Sunday 24 April 2022

योगी की पहल

*मुख्यमंत्री योगी की यह सराहनीय पहल सबके हित में है!*

0यूपी के सीएम आदित्यनाथ योगी ने दोबारा राज्य का कार्यभार संभालने के बाद पुलिस प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ पहली मुलाक़ात में प्रदेश में एकता भाईचारा और अमनचैन बनाये रखने के लिये जो व्यापक दिशा निर्देश दिये हैं। उनकी सराहना करना इसलिये भी ज़रूरी है क्योंकि इस समय तमाम दूसरे राज्यों में जिस तरह से धार्मिक जुलूसों को लेकर विभिन्न वर्गों में हिंसा और दंगे हुए हैं। वैसा यूपी में ना हो इसके लिये जिस तैयारी इच्छाशक्ति और निष्पक्षता की आवश्यकता है। उसको योगी जी ने समय रहते समझकर जिस तरह के एहतियाती क़दम उठाये हैं। वे उनकी इस बात को भी सही साबित करते हैं कि यूपी में 800 से अधिक धार्मिक जुलूस निकले लेकिन कहीं से टकराव या दंगा तो दूर कहासुनी तक की ख़बर नहीं है।    

       *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      राजनीतिक रूप से हम सब किसी पार्टी का समर्थन या विरोध कर सकते हैं। यह हम सबकी संवैधानिक स्वतंत्रता का हिस्सा है। लेकिन सरकार सबकी होती है। अगर कोई सरकार गलत काम करती है तो उसकी आलोचना होती है। होनी भी चाहिये। लेकिन अगर कोई सरकार अच्छा काम करती है तो उसकी सराहना भी करनी चाहिये। अगर कोई विरोध के लिये विरोध और समर्थन के लिये समर्थन करता है तो वह निष्पक्ष ना होकर अंधभक्त कहलाता है। ऐसा करने वाला पत्रकार भी नहीं हो सकता वह पक्षकार कहलाता है। फिर वह चाहे किसी भी पार्टी किसी भी सोच या किसी भी बड़े से बड़े नेता का अंधभक्त ही क्यों ना हो? मिसाल के तौर पर यूपी में जब से योगी सीएम बने हैं। उन्होंने जो भी काम किये हैं। उनसे कुछ लोग सहमत हो सकते हैं। कुछ लोग असहमत भी हो सकते हैं। लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं। जिनसे असहमत होने या विरोध करने का कोई तर्कसंगत आधार नहीं है। मिसाल के तौर पर सीएम और सांसद बनने से पहले गोरखपुर मठ के मुखिया रहे योगी ने जिस तरह से यह अंधविश्वास तोड़ा कि जो सीएम नोएडा का दौरा कर लेता है। वह फिर से यूपी का चुनाव नहीं जीत पाता, वह एक सराहनीय उदाहरण है। इसके साथ ही उनकी छवि एक सख़्त प्रशासक की बनी है। यह अलग बात है कि यह छवि बनाने में कभी कभी उनके पुलिस प्रशासन ने ऐसी अतिरिक्त शक्ति और अवांछित उत्साह का परिचय दिया जिससे उनकी सरकार पर विपक्ष ने तरह तरह के आरोप भी लगाये। लेकिन यह पहले भी होता रहा है। हाल ही में इसी तरह की कई शिकायतें मिलने पर सीएम योगी ने पुलिस प्रशासन को दो टूक आदेश दिये थे कि माफिया या गैंगेस्टर कुख्यात अपराधियों के सिवा गरीब या व्यापारियों पर लगने वाले मामूली अपराध के आरोपों में बुल्डोज़र का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये। इसी तरह उन्होंने देश के विभिन्न राज्यों में विभिन्न जुलूस और शोभायात्राओं में आयेदिन हो रहे विभिन्न वर्गों के टकराव को देखते हुए यूपी में ऐसे आयोजनों को लेकर व्यापक दिशा निर्देश जारी कर दिये। इनमें साफ साफ कहा गया है कि कोई भी नया जुलूस नहीं निकाला जायेगा। साथ ही हर जुलूस को निकालने के लिये प्रशासन से अनुमति लेनी अनिवार्य होगी। इतना ही नहीं आयोजकों को इस आश्य का शपथपत्र भी पुलिस को देना होगा कि वे कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे साम्प्रदायिक सौहार्द या कानून का उल्लंघन हो। इस तरह के आयोजनों को लेकर और भी कई शर्तें और नियम कड़ाई से लागू करने की बात कही गयी है। साथ ही यह भी स्पश्ट कर दिया गया है कि पुलिस प्रशासन इस तरह के मामलों में पूरी तरह से निष्पक्ष और कानून के हिसाब से काम करेगा। किसी भी पक्ष को नियम कानून से छूट या मनमर्जी से कुछ भी असामाजिक या अपराधिक करने की स्वतंत्रता किसी भी हालत में नहीं दी जायेगी। इसके बावजूद अगर कोई कानून हाथ में लेगा तो उस पर सख़्त कार्यवाही की जायेगी। इतना ही नहीं योगी जी ने अपने दिशा निर्देशों में भविष्य में विवाद का कारण बनने वाले अन्य मामलों में भी बखूबी अग्रिम संज्ञान लिया है। उनका कहना है कि किसी भी धर्मस्थल पर लगे लाउड स्पीकर नियम अनुसार ही प्रयोग किये जा सकेंगे। नियम से मतलब यह है कि इसके लिये पुलिस प्रशासन से अनुमति लेनी होगी। साथ ही इनकी आवाज़ का एक निर्धारित डेसिबल होगा। सुप्रीम कोर्ट के पहले से ही दिये दिशा निर्देश के मुताबिक रात 10 बजे के बाद और सुबह 6 बजे से पहले किसी भी सूरत में लाउड स्पीकरों का इस्तेमाल किसी भी धार्मिक स्थल पर प्रतिबंधित रहेगा। नये आदेश में यह भी कहा गया है कि पुलिस प्रशासन यह सुनिश्चित करे कि किसी भी धार्मिक स्थल से पूजा पाठ या नमाज़ आदि की आवाज़ उस स्थल के अंदर तक ही सीमित रहे। हालांकि अभी केवल नोएडा में पुलिस ने कुछ धार्मिक स्थलों को इस बाबत अवगत कराया है। लेकिन आशा है कि ईद के बाद पूरे प्रदेश में इस आदेश पर अमल होने लगेगा। फिलहाल मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि और उससे लगी ज्ञानवापी मस्जिद में वहां के आयोजकों ने खुद ही या तो लाउड स्पीकर उतार दिये हैं या फिर उनकी आवाज़ काफी कम कर दी गयी है। इतना ही नहीं सीएम योगी के गृहनगर और उनके मठ गोरखनाथ धाम में भी ऐसी ही मिसाल पेश की गयी है। यह अपने आप में सुखद और सराहनीय पहल है कि सरकार के आदेश को लागू करने के लिये पुलिस प्रशासन को कहीं भी सख़्ती या दंडात्मक कार्यवाही करने की ज़रूरत शायद नहीं होगी। जागरूक नागरिक और प्रगतिशील सिविल सोसायटी समय की ज़रूरत समझते हुए लगता है पूरे प्रदेश में ही कुछ समय में ऐसे लाउड स्पीकर या तो खुद ही उतार देेंगे या उनकी आवाज़ इतनी कम कर देंगे जिससे दूसरे वर्ग के लोगों को कोई कष्ट ना हो। सीएम योगी की यह पहल एक तरह से फ़साद की जड़ खत्म करने जैसा है। हम लोग आज 21 वीं सदी मेें जी रहे हैं। हम सबको यह समझना चाहिये कि आपसी प्रेम भाईचारे और शांति के बिना ना तो कोई समाज प्रगति कर सकता है और ना ही सदा लड़ता टकराता घृणा करता और पक्षपात व हिंसा के साथ आगे बढ़ सकता है। हम सबको सह अस्तित्व और पूरी दुनिया को परिवार मानने का अपना दावा कार्यान्वित करके विश्व के सामने एक उदाहरण रखना होगा। अन्यथा हम सब अपना आर्थिक नुकसान बढ़ाने को अभिषप्त होेंगे।                                          

 *0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।*

Saturday 16 April 2022

बाबूजी

*स्व. श्री बाबूसिंह चैहान साहब की मिशनरी पत्रकारिता बेमिसाल!*
0दैनिक बिजनौर टाइम्स रोज़ाना ख़बर जदीद और चिंगारी दैनिक के संस्थापक प्रकाशक और प्रथम संपादक व वरिष्ठ जनवादी लेखक स्व. श्री बाबूसिंह चैहान साहब ने बिजनौर जि़ले एवं पश्चिमी यूपी के आसपास के क्षेत्रों को मात्र ये अख़बार ही नहीं दिये थे। बल्कि इन समाचार पत्रों के ज़रिये मिशनरी पत्रकारिता का एक पौधा भी लगाया था। जो आज बड़ा वृक्ष बनकर लहलहा रहा है। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि जिन उसूलों मक़सद और मंजि़ल के लिये बाबूजी ने कांटों भरा सफ़र तय किया। आज समाज सरकार और देश के मुख्यधारा के मीडिया ने उन जनहित के मुश्किल रास्तों को छोड़कर अवसरवाद पूंजीवाद और झूठ व नफ़रत का शाॅर्टकट से लाभ का रास्ता अपना लिया है।
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
   आज से 23 साल पहले यानी इस दुनिया को अलविदा कहने से पहले
चैहान साहब अकसर कहा करते थे कि आज दुनिया पंूजीवाद के रास्ते पर चल रही है। जिससे हमारा देश भारत भी अछूता नहीं रह सकता। वे यह भी कहा करते थे कि हम अपने अख़बारों को मिशनरी पत्रकारिता के तौर पर चला रहे हैं और आगे भी तमाम चुनौतियां और नुकसान उठाकर चलाते रहेंगे। लेकिन जो बड़े कारोबारी घराने अपने अख़बार पत्रिकायें या टीवी चैनल व्यवसायिक लाभ के लिये चला रहे हैं। वे कम से कम न्यूनतम सामाजिक नैतिक और निष्पक्षता के मापदंड तो अपनायें। उनका कहना था कि कारोबार करना बुरी बात नहीं है। ना ही कारोबार से लाभ कमाने की इच्छा रखना गलत है। लेकिन ख़बरें और लेख सच व तथ्यों पर ही आधारित होने चाहियें। बाबूजी का दो टूक कहना था कि आप अपने मुनाफे या सत्ता में बैठे आकाओं व अफसरों से बेजा लाभ लेने को झूठ नफरत और असामाजिक विषय वस्तु नहीं परोस सकते। उनका मशवरा था कि आप बेशक मीडिया को बिज़नेस के तौर अपनायें लेकिन उसको पूरी ईमानदारी सच्चाई और निष्पक्षता से करें। वे अकसर पत्रकारों के कार्यक्रमों जनसभाओं और गष्ठियों में कहा करते थे कि आज सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिन पूंजीपतियों धनवानों और काॅरपोरेट ग्रुप्स को पत्रकारिता की एबीसीडी नहीं पता, वे बड़े बड़े पत्रकारों संवाददाताओं और लेखकों को वेतन पर रखकर यह बता रहे हैं कि वे ख़बर और लेख कैसे लिखें? किसके पक्ष और किसके खिलाफ लिखें? यहां तक कि उनको झूठ और नफरत परोसने में भी कोई बुराई नज़र नहीं आती अगर उनको इसका लाभ मिल रहा होता है। हालांकि यह वह दौर था जब चैहान साहब शुरूआती दौर में ही पहचान रहे थे कि हमारे देश में जब 1991 में एल पी जी यानी लिबरल प्राइवेट और ग्लोबल नीतियां लागू कर पूंजीवाद के लिये सरकारें देश के दरवाजे़े ही नहीं बल्कि खिड़की और रोशनदान तक पूरी शिद्दत से खोलने में लगीं थीं। बाबूजी तभी उस ख़तरे को भांपकर आगाह कर रहे थे कि यह रास्ता विनाश का है। उनका कहना था कि अगर मीडिया पूंजी का गुलाम हो जायेगा। सरकार उस पर पूंजीपतियों पर नकेल डालकर अपना एजेंडा थोपने लगेगी तो फिर मिशनरी पत्रकारिता करना लोहे का चना चबाने जैसा हो जायेगा। जो सब नहीं कर पायेंगे। धीरे धीेरे लघु और मीडियम क्लास अखबार बंद होने लगेंगे। उनके लिये दोहरा संकट खड़ा हो जायेगा। एक तो वे बड़े मीडिया हाउस के पत्र पत्रिकाओं और रंगीन टीवी चैनलों के मुकाबले लंबे समय तक टिक नहीं पायेंगे। दूसरे सरकार की निर्भरता जब उनका प्रसार कम होते जाने से उनपर घटने लगेगी तो आगे चलकर बड़े बड़े काॅरपोरेट घरानों का मेन स्ट्रीम मीडिया पर कब्ज़ा हो जायेगा। जो देश के आम आदमी ही नहीं बल्कि लोकतंत्र के लिये भी एक बड़ा ख़तरा बन सकता है। आज बाबूजी की वो आशंका सच होती नज़र आने लगी है। विपरीत हालात और आर्थिक तंगी के बावजूद मिशनरी पत्रकारिता का साहसिक रास्ता न छोड़ने वाले गिने चुने अख़बार और चैनलों में बि.टा. ग्रुप को सबसे आगे रखने में श्री चंद्रमणि रघुवंशी और श्री सूर्यमणि रघुवंशी आज भी ‘‘गुरूकुल रीत सदा चली आई प्राण जाई पर वचन न जाई’’ को निभा रहे हैं। जो वचन उन दोनों ने अपने पिताश्री को उनके जीते जी दिया था। जनहित की जो पत्रकारिता चैहान साहब अपने विषम समय में भी कर गये वो आज के पत्रकारों के लिये मशाल का काम कर रही है। बिजनौर टाइम्स और चिंगारी के ज़रिये उन्होंने जनपद बिजनौर को आवाज़ प्रदान की। उनके ललित निबंध ‘दर्पण झूठ बोलता है’, हों या उनकी चर्चित ख़बर ‘भूखा मानव क्या करेगा?’ उनके व्यक्तित्व का आईना रहे हैं।  हालांकि उनके जीते जी भी और आज भी बिजनौर टाइम्स ग्रुप पर लेखनी से समझौता करने के बार दबाव आये लेकिन इस ग्रुप ने कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया। चैहान साहब की कलम ने हमेशा बेबाक लिखा और सच लिखा। उनकी इसी साफगोई और निडरता से ही उनको कई राष्ट्रीय और इंटरनेशनल पुरस्कार व सम्मान भी मिले। उनको एक बार नहीं अनेक बार विदेश भ्रमण पर सरकारी प्रतिनिधि मंडल मंे जाने का सम्मान भी हासिल हुआ। विदेश दौरों से लौटकर उन्होंने अपने यात्रा संस्मरण भी कई माह तक किश्तों में लिखे। जब जनपद वासियों की प्यास इन संस्मरणों से भी नहीं भरी तो उन्होंने जनता की अपील पर सीध्ेा संवाद कर नगर नगर और गांव गांव अपनी यात्रा का आंखो देखा हाल सीध्ेा बयान किया। सबसे बड़ी बात यह थी कि जहां उनके प्रतिनिधिमंडल में शामिल अन्य बड़े बड़े नामचीन पत्रकारों में अधिकांश विदेश जाकर घूमते फिरते और मौज मस्ती करते थे। वहीं चैहान साहब विदेशांे की लाइब्रेरी म्यूजि़यम और वहां के लोगों से संवाद करने में अपना अधिकांश समय बिताते थे। इसके साथ ही न केवल इन सब बातों पर समय लगाते थे बल्कि जब सब साथी रात में चैन की नींद सो जाते थे। बाबूजी रात रात भर जागकर दिन भर की बातों को कलमबंद करते थे। उन दिनों कम्पयूटर स्मार्टफोन और इंटरनेट का दौर तो था नहीं। इसलिये सारे दिन का हाल अपने हाथ से कलम से ही डायरी मेें नोट करना होता था। कमाल और हैरत की बात यह थी कि चैहान साहब हर समय रिपोर्टिंग और कलम काॅपी का इस्तेमाल नहीं करते थे। लेकिन फिर भी 24 घंटे की एक एक बात अपनी तेज़ याददाश्त के बल पर हू ब हू शब्दों में बयान कर देते थे। हमेें याद है मंदिर मस्जिद आंदोलन के दौरान जब 1990 के दशक में आज की तरह चंद अख़बारों मेें झूठी साम्प्रदायिक और भड़काउू रिपोर्टिंग की गई थी तो चैहान साहब चट्टान की तरह उनके रास्ते में विरोध जताने को खड़े हो गये थे। उन्होंने अपनी सोच के निष्पक्ष और निडर सेकुलर पत्रकारों के साथ मिलकर ऐसी घटिया फेक और पेड न्यूज की न केवल निंदा की बल्कि उनको घसीटकर पै्रस कौंसिल में ले जाने वालों का समर्थन किया। बाद में जांच होने पर दोषी पाये गये झूठे अख़बारों की प्रैस कौंसिल ने भी निंदा की और भविष्य में ऐसी भूल न दोहराने की चेतावनी दी। अंत में यही कहा जा सकता है कि चैहान साहब भले ही आज मौजूद नहीं हैं। लेकिन यह संतोष की बात है कि बिजनौर टाइम्स और चिंगारी के रूप में उनके विचारों की मशाल उनके सुपुत्र चांद और सूरज की तरह रोशन किये हुए हैं। अगर मिशनरी पत्रकारिता को जीवित रखना है और चैहान साहब को सच्ची श्रध््दांजलि अर्पित करनी है तो न केवल बिजनौर टाइम्स परिवार रघुवंशी बंधु इस ग्रुप से जुड़े पत्रकार बल्कि पूरे समाज को उन मूल्यों की रक्षा करनी होगी जिनके लिये पूरे जीवन बाबूजी निडरता और समर्पण से कड़ा संघर्ष करते रहे थे।
0 मैं यह नहीं कहता कि मेरा सर ना मिलेगा,
 लेकिन मेरी आंखों में तुझे डर ना मिलेगा।।        
  *(लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाॅम के ब्लाॅगर और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)*

विवादित सपा

*विवादों से घिरी सपा का भी भगवान ही मालिक है?*

0 यूपी के चुनाव मंे कांग्रेस और बसपा का सूपड़ा पूरी तरह साफ़ होने के बारे में तो काफी चर्चा हो रही है। लेकिन मुख्य विपक्षी दल बनी सपा का वोट 22 से 32 प्रतिशत और सीट 47 से 125 होने पर यह सच छिप गया है कि उसको भी यादव और मुसलमानों के अलावा लगभग सभी अन्य हिंदू जातियों ने नकार दिया है। इसकी बहुत सी वजह हो सकती हैं। लेकिन सपा के माथे पर अपने विगत कार्यकाल में लगे अनेक आरोप उसका पीछा नहीं छोड़ पा रहे हैं। इतना ही नहीं अखिलेश ने पिछले दिनों एमएलसी के चुनाव में जिस तरह 34 में से 21 प्रत्याशी यादव उतारे उससे एक बार फिर यह चर्चा तेज़ हुयी है कि सपा समाजवादी यानी सर्व समाज की तो क्या उन मुसलमानों को भी बराबर प्रतिनिधित्व नहीं देती जिन्होंने उसे एकतरपफा वोट दिये।  

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      सपा में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। एक बार फिर अखिलेश और शिवपाल में टकराव शुरू हो गया है। यह लगभग तय है कि शिवपाल आज नहीं तो कल भाजपा में जा सकते हैं। इसके साथ ही यह भी साफ नज़र आ रहा है कि शिवपाल अपने साथ सपा संगठन और यादव जाति का काफी बड़ा हिस्सा सपा से तोड़कर भाजपा में ले जायेंगे। आने वाले लोकसभा के चुनाव में आप देखेंगे कि यादव समाज का 2019 के लोकसभा चुनाव से भी बड़ा वर्ग भाजपा के साथ जायेगा। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी यादव वोट के चाचा भतीजे के गुटों में बंटवारा होने से भाजपा को दो तिहाई बहुमत जीतने में आसानी हो गयी थी। हालांकि किसी भी दल में इस तरह के मतभेद होना जीवंत लोकतंत्र की पहचान मानी जाती है। लेकिन यहां मतभेद नहीं मनभेद का मामला है। साथ ही अखिलेश और शिवपाल में यह टकराव किसी स्तर पर भी वैचारिक नहीं है। शिवपाल को लगता है कि जिस तरह से वे कई दशक से मुलायम सिंह के साथ मिलकर सत्ता और संगठन चला रहे थे। जब मुलायम सिंह ने राजनीति से सन्यास लिया तो उनका पहला हक़ विरासत पर बनता था। लेकिन मुलायम ने पुत्र मोह में यह ताज अखिलेश के सर पर रख दिया। मुलायम सिंह चूंकि बहुत घाघ और मंझे हुए नेता हैं। इसलिये उन्होंने शिवपाल की जगह अखिलेश को उत्तराधिकार सौंपते हुए यह नाटक किया जैसे वे तो शिवपाल के साथ हों और उनको ही सपा और सत्ता की कमान सौंपना चाहते हों। लेकिन अखिलेश ऐसा उनको करने नहीं दे रहे हों?जबकि सच यह है कि मुलायम सिंह ने सोची समझी रण्नीति के हिसाब से जिस दिन अखिलेश को सीएम बनाने का एलान किया था। उसी दिन सपा से भी शिवपाल का दख़ल अमल खत्म होना तय हो गया था। इतिहास गवाह है कि संगठन सत्ताधारी गुट के साथ ही जाता है। दूसरी तरफ शिवपाल की एक मजबूरी मायावती की तरह और भी है। उन्होंने मंत्री रहते जितने उल्टे सीध्ेा काम कर रखे हैं। अगर सपा इस बार सत्ता में आ जाती तो उनकी जान बची रहती या फिर वे भाजपा में चले जायेंगे तो उनको गांगा की तरह पाक साफ मान लिया जायेगा। फिलहाल हम इस मामले की और अधिक गहराई मंे नहीं जायेंगे। इस पर फिर कभी विस्तार से लिखेंगे। सवाल यह है कि सपा का भविष्य क्या है? यह तय है कि अगर बसपा की तरह सपा के सत्ता में आने की संभावना चुनाव दर चुनाव कम होती जायेगी तो उसका कोर वोट बैंक भी बसपा के दलित की तरह दूसरे विकल्प तलाशने शुरू कर देगा। जहां तक यादवों का सवाल है। उनको भाजपा में जाने में कोई विशेष परेशानी न तो पहले कभी थी न ही आगे होने वाली है। सपा का दूसरा सबसे मज़बूत और यादवों से भी बड़ा वोटबैंक मुसलमान इस बार उसको इतिहास का सबसे अधिक वोट देकर भी उसके सरकार ना बना पाने से काफी परेशान उदास और बेचैन नज़र आ रहा है। उधर बहनजी बार बार मुस्लिम समाज को जानबूझकर इस भूल का एहसास कराने के नाम पर गुमराह कर रही हैं कि उनको अगर भाजपा को हराना था तो सपा के साथ नहीं बल्कि बसपा के साथ आना चाहिये था। मायावती यह भी याद दिला रही है कि उनका दलित वोटबैंक यादवों से दो गुना है। उनका यह कहना भी किसी हद तक सही लगता है कि अगर मुसलमान पूरी तरह बसपा का साथ देते नज़र आते तो दलित वोट का जो हिस्सा भाजपा के साथ चला गया वह भी बसपा के साथ मज़बूती से बना रहता। उनकी इस बात में भी दम है कि संघ परिवार ने कानो कान यह प्रोपेगंडा करके कि वह चुनाव बाद मायावती को राष्ट्रपति बनायेगा, दलित समाज को बहकाकर उनका कुछ वोट धोखे से भाजपा को दिला दिया। लेकिन इन सब बातों के बावजूद मायावती कांग्रेस नेता राहुल गांधी के इस आरोप का अभी तक ठीक से जवाब नहीं दे पा रही हैं कि उनको भाजपा ने जांच के नाम पर जेल भेजने का डर दिखाकर इस चुनाव में चुपचाप घर बैठने को मजबूर किया था। दूसरी बात मायावती यह समझने को तैयार नहीं है कि मुसलमानों को छोड़ो उन पर आज उनका वफादार दलित वोट बैंक भी भरोसा ना कर भाजपा के साथ जा रहा है। हमें लगता है कि भाजपा की बी टीम मानी जाने वाली बसपा को मुसलमान औवेसी की एमआईएम की तरह आगे भी भाव नहीं देगा। जहां तक सपा का सवाल है। उससे भी मुसलमानों का मोहभंग होना शुरू हो सकता है क्योंकि केवल सीट व वोट बढ़ने या विपक्ष में रहने से ही अगर काम चल जाया करता तो दिल्ली और पंजाब मंे भाजपा विरोधी मतदाता कांग्रेस को छोड़कर आप का रूख़ ना करते। सपा की सत्ता में रहते जो छवि यादववादी जातिवाद मुस्लिम धार्मिक तुष्किरण परिवारवाद करप्शन घोटाले और कमज़ोर लाॅ एंड आॅर्डर को लेकर बनी है। वह आगे भी टूटती नज़र नहीं आ रही है। अखिलेश जिस तरह से 2017 का चुनाव हारने के बाद चुपचाप घर बैठकर ट्विटर पर कुछ चुनिदा मुद्दों पर ट्वीट कर डिजिटल पाॅलिटिक्स करते रहे हैं। उससे आगे भी सपा का भगवान ही मालिक है। अखिलेश ने अपने सबसे बड़े मुस्लिम वोट बैंक के लिये इतना भी नहीं किया कि वे सीएए के खिलाफ उनके आंदोलन का खुलकर समर्थन करते या धरने प्रदर्शन मंे उनके साथ सड़क पर उतरते। साथ ही सपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री सांसद आज़म खान को जिस तरह से भाजपा सरकार ने जानबूझकर निशाने पर लिया, अखिलेश उस पर भी प्रतीकात्मक विरोध करते रहे। मुसलमानों की एक के बाद एक हो रही माॅब लिंचिंग पर भी अखिलेश बहुत बच बचकर औपचारिक बयान देकर खानापूरी करते नज़र आये। महंगाई किसान व्यापारी बेरोज़गारी लगातार गिरती अर्थव्यवस्था लचर कानून व्यवस्था और दलित उत्पीड़न पर भी अखिलेश जिस तरह होंट सीकर बैठे रहे। उससे सपा का आगे भी भविष्य उज्जवल नज़र नहीं आ रहा है। हालांकि उन्होंने जिस सूझबूझ से आज़मगढ़ की सांसदी छोड़कर अब यूपी में नेता विपक्षी दल बनकर ज़रूरी मुद्दों पर ज़बान खोलनी शुरू की है। वह उम्मीद जगाता है।                                       

*0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।*

बाबा साहब

*विडंबनाः बाबा साहब को मानते हैं, बाबा साहब की नहीं मानते?*


014 अपै्रल को बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर की जयंती थी। पूरे देश में यह दिन बड़े ध्ूामधाम से मनाया गया। खासतौर पर सरकारों ने इस दिन बहुत आडंबर किये। इसके पीछे दलित समाज को खुश करने का नाटक अधिक था। लेकिन बाबा साहब ने भारत का जो संविधान बनाया था। उस पर कोई चलने को तैयार नहीं है। यह ठीक ऐसी ही बात है जैसे हिंदू समाज पूरे विश्व को एक परिवार बताता है। लेकिन जब वर्ण व्यवस्था और अल्पसंख्यकों का सवाल आता है तो इसका एक बड़ा वर्ग उनके खिलाफ खुलेआम खड़ा हो जाता है। ऐसे ही मुसलमान इस्लाम की बड़ी बड़ी बातें करते हैं। लेकिन जब अमल की बात आती है तो पैगं़बर का सब्र छोड़कर कई जगह रामनवमी के जुलूस में कुछ सिरफिरों के उकसाने पर चंद पत्थर उछालकर खुद मुसीबत मोल ले लेते हैं।     


                  -इक़बाल हिंदुस्तानी


      कहने को हमारे देश में लोकतंत्र है। चुनी हुयी सरकारें हैं। पुलिस है। कोर्ट हैं। जांच एजेंसियां हैं। मीडिया हैं। संविधान है। चुनाव आयोग सूचना आयोग मानव अधिकार आयोग अल्पसंख्यक आयोग सीबीआई और ईडी जैसी कथित स्वायत्त संस्थायें हैं। यानी कानून का राज बताया जाता है। लेकिन वास्तव में क्या सब नागरिकों के अधिकार समान हैं? व्यवहार में तो ऐसा बिल्कुल भी नज़र नहीं आता है। विडंबना यह है कि हमारे पीएम सीएम एमपी एमएलए पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी सभी संविधान की शपथ लेकर अपने पद ग्रहण करते हैं। लेकिन हम देख रहे हैं कि कई मामलों में आयेदिन इस शपथ के विपरीत वे आजकल पूरी निडरता और क्रूरता से काम करने में हिचक नहीं रहे हैं। विधानमंडलों में पक्षपातपूर्ण कानून बनाने से लेकर पुलिस के द्वारा अपने विरोधी लोगों को टारगेट करने में अब उनको ज़रा भी लज्जा नहीं आती है। क्या संविधान इसकी इजाज़त देता है? नहीं देता तो आप डा. अंबेडकर को काहे झूठमूठ की श्रध्दांजलि का नाटक करते हो? अब एक नया संविधान विरोधी चलन देखने में आ रहा है कि अगर किसी पर दंगा या किसी अपराध का आरोप लगता है तो उस पर अपराध साबित होने से पहले ही पुलिस प्रशासन सत्ता में बैठे अपने आकाओं का राजनीतिक एजेंडा लागू करने के लिये उसके घर या दुकान व अन्य प्रोपर्टी पर बुल्डोज़र चलवा देता है। क्या कानूनन बिना नोटिस दिये कोई सरकार ऐसा कर सकती है? नहीं कर सकती। यूपी में तो सीएम येागी ने यह कहकर इस तरह के मामलों पर कुछ हद तक रोक लगा दी है कि केवल कुख्यात अपराधियों पर ही बुल्डोज़र की कार्यवाही की जाये, गरीबों पर बिल्कुल नहीं। एमपी में हालत यह है कि तीन लोग जो पहले से एक मामले में जेल में थे। उनके खिलाफ भी मुकदमा लिखा गया। उनमें से एक का घर भी बुल्डोज़र से तोड़ दिया गया। सवाल यह भी है कि जिन पर भी दंगे या सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहंुचाने पथराव या अन्य कोई अपराध का आरोप लगा।उनके घर के दूसरे सदस्य कैसे अपराधी हो गये? घर में तो आरोपी के साथ साथ पूरा परिवार रहता है। क्या बुल्डोज़र चलाये गये सभी घरों की रजिस्ट्री यानी मालिक वही आरोपी था। जिनका बताकर मकान तोड़ा गया है? अगर ये घर गैर कानूनी ज़मीन या गैर कानूनी तरीके से बिना नक़्शा पास कराये बनाये गये थे तो पहले ही क्यों नहीं तोड़े गये थे? आज दंगा होने पर एक वर्ग विशेष को सबक सिखाने और एक वर्ग विशेष को तुष्टिकरण कर उनसे थोक में वोट लेकर अनैतिक तरीके से एक साल में होने वाले चुनाव मंे चुनाव जीतने को यह सब सोची समझी योजना के तहत करने का विपक्ष का आरोप सही नज़र नहीं आ रहा है? अपवाद के तौर पर कभी कहीं हो जाता तो इन हरकतों को नज़र अंदाज़ भी किया जा सकता था। लेकिन ऐसा एक दो बार नहीं एक दो राज्यों में नहीं कई राज्यों में एक पार्टी की सरकारें लगातार कर रही हैं तो क्या इसे कानून का राज कहा जा सकता है? क्या इसे संविधान का राज कहा जा सकता है? क्या ऐसा करने वाले बाबा साहब के समर्थक हो सकते हैं? अगर किसी को लगता है कि वे ऐसा करके सही कर रहे हैं तो उनको चाहिये कि वे लोकतंत्र का दिखावा भी बंद कर दें। चुनाव का नाटक का भी ना किया करें। संविधान की शपथ भी ना लिया करें। स्वायत्त संस्थाओं को भी भंग कर दें। तत्काल इमरजैंसी का ऐलान कर दें। पूरी तरह तानाशाह बन जायें। साम्राज्यवादी मनमानी अत्याचारी अन्यायपूर्ण और पक्षपातपूर्ण शासन व्यवस्था लागू करने का ऐलान कर ये सब करें। यही हाल आज कर्नाटक में है। कभी हिजाब कभी हलाल बनाम झटका और कभी मंदिर परिसरों में लगने वाले मेलों से एक वर्ग विशेष को बाहर किया जा रहा है। वहां भी एक साल के भीतर चुनाव होने हैं। अब यह बात ढकी छिपी नहीं रह गयी है कि एक संस्था और एक दल खुलेआम एक वर्ग विशेष का दानवीकरण करने पर तुला है। इस वर्ग के खिलाफ धर्म संसद के नाम पर आयेदिन ज़हर उगला जा रहा है। जुलूसों में लाउड स्पीकर लगाकर जबरन इस वर्ग के इलाकों में जाकर गंदी गंदी गालियां दी जा रही है। खुलेआम हथियार लहराये जा रहे हैं। सरकारें अव्वल तो इन मामलों का संज्ञान ही नहीं लेती। जब मामला कोर्ट में चला जाता है तो मजबूरन हल्की धाराओं मेें एफआईआर दर्ज की जाती हैं। इसके बाद सत्ता के इशारे पर जांच के नाम पर केस को कमज़ोर किया जाता है। नतीजा यह होता है कि कोर्ट से आरोपियों को जल्दी ही ज़मानत मिल जाती है। आरोपी फिर से अपने नफरत और झूठ फैलाने के मिशन में लग जाते हैं। दूसरी तरफ अल्पसंख्यक और संघ परिवार की विचार धारा का विरोध करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के मामलोें मेें ज़रूरत से ज्यादा तेज़ी दिखाई जाती है। 

उनके मामलों में धारायें भी अधिक गंभीर लगाई जाती हैं। उनकी ज़मानतों का कोर्ट में लगातार विरोध किया जाता है। उधर कोर्ट जहां पहले छोटे छोटे मामलों में स्वतः संज्ञान लेकर पिछली सरकारों से सख़्ती से जवाब तलब करते थे। आजकल देखने में आ रहा है कि या तो सरकार के खिलाफ आने वाले केस सुनवाई के लिये लिस्टेड ही नहीं होते या फिर उन पर कोर्ट राहत देने में पहले जैसे उदार नहीं रहे हैं। कोर्ट के मामलों में अधिक कुछ इसलिये भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनके पास कोर्ट की मानहानि का केस चलाने की पाॅवर है। सुप्रीम कोर्ट के एक चीफ जस्टिस ने कहा था कि इंसाफ केवल होना ही नहीं चाहिये बल्कि होता हुआ नज़र भी आना चाहिये। इतना तो साफ है कि आज न्याय हो भी रहा हो तो वह नज़र नहीं आ रहा है। इतना ही नहीं सरकारों ने संविधान के खिलाफ काम करके भी विरोध के रास्ते बंद कर दिये हैं।                                        

*0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।*