Tuesday 31 May 2016

Coffee on wall...

Coffee on wall :---

I sat with my friend in a well-known coffee shop in a neighbouring town of Venice (Italy), the city of lights and water.

As we enjoyed our coffee, a man entered and sat at an empty table beside us.

He called the waiter and placed his order saying,

‘Two cups of coffee, one of them there on the wall.’

We heard this order with rather interest and observed that he was served with one cup of coffee but he paid for two.

As soon as he left, the waiter pasted a piece of paper on the wall saying
‘A Cup of Coffee’.

While we were still there, two other men entered and ordered three cups of coffee, two on the table and one on the wall.

They had the two cups of coffee but paid for three and left.

This time also, the waiter did the same;

he pasted a piece of paper on the wall saying, ‘A Cup of Coffee’.

It was something unique and perplexing for us.

We finished our coffee, paid the bill and left.

After a few days, we had a chance to go to this coffee shop again.

While we were enjoying our coffee, a man poorly dressed entered.

As he seated himself, he looked at the wall and said, 'One cup of coffee from the wall'.

The waiter served coffee to this man with the customary respect and dignity.

The man had his coffee and left without paying.

We were amazed to watch all this, as the waiter took off a piece of paper from the wall and threw it in the dust bin.

Now it was no surprise for us – the matter was very clear.

The great respect for the needy shown by the inhabitants of this town made our eyes well up in tears.

Ponder upon the need of what this man wanted...

He enters the coffee shop without having to lower his self-esteem…

he has no need to ask for a free cup of coffee…

without asking or knowing about the one who is giving this cup of coffee to him.

He only looked at the wall, placed an order for himself, enjoyed his coffee and left.

... probably the most beautiful wall you may ever see anywhere....!!!

Worth sharing......

����Its what makes us human.....��

Tuesday 17 May 2016

मेडिकल में धांधली कैसे रुकेगी ?

शिक्षा और चिकित्सा धंधा नहीं है भाई!


आखि़रकार सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा है कि शिक्षा और चिकित्सा की ज़िम्मेदारी से सरकार ने पल्ला झाड़ लिया है।  कोर्ट ने यह भी कहा कि ये दोनों क्षेत्र मुनाफ़े के लिये नहीं हो सकते। निजी क्षेत्र कैपिटेषन फीस के नाम पर धांधली कर रहा है। नियामक संस्था मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया बजाये इसे काबू करने के खुद गले तक भ्रष्टाचार मंे डूबी है। कोर्ट को इसके काम की निगरानी के लिये भी तीन सदस्य कमैटी बनानी पड़ी है। 
   
हमारे देश में इस समय अजीब हालात हैं। एक तरफ सरकार को इस बात की तकलीफ है कि कोर्ट सरकार के कामों में दख़ल दे रहा है। दूसरी तरफ खुद सरकार की साख और ईमानदारी से काम करने की इच्छा शक्ति दूर दूर तक नदारद है। मध्य प्रदेश के निजी मेडिकल कालेजों की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा है कि शिक्षा और चिकित्सा मुनाफे के लिये नहीं हैं। सरकार को चाहिये कि बच्चो की भर्ती के नियम और इनकी फीस तय करे। कोर्ट ने मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया को भी आड़े हाथ लिया।  यह बात बिल्कुल सच है कि कैपिटेशन फीस से शिक्षा का स्तर लगातार गिर रहा है। हैरत की बात यह है कि आरक्षण को अयोग्यता की सबसे बड़ी वजह बताने वाले इस मामले में रहस्यमयी चुप्पी साध्ेा रहते हैं।
 
सबको पता है कि जब से शिक्षा और खासतौर पर उच्च शिक्षा का निजीकरण हुआ है। तब से न केवल शिक्षा का स्तर बुरी तरह गिरा है। बल्कि इस क्षेत्र में प्रवेश परीक्षा और मैनेजमैंट कोटे के नाम पर धांधली भी काफी बढ़ी है। इस पर भी सरकार ने आंखे बंद कर रखी हैं। सबको पता है कि आज शिक्षा और चिकित्सा इतनी महंगी हो चुकी हैं कि आम आदमी तो कर्ज लेकर भी अपने प्रतिभाशाली बच्चो को नहीं पढ़ा सकता। वजह अगर उसका बच्चा किसी वजह से पास नहीं हो सका तो वह कर्ज कैसे और कहां से उतारेगा? ऐसा भी हो सकता है कि किसानों की तरह उसके सामने भी आत्महत्या ही एक मात्र मुक्ति का रास्ता बचे?
    
आंकड़े बता रहे हैं कि हर साल साढ़े तीन करोड़ लोग महंगे इलाज की वजह से मीडियम क्लास से बीपीएल यानी गरीबी की रेखा के नीचे चले जाते हैं। यह अजीब बात है कि सरकार ने शिक्षा और चिकित्सा का निजीकरण कर अपनी ज़िम्मेदारी और बजट से ऐसा पीछा छुड़ा लिया है। मानो ये दोनों चीजे़े गैर ज़रूरी और बेकार की बात रही हो? आज निजी मेडिकल कॉलेजों ने मनमानी की सारी सीमायें पार कर रखी हैं। इनको काबू करने के लिये जो मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया बनाई गयी थी। वो खुद भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के आरोपों से घिरी है। हालत इतनी ख़राब है कि कौंसिल पर करोड़ों रूपये ऐंठकर ऐसे फर्जी मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने के आरोप हैं।
  
जिनमें न तो पर्याप्त भवन और टीचर हैं। और न ही बच्चो के लिये लैब व अन्य मूलभूत सुविधायें ही मौजूद हैं। जहां तक सरकार का सवाल है। उसको सबसे पहले अपने वोटबैंक का ख़याल रखना होता है। अब एक बात और आम हो गयी है। जो भी पार्टी विपक्ष में होती है। वह सत्ता में आने से पहले तो सरकार को खूब नैतिकता के पाठ पढ़ाती है। लेकिन जैसे ही वह खुद सत्ता मेें आती है। तो वही सब करने लगती है। जिसके लिये अभी कल तक वह सरकार को लताड़ रही थी। इसके बावजूद मजे़दार बात यह है कि वही अवसरवादी अनैतिक और ढोंगी पार्टी सरकार बनाते ही यह चाहती है कि उसके असंवैधनिक और तानाशाहीपूर्ण बेईमानी के कामों में कोर्ट दख़ल न दे। अरे वाह यह तो चोरी और सीनाजोरी है। सत्ता बदलती है लेकिन व्यवस्था वही रहती है।
 
सोचा तो था जाकर हम उससे फरियाद करेंगे
कमबख़्त वो भी उसका चाहने वाला निकला।

बेकसूरों को इन्साफ मिलेगा?

आतंक के बेक़सूर आरोपियों को न्याय मिलेगा?


देश दुनिया में आतंकवाद एक कड़वी सच्चाई है। इसमें अधिकांश मुस्लिम शामिल पाये जाते हैं। यह भी एक हक़ीक़त है। लेकिन केवल ठोस सबूत होने पर दोषी को ही सज़ा मिलनी चाहिये। अगर किसी को आतंक के आरोप में गलत फंसाया जाता है तो उसको न केवल बेक़सूर पाये जाने पर मुआवज़ा मिलना चाहिये। बल्कि उससे सरकार और मीडिया को माफी मांगकर उसको जानबूझकर फंसाने वाले सरकारी अमले को सज़ा भी दी जानी चाहिये।
 
मालेगांव बम विस्फोट के 9 मुस्लिम आरोपियों को दस साल बाद जेल से रिहाई मिल गयी है। ऐसे ही दिल्ली में जैश ए मुहम्म्द के आतंकी बताकर पकड़े गये 13 में से 10 लोगों को चार दिन बाद बेक़सूर पाये जाने पर पुलिस ने छोड़ दिया। इस दौरान इनको मीडिया ने आतंक का आरोपी नहीं सीधे आतंकवादी बताकर बुरी तरह बदनाम कर दिया । इनके परिवार समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं रह गये। बिना किसी गल्ती के केवल शक के आधार पर आतंक जैसे गंभीर और ख़तरनाक मामले में जेल भेजे गये इन आरोपियों का कहना है। उनकी नौकरियां छूट गयीं हैं। उनकी बहनों की शादी नहीं हो पा रही हैं। यहां तक कि उनके बच्चो का कई मामलों में बिना कोई वजह बताये स्कूलों से नाम काट दिया गया है।
 
कुछ आरोपियों के बच्चो ने केवल इसलिये स्कूल कालेज जाना बंद कर दिया। क्यांेंकि उनको ‘‘आतंकी की औलाद’’ कहकर चिढ़ाया जाता था। इनमें से कुछ के परिवारों को मकान मालिकों ने इनके जेल जाने के बाद किसी लफड़े में फंसने या पुलिस द्वारा पूछताछ किये जाने के डर से घर व दुकान से चलता कर दिया। कुछ आरोपियों के परिवारों से पड़ौसियों ने बोलचाल तक बंद कर दी। इनके जेल जाने के बाद घर का खर्च चलाने के लिये जब इनकी पत्नियों या बड़े बच्चो ने काम तलाश किया तो कोई भी यह बात जानने के बाद इनको काम पर रखने को तैयार नहीं हुआ कि इनके परिवार का मुखिया आतंक के आरोप में जेल में बंद है।
 
मीडिया के लगातार इनको आरोप साबित होने से पहले ही बार बार आतंकी बताये जाने से समाज ने इनका बहिष्कार शुरू कर दिया। आसपास के लोग इन परिवारों से मुसीबत की घड़ी में नफरत करने लगे। इनका यहां तक कहना है कि दूर की छोड़ो करीब के रिश्तेदार भी इनसे दूरी बनाकर रखने लगे। ऐसे में इनके जेल जाने से इनकी मदद की बात तो दूर इनसे मिलना जुलना या रिश्ता रखना भी इनके अपनों ने मुसीबत में फंसने की तरह देखा। इनमें से कई का आरोप है कि जेल में रखे जाने के दौरान इनको भयंकर थर्ड डिग्री वाली असहनीय यातनाऐं दी गयीं। जब ये एटीएस से पूछते थे कि कब तक मारोग? तो उनका जवाब होता था कि जब तक आतंक का आरोप स्वीकार नहीं कर लोगे।
 
सवाल यह है कि देश संविधान और कानून से चल रहा है या तानाशाही और पूर्वाग्रह से? सब जानते हैं कि आज देश में एक ऐसी सरकार सत्ता में है जो एक धर्म विशेष के लोगों का विश्वास आज तक नहीं जीत पाई है। इसी का नतीजा है कि उस अल्पसंख्यक धर्म के मानने वाले भी उस सरकार व उसके आका आरएसएस को अपना शत्रु समझते हैं। संघ परिवर के कुछ लोग इसको खुलेआम धर्मयुध्द बताते रहे हैं। हालांकि यह केस यूपीए सरकार के ज़माने का है। लेकिन जिस तरह साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित को इस मामले में क्लीन चिट दी जा रही है। उससे भी मोदी सरकार को हिंदूवादी समर्थक और मुस्लिम विरोधी चेहरा सामने आ रहा है।
 
इस मामले में पूर्व सरकारी पब्लिक प्रोसिक्यूटर पहले ही मोदी सरकार पर हिंदू आरोपियों को बचाने का दबाव डालने का आरोप लगाकर अपने पद से इस्तीफा दे चुकी है। हमारा कहना यह है कि अगर वास्तव में आतंकवाद को जड़ से मिटाना है तो बेशक असली आतंकियों को सज़ा मिले। सख़्त सज़ा मिले। जल्दी सज़ा मिले। और साथ ही बेक़सूरों को रिहा कर मुआवज़ा दिया जाये। साथ ही सरकार और मीडिया इनसे बदनाम और अपूर्णीय नुकसान हेतु माफी भी मांगे। 
 
वाक़िफ़ हैं लोग झूठ के नुक़सान से मगर,
 झूठे की इस जहान में हिमायत भी कम नहीं।

Thursday 5 May 2016

आर्थिक आरक्षण

आरक्षण पर भाजपा की हालत देख हंसी आती है......

जो लोग बात बात पर देश की तमाम समस्याओं के लिये आरक्षण को कोसते रहते हैं। मैं कई दिन से प्रतीक्षा कर रहा हूं कि वे कुछ बोलेंगे। लेकिन कहीं से भी आर्थिक आरक्षण के खिलाफ आवाज़ नहीं उठ रही है। इसका मतलब वे आरक्षण नहीं पिछड़ों और दलितों का विरोध करते रहे हैं।
    
गुजरात में उन ‘‘गरीब’’ सवर्णों को भाजपा सरकार ने 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया है। जिनकी आमदनी मात्र 50 हज़ार रू. माह तक है। इससे पहले गुजरात की सम्पन्न और समृध्द समझी जाने वाली पटेल जाति अपने आरक्षण की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन चला चुकी है। इसके नेता हार्दिक पटेल को इसी मामले में जेल भेजा गया है। पंचायत चुनाव में पटेल समुदाय ने अपनी नाराज़गी दर्ज कराने को भाजपा को ठेंगा दिखाया है। इससे पहले हरियाणा में जाट समुदाय आरक्षण के लिये बड़े पैमाने पर हिंसक आंदोलन चला चुका है। महाराष्ट्र में मराठा और राजस्थान में गूजर भी समय समय पर अपने लिये पिछड़ों के आरक्षण में हिस्सा मांगते रहे हैं।
   
हिंदुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा इस मसले में बुरी तरह फंस गयी है। बिहार चुनाव से पहले उसके आका संघ प्रमुख भागवत केवल इतना कहकर बुरी तरह फंस गये थे कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिये। उनका मकसद तो इस बयान से सवर्णों को खुश करना था। लेकिन सवर्ण तो खुश नहीं हुए उल्टा पिछड़े और दलित भाजपा से ख़फा हो गये। पीएम मोदी इस मामले मेें काफी सफाई देते रहे लेकिन उनकी किसी ने एक नहीं सुनी। अब भाजपा ने बहुत सोच समझकर यह फैसला किया है। इसके अनुसार गरीब सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण का दांव चला गया है। भाजपा को लगता है कि इससे पिछड़े और दलित भी खफा नहीं होंगे ।
   
मुझे नहीं लगता कि इससे वे सवर्ण संतुष्ट और प्रसन्न हो जायेंगे। जिनको भाजपा ने ऐसा इशारा दिया था मानो वह आरक्षण ख़त्म कर सकती है। भाजपा की हालत सांप छछूंदर जैसी हो गयी है। एक तरफ उससे सवर्ण खुश नहीं हो पा रहे। दूसरी तरफ पिछड़े और दलित उसको आरक्षण के मामले में बराबर शक की निगाह से देख रहे हैं। मुझे हंसी आती है। भाजपा की आज की दयनीय हालत देखकर। एक तरफ जब अल्पसंख्यकों को सच्चर कमैटी और रंगनाथ मिश्रा कमैटी की सिफारिश पर आरक्षण देने की बात आती है तो भाजपा यह कहकर आसमान सर पर उठा लेती है कि संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण का प्रावधान नहीं है। 
  
चलो मान लिया यह बात ठीक है। अब भाजपा से पूछा जाना चाहिये कि संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान कहां है? अगर अपने सवर्ण वोटबैंक के तुष्टिकरण के लिये भाजपा ये संविधान विरोधी फैसला कर सकती है तो दूसर सेकुलर दल जब अल्पसंख्यकों के लिये ऐसा करने की कोशिश करते हैं तो उनका भाजपा किस मुंह से विरोध करती है? अब भाजपा को यह भी बताना चाहिये कि क्या 50,000 रू. मासिक आय वाला गरीब होता है? एक सवाल का जवाब भाजपा क्या किसी सरकार के पास नहीं होगा कि आय का असली प्रमाण पत्र हमारे देश में कैसे बनेगा? हमारे यहां कई लोगों ने जाति तक के फर्जी प्रमाण पत्र बनवा रखे हैं।
   
आज भी बच्चो के वजीफों के लिये लोग 3000 मासिक आय का फर्जी सर्टिफिकेट थोक में बनवा रहे हैं। ऐसे में 50,000 का फर्जी आय प्रमाण पत्र बनवाना कौन सी बड़ी बात है? सबसे ख़राब और दुख की बात यह है कि भाजपा भी उसी शॉर्टकट पर चल रही है। जिसपर अन्य दल अब तक चलते रहे हैं। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार पिछले 22 साल मेें 30 करोड़ युवा रोज़गार की तलाश में आये लेकिन उनमें से केवल 14 करोड़ को ही रोज़गार मिल सका है। यक्षप्रश्न यह है कि जब सरकारें रोज़गार नहीं बढ़ायेंगी तब तक आरक्षण से भी यह मसला सुलझने वाला नहीं।
 
पालते हैं वे कबूतर पर कतरने के लिये,
ताकि बेबस हों उन्हीं के घर उतरने के लिये।

Tuesday 3 May 2016

Ubuntu

उबुन्टु ( UBUNTU ) एक सुंदर कथा...!

उबुन्टु ऑपरेटिंग सिस्टम
( Ubuntu Operating System )

जानते हैं, किससे प्रेरित है इस ऑपरेटिंग सिस्टम का नाम ?
��
कुछ आफ्रिकन आदीवासी बच्चों को एक मानवविज्ञानी Rev.Mark ने एक खेल खेलने को कहा।

उसने एक टोकनी में मिठाइयाँ और कैंडीज एक वृक्ष के पास रख दिए।

बच्चों को वृक्ष से 100 मीटर दूर खड़े कर दिया।

फिर उसने कहा कि, जो बच्चा सबसे पहले पहुँचेगा उसे टोकनी के सारे स्वीट्स मिलेंगे।

जैसे ही उसने, रेड़ी स्टेडी गो कहा.....

तो जानते हैं उन छोटे बच्चों ने क्या किया ?

सभी ने एक दुसरे का हाँथ पकड़ा और एक साथ वृक्ष की ओर दौड़ गए, पास जाकर उन्होंने सारी मिठाइयाँ और कैंडीज आपस में बराबर बाँट लिए और मजे ले लेकर खाने लगे।

जब मानवविज्ञानी ने पूछा कि, उन लोगों ने ऐंसा क्यों किया ?
 
तो उन्होंने कहा---" उबुन्टु ( Ubuntu ) "

जिसका मतलब है,

" कोई एक व्यक्ति कैसे खुश रह सकता है जब, बाकी दूसरे सभी दुखी हों ? "

उबुन्टु ( Ubuntu ) का उनकी भाषा में मतलब है,

" मैं हूँ क्योंकि, हम हैं! "

सभी पीढ़ियों के लिए एक सुन्दर सन्देश,
आइए इस के साथ सब ओर जहाँ भी जाएँ, खुशियाँ बिखेरें,

आइए उबुन्टु ( Ubuntu ) वाली जिंदगी जिएँ.....

" मैं हूँ क्योंकि, हम हैं..!! "������

Monday 2 May 2016

प्यासे हैं कुछ बच्चे

भारतमाता ! तेरे कुछ बच्चे प्यासे हैं !


 
 
कैसे तेरे कुछ नालायक बच्चे ऐसे में भी जश्न मना रहे हैं ? आईपीएल वाले मुंबई नागपुर के बाद जयपुर और हैदराबाद में भी क्रिकेट मैच के खिलाफ मानवप्रेमी लोगों के हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने से आगे से सारे मैच विदेष में कराने की धमकी दे रहे हैं। ओ माय गॉड इनको माफ करना ये नहीं जानते कि ये क्या पाप कर रहे हैं? कितने बेरहम और ज़ालिम हैं ये? इनको अपनी मौज मस्ती के सामने पानी के लिये बिलबिलाते लोगों की चीख़पुकार तक सुनाई नहीं दे रही है? कितने बेषर्म और स्वार्थी हैं?
 
हिंदी के जनवादी कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने अपनी एक कविता में कहा था-‘‘यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में आग लगी है, तो क्या तुम दूसरे कमरे में सो सकते हो? यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाशें सड़ रही हों, तो क्या तुम दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?’’ आज ऐसा ही सवाल सुप्रीम कोर्ट को मुंबई क्रिकेट एसोसियेशन और सरकार से पूछना पड़ रहा है। महाराष्ट्र से बाहर जयपुर में आयोजित होने जा रहे आइपीएल के ऐसे मैचों के खिलाफ राजस्थान हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया गया है। उधर हैदराबाद और कानपुर का नाम क्रिकेट मैचों के लिये चर्चा में आने पर तेलंगागना और यूपी के लोग अभी से उबल रहे हैं। क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को चिढ़कर यह कहना पड़ा है कि वह ऐसे मैच अब विदेशों में कराने पर विचार कर रहा है।
 
मुझे इस सारे मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक बात बहुत अच्छी लगी। कोर्ट ने इशारों इशारों में सर्वेश्वर दयाल की इन पंक्तियों को को समय की कसौटी पर खरा साबित कर दिया है। कोर्ट का दो टूक कहना है कि वह पानी कम खर्च होने, मैदान पर पीने का पानी खर्च न होने या उसकी कीमत अदा करने के किसी तर्क को नहीं मानता। कोर्ट का कहना है कि जब देश के कुछ इलाकों के लोग प्यासे हों। तब आपको क्रिकेट का जश्न मनाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। कोर्ट ने आईपीएल की यह दलील भी ठुकरा दी कि इससे लोगों को बड़े पैमाने पर रोज़गार मिलता है। कोर्ट सरकार से इस बात का वादा लेने पर भी क्रिकेट की इजाज़त देने को तैयार नहीं हुआ कि वह मैच से प्राप्त आय से ऐसे क्षेत्रों में पीने का पानी भेजने की व्यवस्था कर सकती है, जहां पानी का अकाल है।
 
कोर्ट ने बड़े तल्ख़ लहजे में पूछा कि यह काम अब तक क्यों नहीं किया गया। क्या सरकार के पास लोगों की पानी जैसी बुनियादी आवश्यकतायें पूरी करने का भी इरादा और इंतज़ाम अपने वर्तमान संसाधनों के रहते नहीं है? सवाल असली यही है कि मीडिया ने यह मुद्दा ठीक ही मुख्य चर्चा में उतारा है कि जब देश के एक तिहाई लोग सूखे की चपेट में हों तो कैसे बाकी के खाये अघाये पेटभरे लोग क्रिकेेट का समारोह आयोजित कर सकते हैं? एक तरफ देश में भारतमाता की जय का नारा दिया जाता है। दूसरी तरफ उसी पार्टी की सरकार असंवेदनशीलता और अमानवीयता का खुला नंगा नाच करते हुए प्यासे लोगों को उनके हाल पर छोड़कर आईपीएल का पक्ष लेती नज़र आती है।
 
जब कोर्ट उस लापरवाह और नालायक सरकार को लताड़ता है तो वह बहाने तलाश करती है। सवाल उस संगठन से भी किया जाना चाहिये कि जो भारतमाता की जय को ही सारी देशभक्ति और राष्ट्रवाद का ठेका लेता है। भारतमाता के यह कैसे नालायक बच्चे हैं जो अपने ही प्यासे भाइयों की पानी की ज़रूरत को नज़र अंदाज़ करके अपने लिये मनोरंजन को क्रिकेट ज़रूरी समझते हैं? ऐसे में भारतमाता कैसे खुश हो सकती है जबकि उसके कुछ बच्चे प्यासे हों और कुछ खापीकर क्रिकेट का जश्न मनाने में मगन हों? ऐसे स्वार्थी नालायक और अमानवीय बच्चो को यह अहसास हर हाल में कराया ही जाना चाहिये कि अगर उनके दूसरे भाई भूखे प्यासे और बेहाल हैं तो उनको किसी तरह का जश्न खेल और मौज मस्ती का मौका नहीं दिया जा सकता।
  
देश एक और मज़बूत तभी रह सकता है जब उसके सभी नागरिक एक दूसरे के सुख दुख में शरीक हों तथा अपने हितों को दूसरे के बुनियादी हकों पर हावी न करें।  
 तुम अपने जुल्म की इंतेहा कर दो,
 फिर कोई हमसा बेजुबां मिले ना मिले।