किया था कि किसी भी केंद्रीय एजेंसी द्वारा लव जेहाद का कोई भी मामला आज तक रिकॉर्ड नहीं किया गया है। हालांकि हाल ही में यूपी सरकार ने इस आश्य का एक कानून बनाया है। लेकिन उसने भी इसमें लव जेहाद का कहीं उल्लेख नहीं किया है। भाजपा शासित एमपी सहित कई अन्य राज्य ऐसा ही कानून बनाने जा रहे हैं। लेकिन वे भी लव जेहाद शब्द से परहेज़ कर रहे हैं। कई प्रदेशों में धर्म परिवर्तन को लेकर पहले ही ऐसे कानून मौजूद हैं।    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   आज़ादी के बाद ही जबरन धर्म परिवर्तन रोकने के लिये संसद मंे पहली बार 1954 में भारतीय विनियमन एवं पंजीकरण विधेयक लाया गया था। इसके बाद 1960 और 1979 में एक बार फिर से ऐसे ही विधेयक लाये गये लेकिन ये तीनों बार पास नहीं हो सके। अलबत्ता अलग अलग धर्मों और जातियों के लोगांे की शादी के लिये 1954 में स्पेशल मैरिज एक्ट ज़रूर बन गया था। इतना ही नहीं ऐसे अंतरधार्मिक और अंतरजातीय  विवाह करने वालों को सरकार की तरफ से कुछ प्रोत्साहन रााशि भी दी जाती रही है। लेकिन सवाल यह है कि अचानक लव जेहाद शब्द कहां से चर्चा में आ गयादरअसल देश की राजनीति धर्म जाति भाषा दंगों नफ़रत हिंसा क्षेत्र तरह तरह की भावनाओं और कोरे झूठ के नाम पर बहुत लंबे समय से सफलतापूर्वक चल रही है। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि लव जेहाद जैसा फ़र्ज़ी और बनावटी शब्द घड़कर भी बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यकों के वोटों का ध्रुवीकरण आसानी से किया जा सकता है। आज संघ परिवार ने ऐसा माहौल बना दिया है। जिसमें मुसलमान होना दलित होना अल्पसंख्यक होना सेकुलर हिंदू होना निष्पक्ष नागरिक होना वामपंथी होना बुध््िदजीवी होना और मानवाधिकार समर्थक होना समानतावादी होना न्यायवादी और संविधानवादी होना आपको शक के दायरे में या हिंदू व राष्ट्र विरोधी मानकर अर्बन नक्सल आतंकवादी माओवादी पाकिस्तानी जेहादी ना जाने क्या क्या तमग़ों से नवाज़ा जा सकता है। सबको पता है कि एक देश में जब विभिन्न धर्मों के लोग साथ साथ रहते हैं तो उनमें हर तरह के रिश्ते बनना स्वाभाविक ही है। इसी तरह से हिंदू मुस्लिम लड़के लड़कियों के बीच प्रेम सम्बंध और शादी होना भी आम बात रही है। सवाल तब खड़ा होता है जब शादी के लिये लड़की का धर्म परिवर्तन कराया जाता है। सच यह भी है कि हिंदू समाज की लड़कियों की मुस्लिम लड़कों से ऐसी इंटरफेथ मैरिज ही अधिक होती रही हैं। साथ ही हिंदू लड़कियों का धर्म परिवर्तन ऐसे मामलों में हर हाल में किया जाता है। नहीं तो कोई मुस्लिम लड़का मज़हबी तौर पर ऐसी शादी कर नहीं सकता है। इसके उलट मुस्लिम लड़कियां अव्वल तो हिंदू लड़कों से इस तरह की शादियां कम ही करती हैं। लेकिन अब उनके केस भी काफी बड़ी तादाद में देखने में आ रहे हैं। साथ ही उन पर हिंदू बनने का आमतौर पर कोई दबाव भी नहीं होता है। इसकी वजह कोई सोचा समझा इस्लामी मिशन लव जेहाद या साज़िश नहीं बल्कि हिंदू आबादी80 प्रतिशत होना महिलाओं का बिना पर्दा रहना अधिक शिक्षित आध्ुानिकता प्रगतिशीलता उदारता व वैचारिक खुलापन है। जबकि मुस्लिम आबादी 15 फीसदी होना लड़कियों का पर्दे में रहना घर से अकेले बाहर ना निकलना कट्टरता दकियानूसी परंपरवादी तंगनज़र अशिक्षित या कम शिक्षित होना साथ ही प्रेम सम्बंध पकड़े जाने पर मौके पर ही जान से मार देने का ख़तरा अधिक होना आदि अनेक कारण हैं। जहां तक धर्म परिवर्तन का सवाल है। आज़ादी से पहले देश की चार रियासतों राजगढ़ में 1936 में पटना में 1942 में सरगुजा में 1945 में और उदयपुर में 1946 में हिंदुओं के ईसाई बनने से रोकने को ऐसे कानून बने थे। इसके बाद आज़ाद भारत में 10 मई 1995 को सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू पुरूषों के दूसरी शादी करने को इस्लाम अपनाने के बढ़ते मामले देखते हुए सरला मुदगल बनाम यूनियन आफ इंडिया केस में धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून बनाने की संभावना तलाशने को एक कमैटी बनाने का सुझाव दिया था। आज भी धर्म परिवर्तन रोकने को कोई कानून ना तो बना है और ना ही बनने की संभावना है। इसकी वजह यह है कि संविधान धर्म परिवर्तन करने और अपनी मर्जी के साथी से विवाह करने की इजाज़त देता है। इतना ज़रूर है कि किसी को डरा धमका कर या लालच देकर धर्म परिवर्तन नहीं कराया जा सकता। अब सवाल यह है कि जब संविधान में धर्म बदलने और किसी से भी शादी करने और गलत तरीके से धर्म बदलने पर कानूनी कार्यवाही करने का पहले से ही प्रावधान है तो लव जेहाद के नाम पर यूपी और अन्य भाजपा शासित राज्य इस बारे में नये कानून लाने पर क्यों ज़ोर दे रहे हैंतो इसका जवाब है हिंदू वोटों की राजनीतिइन कानूनों को आज नहीं तो कल कोर्ट में चुनौती मिलेगीजहां इनका संवैधानिक तौर पर टिकना मुश्किल होगा। सुप्रीम कोर्ट और राज्यों के हाईकोर्ट ना केवल ऐसे लगभग सभी मामलों में धर्म परिवर्तन और अंतरधार्मिक व अतंरजातीय विवाहोें को संरक्षण और मान्यता देते रहे हैं बल्कि उनके परिवार सरकार और पुलिस को ऐसे जोड़ों को परेशान करने डराने धमकाने पर जमकर फटकार भी लगाते रहे हैं। एमपी की सरकार भी यूपी की तरह लव जेहाद पर कानून लाने जा रही है। हालांकि वहां 1968 से ही ऐसा कानून मौजूद है। इसके साथ ही कर्नाटक हरियाणा असम में भी धर्म परिवर्तन के खिलापफ कानून लाने की चर्चा तेज़ हो गयी है। पहले तमिलनाडू सहित नौ राज्यों में ऐसे कानून रहे हैं। लेकिन2003 में वहां इस कानून को निरस्त कर दिया गया था। जबकि गुजरात झारखंड ओड़िशा हिमाचल प्रदेश अरूणाचल प्रदेश उत्तराखंड राजस्थान और एमपी में ऐसे कानून पहले से ही मौजूद हैं। पड़ौसी देशों को देखें तो पाकिस्तान नेपाल भूटान श्रीलंका और म्यांमार में भी धर्म परिवर्तन विरोधी कानून हैं। पाकिस्तान में तो जबरन धर्म परिवर्तन कराने पर उम्रकैद की सज़ा का प्रावधान है। लेकिन वहां कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम इसके बावजूद बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यकों का बेखौफ धर्म परिवर्तन कराकर उनके समाज की लड़कियों से जबरन अपहरण करके शादी करते रहते हैं। भारत में भी हिंदू समाज में यह डर और नफरत बड़े पैमाने पर फैल चुकी है कि मुसलमान परिवार नियोजन तो अपनाते ही नहीं उल्टा लव जेहाद के बल पर एक दिन बहुसंख्यक बनकर भारत को इस्लामी देश बना सकते हैंइसी लिये लव जेहाद के खिलाफ कानून बनाने की होड़ लगी हुयी है।                                       

Monday 23 November 2020

बिहार चुनाव

बिहार चुनाव परिणाम एक कारण अनेक!

एक बार फिर सारे एक्ज़िट पोल झूठे साबित हो गये। बिहार ही नहीं कई अन्य राज्यों में पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं पहले चरण के चुनाव में महागठबंधन ने दो तिहाई सीटें जीतीं हैं। दूसरे चरण में वह पिछड़ने के बावजूद लगभग बराबर पर आया तो तीसरे चरण में फिसलकर सीध्ेा एक चौथाई पर पहंुच गया। इसका बड़ा कारण महिलाओं का अधिक मतदान, एनडीए का चुनाव में उच्च जातियों का ध्रुवीकरण और एआईएमआईएम का मुस्लिम वोटों में सेंध लगाना माना जा रहा है।

-इक़बाल हिंदुस्तानी

कोरोना महामारी लॉकडाउन और आर्थिक मंदी से जीडीपी माईनस में जाने के बाद बिहार राज्य का पहला चुनाव था। जिस पर पूरे देश की नज़रें यह देखने के लिये लगी हुयी थीं कि क्या देश की राजनीति बदल रही है? लेकिन बिहार ने जवाब दे दिया है कि आज भी अपवादों को छोड़कर पहले की तरह मोदी का जलवा कायम है। यह ठीक है कि जब देश में केंद्र और राज्यों के स्तर पर लगभग सभी विपक्षी दल थके हारे और ढलान पर नज़र आ रहे हैं। ऐसे में आरजेडी के युवा नेता तेजस्वी यादव ने महागठबंधन का सफल नेतृत्व करते हुए बिहार में एनडीए के जनता दल यू व भाजपा को लोहे के चने चबाने पर मजबूर ही नहीं किया बल्कि मतगणना में अंत तक कांटे की टक्कर देकर सीएम से लेकर पीएम तक की सांसे रोक कर रख दी थी। इतना ही नहीं तेजस्वी ने अपने पिता के जेल में होने धन और अन्य संसाधनों की कमी होने और चुनाव से ठीक पहले अपने दल के कई बड़े नेताओं और सहयोगी छोटे दलों के साथ छोड़ने के बावजूद इतना शानदार और जानदार चुनाव लड़ा कि जीतने वाले भी उनका लोहा मानने पर मजबूर हो गये। सबसे बड़ा आकर्षक वादा महागठबंधन का सरकार बनते ही दस लाख सराकारी नौकरी देना था। लेकिन लालू यादव के जंगल राज का जैसे ही तेजस्वी को पीएम ने युवराज बताया, चुनावी समीकरण बदल गये। चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि दो तिहाई से अधिक उच्च जातियों का वोटर एनडीए के पक्ष में इसके बाद लामबंद हो गया। पीएम की छवि उनका विकास का दावा और केंद्र सरकार भाजपा की होना भी एनडीए के पक्ष में गया। हालांकि लोकजनशक्ति पार्टी ने एनडीए से बगावत करके जदयू को 25 से 30 सीट हरा दीं। लेकिन इसकी क्षतिपूर्ति महागठबंधन के मुस्लिम वोट में सेंध लगाकर औवेसी की पार्टी एमआईएम से पूरी कर दी। अंतर बस इतना रहा कि जहां जदयू नुकसान उठाकर भी अपनी सीट काफी कम होने पर भी  सत्ता में वापस आने में कामयाब रहा वहीं महागठबंधन एमआईएम के मात्र 5 सीट जीतने और इससे अधिक पर मुस्लिम वोट बंटने व पूरे राज्य में हिंदू वोटों के भाजपा के पक्ष में प्रतिक्रिया के रूप में ध्ु्रावीकरण होने से सत्ता के पास आकर दूर रह गया। महागठबंधन की हार के कई कारण हैं। कुछ सामने आने लगे हैं। कुछ भविष्य में सामने आयेंगे। फिलहाल कांग्रेस को 70 सीट दिया जाना भी तेजस्वी की नासमझी माना जा रहा है। कांग्रेस इनमें से केवल 19 सीट जीत पाई है। इसका कारण कांग्रेस की 70 साल की सत्ता में रहकर की गयीं ढेर सारी नालायकी भ्रष्टाचार और मनमानी मानी जा रही है। खुद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता तारिक अनवर ने इस कमी को स्वीकार भी किया है। उधर तेजस्वी ने वामपंथियों को मात्र 29 सीट लड़ने को दीं थीं लेकिन वे उनमें से 16 जीतकर भाजपा और आरजेडी जैसी सबसे बड़ी पार्टियों से भी अधिक जीत का स्ट्राइक रेट का रिकॉर्ड बनाने में कामयाब रहे। बताया जाता है कि वामपंथियों ने ही महागठबंधन की चुनाव रणनीति घोषणापत्र और चुनावी मुद्दे तय करने में मदद की थी। कामरेडों ने उन सीटों पर भी महागठबंधन के प्रत्याशियों के लिये जीजान से दिन रात काम किया। जहां वे खुद चुनाव नहीं लड़ रहे थे। अगर कांग्रेस को 70 की जगह 50 सीट देकर कम्युनिस्टों को 29 की बजाये 50 सीट दी जाती तो निश्चित रूप से आज तेजस्वी बिहार के इतिहास के सबसे युवा सीएम की शपथ ले रहे होते। लेकिन आप नोट कर लीजिये आज नहीं तो कल तेजस्वी को एक दिन बिहार की सत्ता में आना ही है। इस मामले में भाजपा के पूर्व एमपी और जाने माने दलित नेता व कांग्रेसी उदित राज ने इवीएम मंे गड़बड़ी का राग एक बार फिर छेड़ा है लेकिन वीवीपेट मॉक वोटिंग और राजस्थान एमपी छत्तीसगढ़ पंजाब और दिल्ली में विधानसभा जीतने वाले गैर भाजपा दलों को बिना ठोस सबूत अपनी हार का ठीकरा इवीएम पर फोड़ने का कोई हक नहीं है। हम यह नहीं कह सकते कि ईवीएम में गड़बड़ी नहीं हो सकती लेकिन जब तक यह साबित ना हो जाये तब तक ईवीएम भी उस आरोपी की तरह निरपराध है। जिसको कोर्ट में दोषी साबित नहीं किया जा सकता है। सबसे बड़ा आरोप महागठबंधन ने उन एक दर्जन से अधिक सीटों को हराने को लेकर लगाया था। जिनपर हार जीत का मार्जिन एक हज़ार वोट से कम था। चुनाव आयोग ने इस आरोप को गंभीरता से लेते हुए यह साबित कर दिया है कि जिन सीटों पर डाक मतपत्र बड़ी संख्या में निरस्त किये गये थे। उनमें एकमात्र हिल्सा सीट है। जिसपर आरजेडी का उम्मीदवार उतने यानी 12 वोट से हारा है। जबकि कैंसिल हुए बैलेट पेपर की तादाद यहां 182 थी। इसके अलावा बाकी 10 सीट पर अगर रद्द डाक मतपत्र जोड़े भी जायें तो हार जीत का अंतर इतना अधिक है कि जीतने वाले दल पर कोई असर नहीं पड़ेगा। साथ ही इन 10 में से 3 सीट खुद आरजेडी और एक एक सीपीआई एलजेपी और निर्दलीय ने जीती है। इसके साथ ही हिल्सा सीट पर आयोग ने आरजेडी प्रत्याशी की मांग पर तत्काल फिर वोटों की गिनती भी करा दी थी। इस चुनाव मेें एलजेपी ने जहां खुद एक सीट जीतकर जदयू को काफी नुकसान और भाजपा को अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुंचाया है। वहीं यही काम औवेसी की एमआईएम ने जाने अनजाने में महागठबंधन को नुकसान पहंुचाकर 5 सीट जीतीं हैं लेकिन उसके ऐसा करने से भापजा के साथ हिंदू वोटों का जबरदस्त ध््राुवीकरण हुआ है। एक सबसे बड़ा कारण महिला वोटों का 10 प्रतिशत से अधिक मतदान एनडीए के पक्ष में गया है। इससे हार जीत की 15 सीटों का अंतर पट गया है। हालांकि महिला मतदाता नीतीश सरकार के शराब पर रोक लगाने और छात्राओं को लंबे समय से साइकिल दिये जाने से खुश होकर उनके दल के पक्ष में वोट दे रही थीं लेकिन इसका अधिक लाभ भाजपा को मिल गया। पीएम उज्जवला योजना गरीबों को मकान कई माह से निशुल्क राशन किसान सम्मान योजना विधवा पेंशन और अन्य कल्याणकारी केंद्र की योजनाओं का भी एनडीए को चुनावी जीत में लाभ मिला है। लेकिन सौ टके का सवाल यही है कि आखिर कब तक एनडीए और भाजपा भावनाओं सम्प्रदाय और जातियों की राजनीति से सत्ता पाकर सरकार बना और चला सकती है?

ओवैसी की सियासत...

औवेसी: उभरती सियासतकिसकी आफ़त,किसको राहत?

0तेलंगाना से निकलकर पहले महाराष्ट्र और अब बिहार में पांव जमा रही औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम पर आजकल पूरे देश और खासतौर पर मुसलमानों में चर्चा गर्म है। जहां कुछ लोग उनको सेकुलर दलों के वोट काटकर भाजपा को लाभ पहुंचाने वाला बता रहे हैं। वहीं मुसलमानोें का एक वर्ग जिनमें नौजवानों की बड़ी तादाद हैका मानना है कि लोकतंत्र मेें जब सबको अपनी पार्टी बनाने चुनाव लड़ने और सरकार में भागीदारी का अधिकार है तो मुसलमानों को भी ऐसा ही हक क्यों नहीं होना चाहिये।    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   बिहार चुनाव के बाद जाने माने शायर मनव्वर राणा औवेसी से बहुत नाराज़ हैं। उनका आरोप है कि औवेसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहाद उल मुस्लिमीन भाजपा की बी टीम है। वे यह भी कहते हैं कि औवेसी भाजपा के हिंदूराष्ट्र के मिशन को आगे बढ़ाने में मदद कर रहे हैं। उनका दावा है कि एमआईएम ने भले ही5 विधायक जिताकर मुसलमानों को खुश किया हो लेकिन वे यह नहीं देख पा रहे कि इन ही औवेसी ने बिहार के सीमांचल में 21 सीटों पर चुनाव लड़कर पांच के साथ 11 दूसरी मुस्लिम बहुल सीटें भी महागठबंधन को हराकर एनडीए के सत्ता में आने का रास्ता साफ कर दिया है। उनका कहना है कि मुसलमान चंद मुस्लिम विधायक जिताकर तेजस्वी के नेतृत्व में बनने वाली एक सेकुलर गरीब और पिछड़े व कमज़ोर वर्ग की समर्थक सरकार बनने से रोककर क्या हासिल कर सकते हैंउधर औवेसी ने दावा किया है कि उन्होंने चुनाव से पहले महागठबंधन के नेताओं से मिलकर चुनाव लड़ने की पेशकश की थी। लेकिन किसी ने उनको संजीदगी से नहीं लिया। इसलिये उनका यह ठेका नहीं है कि उनके अलग चुनाव लड़ने से कौन जीतता है और कौन हारता है?इसके साथ ही औवेसी ने आने वाले यूपी और बंगाल के चुनाव मंे भी अपने प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर दिया है। उन्होंने अपने आलोचकों का मंुह बंद करने को ममता बनर्जी को साथ मिलकर लड़ने और भाजपा को सरकार बनाने से रोकने का प्रस्ताव भी दे दिया है। यह ठीक है कि भारत में लोकतंत्र है। यहां किसी को भी अपनी पार्टी बनाकर चुनाव लड़ने और सरकार बनाने का अधिकार है। जहां तक औवेसी का सवाल है। बेशक उनकी पार्टी धर्म के नाम पर बनाई गयी है। साथ ही वे अधिकांश मुस्लिम मुद्दों और मुस्लिम बहुल सीटों पर चुनाव लड़कर इसकी पुष्टि भी करते रहे हैं। उनकी सभाओं में धार्मिक नारे भी लगते हैं। लेकिन अगर यह सब गैर कानूनी या असंवैधानिक होता तो उनकी पार्टी को चुनाव आयोग से पंजीकरण और मान्यता नही मिलती। यह मिल भी गयी थी तो निरस्त हो सकती थी। मगर शिवसेना और अकाली दल भी ऐसी ही धर्म आधारित पार्टी रही हैं। खुद भाजपा भले ही खुद को हिंदू पार्टी के नाम से पहचान कराने से बचती हो। लेकिन सब जानते हैं कि वह खुलेआम हिंदुत्व की राजनीति करती है। लेकिन जब कोई भी व्यक्ति या दल दूसरे धर्म के लोगों का विरोध नुकसान और उनके खिलाफ घृणा व हिंसा तक फैलाने लगता है तो वह साम्प्रदायिक और कट्टर कहलाता है। कौन कौन से सियासी दल धार्मिक की बजाये कट्टर साम्प्रदायिकता की सियासत कर रहे हैंयह किसी से छिपा नहीं है। सवाल यह उठता है कि जो भाजपा सरकार पूरे विपक्ष के पीछे हाथ धेकर पड़ी है। वह लगभग 15000 करोड़ की सम्पत्ति वाले मुस्लिम मुद्दों की सियासत करने वाले और अकसर विवादित बयान देने वाले औवेसी को लालू और मायावती की तरह जांच के नाम पर परेशान क्यों नहीं करतीउनके पास पूरे देश में सियासत करने को करोड़ों अरबों के संसाधन कहां से आ रहे हैंउनको मुख्यधारा का मीडिया इतना सयम और अहमियत किसके इशारे पर देता है कि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस सपा बसपा राजद या वामपंथियों को भी इसके मुकाबले आधा या चौथाई वेट भी नहीं मिलता हैसाथ ही अकसर देखा गया है कि टीवी चैनल औवेसी को ना केवल अपनी बात पूरी कहने का खुला मौका देते हैं बल्कि उनसे तीखे या चुभते हुए वैसे सवाल भी नहीं करते जैसे वे अन्य विपक्षी दलों से करके उनको देशद्रोही देशविरोधी और हिंदू विरोधी साबित करने पर तुले रहते हैं। सवाल यह भी है कि जो भाजपा और संघ के नेता आयेदिन कांग्रेस और कम्युनिस्टों से उल्टे सीधे सवाल पूछकर उनको पाकिस्तान आतंकवाद और मुसलमानों का एजेंट बताते रहते हैं। वे भी किसी गुप्त समझौते या छिपी हुयी योजना के तहत कभी भी औवेसी से ऐसे असुविधाजनक और मुसीबत मेें डालने वाले सवाल नहीं पूछते। इतना ही नहीं खुद औवेसी जितने हमलावर भाजपा या संघ पर नज़र आते हैं। चुनाव लड़ते समय सेकुलर दलों का अधिक नुकसान करते दिखते हैं। यानी उनकी कथनी और करनी में ज़मीन आसमान का अंतर हैै। असल खेल यह है कि भाजपा ने बड़े जतन से कांग्रेस को मुस्लिम परस्त पार्टी साबित करने का अभियान शुरू किया था। लेकिन राहुल गांधी ने गुजरात चुनाव में दर्जनों मंदिर जाकर अपना जनेउू दिखाकर खुद को शिवभक्त साबित किया तो वहां कांग्रेस बिहार की तरह भाजपा को कांटे की टक्कर देने मंे सफल हो गयी। इसके बाद कांग्रेस ने तीन तलाक कश्मीर की धारा 370दिल्ली दंगा एनआरसी सीएए और मुस्लिम मुद्दों पर चुप्पी या नपा तुला औपचारिक बयान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर हिंदुओं को राम मंदिर का ताला खुलवाने शिलान्यास कराने और भाजपा को सत्ता तक पहंुचने देने का अहसास कराया तो वह राजस्थान छत्तीसगढ़ और एमपी में नरम हिंदुत्व के बल पर भाजपा से सत्ता छीनकर अपनी सरकार बनाने में सफल हो गयी। इसके बाद भाजपा ने अपनी रण्नीति बदलकर कांग्रेस सहित तमाम क्षेत्रीय सेकुलर दलों पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाना तो जारी रखा। लेकिन पहले से बनी बनाई कट्टर साम्प्रदायिक और संकीर्ण औवेसी की मुस्लिम पार्टी एआईएमआईएम को आगे रखकर हिंदू बनाम मुस्लिम सियासत की बिसात बिछानी शुरू कर दी। आज इसी का नतीजा है कि सेकुलर दल अपना परंपरागत मुस्लिम वोटबैंक औवेसी की तरफ जाने से जहां उसको अपने सियासी वजूद के लिये नई आफ़त मान रहे हैं। वहीं सेकुलर दलों की बार बार हार से निराश बचा खुचा हिंदू वोट भी धीरे धीरे औवेेसी की मुस्लिम सियासत को बड़ा ख़तरा मानकर भाजपा की तरफ जाने को मजबूर हो सकता है। इसके कुछ नमूने हम महाराष्ट्र और बिहार में हाल ही में देख चुके हैं। यह मानना पड़ेगा कि यह संघ परिवार की कूटनीति की बड़ी सफलता है कि जिन औवेसी को आज मुसलमान अपना मसीहा समझ रहे हैं। वे जाने अंजाने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देकर उल्टा उसी हिंदू साम्प्रदायिकता को मज़बूत करेंगे जिससे लड़ने हराने और देश को बचाने का वह दावा करते हैं।                                    

Sunday 25 October 2020

बेशर्म चैनल

बेशर्म चैनल: कोर्ट की फटकारफिर भी नहीं शर्मसार?

0फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के मामले को टीवी चैनलों ने जिस बेशर्मी और गैर कानूनी तरीके से सनसनीखेज ख़बरों और खोजी पत्रकारिता के नाम पर मीडिया ट्रॉयल किया। वह अब हाईकोर्ट की नज़र मंे आ गया है। अब टीआरपी विवाद के बाद चंद चैनल अपनी ओछी और नापाक हरकतों की वजह से कोर्ट के शिकंजे में फंसते नज़र आ रहे हैं। उधर बॉलीवुड के 30 बड़े प्रोडक्शन हाउस बॉलीवुड की जानी मानी फिल्मी हस्तियों को बदनाम करने के लिये चैनलों के खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटा चुके हैं।      

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   बॉम्बे हाईकोर्ट ने सुशांत सिंह राजपूत के सुसाइड केस के मीडिया ट्रॉयल पर ज़बरदस्त नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहा है कि मीडिया आज ध््रुावीकृत हो चुका है। कोर्ट ने यह भी कहा कि पहले मीडिया निष्पक्ष और पत्रकार ज़िम्मेदार हुआ करते थे। कोर्ट ने कहा कि यह रेग्युलेशन का नहीं चैक एंड बैलेंस का मामला है। मीडिया को पता होना चाहिये कि उसकी सीमा कहां तक है। अदालत का कहना था कि हमारे देश में कानून का राज है। ऐसे में आप मीडिया ट्रॉयल कैसे कर सकते हैंन्यायालय ने यहां तक कह दिया कि अगर आप यानी मीडिया खुद ही जांचकर्ता अभियोजक और न्यायधीश बन जायेगा तो हम यानी जज यहां क्या करेंगेहाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के नेतृत्व में इस केस की सुनवाई कर रही बैंच ने पूछा कि जिस केस की सरकारी एजंसी जांच कर रही है। उसमें मीडिया जांच पूरी हुए बिना कोई निष्कर्ष सामने आये बिना खोजी पत्रकारिता के नाम पर किसी की गिरफतारी की मांग कैसे कर सकता हैआपको याद दिला दें कि रिपब्लिक टीवी ने ट्वििटर पर अरैस्ट रिया हैशटैग चलाया था। सवाल यह है कि किसी चैनल को यह अधिकार किसने दिया कि वह बिना किसी पुख्ता सबूत ठोस बुनियाद और अंतिम जांच पूरी हुए जनता से इस मुद्दे पर राय जाने कि किस मामले में किसको जेल भेजा जाना चाहियेकोर्ट ने इस बात पर सख़्त नाराज़गी दर्ज की कि कैसे एक चैनल सुशांत केस में यह तय हुए बिना कि उसने आत्महत्या की या उसकी वास्तव में हत्या ही हुयी हैउसको हत्या बताकर किसी को जेल भेजने की मांग कर सकता हैजांच की शक्ति भारतीय दंड आचार संहिता के तहत चैनल को नहीं पुलिस को मिली हुयी है। बैंच का यह भी कहना था कि वह मीडिया की सुशांत केस की रिपोर्टिंग को बिल्कुल भी सही नहीं मानता। पत्रकारों को ऐसे मामलों में ख़बर या चर्चा करते हुए खासतौर पर आत्महत्या के संवेदनात्मक मामलों में कानूनन तय की गयीं बारीकियों और नियमों का पालन हर हाल में करना चाहिये। मीडिया भी संविधान नियम कानून से बाहर जा कर कुछ भी बोलने दिखाने और करने के लिये स्वतंत्र नहीं है। किसी की मौत पर मीडिया अपनी टीआरपी बढ़ाने को सनसनीखेज़ या किसी को बिना ठोस सबूत व जांच के सज़ा दिलाने की मांग भी नहीं कर सकता। मीडिया को मरने वाले का सम्मान मर्यादा और संयम रखना ही होगा। कोर्ट ने नेशनल ब्रॉडकास्टर फेडरेशन को भी कटघरे में खड़ा करते हुए उससे सवाल किया कि उसने ऐसे मीडिया ट्रॉयल पर बिना किसी के शिकायत किये खुद ही नोटिस क्यों नहीं लियाइसके बाद न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड ऑथोरिटी ने आजतक ज़ी न्यूज़ इंडिया टीवी और न्यूज़-24 को इस मुद्दे पर गैर ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग का दोषी मानते हुए अपने दर्शकों से बिना शर्त माफी मांगने का आदेश जारी कर दिया है। लेकिन ये टीवी चैनल इतने ढीट और निर्लज हो चुके हैं कि इसके खिलाफ भी स्टे को कोर्ट ज़रूर जायेंगे। उधर दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मामले में जमकर ज़ी टीवी की क्लास लगाई है। कोर्ट ने चैनल से पूछा कि वह जामिया के एक छात्र पर लगाये गये अपने गंभीर आरोपों का श्रोत बताये। उधर पुलिस ने कोर्ट में अपनी जान बचाने को साफ कह दिया कि उसने चैनल को छात्र से पूछताछ में मिली सनसनीखेज गोपनीय जानकारी लीक नहीं की है। इसका मतलब चैनल ने मनगढ़ंत आरोप लगाये हैं। इस मामले में या तो पुलिस फंसेगी या फिर चैनल पर झूठी ख़बर चलाने का केस चलेगा। बॉलीवुड के 30 बड़े प्रोडक्शन हाउस ऐसे ही चैनलों पर लगाम लगाने उनकी जवाबदेही तय करने और दोषी पाये जाने पर उनको सज़ा और फिल्मी हस्तियों को करोड़ों का मानहानि का मुआवज़ा दिलाये जाने की मांग को लेकर हाईकोर्ट पहंुच गये हैं। उनका कहना है कि सुशांत सिंह राजपूत के मामले में सीबीआई और एम्स की जांच में यह साबित हो चुका है कि उसकी हत्या नहीं बल्कि उसने निजी कारणों से आत्महत्या की थी। लेकिन सुशांत केस के बहाने ना केवल अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती का चैनलों ने खुला चरित्र हनन किया बल्कि पूरी फिल्म इंडस्ट्री को नशेड़ी और शराबी बताकर बदनाम किया। इस मामले में भी चैनल फंसते नज़र आ रहे हैं। ऐसी ही कई अन्य जनहित याचिकायें चैनलों के खिलाफ देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में पहुंच चुकी हैं। एक कहावत है कि शेर को इंसान का खून मुंह लग जाये तो वह फिर आदमखोर हो जाता है। ऐसा ही कुछ मामला आजलक टीवी चैनलों का लग रहा है कि पहले उन्होंने सत्ता के इशारे पर एक वर्ग विशेष को निशाने पर लिया। वह अल्पसंख्यक वर्ग चैनलों का कुछ नहीं बिगाड़ पाया तो इन चैनलों ने फिर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को विलेन बनाना शुरू किया। इसके बाद इन्होंने सारे विपक्ष को देश का दुश्मन साबित करना चालू कर दिया। इसके बाद एक के बाद दूसरी जाति विशेष को तमाम अपराधों के लिये कसूरवार ठहराने का अभियान छेड़ दिया। इतना ही नहीं अपने पूंजीपति मालिकों के इशारे पर सत्ता के एजेंडे को लगातार आगे बढ़ाते हुए ये चैनल हर दिन नया शिकार तलाश कर सभी निष्पक्ष हिंदुओं व जनवादी समाजवादी सेकुलर मानवतावादी और योग्य विद्वानों को देशद्रोही राष्ट्रविरोधी और अर्बन नक्सली बताने में ज़रा भी शर्म और संकोच नहीं करते हैं। लेकिन अब हाईकोर्ट के सख़्त और गंभीर रूख़ को देखकर लगता है कि सरकार के ना चाहने या इनके पंूजीपति मालिकों के खुले सपोर्ट के बावजूद इन चैनलों की मनमानी आगे चलनी मुश्किल है।

Saturday 17 October 2020

टीआरपी घोटाला

टी आर पी का खेलपूंजी-सत्ता का घालमेल!

0बीएआरसी यानी ब्रॉडकास्ट ऑडियेंस रिसर्च कौंसिल ने कुछ टीवी चैनलोें की टीआरपी यानी टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट पर उठे विवाद के बाद आगामी 12 सप्ताह तक अपने आंकडे़ जारी करने पर रोक लगा दी है। 80 करोड़ टीवी दर्शकों के देश में मात्र 41000 व्यूवर मीटर लगाकर बिना पारदर्शिता के चैनलों की लोकप्रियता परखना वैसे भी अपने आप मेें मज़ाक ही था। अब देखना यह है कि बीएआरसी टीआरपी को लेकर आगे क्या लीपापोती करता है?     

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   दरअसल टीआपी घोटाला सर्वे कंपनी हंसा रिसर्च प्राइवेट लिमिटेड के एक कर्मचारी ने ही खोला है। कंपनी के कर्मचारी महेश कुशवाह ने पूर्व कर्मचारी विनोद कुलश्रेष्ठ को यह जानकारी लीक कर दी कि एमपी के ग्वालियर के माधोगंज स्थित गुढ़ा क्षेत्र के किन घरों में बीएआरसी के बैरोमीटर लगे हैं। इसके बाद कंपनी के डिप्टी जनरल मैनेजर नितिन देवकर की शिकायत पर पुलिस ने धोखाधड़ी का मामला दर्ज कर सात लोगों को हिरासत में लिया है। बैरोमीटर जिन घरों मंे लगाया जाता है। गोपनीयता की वजह से उनको भी यह जानकारी नहीं दी जाती कि उनके घर में जो संयंत्र लगाया गया है। वह क्या हैउसका क्या मकसद हैऔर वह कैसे काम करता हैऐसा इसलिये किया जाता है। जिससे उनको कोई चैनल वाला लालच देकर अपना चैनल अधिक देखने को बहला फुसला ना सके। लेकिन इस बार जब पोल खुली तो पता लगा कि जिन घरों में बैरोमीटर लगाया जा रहा था। उनको 500रू. माह इस बात के लिये दिये जा रहे थे कि वह इंडिया न्यूज़ चैनल ही देखें। इसके लिये उनको यह भी समझाया गया कि वह अपने घर में इस चैनल को चाहे देखें या ना देखें लेकिन अपना टीवी दिन रात यह चैनल ऑन करके चालू रखें। ज़ाहिर बात है कि यही फार्मूला अन्य अनेक ऐसे घरों मंे भी अपनाया जा रहा होगा। जहां ये बैरोमीटर लगे होंगे। सभी टीवी चैनल विज्ञापन अधिक से अधिक लेने के लिये टीआरपी पर निर्भर करते हैं। जिसकी जितनी अधिक टीआरपी होगी। उसको ना केवल उतने ही अधिक एड मिलते हैं बल्कि उसकी विज्ञापन दर भी उतनी अधिक हो जाती हैै। सराकर चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की वह हर हाल में मीडिया और खासतौर पर इलैक्ट्रॉनिक टीवी चैनलों को अपने काबू में रखना चाहती है। इसके लिये बीएआरसी से सैटिंग करके टीआरपी का नकली और फर्जी खेल किया जाता है। आज जो गड़बड़ी अनैतिकता और तिगड़म भाजपा सरकार कर रही है। कल तक वही काम पूरी बेशर्मी और नंगेपन से कांग्रेस भी करती थी। हद तो यह थी कि जनवरी 2014 में यूपीए की मनमोहन सरकार को ऐसा लगा कि वह तीसरी बार चुनाव जीतने की हालत में नहीं है तो उसने टीआरपी आंकने वाली एजंसी बीएआरसी को 70 हज़ार करोड़ का वार्षिक कारोबार नियम कायदे ताक पर रखकर अपने पक्ष में करने को दे दिया था। लेकिन वह अपने मकसद में नाकाम रही। ब्रॉडकास्टिंग ऑडिएंस रिसर्च काउंसिल देश के ब्रॉडकास्टर्सविज्ञापन एजंसियों और विज्ञापनदाताओं का सामूहिक संगठन है। मुंबई स्थित ग्लोबल मार्केट कंपनी हंसा बीएआरसी के लिये लोगों के घरों में बैरो मीटर लगाने का काम करती है। हमारे यहां गोपनीयता के नाम पर बहुत से घोटाले सरकार भी करती रही है। सो बीएआरसी ने भी पूंजीपतियों के पक्ष में मोटी रकम के बल पर कुछ टीवी चैनलों से मिलीभगत करके यह घोटाला लंबे समय से चला रखा था। मुंबई पुलिस ने बीएआरसी हंसा और कुछ टीवी चैनलों का जो टीआरपी का खेल पकड़ा है। वह नया या पहली बार नहीं हैै। अगर आप गहराई से देखेंगे तो टीवी चैनल समाचार तथ्यों व सत्य आंकड़ों व प्रमाणों पर जोर ना देकर अपने एंकरों को मदारी की तरह रोज़ शाम को टीवी रूक्रीन पर बैठाकर ऐसे चंद मुद्दों पर फालतू घटिया और ओछी बहस कराते नज़र आते हैं। जिनमें टीआरपी बढ़ाने को गाली गलौच झूठ फर्जी जानकारी सनसनीखेल मसाला और मारपीट तक की नौबत आ जाती है। यह ठीक है कि अर्णव गोस्वामी के रिपब्लिक टीवी ने टीआरपी ही नहीं मर्यादा संयम और नियम कानूनों के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं। लेकिन कम लोगों को पता है कि आज जो चैनल रिपब्लिक और इंडिया न्यूज़ जैसे दो चार चैनलों को टीआरपी घोटाले के लिये खूब जोरशोर से कोस रहे हैं। वे कमोबेश खुद भी इस तरह की सैटिंग में गाहे बा गाहे शामिल रहे हैं। लेकिन हमारा समाज ऐसा मानता है कि जो पकड़ा जाये वही चोर है। हम यह भी नहीं कह रहे कि केवल और केवल देश में टीआरपी घोटाला हो रहा था। अख़बारों के प्रसार को आंकने वाली संस्था एबीसी यानी ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन भी कई आरोपों के घेरे में रही है। लेकिन हम यह भी नहीं कह सकते कि अगर और जगह ऐसी गड़बड़ी हो रही है तो टीआरपी में भी जायज़ है। सही बात तो यह है कि इस तरह की धोखाधड़ी जनता के विश्वास के साथ किसी भी क्षेत्र में होनी ही नहीं चाहिये। टीआरपी घोटाला इतना सीधा सरल नहीं है। जो साधारण आदमी को आराम से समझ आ जाये। देखने वाली बात यह भी है कि आप बैरोमीटर किन इलाकों में लगा रह हैंकिन घरों में लगा रहे हैंकहीं ऐसा तो नहीं कुछ धर्म जाति और क्षेत्र विशेष में ही ये पैनल होम जानबूझकर सत्ता के इशारे पर लगाये जाते हों। मिसाल के तौर पर आप किसी दल विशेष के गढ़ में या चुनचुनकर किसी लोकप्रिय नेता के अंधभक्तों के घरों में अगर बैरोमीटर लगायेंगे तो वह तो बिना रिश्वत लिये भी वही चैनल देखेगा जो उसको साम्प्रदायिक अंधविश्वासी और एक सोचे समझे सियासी एजंडे के तहत किसी वर्ग विशेष से दुश्मनी करना और निष्पक्ष सेकुलर हिंदुओं से घृणा करना दिन रात सिखा रहा है। इतना ही नहीं जिनकी रेटिंग घटानी होती है। उन निष्पक्ष चैनलों को रिमोट सैटिंग में अचानक ही दूसरे नंबर पर डाल दिया जाता है। तकनीकी कमी के नाम पर उनकी आवाज़ गायब कर दी जाती है। कभी पिक्चर साफ नहीं आती। जिससे दर्शक झुंझलाकर उस चैनल को देखना ही छोड़ देते हैं। पुलिस प्रशासन के ज़रिये कैबिल नेटवर्क चलाने वालों पर सरकार के खिलाफ खुलकर बोलने वाले चैनलों को ना दिखाने का दबाव लगातार चलता है। बड़े होटल अस्पताल रेलवे स्टेशन बस स्टैंड और अन्य सरकारी सार्वजनिक स्थानों पर बाकायदा मौखिक आदेश आते हैं कि कौन सा चैनल जनता को लगातार दिखाने को फिक्स करना है। ऐसे और भी कई खेल टीआरपी घटाने बढ़ाने को गोपनीयता के नाम पर सरकार पूंजीपति यानी चैनल स्वामी और उनकी गुलाम बीएआरसी पर्दे के पीछे करती रही है। सवाल यह है कि जब सारा समाज सरकार प्रशासन पुलिस न्यायपालिका और मीडिया सवालोें के घेरे में है तो अकेले टीआरपी ईमानदार और निष्पक्ष कैसे बची रह सकती है?                                  

Sunday 11 October 2020

शाहीन बाग़ और सुप्रीम कोर्ट

शाहीन बाग़ पर सुप्रीम कोर्ट और क्या करता?

0सीएए के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग़ में चले धरने के खिलाफ दायर एक याचिका पर फैसला देते हुए सबसे बड़ी अदालत ने कहा है कि सार्वजनिक जगहों पर लंबे टाइम तक कब्ज़ा करके आंदोलन नहीं किया जाना चाहिये। कानून के हिसाब से ये बात ठीक ही लगती है। लेकिन अगर कोई ऐसा करता है तो हमारी सरकार और पुलिस उससे निबटते समय अलग अलग पैमाने क्यों अपनाती हैइस अहम और असली मुद्दे पर सर्वाेच्च न्यायालय पता नहीं क्यों चुप रहा है।      

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   संविधान विशेषज्ञ और नलसार यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर फैज़ान मुस्तफा का कहना है कि जब शाहीन बाग़ का धरना कोरोना महामारी की रोकथाम के लिये देशभर में लगाये जाने वाले लॉकडाउन की वजह से 24 मार्च को खुद ही खत्म हो गया था तो सुप्रीम कोर्ट को वैसे तो इस याचिका पर पूर्व के ऐसे मामलों की तरह कोई फैसला देने की ज़रूरत ही नहीं थी। लेकिन उसने अगर कोई निर्णय देना ही था तो यह भी स्पश्ट करना चाहिये था कि लंबे टाइम से उसका आश्य कितने दिन या घंटे हैंयह भी साफ किया जाना चाहिये था कि यह अवधि अदालत सरकार या पुलिस में से कौन तय करेगासवाल यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय लागू कैसे और कौन करायेगाक्या ऐसा कोई कानून पहले से मौजूद है जिसमें यह तय हो कि अब आगे कोई धरना प्रदर्शन अमुक जनउपयोगी स्थान पर और अधिक दिनों तक नहीं चलाया जा सकताक्या कोर्ट के आदेश के बाद भविष्य में सरकार ऐसा कानून बनायेगीक्या कानून होने या बन जाने के बाद भी सरकारों और पुलिस का रूख़ ऐसे मामलों में निष्पक्ष और समानता वाला होगाक्या पुलिस कोर्ट के इस फैसले का भविष्य में उल्लंघन करने वालों के खिलाफ सख़्त रूख़ अपनाकर उनसे धरना स्थल खाली कराने को वहां पहले चेतावनी फिर वाटर कैनन फिर हवाई फायरिंग फिर लाठी चार्ज और बड़े पैमाने पर गिरफ़तारी के बाद भी लोगों के वहां डटे रहने पर गोली चलाने की हिम्मत करेगीक्या पुलिस और सरकार ऐसा करते समय सत्ताधारी दल और विपक्ष के अलावा अलग अलग वर्गों जातियों और धर्मों के लोगों के आंदोलन के लिये एक से नियम कानून और एक्शन लेने का संवैधानिक कर्तव्य ईमानदारी और समानता के आधार पर निष्पक्ष तरीके से अपनायेगीऐसा ना करने और पहले की तरह खुला पक्षपात करने से आंदोलनकारी कई बार सरकार और पुलिस के खिलाफ और उग्र होकर हिंसक हो जाते हैं। इससे विरोध करने वालों को सरकार और पुलिस के खिलाफ आंदोलन कुचलने को दमनकारी और अन्यायपूर्ण तौर तरीके अपनाने का आरोप लगाकर आंदोलन पहले से भी अधिक जोरशोर से चलाने का नया आधार मिल जाता है। सुप्रीम कोर्ट को शाहीन बाग़ जैसे अत्यधिक संवेदनशील विवादित और चर्चित मामले पर फैसला देते समय यह भी विचार करना चाहिये था कि क्या सरकार ने आंदोलनकारियों से उनकी मांग पर इस दौरान संवाद करने का कोई प्रयास कियासाथ ही यह भी देखा जाना चाहिये था कि क्या सरकार शाहीन बाग़ की जगह ऐसे धरने प्रदर्शन के लिये शहरी आबादी से बहुत दूर तयशुदा जगहों पर आंदोलन करने वालों से कभी अपने प्रतिनिधि भेजकर बातचीत से ऐसे मामले सुलझाने का कोई गंभीर प्रयास करती हैसरकार और प्रशासन तो अकसर आमरण अनशन करने वालों से भी उनके मरने तक बात करना पसंद नहीं करता है। इस मामले में गांगा बचाओ अभियान के जाने माने एक प्रोफेसर की आमरण अनशन के दौरान जान तक जा चुकी है। दरअसल कहने को हमारे देश में संविधान लागू है। लोकतंत्र का राज है। सरकार जनता के प्रति जवाबदेह कहलाती है। पीएम खुद को प्रधानसेवक बताते रहे हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि सरकार प्रशासन पुलिस विरोध करने वालों या अपनी असहमति दर्ज करने वालों को देशद्रोही और अपना दुश्मन मानकर चलती नज़र आती है। क्या भविष्य में सार्वजनिक स्थानों पर आंदोलन करने वालों को पुलिस तत्काल वहां से बलपूर्वक हटा देगाीया नहीं हटायेगी तो उनको कोर्ट की अवमानना का दोषी मानकर उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही शुरू करेगीआपको याद होगा कि खुद सुप्रीम कोर्ट ने शाहीन बाग वाले मामले में यााचिका दायर होने के बाद सरकार या पुलिस को सीध्ेा शाहीन बाग बलपूर्वक खाली कराने के आदेश ना देकर आंदोलनकारियों से बातचीत करने को तीन लोगोें की एक कमैटी बनाई थी। हालांकि जाने माने वकील संजय हेगडे़ के नेतृत्व में बनी साधना रामचंद्रन और वज़ाहत हबीबुल्लाह की इस समिति से वार्ता के बाद अगर शाहीन बाग के आंदोलनकारी अपना धरना वापस ले लेते तो उनकी कोर्ट की नज़र में अहमियत बढ़ जाती और साथ ही उनको अपना आंदोलन सम्मानपूर्वक वापस लेने का एक अच्छा रास्ता भी मिल जाता। कोर्ट ने यह भी कहा कि पुलिस और सरकार कोर्ट के कंधे पर रखकर बंदूक चलाना बंद करंे और सार्वजनिक स्थानों को पहले से मौजूद कानून के अनुसार खाली कराकर जनता का आवागमन सुगम बनायें। दरअसल सरकारें आंदोलनकारियों को थकाकर आंदोलन अपनी मौत अपने आप मरने का इंतज़ार करती हैं। कभी कभी वे आंदोलनकारियोें की गल्तियों और कमियों को तलाश कर उनको वहां से भगाने का बहाना तलाश करती हैं। अगर कुछ बड़े आंदोलनों का इतिहास देखें तो 1987 में भारतीय किसान यूनियन ने महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में मेरठ की कमिश्नरी का एक माह से अधिक समय तक घेराव किया था। तब के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह झुके और किसानों की मांगे मानकर आंदोलन खत्म कराया था। ऐसे ही 1988 में कानपुर में कपड़ा मिल मज़दूरों ने लंबे समय तक रेल पटरी पर कब्ज़ा कर लिया था। तब के सीएम एन डी तिवारी ने जब स्थानीय पुलिस प्रशासन से तत्काल कड़ी कार्यवाही कर रेल ट्रेक खाली कराने को कहा तो वहां के डीएम एसपी ने हाथ खड़े कर दिये। उनका कहना था कि रेल पटरी पर लोग इतने अधिक और इतने जोश में हैं कि अगर बल प्रयोग किया गया तो हालात काबू से बाहर हो जायेंगे। इसके बाद भारत सरकार ने कपड़ा मज़दूरों से बात की और उनकी अधिकांश मांगों को मानकर आंदोलन बातचीत से खत्म कराया। सुप्रीम कोर्ट के स्टे के बावजूद यूपी की भाजपा सरकार ने अदालत में हलफनामा देकर भी बाबरी मस्जिद ना बचाकर कारसेवकों को बल प्रयोग से बचाया था। पाटीदारों का गुजरात में गूर्जरों का राजस्थान में और जाटों का हरियाणा में लंबा हिंसक और उग्र आंदोलन चला था जिसमें हज़ारों करोड़ की सम्पत्ति का भारी नुकसान हुआ थाअभी कुछ साल पहले की ही बात है। ना तो उनसे आज तक यूपी की तरह सार्वजनिक सम्पत्ति की क्षतिपूर्ति कराई गयी और ना ही सख़्त कानूनी कार्यवाही करके सार्वजनिक स्थानों को कभी खाली कराया गया। अब देखना यह है कि शाहीन बाग़ के आंदोलन पर सुप्रीम कोर्ट के इस सख़्त फैसले के बाद क्या बदलता है?                                       

0 लेखक पब्लिक ऑब्ज़र्वर के प्रधान संपादक व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Monday 5 October 2020

भिखारी

भीख रोकना चाहे सरकारतो भिखारियों को दे रोज़गार!

0भारतीय रेलवे ने एक प्रस्ताव तैयार किया है। जिसमें रेलवे अधिनियम में संशोधन करके भीख मांगने को दंडनीय अपराध की श्रेणी से हटाया जा सकता है। उधर केंद्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट में कहा था कि वह भीख मांगने को अपराध के दायरे से बाहर कर भिखारियों के पुनर्वास के लिये एक कानून बनायेगी। लेकिन अब केंद्र सरकार अपने ऐसे ही अनेक जनकल्याण के वादोें की तरह इस आश्वासन से भी पीछे हट गयी है। उसने कहा है कि उसके एजेंडे में फिलहाल ऐसा कोई प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है।    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   हमारे देश में भीख मांगने पर रोक लगाने वाला कोई केंद्रीय कानून तो नहीं है। लेकिन रेलवे सहित देश के लगभग दो दर्जन राज्यों ने अपने अपने स्तर पर ऐसे कानून बना रखे हैं। जिनमें भीख मांगने को दंडनीय अपराध घोषित किया गया है। मिसाल के तौर पर रेलवे के अधिनियम के अनुसार अगर कोई व्यक्ति रेलवे परिसर या रेल में भीख मांगता पाया जाता है तो उसपर 2000जुर्माना और उसको एक साल की सज़ा हो सकती है। दिल्ली मेें भी भीख मांगने पर प्रतिबंध है। यहां और अन्य ऐसे ही कुछ और राज्यों में पुलिस भिखारियों को न केवल अकसर पकड़ती रहती है बल्कि उनको राज्य से बाहर खदेड़ने के साथ ही उनसे अकसर राज्य की सीमा में रहने के लिये अवैध वसूली भी करती रहती है। यहां तक शिकायतंे मिली हैं कि पुलिस इन भिखारियों को पकड़कर जेल या डिटेंशन सेंटर भेजने की बजाये इस कानून का दुरूपयोग करते हुए या तो इनसे सप्ताह या मासिक रिश्वत तय कर लेती है या फिर इनको जबरन निर्माण स्थलों पर ले जाकर ठेकेदार से मिलीभगत करके बिना भुगतान के इनसे श्रम कराया जाता है। इसके एवज़ में मिलने वाली मज़दूरी ठेकेदार और पुलिस ईमानदारी’ से आधा आधा बांट लेते हैं। राज्य सरकारों और रेलवे ने भिखारियों पर रोक लगाने वाले कानून तो बना दिये लेकिन कभी यह देखने की ज़हमत नहीं की गयी कि इस कानून से भिखारियों ने भीख मांगना बंद कर दिया या पुलिस को अपनी नंबर दो की कमाई का एक और रास्ता मिल गया हैमिसाल के तौर पर बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ बैगिंग एक्ट 1959 में भीख मांगने वालों के खिलाफ रेलवे से भी सख़्त प्रावधान करते हुए उनको पकड़े जाने पर तीन से दस साल हिरासत में रखने का फर्मान सुना रखा है। इसका परिणाम यह है कि पुलिस को ऐसे कानूनों के बल पर अपनी निर्दयता और वसूली करने का एक और औज़ार हाथ लग गया है। भीख मांगना रोकने के नाम पर पुलिस प्रवासी कामगारों तमाशा दिखाने वालों नाच गाकर अपनी कला के बल पर पेट पालने वालों जादूगरों बेघरों बेसहारा और खानाबदोश लोगों को लगातार उत्पीड़न व अत्याचार कर अपनी जेब भरती रहती हैै। ऐसे में ये लोग एक तरफ कानून का उल्लंघन कर निरंतर भीख भी मांगते रहते हैं। दूसरी तरफ इनको अपनी कमाई से पुलिस को मोटी रकम देनी होती है। उल्लेखनीय है कि जब से भीख मांगने के खिलाफ एक के बाद एक राज्य सरकारों ने कानून बनाये तब से ही मानव अधिकारवादियों समाजसेवी संस्थाओं और कई एनजीओ ने इस कानून के खिलाफ मोर्चा भी खोलना शुरू कर दिया था। उनका कहना है कि कोई खुशी से भीख नहीं मांगता है। वे कहते हैं कि मजबूरी और पेट की आग इंसान को भीख मांगने पर मजबूर कर देते हैं। उनका यह भी कहना है कि भीख मांगने को गैर कानूनी घोषित करने के बजाये भीख मांगने वालों का पुनर्वास किया जाना चाहिये। उनको कानून बनाकर सज़ा देने के तुगलकी और तानाशाही वाले अमानवीय और गैर संवैाधनिक तौर तरीके अपनाने की बजाये रोज़गार और घर देकर जनकल्याणकारी राज्य का कर्तव्य निभाया जाना चाहिये। सबको पता है कि सभी दल विपक्ष में रहते हुए तो बड़ी बड़ी मानव सेवा और समाजसेवा की बातें करते हैं। लेकिन सत्ता में आने के बाद उनके सुर बदल जाते हैं। दिल्ली सरकार ने भी ठीक ऐसा ही किया था। इसके बाद जब सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी तो मानव अधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर के नेतृत्व में भीख मांगने के खिलाफ़ बने कानून के खिलाफ जाने माने वकील व समाजसेवी कॉलिन गांेजाल्वेज़ के सहयोग से 2017 में दिल्ली हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गयी। भीख मांगने के कानून के पक्ष में राज्य सरकार द्वारा दिये गये तर्कों को सिरे से खारिज करते हुए हाईकोर्ट ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई। अदालत ने भीख मांगने से रोकने वाले कानून को अमानवीय बताते हुए उसको अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। न्यायालय ने सरकार के खिलाफ कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘‘लोग सड़कों पर भीख इसलिये नहीं मांगते हैं कि वे ऐसा करना चाहते हैंबल्कि इसलिये मांगते हैं कि उनके पास कोई और विकल्प नहीं होता।’’ कोर्ट ने अपनी नाराज़गी दर्ज कराते हुए यहां तक कह दिया कि‘‘राज्य अपने नागरिकों को एक सभ्य जीवन देने के अपने दायित्व से पीछे नहीं हट सकते और ज़िंदा रहने के लिये ज़रूरी चीजों के लिये भीख मांग रहे लोगों को गिरफ़तार करहिरासत में लेकर और उन्हें जेल में डालकर ऐसे लोगों की तकलीफ को और बढ़ा नहीं सकते।’’ आईएएस से इस्तीफा देकर गरीब कमजोर और बेसहारा वर्ग के वंचित लोगों की लड़ाई लड़ने वाले हर्ष मंदर का दो टूक कहना रहा है कि भीख मांगने पर रोक लगाने वाला कानून देश के निर्धन और निराश्रित मजबूर लोगों के खिलाफ बना सबसे जालिम और दमनकारी कानून है। यह कानून ऐसे जनविरोधी कानूनों में से एक है। जिनमें गरीब और परेशान लोगों के पास पहले ही कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। हालांकि कई राज्यों मंे अभी भी यह भीख विरोधी कानून लागू है। लेकिन विडंबना यह है कि जिस देश में एक विवादित और बड़बोली फिल्म अभिनेत्री के ऑफिस का अवैध छज्जा नगर निगम द्वारा गिराये जाने पर मंुबई में केंद्र सरकार उसको वाई श्रेणी की सुरक्षा उपलब्ध कराती हो राज्यपाल इस राष्ट्रीय हित के मुद्दे’ पर केंद्र को तत्काल रपट भेजते होंकई दलों के बड़े नेता और बिकाउू मीडिया आसमान सर पर उठा लेता हो वहां भिखारियों जैसे सबसे कमज़ोर और मजबूर वर्ग के हित में कौन बोल सकता है?                                         

0फ़कीर ले गया ताशे में गालियां भरकर,

 अमीर बाप का बेटा था और क्या देता।।         

Thursday 1 October 2020

यूपीएससी

बेलगाम मीडिया को काबू कर पायेगा सुप्रीम कोर्ट ?

0‘‘सुप्रीम कोर्ट का किसी चीज़ पर स्टे लगाना न्यू क्लियर मिसाइल जैसा हैलेकिन कोई भी इस पर कार्यवाही नहीं कर रहा था इसलिये हमें दख़ल देना पड़ा’’ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली सबसे बड़ी अदालत की एक बैंच ने जब एक चर्चित चैनल के विवादित सीरियल यूपीएससी जेहाद पर सुनवाई करने के बाद रोक लगाते हुए 16 सितंबर को यह बात कही तो केंद्र सरकार और न्यूज चैनल ब्रॉडकास्टिंग एसोशियेसन को तो शर्म नहीं आई लेकिन समाज के निष्पक्ष और सेकुलर लोगों ने ज़रूर राहत की सांस ली होगी। सवाल यह भी है कि क्या कोर्ट बेलगाम मीडिया को ऐसे काबू कर पायेगा?    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   एक साम्प्रदायिक चैनल ने 11 सितंबर को लोकसेवा आयोग में मुसलमानों की कथित घुसपैठ की कपोल कल्पित साज़िश का आरोप लगाते हुए अपने विवादित सीरियल के पहले एपिसोड का प्रसारण किया था। इससे पहले जब इस प्रोग्राम का प्रोमो जारी किया गया था। तभी यह मामला दिल्ली हाईकोर्ट में गया था। जहां इसके प्रसारण पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी गयी थी। लेकिन जब यही मामला सर्वाेच्च न्यायालय में पहुंचा तो कोर्ट ने प्री ब्रॉडकास्ट स्टे से मना कर दिया। इसके साथ ही कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह यह सुनिश्चित करे कि इस चैनल के इस प्रोग्राम के प्रसारण से समाज पर कोई प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पड़ेगा। केंद्र सरकार ने इस चैनल को क्लीनचिट दे दी। इसके बाद जब इस प्रोग्राम का पहला एपिसोड प्रसारित हुआ तो मामला एक बार फिर से सबसे बड़ी अदालत में पहुंच गया। मजे़दार बात यह है कि इस चैनल के इस विवादित एक घंटे के सीरियल में केंद्र सरकार पर ही यूपीएससी की परीक्षा में मुस्लिम उम्मीदवारों को ही बेजा लाभ पहंुचाने का आरोप लगाया गया था। लेकिन केंद्र की हिंदूवादी सरकार को इस आरोप पर भी कोई आपत्ति नहीं थी। चैनल ने यूपीएससी जेहाद के नाम पर मुसलमानों पर पूर्वाग्रह के आधार पर जितने भी आरोप लगाये। सब मनगढ़ंत फर्जी और बेबुनियाद नज़र आते हैं। जैसाकि चैनल का दावा है कि मुसलमान एक षड्यंत्र के तहत यूपीएससी की परीक्षा में अधिक से अधिक आवेदन करने लगे हैं। इस आरोप पर हंसा ही जा सकता है कि एक ओर तो मुसलमानों पर आरोप है कि वे अपने बच्चो को पढ़ने के लिये मदरसों में भेजते हैं। उनको आधुनिक और अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में पढ़कर देश की मुख्य धारा में आना चाहिये। जब मुसलमान सचमुच ऐसा करने लगा तो साम्प्रदायिक दलों और इस चैनल की हालत खराब होने लगी है। फेक पोस्ट उजागर करने वाली जानी मानी विश्वसनीय एजंसी ऑल्ट न्यूज़ के अनुसार यूपीएससी के 4अगस्त को जारी नतीजों के अनुसार कुल पास829 उम्मीदवारों में से 42 मुस्लिम थे। ये मात्र 5प्रतिशत है। जबकि मुसलमानों की आबादी देश मंे लगभग 15 प्रतिशत है। अगर लोकसेवा आयोग के पिछले 5 साल के आंकड़ों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि मुसलमानों का प्रतिशत लगभग हर साल 3 से 5 प्रतिशत के बीच रहा है। मिसाल के तौर पर 2015 में पास कुल 1078 के 42, 2016 के 1099 में 50, 2017 के 990 में 52, 2018 के 759 में 28मुस्लिम उम्मीदवार सफल रहे थे। यह ठीक है कि 2017 में यह आंकड़ा कुछ बढ़ा था। लेकिन उस साल कुल पास प्रत्याशी भी अधिक थे। जबकि 2018 में उनका आंकड़ा काफी नीचे चला गया था। जिसको एक सुनियोजित योजना के तहत चैनल ने दिखाया ही नहीं। चैनल ने झूठा आरोप लगाया कि मुसलमानों को आयु सीमा में हिंदुओं के मुक़ाबले 3 साल की छूट दी जा रही है। जबकि यूपीएससी के 12फरवरी के नोटिफिकेशन के अनुसार सभी उम्मीदवारों की न्यूनतम आयु 21 साल जबकि अनुसूचित जाति व जनजाति को 5 साल तो पिछड़ी जाति के लिये 3 साल की छूट यानी 32की जगह 35 तक की छूट हिंदू मुसलमान सभी प्रत्याशियों के लिये दी गयी है। इतना ही नहीं रक्षा सेवाओं कमीशंड ऑफिसर और विकलांगों के लिये भी आयु में छूट दी गयी है। आयोग ने यह भी स्पश्ट किया है कि किसी भी रिज़र्व कैटेगिरी के किसी भी भाग मेें आने वाले वर्गों को दोनों कैटेगिरी में आयु सीमा में छूट मिलेगी। चैनल ने भी यह भी दुष्प्रचार किया कि मुसलमानों को परीक्षा में शामिल होने के लिये आयोग 9 अवसर दे रहा है। जबकि हिंदुओं को ये मात्र 6 मौके ही उपलब्ध कराता है। जबकि यह सुविधा भी केवल रिज़र्व कैटेगिरी के लिये उपलब्ध होती है। ना कि केवल मुसलमानों के लिये। ज़ाहिर बात है कि रिज़र्व वर्ग मंे धर्म के आधार पर नहीं जाति के आधार पर अवसर दिये जाते हैं। जिनमें हिंदू जाति के प्रत्याशी भी शामिल रहते हैं। मुस्लिमों को कम कट ऑफ माकर््स पर पास करने को लेकर भी इस चैनल ने कोरा झूठ बोला है। यहां भी जाति की जगह धर्म का झूठा आधार बताया गया है। जबकि 2009 के माकर््स को इसके लिये क्यों चुना गया है। इसका कोई ठोस आधार चैनल ने नहीं बताया है। आयोग अपनी पारदर्शिता की नीति के तहत प्रिलिम्स और मुख्य परीक्षा दोनों के कट ऑफ माकर््स जारी करता रहा है। चैनल ने अंत में यूपीएससी जेहाद का सबसे बड़ा कारण मुसलमानों के लिये र्फ्री कोचिंग की सुविधा को बताया है। जबकि यह भी सही नहीं है। मनमोहन सरकार ने मुसलमानों के लिये नहीं बल्कि वंचित वर्ग के प्रत्याशियों के लिये 5कोचिंग सेंटर शुरू किये थे। यह सच है कि इनमंे से 4 अल्पसंख्यक यूनिवर्सिटियों में खोले गये थे। लेकिन इनमें मुसलमानों के साथ ही अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति पिछड़ी जाति और महिलाओं को भी शामिल किया गया था। इनमें से एक सेंटर जामिया मिलिया में भी खुला था। जामिया के जो 30 कैंडीडेट यूपीएससी में चुने गये हैं। उनमें से 14 हिंदू भी हैं। ऐसे ही कई कोचिंग सेंटर खुद सरकारी सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय भी चला रहा है। इतना ही नहीं दिल्ली एमपी आंध्र प्रदेश और केरल सहित कई राज्य सरकारें भी अल्पसंख्यकों गरीबों पिछड़ों दलितों व महिलाओं की यूपीएससी में भागीदारी बढ़ाने के लिये इसी तरह के निशुल्क कोचिंग सेंटर बड़ी संख्या मंे चला रहे हैं। जहां तक इस तरह के संेटर ज़कात फाउंडेशन द्वारा चलाने पर हंगामा और उसके तथाकथित गैर कानूनी चंदा लेने का आरोप है। उसकी जांच करना सरकार का काम है। लेकिन साथ ही यह भी देखा जाना चाहिये कि खुद संघ परिवार का एनजीओ संकल्प भी इस तरह के कोचिंग सेंटर चला रहा है। जिसके इस बार 61 प्रतिशत प्रत्याशियों को यूपीएससी परीक्षा में सफलता मिली है। ऐसे मंे क्या यह नहीं कहा जा सकता कि संकल्प यूपीएससी का हिंदूकरण कर रहा है सुप्रीम कोर्ट ही यह तय करेगा।                                       

Tuesday 15 September 2020

एक्ट ऑफ गॉड

एक्ट ऑफ़ गॉड: अबकि बार बिना ज़िम्मेदारी की सरकार ?

0अप्रैल-मई की तिमाही जीडीपी 24 प्रतिशत नीचे जाने पर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने इसे एक्ट ऑफ़ गॉड का नाम देकर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है। इतिहास में हम पहली बार देख रहे हैं। जबकि एक सरकार अपनी हर असफलता और गल्ती के लिये किसी ना किसी को ज़िम्मेदार ठहरा देती है। उधर रिज़र्व बैंक का कहना है कि इस वित्तीय वर्ष में2 लाख करोड़ का लोन फ्रॉड हुआ है। यानी बैंक संकट में हैं। इसके लिये किसे दोष दिया जायेगा?    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   2014 के चुनाव में यूपीए-2 की सरकार पर ढेर सारे आरोप लगे थे। सीएजी ने मनमोहन सरकार पर दो लाख करोड़ के टू जी घोटाले का आरोप लगाया था। अन्ना ने उस सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया था। बाबा रामदेव भी कांग्रेस सरकार के खिलाफ हमलावर थे। विपक्ष में भाजपा ने उस सराकर पर ऐसे ऐसे आरोप लगाये थे। जिनसे उसका कोई सरोकार तक नहीं था। इस बीच न्यायपालिका और मीडिया ने उस सरकार की बखिया उधेड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी थी। नतीजा यह हुआ कि बिना सफल गुजरात मॉडल और योग्य शासक के मोदी उस सत्ता विरोधी माहौल का सियासी लाभ लेकर पीएम बन गये। इतना ही नहीं पहली बार पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार बनने के बाद मोदी सरकार ने लोकतंत्र की बुनियादें धीरे धीरे इतनी कमज़ोर कर दीं कि आज असहमति सरकार का विरोध और सवाल करना देशद्रोह जैसा बना दिया गया है। उधर सरकारी नाकामी करप्शन मनमानी तानाशाही और नालायकी की हालत यह है कि खुद सत्ताधारी दल के कई सांसद विधायक और बड़े नेता तक सोशल मीडिया पर अपनी ही सरकार की खिंचाई करते मिल जायेंगे। लेकिन यह सरकार अपनी हर नाकामी का ठीकरा उल्टे अपने विरोधियों के सर पर फोड़ने से बाज़ नहीं आ रही है। इस सरकार ने शुरू से अल्पसंख्यकों का राक्षसीकरण किया है। कोरोना जब शुरू हुआ तो इसके लिये तब्लीगी जमात वालों को ज़िम्मेदार बताया गया। लेकिन पिछले दिनों मुंबई हाईकोर्ट ने इसके लिये सरकार की खिंचाई करते हुए दो टूक कहा कि सरकार ने मीडिया के ज़रिये एक वर्ग विशेष को कोरोना के लिये बलि का बकरा बनाया। ऐसे ही अब जब कोरोना रोकने को सरकार ने देर से गलत तरीके से और अमानवीय तरीके से पूरे देश को दो माह के लिये लॉकडाउन लगाकर पूरी तरह ठप्प कर दिया। जिससे हमारी अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा गयी। ऐसे में सरकार ने इस बार सीध्ेा भगवान को ही इसके लिये कसूरवार ठहरा दिया है। अगर आंकड़ों पर नज़र डालें तो साफ पता लगता है कि हमारी अर्थव्यवस्था 2016 से ही नोटबंदी के बाद से लगातार गिरती चली जा रही थी। इसके बाद जीएसटी गलत तरीके से लगाने से इसमें गिरावट और तेज़ होती चली गयी। बेशक कोरोना महामारी ने इसको पर लगा दिये। लेकिन एक्ट ऑफ सरकार को एक्ट ऑफ भगवान बताकर जनता को गुमराह नहीं किया जा सकता। मोदी सरकार ने जीएसटी लागू करते हुए राज्यों को जो क्षतिपूर्ति हर साल 14फीसदी बढ़ोत्तरी और पर्याप्त कर का हिस्सा देने का वादा किया था। अब वह एक्ट ऑफ गॉड की आड़ में वह देने की हालत में भी नहीं है। केंद्र का कहना है कि राज्य सरकारें रिज़र्व बैंक से कर्ज़ ले सकती हैं। सवाल यह है कि केंद्र की गलत नीतियों का खामियाज़ा राज्य सरकारें क्यों भुगतेंज़ाहिर बात है कि इसके लिये राज्य खासतौर पर विपक्षी सरकारें किसी कीमत पर तैयार नहीं हैं। उधर केंद्र सरकार एक के बाद एक सरकारी उपक्रम अपने चहेते पूंजीपतियों को बेचकर अपने पास हो रही पैसे की कमी को दूर करने को आत्मघाती कदम उठाने में भी संकोच नहीं कर रही है। लेकिन राज्य की सरकारों के पास ऐसा भी कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। उनके सामने अपने कर्मचारियोें को वेतन तक देने का संकट खड़ा हो रहा है। हैरत और दुख की बात यह है कि जिन धार्मिक स्थलों के पुजारी और मौलाना कोरोना का शिकार हो गये उन्होंने भी इसके लिये भगवान को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया। भगवान राम के मंदिर विवाद के बहाने बनी सरकार से ज़्यादा धार्मिक तो भगवान के वो भक्त निकले जो कोरोना से मरने से पहले तक भी यही कहते रहे कि हमारे कर्म ही इसके लिये दोषी हैं। एक्ट ऑफ गॉड बताने से एक और ख़तरा लोगों के सर पर मंडरा रहा है। कहीं ऐसा ना हो कि पहले ही एक दूसरे की जान के दुश्मन बना दिये गये अलग अलग धर्मोे के लोग एक दूसरे के भगवान को इसके लिये ज़िम्मेदार ठहराकर आपस में भिड़ जायें। इसमें भी अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने की आशंका अधिक बनी रहती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कभी भी किसी देश को तालाबंदी का सुझाव नहीं दिया। पूरी दुनिया में चंद देशों ने ही कोरोना रोकने को लॉकडाउन का सहारा लिया। यहां तक कि जिस चीन से कोरोना पूरी दुनिया में फैला उसने भी अपने एक सीमित क्षेत्र वुहान में ही चंद दिनों के लिये तालाबंदी की। इस दौरान चीन सहित बंगलादेश आदि कई देशों की जीडीपी हमारी तरह गिरी भी नहीं। इसका मतलब है कि कोरोना और लॉकडाउन को जीडीपी गिरने का बहाना बनाना ही सिरे से गलत है। इस दौरान आर्थिक संकट से निपटने को सरकार ने एक और गल्ती की। उसने 20 लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज जो घाषित किया उसमें कर्ज बांटकर उत्पादन बढ़ाने का उल्टा फैसला किया। जबकि बड़े अर्थशास्त्री लगातार उसको सुझाव दे रहे थे कि इस समय कर्ज या प्रोडक्शन की नहीं मांग यानी कंजम्पशन बढ़ाने की ज़रूरत है। जिसके लिये सरकार को ना केवल अपना खर्च बढ़ाना चाहिये था बल्कि ज़रूरतमंद गरीब या जिनकी नौकरी और कारोबार बंद हो गये उनके हाथ में एकमुश्त सहायत राशि देनी चाहिये थी। इससे बाज़ार में मांग पैदा होती। मांग बढ़ती तो माल का उत्पादन बढ़ता। उत्पादन बढ़ता तो रोज़गार फिर से बढ़ने लगते। साथ ही प्रोडक्शन और आर्थिक गतिविध्यिां एक बार फिर बढ़ने से सरकार का टैक्स भी बढ़ने लगता। ऐसा होने से बैंकों के पास उसका पुराना कर्ज़ भी वापस आता और नया कर्ज़ लेने भी और अधिक लोग आते। इससे सरकार और जनता के सामने आर्थिक संकट इस तरह से इस हद तक ना बढ़ता। जैसा आज बढ़ता जा रहा है। भले ही सरकार ना माने लेकिन जनता धीरे धीरे यह समझने लगी है कि मोदी सरकार के पास अपने अर्थ या किसी भी क्षेत्र के विशेषज्ञ खुद तो हैं नहीं। साथ ही अपनी साम्प्रदायिकता तानाशाही वनमैन शो मनमानी अहंकार व्यक्तिपूजा और नालायकी की वजह से वह बाहरी या विरोधी खेमे के निष्पक्ष वरिष्ठ जानेमाने विशेषज्ञों की बात भी नहीं मानती। ऐसे में एक के बाद एक बाद गलत फैसलों से उसके बड़े बड़े दावों की पोल खुलती जा रही है। लेकिन देखना यह है कि मुसलमानों या विपक्ष के इंसानों के बाद अब भगवानों को वह अपनी किस किस नाकामी नालायकी और अयोग्यता के लिये दोषी बताकर जनता को खुद से खफा होने से कब तक रोक सकती है?                                       

0 न इधर उधर की बात कर ये बता क़ाफ़िला क्यों लुटा,

  मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।।         

Monday 17 August 2020

सबकी कट्टरता का विरोध हो...

सब धर्मों की कट्टरता का विरोध होना चाहिये !

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मार्कन्डेय काटजू और वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष का यह कहना बिल्कुल वाजिब लगता है कि कट्टरता और साम्प्रदायिकता बहुसंख्यकांे की हो या अल्पसंख्यकों कीवह ख़राब ही होती है। वरिष्ठ समाज विज्ञानी और सेफोलोजिस्ट योगेंद्र यादव भी कई बार यही बात दोहरा चुके हैं कि तथाकथित सेकुलर दलों की अल्पसंख्यक धार्मिक तुष्टिकरण की घटिया सियासत से संघ परिवार को बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता व कट्टरता बढ़ाने में भारी मदद मिली है।            

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

      हाल ही में कर्नाटक की राजधानी बंगलुरू में अल्पसंख्यक समुदाय की भीड़ ने सोशल मीडिया पर अपने धर्म के खिलाफ वायरल हुयी एक बेहद आपत्तिजनक पोस्ट के बाद हिंसक प्रदर्शन किया। विवादित पोस्ट और हिंसक प्रदर्शन दोनों की तमाम निष्पक्ष लोगों व संगठनों ने निंदा की है। आरोप है कि पोस्ट करने वाला सत्तारूढ़ राजनीतिक दल से जुड़ा हुआ होने के कारण पुलिस उसके खिलाफ रपट दर्ज करने को तैयार नहीं थी। जिससे लोगों में गुस्सा बढ़ा और वे तोड़फोड़ आगज़नी और अराजकता पर उतर आये। हिंसक भीड़ पर पुलिस की ओर से गोली चलाये जाने से तीन लोगों की मौत भी हो गयी।

करोड़ों रू0 की सम्पत्ति आग की भेंट चढ़ गयी। पूरा सच जांच के बाद सामने आयेगा। लेकिन अब तक इस मामले में तमाम तरह के आरोप प्रत्याआरोप लग रहे हैं। हमारा कहना है कि विवादित पोस्ट चाहे जितनी भी आपत्तिजनक रही हो लेकिन लोगों को कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिये था। अगर पुलिस रपट दर्ज नहीं कर रही थी तो लोगों को कोर्ट जाना चाहिये था। इससे पहले भी देश के विभिन्न राज्यों में समय समय पर ऐसी हिंसक घटनायें होती रही हैं। इससे पहले गोरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग की अनेक घटनायें हमारे देश में होती रही हैं।

इन मामलों में भी कानून हाथ में लेने उल्टा पीड़ित के खिलाफ केस दर्ज करने और आरोपियों को बचाने हल्की धाराओं में चालान करने थाने से ही ज़मानत दे देने उनको संघ परिवार द्वारा कानूनी व आर्थिक सहायता देकर सम्मानित और पुरस्कृत करने की खुद बहुसंख्यक समाज के बड़े वर्ग ने निंदा और आलोचना की है। इससे पहले शाहबानो मामले सलमान रूशदी और तस्लीमा नसरीन को लेकर कट्टरपंथी अल्पसंख्यकों का जो आक्रामक व हिंसक रूख रहा है। उसको भी सेकुलर वर्ग ने कभी पसंद नहीं किया है।

लेकिन पूर्व जज काटजू और वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष का यही कहना है कि अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता कट्टरता और भावनायें भड़कने पर बात बात पर हिंसक हो जाना बहुसंख्यक समाज को साम्प्रदायिक कट्टर व संकीर्ण बनाकर उनको संघ और भाजपा के बैनर के नीचे वोटबैंक के रूप में लाने में बहुत ही सहायक रहा है। जानकार तो यहां तक कहते हैं कि बहुसंख्यक तो कभी कभी अपनी संख्या व सत्ता की ताकत में आपे से बाहर हो सकते हैं। लेकिन अल्पसंख्यक तो हर देश में हिंसा की पहल तो दूर जायज़ और कानूनी मामले मंे भी डरे व सहमे हुए ही रहते आये हैं। लेकिन 2014से पहले भारत इसका अपवाद था।

मिसाल के तौर पर अगर हम अपने पड़ौस मंे देखें तो आजकल पाकिस्तान में वहां का 15साल का फ़ैसल खान वहां के मीडिया में छाया हुआ है। सोशल मीडिया में वकीलों और पुलिस के साथ उसकी सैल्फी वायरल हो रही है। वहां के कट्टरपंथी भी उसको पवित्र योध्दा का खिताब देकर जनता में उसको हीरो की तरह पेश कर रहे हैं। फै़सल का कारनामा यह है कि उसने ईशनिंदा के 57 साल के एक अमेरिकी आरोपी  ताहिर नसीम को भरी अदालत मंे गोलियों से भून दिया है। वजह चाहे जो हो लेकिन यह साफ है कि फैसल एक हत्यारा है।

लेकिन पाकिस्तान में उसकी इस घटिया हरकत के प्रति इतनी दीवानगी और पागलपन सवार है कि उसका बचाव करने को वकीलों की एक बड़ी फौज लाइन मंे लगी है। फैसल ने पेशावर की जिस अदालत में यह खूनी खेल खेला है। वहां तीन स्तर पर सुरक्षा जांच होती है। उसके रिवॉल्वर लेकर कोर्टरूम मेें पहंुच जाने में पुलिस और कोर्ट प्रशासन मिला हुआ था। यह शक इससे भी पुख़्ता होता है। जब फैसल मर्डर के बाद पकड़े जाने पर पुलिस वैन में बैठा आराम से फोटो और वीडियो बना रहा था तो उसके साथ मौजूद पुलिस अफसर और सरकारी अधिकारी न केवल उसको यह सब करने दे रहे थेबल्कि ऐसे मुस्कुरा रहे थे और वी व थम्पसअप का निशान बना रहे थे जैसे फैसल ने बड़ा बहादुरी और हिम्मत का नेक काम किया हो।

ब्लैसफेमी सन्दिग्ध नसीम की गोली लगने के बाद मौके पर ही मौत हो गयी थी। नसीम के अमेरिका मूल का नागरिक होने से यह घटना पूरी दुनिया में चर्चा और निंदा का विषय बन गयी है। इस घटना के बाद हत्यारा फैसल जहां कट्टरपंथियों का लाडला बन गया है। वहीं यू एन ओ मानव अधिकार संगठनों सहित पूरी विश्व बिरादरी में पाकिस्तान के इस  पुराने काले कानून को ख़त्म करने की मांग एक बार फिर से तेज़ हो गयी है। उधर फैसल के घर पर उसके परिवार के पक्ष में कट्टरपंथी मूर्ख और धूर्त लोगों का मजमा बढ़ता जा रहा है। जो उसके समर्थन में अब तक अनेक रैली प्रदर्शन और आंदोलन चला चुके हैं।

फैसल के पक्ष मंे आम मुसलमान ही नहीं कई जाने माने नागरिक संगठन वकील राजनेता और मौलाना तक खुलकर सरकार के खिलाफ खड़े हो गये हैं। यहां तक कि कुख्यात आतंकी संगठन पाकिस्तान तालिबान का बधाई संदेश भी फैसल के घर हर तरह की कानूनी आर्थिक मदद के लिये पहुंच चुका है। कट्टरपंथी उसके परिवार को इस हत्या के लिये बाकायदा मुबारकबाद दे रहे हैं। इस मामले में अमेरिका के सख़्त तेवर दिखाने के बाद पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने यह कहकर कि कानून अपना काम करेगा औपचारिक बयान देकर मामले से अपना पल्ला झाड़ लिया है।

आपको याद होगा कि इससे कई साल पहले पाक के पंजाब राज्य के गवर्नर सलमान तासीर को भी उनके अपने ही अंगरक्षक मुमताज़ कादरी ने इस विवादित कानून की समीक्षा करने की मात्र मांग करने के बयान पर गोली मारकर हत्या कर दी थी। मतलब कट्टरपंथी सब एक जैसे ही होते हैं।                                                                

 लेखक नवभारत टाइम्स डॉटकॉम के ब्लॉगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं ।।           

Sunday 9 August 2020

कब ख़त्म होगा कोरोना?

अधिकांश को है होनातब ख़त्म होगा कोरोना?

0आज हर किसी के दिमाग मंे एक ही सवाल है कि आखि़र कोरोना कब ख़त्म होगाहमने दो माह का सख़्त लॉकडाउन लगाकर देख लियालेकिन कोरोना की चैन नहीं टूटी।62,538 प्रतिदिन कोरोना पॉज़िटिव का आंकड़ा हम छू चुके हैं। अगर सरकार अब हो रहे कुल टैस्ट 5 लाख से बढ़ाकर 10 लाख तक रोज़ करने लगती है तो दो माह बाद इस स्पीड से यह आंकड़ा डेली 1,60,000 तक पहंुच सकता है। ऐसा 3 प्रतिशत रोगी रोज़ बढ़ने से लग रहा है। अंत मंे 2 लाख मरीज़ रोज़ और कुल कोरोना पॉज़िटिव 2 करोड़ से अधिक तक हो सकते हैं। अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रैस का यह अनुमान है।           

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   डब्ल्यू एच ओ यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन का सर्वे तो यह कहता है कि कोरोना जब तक आधे से अधिक आबादी को संक्रमित नहीं करेगा। तब तक इससे दो ही तरीकों से छुटकारा मिल सकता है। उन दो उपायों में कोरोना की वैक्सीन या इसकी दवाई शामिल है। हालांकि पूरी दुनिया में इन दोनों कामों पर वैज्ञानिक और डाक्टर पूरी तत्परता से अनुसंधान कर रहे हैं। उनको इस मिशन में कुछ प्राथमिक सफलतायें मिली भी हैं। लेकिन इसके आविष्कार में मेडिसिन तलाश करने से लेकर क्लिनिकल ट्रायल मानवीय परीक्षण पेटेंट सरकारी औपचारिकतायें और साइड इफैक्ट से बचने को अन्य सुरक्षा उपाय करने में 6 से 18 महीने लगने ही हैं।

इसके साथ ही दवा या टीका मिल जाने पर इसका इतना पर्याप्त उत्पादन करना कि यह पूरे विश्व की जनसंख्या को पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो जाये। वह भी अपने आप में एक बड़ी चुनौती होगा। साथ ही इसमें चाहे जितनी जल्दी और बड़े पैमाने पर प्रोडक्शन निर्यात और वैक्सीनेशन किया जाये। कुछ माह नहीं बल्कि कुछ साल लग सकते हैं। एक समस्या इसके खर्च को लेकर भी आने वाली है। विकसित देश तो इसको किसी कीमत पर भी आयात कर सकते हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील और बड़ी आबादी के देश को यह दवा विदेश से मंगाने या अपने यहां बनाने से लेकर अपनी बड़ी गरीब आबादी को उपलब्ध कराने तक में कई बाधाओं को पार करना होगा।

    ऐसे में सवाल यह है कि जब लॉकडाउन से कोरोना को नहीं हराया जा सका तो अब सरकार और जनता क्या करेजनता अर्थव्यवस्था बंद होने से लॉकडाउन भी आखि़र कितने दिन झेल सकती थीसरकार ने मास्क शारिरिक दूरी और बार बार हाथ धोने की शर्तों के साथ लॉकडाउन खोला तो लोग इन नियम कानूनों का भी पालन नहीं कर रहे हैं। ऐसे में एक ही रास्ता बचता है कि हम कोरोना को अपना संक्रमण फैलाने को खुला छोड़ दें। इससे जब देश की आध्ेा से अधिक आबादी धीरे धीरे करके संक्रमित हो चुकी होगी तो उसमें हर्ड इम्युनिटी आ जायेगी।

यानी उसमें कोरोना के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने से वे ठीक इस तरह से कोरोना से संक्रमित होने से सुरक्षित हो जायेंगे। जैसे किसी को एन्टी कोरोना वैक्सीन दिया जा चुका हो। अब सवाल यह है कि इस सारे अभियान और योजना में कुल कितना समय कितना धन और कितने संसाधनों की आवश्ययकता होगीजब तक कोरोना संक्रमण अपने पीक यानी चरम पर नहीं आ जाता है। तब तक हम चैन की संास नहीं ले पायेंगे। आपको याद होगा कि हमने काफी पहले कोरोना से निबटने का ख़तरनाक विकल्प हर्ड इम्युनिटी पर भी एक लेख लॉकडाउन के दौरान लिखा था।

लेकिन उस समय सरकार से लेकर समाज तक इतना डरा हुआ था कि कोई उस विकल्प पर गंभीर चर्चा तक करने को तैयार नहीं था। समय बदलता रहता है। कल तक जो हर्ड इम्युनिटी का विकल्प असंभव और अव्यवहारिक लग रहा था। वो आज सरकार और जनता दोनों को अपरिहार्य लग रहा है। जहां सरकार लॉकडाउन सही समय पर नहीं लगा सकी वहीं जनता भी लॉकडाउन आगे सहन करने की स्थिति में नहीं थी। साथ ही जनता अपनी रोज़ी रोटी के सवाल को कोरोना से अहम सवाल मानकर संक्रमित होने का जोखिम लेने को तैयार लग रही है।

वह मास्क फिज़िकल डिस्टेंसिंग और बार बार साबुन से हाथ तक धोने को तैयार नहीं है। अलबत्ता जान से हाथ धोने को अपनी लापरवाही मनमानी और नादानी के चलते लोग रोज़ सड़कों पर आपको दिखाई दे रहे होंगे। मिसाल के तौर पर आंकड़े बताते हैं कि एक करोड़ के लगभग आबादी वाले देशों को कोराना संक्रमण के पीक पर पहुंचने मेें लगभग दो सप्ताह का औसत समय लगा है। जहां तक यूरूप आदि के 4 से 5 करोड़ जनसंख्या के मुल्कों का मामला है। उनको कोरोना इन्फैक्शन में चरम पर पहुंचने में लगभग एक माह तक का समय लगा है।

आंकड़े हमें कई मामलों में भ्रमित भी करते हैं। उदाहरण के रूप में इंडोनेशिया को देखें जिसकी पॉपुलेशन लगभग 28 करोड़ के आसपास है। उसको संक्रमण के चरम बिंदु पर पहुंचने में 140 दिन से अधिक लग गये। तज़ाकिस्तान की आबादी एक करोड़ होते हुए उसको 15 दिन में ही कोरोना का चरम हासिल हो गया। जबकि अन्य देशों से मुकाबला करें तो उसको पीक पर पहुंचने में 60 दिन लगने चाहिये थे। जहां तक भारत का सवाल है। यहां कोरोना केस 3 से 4 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ रहे हैं।

अगर सरकार प्रतिदिन होने वाली टैस्टिंग 5लाख से बढ़ाकर 10 लाख तक ले जाती है तो हमारे यहां आज मिल रहे लगभग 50 से 60हज़ार कोरोना मरीज़ की तादाद दो माह बाद 2लाख रोज़ तक पहंुच सकती है। इस तरह आज का कुल कोरोना पॉज़िटिव का आंकड़ा भी 20 लाख से बढ़कर 80 लाख तक पहंुच सकता है। लेकिन हैरत और दुख की बात यह होगी कि यह आंकड़ा भी पीक यानी कोरोना का दि एंड नहीं होगा। बस इतना होगा कि इसके बाद रोज़ मिलने वाले कोरोना पॉज़िटिव केस कम होने लगेंगे। इसके बाद भी कोरोना चार माह के बाद यानी जनवरी 2021 तक चलता रहेगा। इंडियन एक्सप्रैस के अनुसार कोरोना के कुल केस 2 करोड़ 75 लाख तक पहुुंुच सकते हैं।                                                               

।लेखक पब्लिक ऑब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Tuesday 4 August 2020

राजस्थान का महाभारत

राजस्थान का महाभारत: भाजपा बना ही देगी कांग्रेसमुक्त भारत?

0पहले 2014 और फिर 2019 में भाजपा ने केंद्र से कांग्रेस का सूपड़ा पूरी तरह साफ़ करके अमित शाह की 50 साल राज करने की बात को किसी हद तक सही साबित किया। अब वह एक के बाद एक कांग्रेस शासित राज्यों में चुनाव हारकर भी कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने का जैसा साम दाम दंड भेद वाला आक्रामक अभियान छेड़े हुए है। उससे ऐसा लगता है कि वह बहुत जल्दी ही कांग्रेसमुक्त भारत का सपना पूरी कर लेगी। राजस्थान का महाभारत भी भाजपा जीतेगी।          

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   पहले कर्नाटक फिर मध््यप्रदेश और अब राजस्थान में जिस तरह से भाजपा ने कांग्रेस को एक एक कर राज्यों की सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाना शुरू किया है। उससे यह साफ लग रहा है कि आज नहीं तो कल किसी भी राज्य में कम से कम कांग्रेस की सरकार नहीं बचेगी। जबकि यूपी में सपा त्रिपुरा में माकपा को उसने जिस तरह से पटखी दी उससे क्षेत्रीय या अन्य राष्ट्रीय दलों को भी यह खुशफहमी नहीं पालनी चाहिये कि कांग्रेस के बाद भाजपा उनको पहले की तरह आराम से सरकार चलाने देगी। भाजपा का अगला निशाना बंगाल की तृणमूल कांग्रेस है। यानी भाजपा पहले विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को निबटाना चाहती है।

ज़ाहिर है इसके बाद क्षेत्रीय और छोटे दलों को ठिकाने लगाना भाजपा के लिये आसान होगा। दिल्ली मेें ज़बरदस्त और भरपूर विकास कराने के बावजूद जिस तरह भाजपा ने आम आदमी पार्टी को राज्य के चुनाव में नाको चने चबवाये। उससे वह यह संदेश देने में सफल रही है कि इस बार ना सही लेकिन अगले चुनाव तक वह दिल्ली की सत्ता हर हाल हर कीमत पर छीनकर ही दम लेगी। सवाल यह है कि बिना किसी ठोस उपलब्धि विकास शिक्षा स्वास्थ्य रोज़गार कानून व्यवस्था ठीक किये बिना भ्रष्टाचार महंगाई और काला धन रोके बिना भाजपा केंद्र के साथ साथ राज्यों में क्यों सरकार बनाती जा रही है?

सवाल यह भी है कि तमाम अराजकता कमियांे शिकायतों तबाही बरबादी और मनमानी के बावजूद वह बार बार चुनाव में विभिन्न राज्यों में जीतकर या तो खुद ही आ जाती है या फिर चुनाव के कुछ माह बाद ही विपक्षी विधायकों को तोड़कर जोड़तोड़ से अपनी सरकार चोर दरवाजे़ से बनाने में सफल हो जाती हैसच यह है कि किसी भी राज्य में भाजपा की रूचि जनहित में सरकार बनाना या चलाना नहीं है।

उसको पता है कि अधिक पैसा राज्यों की सरकार के हाथ में होता है। इसलिये 200 से400 करोड़ तक में एक दो दर्जन विधायक खरीदकर जैसे तैसे पूंजीपतियों के बल पर किसी राज्य में सरकार बना लेना भाजपा के लिये बायें हाथ का खेल बन गया है। जनादेश अपने खिलाफ होने के बावजूद पूरी बेशर्मी और ढीटता से भाजपा एक के बाद एक राज्य में सत्ता बदल का खुला खेल फर्रूखाबादी एक मिशन के तौर पर चला रही है। हिंदू राष्ट्र का सपना दिखाकर वह पूंजीपतियों के हित में खुलेआम काम कर रही है। मीडिया न्यायपालिका चुनाव आयोग और अन्य स्वायत्त संस्थायें उसने अपने अनुकूल बना ली हैं।

एक समय था। जब कांग्रेस भी पूरी बेहयाई और तानाशाही के साथ इसी तरह से लोकतंत्र की हत्या करती थी। लेकिन भाजपा का चाल चरित्र और चेहरे का दावा विपक्ष में रहते खूब ढिंढोरा पीटा जाता था। इसलिये तब हम जैसे पत्रकारों व निष्पक्ष नागरिकों ने कांग्रेस से भी ऐसे ही सवाल पूछे थे और आज भाजपा से भी पूछ रहे हैं। यह सवाल बार बार उठता रहा है कि इस हद तक नीचे जाकर भाजपा कांग्रेस की सरकार क्यों गिरा रही हैइसका एक जवाब तो यह है कि ऐसा करने से भाजपा की पकड़ पुलिस प्रशासन पर मज़बूत बनती है।

इसके बल पर वह अगला विधानसभा और लोकसभा चुनाव आराम से जीत सकती है। इससे भाजपा मतदाताओं को लुभाने अपने मनपसंद अधिकारी तैनात करने सरकारी योजनाआंे में कमीशन बनाकर अपना आधार मज़बूत करने नये वोटबैंक जोड़ने उद्योगपतियों को जायज़ नाजायज़ लाभ पहुुुंचाकर उनसे चुनाव मंे मोटा चंदा वसूलने अपना हिंदूवादी एजेंडा लागू कर लोगों को धर्म के नाम पर भावुक कर असली मुद्दों से भटकाकर उनका थोक में वोट लेने में काफी हद तक सफल हो जाती है।

भाजपा को केंद्र की सत्ता में रहकर अनुभव हो गया है कि केंद्र से कहीं अधिक और आसानी से बहुत सा काला धन चुनाव में और विधायक खरीदने को राज्यों की सरकार के बल पर पैदा किया जा सकता है। दूसरा लाभ यह होता है कि ऐसा करके कांग्रेस सहित सारे विपक्ष को पैसा बनाने और सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल से रोककर कमज़ोर किया जा सकता है। विपक्ष को केंद्र सरकार के द्वारा कंेद्रीय एजेंसी जैसे इनकम टैक्स एन्फोर्समेंट डायरेक्ट्रेट बैंक व सीबीआई के ज़रिये भी कमज़ोर और बदनाम किया जाता है।

यहां तक कि अगर कोई पूंजीपति या कंपनी विपक्ष की चंदा देकर मदद करता है तो केंद्र सरकार उस पर छापे डालकर ऐसा ना करने को भी मजबूर करती है। ऐसे मेें ले देकर राज्य सरकार अगर विपक्षी दल की है तो वह पूरी पार्टी के लिये एक तरह से लाइफ लाइन का काम करने लगती है। आंकड़े बताते हैं कि केंद्र अपने कुल 27 लाख करोड़ के बजट से जहां मात्र 7 लाख करोड़ अपने विवेक यानी मनमर्जी से खर्च कर पाता है। वहीं राज्य सरकारें अपने बजटों के 34 लाख करोड़ में से 60 प्रतिशत अपने हिसाब से खर्च करने को आज़ाद हैं।

सिंचाई सड़क शराब खनन डिस्कॉम की बिजली कोयला विभिन्न संयंत्र पशु चारा तेंदू पत्ता खरीद यानी राज्यों की क्रय सूची बहुत लंबी है। ज़ाहिर सी बात है कि खरीद अधिक तो कमीशन भी अधिक ही मिलता होगा। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि राजस्थान जैसे राज्यों में सत्ता की महाभारत कांग्रेसमुक्त भारत बनाने की भाजपा की एक सोची समझी बड़ी और दूरगामी योजना का छोटा सा हिस्सा है। लेकिन याद रखिये तानाशाही मनमानी और वनमैन शो चाहे इंदिरा गांधी का रहा हो या चाहे मोदी का हो वह लोकतंत्र को कमज़ोर और धीरे धीरे ख़त्म करके अघोषित आपातकाल जनविरोधी अराजकता कर रास्ता ही खोलता है।                                               

Monday 20 July 2020

ऑनलाइन पढ़ाई

*बच्चो की पढ़ाई ऑनलाइन,* 
*बड़ों का फ़ोन ‘क्वारंटाइन’!*

*0कोरोना ने हमारी ज़िंदगी के तौर तरीकों को पूरी तरह बदलकर रख दिया है। मास्क, फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग और बार बार हाथ धोना जहां हमारा रूटीन बन गया है। वहीं जिन बच्चो को हम मोबाइल से दूर रखना चाहते थे। आज उनको ऑनलाइन पढ़ाई के चलते बड़ों को अपना फोन उनको देना पड़ रहा है। इससे मांबाप घर से बाहर भी जायें तो उनको अपना मोबाइल घर पर ही ‘क्वारंटाइन’ करना होता है। दूसरी तरफ डिजिटल कारोबारी इस मौके का जमकर लाभ उठा रहे हैं।*           

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   यह रिसर्च का विषय है कि ऑलाइन पढ़ाई का आइडिया प्राइवेट स्कूलों की आमदनी बनाये रखने का जुगाड़ था? या सरकार का शिक्षकों को कोरोना लॉकडाउन के दौर मेें व्यस्त रखने की योजना थी? डिजिटल कंपनियों का अपना व्यापार बढ़ाने का सोचा समझा प्लान था? या फिर माता पिता का अपने बच्चो को घर बैठकर सारे दिन टीवी देखने और तरह तरह की कुराफात से रोकने का देसी नुस्खा था? अब देखने में यह आ रहा है कि ऑनलाइन पढ़ाई का कॉन्सेप्ट सामने आने के बाद डिजिटल कारोबार में तेज़ उछाल आया है। जबकि कोरोना संकट के दौरान खाने पीने के सामान के बाद यही एकमात्र धंधा था।

जो लोगों के घर पर खाली रहने से हर टाइम मोबाइल पर उंगलियां घुमाने से खूब फल फूल रहा था। इसके बाद जब बच्चो की पढ़ाई ऑनलाइन होने लगी तो अचानक घर घर एक क्रांति हुयी । जो मांबाप बच्चो को अपने मोबाइल को हाथ तक नहीं लगाने देते थे। वे बच्चो को इस बात के लिये मनाने लगे कि फिलहाल वे उनके मोबाइल से काम चला लें। लॉकडाउन खुलने के बाद वे उनको उनकी पसंद का बढ़िया सा नया स्मार्ट फोन खरीद कर देेंगे। जिन बच्चो को उनके बड़ों ने अपनी मर्जी से अपना मोबाइल उनके हवाले खुद नहीं किया।

उन स्मार्ट बच्चो ने अपना साल ख़राब होने का डर दिखाकर अपने माता पिता बड़ी बहन भाई का मोबाइल भारतीय जुगाड़ से अपने आप हथिया लिया। जहां बड़े अपना मोबाइल किसी हाल में नहीं छोड़ना चाहते थे। उनको कोरोना के लॉकडाउन में अपनी जेब ढीली करनी पड़ी। कुछ को अपने बच्चो को पहले कभी दिये गये मोबाइल हर वक्त चलाने की वजह से छीनकर रखने का पश्चाताप करते हुए अपनी इस भूल पर अफसोस जताकर ससम्मान वापस करने पड़े। इसके साथ कुछ बच्चो के मोबाइल जो खराब करके या या एक सोची समझी चाल के तहत खराब बताकर बड़ों ने कोरोना के लॉकडाउन से पहले ही लॉकडाउन करके एक गुमनाम कोने में छिपाये हुए थे।

वे भी झाड़ पोंछकर मजबूरन बाहर निकालने पड़े। लेकिन सबसे बड़ी समस्या नेटवर्क को लेकर खड़ी हुयी। जिसका संज्ञान मोबाइल कंपनी से लेकर सरकार या स्कूल किसी ने नहीं लिया। यह ठीक है कि वजह चाहे जो रही हो स्कूल कॉलेज कोरोना की वजह से बंद होने के कारण पूरे देश में प्राइमरी के बच्चो से लेकर यूनिवर्सिटी के बड़े छात्रों की पढ़ाई और परीक्षा अचानक ऑनलाइन शुरू करने का तुगलकी फरमान जारी कर दिया गया। वह भी तब जबकि इस देश में खुद सरकारी आंकड़ों के हिसाब से केवल 56 प्रतिशत लोगों के पास ही स्मार्ट फोन या कंप्यूटर लैपटॉप व टैब्लेट आदि की सुविधा है।

इतना ही नहीं कश्मीर जैसे राज्य में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद आज तक केवल सरकार ने 3जी और 4जी नेट चालू नहीं किया है। दूसरे वहां एक साल से लॉकडाउन होने की वजह से लोगों के पास रोज़गार ना होने से अपने मोबाइल चलाने को नेट रिचार्ज कराने तक को धन नहीं है। ऐसे ही पूरे देश में 10 से 12 करोड़ लोगों का रोज़गार लॉकडाउन की वजह से पूरी तरह या आंशिक रूप से चले जाने की वजह से वे अपना स्मार्ट फोन रिचार्ज कराने या खराब होने पर मरम्मत कराने की हालत में नहीं हैं। बाज़ारवादी डिजिटल प्लेटफॉर्म सरकार और स्कूलों पर अपना लाभ कमाने का एजेंडा थोपने पर इसके बावजूद कामयाब रहे।

जबकि कई क्षेत्रों में इंटरनेट या तो काम नहीं करता या फिर सिग्नल और लाइट कभी कभी ही आती है। प्रॉब्लम यह थी कि पढ़ाई और एक्ज़ाम की स्कीम तानाशाही तरीकों से जारी हो चुकी थीं। माता पिता के दिल की धड़कनें किसी टाइम बम पर बैठे फिल्मी हीरो जैसी हो चुकी थीं। यह सबकुछ ऑनलाइन करने से पहले यह तक नहीं देखा गया कि हमारे डिजिटल प्लेटफॉर्म इतना लोड संभाल पायेंगे या नहीं? जब करोड़ों ईमेल अटैचमंेट के ज़रिये लाखों असाइनमेंट टीचर्स और स्टूडैंट्स के बीच आने जाने लगे तो वैबसाइट्स क्रैश होनी शुरू हो गयीं।

अपलोड डाउनलोड बीच में ही अटककर मोबाइल हैंग होने लगे। ऑनलाइन ओपन बुक एक्ज़ाम में लाखों बच्चो के क्वेशचन पेपर डाउनलोड ही नहीं हुए। तीन घंटे के तय टाइम में अगर घंटे दो घंटे बाद जैसे तैसे रूक रूक कर डाउनलोड हुए भी तो जवाब लिखने का टाइम निकल चुका था। उसके बाद जब तक जवाब अपलोड करने की बारी आई। नेट तब भी स्लो या जाम था। सवाल यह है कि ऐसे बच्चो को ऑफलाइन एक्ज़ाम का विकल्प कब मिलेगा? अगर ऑफलाइन परीक्षा ही देनी थी तो फिर ऑनलाइन में क्यों इतना सर खपाया?

साथ ही कोरोना से बचने को वह बच्चा जो घर पर ऑनलाइन पढ़ रहा था अब इम्तहान देने कैसे जायेगा? दिल्ली यूनिवर्सिटी के ऐसे ही तुगलकी फैसले को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट ने वहां के प्रशासन को खूब खरी खोटी सुनाई। लेकिन कई राज्यों द्वारा ऑनलाइन ओपन बुक एक्ज़ाम कैंसिल कर विगत सेमेस्टर और बच्चे की अब तक की इंटरनल पर्फोरमेंस के आधार पर बिना परीक्षा पास करने की अपील पर यूजीसी कान देने को तैयार नहीं है।

स्कूल कॉलेज यह मांग भी मानने को तैयार नहीं हैं कि जो बच्चे नेट कनेक्ट ना होने की हालत में घर की छत या आसपास के किसी पेड़ पर चढ़कर भी जब स्कैन रिप्लाई शीट किसी दूसरे की ईमेल आईडी से भेजने में नाकाम हो गये तो उनको अपना जवाब कूरियर से भेजने का विकल्प दिया जाये। यह विडंबना ही है कि एक तरफ अमेरिका ब्रिटेन और यूरूपीय देशों में जहां डिजिटल प्लेटफॉर्म काफी व्यापक पर्याप्त और मज़बूत हालत में हैं। वहां लोग फिर से स्कूल कॉलेज जाने को उतावले हो रहे हैं। वहीं हमारे यहां उल्टा ऑनलाइन का विकल्प तब भी जबरन बच्चो पर थोपा जा रहा है। जबकि हमारे यहां शत प्रतिशत लोगों के पास ये सुविधायें उपलब्ध ही नहीं हैं।                                                                          

।लेखक  स्वतंत्र पत्रकार हैं।