Sunday 26 February 2023

पाकिस्तान संकट

*पाकिस्तान: बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से आये!* 


0 पाकिस्तान आजकल भारी संकट में है। पड़ौसी मुल्क और मानवता के नाते वहां की परेशान जनता से किसी भी इंसान देश व समाज को सहानुभूति हो सकती है। लेकिन उसके शासकों सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई ने आज़ादी के बाद से जो रास्ता चुना वह उसको इसी बर्बादी और तबाही की ओर ले जा सकता था। आज उसकी वहन क्षमता से कई गुना अधिक 250 बिलियन अमेरिकी डालर कर्ज़ है। उसको 33 बिलियन डाॅलर 2023 में चुकाने हैं। उसकी कुल खेती लायक ज़मीन में से 70 प्रतिशत पर 263 अमीर सामंत और नवाब रहे बड़े लोगों का कब्ज़ा है। पिछले साल आई भीषण बाढ़ से उसकी एक तिहाई खेती तबाह हो गयी। वहां निर्माण से अधिक आतंक पैदा हुआ है।        


                  -इक़बाल हिंदुस्तानी


      आईएमएफ यानी इंटरनेशनल मोनेट्री फंड ने उसको इस संकट से निकालने के लिये 7 अरब डालर का बेलआउट पैकेज देने को हामी तो भरी है लेकिन उसकी शर्तें इतनी मुश्किल जनविरोधी और सख़्त हैं कि पाक के सामने एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई वाली हालत है। रेटिंग एजेंसी मूडीज़ का कहना है कि पाक की कर्ज़ चुकाने की क्षमता आज दुनिया के किसी भी आज़ाद और संप्रभु देश के मुकाबले सबसे कमज़ोर है। अगर पाक इस पैकेज को लेता है तो उसको आईएमएफ की शर्त के अनुसार सब्सिडी में भारी कटौती टैक्स दरों में बढ़ोत्तरी और सुधारवादी आर्थिक नीतियां अपनानी होंगी। पाक के सामने करो या मरो की हालत है। उसके कर्ज़ का ब्याज भुगतान ही कुल आने वाले राजस्व का आधा है। 2017 का विदेशी कर्ज़ 66 से बढ़कर 100 बिलियन हो चुका है। डाॅलर की कीमत 267 रूपये हो चुकी है जिससे पाक का कर्ज़ बिना और लिये ही बढ़ता जा रहा है। साथ ही इससे महंगाई को भी पर लग गये हैं। जो 40 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 3.67 अरब डालर बचा है जोकि आगामी तीन सप्ताह के लिये ही हैै। उसकी सीमा पर विदेशी माल के ढेर लगे हैं। लेकिन उनकी कीमत चुकाने के लिये विदेशी मुद्रा ना होने से वह माल पाक मंे अंदर प्रवेश नहीं कर पा रहा है। हालांकि पाक के वर्तमान संकट के अन्य कारणों में तात्कालिक वजह यूक्रेन जंग वैश्विक मंदी और पिछले साल आई भयंकर बाढ़ से 33 मिलियन लोगों का जीवन तबाह हो जाना भी है। लेकिन आतंकवाद उग्रवाद चरमपंथ कट्टरपंथ करप्शन सेना का बार बार चुनी हुयी सरकार का तख़्ता पलट करना आर्थिक गैर बराबरी विदेश में काम करने वाले पाकिस्तानियों पर अर्थव्यवस्था का टिका होना आज़ादी के दशकों बाद तक अपना संविधान ना बना पाना लोकतंत्र मज़बूत ना होना सेना पर बजट का बड़ा हिस्सा खर्च करना अमेरिका और खाड़ी के देशों से मिलने वाली बड़ी वित्तीय मदद का बड़ा हिस्सा तालिबान जैसे आतंकी संगठनों को पैदा कर पालना पोसना और भारत की तरह ज़मींदारी उन्मूलन ना कर देश में केवल बेहद गरीब और बेहद अमीर दो ही वर्ग आज तक बने रहना भी पाक की तबाही का कारण बना है।कहावत पाक पर इसलिये भी याद आ रही है कि इस संकट के दौर में जिस तालिबान को उसने बड़ी मेहनत लगन और कट्टर मज़हबी जनून की घुट्टी पिलाकर पाला था। आज वही उसके सीमावर्ती इलाकों में इतनी ज़बरदस्त पकड़ बना चुका है कि वहां पाक सरकार का राज नहीं चलता। तालिबान मस्जिद में नमाज़ पढ़ते लोगों और आर्मी के स्कूल में सैनिकों के बच्चो को जब तब बम और गोलीबारी से मारता रहता है। लेकिन पाक सरकार सेना और आईएसआई बेबस नज़र आते हैं। शायद गांधी जी ने इसीलिये बार बार ज़ोर देकर यह कहा था कि सही मकसद हासिल करने के लिये सही रास्ता भी अपनाया जाना ज़रूरी है। लेकिन पाक ने अफगानिस्तान से रूस को भगाने में अमेरिका के साथ मिलकर जो तालिबान पैदा किया वह आज उसी को खा रहा है। कहावत सही है कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से आये।


 *नोट- लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक व नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं

Tuesday 14 February 2023

बाल विवाह कैसे रुकेंगे?

*बाल विवाह रोकना है तो जेल नहीं स्कूल बढ़ाने होंगे!* 

0 असम सरकार ने बाल विवाह के खिलाफ़ अभियान शुरू करते हुए लगभग एक सप्ताह में 4000 रपट दर्ज कर 2500 से अधिक लोगों को जेल भेज दिया है। सीएम हिमंत विस्व सरमा ने कहा है कि जिन लोगों ने विगत 7 साल में बाल विवाह कराने में किसी भी तरह की भागीदारी की है उनको हर हाल में जेल भेजा जायेगा। बाल विवाह कराने वाले परिवारों के साथ ही दर्जनों क़ाज़ी और पुजारियों को भी पकड़ा गया है। कानून के हिसाब से देखा जाये तो अभियान सही है। प्रोहिबीशन आॅफ़ चाइल्ड मैरिज एक्ट व पाॅक्सो यानी प्रोटेक्शन आॅफ़ चिलड्रन फ्राम सेक्सुअल आॅफ़ेंस एक्ट यही कहता है। लेकिन सच यह भी है कि लोगों को जेल भेजकर नहीं शिक्षित करके बाल विवाह अधिक रोके जा सकते हैं। ऐसा सर्वे बताते हैं।      

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      पाॅक्सो के अनुसार 14 साल से कम उम्र की लड़की से सैक्स करना संज्ञेय और गैर ज़मानतीय अपराध है। ऐसा भले ही लड़की की सहमति और उससे शादी के बाद किया गया हो। ऐसे विवाह गैर कानूनी और अमान्य हैं। पुलिस ऐसे मामलों में बिना वारंट आरोपी को जेल भेज सकती है। इसमें 5 साल की सज़ा का प्रावधान है। इतना ही नहीं पाॅक्सो की धारा 19 में ऐसी शादी में किसी भी तरह से सहयोग करने और जानकारी होने पर पुलिस को सूचना ना देने पर जेल और जुर्माने का प्रावधान है। यहां तक कि अगर डाक्टर के पास ऐसी दुल्हन गर्भपात या मां बनने पर चिकित्सा कराने आये तो डाक्टर को तत्काल पुलिस को सूचना देनी होगी। दूसरी तरफ बाल विवाह निषेध कानून के अनुसार 14 से अधिक और 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी करने पर विवाह मान्य तो होगा लेकिन अवैध माना जायेगा। इस कानून मंे 2 साल की सज़ा और एक लाख रू. तक का जुर्माना हो सकता हैै। उधर मुस्लिम अब तक इस कानून से पर्सनल लाॅ की वजह से बाहर माने जाते थे। उनका मानना है कि इस्लाम में लड़की के पीरियड शुरू होने पर उसको बालिग माना जाता है। इसके लिये कोई आयु तय नहीं है लेकिन अगर कोई सबूत या गवाही ना मिले तो यह उम्र आमतौर पर 15 साल मानी जाती है। लेकिन अब सरकार सबके लिये एक जैसा कानून लाने जा रही है। उधर अलग अलग हाईकोर्ट ऐसे मामलों में अलग अलग फैसले देते आ रहे हैं।  जिससे अब अंतिम निर्णय के लिये यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम लड़कियों के लिये शादी की उम्र तय करने के लिये याचिका लगा चुका है।
बहने से दर्दनाक मौत हो गयी तो हत्या के आरोप से उसका पति तो कोर्ट से बच गया। लेकिन इसके बाद इस तरह के 44 मामलों में डाक्टरों द्वारा पेश की गयी सूची से समाज में बाल विवाह के खिलाफ एक माहौल बनना शुरू हुआ। 11 साल की रूकमा बाई ने जबरन शादी करने पर अपने पति दादाजी बीकाजी के साथ विदा होने को मना कर दिया तो उसने कोर्ट में केस कर दिया। लेकिन समाजसुधारक एमजी रानाडे व बहराम जी मालाबारी ने रूकमा बाई को खुलकर सपोर्ट किया। इसके बाद 1891 के कानून में संशोधन कर लड़की की शादी की आयु 12 साल कर दी गयी। 1927 में राय साहिब हरविलास सारदा ने लेजिस्लेटिव कौंसिल में बाल विवाह रोकने का बिल पेश किया तो नया कानून बनाकर आयु 14 कर दी गयी। 2008 में विधि आयोग ने गरीबी कर्ज़ और दहेज़ को बाल विवाह की बड़ी वजह बताया था। असम सरकार को यह भी याद रखना चाहिये कि 2000 से 2010 के बीच शिक्षा बढ़ने पर बाल विवाह का आंकड़ा 47 से 30 पर आ चुका है। इस मामले में कानून के डर से अधिक जनता के बीच जागरूकता शिक्षा और सम्पन्नता लाकर सुधार हो सकता है।

 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।*

Sunday 5 February 2023

भाजपा और मुसलमान

*पीएम मोदी की सलाह पर अमल करेंगे भाजपा नेता ?* 

0प्रधानमंत्री मोदी ने भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जहां अन्य राष्ट्रीय राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर बात की वहीं अपनी पार्टी के नेताओं को कहा कि वे समाज के सभी वर्गों खासतौर पर पसमांदा व वोहरा मुसलमानों के पास जायें और उनको भाजपा सरकार के अच्छे काम बतायें। उन्होंने यह भी कहा कि कोई वोट दें या ना दें लेकिन वे मुसलमानों के बारे में कोई गलत बयानबाज़ी ना करें। मोदी ने पार्टी के वर्कर्स और लीडर्स को मर्यादित भाषा बोलने की सीख देते हुए यह भी नसीहत दी कि फिल्मों को लेकर भी फालतू विरोध से उनको बचना चाहिये। इसके बाद शाहरूख़ खान की फिल्म पठान का विरोध तो लगभग खत्म होता नज़र आया लेकिन क्या मुसलमानों पर भाजपा नेता अपना विरोध ख़त्म करेंगे? यह देखना अभी बाकी है।      

     -इक़बाल हिंदुस्तानी

      पीएम मोदी से पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत भी कई बार मुसलमानों को लेकर सकारात्मक बयान जारी करते रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या भाजपा वास्तव में मुसलमानों को लेकर अपनी नीति बदल रही है? क्या संघ परिवार को यह लग रहा है कि वह हिंदुत्व की सियासत को और आगे विस्तार नहीं दे सकता? उसकी अंतिम सीमा तक वह पहुंच चुका है? हाल ही में हुए हिमाचल प्रदेश और दिल्ली नगर निगम के चुनाव में हिंदुत्व का कार्ड नहीं चला है। 2024 के आम चुनाव से पहले इस साल नौ राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं? भाजपा दीवार पर लिखी इस इबारत को अभी से पढ़ रही है कि महाराष्ट्र और बिहार में उसने अपने सहयोगी दलों को खो दिया है। जिससे वह अपने पुराने रिकाॅर्ड को नहीं दोहरा सकेगी। इसके साथ ही कर्नाटक राजस्थान एमपी बंगाल त्रिपुरा सहित कई राज्यों में वह कमज़ोर सियासी ज़मीन पर खड़ी है। जिससे उसे विधानसभा के साथ ही लोकसभा चुनाव में भी नुकसान उठाने का अंदेशा अभी से सता रहा है। इसके साथ ही भाजपा यह भी समझ रही है कि वह कितना ही अच्छा काम कर ले चाहे जितना मीडिया में अच्छे दिन का प्रचार कर ले और चाहे जितना साम दाम दंड भेद का सहारा ले ले लेकिन एंटी इंकम्बैंसी उसकी 2019 में जीती कुछ सीटों की बलि अवश्य ही लेगी।ऐसे में उसका ज़ोर कम अंतर से हारी उन 160 सीटों पर है। जहां मुसलमानों की भी अच्छी खासी हराने जिताने लायक तादाद है। इसमें कोई दो राय नहीं राशन का निशुल्क अनाज हो या पीएम आवास पीएम गैस नलजल मनरेगा और मुद्रा योजना मुसलमानों को भी सरकार की जनहित की स्कीमांे का अपवाद छोड़ दें तो लाभ मिल ही रहा है। यही वजह है कि जिस भाजपा को पहले मुसलमान बांस से भी छूने को तैयार नहीं होता था। अब कई राज्यों और केंद्र के चुनाव में इकाई प्रतिशत में ही सही वोट देने लगा है। इसके पीछे उनका डर लालच और असुरक्षा की भावना भी कई वजह में एक वजह हो सकती है। भाजपा की नज़र ऐसे ही मुसलमानों पर है जो उसको पहले से और अधिक वोट देकर हारती हुयी सीटें जिता सकते हैं। जहां तक सेकुलर दलों को वोट देने वाले हिंदू मतदाताओं का सवाल है। उनमें धीरे धीरे यह धरणा मज़बूत होती जा रही है कि भाजपा हिंदुत्व के नाम पर धर्म यानी साम्प्रदायिकता की राजनीति से बार बार सत्ता हासिल कर उनके आर्थिक हितों की अनदेखी कर रही है। जिससे देश में बेरोज़गारी महंगाई करप्शन और अराजकता की पहले से अधिक गंभीर स्थिति बन रही है। पीएम मोदी ने अपने कार्यकर्ताओं को यह भी कहा कि वे विपक्ष की भूमिका से बाहर निकलकर राजनीति से आगे सामाजिक कामों में जुटें। सवाल यह है कि जब संघ और भाजपा ने शुरू से हिंदुत्व की राजनीति की है तो उसके नेता अचानक अपील करने पर मुस्लिम विरोध का अपना पुराना एजेंडा कैसे छोड़ सकते हैं? छोटे कार्यकर्ता या गली मुहल्ले के मामूली भाजपा नेताआंे की तो बात ही क्या जब पार्टी के बड़े बड़े नेता मुसलमानों को कपड़ों से पहचानने उनको 2002 के गुजरात दंगों में सबक सिखा देने शमशान कब्रिस्तान की तुलना करने 80 बनाम 20 की चुनौती देने वोट ना देने पर बुल्डोज़र और तेज़ चलाने आर्थिक बायकाट इवीएम का बटन इतनी जोर से दबाने की बात करते हैं जिससे करंट शाहीन बाग में जाकर लगे। हमारा मानना है कि पीएम मोदी की यह अच्छी पहल है।इसका स्वागत खुद मुसलमानों को भी करना चाहिये। लेकिन सौ टके का सवाल बार बार यही सामने आता है कि क्या भाजपा नेता इस अपील पर अमल भी करेंगे? बहुत पुरानी बात नहीं है। जब आतंकी घटनाओं की आरोपी सांसद हिंदुओं से अपने घरों में हथियार रखने की बात कह रही थी। उन्होंने लवजेहादियों का नाम लेकर यह भी बताया कि वे सब्ज़ी काटने का चाकू किसके लिये तेज़ करने की बात कह रही थीं। इससे पहले एक भाजपा सांसद ने खुलेआम मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार की बात कही। उसी दौरान एक केंद्रीय मंत्री ने ’’देश के ग़द्दारों को, गोली मारो.....का भीड़ से नारा लगवाया। लेकिन आज तक उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही तो दूर एफआईआर तक नहीं हुयी। सुल्ली सेल और बुल्ली डील सोशल मीडिया पर चलाकर मुस्लिम महिलाओं का अपमान किया गया लेकिन आरोपियों के खिलाफ कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुयी। भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने टीवी चैनल पर पैगंबर का अपमान किया लेकिन भाजपा ने तब तक उनको पार्टी से नहीं निकाला जब तक अरब मुल्कों में इसकी ज़बरदस्त प्रतिक्रिया शुरू नहीं हो गयी। आज तक पुलिस ने नूपुर से सख़्ती से पूछताछ तक नहीं की। उनको जेल भेजने की तो बात ही क्या करें? उल्टा उनको पुलिस सुरक्षा और हथियार का लाइसेंस उपलब्ध कराया गया है। एक भाजपा विधायक खुलेआम मुसलमानों को धमकी देता है कि भाजपा को वोट दो नहीं तो बुल्डोज़र के लिये तैयार रहो? टीवी चैनल रोज़ मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट भी इस पर कई बार नाराज़गी दर्ज करा चुका है। लेकिन सरकार कोई ठोस कार्यवाही नहीं करती है। बिल्कीस बानो के केस में जिन आरोपियों को सज़ा पूरी करने से पहले छोड़ा गया उनका फूल मालाओं से स्वागत होता है। मुसलमानों की मोब लिंचिंग करने वालों को जब ज़मानत पर छोड़ा जाता है तो भाजपा नेता उनका जेल से बाहर आने पर स्वागत करते हैं। मासूम बच्ची का कश्मीर में बलात्कार करने के आरोपियों के पक्ष में दो मंत्री रैली तक निकाल देते हैं। दूसरी तरफ झूठे या सच्चे चाहे जैसे आरोप लगाकर आज़म खां डा. कफील खान जुबैर अहमद उमर खालिद सफूरा ज़रगर शरजील इमाम सद्दीक कप्पन को लंबे समय तक जेल में डाल दिया जाता है। मतलब कहने का यह है कि मुसलमान आज नही ंतो कल ज़रूर भाजपा को वोट देंगे लेकिन भाजपा को भी अपनी कथनी करनी एक करनी होगी।           

 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।*

आरवीएम बनाम ईवीएम

*इवीएम पर शंकाओं के दौर में आरवीएम पर चर्चाओं का ज़ोर!* 

0एक तरफ़ बसपा प्रमुख मायावती ने अपनी एक के बाद एक हार का ठीकरा एक बार फिर इवीएम पर फोड़ते हुए इलैक्ट्राॅनिक वोटिंग मशीन पर उंगली उठाते हुए चुनाव फिर से बैलेट पेपर से कराने की पुरानी मांग दोहराई है। दूसरी तरफ चुनाव आयोग ने हाल ही में 8 राष्ट्रीय एवं 40 राज्य स्तरीय दलों की बैठक कर उनसे प्रवासी लोगों के लिये प्रस्तावित आरवीएम यानी रिमोट वाटिंग मशीन की सुविधा दिये जाने पर चर्चा की है। विरोधी दलों ने आरवीएम पर सवाल उठाते हुए एक सुर में अभी से इसका विरोध शुरू कर दिया है। हालांकि कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में बनी विपक्षी दलों की इस साझा कमैटी से आरवीएम विरोधी टीएमसी, वाईएसआर कांग्रेस, टीआरएस, बीजेडी, बीएसपी, डीएमके ने खुद को अलग रखा है।       

        -इक़बाल हिंदुस्तानी

      चुनाव आयोग ने काफी पहले प्रवासी मतदाताओं की बड़ी संख्या को चुनाव से अलग रहने पर चिंता जताते हुए घरेलू प्रवासी सर्वे समिति का गठन किया था। इसकी रिपोर्ट 2016 में आयोग को सौंप दी गयी थी। इस सर्वे रिपोर्ट में रिमोट वोटिंग की सुविधा दिये जाने का मुख्य सुझाव आयोग को दिया गया था। 1951 में जब देश में पहला चुनाव हुआ उस समय कुल मतदाताओं में से मात्र 17 प्रतिशत का ही पंजीकरण किया जा सका था। इनमें से भी पहले चुनाव में केवल 45 प्रतिशत वोटर्स ने अपने वोट का अधिकार प्रयोग किया था। आयोग तब से ही यह प्रयास करता रहा है कि मतदान का प्रतिशत लगातार बढ़ाया जाये। इस दौरान वोटर रजिस्ट्रेशन 91 प्रतिशत और वोटिंग परसेंटेज बढ़कर 2019 में 67 तक पहुंच गया है। एक तरह से 30 करोड़ वोटर अभी भी वोटिंग से दूर हैं। आयोग ने अपने गृह राज्यों या गृह जनपदों से रोज़गार पढ़ाई या अन्य कारणों से दूर जाने वाले नागरिकों के लिये वहीं रहकर मतदान करने के लिये विशेष आरवीएम यानी स्टैंड अलोन डिवाइस तैयार कराई है। जिसे एक साथ 72 निर्वाचन क्षेत्रों से जोड़ा जायेगा। मतदाता एक कोड का प्रयोग कर अपने क्षेत्र के प्रत्याशियों और उनके चुनाव चिन्ह देखकर वहीं से मतदान कर सकेगा। इससे पहले रिटर्निंग अफसर पात्र वोटर्स का पंजीकरण कर निर्वाचन क्षेत्र से बाहर पोलिंग स्टेशन बनाने की व्यवस्था करेंगे। इस पर विरोधी दलों ने अभी से विरोध करना शुरू कर दिया है। उनका सवाल है कि जब आज तक इवीएम की विश्वसनीयता पर ही उंगलियां उठ रही हैं तो आरवीएम जिसको निर्वाचन क्षेत्र से बाहर स्थापित किया जायेगा। उसकी निगरानी पारदर्शिता और ईमानदारी उनका पोलिंग एजेंट वहां हर जगह मौजूद ना होने से कैसे सुनिश्चित होगी? भाजपा को छोड़कर कुछ हद तक बीजेडी ही इस नई व्यवस्था से संतुष्ट नज़र आ रही थी। अन्यथा जो विपक्षी दल कांग्रेस के नेतृत्व मेें आरवीएम का विरोध करने को बनाई गयी कमैटी की बैठक में शामिल नहीं भी हुए वे भी चुनाव आयोग की बैठक में आरवीएम का विरोध करत दिखाई दिये। उनका कहना था कि आरवीएम की बजाये प्रवासी मतदाताओं को एक की जगह चार दिन की सवेतन छुट्टी दी जाये साथ ही उनको वोट डालने के लिये अपने घर आने को रेल और बस में बिना टिकट यात्रा की सुविधा दी जाये। विरोधी दलों का कहना था कि राज्य के बाहर रहने वाले प्रवासी नागरिकों को वोट देने का वे विरोध नहीं करना चाहते। लेकिन सवाल यह है कि वहां रहकर चुनाव आचार संहिता का पालन हो रहा है या नहीं यह कैसे तय होगा? उनका कहना था कि वे सरकार और पुलिस प्रशासन पर निष्पक्ष व पारदर्शी मतदान के लिये निर्वाचन क्षेत्र से बाहर आरवीएम पर विश्वास नहीं कर सकते क्योंकि अभी भी अगर कहीं विपक्ष का पोलिंग एजेंट मौजूद नहीं होता है तो वहां सत्ताधरी दल पर धांधली के आरोप लगते हैं। दरअसल 2001 और 2011 की जनसंख्या के आंकड़े बताते हैं कि 37 प्रतिशत लोग अपने निर्वाचन क्षेत्रों से बाहर रहते हैं। इनमें से 26 प्रतिशत अपने गृह ज़िलों से बाहर दूसरे जनपद में और शेष अपने गृह राज्य से दूर दूसरे राज्यों में रहते हैं। यही वजह थी कि सबसे अधिक प्रवासी वाले राज्यों यूपी बिहार में 2019 के आम चुनाव में देश के औसत 67 के बजाये 59 और 57 प्रतिशत ही वोट डाले जा सके थे। आंकड़े बताते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में 18 लाख सुरक्षाकर्मियों ने और 28 लाख चुनाव ड्यूटी में लगे सरकारी कर्मचारी, वरिष्ठ नागरिक विकलांग बंदी व कोविड रोगियों ने बैलेट का सहारा लेकर मतदान किया था। दरअसल जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 60 चुनाव आयोग को यह अधिकार देती है कि वह मतदान में अधिक से अधिक नागरिकों को हिस्सेदार बनाने के लिये लगातार ऐसे कदम उठाये। जिससे वे लोग जो चाहकर भी अपना वोट नहीं दे पाते वे मतदान करने में सक्षम हो सकें। इसी सिलसिले में चुनाव आयोग ने हाल ही में हुए तीन राज्यों के चुनाव से पहले 1000 से अधिक कारपोरेट हाउस को पत्र लिखकर यह सुनिश्चित करने को कहा था कि वे अपने कर्मचारियों को मतदान के लिये प्रोत्साहित करें। हालांकि मतदान ना करने वाले ऐसे कर्मचारियों की सूची कंपनी की वेबसाइट पर डालने से लेकर उनकी एक दिन की तन्ख्वाह काटने का सुझाव भी आयोग के विचाराधीन था जिनको मतदान के लिये सवेतन छुट्टी दी जाती है लेकिन बाद में इस पर हंगामा बढ़ता देख अमल नहीं हो सका था।
 गुजरात के राज्य चुनाव आयुक्त ने यहां तक कहा था कि ऐसे सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की निगरानी की जायेगी जो मतदान नहीं करते हैं लेकिन बाद में मुख्य चुनाव आयुक्त ने साफ कर दिया था कि आयोग का अनिवार्य मतदान का कोई इरादा नहीं है क्योंकि संविधान और कानून हर वयस्क नागरिक को जहां वोट देने का अधिकार देता है तो उसी अधिकार में यह भी शामिल है कि वह ना चाहे तो वोट ना करे। किसी भी लोकतंत्र में किसी नागरिक को मतदान के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता भले ही किसी भी प्रत्याशी को मत ना देने वालों के लिये नोटा का प्रावधान किया गया हो। इस मामले में 2013 में पीयूसीएल की एक याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि मतदान ना करना या नकारात्मक मतदान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अनिवार्य अंग है। संविधान के सैक्शन 19 में यह मूल अधिकार में शामिल है। इससे पहले 2009 में भी सब से बड़ी अदालत में याचिका दायर कर अनिवार्य मतदान की मांग इस आधार पर की गयी थी कि वर्तमान सिस्टम से चुनी गयी सरकारों पर वास्तविक बहुमत नहीं होता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया था।

 *नोट-लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के एडिटर और नवभारत टाइम्स काॅम के ब्लाॅगर हैं।*