Saturday 25 September 2021

तालिबान नहीं सुधरेंगे

तालिबान नहीं सुधरेंगे यह शक सही साबित होता जा रहा है!

0 बाॅलीवुड के दो बड़े मुस्लिम कलाकार नसीरूद्दीन शाह और जावेद अख़्तर ने अफ़गानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने पर बयान जारी कर कुछ बातें कही थीं। इनमें भारत के मुसलमानों से ताालिबान का और हिंदुओं से किसी भी तरह के देसी कट्टरपंथियों का समर्थन ना करने की अपील भी की गयी थी। ज़ाहिर बात है कि दोनों वर्गों के उदार लोगों को जहां ये अपील ठीक लगी वहीं कट्टर और साम्प्रदायिक लोगों ने बिना समय गवाये दोनों सेकुलर और मानवतावादी कलाकारों को निशाने पर ले लिया। लेकिन एक माह भी नहीं बीता तालिबान ने हमारे लेख में जतायी गयी आशंकाओं को सच साबित करना शुरू कर दिया है।

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

     दुनिया की जानी मानी पीयू रिसर्च ने हाल ही में पाकिस्तान सहित इंडोनेशिया और कई मुस्लिम मुल्कों में एक सर्वे किया है। पाकिस्तान में जहां 84 प्रतिशत वहीं दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश इंडोनेशिया में 74 फीसदी लोग शरीयत राज के पक्ष में हैं। मजे़दार बात यह है कि इसके बावजूद पाक में 9 तो इंडोनेशिया में मात्र 4 परसेंट लोग ही तालिबान राज के पक्ष में हैं। हमारा दावा है कि अगर विश्व की दूसरी बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश भारत के मुसलमानों को भी इस सर्वे में शामिल किया जाता तो उनकी तादाद पाक और इंडोनेशिया से भी काफी कम तालिबान के सपोर्ट और शरीयत राज के पक्ष में आयेगी। उधर तालिबान ने सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत होते ही अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया है। यह आशंका हमने अपने पहले लिखे लेख में ही जता दी थी। दरअसल जिस एक बात के लिये नसीरूद्दीन शाह को भारत में मुट्ठीभर कट्टरपंथी मुसलमान कोस रहे हैं। वह कोई माने या ना माने या उनके शब्दों के चयन पर बेशक एतराज़ करे लेकिन सच यही है कि भारत का मुसलमान दुनिया के दूसरे मुस्लिमों से बिल्कुल अलग यानी उदार सेकुलर और प्रगतिशील है। हालांकि शाह ने अगर इस 54 सेकंड के वीडियो में दुनिया के अलग अलग हिस्सों में इस्लाम अलग अलग ना बताकर मुसलमान अलग अलग बताया होते तो कट्टरपंथियोें को इतना हंगामा करने का मौका नहीं मिलता। जबकि कट्टरपंथियों के पूरी दुनिया में इस्लाम एक जैसा होने की दावे की कलई भी इस हक़ीक़त से खुल जाती है कि उसकी व्याख्या यानी इंटरप्रिटेशन और अनुवाद सब देशों फिरकों और फिक़हों में अलग अलग अपनाया और माना जाता रहा है। मिसाल के तौर पर सउूदी और अफगानी इस्लाम की परिभाषा तक अलग अलग है। खुद भारत में शिया सुन्नी और देवबंदी बरेलवी मरकज़ के लोग इस्लाम की कई बातों पर एकमत नहीं हैं। वैसे अगर निष्पक्ष होकर देखा जाये तो इसमें कोई अनोखी या एतराज़ के लायक बात भी नहीं बल्कि ये उदारता विविधता और लोकतंत्र की पहचान है। लेकिन समस्या तब शुरू होती है। जब एक वर्ग दूसरे को मुसलमान ना मानकर ना केवल काफिर का तमगा देता है बल्कि उसको ज़बरदस्ती अपने सैक्ट के हिसाब से चलाना चाहता है। एक दूसरे की बात से सहमत ना होने या अपने तौर तरीकों से चलने पर कुछ अलग अलग सोच के फिरके एक दूसरे पर हिंसक हमले करने से भी नहीं चूकते। हिंदुओं में यह बात सराहनीय है कि ना तो वे किसी खास सोच के हिंदू को हिंदू धर्म से बाहर करने का फ़तवा देते हैं और ना ही 33 करोड़ देवी देवताओं में से किसी की पूजा करने या ना करने से किसी पर हमला या उसको बुरा समझकर बहिष्कार करते हैं। लेकिन जावेद अख़्तर ने कुछ समय से हिंदुओं में बढ़ रही कट्टरता पर उंगली उठाकर एक संगठन को तालिबानी सोच से प्रेरित बताकर तूफान खड़ा कर दिया था। बाद में उन्होने शिवसेना के मुख्य पत्र दोपहर का सामना में एक लंबा लेख लिखकर अपनी मंशा साफ की है। लेकिन जावेद अख़्तर का आगाह करना गलत नहीं माना जा सकता। अजीब बात यह भी है कि जो 84 प्रतिशत पाकिस्तानी शरीयत राज चाहते हैं। जब वहां चुनाव होता है तो उनमें से मात्र 7 प्रतिशत ही इस्लामी राज लाने का दावा करने वाली पार्टियों को वोट देते हैं। आप विश्वास कीजिये अगर तालिबान भी कभी बर्बरता बुज़दिली और गुंडागर्दी छोड़कर अफगानिस्तान में निष्पक्ष और ईमानदार चुनाव कराने की हिम्मत दिखायेगा तो वहां की लगभग सभी औरतें अल्पसंख्यक और पुरूषों का एक हिस्सा मिलकर उनको सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा सकता है। जो लोग यह समझते हैं कि भारत सहित पूरी दुनिया के मुसलमान तालिबान को पसंद करते हैं। वे मूर्खो के स्वर्ग में रहते हैं। उनको अफ़गानिस्तान के खासम खास पड़ौसी मुल्क पाकिस्तान को देखना चाहिये जो तालिबान को तो सपोर्ट करता है। लेकिन अपने यहां वैसा ही तालिबानी राज कायम होने से डरता है। यही वजह है कि वह बार बार तालिबान से अपील कर रहा है कि तहरीके तालिबान-पाकिस्तान के अफ़गानिस्तान में बंद आतंकवादियों को अपनी जेलों से रिहा ना करे। पाक के शातिर और मक्कार शासकों की कितनी दोगली अपील है कि खुद तो तालिबान जैसे बर्बर आतंकियों को अपने देश में ना केवल शरण दी बल्कि पैसा और हथियार देकर ट्रेनिंग भी दी। लेकिन अपने यहां उन जैसे तालिबानी सोच के तहरीक ए तालिबान को पनपने नहीं देना चाहते। इसके साथ ही आप यह भी देख सकते हैं कि पाकिस्तान में महिलाओं और अल्पसंख्यकों का उतना बुरा हाल नहीं है। जितना जुल्म और पक्षपात अफ़गानिस्तान में पहले देखा गया और अब भी देखे जाने लगा है। इतना ही नहीं पाक में जैसा भी आधा अध्ूारा लोकतंत्र मीडिया अदालत और दूसरी पश्चिमी सभ्यता की प्रतीक चीजे़ं मौजूद हैं। अफ़गानिस्तानी तालिबान उनको किसी कीमत पर इजाज़त नहीं देगा। इसका नतीजा यह होगा कि या तो अफ़गानिस्तान में धीरे धीरे तालिबान का राज कमज़ोर पड़ता जायेगा या फिर पाकिस्तान में भी तालिबानी सोच के लोग पार्टी और संगठन उसके ना चाहते हुए मज़बूत होते जायेंगे। उसके बाद पाकिस्तान को भारी नुकसान उठाकर यह अहसास होगा कि उसने जो बबूल का पेड़ अफ़गानिस्तान या कश्मीर में भारत के लिये बोया है। उसके कांटों से वह खुद भी लंबे समय तक बचा नहीं रह सकता। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। दशकों के भारी खून खराबे के बाद पाक ना केवल अपनी भूल सुधार करने को मजबूर होगा बल्कि उसको अपने देश के साथ साथ पड़ौस में उगाया गया कैक्टस का पौधा भी उखाड़ना होगा। हमारा मानना है कि अगर दुनिया सोच समझकर अपने स्वार्थों पर थोड़ा सा अंकुश लगाकर तालिबान और पाकिस्तान को घेरें और उनको विश्व स्तर पर आतंकवाद उग्रवाद और कट्टरवाद से दूर रहकर सेकुलर समानता और सही मायने में लोकतंत्र पर चलकर सबको बराबर अधिकार देने को मजबूर करें तो आज नहीं तो कल इनका दिमाग़ हर हाल में ठिकाने आ सकता है।     

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Monday 13 September 2021

N M P

एनएमपी यानी नेशनल मोनिटाइजे़शन पाइपलाइन किसके हित में ?

0 हमारे देश का प्रावेट सैक्टर सड़क और रेलवे लाइन जैसे बुनियादी क्षेत्र में निवेश करने से पहले से ही बचता रहा है। इसकी वजह यह है कि वह जानता है कि भारत के दूरदराज़ के इलाक़ों में भारी भरकम पैसा लगाने से खर्चा बहुत अधिक आयेगा । लेकिन गांव और क़स्बों के लोग उसको मनमाफि़क मुनाफा नहीं दे पायेंगे। यही वजह है कि आपको गांव देहात में कायदे के प्रावेट स्कूल बड़े अस्पताल ना के बराबर ही देखने को मिलेंगे। इसके बावजूद मोदी सरकार ने दो टूक कह दिया है कि सरकार का काम बिज़नैस करना नहीं है। सवाल यह है कि ऐसे में घाटा उठाकर भी जनकल्याण का काम कौन करेगा?

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

     पूंजीवाद और समाजवाद का बुनियादी अंतर यही रहा है कि जहां समाजवादी सरकारें नुक़सान उठाकर भी जनता को बुनियादी ज़रूरतें लागत से कम दाम पर उपलब्ध कराती हैं। वहीं पूंजीवादी व्यवस्था में केवल और केवल मुनाफे का एकसूत्री लक्ष्य सामने रखकर काम किया जाता है। हालांकि यह भी सच है कि समाजवादी सरकारें भ्रष्ट अफ़सरशाही के बल पर जनकल्याण का उतना काम नहीं कर पातीं जितना उनको करना चाहिये या वे करना चाहती हैं। उधर प्राइवेट सैक्टर कम खर्च कम वेतन और कम लागत पर सुविधायें सेवायें और प्रोडक्ट उपलब्ध् कराकर जनता का खून चूसना शुरू कर देता है। जिससे वह अधिक से अधिक लाभ मानवता समाज और नैतिकता व नियम कानून को ताक पर रखकर कमा सके। पहले सरकारें लोकलाज के डर से पूंजीपतियों को ऐसी खुली लूट की छूट देते हुए डरती थीं। उनको विपक्ष मीडिया कोर्ट और चुनाव में हार जाने का डर बना रहता था। लेकिन जब से देश में मोदी सरकार आई है। यह डर सरकार के दिमाग से ख़त्म हो गया है। कहने को देश में लोकतंत्र है। लेकिन लेविल प्लेइंग फील्ड नहीं है। मोदी सरकार को चुनाव हारने का डर नहीं है। उसने 2016 में असफल नोटबंदी फिर आधी अध्ूारी तैयारी के साथ जीएसटी और उसके बाद 2020 में बिना एक्सपर्ट्स कैबिनेट और विपक्ष से मश्वरे के 68 दिन की देशबंदी करके अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया। इसके अलावा भी उसकी एक के बाद एक गलत आर्थिक नीतियों पक्षपाती फैसलों विभाजनकारी कानून बहुसंख्यकवादी नीतियों रिज़र्व बैंक के गवर्नरों का गलत चयन गलत आर्थिक सलाहकारों का चयन बैंकों का एनपीए बढ़ाते जाना कालाधन देश में पैदा होने से ना रोक पाना और विदेश से लाने में असमर्थता करप्शन रोकने में नाकामी से हमारी जीडीपी लगातार गिरती जा रही है। आज हालत यह है कि सरकार के पास अपने खर्च चलाने को पूरा पैसा नहीं है। ऐसे में मोदी सरकार ने एनएमपी यानी नेशनल मोनिटाइजे़शन पाइपलाइन योजना लांच की है। इसके ज़रिये वह आज़ादी के बाद सरकार द्वारा बनाई गयी अरबों खरबों की लागत वाली नवरत्न सरकारी कंपनियों तक को निजी क्षेत्र को औने पौने में लीज़ पर देकर 6 लाख करोड़ से अधिक का राजस्व जुटाना चाहती है। इसमें रेलवे नेशनल हाईवे बंदरगाह बिजली एयरपोर्ट दूरसंचार और शिपिंग सहित कई स्टेडियम को प्राइवेट क्षेत्र को सौंपना चाहती थी। पहले मोदी सरकार एयर इंडिया को बेचना चाहती थी। लेकिन उसे आज तक उसका एक भी खरीदार नहीं मिला। इसको बेचने की वजह इंडियन एयरलाइंस का लगातार बढ़ता घाटा बताया जाता था। इसकी एक बड़ी वजह यह भी रही कि प्राइवेट सैक्टर बखूबी जानता है कि देश की अर्थव्यवस्था इतनी खराब होती जा रही है कि भारत की जनता विशेष रूप से मीडियम क्लास की जेब में इतना अधिक या अतिरिक्त धन नहीं आ रहा है कि वह अपनी कार या सरकारी रेल की बजाये हवाई जहाज़ से यात्रा करने की सोचे। कोरोना ने सबसे अधिक कमर इसी वर्ग की तोड़ी है। सवाल यह भी है कि नेहरू और कांग्रेस को बात बात पर दोषी ठहराने वाली मोदी सरकार खुद क्यों नहीं एयर इंडिया को लाभ में ला सकीयही समस्या रेलवे के निजीकरण में भी आने वाली है। अगर प्राइवेट सैक्टर रेलवे के रूट लीज़ पर लेगा तो वह उसमें पहले के मुकाबले सुविधायें बढ़ायेगा। जब ऐसा होगा तो उसकी लागत और मुनाफा बढ़ने से रेल का किराया भी काफी बढ़ेगा। लेकिन पहले रोज़गार जाने वेतन कम होने पीएफ समय से पहले निकालकर खर्च करने सोना गृवी रखकर कर्ज लेने से परेशान जनता का बड़ा हिस्सा इस बढ़े किराये को नहीं दे पायेगा। यही ख़तरा निजी क्षेत्र को इस क्षेत्र मेें आने से रोक सकता है। एनएमपी में सरकार ने दावा किया है कि वह सार्वजनिक क्षेत्र के इन नवरत्नों को जड़ से बेच नहीं रही है। बल्कि वह  इन क्षेत्रों को 4 से 5 साल के पट्टे पर प्रावेट सैक्टर को संचालन के लिये देगी। जबकि प्राइवेट क्षेत्र की नज़र इन सरकारी कंपनियों की बेशकीमती ज़मीन पर लगी है। देखने में सरकार का यह क़दम बड़ा अच्छा नज़र आता है। लेकिन कड़वा सच यह है कि 2020-21 में भी सरकार ने सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेचकर 2.1 लाख करोड़ कमाई का सुनहरा सपना जनता को दिखाया था। लेकिन वह केवल 30 हज़ार से कुछ अधिक ही वसूल कर सकी है। इसके बाद 2022 के बजट में सरकार ने 1.75 लाख करोड़ की सरकारी भागीदारी बेचने का मन बनाया। लेकिन वह भी पूरा होने के आसार दूर दूर तक दिखाई नहीं दे रहे हैं। सवाल यह है कि सरकार ऐसा करने में बार नाकाम क्यों हो रही हैइसकी वजह है निजी क्षेत्र को जनकल्याण और सरकार के लाभ से कोई लेना देना नहीं है। उसे तो केवल अपना मुनाफा चाहिये। सरकार ने चूंकि बुनियादी ढांचा पहले ही तैयार कर दिया है। प्राइवेट सैक्टर को इस क्षेत्र का संचालन और कम से कम खर्च कर रखरखाव करना है। ऐसा करने से जो मोटी कमाई होगी। उसमें से एक हिस्सा सरकार को देना है। पहले सरकार पर सरकारी सम्पत्तियोें को बेचने के ढेर सारे आरोप लगते रहे हैं। लिहाज़ा अब मोदी सरकार ने बहुत सोच समझकर यह बीच का रास्ता निकाला है। जिसमंे सम्पत्ति का स्वामित्व तो कहने को सरकार का ही बना रहेगा लेकिन एक तरह से उन सम्पत्तियों पर काबिज़ होने वाली निजी क्षेत्र की गिनी चुनी कंपनियों की आगे चलकर मोनोपोली हो जायेगी। जिस तरह से टेलिकाॅम सैक्टर में अंबानी के जियो की होती जा रही है। एक दिन आयेगा आप देखेंगे धीरे धीरे अन्य सभी प्राइवेट दूरसंचार कंपनियां घाटा सहन ना कर पाने की वजह से जियो के सामने घुटने टेक देंगी। सरकारी कंपनी बीएसएनएल का खुद सरकार ने पहले ही भट्टा बैठा दिया है। ऐसे में जियो भविष्य में जनता से अपनी सेवाओें की मनमानी कीमत वसूल करेगी। चंद गिने चुने अमीर कारपोरेट घरानों को छोड़ दें तो क्या उद्योगपति क्या व्यापारी क्या प्रोफेशनल क्लास और क्या मीडियम और लोवर क्लास सबके सामने आज रोज़गार नौकरी कारोबार और पर्याप्त आय की समस्या आ खड़ी हुयी है। ऐसे में लोग बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी की व्यवस्था कर पा रहे हैं। सवाल यही है कि जब लोगों की जेब में पैसा ही नहीं है। ऐसे में सरकार अगर प्राइवेट सैक्टर से 6 लाख करोड़ कमाने की सोच रही है तो प्राइवेट सैक्टर भी अपनी आमदनी से तो सरकार को पैसा देगा नहीं। वह जनता की जेब से ही यह 6 लाख करोड़ और अपना इससे कई गुना मुनाफा वसूलना चाहेगा जिसका सारा बोझ आखि़रकार जनता पर ही पड़ना है तो सरकार किसके हित में काम कर रही है?   

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Saturday 4 September 2021

दलित राजनीति का भविष्य

माया’ की बसपा को खा जायेगी रावण’ की असपा ?

0 दलित समाज की राजनीति में डा. अंबेडकर जगजीवन राम बूटा सिंह कांशीराम रामविलास पासवान उदितराज और मायावती के बाद यूपी में जो एक नाम तेज़ी से उभरकर सामने आ रहा है वो युवा नेता चंद्रशेखर आज़ाद उर्फ़ रावण का है। हालांकि हाल ही में गठित उनकी आज़ाद समाज पार्टी आगामी चुनाव में लंबे समय तक कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं कर पायेगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या रावण की पार्टी धीरे धीरे ही सही माया की बसपा द्वारा खाली की जा रही सियासी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने का सपना देख रही है और क्यों व कैसे?

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  0 आंच अगर कश्ती पर आये हाथ क़लम करवा देना,

      लाओ मुझे पतवारे दे दो मेरी जि़म्मेदारी है ।।

                       सियासत में थोड़ा भी दिलचस्पी रखने वाले बता सकते हैं कि बसपा प्रमुख मायावती ना केवल एक के बाद एक चुनाव हारकर अपनी सियासी ज़मीन तेज़ी से खोती जा रही हैं बल्कि उसी भाजपा के सामने लगभग हथियार डाल चुकी हैं। जो उनके दलित वोटबैंक में सेंध लगा रही है। आज अगर कोई दल व नेता भाजपा से दो दो हाथ कर उसको बार बार हराने में कामयाब रहा है। वो केजरीवाल और ममता बनर्जी माने जा सकते हैं। दोनों ही ना केवल जनहित के एक से बढ़कर एक काम कर रहे हैं बल्कि ईमानदार छवि भी बना चुके हैं। बसपा को यूपी में सरकार बनाने के एक नहीं कई बार मौके मिले। एक बार उसको पूर्ण बहुमत भी मिला। मायावती की सरकार का शायद ही कोई ऐसा बड़ा काम या चर्चित योजना हो। जिसकी जनता में आजतक प्रशंसा होती हो। पहली बार मुख्यमंत्री बनने पर माया का भ्रष्ट नौकरशाही पर जो चाबुक चला था। उसकी उनके राजनीतिक विरोधियों ने भी खुलकर सराहना की थी। लेकिन उसके बाद जब भी बसपा सत्ता में आई उसकी यह खूबी भी गायब हो गयी। दरअसल मायावती ने अपने कार्यकाल में ऐसे ऐसे विवादित कार्य किये। जिससे उन पर घोटालोें के आरोप लगने लगे। पहले कांग्रेस और अब भाजपा की केंद्र सरकार ने उनके कारानामों की जांच के नाम पर उनको जेल भेजने का डर दिखाकर इतना डरा दिया कि वे अपने घर में एक तरह से खुद ही हाउस अरेस्ट होकर चुप बैठी हुयी हैं। वे अगर ज़बान खोलती भी हैं तो भाजपा से अधिक सपा और कांग्रेस के खिलाफ ज़हर उगलती हैं। एक बार वे यहां तक कह चुकी हैं कि अगर कांग्रेस सपा को सबक सिखाने के लिये भाजपा को भी सपोर्ट करना या अपने दलित वोटों से कराना पड़ा तो वे करेंगी। यानी उन पर जो शक या आरोप था। वो उनके बयान से खुद ही सच साबित हो गया। सच यह है कि कांशीराम ने जिस बसपा को अपने खून पसीने से सींचकर यहां तक पहंुचाया था। उसकी लगाम बिना संघर्ष बिना दूरदृष्टि और बिना किसी उसूल की अवसरवादी नेता मायावती के पास विरासत में आ जाने से उन्होंने अपनी असीमित महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिये तहस नहस कर दिया। उनपर विधानसभा लोकसभा से लेकर राज्यसभा तक के टिकट बेचने के गंभीर आरोप लगे। यूपी में एक बार अपने बल पर बसपा के सरकार बनाने से सीएम बनी मायावती पीएम बनने का सपना देखनी लगी। नतीजा यह हुआ कि वे पीएम तो बनी नहीं उसके बाद फिर कभी सीएम भी नहीं बनी। उन्होंने भ्रष्टाचार के मुकदमों से जेल जाने को बचने को जिस सतीश मिश्रा को अपना वकील चुना। उनको ही बसपा में महत्वपूर्ण पद का इनाम देकर बसपा को बहुजन समाज से सर्वजन समाज के नाम पर उन बृहम्णों को जोड़ने का आत्मघाती जि़म्मा सौंप दिया। जिनकी नीतियों के विरोध में बसपा का गठन किया गया था। मायावती ने दलितों के अलावा मुसलमानों और अति पिछड़ों के साथ भी ऐसा सौतेला सलूक किया कि एक एक कर उनके नेता दूसरी पार्टियों में या तो खुद बसपा को छोड़कर चले गये या फिर मायावती ने उनके जनाधार से डरकर उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया। मायावती पर यह भी आरोप है कि वे दलितों में भी केवल जाटवों की सियासत पर अधिक जोर देती रही हैं। इसका लाभ भाजपा ने जाटव यादव और मुसलमान बनाम शेष हिंदू जातियों को गोलबंद कर उठाया है। दलित नेता उदित राज कहते हैं कि कांशीराम ने ऐसे लोगों को बसपा से जोड़ा जो अपनी जातियों को पार्टी से जोड़ रहे थे। लेकिन जब माया से उनको सम्मान नहीं मिला या उल्टा अपमान होने लगा तो वे बसपा से अलग होकर अपनी जाति के वोटों के बल पर दूसरी पार्टियों में जाकर एमएलए एमपी बन गये। इससे इनका व्यक्तिगत लाभ तो हुआ लेकिन वृहद दलित या अति पिछड़ी जातियोें का नुकसान हुआ। इससे शिक्षा स्वास्थ्य रोज़गार और शासन प्रशासन में इन वंचित वर्गों की हिस्सेदारी का मुद्दा ख़त्म हो गया। मोदी के हिंदुत्व में राष्ट्रवाद रोजी रोटी आज़ादी और डेमोक्रेटिक राइट्स नहीं हैंफिर भी कुछ दलित नेताओं के भाजपा के साथ जाकर स्वार्थ पूरे हो रहे हैं। दलित विचारक चंद्रभान कहते हैं कि बसपा के कई चुनाव हारने के बावजूद उसके वोट प्रतिशत से ऐसा लगता है कि अभी भी वही दलितों की पहली पसंद है। इसके साथ ही जो थोड़ा सा दलित युवा वर्ग और मीडियम क्लास भाजपा के साथ जुड़ा था। वह रोज़गार ना मिलने और पक्षपात बढ़ने से भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर की तरफ आकृषित हो रहा है। आने वाले वर्षों में चंद्रशेखर की पार्टी असपा बसपा को रिप्लेस कर लेगी। दलितों के हालात पर पैनी नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडि़या का मानना है कि फिलहाल भले ही लग रहा हो कि दलित सियासत कमज़ोर हो रही हैलेकिन भविष्य दलित और पिछड़ों का ही है। इतिहास गवाह है कि पहले भी दलित दल बनते बिगड़ते रहे हैं। लेकिन दलित राजनीति को लंबे समय तक नहीं रोका जा सकता। इसमें शक नहीं कि दलित वोटों पर कब्ज़े को लेकर क्षत्रपोें को पाॅवर देकर भाजपा ने बसपा का खेल कुछ समय के लिये खराब ज़रूर किया है। युवा दलित साहित्यकार अमित कुमार दो टूक कहते हैं कि पिछले एक दशक में बसपा के जनाधार में कमी के चार प्रमुख कारण मूल विचारधारा को छोड़नामाया का स्पष्टवादिता को छोड़नाकैडर वाले नेताओं को निकालना या उनका खुद निकलना और दलित पिछड़े के मुद्दों पर माया का चुप्पी साधना नज़र आते हैं।

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।