Sunday 22 November 2015

पैरिस हमला: ज़िम्मेदार कौन?

इक़बाल हिंदुस्तानी
@मुस्लिम समाज को भी इस सवाल का जवाब जल्द तलाशना होगा।
पैरिस पर आईएस के भीषण आतंकवादी हमले की पूरी दुनिया ने निंदा की है। इससे पहले जब रूस के विमान को आईएस ने मार गिराया था तब भी पूरे विश्व में दहशतगर्दी को लेकर चिंता व चर्चा हुयी थी लेकिन जिस तरह आईएस के खिलाफ कार्यवाही को लेकर आज संयुक्त राष्ट्र ने मंजूरी दी है पैरिस जैसा हमला जब भारत के मुंबई पर हुआ था तब न तो यूरूपीय देशों और न ही अमेरिका ने ऐसा कठोर रूख अपनाया था। अमेरिका जो इस सारे फ़साद की एक बड़ी वजह खुद है वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले से पहले भारत पर आये दिन होने वाले आतंकी हमलों को दो देशों का आपसी विवाद मानकर बहुत हल्के में लेता रहा है। इतना ही नहीं जिस विश्वव्यापी आतंकवाद को लेकर आज दुनिया भयभीत और चिंतित है वह उस समय चुपचाप तमाशा देख रही थी जब रूस ने अफ़गानिस्तान पर अवैध रूप से घुसपैठ करके कब्ज़ा किया था और नजीबुल्ला के नेतृत्व में वहां अपनी कठपुतली सरकार अपनी सेना के बल पर बैठा दी थी।
इसके बाद अमेरिका ने जब पाकिस्तान के सहयोग से वहां से रूसी सेना को निकालने के लिये अपनी और पाकिस्तान की फौज के बजाये आतंकवादी संगठन तालिबान का आत्मघाती सहयोग लिया तब भी पूरी दुनिया इस पर चुप्पी साध्ेा रही। इसके बाद जब अफगानिस्तान से रूस का कब्ज़ा ख़त्म हो गया तो वही हुआ जिसका डर था कि एक बार जब तालिबान का आतंकी जिन्न बोतल से बाहर आ गया तो उसने काम ख़त्म होने के बाद वापस बोतल में जाने से साफ मना कर दिया। अमेरिका और पाकिस्तान ने सोचा इससे उनका क्या बिगड़ना है लिहाज़ा वे इसे अफगानिस्तान की अन्दरूनी समस्या मानकर एक तरफ हो गये। उधर तालिबान कब अलकायदा बन गया यह अमेरिका को तब पता लगा जब वह 9/11 का खुद शिकार हो गया।
ऐसे ही पाकिस्तान जब तक तालिबान के आतंकियों को अफगानिस्तान और भारत के कश्मीर में भेजकर अपना नापाक मकसद पूरा करता रहा तब उसको गांधी जी की इस बात का अहसास नहीं हुआ कि पवित्र लक्ष्य को हासिल करने के लिये साधन भी पवित्र होने चाहिये लेकिन जब तालिबान आतंकियों ने अपने आक़ा पाकिस्तान को भी डसना शुरू किया तो उसे लगा यह तो आग का खतरनाक खेल है। शायद इतना कुछ कम था जो अमेरिका और ब्रिटेन ने बिना किसी ठोस सबूत के रासायनिक हथियारों का झूठा आरोप लगाकर अपनी सेना ईराक में भेज दी। इसके पीछे दुनिया ने अमेरिका की अकड और ईराक के तेल पर उनकी लालची नज़र मानी। फिर इसके बाद सीरिया में विद्रोहियों की मदद से वहां की सरकार उखाड़ने का अभियान बिना यह सोचे अमेरिका ने चालू कर दिया कि इसके बाद जो लोग सत्ता में आयेंगे वे पहले से अधिक कट्टर और मज़हबी उन्मादी होंगे जो पूरी दुनिया के लिये आतंकी शैतान साबित हो सकते हैं।
अमेरिका ने अफगानिस्तान में इतना समय धन शक्ति लगाकर और लाखों लोगों की जान लेकर भी यह सबक नहीं सीखा कि वह अपने विरोधभासी रूख के कारण इस तरह से आतंकवाद को ख़त्म नहीं कर सकता। यूरूप और अमेरिका को आज भी यह बात समझ में नहीं आ रही कि एक तरफ तो वह पाकिस्तान और सउूदी अरब जैसे अपने दोस्त रूपी दुश्मनों के साथ मिलकर आतंक का मुकाबला करने की नाकाम कोशिश कर रहा है और दूसरी तरफ केवल सैन्य शक्ति के बल पर यह काम कठिन नहीं असंभव है। जहां तक मुस्लिम मुल्कों और इस्लामी आलिमों का मामला है वे हर बड़े आतंकी हमले के बाद इसकी निंदा करते हैं और साथ साथ यह दावा करके खुद को इस ज़िम्मेदारी से मुक्त कर लेते हैं कि इस्लाम ने इस तरह की हरकतों को सख़्ती से मना किया है और ऐसा करने वाले सच्चे मुसलमान नहीं हो सकते।
हम भी मान लेते हैं कि वे ठीक कह रहे हैं लेकिन सवाल यह है कि फिर भी ऐसा लगातार न केवल हो रहा है बल्कि ऐसी आतंकी घटनाये बढ़ती जा रही हैं तो दुनिया मुसलमानों से यह सवाल तो बार बार पूछेगी ही कि जब इस्लाम में इस तरह की हिंसा को मना किया गया है तो ये लोग क्यों पूरी दुनिया मंे तबाही और बर्बादी मचा रहे हैं? सवाल यह है कि केवल मुसलमानों का एक कट्टर वर्ग ही ऐसा क्यों सोच रहा है कि केवल उनका मज़हब ही अच्छा और सच्चा है? मुस्लिम आतंकी ही यह दावा क्यों कर रहे हैं कि एक दिन पूरी दुनिया में इस्लामी हकूमत क़ायम करनी है? सिर्फ मुस्लिम दहशतगर्द ही ऐसा क्यों मानते हैं कि अपनी जान देकर आत्मघाती विस्फोट कर वे इंसानियत के क़ातिल नहीं शहीद हो रहे हैं और ऐसा करके वे दीन की बड़ी सेवा कर सीधे दोज़ख़ नहीं जन्नत में जाने की तैयारी कर रहे हैं?
मुस्लिम समाज को इस सवाल का भी जवाब तलाशना होगा कि जो मुस्लिम आतंकवादी खुद को सच्चा अच्छा और पक्का मुसलमान मानकर पूरी दुनिया में ख्ूान खराबा कर रहे हैं उनका प्रेरणा श्रोत कौन और कहां है और उसको कैसे ख़त्म किया जा सकता है? आतंकवादी घटनायें बढ़ते जाने से आज पूरी दुनिया में हर मुसलमान को शक की निगाह से देखा जा रहा है उनकी हवाई अड्डों रेलवे स्टेशनों और सार्वजनिक स्थानों पर सघन तलाशी हो रही है उनको बम विस्फोट और आत्मघाती हमलों के डर से दूसरे धर्मों के लोग रोज़गार देने स्कूलों में प्रवेश देने और किराये पर मकान देने से भी बचने लगे हैं।
आज ज़रूरत इस बात की है कि जहां अमेरिका यूरूप और विकसित देशों को अपनी भूल सुधार करके अपनी पूर्व में की गयीं मानवता विरोधी गल्तियों की माफी मांगकर भविष्य में किसी मुस्लिम देश में अवैध घुसपैठ और कट्टर आतंकी सोच के विद्रोहियों को हथियार और प्रशिक्षण से तौबा करनी होगी जिससे प्रतिक्रिया में पैदा होने वाला सशस्त्र विरोध और बदला आतंकवाद व कट्टरवाद का खाद पानी न बन सके और साथ ही मुस्लिम देशों और आलिमों को अपने बिगड़े हुए भ्रमित मुस्लिम युवाओं को ब्रैनवाश करके यह समझाना होगा कि यह खून और आग का रास्ता दुनिया ही नहीं पूरी मुस्लिम कौम की भी तबाही और बर्बादी का कारण बन सकता है।
इसके साथ ही विश्व ही नहीं हमारे देश में भी भारत को हिंदू या इस्लामी राष्ट्र बनाने का सपना पाले धर्म और साम्प्रदायिकता की सियासत करने वालों को यह समझना होगा कि इस तरह की हरकतें आतंकवाद को न केवल जन्म देती हैं बल्कि एक बार माओवाद की तरह यह पैदा हो जाये तो लंबे समय तक आप हथियारों के बल पर भी इससे निजात नहीं पा सकते इसलिये बेहतर यही है कि धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव पक्षपात हिंसा और अन्याय न किया जाये तो ये सबके हित में है। कवि नीरज की ये पंक्तियां आज के दौर में कितनी सामयिक हैं।
अब तो दुनिया में एक मज़हब ऐसा भी चलाया जाये,
जिसमें हर आदमी को पहले इंसान बनाया जाये।।

Friday 20 November 2015

Phansivadi / pragatisheel

Humans Hi Kumar
फासीवादी कहेगा - गरीब आलसी होते हैं मेहनती लोग अमीर होते हैं

प्रगतिशील कहेगा - किसान मजदूर लोग तो बहुत मेहनत करने के बाद भी गरीब बने रहते हैं , यह असल में गलत राजनैतिक सिस्टम की वजह से होता है कि चालाक लोग दूसरे की मेहनत और दूसरे के संसाधनों का फायदा उठा कर अमीर बन जाते हैं . जैसे अदाणी आदिवासियों की ज़मीनों और मजदूरों की मेहनत का फायदा उठा कर अमीर बना है मेहनत के कारण नहीं .

फासीवादी कहेगा - झुग्गी झोंपड़ी मे रहने वाले नशेड़ी और अपराधी होते हैं , इनके ऊपर पुलिस को सख्त कार्यवाही करनी चाहिये .

प्रगतिशील कहेगा - झुग्गी झोंपडियां हमारे समाज की गलत नीतियों के कारण बनी हैं . हमें इन नीतियों को सुधारने की कोशिश करनी चाहिये , पुलिस को झोपडियों में रहने वाले लोगों के साथ सख्ती करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती . हमें इन जगहों पर रहने वाले लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए झुग्गी झोपडियों में काम करना चाहिये .

फासीवादी कहेगा - औरतें कमज़ोर होती हैं , उन्हें अपने पिता या भाई से पूछे बिना घर के बाहर नहीं जाना चाहिये , औरतों को ढंग के कपड़े पहनने चाहियें , अपने साथ होने वाली छेड़छाड़ के लिए औरतों के कपड़े ज़िम्मेदार होते हैं

प्रगतिशील कहेगा- आदमी और औरत एक बराबर होती हैं . समाज को ऐसा माहौल बनाना चाहिये जिसमें महिला रात को भी घूमने फिरने में डर महसूस ना करे . महिलाओं के साथ छेड़छाड करना पुरुषों की समस्या है इसलिए हमें लड़कों की शिक्षा पर ध्यान देना चाहिये कि वे महिलाओं के बारे में स्वस्थ ढंग से सोचें .

फासीवादी कहेगा- सेना अर्ध सैनिक बल और पुलिस सर्वोच्च होती है जो भी सेना अर्ध सैनिक बल और पुलिस के बर्ताव पर सवाल खड़े करता है वह देशद्रोही है

प्रगतिशील कहेगा- सेना अर्ध सैनिक बल और पुलिस सरकार के आदेश पर चलती है सरकार अमीरों की मुट्ठी में होती है इसलिए अक्सर सेना अर्ध सैनिक बल और पुलिस अमीरों के फायदे के लिए गरीबों के विरुद्ध क्रूर बर्ताव करते हैं इसलिए हम शासन को सेना अर्ध सैनिक बल और पुलिस के बल पर चलाये जाने को पसंद नहीं करते . लोकतंत्र में जनता से बातचीत के द्वारा कामकाज किया जाना चाहिये

फासीवादी कहेगा- राष्ट्र सर्वोपरी है . राष्ट्रभक्ति से बड़ा कोई कोई भाव नहीं है

प्रगतिशील कहेगा- राष्ट्र भक्ति प्रतीकों से नहीं होती . झंडा लिए एक औरत का चित्र या तिरंगा झंडा या भारत का नक्शा राष्ट्र नहीं होता बल्कि राष्ट्रभक्ति वास्तविक होनी चाहिये . राष्ट्र का मतलब इसमें रहने वाले सभी गरीब , अल्पसंख्यक , आदिवासी होते हैं . इनके मानवाधिकारों और इनकी बराबरी का ख्याल रखना ही सबसे बड़ा काम होना चाहिये . इनके अधिकारों को कुचल कर राष्ट्र की बात करना ढोंग है

फासीवादी कहेगा - पाकिस्तान आतंकवादी देश है . उसे कुचल देना चाहिये

प्रगतिशील कहेगा - पाकिस्तान हमारा पड़ोसी देश है . पाकिस्तान हमेशा हमारे पड़ोस में ही रहेगा . हमें पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंध बना कर रखने चाहियें . हमारे बीच में जो भी झगड़े के मुद्दे हैं उनका हल कर लेना चाहिये . हम पाकिस्तान से इसलिए भी नफ़रत करते हैं क्योंकि हम अपने देश के मुसलमानों से ही नफ़रत करते हैं . अगर हम मुसलमानों से नफ़रत करना बंद कर दें तो हमारी पाकिस्तान के प्रति नफ़रत भी खत्म हो जायेगी . आतंकवादी हरकतें दोनों देशों की सरकारें करती हैं . दोनों मुल्कों के हथियारों के सौदागर दोनों मुल्कों के बीच डर का माहौल बनाते हैं ताकि जनता हथियार खरीदने को मंजूरी देती रहे . लेकिन वह पैसा तो असल में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च होना चाहिये .भारत और पाकिस्तान के सिर्फ दो सौ परिवार ऐसे हैं जो हथियार खरीदी से कमीशन खाते हैं और चुनावों मे चंदा देते हैं और दोनों मुल्कों की जनता को एक दूसरे से डराते रहते हैं ताकि उनका धंधा चलता रहे .

फासीवादी कहेगा - सेक्युलर लोग देशद्रोही हैं ,इन्हें पाकिस्तान भेज दो

प्रगतिशील कहेगा - लोकतंत्र का मतलब बहुसंख्य आबादी का अल्पसंख्यक आबादी पर शासन नहीं होता . उसे तो भीड़तंत्र कहा जाता है . लोकतंत्र का मतलब है सभी नागरिक सामान हैं सबकी इज्ज़त बराबर है , सबके अधिकार बराबर हैं , भारत में अल्पसंख्यक मुसलमानों की बराबरी की बात करने वाले लोगों को सिक्युलर और शेखुलर कह कर चिढाया जाता है इसी तरह पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिंदुओं के बराबर अधिकार की बात करने वाले मुस्लिम लोगों को पाकिस्तान के कट्टरपन्थी लोग गाली देते हैं .
-हिमांशु कुमार (आवाज़ ए हिन्द)

बिहार की हार

बिहार का संदेश: लोक को तंत्र निर्देषित नहीं कर सकता!
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0बीजेपी ने दिल्ली से सबक़ लिया होता तो आज मुंह की न खाती।
   कंेद्र में सरकार बनाने के बाद से पीएम नरेंद्र मोदी जी बीजेपी और संघ परिवार को कई गलतफहमियां और खुशफहमियां हो गयी थीं जो बिहार चुनाव से दूर हो जानी चाहिये। इससे पहले देश की जनता ने बीजेपी को अपनी नाराज़गी और मोहभंग होने का हल्का सा संकेत अब से दस माह पहले दिल्ली विधानसभा के चुनाव में ही दे दिया था लेकिन बीजेपी ने उससे सबक न लेकर जनता के बंपर बहुमत से चुनी गयी केजरीवाल की आप सरकार को तरह तरह से संविधान और कानूनी दांवपेंच के जाल में फंसाकर एक तरह से जनमत का अपमान किया और सर्वशक्तिमान जनता का सेवक होने का बार बार दावा करने के बावजूद अपने व्यवहार और अहंकार से दिल्ली की जनता को यह अहसास कराना चाहा जैसे उसने बीजेपी को हराकर पाप किया हो जिसकी सज़ा उसको आम आदमी पार्टी को काम करने न देकर अप्रत्यक्ष रूप से दी जायेगी।
    इसके बाद बिहार में जब चुनाव शुरू हुआ तो बीजेपी यह भूल गयी कि सेंटर में उसकी सरकार बने डेढ़ साल से अधिक हो चुका है और अब जनता रेडियो पर मन की बात और टीवी चैनलों पर हिंदुत्व की बात नहीं ठोस काम चाहती है। संघ परिवार की दिल्ली में शर्मनाक हार के बाद भी यह गलतफहमी दूर नहीं हुयी कि सिर्फ नारों और वादों पर सरकार बना लेने से वे हर राज्य के विधानसभा चुनाव में पीएम मोदी जी के लच्छेदार भाषणों और बीजेपी प्रेसीडेंट अमित शाह के मीडिया मैनेजमैंट से जीतती नहीं रहेगी। आरएसएस को यह खुशफहमी हो गयी थी कि अगर वह केंद्र सरकार की कमान बीजेपी के हाथों में दिला सकते हैं तो बिहार जैसे राज्य मेें बीजेपी को जिताना कौन सा बड़ा काम है? पीएम मोदी भी दिल्ली विधानसभा की हार को अपवाद मानकर आज तक इसी भ्रम में थे कि वे अपने बोलने के खास स्टाइल जातीय समीकरण करोड़ों के पैकेज से बिहार का चुनाव जीत लेंगे।
    बीजेपी को यह गलतफहमी शायद इसलिये भी हुयी क्योंकि महाराष्ट्र और हरियाणा में वे इसी बल पर सरकार बनाने में कामयाब हो गये थे। एक सच्चाई वे भूल  गये कि उन दोनों राज्यों में उनके सामने कोई मज़बूत विकल्प नहीं था जबकि दिल्ली और बिहार में केजरीवाल और नीतीश कुमार विकास और सुशासन के मामले में मोदी से भी बाज़ी मार गये। संघ परिवार यह सोच रहा था कि केंद्र सरकार के बल पर तंत्र की शक्ति से वे बिहार के लोक को अपने हिसाब से नियंत्रित और मतदान के लिये संचालित कर लेंगे लेकिन बिहार के वोटर ने अपनी राजनीतिक परिपक्वता और भारतीय सभ्यता संस्कृति की समरसता व सहिष्णुता की रक्षा करते हुए बीजेपी को आईना दिखा दिया है। बीजेपी यह भूल गयी कि जिस लालू यादव को वे जंगलराज का प्रतीक बता रही थी उसी लालू पर पिछड़े और खासतौर पर यादव और मुस्लिम जान छिड़कते रहे हैं ।
    संघ प्रमुख भागवत आरक्षण की समीक्षा और पीएम मोदी बिहार के लोकप्रिय सीएम नीतीश के डीएनए पर उंगली उठाते हुए यह याद नहीं रख पाये कि यही रण्नीति वे कांग्रेस के खिलाफ गुजरात चुनाव में प्रयोग कर राज्य की अस्मिता का सवाल उठाकर जीत हासिल कर चुके हैं। यूपी के दादरी में जिस तरह से बीफ़ मर्डर के लिये संघ परिवार पर इसकी वैचारिक पृष्ठभूमि बनाने के लिये उंगली उठी, कन्नड़ लेखक कालबुर्गी नरेंद्र डाभोलकर और गोविंद पानसारे की हत्या का आरोप संघ की हिंदूवादी कट्टर सोच वालों पर लगा और इसके विरोध में जिस तरह से साहित्यकारों फिल्मकारों इतिहासकारों और अन्य क्षेत्रों के बुध्दिजीवियों ने अपने पुरस्कार लौटाये विरोध दर्ज किया सरकारी पदों को लात मारी युवा दिलों की धड़कन अभिनेता शारूख़ खान पर मुस्लिम होने की वजह से भाजपा नेताओं ने उनसे असहमति पर कीचड़ उछाला और उसपर बीजेपी संघ और उसकी सरकार की प्रतिक्रिया तानाशाही मनमानी और अभिव्यक्ति की आज़ादी व उदारता को कुचलने वाली थी जिससे बिहार की जनता में एक के बाद एक गलत संदेश गया।
    इसके साथ ही मोदी सरकार की आक्रामकता पद की गरिमा गंवाकर निचले स्तर का पीएम का वाकयुध््द घटिया आरोप प्रत्यारोप हिंदुत्व की मनमानी व्याख्या निरंकुशता तानाशाही अहंकार दाल की महंगाई भ्र्र्र्रष्टाचार कालाधन वापस न आना किसानों की आत्महत्या और विदेशी निवेश विगव वर्ष से भी कम आना अब मोदी मैजिक ख़त्म होने का ऐलान बिहार चुनाव के नतीजों ने दो टूक कर दिया है। गोरक्षा के लिये कानून हाथ में लेने को उकसाने, बीजेपी की हार पर पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे और लालू व नीतीश हिंदुओं का आरक्षण छीनकर मुसलमानों को दे देंगे जैसे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के टोटकों से अब हिंदू जनता भी बीजेपी के झांसे में नहीं आने वाली है।
    संघ परिवार को यह बात समझ लेनी चाहिये कि बीजेपी को देश की जनता ने हिंदूराज के एजेंडे पर नहीं विकास और सुशासन के लिये जिताया था। उनको यह भी याद रखना चाहिये कि मोदी लहर के बाद भी उनके गठबंधन को आम चुनाव में मात्र 31 प्रतिशत मत मिले थे जो स्कूल के बच्चो के थर्ड डिवीज़न में पास होने को भी दो प्रतिशत कम हैं। बीजेपी माने या न माने विकास का कोई ठोस काम वे अब तक कर नहीं पाये हैं। जो वादे और दावे उन्होंने कांग्रेस की सरकार उखाड़ने के लिये किये थे उनमें से अधिकांश पूरे नहीं हो पाये हैं। वे जनता को धोखा देकर तंत्र के हिसाब से उसको नहीं चला सकते। बिहार में नीतीश कुमार ने अपने दो कार्यकाल में विकास और अति पिछड़ों व अति दलितों के लिये ठोस काम किया है माफियाओं को जेल भेज दिया है । वो वहां की जनता के दिल में उतर चुके हैं।
     महिलाओं और खासतौर पर गरीब छात्राओं के लिये साइकिल किताबें और पोशाक का जो अभियान नीतीश सरकार ने चलाया था उसको जनता ने हाथो हाथ लिया है। इतना ही नहीं बीजेपी जिस तरह सामंतवादी तरीकों से राजस्थान और भ्रष्ट ढंग से मध््यप्रदेश की सरकार चला रही है उससे यह संदेश गया है कि भाजपा भी कांग्रेस से कुछ बेहतर नहीं है बल्कि वे कांग्रेस की तरह सत्ता में अपना हिस्सा बांटने की बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। केंद्रीय संस्कृृृृृति मंत्री और परिवहन मंत्री ने इस बात को बेशर्मी से स्वीकार भी किया है कि यह सब पहले भी हुआ है तो अब इतना हंगामा और पुरस्कार वापस क्यों किये जा रहे हैं। सत्ता के नशे में इनको यह भी नहीं पता रहा कि जनता ने पहले की सेक्युलर सरकारों की भूल न दोहराने के लिये ही तो बीजेपी और मोदी को उनकी उम्मीद से ज्यादा वोट देकर एक मज़बूत सरकार बनाई थी।
     अगर अभी भी बीजेपी मोदी और संघ ने अपनी हिंदूवादी, साम्प्रदायिक और अलगाववादी आक्रामक व जनविरोधी नीति छोड़कर विकास सुशासन और निचले स्तर के भ्रष्टाचार को खत्म करने पर काम शुरू नहीं किया तो आने वाले यूपी बंगाल और पंजाब चुनाव के बाद 2019 के आम चुनाव में भी केवल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण भाषणों और दावों से उनको फिर से जीत मिलने वाली नहीं है।      
    0 हज़ारों ऐब ढूंढते हैं हम दूसरों में इस तरह ,
     अपने किरदारों में हम लोग फ़रिशते हों जैसे।।

Wednesday 4 November 2015

आरक्षण की समीक्षा

आरक्षण की समीक्षा से कौन डरता है?
    -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 रोज़गार और ग़रीबी से रिज़र्वेशन का सीधा रिश्ता नहीं है!
   आर एस एस प्रमुख ने आरक्षण की समीक्षा करने की बात कही थी लेकिन बिहार चुनाव सामने होने की वजह से सियासी फायदा नुकसान देख कर नेताओं ने इसको चुनावी मुद्दा बना दिया गया। नतीजा यह हुआ खुद भाजपा को भी सफाई देनी पड़ गयी। हालांकि संघ प्रमुख ने यह कभी नहीं कहा कि आरक्षण ख़त्म कर दिया जाये लेकिन जो लोग आरक्षण की राजनीति कर रहे हैं वे जानते हैं कि अगर आरक्षण की समीक्षा हो गयी तो यह सच सामने आ जायेगा कि आरक्षण जिस मकसद से शुरू किया गया था वह आज तक पूरा नहीं हो सका है। हालांकि रिज़र्वेशन शुरू में मात्र 10 साल के लिये दिया गया था लेकिन आज यह 67 साल बाद भी अपना मकसद पूरा नहीं कर सका है। अगर आरक्षण की समीक्षा होगी तो यह कारण भी सामने आ सकता है कि ऐसा क्यों हुआ?
    लेकिन आरक्षण की समीक्षा करने का विरोध करने वाले जानते हैं कि फिर यह सवाल भी उठेगा कि आज तक आरक्षण अपना लक्ष्य पूरा क्यों नहीं कर सका? जिन लोगों को यह भ्रम है कि अगर आरक्षण ख़त्म हो जाये तो उनको रोज़गार मिल सकता है यह उनकी भूल है क्योंकि ऐसा करने से केवल सरकारी रोज़गार का आधा हिस्सा ही उनके हिस्से में और आ सकता है आधा तो पहले ही सबके लिये खुला है। हर साल निकलने वाली ऐसी सरकारी नौकरियां तीन लाख से अधिक नहीं होंगी जिससे केवल डेढ़ लाख लोग ही यह मान सकते हैं कि उनको 50 प्रतिशत अवसर अधिक मिलेंगे लेकिन ऐसा करने पर यह भी ज़रूरी नहीं कि आरक्षित कोटे के लोग मैरिट पर सरकारी सेवाओं से पूरी तरह बाहर हो जायेंगे बल्कि उनमें से एक बड़ी तादाद तो आज भी जनरल कोटे में अपनी प्रतिभा और योग्यता के बल पर सरकारी सेवाओं में चुनी जाती रही है।
    यही हालत कमोबेश शिक्षण संस्थाओं की रहेगी। सामान्य वर्ग के कुल बेरोज़गार और छात्रों को इससे पांच प्रतिशत भी लाभ नहीं मिल पायेगा। कुछ लोग आरक्षण के कारण अयोग्यता और भ्रष्टाचार बढ़ने का दावा करते हैं उनकी आंखे खोलने को एक सर्वे की चर्चा यहां करना ज़रूरी है। इसका उल्लेख भाजपा सांसद और एससी एसटी संगठनों के महासंघ के अध्यक्ष वरिष्ठ दलित नेता उदित राज ने अपने एक लेख में भी किया है। मिशिगन यूनिवर्सिटी में इकोनोमिक के प्रोफेसर थॉमस विसकाफ और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स के प्रोफेसर अश्विनी देशपांडे ने दलितों और आदिवासियों को रेलवे में 1980 से 2002 तक मिले रोज़गार के बाद की हालत पर रिसर्च किया। इस अध्ययन से पता चला कि आरक्षण के बल पर ही रेलवे के ग्रुप ए और बी में आरक्षित जातियों को पहंुचने का अवसर मिल सका है।
    सबसे रोचक तथ्य यह सामने आया कि जिन ज़ोनों में सबसे अधिक और सबसे कम आरक्षित श्रेणी के कर्मचारी और अधिकारी काम कर रहे थे जब उनकी कार्यक्षमता और उत्पादकता की जांच की गयी तो न केवल कोई विशेष अंतर सामने नहीं आया बल्कि सर्वे करने वालों को यह देखकर हैरत हुयी उल्टे जिन ज़ोन में दलित कर्मचारियों की तादाद ज़्यादा थी उनमें से कुछ में सामान्य वर्ग के बाहुल्य वाले ज़ोन के मुकाबले उत्पादकता अधिक बढ़ी थी। यहां सवाल यह भी उठता है कि जब देश के अधिकांश उच्च संस्थानों जैसे आईआईटी और विश्वविद्यालयों में उच्च जाति के ही लोग विराजमान हैं तो भी देश में रिसर्च और तकनीक का स्तर क्यों नहीं उठा? भारत की कोई भी यूनिवर्सिटी विश्व की 300 प्रमुख यूनिवर्सिटी में शामिल क्यों नहीं हो सकी हैं? ऐसे ही उच्च न्यायपालिका में आरक्षण नहीं है जिससे इनके उच्च पदों पर अधिकांश उच्च जातियों का ही कब्ज़ा है फिर भी इन पर उंगली क्यों उठती हैं?
    खुद सुप्रीम कोर्ट के जज रहे काटजू और सीनियर एडवोकेट शांति भूषण क्यों कहते हैं कि न्यायपालिका के 50 प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं? इतना ही नहीं भारत सरकार के 150 सचिवों में से दो चार ही आरक्षित वर्ग के होंगे फिर भी सरकारी मशीनरी मेें कितना भाई भतीजावाद भ्रष्टाचार जातिवाद पक्षपात और नाकारापन है यह किसी से छिपा नहीं है इससे यह भी पता चलता है कि अगर आरक्षण न हो तो हमारे यहां दलितों पिछड़ों और आदिवासियों को निजी क्षेत्र की तो बात ही मत कीजिये खुद सरकार कितना हिस्सा दे रही है? जब इन क्षेत्रों में आरक्षण नहीं है तो फिर भी ये बुराइयां क्यों पनप रही हैं? कुछ लोग आरक्षण आर्थिक आधार पर किये जाने की मांग करते रहे हैं लेकिन वे भूल जाते हैं कि आरक्षण सामाजिक बराबरी के लिये दिया गया है ना कि गरीबी दूर करने के लिये। जातीय पूर्वाग्रह आज भी हमारे समाज में बड़े स्तर पर मौजूद है।
    जो लोग आरक्षण से देश के कमज़ोर होने का राग अलापते हैं उनको इस सवाल का जवाब भी देना चाहिये कि जब देश में आरक्षण नहीं था तब देश गुलाम क्यों और कैसे बन गया? इसके पीछे एक वजह यह भी थी जिन लोगों के साथ जाति की वजह से पक्षपात होता था उन्होंने देश को गुलामी से बचाने के लिये समाज से अलग थलग होने के कारण और नाराज़ होकर कोई सक्रिय विरोध अंग्रेज़ों और मुस्लिम शासकों का नहीं किया। इतने बड़े वर्ग की क्रयशक्ति कम या ना के बराबर होने से देश को भारी आर्थिक नुकसान भी हुआ। जो लोग बार बार आरक्षण में क्रीमी लेयर की आय सीमा बढ़ाने का विरोध करते हैं उनको लगता है कि ऐसा करने से वे आरक्षित वर्ग के गरीब लोगों को आगे आने का रास्ता दे सकते हैं जबकि आरक्षण का मूल  सामाजिक गैर बराबरी और पक्षपात ख़त्म करना था ना कि गरीबी या बेरोज़गारी। इसका एकमात्र हल यही है कि सरकार सर्वसमावेशी विकास की तरफ बढ़ते हुए लोगों के बीच आय में लगातार बढ़ रही खाई को कम करने का प्रयास शुरू करे नहीं तो आरक्षण विरोधी पटेल आंदोलन आगे बढ़ेगा। संघ प्रमुख के आरक्षण का मुद्दा बिहार के चुनाव के वक्त उठाने पर तो यह शेर याद आ रहा है।
    0कौन सी बात कहां कैसे कही जाती है,
     यह सलीक़ा हो ता हर बात सुन जाती है।।