Friday 17 January 2020

सकारात्मक सोच

सकारात्मक सोच में छिपा है कामयाबी का राज़!

0आपने एक छोटी कहानी ज़रूर सुनी होगी। एक गिलास पानी से आधा भरा है। उस पर दो लोगों के अलग अलग विचार हैं। एक का कहना है कि गिलास में पानी आधा ही क्यों भरा है?जबकि दूसरे का कहना है कि ये बहुत अच्छी बात है कि गिलास ख़ाली नहीं है। इसमें कम से कम आधा पानी तो है। यानी गिलास वही है। उसमें पानी भी उतना ही है। लेकिन दो बंदों की उसे लेकर सोच एक दूसरे से विपरीत है। जिसकी सोच सकारात्मक हैवही जीवन में सफल होता है।

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

“stay away from negative people, they have problem for every solution. Be with positive people they have solution for every problem.’’ 

   मतलब यह है कि नकारात्मक सोच वाले लोेगों से दूर रहो क्योंकि वे हर समाधान के लिये एक समस्या तैयार रखते हैंसकारात्मक सोच वाले लोगों के साथ रहो क्योंकि वे हर मसले का हल अपने पास रखते हैं। इसी लिये कहा जाता है कि कुछ लोग मुसीबत में भी आगे बढ़ने के अवसर ढूंढ लेते हैं। जबकि कुछ लोग अवसर को भी मुसीबत समझकर उससे दूर भागते हैं।

     एक गुरू के दो शिष्य थे। उनमें से एक सकारात्मक सोच वाला था। जो सदा दूसरों की भलाई की सोचता रहता था। हालात चाहे जितने भी ख़राब हों वह अच्छाई का कोई ना कोई रास्ता तलाश ही लेता था। वह कभी भी निराश नहीं होता था। सदा हंसता मुस्कुराता और खुश रहता था। जबकि दूसरा नकारात्मक सोच का था। नकारात्मक सोच की वजह से उसका अकसर दूसरों से विवाद भी होता था। इससे वह क्रोध भी अधिक करने लगा था। उसमें ईष्या भी कूट कूट कर भरी थी। एक दिन गुरू ने अपने उन दोनों शिष्यों को बुलाया और उनकी परीक्षा लेने के लिये जंगल ले गये।

    वहां उन्होंने आम का एक पेड़ देखा। जिस पर ढेर सारे आम लटक रहे थे। उनमें खट्टे और मीठे छोटे और बड़े पके और कच्चे सभी तरह के आम लगे हुए थे। गुरू ने अपने दोनों चेलों से कहा कि इस पेड़ को बहुत गौर से देखो। कुछ देर बाद गुरू ने अपने चेलों से पूछा कि तुम्हें इस वृक्ष पर क्या दिखाई दे रहा है। जिस शिष्य की सोच सकारात्मक थी। उसने कहा कि गुरू जी यह पेड़ बहुत ही महान और विनम्र है। लोग इस पेड़ पर पत्थर बरसाते हैं। बदले में ये पेड़ उनको मीठे पके और रसीले आम देता है। उन लोगों से बदला नहीं लेता।

     उनको चोट खाकर भी फल देने से मना नहीं करता। चेला यहीं नहीं रूका। उसने कहा कि इंसान को भी इस पेड़ की तरह ही होना चाहिये। वह चाहे कितनी भी परेशानी और मुसीबत में हो। उसको चाहिये वह विनम्र संयमी और शालीन बना रहे। दूसरों के काम आये और त्याग की भावना रखे। गुरू ने जब नकारात्मक सोच वाले चेले से पूछा तो वह बड़ा आवेश में था। उसका कहना था कि यह पेड़ बहुत ध्ूार्त है। इसको जब तक पत्थर ना मारो यह फल देता ही नहीं। साथ ही उस चेले का यह भी कहना था कि अगर आपको जीवन में किसी चीज़ की ज़रूरत हो और वह किसी आदमी के पास दिखाई दे जाये तो उससे छीन लेनी चाहिये।

     नकारात्मक सोच वाले चेले का यह भी कहना था कि इस दुनिया में कोई काम सीध्ेा तरीके से होता ही नहीं। आदमी को अपना काम निकालने लिये शक्ति चालाकी और झूठ का सहारा लेना ही पड़ता है। यही वजह थी कि वह सदा तनाव में रहता था। दोनों की बात सुनकर गुरू ने सकारात्मक सोच वाले चेले को गले से लगा लिया। गुरू जी ने कहा कि यह मेरा सच्चा शिष्य है। इसने वह पाठ सीख लिया है।

    जिससे यह जीवन में सफलता के नये आयाम स्थापित करेगा। जानकारों का कहना है कि सकारात्मक सोच वाला आदमी ना केवल जीवन में नकारात्मक सोच वालों के मुकाबले अधिक सफल होता है बल्कि सकारात्मक सोच अच्छी नींद उत्तम स्वास्थ्य और ब्लड पै्रशर को संतुलित करने के काम भी आती है। सकारात्मक सोच वाले तनाव से बचे रहते हैं। ऐसे लोग अपने साथ ही दूसरों की भी बेहतर देखभाल सुरक्षा और उनसे बेहतर रिश्ते निभाने में कामयाब रहते हैं। पोज़िटिव थिंकिंग से इंसान में आत्म विश्वास पैदा होता है। चिकित्सकों का कहना है कि अच्छा सोचने वाले बुरा सोचने वालों की बनिस्बत अधिक दर्द सहने की क्षमता हासिल कर लेते हैं।

     इससे व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है। ऐसी सोच वाला आदमी जीवन में भ्रमित नहीं रहता। हाल ही में हुआ एक सर्वे यह भी बताता है कि सकारात्मक विचार वाला इंसान अव्वल तो बीमार कम पड़ता है। साथ ही यह भी देखने मंे आया है कि अगर वह किसी रोग या चोट का शिकार हो भी जाये तो वह नकारात्मक सोच वाले के मुकाबल जल्दी स्वस्थ हो जाता है। इसका प्रमाण चिंगारी संपादक भाई सूर्यमणि रघुवंशी भी है। जिनका पिछले दिनों एक्सीडेंट हो गया था। लेकिन अपनी सकारात्मक सोच से ना केवल उन्होंने आरोपियों को माफ कर दिया। बल्कि जल्दी स्वस्थ भी हो गये।                     

0 ग़मों की आंच पर आंसू उबालकर देखो,

  बनेंगे रंग किसी पर भी डालकर देखो।

  तुम्हारे दिल की चुभन भी ज़रूर कम होगी,

  किसी के पांस से कांटा निकालकर देखा।।

Monday 13 January 2020

आज के फ़रिश्ते

न तो पूछा नाम न ही धर्म जाना,


भरते रहे फीसखिलाते रहे खाना!


0आज के भौतिकतावादी दौर में जब एक दर्जन केले बांटते हुए भी दो दर्जन लोग मीडिया को बुलाकर पहले फोटो खिंचवाने और अख़बार व चैनल में अपनी पब्लिसिटी का इंतज़ाम करना नहीं भूलते। ऐसे में कोई अकेला इंसान रोज़ 60से 70 लोगों को अपने निजी खर्च पर खाना खिला रहा हो या एक दो नहीं दर्जनों गरीब स्कूली बच्चो की फीस चुपचाप भर रहा हो तो आप उनको फ़रिश्ता नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे?वह भी तब जबकि वे ना तो अपना नाम बताना चाहते हैं और ना ही जिनकी मदद कर रहे हैं उनका नाम या मज़हब पूछते हैं।

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  नजीबाबाद। क्या आप विश्वास कर सकते हैं कि 30 मार्च 2001 से स्थानीय मुहल्ला वाहिदनगर सम्राट टाकीज़ वाली गली मंे कमल सेठी नाम के एक आम आदमी ने गरीब और बेसहारा लोगों को निशुल्क खाना खिलाना शुरू किया तो रोज़ उनके यहां 60 से 70 लोग खाना खाने आने लगे। खास बात यह थी कि सेठी जी ने कभी उन मजबूर और परेशान हाल लोगों से उनका नाम पता या मज़हब जानने की कोशिश नहीं की। हालांकि सेठी जी का काफी समय पहले निधन हो चुका है। लेकिन उनके परिवार ने उनका शुरू किया भंडारा आज तक भी जारी रखा हुआ है।

   सेठी जी ने जीते जी कभी अपने इस नेक काम का चर्चा किसी से नहीं किया। उनका मानना था कि जिस दिन इस भंडारे का प्रचार प्रसार किया जाने लगा। उस दिन इस नेक काम का मकसद खो जायेगा। कई बार पत्रकार उनके पास भंडारे का फोटो लेने और कवरेज करने गये। लेकिन उनका कहना था कि किसी गरीब का फोटो खाना खाते हुए छापकर उसका अपमान नहीं करना चाहते कि वह इतना असहाय है कि खुद खाना खाने लायक आमदनी भी नहीं कर सकता। उनका यह भी कहना था कि उनको इस काम के बदले में ना तो नाम चाहिये और ना ही किसी तरह का कोई सांसारिक लाभ।

    यह नेक काम वह अपने संतोष और मानवता की सेवा के लिये करते रहे हैं। आप अनुमान लगायें कि अब तक सेठी जी और उनका परिवार इस पर कितना खर्च कर चुके होंगे। उनका परिवार बताता है कि लोग अपने वारिसों के नाम ज़मीन जायदाद कर जाते हैं। लेकिन सेठी जी अपने परिवार से हमेशा यही कहा करते थे कि उनके बाद भी यह भंडारा जारी रहना चाहिये। और वास्तव में भंडारा जारी है।

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    नजीबाबाद। मुहल्ला बांसमंडी निकट मछली बाज़ार के हाजी तसलीम आढ़ती का नाम भी उन छिपे हुए संत लोगों में आता है। जिन्होंने अपने धर्म की इस नसीहत का हमेशा पालन किया कि अगर किसी ज़रूरतमंद की मदद की जाये तो ऐसे की जाये कि दायां हाथ सहायता करे तो बायें हाथ को भी ना पता चले। हाजी जी कई इंटर कॉलेजों की प्रबंध कमैटी से कई दशकों तक जुड़े रहे। उनका कॉलेजों के प्राचार्य और शिक्षकों से हमेशा कहना था कि जो भी बच्चे वास्तव में इतने गरीब हों कि अपनी फीस तक खुद ना भर सकें और उनका नाम कटने की नौबत आये। ऐसे बच्चो की पूरी फीस हर माह उनसे चुपचाप ले ली जाये।

    कमाल की बात यह थी कि इसके लिये वे कभी उन बच्चो या उनके परिवार के लोगों को अपने यहां फीस मांगने या जताने को नहीं बुलाते थे कि उनकी मदद कौन कर रहा है?हालत यह थी कि कई बार दो चार नहीं दर्जनों बच्चो की फीस वे अपनी जेब से भरते थे। हालांकि वे प्रबंधतंत्र में कई बार बड़े बड़े पदों पर रहे और अगर चाहते तो अपने पद की शक्ति का प्रयोग करके उन गरीब बच्चो की फीस वहीं से माफ करा सकते थे। लेकिन उनका कहना था कि उनका स्कूल सरकारी ग्रांट से नहीं इन बच्चो की फीस से ही चलता है।

     अगर वे इस तरह से गरीब बच्चो की फीस माफ करने लगेंगे तो फिर प्रबंधतंत्र के बाकी लोग भी अपने अपने कोटे से फीस माफ़ करने को कहेंगे। ऐसे में मैनेजमैंट कमैटी के अन्य पदाधिकारियों का भी फीस माफ करने का उतना ही अधिकर होगा। जितना कि उनका है। उनका मानना था कि इससे स्कूल की आय इतनी कम रह जायेगी कि स्कूल के टीचर का वेतन और अन्य खर्च चलाने कठिन हो जायेंगे। हालांकि हाजी जी अब दुनिया में नहीं हैं। लेकिन अच्छी बात यह है कि उनका परिवार आज भी अपनी सामर्थ और हैसियत के हिसाब से गरीब बच्चो की फीस भर रहा है।                    

0 ये दुनिया नफ़रतों की आखि़री स्टेज पर है,

 इलाज इसका मुहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं ।।         

असहमति और सरकार

असहमति से कैसे निबटे सरकार?


0सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इंटरनेट मौलिक अधिकार है। इसको सरकार बार बार या लंबे समय तक बंद नहीं कर सकती। उधर कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि किसी आंदोलन को रोकने के लिये सरकार धारा 144 का सहारा नहीं ले सकती। अदालत का मानना है कि असहमति दर्ज कराना प्रदर्शन करना और सड़कों पर विरोध दर्ज करना लोकतंत्र में लोगोें की अभिव्यक्ति की आज़ादी का अहम हिस्सा है। सवाल यह है कि ऐसे में सरकार असहमति व हिंसा से कैसे निबटे?

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  5 अगस्त से जम्मू कश्मीर में इंटरनेट सेवाओं पर रोक लगी हुयी है। सरकार का कहना है कि वहां से धारा 370 हटाने के बाद सुरक्षा की दृष्टि से ऐसा किया गया है। सरकार का यह भी कहना है कि अगर इंटरनेट चालू किया जायेगा तो इससे शरारती तत्वों को अफवाहंे फैलाना का मौका मिल जायेगा। जिससे वहां शांति और सुरक्षा को ख़तरा खड़ा हो जायेगा। सरकार का यह तर्क नया नहीं है। इससे पहले देश में सिटीज़नशिप एक्ट में संशोधन के बाद एनआरसी की चर्चा के भय से बड़े पैमाने पर हुए आंदोलन से निबटने के लिये भी सरकार ने विभिन्न राज्यों में इंटरनेट पर कुछ दिन के लिये पाबंदी और लोगों को सड़कों पर विरोध मंे उतरने से रोकने के लिये धारा 144 का सहारा लिया था।

    दुनिया के आंकड़ों के हिसाब से देखें तो भारत सबसे अधिक 357 बार इंटरनेट बंद करने वाले देशों में तीसरे स्थान पर है। नुकसान के हिसाब से देखें तो भारत को अब तक 9000करोड़ से अधिक का नुकसान हाल ही में इंटरनेट बंद करने से हुआ है। कुल नुकसान अब तक 1.3 बिलियन डालर का हुआ है। हालांकि सरकार के इस तर्क को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता कि वह लोगों की सुरक्षा और कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये ही इंटरनेट बार बार मजबूरी मंे ही बंद करती है।

   लेकिन यहां सरकार की नीयत पर सवाल उठता है कि वह चंद खुराफाती लोगों को इंटरनेट का गलत इस्तेमाल करने से रोकने के लिये करोड़ों लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मीडिया कारोबार मनोरंजन ईमेल बैंकिंग ऑनलाइन भुगतान खरीदारी एटीएम फंड ट्रांस्फर स्कूल कॉलेजों में ऑनलाइन आवेदन मोबाइल रिचार्ज ई टिकट आधार कार्ड पेंशन मोबाइल वॉलेट मेडिकल कोरियर ट्रेकिंग जीएसटी  इनकम टैक्स रिटर्न गूगल सर्च एप्वाइंटमेंट और ढेर सारी अन्य जन उपयोग की अनिवार्य और जीवन रक्षक ऑनलाइन सेवाओं को बार बार और लंबे समय तक कैसे रोक सकती है?

    दरअसल सरकार का विश्वास स्वयं लोकतंत्र और संविधान में संदेह के घेरे में आ रहा है। यह ठीक है कि कोई भी सरकार जब एक बार बहुमत से चुनकर सत्ता संभालती है तो उसको कानून लागू करने और नये कानून बनाने का अधिकार होता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या उसको ऐसा करने का असीमित अधिकार होता हैक्या वह कभी भी कैसा भी कानून बना सकती हैक्या वह जनविरोधी और संविधान की मूल भावना के खिलाफ जाकर भी कानून बना सकती हैतो जवाब है नहीं। कभी नहीं। जब जब सरकारें जनविरोधी या संविधान विरोधी तानाशाही कदम उठाती हैं।

     जनता और विपक्ष उनका विरोध करता है। कोर्ट उन कानूनों की समीक्षा करता है। अब सवाल यह उठता है कि पहले सरकार संविधान विरोधी अल्पसंख्यक विरोधी और एक वर्ग विशेष के खिलाफ पक्षपातपूर्ण कानून बनाती है। उसके बाद जब उस कानून के खिलाफ लोग सड़कों पर उतरते हैं तो उनको धारा 144लगाकर प्रदर्शन करने से रोका जाता है। इंटरनेट अनिश्चित समय के लिये बंद कर दिया जाता है। सावधानी के नाम पर तमाम प्रतिष्ठित और संघर्षशील नेताओं व बुध्दिजीवियों को उनके घर में नज़रबंद कर दिया जाता है।

    इसके बाद भी लोग सड़कों पर उतरते हैं तो विपक्ष का आरोप है कि उन पर पुलिस ज़रूरत से अधिक बल प्रयोग करती है। शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वालों पर सरकार के इशारे पर पुलिस लाठीचार्ज आंसू गैस के प्रतिबंधित गोले और सीध्ेा आंदोलनकारियों के सीने पर गोली चलाती है। इसके बाद भी आंदोलन जारी रहने पर सरकार असहमति दर्ज कराने वालों पर अत्याचार जारी रखते हुए गंभीर धाराओं में मुकदमे उनसे सरकारी सम्पत्ति को हुए नुकसान का हर्जाना वसूलने की कार्यवाही और भविष्य में कोई आंदोलन करने से डराने के लिये फर्जी आरोपों में फंसाने कसूरवारों के साथ ही बड़ी संख्या में बेकसूरों को भी घरों से उठाने और उनके ठिकानों पर दबिश देकर तोड़फोड़ करने का सिलसिला सरकार के मुखिया से संकेत पाकर बर्बर दमन चक्र चलाती रहती है।

    शुरू में जब सरकार और पुलिस के खिलाफ पीड़ित उल्टा अपने ही खिलाफ कानूनी कार्यवाही किये जाने के खिलाफ कोर्ट गये तो कई बार बड़ी अदालतों ने उनको निचली अदालत में जाने को कहा और निचली अदालत ने सुनवाई के लिये लंबी तारीख लगाकर अप्रत्यक्ष रूप से तत्काल राहत देने से मना कर दिया। कई बार सबसे बड़ी कोर्ट ने यह कहकर कोई एक्शन लेने से मना कर दिया कि पहले हिंसा रोकिये तब सुनवाई करेंगे। यह अदालत का ऐसा जवाब था। जैसे न्याय मांगने गये पीड़ित ही हिंसा कर रहे हों। जबकि सरकार और पुलिस की हिंसा दमन और बर्बरता के खिलाफ वे लोग कोर्ट गये थे।

     जिनका आंदोलन या प्रदर्शन से कोई वास्ता तक नहीं था। दोषियों के खिलाफ भी निष्पक्ष जांच के बाद ही कानूनी कार्यवाही संविधान के दायरे में रहकर सरकार को करनी चाहिये। देर से ही सही सबसे बड़ी अदालत और कई उच्च न्यायालयों ने सरकार को उसकी संवैधानिक सीमा और जनता के असहमति विरोध व मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का आदेश देकर एक बार फिर यह बता दिया है कि सरकार चाहे कितने ही प्रचंड बहुमत से चुनकर क्यों ना आई हो उसको मनमानी संविधान के खिलाफ और जनता के हिंसक दमन का अधिकार नहीं दिया जा सकता है। लेकिन आंदोलन करने वाले भी हिंसा होने पर अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सरकार को जनता के मौलिक अधिकार और कानून व्यवस्था में संतुलन बनाकर ही चलना चाहिये।                      

0 ये नफ़सियाती मरीज़ों का शहर है यारो,

   कोई सवाल उठाओगे तो मारे जाओगे ।।

Saturday 11 January 2020

एन पी आर बनाम एन आर सी....

एन.पी.आर. का एन.आर.सी. से कोई रिश्ता नहीं?

0पीएम मोदी ने कह दिया कि एनआरसी पर सरकार ने अब तक कोई विचार नहीं किया है। गृहमंत्राी कह रहे हैं कि एनपीआर का एनआरसी से कोई रिश्ता नहीं है। फिर भी बंगाल और केरल सहित देश के कई राज्य राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर बनाने को तैयार नहीं हैं। उधर विपक्षी दल और जनता का एक बड़ा हिस्सा एनपीआर की बोतल में एनआरसी का जिन्न देखकर फिर से हंगामा कर रहा है। आखि़र सच क्या है

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  एनपीआर का मतलब है नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर जबकि एनआरसी का मतलब होता है नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीज़न। एनपीआर में किसी से कोई कागज़ नहीं मांगा जायेगा। यह बात सरकार ने कही है। जबकि एनआरसी में हर किसी को खुद को भारतीय साबित करने के लिये ना केवल कागज़ देने होंगे बल्कि वे प्रमाण भी 1 जुलाई 1987 से पहले के होने ज़रूरी होंगे। सरकार का कहना है कि एनपीआर के लिये नागरिक जो भी जानकारी देंगे वही सच मानकर फॉर्म में स्वीकार कर ली जायेगी। इसके आधार पर किसी की नागरिकता को कोई ख़तरा नहीं है।

   इसमें जो लोग देश के किसी भी हिस्से में 6माह से रह रहे हैं और उनका इरादा वहां अगले6 माह और रहना है। उनका आंकड़ा एकत्र किया जायेगा। यहां तक कि इसमें विदेशी नागरिकों का भी आंकड़ा एकत्र किया जायेगा। लेकिन सरकार के अनुसार इसके आधार पर उनको भी कोई समस्या नहीं आने जा रही है। सवाल यह है कि फिर भी एनपीआर पर इतना भय शोर और हंगामा क्यों हो रहा हैदरअसल एनपीआर का आदेश सरकार ने नागरिकता कानून 1955 के 2003 के संशोधन के बाद जोड़े गये नियम 3(4 के तहत जारी किया है।

    इस नियम में साफ लिखा है कि सभी सूचनायें एकत्र कर एनआरसी बनेगा। अब सवाल यह है कि 2010 में भी इसी नियम के अनुसार मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने यही एनपीआर किया था। तब विवाद क्यांे नहीं हुआइसका जवाब यह है कि मोदी सरकार राष्ट्रपति के अभिभाषण और गृहमंत्रालय की रिपोर्ट में एनपीआर के आधार पर एनआरसी की अपनी मंशा ज़ाहिर कर चुकी है। इसके अलावा होम मिनिस्टर अमित शाह अनेक बार एनआरसी पूरे देश में सीएए लाने के बाद करने का ऐलान डंके की चोट पर करते रहे हैं।

    सीएए में मोदी सरकार ने मुसलमानों के अलावा लगभग सभी धर्मों के लोगों को एनआरसी में नाम ना आने पर शरणार्थी मानकर नागरिकता बिना किसी दस्तावेज़ प्रमाण और गवाह के केवल भारत में 6 साल रहने मात्र पर देने का प्रावधान पहले ही किया हुआ है। उधर मोदी सरकार के कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने कहा है कि एनपीआर की जानकारी का इस्तेमाल एनआरसी में हो भी सकता है और नहीं भी। मोदी सरकार एनपीआर की एक बात और छिपा रही है। कांग्रेस सरकार ने 2010 में जब एनपीआर किया था। उसमें केवल 15 कॉलम थे।

   मोदी सरकार ने बड़ी चालाकी से इनमें से तीन कॉलम पिता का नाम माता का नाम और पति/पत्नी का नाम का एक ही कॉलम कर दिया है। साथ ही उसने इसमें नये 8 कॉलम और जोड़ दिये हैं। जिनसे एनआरसी के भूत से भयभीत लोगों के कान एक बार फिर से खड़े हो गये हैं। इन नये 8 कॉलम में आधार नंबरमोबाइल नंबरपासपोर्ट नंबरवोटर नंबरपरमानेंट एकाउंट नंबरड्राइविंग लाइसेंस नंबर और माता पिता की जन्मतिथि व जन्मस्थान और अंतिम सूचना माता पिता का अंतिम निवास का पता मांगा गया है। इन नई जानकारियों को मांगने से सरकार के एनआरसी के इरादे का जिन्न एक बार फिर से बोतल से बाहर आता नज़र आ रहा है। 

     सरकार का दावा है कि वह किसी से बायोमीट्रिक जानकारी नहीं मांग रही है। जबकि आधार नंबर मांगने से उसकी मंशा खुद ही पूरी हो जा रही है। मोबालइल नंबर से सरकार किसी भी नागरिक की लोकेशन और उसकी कॉल डिटेल खंगाल सकती है। पासपोर्ट से उसका विदेश कनेक्शन जाना जा सकता है। वोटर नंबर से उसको संदेह होने पर असम की तरह डी यानी डाउटफुल वोटर की श्रेणी में रखा जा सकता है। पैन से उसकी आय और डीएल से वाहन को ट्रैक किया जा सकता है। इसमें सरकार यह भी सफाई दे सकती है कि ये सब जानकारी तो उसके पास पहले से ही मौजूद है।

    लेकिन सवाल यह है कि अगर उसके पास उपलब्ध है तो वह मांग ही क्यों रही हैसाथ ही किसी नागरिक के माता पिता या पति पत्नी का नाम पूछना तो जनसंख्या रजिस्टर के लिये समझ में आता है। लेकिन उसके माता पिता की जन्मतिथि जन्मस्थान और पूर्व में रिहाइश पूछना क्या यह साबित नहीं करता कि इस जानकारी के सत्यापन के बाद सरकार एनआरसी का पिछले दरवाजे़ से आंकड़ा जुटा कर जिनपर संदेह होगा। उनका नाम एनपीआर में दर्ज नहीं करेगी। गलत जानकारी पर नागरिकोें पर जुर्माने का भी प्रावधान किया गया है।

     जिनका नाम जनसंख्या रजिस्टर में नहीं दर्ज होगा। उनकी सघन जांच की जायेगी। उनको नोटिस जारी होंगे। उनसे विस्तार से फिर से जानकारी मांगी जायेगी। दरअसल जनगणना में माता पिता की ऐसी जानकारी कभी नहीं मांगी जाती। जनगणना जनगणना कानून 1948 के तहत की जाती है। उधर माता पिता की इतने विस्तार से मांगी गयी जानकारी का प्रावधान एनआरसी के लिये नागरिकता कानून में 1987और 2003 में किये गये संशोधन से है। इस संशोधन के बाद 1987 से पहले भारत में पैदा हर आदमी स्वतः भारतीय नागरिक माना जाता है।

    लेकिन एक जुलाई 1987 से 3 दिसंबर2003 तक भारत में पैदा होने वाले आदमी के माता पिता मंे से एक का भारतीय होना ज़रूरी है। साथ ही 2003 से अब तक पैदा होने वाले किसी भी नागरिक के भारतीय होने के लिये उसके माता पिता में से एक के भारतीय और दूसरे के विदेशी होने पर अवैध घुसपैठिया ना होना ज़रूरी बना दिया गया है। डर और सरकार की नीयत पर शक की वजह यह भी है कि नियम 6-ए और 6-सी के अनुसार कोई भी व्यक्ति आपकी दी गयी जानकारी पर उंगली उठा सकता है। इस पर जनसंख्या रजिस्ट्रार आपका नाम एनपीआर में तब तक दर्ज नहीं करेगा।

     जब तक कि वह आप से पर्याप्त दस्तावेज़ लेकर जांच पूरी कर आपकी नागरिकता सम्बंधी शर्तों से संतुष्ट नहीं हो जाता है। असम में ढाई लाख लोग सारे कागज़ात पेश करके भी इसी आपसी रंजिश ब्लैकमेल और दुश्मनी निकाले जाने के कारण तथा संबंधित अधिकारियों व कर्मचारियों की सेवा शुल्क की मांग पूरी करने में असहाय होने से एनआरसी से आज तक बाहर हैं। सरकार अगर वास्तव में जो कह रही है। वही करना चाहती है तो वह एनआरसी भविष्य में भी ना करने और एनपीआर से नये कॉलम हटाने का ऐलान करे जिससे लोगों का डर दूर हो वे सरकार पर भरोसा करने को तैयार हो जायें।                  

0अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छिपायें कैसे,

 तेरी मर्जी के मुताबिक नज़र आये कैसे ।।