Sunday 26 November 2023

जातीय जनगणना और भाजपा

*भाजपा ने तलाश ली विपक्षी ओबीसी सियासत की काट ?* 

0 तीन दिसंबर को जब 5 राज्यों के चुनाव के नतीजे आयेंगे तो कुछ बातें साफ हो जायेंगी। इंडिया नामक विपक्षी गठबंधन ने भाजपा के खिलाफ जो साझा उम्मीदवार खड़ा करने का दावा किया था। वह इन राज्यों में नाकाम हो गया है। लोकसभा चुनाव में भी सफल होगा यह कोई दावे से नहीं कह सकता। इसके साथ ही भाजपा ने विपक्ष खासतौर पर कांग्रेस के पांच गारंटी के जवाब में उससे भी आगे बढ़कर लोकलुभावन चुनावी घोषणायें करने में बाज़ी मारने का दांव चला है। विपक्ष का अंतिम हथियार जातीय जनगणना का पहले विरोध करने वाली भाजपा ने वक़्त की नज़ाकत को देखते हुए कहना शुरू कर दिया है कि वह इसके खिलाफ़ नहीं रही है। साथ ही उसने पिछड़ों में अति व अत्यंत पिछड़ों का मुद्दा उठाकर इसकी काट तलाश ली है।    

  *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 

      2024 के संसदीय चुनाव में भाजपा नीत राजग और कांग्रेस नीत इंडिया गठबंधन में निर्णायक जंग होना तय माना जा रहा है। लेकिन 5 राज्यों के चुनाव में जिस तरह इंडिया के विपक्षी घटक दलों में आपस में जूतों में दाल बंटती नज़र आई है। उससे साफ है कि लोकसभा चुनाव में भी इंडिया के घटक दलों की एकता रेगिस्तान में पानी तलाशने की कवायद से अधिक साबित होना मुश्किल है। खासतौर पर जिस तरह से सपा और कांग्रेस के बीच एमपी के विधानसभा चुनाव को लेकर तलवारें खिंची है। उससे यह भी पता लग गया है कि विपक्षी गठबंधन के दलों के हित देश और जनता से कहीं उूपर हैं। शायद यह कम था कि इंडिया गठबंधन से बसपा बीआरएस वाईएसआर कांग्रेस बीजेडी अन्नाद्रमुक एमआईएम टीडीपी जनतादल सेकुलर आदि कई भाजपा विरोधी दल पहले ही अलग हैं। इसके साथ ही सपा टीएमसी आम आदमी पार्टी और कम्युनिस्ट उसमें शामिल होते हुए भी जिस तरह से एक एक सीट के लिये अभी से संघर्ष करते नज़र आ रहे हैं। उससे ज़ाहिर है कि उनकी लड़ाई भाजपा से अधिक खुद आपस में ही होनी है। हो रही है। और आगे भी होगी। इसकी सबसे बड़ी वजह यह लगती है कि विपक्ष के लगभग सभी दलों का टारगेट अब पिछड़ी जातियां दलित और अल्पसंख्यक काॅमन हो चुके हैं। जिन जनहित की सुविधाओं को कल तक भाजपा रेवड़ी बांटना कहती थी। उनको उसने विपक्ष से भी दो हाथ आगे बढ़कर अपनाना शुरू कर दिया है। यह अलग सवाल है कि उसके दावों पर जनता कितना भरोसा करती है? मतदाताओं का यह शक अपनी जगह वाजिब लगता है कि भाजपा ने ये गारंटी सस्ती व निशुल्क सुविधायें या खातों में सीधे धन भेजने की कवायद विपक्ष के ऐसे वादों से पहले उन राज्यों में क्यों अंजाम नहीं दीं, जहां उसकी राज्य सरकारें पहले से चल रही हैं। साथ ही पुरानी पेंशन स्कीम विपक्ष ने भाजपा के गले की फांस बना दी है। हिमाचल और कर्नाटक में तो उसके कांगे्रस से हारने की बड़ी वजहों में से एक यही मानी जा रही है। इसके लिये बीच का रास्ता निकालने को भाजपा सरकार ने एक उच्च स्तरीय कमैटी भी बना दी है। लेकिन लगता नहीं है कि सरकारी मशीनरी और टीचर्स बिना शर्त पुरानी पेंशन बहाली से कम पर मान सकते हैं। कोई माने या ना माने यह तो लगता ही है कि भाजपा का हिंदुत्व का मुद्दा अब उतना कारगर नहीं रहा जितना वह 2014 तक चुनाव में हुआ करता था। हालांकि इस सच से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हिंदुत्व और राममंदिर अभी भी भाजपा को एक सीमित ही सही लेकिन एक वर्ग का वोट दिलाने में सहायक बन रहे हैं। इसके साथ ही भाजपा ने सत्ता मीडिया और काॅरपोरेट के द्वारा पीएम मोदी की छवि महामानव, लोकप्रिय हिंदूवादी नेता और हिंदूराज का सूत्रपात करने वाले राजा की बना दी है। जिसका उसको काफी बड़ा लाभ वोटबैंक के तौर पर मिल रहा है। साथ ही लाभार्थी वर्ग की एक नई फौज भी केंद्र और राज्य की भाजपा सरकारों ने अपने पक्ष में खड़ी कर दी हैं। लेकिन करप्शन महंगाई और बेराज़गारी का उसके पास कोई ठोस जवाब आज भी नहीं है। साथ ही इनकम टैक्स सीबीआई और ईडी को जिस तरह से चुनचुनकर विपक्षी नेताओं के पीछे लगाया जा रहा है। साथ ही करप्ट विपक्षी नेताओं के भाजपा में शामिल होने पर उनके खिलाफ पहले से चल रहे मामले खत्म कर देना या उनको ठंडे बस्ते में डाल देना जनता के एक वर्ग को बुरा लग रहा है। लेकिन भाजपा के लिये सबसे बड़ी समस्या बनने जा रहे पिछड़ों की जनगणना का मामला अब उल्टा विपक्ष के लिये मुसीबत बन सकता है। इसकी वजह यह है कि भाजपा ने जिस तरह से पहले यादव माइनस ओबीसी और जाटव मानइस दलित का नारा देकर सपा बसपा को यूपी के चुनाव में और आरजेडी को बिहार में निशाने पर लिया था। ठीक उसी तरह अब भाजपा ने यह समझ लिया है कि वह न तो पिछड़ों की जनगणना की मांग को लंबे समय तक टाल सकती है और ना ही ओबीसी की गिनती होने पर उनके बढ़े हुए आरक्षण की मांग की उपेक्षा कर पायेगी। इसलिये भाजपा सरकार ने बहुत पहले जो पिछड़ों के आरक्षण की समीक्षा करने को रोहिणी कमीशन बनाया था। उसकी रिपोर्ट वह सार्वजनिक कर यह दांव चलने जा रही है कि पिछड़ों के नाम पर जो 27 प्रतिशत आरक्षण मिला उसका बड़ा हिस्सा बहुत छोटी पिछड़ी यादव जैसी जाति हड़प कर गयी। कमीशन ने बड़ी बारीकी से जांच कर यह सिफारिश की है कि पिछड़ों की तीन कैटेगिरी पिछड़ा अति पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ा बनाकर उन तीनों को मिलने वाले आरक्षण का प्रतिशत अलग अलग तय किया जाये। इस तरह से भाजपा पिछड़ों मेें ही आरक्षण को लेकर सियासत तेज़ करने जा रही है। भाजपा ऐसा करके यह बताना चाहेगी कि पिछड़ों की गिनती या उनका आरक्षण बढ़ाने से अधिक उनको पहले से मिल रहे आरक्षण को न्यायसंगत तरीके से उन तक उनकी आबादी के अनुपात में ठीक से पहुंचाने की ज़रूरत है। इस मामले में कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक ना करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को भी हथियार बनायेगी। साथ ही जिस तरह से भाजपा सरकार चुनाव आयोग मीडिया चुनावी बांड प्रशासनिक मशीनरी पुलिस और न्यायपालिका कारपोरेट का अपने पक्ष में खुलकर राजनीतिक लाभ लेने के लिये दुरूपयोग कर रही है। उससे इंडिया की लड़ाई उसके खिलाफ एक के सामने एक उम्मीदवार ओबीसी की गिनती और जनहित की गारंटी भी अब फीकी पड़ती नज़र आने लगी है। 

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

सुब्रत राय सहारा

*सुब्रत राय सहारा : हम थे जिनके सहारे, वो हुए ना हमारे!* 

0 जिस इंसान ने अपने बेटे की 500 करोड़ से अधिक की एतिहासिक शादी की। जिस शादी में तत्कालीन पीएम वाजपेयी जैसे कई बड़े नेता अनेक केंद्रीय मंत्री लगभग सभी मुख्यमंत्री दर्जनों विपक्षी नेता काॅरपोरेट जगत फिल्म जगत और लगभग हर क्षेत्र की प्रमुख हस्तियां शामिल हुयीं। वीवीआईपी बारातियांे को लाने ले जाने के लिये थोक में चार्टर्ड प्लेन उपलब्ध कराये गये। अमिताभ बच्चन जैसे सदी के महान कलाकार जिस शादी को यादगार बनाने के लिये अपने परिवार और दूसरे जाने माने अभिनेताओं के साथ मुलायम सिंह और अमर सिंह की मौजूदगी में नाच रहे हों। उसके बारे में और क्या लिखा जाये। जब मुश्किल हालात के चलते वही बेटा अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने विदेश से नहीं आ सका। इसे दुखद विडंबना ही कहेंगे।     

    _-इक़बाल हिंदुस्तानी_ 

     1948 में बंगलादेश के ढाका में पैदा हुए सहारा ग्रुप के मुखिया सुब्रत राय सहारा का पिछले दिनों निधन हो गया। उन्होंने अपने पिता के निधन के बाद परिवार की ज़िम्मेदारी अपने सर पर आने के बाद स्कूटर से दुकान दुकान नमकीन बेचने का काम 2000 रूपये की पूंजी से शुरू किया था। उन्होंने नमकीन सप्लाई करते करते सोचा क्यों ना दुकानदारों की बचत को जमा करने के लिये कोई चिटफंड कंपनी शुरू की जाये। 1978 में उन्होंने जब यह कंपनी शुरू की तो दुकानदारों को उसमें कम से कम एक रूपया तक जमा करने की सुविधा दी। कुछ समय में ही उनका ध्ंाधा इतना अच्छा चला कि उन्होंने सहारा नाम की कंपनी का टेकओवर कर लिया। फिर सुब्रत राय ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। देखते देखते ही उनकी कंपनी में 11 लाख से अधिक कर्मचारी अधिकारी और एजेंट जुड़ गये। एक समय ऐसा आया जब सहारा ग्रुप की विभिन्न कंपनी में 13 करोड़ से अधिक लोगों का धन जमा हो गया। इस दौरान सहारा ने समाजसेवा देशभक्ति पर्यावरण बचाओ गरीब कन्याओं की शादी और राजनीतिक हस्तियों से अपने रिश्ते मज़बूत बनाकर देश में सहारा समूह की धाक जमा दी। उन्होंने सहारा स्पाॅन्सर्ड क्रिकेट हाॅकी टीम एयरलाइन मीडिया चैनल अखबार फाॅर्मूला वन की टीम सहारा सिटी सहारा फिल्म सिटी झीलें यानी तरह तरह के सहारा प्रोडक्ट और 10 शहरों में 764 एकड़ ज़मीनें खरीदकर सहारा गु्रप को आसमान पर पहुंचा दिया। सहारा में निवेश करने वालों को 30 से 40 प्रतिशत का रिटर्न देने के लिये उन्होंने अधिक से अधिक लोगों का निवेश हासिल करने का अभियान चला रखा था। जब जमा धन की मयाद पूरी हो जाती तो उसको लौटाने की बजाये आगे सहारा परिवार सिल्वर और गोल्डन नाम की और आकर्षक व अधिक रिटर्न देने वाली स्कीमों में फिर से निवेश कराने पर जोर देता था। अधिकांश परिचित निवेशक इससे सहमत होकर आगे फिर से पुरानी रकम को और बढ़ाकर निवेश को तैयार भी हो जाते थे। यह वह दौर था जब सहारा का सिक्का चल रहा था। उनकी साख आसमान छू रही थी। फिर एक दिन आया जब सहारा का कारोबार अपने उत्कर्ष यानी सेचुरेशन पर पहंुच गया। यहां से और आगे जाने का रास्ता नहीं था। उस दौर में सहारा आज के अंबानी अडानी से भी आगे नज़र आते थे। उधर जैसा कि होता है। उनके प्रशंसकों की तादाद बढ़ने के साथ ही उनके विरोधी प्रतिद्वन्द्वी और उनकी दिन दूनी रात चैगुनी प्रगति से खार खाये चंद राजनेता व अधिकारी की सूची भी दिन ब दिन लंबी होती जा रही थी। 2009 में सहारा ने अपनी रियल स्टेट कंपनियों के नाम से 24000 करोड़ के बाॅन्ड जारी किये। 3 करोड़ से अधिक लोगों ने इनके लिये आवेदन किया। बस यहीं से सहारा के बुरे दिन की शुरूआत हो गयी। हुआ यह कि सत्ता और तमाम बड़े लोगों की नज़दीकी के चलते सहारा ग्रुप ने बाॅन्ड जारी करने में सेबी के नियमों का पूरी तरह से पालन नहीं किया। इंदौर के एक निवेशक रोशनलाल ने सहारा की शिकायत नेशनल हाउसिंग बैंक काॅरपोरेशन को कर दी। सहारा को एनएचबीसी का नोटिस आया। लेकिन सहारा ने उसको यह कहकर कोई भाव नहीं दिया कि यह काम आपका नहीं सेबी का है। बैंक ने वह नोटिस सहारा का अहंकारी जवाब और अपनी जांच की सिफारिश सेबी को भेज दी। सेबी ने जब सहारा से इस बाबत जानकारी मांगी तो सहारा ग्रुप अपनी अकड़ में एक बड़ी भूल कर गया। उसने 127 ट्रक में 31669 कार्टन रखकर कागजात सेबी के पास भेजकर चुनौती दी कि पढ़ सकते हो तो इन डाक्यूमंेट को चैक कर के देख लो किस किस ने क्या जमा किया है? इतने ट्रक एक साथ सेबी के आॅफिस के सामने लग जाने से पूरे मुंबई में जाम लग गया। मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज चली तो मामला तूल पकड़ गया। उधर सेबी के पास सहारा ग्रुप की दो कंपनी की पहले ही शिकायत पहंुच चुकी थी। सहारा पर निवेशकों का भुगतान समय पर करने का दबाव बढ़ रहा था। ऐसे में सहारा ने 24000 करोड़ का पब्लिक इश्यू लाने का फैसला किया। लेकिन सेबी ने इसकी अनुमति ना देकर उल्टा निवेशकों का धन 15 प्रतिशत ब्याज के साथ तत्काल वापस करने का सहारा को अल्टीमेटम दे दिया। सहारा इसके खिलाफ कोर्ट पहुंच गया। लेकिन उसने कोई राहत ना देते हुए यह और पूछ लिया कि बताओ आपके पास पैसा किस किस का है? सेबी को जांच में पता लग चुका था कि असली निवेशक बहुत कम थे। 4600 निवेशक ही पैसा वापस लेने आये। जिससे यह शक और बढ़ता गया। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि सहारा आगे लोगों का धन जमा नहीं करेगा। जो अब तक जमा किया है। वह धन सेबी को देगा। सेबी निवेशकों को वापस देगा। 2014 में जब आदेश का पालन नहीं हुआ तो सहारा प्रमुख को कोर्ट ने जेल भेज दिया। सहारा के सारे खाते सीज़ कर हर तरह का लेनदेन प्रोपर्टी की खरीद फरोख्त बंद हो गयी। दरअसल 1996 में भी आयकर के एक असिस्टेंट कमिश्नर ने सहारा को एक नोटिस भेजकर यह पूछने की हिमाकत की थी कि वह बताये कि उसके पास किसका कितना धन लगा हुआ है? सहारा ने उसका जवाब अगले दिन देश के लगभग सभी बड़े अखबारों में पूरे पेज का विज्ञापन छापकर लिखा था कि हमारे यहां अटल बिहारी वाजपेयी नरसिम्हा राव चन्द्रशेखर मुलायम सिंह पीए संगमा कांशीराम मनमोहन सिंह बेनी प्रसाद जनेश्वर मिश्र कलराज मिश्र कमलनाथ राजेश पायलट जैसे लोगों का पैसा जमा है। किसी भी नेता ने इसका खंडन भी नहीं किया। इस एड के छपने से देश में हंगामा मचा। सरकार भी हिल गयी। उसके बाद उस असिस्टेंट कमिश्नर के साथ ही उसके बोस को भी दो माह की जबरन छुट्टी पर सज़ा के तौर पर भेज दिया गया। नये आईटी कमिश्नर ने उस मामले की आगे जांच करने की बजाये लीपापोती कर उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। हालांकि मामला एक बार फिर से तूल पकड़ने पर वीवीआईपी डिपोज़िट की जांच की खानापूरी कर उसी साल सब कुछ ओके होने की क्लीनचिट दे दी गयी। लेकिन एक के बाद एक झटका लगने से सहारा समूह जैसे फर्श से अर्श तक पहुंचा था वैसे ही अर्श से फर्श पर वापस आ गया। इसीलिये कहते हैं कि मंज़िल सही होने के साथ ही उस तक पहुंचने के रास्ते भी सही होने चाहिये वर्ना आप कितने ही बड़े कितने ही ताकतवर और कितने ही धनी क्यों ना हों एक समय ऐसा भी आता है। जब आप जिनका सहारा बनते हैं वही आपको बुरे समय में सहारा देने तक नहीं आते हैं।

 *0 बुलंदी पर पहंुचना कोई कमाल नहीं,

  बुलंदी पर ठहरना कमाल होता है।* 

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 9 November 2023

मराठा आरक्षण

मराठा आंदोलन: रिज़र्वेशन नहीं मार्गदर्शन की ज़रूरत !

0 महाराष्ट्र में मराठा समुदाय की 33 प्रतिशत आबादी है। प्रदेश के अब तक बने कुल 16 में से 11 मुख्यमंत्री मराठा ही बने हैं। वर्तमान सीएम और डिप्टी सीएम भी मराठा ही हैं। साथ ही मंत्रिमंडल के 29 में से आध्ेा मंत्री भी मराठा हैं। इतना ही नहीं राज्य की अधिकांश डीम्ड यूनिवर्सिटी और निजी काॅलेज भी मराठा ही चला रहे हैं। सवाल उठता है कि राजनीतिक और सामाजिक रूप से आगे माने वाले मराठा फिर भी आरक्षण क्यों मांग रहे हैं? 2018 में राज्य की भाजपा सरकार ने मराठा आरक्षण का बिल पास किया था लेकिन यह लागू होने से पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने ना तो मराठा जाति को पिछड़ा माना और ना ही कोई असमान्य परिस्थिति मानकर 50 प्रतिशत की इंदिरा साहनी केस में लगाई आरक्षण की सीमा तोड़ने की राज्य सरकार को अनुमति ही दी गयी।      

    _-इक़बाल हिंदुस्तानी_ 

      मनोज जारंग पाटिल के एक नये व अंजान नाम से आमरण अनशन से शुरू हुआ मराठा आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन फिलहाल तो दो माह के लिये राज्य सरकार को दी गयी मोहलत के साथ थम गया है। लेकिन आरक्षण की मांग को लेकर अब तक आधा दर्जन से अधिक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। हालांकि मराठा आरक्षण की मांग कई दशक पुरानी है लेकिन राज्य की पहली सरकारें इसको लगातार टालती रही हैं। 15 साल तक चली कांग्रेस एनसीपी की साझा सरकार अपने अंतिम दौर में इसको लागू करने का मन बना भी रही थी। लेकिन कांग्रेस ने अंतिम समय में ऐसा करने से यह सोचकर हाथ खींच लिये थे कि कहीं इससे उसके शासित अन्य राज्यों में अगर अगड़ी जातियों की इस तरह की मांगों ने सर उठाना शुरू कर दिया तो वह राजनीतिक रूप से लाभ कम नुकसान अधिक उठा सकती है। कुछ साल पहले महाराष्ट्र सरकार ने मराठा समाज की हालत जानने के लिये हाईकोर्ट के तीन रिटायर्ड जजों का आयोग बनाया था। इस आयोग की सिफारिश पर राज्य सरकार ने 16 प्रतिशत मराठा आरक्षण देने का फैसला लिया। लेकिन हाईकोर्ट ने इसे शिक्षा के क्षेत्र में 12 और सरकारी सेवा के लिये 13 प्रतिशत तक सीमित कर दिया। यही प्रस्ताव महाराष्ट्र बैकवर्ड क्लास कमीशन ने भी दिया था। मराठा आयोग ने राज्य के कुल 355 में से प्रत्येक ताल्लुका के दो दो गांव के 45000 परिवारों की गहन जांच की। जिनमें आधी से अधिक मराठा आबादी थी। 76 प्रतिशत मराठा कृषि से जुड़े पाये गये। इनमें से 70 प्रतिशत कच्छ में रहते हैं। 13 प्रतिशत मराठी अशिक्षित हैं। 35 प्रतिशत प्राइमरी 43 प्रतिशत हाईस्कूल 67 प्रतिशत इंटर पास हैं। तकनीकी और पेशेवर रूप से एक प्रतिशत से भी कम मराठा दक्ष पाये गये। नवंबर 2015 की रिपोर्ट में आयोग ने मराठा समाज को सामाजिक आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा बताया था। सर्वे में पाया गया कि मराठा पूरे राज्य में बिखरे हुए हैं। शांतिकाल में वे खेती से जुड़े हुए थे। लेकिन जब जब जंगे हुयीं उनका एक हिस्सा सेना में जाकर लड़ा। जिससे उनकी पूरी जाति की छवि ही वारियर क्लास की बन गयी। जबकि सच यह था कि उनका बड़ा हिस्सा ना केवल खेती कर रहा था बल्कि खेती में भी मज़दूरी अधिक कर रहा था। सारा पेंच इस बात पर फंसा कि मराठा का एक वर्ग पहले से ही कुनबी माना जाता है। जिसकी गिनती पिछड़ों में होती रही है। उसको आरक्षण का लाभ भी मिलता रहा है। लेकिन जब सभी मराठाओं को आरक्षण देने का सवाल आया तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि कोई असमान्य स्थिति नहीं है और साथ ही मराठा समुदाय का राज्य मंे वर्चस्व है और वह अग्रणी भागीदारी के साथ राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल है। सबसे बड़ी अदालत ने राज्य की इस मामले में पुनर्विचार याचिका भी निरस्त कर दी। केंद्र सरकार और कोर्ट शायद यह भी सावधानी बरत रहे हैं कि अगर आज सम्पन्न और समृध्द समझे जाने वाले मराठाओं को परंपरा तोड़कर आरक्षण दे दिया गया तो कल गुजरात के पाटीदार हरियाणा के जाट और अहीर रेजिमंेट की अलग से मांग कर रहे यादव सड़कों पर उतर सकते हैं। यादवों का यह भी तर्क है कि जब सरकार 28 नई रेजिमेंट बना ही रही है तो उसको अहीर के नाम से एक और नई रेजिमेंट बनाने में क्या समस्या है? महाराष्ट्र सरकार ने एक बार फिर से 7 सितंबर को रिटायर्ड जस्टिस संदीप शिंदे के नेतृत्व में पांच लोगों की नई समिति बना दी है जो इस बात पर विचार करेगी कि कैसे कुनबी मराठाओं की तरह शेष मराठाओं को ओबीसी आरक्षण दिया जा सकता है? इसके लिये निज़ाम के राज के समय के दस्तावेज़ों को आधार बनाकर ऐसा तरीका तलाशा जायेगा। जिससे आगे सुप्रीम कोर्ट में क्यूरेटिव याचिका लगाकर मराठा आरक्षण का रास्ता साफ किया जा सके। समिति ने अब तक 1.73 करोड़ दस्तावेज़ की छानबीन कर 11,530 काग़ज कुनबी के पक्ष में हासिल कर लिये हैं। हालांकि सरकार कुछ भी कर ले मराठा आरक्षण की राह इसलिये भी मुश्किल है कि इससे एक बार फिर आरक्षण का जिन्न बोतल से बाहर आया तो मंडल आयोग लागू होने के दौर की तरह उसको वापस बोतल में बंद करना नामुमकिन हो जायेगा। सरकार जो नहीं बताना चाहती है। वो यह है कि मंडल आयोग के दौर मंे ही जब मराठाओं ने देखा कि दलितों की तरह ही अब उनसे पिछड़ी और कम योग्य जातियां ओबीसी आरक्षण मिलने से जहां उनसे आगे जा रही हैं और वे खुद कृषि घाटे का सौदा बनने, पीढ़ी दर पीढ़ी खेती की ज़मीन घटते जाने और महाराष्ट्र का सीएम देवेंद्र फड़नवीस के रूप में एक बृहम्ण के बनने से राज्य की सियासत से मराठा वर्चस्व कम होने से पिछड़ रहे हैं तो उन्होंने आरक्षण की मांग तेज़ कर दी। उधर भाजपा सरकार ने कोआॅपरेटिव में बुनियादी बदलाव करते हुए जब भ्रष्टाचार के आरोपों की व्यापाक जांच करनी शुरू की तो उन पर से अधिकांश मराठा का कब्ज़ा भी खत्म या कम होने लगा। उधर राजनीतिक तौर पर भी कई मराठा क्षत्रप भाजपा सरकार के निशाने पर आये तो मराठा समाज में नाराज़गी और उपेक्षा की भावना और बढ़ने लगी। जब मराठा समाज को राजनीतिक आर्थिक और अन्य क्षेत्रों में नुकसान महसूस हुआ तो उन्होंने हर साल 50 से अधिक मार्च निकालने शुरू कर दिये। भाजपा सरकार ने उनको आरक्षण देकर साधना चाहा लेकिन सुप्रीम कोर्ट के स्टे से मामला फिर से बिगड़ गया। अन्य पिछड़ा वर्ग में भी मराठा आरक्षण का विरोध शुरू हो गया है। उनको लगता है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने एक बार मराठा आरक्षण निरस्त कर दिया तो कहीं ऐसा ना हो कि उनके कोटे में मराठा को भी शामिल कर उनका हिस्सा कम कर दिया जाये। जबकि सीएम शिंदे राजनीतिक नुकसान की आशंका और विपक्षी दलों द्वारा ऐसे सवाल उठाने पर पहले ही साफ कर चुके हैं कि ओबीसी के वर्तमान कोटे में कटौती कर मराठा आरक्षण देने का कोई प्रस्ताव नहीं है। अब दो ही रास्ते बचे हैं। जिससे केंद्र सरकार संविधान में संशोधन कर मराठा आरक्षण को कोर्ट की सुनवाई से बाहर कर सकती है या फिर सुप्रीम कोर्ट में नये सिरे से अपील कर उसको मराठा आरक्षण के लिये सहमत किया जा सकता है। लेकिन चुनावी साल में ये दोनों ही विकल्प कठिन नज़र आते हैं। एक काम जो किया जा सकता है वह कोई सरकार करने को तैयार नज़र आती। वह यह है कि बजाये नये वर्गों या जातियों को आरक्षण देने के ऐसी समाजवादी समानतावादी और सर्वसमावेशी आर्थिक नीतियां बनाई जायें। जिससे अधिक से अधिक नये रोज़गार और स्कूल काॅलेज बने। जिसमें सभी को उनकी आबादी आवश्यकता और आज के दौर के हिसाब से उनका अधिक से अधिक उचित हिस्सा मिल सके। इसलिये हम कह सकते हैं कि मराठा जाट या पाटीदारों को रिज़र्वेशन नहीं बल्कि सही मार्गदर्शन की ज़रूरत है। जिससे वे ऐसी सरकारें बना सकें जो यह न्यायसंगत काम कर सकें।  

 *0 क़तरा गर एहतजाज करे भी तो क्या करे,*
*दरिया तो सब के सब समंदर से जा मिले।*
*हर कोई दौड़ता है यहां भीड़ की तरफ़,*
*फिर यह भी चाहता है मुझे रास्ता मिले।।*

*नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Sunday 5 November 2023

70 घंटे काम...

*काम के घंटे नहीं काम करने वाले बढ़ाये जाने चाहिये !* 

0जाने माने काॅरपोरेटर और दिग्गज आईटी कंपनी इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने कहा है कि अगर नौजवान अपने देश से प्यार करते हैं तो उनको सप्ताह में कम से कम 70 घंटे काम करना चाहिये। उधर स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि इतना अधिक काम करना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है। मेडिकल एक्सपर्ट दावा करते हैं कि आजकल पहले ही युवाओं पर इतना काम का बोझ है कि उनको इसके तनाव के चलते हार्ट अटैक ब्लड पे्रशर और डायबिटीज़ की समस्याओं का बहुत कम उम्र में ही सामना करना पड़ रहा है। साथ ही ट्रेड यूनियन और सामाजिक संगठन भी मूर्ति की इस सलाह को युवाओं का आर्थिक और मानसिक शोषण करने वाला पूंजीवादी सोच का नमूना बताकर विरोध में उतर आये हैं।      

   *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 

      तीन साल पहले भी इंफोसिस संस्थापक मूर्ति ने युवाओं से देश को आगे ले जाने के लिये 60 घंटे काम करने की अपील की थी। यह बात किसी हद तक सही है कि राष्ट्र निर्माण अनुशासन और समर्पण मांगता है लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारे देश में काम करने वाले योग्य और प्रतिभाशाली युवाओं की कमी है जो मूर्ति उन ही लोगों से अधिक काम करने की अपील कर रहे हैं जिनपर पहले ही कम वेतन में अपने टारगेट पूरा करने का जानलेवा दबाव है। कंपनियों के चेयरमैन डायरेक्टर एमडी और दूसरे सलाहकार सप्ताह में कितने घंटे काम करते हैं? यह भी पूछा जाना चाहिये कि उनकी सेलरी कई गुना क्यों बढ़ रही है? इंफोसिस के सीईओ की कमाई ही कंपनी के नये कर्मचारी से 2200 गुना अधिक है। 2008 में कंपनी के सीईओ का वेतन 80 लाख और किसी नये भर्ती कर्मचारी का वेतन 2.75 लाख था। मनी कंट्रोल की रिपोर्ट बताती है कि 10 साल बाद यह सौ गुना बढ़कर जहां 80 करोड़ हो गया वहीं नये भर्ती कर्मचारी का वेतन केवल 3.60 लाख ही हुआ क्योें? एक सप्ताह में तो मात्र 168 घंटे ही होते हैं। ऐसे में मूर्ति जी सीईओ को कितने गुना बढ़े घंटे काम करने की सलाह देंगे और कैसे देंगे? क्योंकि 2.75 लाख वाले कर्मचारी को तो उन्होंने 3.60 लाख सेलरी होने पर पहले से डेढ़ गुना से अधिक काम करने की सलाह दे दी लेकिन यही देशभक्ति और भारत को विकसित राष्ट्र बनाने की सलाह सीईओ को क्यों नहीं दे रहे? क्या यह सब कंपनी का मुनाफा बढ़ाने की सोची समझी कवायद का हिस्सा तो नहीं? पश्चिमी देश आज अधिक काम से नहीं बल्कि तकनीक आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस व रोबोटिक्स से गुणात्मक विकास को बढ़ा रहे हैं। साथ ही वे अपने यहां शोध पर अधिक धन खर्च कर रहे हैं। उल्टा हमारे देश में 2008 में शोध पर खर्च होने वाला पैसा 0.8 प्रतिशत से घटाकर 0.7 कर दिया गया है। माना कि अधिक काम करने से अधिक प्रोडक्शन होगा जिससे देश की जीडीपी और तेज़ी से बढ़ेगी लेकिन यह काम कारपोरेट नये लोगों को रोज़गार देकर क्यों नहीं करता? देश केवल जीडीपी बढ़ने से नहीं नये रोज़गार बढ़ने और वर्तमान कामगारों का वेतन बढ़ने से उपभोग बढ़ने से बढ़ता है। जबकि देखने में यह आ रहा है कि पंूजी का केंद्रीयकरण लगातार बढ़ता जा रहा है। असमानता बढ़ी है। हमारे देश में बेरोज़गारी और भुखमरी पहले ही चरम पर है। जिन देशों की आबादी कम है अगर वे यह बात कहें तो समझ में आती है कि अगर विदेशी कामगारों को बुलाकर अधिक उत्पादन किया जायेगा तो बाहर के काम करने वाले अपना वेतन अपने देश भेज देंगे। लेकिन हमारे देश की आबादी आज दुनिया में सबसे अधिक हो चुकी है। एक अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर संगठन की जनवरी 2023 में जारी शोध रिपोर्ट वर्किंग टाइम एंड वर्क लाइफ बैलंेस एराउंड द वल्र्ड बताती है कि दक्षिण और पूर्वी एशिया में लोग औसत 48 से 49 घंटे यानी पहले ही अधिक काम करते हैं। उत्तरी अमेरिका में 37.9 और अधिकांश यूरूपीय देशों में लोग 37.2 घंटे ही काम कर रहे हैं। मूर्ति जर्मनी फ्रांस और बेल्जियम जैसे जिन देशों की अधिक घंटे की मिसाल भारत में पेश कर रहे हैं। उनको यह याद नहीं इन देशों ने द्वितीय विश्व युध्द के बाद हुए भारी नुकसान से उबरने के लिये यह प्रयोग कुछ समय के लिये मजबूरी में किया था। आज वे भी काम के घंटे घटा रहे हैं। भारत और एशिया के अधिकांश देश भी उन यूरूपीय देशों से प्रेरणा लेकर ही युवाओं के तनाव को कम कर उनकी कार्यक्षमता और स्वास्थ्य बेहतर बनाने को इसी रास्ते पर चल रहे हैं। नई रिसर्च बता रही हैं कि अधिक काम करने से या अधिक समय काम करने से नहीं बल्कि अधिक गुणवत्ता और अधिक दक्षता से काम करके देश को आगे ले जाया जा सकता है। जो लोग काम और अपने जीवन परिवार मनोरंजन व्यायाम मित्रों और समाज के बीच तालमेल बनाकर चलते हैं। वे अपना काम कम समय में और ज़्यादा बेहतर कर पाते हैं। आने वाला समय सप्ताह में 70 घंटा नहीं पांच दिन से चार दिन यानी मुश्किल से 30 से 35 घंटे काम की तरफ जाने वाला है। शोध में यह भी पाया गया कि जो लोग विवाहित हैं और एक साथ रहकर एक ही स्थान पर सर्विस करते हैं। उनकी कार्यक्षमता उन लोगों से बेहतर है जो अकेले रहते हैं। महिलाओं के मामले में यह बात और भी सकारात्मक और सुरक्षात्मक पायी गयी है कि वे अकेले रहकर बेहतर काम नहीं कर पातीं। कोरोना के बाद जब अधिकांश कंपनियों ने पहले मजबूरी और बाद में अपना मुनाफा बढ़ाने को वर्क फ्राम होम की कल्चर शुरू की तो इसका भी कर्मचारियों पर बुरा असर पड़ा। इससे कर्मचारी एक तरह से 7 से 8 घंटे की बजाये 12 से 16 घंटे तक काम करने को मजबूर हो गये। इसकी वजह उनका घर से बाहर निकलना बंद होना और अकसर इंटरनेट का काम ना करना या देर रात तक कंपनी की मेल सवाल और आॅर्डर आते रहना था। इस दौरान कंपनियों ने ओवर टाइम देने का विकल्प भी लगभग बंद कर दिया। पंूजीवाद में उद्योगपतियों और  कारपोरेट की कम पैसे में अधिक काम लेने की देशभक्ति और राष्ट्रवाद के नाम पर मुनाफा कमाने की मंशा किसी से छिपी नहीं रही है। 1886 में अमेरिका के शिकागो शहर में काम के बढ़े घंटे कम करने की मांग को लेकर एतिहासिक संघर्ष होने के बाद मानवीय सामाजिक और नैतिक आधार पर कारखाने वाले नौकरी के घंटे कम करने को तैयार हुए थे। आज फिर वही पूंजीवाद राजनैतिक दलों को मोटा चंदा देकर उनके सत्ता में आने पर कई देशों में अपने हिसाब से काम के घंटे और रोज़गार की कठिन शर्ते बनवा रहा है। मज़दूरों का तो मशहूर नारा ही रहा है कि 8 घंटे काम के 8 घंटे आराम और 8 घंटे सामाजिक सरोकरा के। लेकिन आज सरकारें सत्ता में बने रहने या सत्ता में आने के लिये काॅरपोरेट की बेजा नाजायज़ और अमानवीय मांगों के सामने नतमस्तक नज़र आती हैं। हमारा देश वल्र्ड हंगर इंडैक्स में जहां लगातार उूपर जा रहा है वहीं प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से मात्र 2.65 डाॅलर आय के हिसाब से पूरी दुनिया की तो बात ही क्या जी20 के देशों में भी काफी नीचे है।

 *0 मेरे बच्चे तुम्हारे लफ्ज़ को रोटी समझते हैं,*
*ज़रा तक़रीर कर दीजे कि इनका पेट भर जाये।* 

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*