Friday 16 July 2021

यूपी की नई जनसंख्या नीति

नई जनसंख्या नीति का मुसलमान न तो विरोध करें ना ही डरें!

0यूपी की दो बच्चो की सरकारी नीति मुसलमानों के लिये नहीं सबके लिये बनाई गयी है। विरोधी दलों का आरोप है कि नई जनसंख्या नीति एन चुनाव से पहले मुसलमानों को टारगेट करने के लिये बनाई गयी है। इस आरोप से खुद ऐसा लगता है। जैसे केवल मुसलमानों के ही अधिक बच्चे पैदा हो रहे हों। सच यह है कि बढ़ती आबादी का रिश्ता मज़हब नहीं बल्कि शिक्षा और सम्पन्नता से है। सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि मुसलमान केरल और कश्मीर में हिंदुओं के बराबर परिवार नियोजन अपना रहे हैं। अगर वे यूपी में भी 2 बच्चो की पाॅलिसी स्वीकार कर लेंगे तो उनका भला ही होगा।   

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   भारत सरकार के आंकड़े गवाह हैं कि देश के 29 में से 24 राज्यों में आबादी की प्रजनन दर रिप्लेसमेंट लेवल यानी 2.1 तक आ चुकी है। यह वो दर है जिसमें आबादी स्थिर हो जाती है। जिन बीमारू’ यानी बिहार मध्यप्रदेश राजस्थान उत्तर प्रदेश कहे जाने वाले राज्यों में यह दर अभी भी सबसे अधिक है। उनमें यूपी और बिहार सबसे उूपर हैं। यूपी में टोटल फर्टिलिटी रेट 2.71 बताया जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं बढ़ती आबादी एक बड़ी समस्या है। लेकिन यह भी सच है कि देश में मुसलमानों के खिलाफ ऐसा माहौल बना दिया गया है। जिससे आम आदमी का बड़ा वर्ग बिना किसी सबूत प्रमाणिक आंकड़े और ठोस तथ्य के यह मानकर चलता है कि मुसलमान चार चार शादी और 40 बच्चे पैदा करता है। हम चुनौती देते हैं कि इस लेख को पढ़ने वाला कोई भी पाठक ऐसा एक भी मुसलमान तलाश करके बताये जिसके चार पत्नी और 40 बच्चे होंसवाल यह है कि क्या मुसलमानों में हर एक हज़ार पुरूष के पीछे चार हज़ार महिलायें पैदा होती हैंक्या मुसलमानों ने एक से अधिक शादी करने को करोड़ों गैर मुस्लिम महिलाओं का धर्म परिवर्तन कराकर यह कमी पूरी की हैक्या मुसलमान मुस्लिम मुल्कों से इतनी बड़ी तादाद मेें महिलायें लाकर शादी रचा रहे हैंनहीं तो यह कैसे संभव है कि सारे मुस्लिम मर्दों को चार चार दुल्हन शादी करने को मिल जायेंदूसरी बात क्या हर मुसलमान एक से अधिक शादी करता हैजी नहीं। यह कोरा झूठ है। अफवाह है। मिथक है। सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि मुसलमान सबसे कम यानी 5.7 प्रतिशत हिंदू 5.8 प्रतिशत एक से अधिक शादी करते हैं। जैन 6.72 तो बौध्द 7.92 और सबसे अधिक आदिवासी 15.25 प्रतिशत बहुविवाह करते हैं। सरकारी आंकड़े ही यह भी बताते हैं कि सबसे तेज़ी से आज मुसलमानों की आबादी की बढ़त नीचे आ रही है। हालांकि यह सही है कि उनकी टीएफआर अभी भी कई राज्यों में हिंदुओं से थोड़ी अधिक है। लेकिन यह भी दुष्प्रचार है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो देश में एक दिन हिंदू अल्पसंख्यक हो जायेंगे। कई हिंदू संत और संगठन लंबे समय से यह मांग करते रहे हैं कि हिंदुओं को दो नहीं चार आठ या दस से अधिक बच्चे पैदा करने चाहिये। लेकिन आज जब यूपी की हिंदूवादी सरकार कानून लाई है तो वह केवल मुसलमानों के लिये नहीं बल्कि सबके लिये दो बच्चो का काूनन लाई है। इससे होगा यह कि मुसलमानों के साथ ही गरीब और अशिक्षित हिंदू भी दो बच्चो का नियम ना मानने पर सरकारी सेवाओं और सुविधाओं से वंचित होगा। लोकल बाॅडी के चुनाव नहीं लड़ सकेगा लेकिन एमएलए और एमपी बन सकता है। राजनेताओं ने अपना घर बचा लिया है। साथ ही महिलाओं पर पुत्र ना होने पर गर्भपात अत्याचार और तलाक का अन्याय पहले से और अधिक बढ़ेगा। अगर सरकार गरीब कमज़ोर अनपढ़ और कट्टर लोगों को निशुल्क शिक्षा स्वास्थ्य व रोज़गार के साथ अनेक जनहितैषी योजनायें चलाकर जागरूक करती तो वे खुद ब खुद परिवार नियोजन अपनाने लगते। लेकिन अब उल्टा असर यह होगा कि जो लोग पहले से सम्पन्न शिक्षित और प्रभावशाली हैं। वे अधिकांश परिवार नियोजन अपना ही रहे हैं। उनको ही सरकार और अधिक सुविधायें देंगी। उधर वो गरीब कमज़ोर नासमझ नादान कम पढ़े लिखे या जाहिल लोग चाहे हिंदू हों या मुसलमानपहले की तरह नहीं सरकारी सुविधायें नौकरी उच्च शिक्षा या राशन ना मिलने से बच्चे अधिक पैदा करते रहेंगे। यानी विकास की दौड़ से पहले से भी अधिक तेज़ी से बाहर होते जायेेंगे। यह आत्मघाती विकल्प उन मुसलमानों के लिये भी खुला है जो अपने कट्टरपंथी मौलाना या वोटबैंक समझने वाले नेताओें के भड़काने पर दो बच्चो की नीति का बाॅयकाट करेंगे। हमारा कहना है कि मुसलमानों को ठंडे दिमाग से सोचना चाहिये कि वे पक्षपातपूर्ण सीएए कानून तक नहीं रोक पाये। वे तीन तलाक का कानून भी नहीं बदलवा सके थे। वे नई जनसंख्या नीति भी नहीं रोक पायेंगे। विरोध करने पर उनका क्या हश्र होगा इसका अंदाज़ उनको हो गया है। उल्टा उनके विरोध करने पर भाजपा सरकार को अपना आरोप साबित करने को चुनाव में राजनीतिक लाभ मिलेगा। छोटा परिवार सुखी परिवार होता है। मुसलमान परिवार नियोजन अपनायेंगे तो उनके बच्चे खुशहाल होंगे। लड़कियां शिक्षित होंगी तो उनका पूरा परिवार तरक्की करेगा। उनको अच्छे रोज़गार मिलेंगे। वे अपनी आमदनी अधिक बच्चे होने पर कई गुना नहीं बढ़ा सकते। वे क्या कोई गैर मुस्लिम भी कमाने की एक सीमा रखता है। लेकिन उतनी ही आय में कम बच्चे होने से उनका पालन पोषण पढ़ाई दवाई और शादी मकान बनाना आसान हो जाता है। इसलिये उनको ना तो इस कानून का विरोध करना चाहिये और ना ही इससे डरना चाहिये। हालांकि यह सच है कि जब सभी धर्मों के लोगों के बीच पहले के मुकाबले तेज़ी से गिरावट देखी जा रही है। ऐसे में ऐसा कानून लाना किसी हद तक इस आशंका को सही साबित करता है कि जिन लोगों ने यह झूठ फैलाया है कि केवल मुसलमान तेज़ी आबादी से बढ़ा रहे हैं। उनको ऐसा करने से रोकने को ऐसा कानून लाकर अन्य लोगों को यह काल्पनिक और चुनावी डर दिखाना ज़रूरी है। इसमें भी कोई दो राय नहीं इस तरह के डर हथकंडे और झूठ से एक दो बार चुनाव जीता जा सकता हैै। एक दिन जनता यह खेल ज़रूर समझेगी।                       

Sunday 4 July 2021

धर्म और नफ़रत...

जब सब धर्म अच्छे हैं तो आपस में इतनी नफ़रत क्यों?

0अमेरिका के वाशिंगटन डीसी स्थित विश्व विख्यात नाॅन प्रोफि़ट इंस्टिट्यूट प्यू रिसर्च सेंटर के हाल ही में भारतीयों के सर्वे में कई दिलचस्प मगर अजीबो गरीब सच सामने आये हैं। सर्वे के मुताबिक देश के अधिकांश लोग यह तो मानते हैं कि सभी को धार्मिक आज़ादी और समान सम्मान व महत्व मिलना चाहिये । लेकिन अलग अलग मज़हब को मानने वालोें के बीच शादी उनका पड़ौसी होना दोस्ती होना और आपसी मेलजोल से वे खुलकर मना करते हैं। कुछ समय से देश के लोगोें के बीच सियासी अलगाव नफ़रत और दूरियां बढ़ने का जो अंदेशा था उस पर प्यू रिसर्च सेंटर के सर्वे ने मानो मुहर लगा दी है।   

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   मशहूर शायर अल्लामा इक़बाल ने कहा था-‘‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,हिंदी हैं हम वतन हैं हिंदोस्तां हमारा।’’ सभी धर्मों के मुखिया पंडित मौलवी पादरी ग्रंथी धार्मिक जानकार आम आदमी यहां तक कि एक पार्टी विशेष के चंद कट्टर नेताओं को अपवाद मानकर छोड़ दें तो लगभग सभी दलों के नेता जनप्रतिनिधि और समाज का हर वर्ग सार्वजनिक रूप से यह दावा करता रहा है कि सभी धर्म अच्छे हैं। ईश्वर एक है। सत्य एक है। धर्म ईश्वर तक पहुंचने के अलग अलग रास्ते हैं। प्यू रिसर्च सेंटर एक विख्यात विश्वसनीय विश्व स्तरीय सर्वे एजेंसी है। जो पूरी दुनिया में अपनी निष्पक्षता और पारदर्शिता के लिये  खास  साख बना चुकी है। प्यू ने भारत के 30 हज़ार से अधिक लोगों से 2019 के आखिरी और 2020के शुरू के महीनों में विस्तार से बातचीत की। इस बातचीत में ना केवल 17 भाषाओं के लोगों को शामिल किया गया बल्कि धर्म क्षेत्र संस्कृति राज्य और भारत की विभिन्न विविधताओं का ख़याल रखते हुए लगभग सभी लोगों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की गयी। 91प्रतिशत हिंदुओं जबकि 89 प्रतिशत मुसलमानों व ईसाइयों ने कहा कि उनको मज़हबी आज़ादी है। जबकि 85 प्रतिशत हिंदुओं का कहना था कि सभी धर्मों का सम्मान करना सच्चे भारतीय की पहचान है। अधिकांश हिंदुओं के लिये धार्मिक उदारता ना केवल नागरिक बल्कि धार्मिक गुण भी है। 80 प्रतिशत ने कहा कि अन्य धर्मों का सम्मान करना सच्चे हिंदू का ज़रूरी पहलू है। 82 प्रतिशत सिख 93 प्रतिशत बौध््द और 85 प्रतिशत जैनियों ने भी देश में धार्मिक स्वतंत्रता की बात स्वीकार की। 77प्रतिशत हिंदुओं और मुसलमानों ने दो टूक कहा कि वे कर्म में विश्वास करते हैं। 47 प्रतिशत हिंदुओं ने कहा कि उनके दोस्तों में सभी धर्मों के दोस्त शामिल हैं। मुस्लिम और अन्य धर्मों में भी ऐसे लोगों की काफी बड़ी संख्या मौजूद है।36 प्रतिशत हिंदुओं का कहना था कि उनको मुस्लिम पड़ौसी स्वीकार नहीं है। मुसलमानों में यह फीसद जहां सबसे कम 16 है तो जैन समाज में 54 प्रतिशत लोग मुस्लिम पड़ौसी से परहेज़ रखना चाहते हैं। उधर 92 प्रतिशत जैनियों को हिंदू पड़ौसी से कोई समस्या नहीं है। 66 प्रतिशत हिंदू तो 64 प्रतिशत मुसलमान अपने धर्म को अन्य धर्म से बिल्कुल अलग मानते हैं। 67 प्रतिशत हिंदू 80 प्रतिशत मुसलमान 66 प्रतिशत जैन 59 प्रतिशत सिख और 37 प्रतिशत ईसाई अपने समाज की औरतों की दूसरे धर्म में शादी के खिलाफ हैं। हालत यह है कि 76 प्रतिशत मुसलमान और65 प्रतिशत हिंदू दूसरे धर्म में अपने पुरूषों को भी शादी करने से रोकना चाहते हैं। यह अजीब बात है कि कुल 49 में से 43 देशों में धार्मिकता घटी है जबकि भारत उन गिने चुने देशों में शामिल है। जहां हाल ही के सालों में धार्मिकता बढ़ी हैै। देश की दो तिहाई आबादी मना होने पर बीफ और पोर्क खाने वाले आदमी को अपने समाज से बाहर का रास्ता दिखाना चाहती है। हैरत की बात यह है कि 63 प्रतिशत हिंदू तो 70प्रतिशत मुसलमान जाति से बाहर विवाह करने को भी तैयार नहीं हैं। मजे़दार बात यह है कि इसके बावजूद 20 प्रतिशत भारतीय ही जातीय भेदभाव होना स्वीकार करते हैं। हिंदू 16प्रतिशत तो मुस्लिम 24 प्रतिशत समाज में धार्मिक भेदभाव की बात कबूल करते हैं। राष्ट्रवाद पर 80 प्रतिशत मुसलमान सहमत हैं लेकिन वंदे मातरम पर वे हिंदुओं से 11 प्रतिशत पीछे हैं। एक और रोचक तथ्य यह सामने आया कि हिंदुओं से कहीं अधिक मुसलमान देश के बंटवारे को बुरा मानते हंै। 66 प्रतिशत सिख भी पाकिस्तान बनने को गलत मानते हैं। अधिकांश मुस्लिम तीन तलाक के तो खिलाफ हैं लेकिन वे अपने पारिवारिक और इस्लामिक मामलों के केस शरीयत अदालत में सुलझाना चाहते हैं। दुखद और आश्चर्यजनक बात यह भी सामने आई कि आध्ेा से अधिक भारतीय खुले लोकतंत्र की जगह अधिनायकवाद को पसंद करने लगे हैं। हिंदू राष्ट्र के लिये भी हिंदू समाज में बड़े पैमाने पर समर्थन देखा गया लेकिन ऐसे लोग उत्तर भारत में अधिक हैं। सवाल यह है कि जब सभी धर्म एकता भाईचारे और आपसी मेल मुहब्बत की बात करते हैं। कोई पूरी दुनिया को एक कुटंुब बताता है तो कोई एक मासूम इंसान के कत्ल को पूरी इंसानियत का कत्ल बताता है। कोई समाजसेवा और मानवसेवा को ही असली धर्म बताता है तो कोई अहिंसा को परम धर्म बताता है। कोई एक ही नूर से जग उपजा कुदरत के सब बंदे बताता है तो कोई नर सेवा को ही नारायण सेवा बताता है। कोई दीन के मामले मंे ज़ोर ज़बरदस्ती से साफ मना करता है तो इनके मानने वालों में इतनी नफरत अलगाव टकराव खूनखराबा परायापन पक्षपात दंगे जबरन धर्म परिवर्तन माॅब लिंचिंग एक वर्ग विशेष का आर्थिक बहिष्कार सामाजिक दोगलापन इंसान का इंसान से छुआछूत अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाह का विरोध आॅनर किलिंग साम्प्रदायिकता क्षेत्रवाद भाषावाद बहुसंख्यक राष्ट्रवाद राजनीतिक दरार और एक दूसरे के साथ इतनी बेईमानी बेरहमी और खुला सौतेलापन कहां से आयाक्या ये वास्तव में हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और वाला मामला हैया फिर हम सबने मुखौटे लगा रखे हैंऔर हम वास्तव में ऐसे ही हैंया फिर धर्म के ठेकेदारों ने धर्म की अपनी मनमानी स्वार्थी व पक्षपातपूर्ण व्याख्या करके समाज में ज़हर घोल दिया हैया सत्ता के लिये हमारे राजनेताओं ने एक सोची समझी योजना के तहत समाज के विभिन्न वर्गों जातियों और धर्मों के मानने वालों के बीच यह अलगव की दीवार बड़े लंबे जतन और मशक्कत से खड़ी की है?जिसकी  समझ और दूरगामी नुकसान की जानकारी आम हिंदू मुसलमान और अन्य धर्म के मानने वालों को नहीं है और वो उन ध्ूार्त मुट्ठीभर कट्टरपंथियों के बहकावे कच्चे लालच और भावनाओं के चक्रव्यूह में आकर लंबे समय से मूर्ख बनकर अपने जैसे ही गरीब कमज़ोर बेरोज़गार परेशान दलित पिछड़े किसान मज़दूर अल्पसंख्यक बहुसंख्यक के नाम पर एक दूसरे से लड़ रहा हैै। जबकि उनका काॅमन दुश्मन उनके ही समाज धर्म जाति और यानी उनके ही घर में बैठा हुआ कठपुतलियों की डोर हिला कर तमाशा देख रहा है।                      

0 लेखक ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।।