Wednesday 14 December 2022

3 चुनाव 3 सन्देश

*गुजरात, हिमाचल व दिल्ली ने तीनों दलों को संदेश दिया है!*

0 भाजपा कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को दो राज्यों के विधानसभा और दिल्ली के स्थानीय निकाय चुनाव में भले ही जीत मिली हो लेकिन इन तीन चुनाव ने तीनों दलों को अलग अलग गहन संदेश भी दिये हैं। अगर विभिन्न राज्यों में हुए कुछ उपचुनाव की चर्चा हम यह मानकर ना भी करें कि इनमें अकसर सत्ताधारी दल जीत जाते हैं या जिसका जातीय व धार्मिक समीकरण फिट बैठ जाता है। वो दल वहां जीत जाता है। लेकिन गुजरात में भाजपा की अब तक की सबसे बड़ी जीत हिमाचल में कांग्रेस की मामूली अंतर से रण्नीतिक जीत और एमसीडी में आप की बंपर की जगह सामान्य जीत कुछ संदेश देती है।

    -इक़बाल हिंदुस्तानी

      हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने भाजपा से 37,974 वोट अधिक लेकर सत्ता हासिल की है। यानी कांग्रेस को 43.9 तो भाजपा को 43 प्रतिशत मत मिले हैं। हालांकि दोनों की सीटों में 40 और 25 यानी 15 का भारी अंतर दिखाई देता है। इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि यहां आप ने लगभग एक प्रतिशत वोट ही लिये हैं। उसका अधिक ज़ोर गुजरात पर ही था। वहां उसने सीट भले ही 5 लीं लेकिन वोट 13 प्रतिशत लिये हैं। इसके साथ ही आप 35 सीट पर दूसरे स्थान पर रही है। उधर गुजरात में भाजपा की ना केवल सीट डेढ़ गुनी हो गयीं बल्कि उसने अपने वोट भी लगभग 3 प्रतिशत से अधिक बढ़ाये हैं। इससे सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ा है। हिमाचल में अगर कांग्रेस पुरानी पेंशन वापस लाने का वादा ना करती तो उसको वर्तमान और पूर्व ढाई लाख से अधिक सरकारी कर्मचारियों से शायद ही बड़ी तादाद में वोट और सपोर्ट मिलता। इसके साथ ही सेब के उत्पादकों वहां के सीएम जयराम ठाकुर को तमाम शिकायतों के बावजूद गुजरात की तरह ना बदलने और भाजपा की अंदरूनी गुटबंदी व 21 विद्रोही प्रत्याशियों में से 12 का भाजपा के वोट काटकर कांगेे्रस को जिता देना खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारना कहा जा सकता है। हालत यह थी कि भक्त दावा कर रहे थे कि मोदी यूक्रेन रूस जंग रूकवाने के प्रयास कर विश्वगुरू बनने वाले हैं और इधर देश में उनकी ही पार्टी के बाग़ी उम्मीदवारों ने उनके फोन कर चुनाव ना लड़ने की अपील करने के बावजूद हिमाचल चुनाव में बैठने से साफ मना कर दिया। हालांकि गुटबंदी कांग्रेस में भी थी लेकिन वहां प्रियंका गांधी राजीव शुक्ला और भूपेश बघेल ने उसे काबू कर लिया। सबसे बड़ी बात हिमाचल में हर बार सत्ता बदलने का रिवाज भाजपा उत्तराखंड की तरह तोड़ नहीं पाई। इसके साथ भाजपा का चुनाव जीतने का सबसे बड़ा मुस्लिम विरोधी फार्मूला यहां उनकी तादाद ना के बराबर यानी मात्र दो प्रतिशत होने से ध्रुवीकरण में काम नहीं आया।हालांकि गुजरात में एंटी इंकम्बैंसी 27 साल की थी लेकिन वहां पीएम मोदी और होम मिनिस्टर अमित शाह ने अपनी पूरी ताक़त झोंककर और अपनी नाक का सवाल बनाकर जितना जोरदार प्रचार किया उससे भाजपा वहां एक बार फिर जीतने में सफल रही। भाजपा की सीटें बढ़ने की एक वजह जहां भाजपा का पहले से वोट तीन प्रतिशत बढ़ना एक कारण रहा वहीं विपक्षी वोट कांग्रेस और आप में बंट जाना इसकी बड़ी वजह मानी जा सकती है। गुजरात संघ की प्रयोगशाला रहा है। वहां उसने जो हिंदू राष्ट्र का एक राज्य स्तरीय माॅडल स्थापित कर दिया है। वह अभी भी विकास रोज़गार महंगाई स्वास्थ्य और करप्शन पर भारी पड़ता नज़र आ रहा है। इससे पहले भाजपा ने अपनी सरकार के खिलाफ बनते माहौल को भांपकर काफी पहले वहां का पूरा मंत्रिमंडल सीएम सहित बदलकर मतदाताओं को ऐसा आभास कराया मानो वहां जो कुछ बुरा हो रहा है। उसके लिये भाजपा संघ या मोदी की सरकार नहीं बल्कि ये लोग कसूरवार थे। इसका उसको लाभ भी मिला। इतना ही नहीं भाजपा ने अपने 40 से अधिक वर्तमान विधायकों का टिकट काटकर भी यही संदेश दिया कि लोगों की तमाम परेशानी शिकायतों और समस्याओं के लिये यही एमएलए ज़िम्मेदार थे। अब नये विधायक चुनकर आयेंगे तो वे सबकुछ ठीक करेंगे। यानी भाजपा सरकार और पार्टी की कोई कमी गल्ती या ख़राबी थी ही नहीं। भाजपा का यह चतुर निर्णय भी काफी हद तक कारगर होता नज़र आया है। जहां तक आम आदमी पार्टी का सवाल है। वह गुजरात में जीत के बड़े बड़े दावे कर रही थी लेकिन उसको भाजपा की बी टीम और केजरीवाल को छोटा मोदी मानने वालों की भी कमी नहीं है। यह ठीक है कि जिस तरह से वहां 27 साल से कांग्रेस लगातार भाजपा से हार रही है। उससे कुछ भाजपा विरोधी वोटर आप की तरफ गये हैं। पहले ही चुनाव में 5 सीट और 13 प्रतिशत वोट हासिल कर राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर लेना ही फिलहाल आप के लिये उपलब्धि है। लेकिन जिस तरह से आप ने मुसलमानों और दलितों को नाराज़ कर नरम हिंदुत्व का रास्ता पकड़ा है। उससे उसे दिल्ली नगर निगम के चुनाव में वैसी बंपर जीत नहीं मिली जैसी वह खुद ही नहीं एग्ज़िट पोल भी मानकर चल रहे थे। आंकड़े बताते हैं कि विधानसभा के मुकाबले आप को मुसलमानों के 14 और दलितों के 16 प्रतिशत वोट कम मिले हैं। मुसलमानों के आधे वोट कांगे्रस के साथ चले गये। उधर हारने के बावजूद भाजपा दिल्ली में अपने वोट बढ़ाकर अब 39 प्रतिशत ले आई है। कहने का मतलब यह है कि आप कांग्रेस का वोट छीनकर अधिक मज़बूत हो रही है। लेकिन भाजपा पहले से कमज़ोर अभी भी नहीं हो रही है। भाजपा का वोट केवल हिमाचल में घटा है। हालांकि भाजपा ने गुजरात चुनाव के साथ दिल्ली निगम चुनाव कराकर और तीन हिस्सों में बंटी एमसीडी को एक कर चुनावी चाल चली थी। लेकिन यह खुद उस पर ही उल्टी पड़ गयी क्योंकि बीच बीच में भाजपा को गुजरात हारने का डर सता रहा था। जिससे उसके बड़े नेताओं ने अपना सारा फोकस गुजरात में किया। उधर आप के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया को करप्शन के आरोप लगाकर घेरने की रण्नीति भाजपा के काम नहीं आई। भाजपा खुद को तो पाक साफ साबित कर नहीं पाती उसकी सारी कवायद आप को भी करप्ट साबित करने की थी। लेकिन लोगों ने इस पर कान नहीं दिये। कुल मिलाकर आम आदमी पार्टी कांग्रेस और भाजपा के लिये इन चुनावों के संदेश साफ हैं कि आप लोगों को अगर ठीक से नहीं सुनेंगे और चालाकी मक्कारी या शाॅर्टकट से वोट लेकर बार बार जीतना चाहेंगे तो ये एक दो बार तो मुमकिन है लेकिन हर बार यह हथकंडा काम नहीं करेगा। इसलिये सभी दलों को संविधान के हिसाब से सबका साथ व विकास करना ही होगा।

*नोट- लेखक पब्लिक ऑब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

Saturday 10 December 2022

ईरानी महिलाओं की जीत

*ईरानी हिजाब विरोधी महिलाओं की जीत उदारवाद की जीत है!*

0 क़तर में हो रहे विश्व कप फुटबाॅल में अपने पहले मैच में ईरान की टीम ने जब अपने देश के हिजाब विरोधी प्रदर्शनकारियों के समर्थन में राष्ट्रगान नहीं गाया था तो दुनिया कह रही थी कि ईरान सरकार पर इसका शायद ही कोई असर पड़े? यह भी आशंका जताई जा रही थी कि इन खिलाड़ियों को इसकी वतनवापसी पर भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है? उधर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार प्रमुख वोल्कर टार्क ने ईरान में प्रदर्शनकारियों पर जुल्म की जांच को मानवाध्किार परिषद के बैनर तले स्वतंत्र जांच मिशन का गठन कर दिया था। इतना ही नहीं ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्लाह खोमेनी की भतीजी फरीदा मुरदखानी ने तो माॅरल पुलिस ख़त्म ना करने पर दुनिया से ईरान से सभी राजनीतिक रिश्ते तोड़ने तक की मांग की थी।* 

   -इक़बाल हिंदुस्तानी

      ईरान के अटाॅर्नी जनरल मुहम्मद जाफर मोन्टेजेरी ने ऐलान किया है कि माॅरेलिटी पुलिस का न्यायपालिका से कोई सरोकार नहीं है इसलिये उसको भंग करने का ईरान सरकार ने फैसला किया है। इतिहास गवाह है कि दुनिया के कई देशों में सरकार की नीतियों और फैसलों के खिलाफ आंदोलन चलते हैं। लेकिन तानाशाह धार्मिक राजशाही की तो बात छोड़ दीजिये आजकल लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारें भी जन आंदोलनों को पसंद नहीं करतीं। जहां तक ईरान का सवाल है तो वहां की सरकार इस्लामिक कट्टर और पिछड़ी सोच की अतीतजीवी तानाशाह सरकार है। उसका मानवाधिकार रिकाॅर्ड भी बेहद खराब है। इतिहास यह भी बताता है कि जुल्म का सिलसिला जब हद पार कर जाता है तो जनता उसके खिलाफ बिना यह सोचे खड़ी होने लगती है कि उसके विरोध का अंजाम कितना डरावना हो सकता है? ईरान मेें जिस तरह से 16 सितंबर को 22 साल की कुरदिश युवती महशा अमीनी को ठीक से हिजाब ना पहनने के आरोप में इस्लामी पुलिस ने बेदर्दी से मार डाला था। उसके खिलाफ पहले से ही ईरान सरकार की पाबंदियों बंदिशों और जोर ज़बरदस्ती से नाराज़ महिला आज़ादी और बराबरी की मांग करने वाली ईरानी महिलायें विरोध में सड़कों पर उतर्र आइं। इसके बाद इन महिलाओं के पक्ष में ईरान में ही पुरूष वर्ग भी खुलकर साथ आ गया। धीरे धीरे पूरी दुनिया के उदारवादी लोकतांत्रिक और समानतावादी लोगों का नैतिक समर्थन ईरान की प्रदर्शनकारी महिलाओं को मिलने लगा। हालांकि पहले भी ईरान सहित दुनिया के अनेक मुल्कों में जनता के विभिन्न वर्गों ने ऐसे विरोध प्रदर्शन किये हैं। लेकिन अकसर समय के साथ ऐसे विरोध प्रदर्शन दम तोड़ देते हैं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। बल्कि यह कहा जा सकता है कि अगर ईरान सरकार माॅरल पुलिस खत्म नहीं करती तो आगे चलकर वह खुद खत्म होने के कगार पर पहुंच जाती। नार्वे में स्थित ईरान ह्यूमन राइट नामक संगठन का कहना था कि आंदोलन के 10 वें सप्ताह में दाखिल होने के साथ ही कुल 326 लोगों को ईरानी सुरक्षा बलों ने मौत के घाट उतार दिया था जिनमें 40 मासूम बच्चे भी शामिल थे। हैरत और दुख की बात यह रही कि ईरानी संसद के 290 में से 227 सदस्यों ने इस जुल्म और नाइंसाफी के बावजूद जनता के साथ ना खड़े होकर अपने कथित कट्टर इस्लाम के साथ खड़े होते हुए देश की न्यायपालिका से बेशर्मी के साथ कहा कि उसको इस विरोध प्रदर्शन के आरोप में पकड़े गये 13000 से अधिक आरोपियों के साथ काई नरमी नहीं दिखानी चाहिये। इतना ही नहीं ईरान के मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की अपील पर यूरूप कनाडा और ब्रिटेन जैसे देशों के द्वारा ईरान सरकार पर प्रदर्शनकारियों पर सख़्ती अनावश्यक बल प्रयोग और यौन हिंसा ना करने और उदारतावादी कदम उठाने की मांग का ईरान पर कोई असर नहीं पड़ा। आंदोलन को दबाने के लिये ईरान सरकार ने उल्टा आंदोलन को सपोर्ट कर रहे पत्रकारों छात्रों बुध्दिजीवियों डाॅक्टर्स और वकीलों को बड़े पैमाने पर सबक सिखाने को सताना शुरू कर दिया। ईरान सरकार यह नहीं समझ पाई कि 2009 और 2017 के आंदोलनों की तरह वह इस बार हिजाब विरोधी आंदोलन को किसी भी तरह के जुल्म ज़्यादती और डर से खत्म नहीं कर पायेगी और एक दिन उसको उदारवादियों के सामने घुटने टेकने होंगे। इसकी दो बड़ी वजह यह रहीं कि ईरान के छात्र और युवा अपने माता पिता से अधिक साहसी हैं क्योंकि एक कट्टर राज मेें वे अपना कोई भविष्य नहीं देखते हैं। दूसरी बात यह रही कि ईरान की माॅरल पुलिस की विश्वसनीयता उपयोगिता और ज़रूरत बदलते समय के साथ पूरी तरह खत्म हो चली है। ईरानी युवा साफ साफ देख पा रहा है कि उनकी कट्टर सरकार की वजह से ईरान पूरी दुनिया में अलग थलग पड़ चुका है। एक तरफ ईरान पर बाहर से उदार होने का भारी दबाव है तो दूसरी तरफ अंदर से एक बड़ा वर्ग अपनी ही सरकार की दकियानूसी और पुरातन नीतियों को इस्लाम के नाम पर आगे और झेलने को तैयार नहीं है। पाकिस्तानी उदार स्काॅलर जावेद ग़ामड़ी तो बहुत पहले से ईरान जैसी कट्टर सरकारोें को सावधान कर रहे हैं कि इस्लाम मेें कलमा नमाज़ रोज़ा ज़कात हज जैसी पांच बुनियादी चीज़ों को लेकर भी किसी तरह से ज़ोर ज़बरदस्ती से मना किया गया है। ऐसे में किसी
महिला को हिजाब पहनने के लिये कोई सरकार कोई माॅरल पुलिस या कोई तंज़ीम कैसे बल प्रयोग कर सकती है? लेकिन यही कट्टरवाद आतंकवाद और तानाशाही आज दुनिया के कई देशोें में धर्म के नाम पर ज़बरदस्ती थोपकर जनता पर राज किया जा रहा है। ईरान की जनता खासतौर पर महिलाओं ने पूरी दुनिया के लोगों को एक संदेश यह भी दिया है कि जिस तरह से आजकल की सरकारें चाहे चुनी हुयी हों या तानाशाह एक दूसरे से जनता को दबाने डराने और अपने गलत फैसले मनवाने को मजबूर करने को रोज़ नये नये हथकंडे सीख रही हैं। उसी तरह दुनिया के विभिन्न हिस्सों की जनता भी एक दूसरे से यह सीख सकती है कि कैसे जनविरोधी उदारता विरोधी और दिखावे के लोकतंत्र वाली सरकारों को निडर होकर लगातार आंदोलन करके झुकाया जा सकता है? दुनिया के तमाम देशों और जनता को आज यह समझ आने लगा है कि धर्म जाति कट्टरता रंग और पंूजी के बल पर आप कुछ लोगों को हमेशा मूर्ख बना सकते हैं। सब लोगों को कुछ समय के लिये बेवकूफ बना सकते हैं। लेेकिन सब लोगों को सदा के लिये मूर्ख बनाकर साम्प्रदायिकता या धर्म विशेष की कट्टरता बहुसंख्यकवाद नफ़रत और झूठ के बल पर सरकारेें ना तो बनाई जा सकती हैं और ना ही लंबे समय तक चलाई जा सकती हैं। यह बात भारत के राजनेताओं को भी समझ लेनी चाहिये।

 *(लेखक पब्लिक ऑब्ज़र्वर के संपादक व नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।)*