Thursday 28 December 2023

इंडिया गठबंधन

इंडिया गठबंधन को नेता नहीं वैकल्पिक नीतियों की ज़रूरत है !
0सब जानते हैं कि जीवतं लोकतंत्र के लिये विपक्ष का मज़बूत होना ज़रूरी है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने इस ज़रूरत को समझा है। तीन राज्यों में करारी हार के बाद उसको शायद इंडिया गठबंधन का महत्व और अधिक नज़र आने लगा है। अब वह क्षेत्रीय दलों के साथ झुककर समझौता करने को शायद तैयार हो जाये? इन राज्यों की हार ने उसको यह भी संदेश दिया है कि वह अगर उदार हिंदुत्व के रास्ते पर चलेगी तो भाजपा को ही मज़बूत करेगी। पिछली बैठक में खड़गे का नाम पीएम पद के लिये सामने आया लेकिन खड़गे ने खुद इसे टालकर भाजपा के जाल में फंसने से गठबंधन को बचा लिया, क्योंकि मोदी की टक्कर का नेता विपक्ष तो क्या आज खुद भाजपा के पास भी नहीं है। राहुल गांधी की भारत न्याय यात्रा का दूसरा भाग सही दिशा में सही क़दम है।      
 _-इक़बाल हिंदुस्तानी_ 
     *ये कैसा शख़्स है कितनी ही अच्छी बात कहो,*
     *कोई न कोई बुराई का पहलू निकाल लेता है ।।* 
          यह सच है कि कांग्रेस ने चार राज्यों के चुनाव में अपने इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों को भाव नहीं दिया था। यह भी सही है कि इस अहंकार या भूल की वजह से उसको कुछ सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है। लेकिन पूरी वास्तविकता यह भी नहीं है कि वह केवल इसी एकमात्र कारण से बुरी तरह तीन राज्यों में हार गयी हो। हां उसकी नाकामी के अनेक कारणों में यह भी एक कारण माना जा सकता है। लेकिन अच्छी बात यह है कि कांग्रेस को इस गल्ती का अहसास हुआ है। अब वह अधिक उदार और गंभीरता के साथ भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दलों के साथ सीट समझौता करने को तैयार होती नज़र आ रही है। इंडिया गठबंधन मूल रूप से इसलिये बना था कि भाजपा विरोधी अधिक से अधिक दल साथ मिलकर लड़ें लेकिन वह अपनी पहली ही परीक्षा में तब असफल होता नज़र आया जब चार राज्यों के चुनाव में आप और सपा जैसे उसके घटक दलों ने अपने उम्मीदवार थोक में इसलिये उतार दिये क्योंकि कांग्रेस उनको चंद सीट भी समझौते में देने को तैयार नहीं थी। हालांकि इन छोटे दलों ने भी अपनी हैसियत से अधिक सीटों पर प्रत्याशी उतारकर भाजपा से अधिक कांग्रेस को सबक सिखाने के लिये जनहित राष्ट्रहित या गठबंधन को दांव पर लगाकर कोई अच्छा संदेश नहीं दिया लेकिन जब बात व्यक्ति दल या निजी स्वार्थ की आ जाती है तो अकसर यही देखने को मिलता है। इस दौरान यह भी सुनने को मिला कि इंडिया गठबंधन तो राज्यों की बजाये लोकसभा चुनाव के लिये बना है। हिमाचल और कर्नाटक चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस को यह खुशफहमी हो रही थी कि वह क्षेत्रीय दलों का भाजपा विरोधी वोट अपने पाले में कर भाजपा को आगे भी विधानसभा चुनाव में अकेले ही हरा सकती है। यह बात किसी हद तक केंद्र के चुनाव में सही साबित हो सकती थी लेकिन वह भी आंशिक तौर पर जहां कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा से है। देश में लगभग 200 संसदीय सीट ऐसी हैं। जहां कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा से है। 150 सीट एमपी की ऐसी हैं। जहां क्षेत्रीय दल अपना खासा प्रभाव रखते हैं। इंडिया गठबंधन का सारा ज़ोर इस बात पर है कि अगर सारे विपक्षी दल मिलकर एनडीए गठबंधन के प्रत्याशियों के खिलाफ एक ही उम्मीदवार हर सीट पर उतार सकें तो भाजपा को बहुमत मिलने से रोका जा सकता है। लेकिन यह एक काल्पनिक सी बात है। सबसे पहली बात तो यह है कि सारे विपक्षी एक नहीं हो सकते। मिसाल के तौर पर बीजद वाईएसआर कांग्रेस बीआरएस बसपा अन्नाद्रमुक टीडीपी अकाली दल और कई छोटे जातीय क्षेत्रीय और आदिवासी दल इंडिया या एनडीए सहित किसी भी गठबंधन का हिस्सा बनने को तैयार नहीं हैं। इसके साथ ही आम आदमी पार्टी कम्यनिस्ट और तृणमूल कांग्रेस जैसे दलों का अपने अपने प्रभाव वाले राज्यों में कांग्रेस के साथ सीट बंटवारा हो ही जायेगा इस पर राजनीति के जानकार कई लोगों को भारी शक है। इंडिया गठबंधन को यह भी याद रखना होगा कि पिछली बार यूपी में सपा बसपा का गठबंधन होने के बावजूद बीएसपी का दलित और सपा का यादव वोट एक दूसरे को ट्रांस्फर नहीं हो सका था। इसलिये यह गणित लगाना व्यवहारिक नहीं होगा कि राजनीति में दो दल मिल जाये तो वह दो और दो चार हो ही जायेंगे। कभी कभी एक और एक ग्यारह भी हो जाते हैं। जो लोग सपा को वोट देना चाहते हैं वे कांग्रेस या बसपा के साथ सीट समझौता होने पर कभी कभी जहां सपा का अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा होता वहां भाजपा के साथ चले जाते हैं। ऐसा ही कहीं कहीं एनडीए गठबंधन के साथ भी संभव है। यह मानना भी सही नहीं लगता कि भाजपा के पास आज भी देश में 38 प्रतिशत वोट है तो बाकी का 62 प्रतिशत अगर विपक्ष का एक साझा उम्मीदवार मौजूद हो तो उसके साथ चला जायेगा? कम लोगों को पता है कि भाजपा ने 2019 के आम चुनाव मंे 221 सीट 50 प्रतिशत से अधिक वोट लेकर जीती थीं। जाहिर बात है कि यहां विपक्षी एकता यानी एक के मुकाबले एक प्रत्याशी का गणित काम नहीं करेगा। इंडिया गठबंधन को यह भी समझना चाहिये कि उसका मुकाबला केवल भाजपा से नहीं बल्कि अपराजय से दिखने वाले पीएम मोदी दर्जनों संगठन वाले आरएसएस शक्तिशाली सरकार चुनाव आयोग आयकर विभाग ईडी मीडिया काॅरपोरेट और साम दाम दंड भेद यानी किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने वाली मशीनरी से है। यानी आज देश में लोकतंत्र होने का दावा करने के बावजूद सब दलों के लिये लेवल प्लेयिंग फील्ड नहीं है। हिंदुत्व और बहुसंख्यकवाद की साम्प्रदायिक तानाशाह राजनीति का मुकाबला करने के लिये कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के पास न तो घर घर जाकर संघ की तरह एक खास विचारधारा के लिये काम करने वाले कार्यकर्ता हैं और न ही संगठन व पर्याप्त धन है। इसके साथ ही विपक्ष के पास संघ परिवार की तरह सोशल मीडिया पर अपनी बात पहुंचाने के लिये करोड़ों लोगों के व्हाट्सएप गु्रप तक कहीं नज़र नहीं आते। मोदी सरकार बने 9 साल से अधिक बीत गये आज तक हमारे पास मोबाइल पर विपक्ष का कोई मैसेज ग्रुप या एसएमएस नहीं आया जबकि भाजपा के बधाई संदेश और राजनीतिक खबरें व चुनावी प्रचार थोक में आता रहता है। हम गारंटी से यह तो नहीं कह सकते कि इंडिया गठबंधन 2024 का चुनाव लड़ने से पहले ही हार गया है क्योंकि भाजपा 2019 में जिस सेचुरेशन प्वाइंट पर पहुंच चुकी है। उससे अब वह और आगे नहीं जा सकती लेकिन विपक्ष कांग्रेस और इंडिया गठबंधन एंटी इंकम्बैंसी को जनता तक ठीक से पहंुचा सके तो उसकी सीटें कुछ कम कर अपनी सांसद संख्या काफी बढ़ा सकता है। क्या वह सचमुच ऐसा करेगा?      
 नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday 21 December 2023

लोकतंत्र को खतरा?

*सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज क्यों उठा रहे हैं अदालत पर उंगली ?* 
0 सर्वोच्च अदालत के रिटायर्ड जज जस्टिस नारिमन ने सेवानिवृत्त होने के बाद सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की है। आपको याद होगा जस्टिस नारिमन उन चार जजों में शामिल रहे हैं। जिन्होंने 2014 के बाद प्रैस वार्ता कर सुप्रीम कोर्ट की आज़ादी और लोकतंत्र को ख़तरा बताया था। हाल ही में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के कश्मीर की धारा 370 हटाने राज्य का विशेष दर्जा खत्म कर उसके दो टुकड़े कर केंद्र शासित प्रदेश बनाने के सरकार के फैसले पर, महाराष्ट्र में शिंदे सरकार बनाने के स्पीकर के निर्णय पर और केरल के राज्यपाल के विवादित व्यवहार पर तथा बीबीसी की डाक्यमेंट्री के बाद उस पर पड़े आयकर के छापे पर सुप्रीम कोर्ट के सो मोटो ना लेने पर उंगली उठाई है।    
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
     हमने सोचा था जाकर उससे पफ़रियाद करेंगे,
     कम्बख़्त वो भी उसका चाहने वाला निकला।।
  सुप्रीम कोर्ट को एक संस्था के तौर पर कमज़ोर बताने और लोकतंत्र को देश में ख़तरा समझने वाले जस्टिस नारिमन अकेेले नहीं हैं। हाल ही में  सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस संजय कौल और उनसे पूर्व रिटायर्ड जज जस्टिस मदन लोकुर जाने माने वकील प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट बार एसोसियेशन के पूर्व मुखिया दुष्यंत दवे सहित दर्जनों रिटायर्ड अधिकारी वरिष्ठ पत्रकार साहित्यकार लेखक मानव अधिकार कार्यकर्ता स्वतंत्र चिंतक और संविधान के जानकार लगातार समय समय पर आगाह कर रहे हैं कि कौन कौन सी बातें हमारे लोकतंत्र के लिये ख़तरा बन सकती हैं। जस्टिस नारिमन सहित अन्य कई जानकार कहते हैं कि जिस तरह से चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में सरकार ने कानून बनाकर तीन सदस्यों की कमैटी से चीफ जस्टिस को अलग कर उनकी जगह केंद्र के एक वरिष्ठ मंत्री पीएम और विपक्ष के नेता को रखा है। उससे चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल उठता है। उनका यह भी कहना है कि जिस तरह से चार साल बाद कश्मीर की धारा 370 के केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया वह सवाल खड़े करता है। उनको लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को यह संज्ञान लेना चाहिये था कि क्या केंद्र सरकार इसको खत्म करने के संवैधानिक तरीके अपनाने के साथ ही किसी राज्य को केंद्र शासित बना सकती है? क्या संविधान इसकी इजाज़त देता है? उनका यह भी कहना है कि कोर्ट ने कैसे साॅलिसीटर जनरल के केवल मौखिक आश्वासन को मानकर यह फैसला दे दिया कि भविष्य में कश्मीर को फिर से पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जायेगा। क्या कोर्ट ने यह तय मान लिया कि 2024 के चुनाव के बाद मोदी सरकार ही फिर से जीतकर आयेगी और उसके साॅलिसीटर जनरल वही रहेंगे जो आज हैं और वही केंद्र सरकार की तरफ से कोर्ट में यह वादा कर अमल भी करायेंगे? दूसरा मुद्दा नारिमन ने यह उठाया है कि जिस तरह से केरल के गवर्नर 23 महीने से राज्य सरकार के तमाम बिलों को दबाये बैठे रहे और मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचने के बाद उन बिलों को विचार के लिये राष्ट्रपति के पास भेज देते हैं। उस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कोई निर्णायक एक्शन नहीं लिया। जस्टिस नारिमन यह भी कहते हैं कि जिस तरह से मीडिया को सेंसर किया जाता है। उस पर कोर्ट ने लोकतंत्र का चैथा स्तंभ माने वाले मीडिया को खुलकर संरक्षण नहीं दिया। मिसाल के तौर पर बीबीसी की चर्चित डाक्यूमेंट्री के बाद जब उसके कार्यालय पर आयकर का छापा पड़ा तो कोर्ट ने सो मोटो लेकर उसका बचाव नहीं किया। इलैक्ट्राॅरल बांड का मामला भी कोर्ट में लंबे समय से लटका हुआ है। लेकिन कुल चंदे का लगभग 90 प्रतिशत सत्ताधारी दल को जाने से चुनाव में लेवल प्लेयिंग फील्ड नज़र नहीं आता है। सवाल यह भी उठ रहा है कि सुप्रीम कोर्ट लोकतंत्र का महत्वपूर्ण अंग है। उस पर लोकतंत्र की रक्षा का दायित्व है। अगर वह सरकार के दबाव में या उसके समर्थन में निर्णय करने या उसके खिलाफ मामलों को टालने में लगा नज़र आयेगा तो जस्टिस नारिमन जैसे निष्पक्ष जज बेशक उंगली उठा सकते हैं। सिविल सोसायटी के लोग भी कोर्ट के निर्णयों की स्वस्थ आलोचना कर सकते हैं। लेकिन सवाल यह भी है कि जब जस्टिस नारिमन जैसे जज सेवा में थे तब उन्होेंने वो निर्णय क्यों नहीं किये जो आज वो सुप्रीम कोर्ट की दूसरी बैंचो द्वारा ना दिये जाने पर नाराज़गी दर्ज कर रहे हैं। इससे पहले जब स्वीडन के गोटेनबर्ग विश्वविद्यालय से जुड़ी संस्था वी डेम इंस्टीट्यूट ने अपनी 2020 की लोकतंत्र रिपोर्ट में भारत में लोकतंत्र दिन ब दिन कमज़ोर होने का दावा किया था तो उसको विदेशी संस्था की रिपोर्ट में पूर्वाग्रह होने का आरोप लगाकर सरकार ने खारिज कर दिया था। उस रिपोर्ट में उदार लोकतंत्र सूचकांक में भारत का स्थान 179 देशों में 90 वां बताया गया था। जबकि हमारे पड़ौसी देश श्रीलंका का 70 और नेपाल का 72 था। लेकिन संतोष की बात यह थी कि पाकिस्तान का 126 और बंगलादेश का 154 वां  स्थान था। यह रिपोर्ट डेटा चार्ट डेटा एनालिटिक्स ग्राफिक्स और मैप पर आधारित होने के साथ ही 3000 से अधिक विशेषज्ञों की सेवा 400 संकेतकों की कसौटी पर भारत के भी बड़ी संख्या में जानकारों को शामिल करके बनाने का दावा किया गया था। जिनको समाज सियासत और मीडिया की अच्छी समझ होती है। वी डेम का कहना था कि भारत में मोदी सरकार बनने से दो साल पहले ही मीडिया की स्वतंत्रता विचारों की विभिन्नता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सिविल सोसायटी की आज़ादी चुनावों की गुणवत्ता और शिक्षा का खुलापन कम होने लगा था। लेकिन केंद्र में 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद इन मामलों में बहुत तेज़ी से गिरावट आने लगी। संस्था का यह भी दावा था कि भारत अब लोकतंत्र न कहलाये जाने वाले देशों की श्रेणी में आने के बिल्कुल करीब पहंुच चुका है। यह बात पता नहीं कितनी सही है? लेकिन जिस तरह से विरोध व आलोचना करने वाले मीडिया सिविल सोसायटी स्वतंत्र विचारकों और विपक्ष को सरकार निशाने पर ले रही है और सुप्रीम कोर्ट उन मामलों पर या तो चुप्पी साध लेता है या फिर सरकार के पक्ष में फैसला देता नज़र आता है। उससे जस्टिस नारिमन जैसे जजों व अन्य लोगों को लोकतंत्र पर ख़तरा नज़र आ रहा है तो चिंता की बात है।    
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 14 December 2023

आकाश की बीएसपी

*बसपा: आकाश करंेगे अब ज़मीन से जुड़ी राजनीति ?
0 2008 में मायावती ने अपनी आत्मकथा ‘मेरे संघर्षमय जीवन का सफ़रनामा’ जारी करते हुए कहा था कि वह जब कभी भी अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित करेंगी वह उनके परिवार यानी रिश्तेदार नहीं होगा। लेकिन अब उन्होंने अपने सगे भतीजे आकाश आनंद को अपना सियासी वारिस बनाया है। बहनजी दूसरे दलों के परिवारवाद का भी विरोध करती रही हैं। लेकिन सब जानते हैं कि आज के नेताओं की कथनी करनी में अंतर होना कोई खास बात नहीं है। देखने वाली बात यह भी है कि बहनजी ने तेज़ी से रसातल में जा रही पार्टी की कमान अपने भतीजे को वरिष्ठ व अनुभवी बसपा नेताओं को किनारे करके सौंपने में तनिक भी संकोच नहीं किया।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी
     तुम आसमां की बुलंदी से जल्द लौट आना,
     मुझे ज़मीं के मसाइल पर बात करनी है।।
            बहनजी जिस राज्य में तीन बार भाजपा के सहयोग से व एक बार बसपा के बहुमत के बल पर यानी चार चार बार सीएम बनी उस यूपी में आज बसपा का मात्र एक एमएलए है। राजस्थान में उसके विधायकांे की संख्या 6 से घटकर 4 हो गयी जबकि एमपी और छत्तीसगढ़ में दो से शून्य हो गयी। तेलंगाना में उसका खाता तक नहीं खुला है। पूरे देश में आज बसपा की हालत खराब है। उसका ग्राफ दिन ब दिन गिरता जा रहा है। मान्यवर कांशीराम के समय के संस्थापक बसपा नेताओं आर के चैधरी सोनेलाल पटेल ओमप्रकाश राजभर व स्वामी प्रसाद मौर्य आदि की लंबी सूची है जिनको या तो मायावती ने पार्टी से निकाल दिया या वे अपनी उपेक्षा और अपमान से आहत होकर खुद ही पार्टी से अलग हो गये। जिन आकाश आनंद को माया ने अपना उत्तराधिकारी बनाया है। वह सबसे पहले 2017 में बसपा की एक रैली में सामने आये थे। उसके बाद उनको 2019 के आम चुनाव में चुनाव प्रबंधन और प्रचार की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी गयी। 2022 में आकाश ने माया के साथ कंधे से कंधा मिलाकर यूपी के विधानसभा चुनाव में काम किया। लेकिन नतीजा अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन रहा। आकाश ने डा. अंबेडकर के जन्म की वर्षगांठ पर राजस्थान में 13 कि.मी. लंबी स्वाभिमान संकल्प यात्रा भी निकाली। कुछ ही माह पूर्व माया ने आकाश को पार्टी का राष्ट्रीय समन्यक बनाया था। यह सही है कि आकाश ने लंदन से एमबीए की डिग्री हासिल की है। लेकिन उनको राजनीति का कोई विशेष ज्ञान व अनुभव नहीं है। उनको ऐसे दौर में बसपा की कमान मिलने जा रही है। जबकि बसपा तमाम उतार चढ़ाव देखने के बाद अब लगातार रसातल में जाती नज़र आ रही है। आकाश से आशा की जा रही है कि वह बसपा को अगर सीध्ेा आकाश की उूंचाई तक न भी ले जा सकें तो कम से रसातल में और नीचे जाने से रोककर उसे ज़मीन पर ला सकें। एक समय था जब बसपा यूपी में ही नहीं पूरी हिंदी पट्टी में दलितों की आवाज़ बन गयी थी। उसको कुछ सीट और सम्मानजनक वोट भी देश के कई राज्यों में मिलते थे। हालांकि वह आज भी राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा रखती है। लेकिन उसके जनाधार मंे बहुत तेज़ी से गिरावट आ रही है। बसपा की विचारधारा उसी दिन सवालों के घेरे में आ गयी थी जिस दिन उसने जिन वर्ग और जााति के खिलाफ दलितों के उत्पीड़न अन्याय और शोषण का आरोप लगाकर मोर्चा खोला। उनके साथ ही सत्ता की खातिर हाथ मिला लिया था। यह उसका वैचारिक दिवालियापन था। यही उसका शिखर काल था। वह बहुजन से सर्वजन की पार्टी बनने चली थी। लेकिन अल्पजन का दल बन गयी। यह एक शाॅर्ट टर्म गेम था। उसी दिन से बसपा की उल्टी गिनती शुरू हो गयी थी। बसपा ने अपने दूसरे नंबर के मज़बूत समर्थक मुस्लिम समुदाय को भी समय समय पर उपेक्षित अपमानित और आरोपित करके खो दिया। पिछली बार आम चुनाव में जब बसपा ने यूपी में सपा रालोद के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा तो उसका दलित वोट सपा को नहीं गया। लेकिन सपा का मुस्लिम वोट उसको थोक में मिलने से बसपा की ज़ीरो सीट बढ़कर दस हो गयीं। उसके बावजूद बहनजी ने मुसलमानों और सपा का अहसान मानने की बजाये बयान दिया कि बसपा को गठबंधन का कोई लाभ नहीं हुआ। जबकि सच यह है कि सपा को पहले की तरह पांच ही संसदीय सीट मिली थी। जिससे यह बात सपा कह सकती थी। लेकिन बसपा ने गठबंधन गलतबयानी कर तोड़ दिया। बहनजी के इस आत्मघाती एकतरफा और मनमाने फैसले की वजह राजनीतिक जानकार भाजपा का उनसे गोपनीय राजनीतिक गठबंधन मानते हैं। कांग्रेस ने तो कई बार खुलेआम कहा भी कि बसपा नेत्री करप्शन के आरोपों की चल रही जांच से जेल जाने के डर से भाजपा के दबाव में विपक्ष को नुकसान पहंुचाने के लिये काम कर रही हैं। इतना ही नहीं कई बार बहनजी ने मुसलमानों को लेकर उल्टे सीधे बयान दिये। उन्होंने हाल ही में हुए चार राज्यों के चुनाव में यहां तक कह दिया कि चाहे बीजेपी जीत जाये लेकिन कांग्रेस को नहीं जीतने देना है। बाद में उस विवादित व चर्चित बयान वाले वीडियो को बसपा ने कांग्रेस की चाल बताते हुए फर्जी बता दिया। हाल ही में बसपा ने अपने मुस्लिम सांसद दानिश अली को भाजपा की पूंजीपति समर्थक नीतियों का खुलकर विरोध करने पर पार्टी से निकाल दिया। इससे एक बार फिर बहनजी पर भाजपा को चोरी छिपे सपोर्ट करने का आरोप लगा। बसपा पर सड़क पर उतरकर आंदोलन न करने का भी आरोप लगता रहा है। सीएए से लेकर दलितों के खिलाफ हिंसा तक पर वह आंदोलन का हिस्सा बनने को तैयार नहीं होती है। यहां तक कि बसपा जनहित के किसी मुद्दे पर धरना प्रदर्शन या ज्ञापन तक नहीं देती। जिससे आज जनता से उसका सरोकार खत्म होता जा रहा हैै। ज़ाहिर है कि बसपा केवल सत्ता की सियासत करती है। इसका मतलब वह अगर दस बीस साल तक सत्ता में नहीं आयेगी तो जनता का कोई काम भला या विकास नहीं कर सकती। अकसर यही देखने में आया है कि बसपा केवल तभी सड़क पर उतरती है। जब उसकी सुप्रीमो पर व्यक्तिगत हमला होता है। अपनी हार के कारणों का गंभीरता से पता लगाकर उनको दूर करने की बजाये बसपा कभी मतदाताओं तो कभी ईवीएम पर दोष मढ़ देती है। बसपा में कभी भी दूसरी रैंक के नेताओं को  पनपने नहीं दिया गया। जिसका नतीजा यह हुआ कि उसका कैडर भी धीरे धीरे उसका साथ छोड़ता गया। एक दौर था जब बसपा से अति पिछड़ा वर्ग भी जुड़ा था लेकिन जब बहनजी ने अपने कोर वोट दलित उसमें भी जाटव पर अधिक फोकस किया तो भाजपा ने गैर यादव ओबीसी की तरह गैर जाटव दलित को अपने पाले में खींचने में सफलता हासिल कर ली। ऐसा लगता है कि आकाश का बसपा में कोई विरोध नहीं करेगा क्योंकि अब बसपा में लोकतंत्र अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विचारों की विभिन्नता नहीं रह गयी है। अगर अपवाद के तौर पर कोई बसपा नेता आकाश का विरोध करेगा भी तो बहनजी उसको अपना पक्ष रखने का मौका देने की बजाये सीध्ेा बाहर का रास्ता दिखा देंगी। देखना यह है कि आकाश दलितों के कांग्रेस भाजपा या आज़ाद समाज पार्टी की ओर जाने से रोकने को क्या नया करते हैं?      
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday 7 December 2023

कांग्रेस की सोच?

*कांग्रेस भाजपा का हिंदुत्व का एजेंडा खुद आगे बढ़ाती रही है ?* 
0हिंदुत्व भाजपा का कोर एजेंडा है। लेकिन कांग्रेस बार बार नरम हिंदुत्व अपनाकर भाजपा की पिच पर खेलकर भगवा दल के हाथ मज़बूत करके यह भूल करती है कि इससे भाजपा का कट्टर साम्प्रदायिक मुस्लिम विरोधी कुछ हिंदू वोट उसके साथ आ जायेगा। अगर पूर्व पीएम राजीव गांधी द्वारा बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाने से लेकर अयोध्या से चुनाव प्रचार शुरू करने की भूल को फिलहाल छोड़ भी दिया जाये तो हाल ही में तीन राज्यों के चुनाव में कांग्रेस के नेता कमलनाथ के इस बयान को कैसे अनदेखा किया जाये कि राममंदिर बनाने के लिये कांग्रेस ने ही शुरूआत की थी। छत्तीसगढ़ और एमपी की कांग्रेस सरकारें रामगमनपथ कौशल्या माता मंदिर निर्माण और अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर लगातार चुप्पी साध रही थीं।    
   *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
     न इधर उधर की बात कर यह बता काफ़िला क्यों लुटा,
     मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।।
  पीएम मोदी ने तीन राज्यों में भाजपा के चुनाव जीतते ही सबसे पहले भाषण में जो तीन अहम बातें कहीं वे ये हैं कि जनता ने तुष्टिकरण वंशवाद और करप्शन के खिलाफ जनादेश दिया है। सबका साथ सबका विकास भाजपा का केवल नारा है। भाजपा किस तरह की राजनीति करती है। यह किसी से छिपा नहीं है। तुष्टिकरण से उनका मतलब कांग्रेस व अन्य सेकुलर दलों द्वारा मुसलमानों को उनके हिस्से से अधिक सरकारी सुविधायें उपलब्ध् कराना है। जोकि केवल चुनावी जुमला और दुष्प्रचार है। वंशवाद से उनका मतलब कांग्रेस पर गांधी परिवार का खानदानी कब्ज़ा है। भ्रष्टाचार को लेकर मोदी सरकार जिस तरह से चुनचुनकर जानबूझकर विपक्षी नेताओं को ही निशाना बनाती रही है। उसका मतलब यही निकलता है कि भाजपा और उसके घटक तो दूध के ध्ुाले हैं। काफी समय पहले ही कांग्रेसमुक्त भारत का नारा देने वाली भाजपा का मकसद रहा है कि कांग्रेस को हिंदू विरोधी देश विरोधी और विकास विरोधी मुस्लिम समर्थक बेईमान पार्टी बनाकर पेश किया जाये। इस अभियान में भाजपा काफी हद तक सफल भी रही है। इसका अंजाम ये हुआ है कि कांग्रेस बार बार हिंदुओं को यह अहसास दिलाने का प्रयास करती रहती है कि वह भी भाजपा की तरह हिंदू समर्थक दल ही है। राहुल गांधी भाजपा के इस जाल में फंसकर खुद को पक्का सच्चा हिंदू साबित करने के लिये गुजरात चुनाव के दौरान मंदिर मंदिर दर्शन करने गये। उन्होंने अपनी जाति और गौत्र भी मीडिया के सामने बार बार सार्वजनिक किया। भगवा वस्त्र भी धारण किये। पूजा पाठ और तिलक भी ज़ाहिर किया। लेकिन इस सब से ना तो कांग्रेस का कोई राजनीतिक लाभ हुआ और ना ही भाजपा को कोई नुकसान हुआ। उल्टा भाजपा ने यह व्यंग्य ज़रूर किया कि भाजपा ने हिंदुत्व को राजनीति का ऐसा केंद्र बना दिया है कि जिसकी उपेक्षा वो दल भी नहीं कर सकते जो पहले केवल टोपियां लगाकर रोज़ा अफ़तार ईदगाह और मस्जिद व मज़ारों पर जाकर खुद को सेकुलर दिखाया करते थे। यह बात सच भी थी। इसका सियासी फायदा भी भाजपा को मिला। इतिहास गवाह है कि कांग्रेस की सरकारों ने कभी भाजपा संघ या उसके हिंदुत्व अभियान से सख्ती से निबटने को ठोस कार्यवाही करने की हिम्मत या इरादा ज़ाहिर नहीं किया बल्कि वह उसके साथ नूरा कुश्ती लड़कर अपने दो मज़बूत वोटबैंक मुसलमानों और दलितों को डराकर वोट लेकर राज करती रही। इसके बाद कांग्रेस शासित राज्यों में नरम हिंदुत्व अपनाकर हिंदुओं को यह संदेश देने की कोशिश की गयी कि कांग्रेस भी भाजपा से कुछ कम हिंदूवादी नहीं है। साथ ही कांग्रेस सरकारों ने मुसलमानों के मामलों में दूरी बनानी शुरू कर दी। हद यह हो गयी कि जब राजस्थान के एक मुस्लिम युवक की हरियाणा में दर्दनाक माॅब लिंचिंग हुयी तो राजस्थान सरकार ने हत्यारों के हिंूद संगठनों से जुड़े होने की वजह से अधिक सख्ती नहीं दिखाई। उधर छत्तीसगढ़ में हिंदू मुस्लिम दंगे में साहू जाति के एक युवक की हत्या होने पर उसके परिवार को 50 लाख मुआवज़ा और सरकारी नौकरी तत्काल दी गयी। लेकिन इस हत्या के खिलापफ बंद के दौरान दो मुस्लिम लोगों को भीड़ द्वारा पीट पीटकर मार देने पर कांग्रेस सरकार ने ना तो सख़्त कानूनी कार्यवाही की ना ही उनके परिवार को नौकरी या मुआवज़ा दिया। पीड़ित परिवार बाद में जब हाईकोर्ट गया तब मजबूरी में सरकार ने कुछ मुआवज़ा दिया। ऐसे ही हिंदूवादी संगठन समय समय पर ईसाई आदिवासियों के खिलाफ सामूहिक बहिष्कार उनके मुर्दे दफन करने का विरोध और उनसे किसी भी प्रकार का लेनदेन करने वालों का विरोध खुलेआम करते रहे लेकिन हिंदू वोट के मोह में कांग्रेस सरकार चुपचाप तमाशा देखती रही। जब कभी मुसलमानों पर अत्याचार अन्याय या पक्षपात हुआ कांग्रेस सरकार चुप्पी साधकर ना केवल उनके मामलों में दूरी बनाती नज़र आई बल्कि उनके लिये सहायता सहयोग या विशेष योजनाओं से भी परहेज़ किया जाता रहा। हद यह हो गयी कि कांग्रेस सरकार के मंत्री विधायक और अधिकारी तक अल्पसंख्यकों के यहां उदघाटन शिलन्यास और विवाह समारोह में कम से कम जाने लगे। जिससे उन पर मुस्लिम तुष्किरण और हिंदू विरोधी होने का आरोप ना लगे। ऐसा करते हुए उनको यह भी भरोसा बना रहा कि मुसलमान नाराज़ होकर भी उनको ही वोट करेगा। उसके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है लेकिन अगर हिंदू नाराज़ हुआ तो वह न केवल भाजपा के साथ बना रहेगा बल्कि जो आज कांग्रेस के साथ है वह भी धीरे धीरे भाजपा के पाले में जा सकता है। सच यह है कि आंकड़े बता रहे हैं कि बहुत थोड़े से ही सही हर सीट पर कई हज़ार मुसलमान कांग्रेस के अहंकार और अन्य सेकुलर दलों से तालमेल ना करने से खफा होकर सपा बसपा आप या अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ गये हैं। यह अजीब बात है कि एक तरफ कांग्रेस नेता राहुल गांधी पूरे देश में घूम घूमकर भारत जोड़ो यात्रा के दौरान मुहब्बत की दुकान खोलते रहे और दूसरी तरफ उनकी पार्टी कांग्रेस के राज में उसकी सरकारें मुसलमानों के साथ उनके जायज़ मामलों पर भी दूरी बनाकर इसलिये चुप्पी साधे रहीं जिससे हिंदू वोट उनसे नाराज़ होकर भाजपा के साथ ना चला जाये। उनको यह बात समझ नहीं आई कि हिंदुत्व भाजपा का मिशन है। इस मिशन को चाहे जो आगे बढ़ाये वह भाजपा की सफलता और उसी की उपलब्धि माना जायेगा और ज़ाहिर सी बात है। इसका श्रेय लाभ और चुनाव में वोट भी भाजपा को ही मिलेगा। कांग्रेस आज तक यह तय नहीं कर पा रही कि उसकी मूल विचारधारा सोच और मकसद है क्या? वह संघ परिवार के प्रोपेगंडे का विरोध खंडन और काट किस तरह से करे?    
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Monday 4 December 2023

3 बीजेपी एक कांग्रेस

*कांग्रेस भाजपा का मुक़ाबला लोकसभा चुनाव में भी नहीं कर पायेगी !*  

0 पांच नहीं चार नहीं बल्कि हमारा कहना है कि भाजपा का मुकाबला तीन राज्यों में सीधे कांग्रेस से था। इन सबमें वह जीतकर अपना मकसद सौ प्रतिशत हासिल कर चुकी है। हालांकि 2018 के इन राज्यों के चुनाव नतीजों को देखें तो पता चलता है कि इन तीनों में कांग्रेस जीती थी। लेकिन 6 माह बाद ही हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इन राज्यों की कुल 65 संसदीय सीटों में से 62 जीत ली थीं। कहने का मतलब यह है कि राज्यों और केंद्र के चुनाव में मुद्दे अलग अलग हो सकते हैं। हालांकि आगे बदलाव भी हो सकता है लेकिन इसके आसार नज़र नहीं आ रहे हैं। अब तो भाजपा का मनोबल पहले से अधिक बढ़ गया है। कांग्रेस के साथ ही इंडिया गठबंधन भी कमज़ोर हुआ है।    

      *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 

     ‘‘भाजपा ने तलाश ली विपक्षी ओबीसी सियासत की काट’’ कुछ दिन पहले जब हमने यह लेख लिखा और यह शक जताया कि तीन दिसंबर को 5 राज्यों के चुनाव नतीजों से यह साफ हो जायेगा कि इन राज्यों के चुनाव में इंडिया गठबंधन नाकाम हो गया है। इसकी वजह सपा का एमपी में 70 सीटों पर कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ना था। साथ ही यह भी आगाह किया था कि कांग्रेस की जिन समाज कल्याण की योजनाआंे को भाजपा चुनावी रेवड़ी बताकर पहले आलोचना करती आ रही है। अब उनको खुद भाजपा न केवल अपना रही है बल्कि चुनाव जीतने को उससे भी आगे बढ़कर लागू करने का दावा कर रही है। हमने यह भी जता दिया था कि इन राज्यों में चुनाव भाजपा अपने स्थानीय नेतृत्व की बजाये पीएम मोदी की छवि के सहारे लड़ रही है। जिससे भाजपा का मुकाबला कांग्रेस या समूचा विपक्ष भाजपा के संगठन मीडिया चुनावी चंदे सीबीआई ईडी इनकम टैैक्स काॅरपोरेट सरकारी मशीनरी चुनाव आयोग पुलिस और किसी हद तक न्यायपालिका का दुरूपयोग करने से रोकने में नाकाम रहेगा। हमने इस आर्टिकिल में यह भी बताया था कि विपक्ष चाहे कुछ कर ले वह पीएम मोदी की छवि महामानव, हिंदू राजा और लोकप्रिय हिंदूवादी नेता की बन जाने का किसी भी तरह से मुकाबला नहीं कर सकता। इस लेख से हमारे कुछ सेकुलर साथी नाराज़ भी हुए। उनका कहना था कि आप भाजपा आरएसएस और पीएम मोदी को कुछ अधिक ही बढ़ा चढ़ाकर पेश करते हैं। उनको लगता था कि अब हिंदुत्व का जादू उतार पर है। जबकि हमें पता है कि अभी तो मुसलमानों के ही एक वर्ग के सर से पूरी दुनिया में इस्लामी राज कायम करने का भूत नहीं उतरा तो हिंदुओं के एक वर्ग के दिमाग से हिंदुत्व विश्वगुरू और हिंदूराज का भूत मात्र 9 साल में कैसे उतर सकता है? अमित शाह तो दावा करते हैं कि भाजपा 50 साल तक राज करेगी लेकिन हमें भी इतना तो लगता ही है कि भाजपा कम से 25 साल आराम से पूरे कर लेगी? आगे क्या होगा यह कांग्रेस कम्युनिस्ट और क्षेत्रीय दलों की राजनीति के साथ जनता के मूड पर निर्भर करेगा कि वह धार्मिक मुद्दों को आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर कब तक नुकसान उठाकर भी प्राथमिकता देगी? उसको परउत्पीड़न में कब तक परम आनंद आता रहेगा? वह पड़ौसी मुल्कों की धार्मिक कट्टरता से तबाही का कब सबक सीखेगी? लिखने के लिये भाजपा की जीत और कांग्रेस की हार के अनेक कारण कई दिनों तक चुनाव विशेषज्ञ खोज खोज कर आपको बताते रहेंगे। उनमें से कुछ सही भी होंगे। लेकिन सबसे बड़ी बात जो इस समय दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ पढ़ी जा सकती है वह यह है कि भाजपा ने हिंदुत्व के साथ ही विपक्ष खासतौर पर कांग्रेस की जनहित की योजनाओं को अपनाकर हिमाचल और कर्नाटक की हार का न केवल कांग्रेस से बदला ले लिया है बल्कि उसने अपना कुछ कुछ कांग्रेसीकरण करके सियासत में लंबी पारी खेलने का मन भी बना लिया है। अप्रत्यक्ष रूप से देखा जाये तो यह विपक्ष यानी कांग्रेस के एजेंडे की जीत भी मानी जा सकती है। लेकिन कांग्रेस और विपक्ष की अधिकांश पार्टियों पर भाजपा ने जो मुस्लिम तुष्टिकरण और हिंदू विरोधी होने का आरोप बार बार लगाया है। वह हिंदुओं के एक वर्ग के दिमाग में घर कर गया है। उनको यह प्रचार भी सही लगने लगा है कि भाजपा के अलावा कोई भी विपक्षी दल आतंकवाद पर इतना कड़ा स्टैंड नहीं ले सकता जैसाकि भाजपा ने इस्राइल और हमास के मामले में खुलकर लिया है। हम जानबूझकर यहां उन योजनाओं की विस्तार से चर्चा नहीं करना चाहते जिनको आधार बनाकर भाजपा ने कांग्रेस को छत्तीसगढ़ जैसे उन राज्यों में भी धूल चटा दी है। जहां कांग्रेस न केवल बहुत आराम से चुनाव जीतती नज़र आ रही थी बल्कि भाजपा समर्थक गोदी मीडिया के एक्ज़िट पोल भी सरकार को नाराज़ करने का जोखिम मोल लेकर यह बता रहे थे कि वहां कांगे्रस बहुत आगे है। जिस तरह से पिछली बार मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद पार्टी में सिंधिया की बगावत का सियासी लाभ उठाकर भाजपा ने कांग्रेस की सरकार पूरी बेशर्मी और सत्ता का दुरूपयोग कर गिरा दी थी। उसकी या लगभग दो दशक से चल रही भाजपा सरकार की एंटी इनकम्बैंसी का कोई लाभ या जनता की सहानुभूति भी कांग्रेस को नहीं मिली। कांग्रेस यह भी नहीं समझ पाई कि एमपी में सिंधिया और राजस्थान में पायलट जैसे युवा नेतृत्व को दरकिनार कर कमलनाथ व अशोक गहलौत जैसे बूढे़ और चुके हुए नेताओं को आगे कर सीएम बनाकर और मोदी के मुकाबले चुनाव मैदान में उतारकर उसने भारी भूल की है। हालांकि आंकड़े गवाह हैं कि 2018 के मुकाबले कांग्रेस का वोट शेयर ना के बराबर ही घटा है लेकिन भाजपा ने बेहतर चुनाव मैनेजमेंट के द्वारा अपना वोटबैंक कांग्रेस से कहीं अधिक बढ़ा लिया। जिससे कांग्रेस को इस अनपेक्षित और करारी हार का सामना करना पड़ा है। मिसाल के तौर पर राजस्थान में पिछले चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 41 था जो इस बार मामूली घटकर 39.53 हुआ। जबकि भाजपा का 41.1 से बढ़कर 41.69 हुआ है लेकिन दोनों की सीट में भारी अंतर आ गया है। ऐसे ही एमपी के चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 41 से घटकर 40.43 हुआ लेकिन भाजपा का 41.1 से बढ़कर सीधे 48.61 तक पहुंच गया जिससे सीटों की संख्या मंे भारी उलटफेर हो गया है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 43.1 से घटकर 42.19 हुआ जबकि भाजपा का 33 से बढ़कर 46.28 हो गया। जिससे उसकी सीट 15 से बढ़कर 54 और कांग्रेस की 68 से घटकर 35 रह गयीं। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा ने अपना वोट अन्य गैर कांग्रेस दलों से छीनकर बढ़ाया है। कांग्रेस के लिये यही संतोष की बात हो सकती है कि उसने दक्षिण के एक ऐसे राज्य में सत्ता हासिल कर ली है। जिसमंे कुछ माह पहले तक भाजपा उससे आगे लग रही थी। अंत में एक बात और कि जिन उत्तर भारत के राज्यों में भाजपा का पहले ही दबदबा रहा है। उनमें एक बार फिर से उसने ज़बरदस्त वापसी करके यह साबित कर दिया है कि उसको अब आज़ादी के बाद के दौर की कांग्रेस जैसा लंबी पारी खेलने का मौका मिल गया है।   
*नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*