Thursday 30 November 2017

रेशम खान बनेगी चेयरपर्सन

*रेशम खां भारी अंतर से बनेंगी चेयरपर्सन!*

0 यूपी के बिजनौर ज़िले की नजीबाबाद पालिका सीट के चुनाव में सपा प्रत्याशी और निवर्तमान चेयरमैन मुअज़्ज़म खां की पत्नी सबिया निशात उर्फ़ रेशम खां भारी अंतर से चेयरपर्सन बनने जा रही हैं। उनको 20 से 22000वोट मिलने का अनुमान है। जबकि उनकी मुख्य प्रतिद्वन्द्वी मानी जा रही भाजपा प्रत्याशी ज्योति राजपूत को 4से 5000 और बसपा प्रत्याशी रिहाना परवीन को 6 से 7000 वोट मिलने की संभावना है।  

      

  नजीबाबाद। नगरपालिका सीट पर सपा और साइकिल चिन्ह की जीत चार चार बार हो चुकी है। संयोग से विगत चुनाव में सपा ने चुनाव चिन्ह पर स्थानीय निकाय चुनाव नहीं लड़े थे। लेकिन यहां से सपा के नेता मुअज़्ज़म खां चुनाव जीते थे। इससे पहले दो बार वर्तमान सपा विधायक तसलीम अहमद और एक बार नईमा यास्मीन भी साइकिल निशान पर चेयरमैन बन चुके हैं। 1988 में सबसे पहले मुअज़्ज़म खां के चाचा और ईमानदार छवि के धनी मरहूम अख़्तर खां साहब जब चुनाव जीते थे तो तब भी उनका निशान साइकिल ही था।

वे 3800 वोट के अंतर से समाजसेवी शिक्षाविद और मिलनसार पूर्व पालिका चेयरमैन स्व. नरेशचंद अग्रवाल से चुनाव जीते थे। हालांकि नगर में लोकप्रिय समाजसेवी और हिंदू मुस्लिम एकता के धनी तो स्व. अग्रवाल ही थे। लेकिन अंत में चुनाव में साम्प्रदायिक ध्ु्रावीकरण से ऐसा हुआ था। इस बार नगर में कुल मतदाता 69,344 थे। चुनाव आयोग के अनुसार 37,669 वोट पोल हुए हैं।2012 की जनगणना के अनुसार यहां मुस्लिम आबादी 74 प्रतिशत है। इसके पांच साल में और बढ़ जाने के ही आसार हैं। इस हिसाब से यहां सपा प्रत्याशी रेशम खां के पक्ष में मुस्लिम वोटों का ज़बरदस्त ध््रुावीकरण हुआ है।

हालांकि कहने को उनका मुकाबला भाजपा और बसपा प्रत्याशियों से माना जा रहा था। लेकिन चुनाव क़रीब आते आते वे अपने दोनों विरोधियों से इतना अधिक आगे निकल गयीं कि उन दोनों के वोट जोड़कर भी उनको नहीं हराया जा सकेगा। साथ ही उनकी जीत का अंतर भी इतना भारी होगा कि उनके विरोध में खड़े शेष सातोें प्रत्याशी भी मिलकर उतने वोट नहीं ले सकेंगे। उनके पति सपा नेता और निवर्तमान चेयरमैन मुअज़्ज़म खां के नगर में कराये गये कामों का तो उनको फ़ायदा मिला ही है।

साथ ही दो बार लोकप्रिय चेयरमैन और एक बार विधायक रहे वर्तमान सपा विधायक तसलीम अहमद के उनके पक्ष में खुलकर आ जाने से उनको मुस्लिम के साथ ही तसलीम की सेकुलर छवि होने से हिंदू वोट भी काफी तादाद में मिलने का लाभ मतदान के समय साफ दिखाई दिया है। मिलनसारी में खुद मुअज़्ज़म खां का रिकॉर्ड भी अच्छा रहा है। सही मायने में नजीबाबाद मेें इलेक्शन उस दिन सलेक्शन में बदल गया था। जिस दिन रेशम खां को सपा ने सिंबल दिया था। उनकी जीत तो उस दिन से ही तय मानी जा रही थी। एक दिसंबर को तो उनकी जीत का मात्र अंतर पता लगना है।

भाजपा प्रत्याशी को साम्प्रदायिक ध््राुवीकरण के बावजूद हिंदुओं का एकतरफा वोट नहीं मिल सका है। भाजपा का एक गुट उनका विरोध कर रहा था। जीएसटी और नोटबंदी से व्यापारी मतदान को काफी कम निकले। उधर बसपा प्रत्याशी को लेकर मुसलमानों में कोई समर्थन में जोश या मुअज़्ज़म खां को लेकर विरोध में कोई लहर भी नहीं थी। लेकिन कई साल से एक्टिव युवा सपा नेता फैसल को एनटाइम पर टिकट न मिलने से सपा के कुछ समर्थकों ने हाथी पर भी मुहर लगवाई है।                  

Sunday 26 November 2017

मदरसे

मदरसे आधुनिक क्यों नहीं बनते?

0 सराकर ने मदरसों में एनसीइआरटी की किताबें अनिवार्य करके बिल्कुल ठीक फै़सला किया है। अगर और बच्चो की तरह मुस्लिम बच्चे आध्ुानिक शिक्षा नहीं लेंगे तो उनका भविष्य अंधकारमय ही रहेगा।

जब भी कोई सरकार खासतौर पर भाजपा सरकार मदरसों को लेकर कोई प्रगतिशील फैसला करती है। कुछ कट्टर और संकीर्ण लोग उस पर हायतौबा मचाने लगते हैं। मुसलमानों को यह बात समझने की ज़रूरत है कि अगर सरकार मदरसों में इस्लामी तालीम के साथ ही आधुनिक शिक्षा भी देना चाहती है तो इससे खुद मुसलमानों का ही फ़ायदा है। अब वो समय नहीं रहा कि किसी मुस्लिम बच्चे को केवल दीनी तालीम देकर उसको अपनी ज़िंदगी गुज़र बसर के लिये उसके हाल पर छोड़ दिया जाये। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जो बच्चे केवल दीनी तालीम लेकर मदरसों से पढ़कर निकलते हैं।

वे या तो किसी मदरसें में ही उस्ताद बनकर दीनी तालीम दे सकते हैं या फिर उनको किसी मस्जिद में इमामत या मुअजि़्ज़न की नौकरी मिल सकती है। जिसमें वे नमाज़ पढ़ाते हैं और अज़ान दे सकते हैं। इसके अलावा उनका कोई उज्जवल भविष्य कहीं नज़र नहीं आता है। कम लोगों को पता होगा कि मदरसे और मस्जिद में इन लोगोें को मौलवी मुअज़्ज़न और उस्ताद के नाते जो वेतन मिलता है। वह बहुत मामूली होता है। जिससे खुद इनका अकेले गुज़ारा होना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में सोचने की बात यह है कि फिर इनके परिवार का पालन पोषण कैसे होगा?

मदरसों से फ़ारिग ऐसे तालिब इल्मों को किसी और मुस्लिम इदारे से भी कोई आर्थिक सहायता नहीं मिलती है। इसका नतीजा यह होता है कि ऐसे लोग लंबे समय तक अपना परिवार जोड़ने से बचते हैं। हालांकि मुस्लिम समाज के पास आर्थिक आय का बहुत बड़ा श्रोत वक्फ़ की अरबों की रूपये की जायदाद हैं। लेकिन इनमें बंदरबांट चल रही है। बताया जाता है कि वक्फ़ की देश में कुल जायदाद डीआरडीओ और रेलवे के बाद सबसे बड़ी सम्पत्ति है। इसके साथ ही मुसलमान हर साल अपनी पंूजी पर 40 हज़ार करोड़ ज़कात निकालने का दावा भी करते हैं।

लेकिन इतनी बड़ी रक़म केवल आंकड़ा ही है या वास्तव में यह पैसा किसी एक फंड में जमा भी होता है। आज तक इसका कोई अधिकृत हिसाब किताब सामने नहीं आया है। कहने का मतलब यह है कि अगर मुसलमान मदरसों का आध्ुानिकीकरण सरकार के बार बार प्रस्ताव और सहायता के बाद भी नहीं करेंगे तो वे अपने हाथ से ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे होंगे। मुस्लिम समाज के एक कट्टर वर्ग ने यह हव्वा भी फैलाया हुआ है कि सरकार मदरसों को किसी न किसी तरह से अपने नियंत्रण में लेना चाहती है। यह मात्र अफवाह और दुष्प्रचार ही अधिक है।

इसी तरह की अफवाह पोलियो की दवा को लेकर फैलाई गयी थी कि इसके पीने से मुस्लिम बच्चे सदा के लिये नपंुसक हो सकते हैं। जबकि यह भी झूठ था। सरकार की मंशा फिलहाल तो मात्र इतनी ही है कि मदरसे के बच्चे भी दीनी तालीम के साथ साथ साइंस अंग्रेज़ी और गणित की शिक्षा हासिल करें। सोचने की बात है कि इससे सरकार को क्या हासिल होना है और मुसलमानों का क्या नुकसान हो सकता है? जवाब में यही सामने आता है कि मदरसे चलाने वाले मुस्लिम समाज पर अपना वैचारिक नियंत्रण रखना चाहते हैं।

वे मदरसों की बेतहाशा आय भी छिपाना चाहते हैं। उनको आशंका है कि सरकार इस बहाने से मदरसों में हस्तक्षेप कर उनके अकूत आमदनी के ज़रिये को एक दिन ख़त्म कर सकती है। जबकि ऐसा नहीं है।

0 मज़हब को लौटा ले उसकी जगह दे दे,

तहज़ीब सलीक़े की इंसान क़रीने के ।।

Thursday 23 November 2017

पद्मावती

पदमावती का विरोध तो होना ही था?

फिल्म पद्मावती अभी सेंसर बोर्ड से पास नहीं हुयी है। सुप्रीम कोर्ट ने उस पर कोई फैसला देने से भी मना कर दिया है। यानी अभी चंद पत्रकारों के अलावा यह फिल्म किसी ने भी नहीं देखी है। फिर भी बिना देखे सुनी सुनाई बातों पर इसका विरोध बढ़ता जा रहा है।

संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती का बढ़ता विरोध और सेंसर बोर्ड का इस पर कोई फैसला लेने से बचना यह बता रहा है कि हमारे देश में कानून का नहीं भीड़ का राज हो चुका है। उधर कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाने वाली भाजपा गुजरात चुनाव में इसका राजनीतिक लाभ लेेने के लिये इस फिल्म का विरोध कर अपने हिंदू वोट बैंक को साधने में कोई शर्म नहीं महसूस कर रही है। भाजपा के दो मुख्यमंत्री भी इस जलती आग में हाथ सेंकने को खुलकर राजपूतों के आंदोलन के पक्ष में बयान दे चुके हैं। करनी सेना भी शिवसेना और मनसे की तरह इस फिल्म के रिलीज़ होने पर कानून हाथ में लेने की खुलेआम धमकी दे रही है।

लेकिन यही काम अगर अल्पसंख्यक या दलित करते तो भाजपा सरकारों का रूख़ अलग होता। क्षेत्रीय दलों की जातिवाद की निर्लज राजनीति के बाद अब धर्म और सम्प्रदाय की घातक राजनीति करने में भाजपा को तनिक भी लोक लाज का ख़याल नहीं आ रहा है। अगर आप गहराई से देखें तो यह भाजपा का ही सोचा समझा खेल रहा है कि चाहे सत्ता की हो चाहे संगठन की हो या फिर चाहे भीड़ की हो अगर आपके पास किसी भी तरह की शक्ति है तो आप कुछ भी कर सकते हैं। कानून आपका कुछ नहीं बिगाड़ेगा। बाबरी मस्जिद के ढहाने से लेकर गुजरात के दंगों तक यह साफ समझा जा सकता है कि इस सबसे किस दल को वोटों का लाभ हुआ है?

लेकिन ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि सत्ता में आने तक तो इन हथकंडों का नाजायज़ लाभ उठाया जा सकता है। लेकिन सरकार बनने के बाद आपके हाथ कानून और संविधान से बंध जाते हैं। अगर आप भीड़ को अपने राजनीतिक लाभ के लिये कानून हाथ में लेने को उकसायेंगे या उनको अराजकता फैलाने देंगे तो आप विपक्ष में रहकर तो बच भी जायेंगे और सरकार को उसकी नालायकी या बल प्रयोग करने पर उसको अत्याचारी बताकर अपने वोट भी बढ़ा सकते हैं। लेकिन जब आप खुद सत्ता में आ जाते हैं तो यह सब फंडे उल्टा असर दिखाने लगते हैं।

गुर्जर आंदोलन जाट आरक्षण और बाबा राम रहीम के मामले में हरियाणा में भाजपा सरकार की इस तरह की हरकतों को लेकर पहले ही काफी किरकिरी हो चुकी है। लेकिन इतनी फज़ीहत जनधन का नुकसान और हाईकोर्ट से डांट खाने के बावजूद भी न तो हरियाणा की और न ही भाजपा की किसी और राज्य सरकार ने कोई सबक सीखा है। कहने का मतलब यह है कि पद्मावती को लेकर जो कुछ हो रहा है। वह सामान्य मामला नहीं है। भाजपा की केंद्र में भी सरकार है। उस राज्य में भी उसकी ही सरकार है जहां पद्मावती को लेकर हंगामा हो रहा है।

सवाल यह है कि मुसलमानों से घृणा और भय की राजनीति करते करते क्या भाजपा अब हिंदुओं केे उस उदार सहिष्णु और तार्किक वर्ग को भी कट्टर हिंदुओं के बल पर डरा धमकाकर चुप होने को मजबूर करेगी जो उसकी हिंदूवादी नीतियों से कभी सहमत नहीं रहा है। अगर ऐसा होता है तो जानकारों की यह आशंका सही साबित होगी कि साम्प्रदायिकता तानाशाही और नफ़रत अपने आत्मघाती कामों से खुद ही अपनी कब्र खोदती रहती है। एक दिन आता है जब वह उसमेें दफ़न हो जाती है।

मुझे क्या ग़रज़ है तेरी हस्ती मिटाने की,

तेरे आमाल काफी हैं तेरी तबाही के लिये।

Tuesday 14 November 2017

बंगलादेशी हिन्दू

बंगलादेशी हिंदुओं पर जु़ल्म क्यों ?

भारत में अल्पसंख्यकों पर कभी भी कहीं भी हमला होने पर खुद बहुसंख्यक समाज का मानवतावादी एक बड़ा वर्ग इसके खिलाफ मुखर रहता है लेकिन जब ऐसा ही कोई हमला बंगलादेश के अल्पसंख्यक हिंदुओं पर होता है तो वहां का बहुसंख्यक और हमारे यहां का अल्पसंख्यक वर्ग चुप्पी साध लेता है।  

       

   बंगलादेश की राजधानी ढाका से करीब300 किलोमीटर दूर रंगपुर ज़िले के ठाकुरपाड़ा गांव में पिछले दिनों वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों की भीड़ ने अचानक अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हमला कर उनके दो दर्जन से अधिक घर देखते ही देखते आग के हवाले कर दिये। ख़बर है कि गांव में यह चर्चा फैली थी कि एक हिंदू युवक ने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर इस्लाम के खिलाफ कोई आपत्तिजनक पोस्ट की है। बताया जाता है कि इस चर्चा से ठाकुरपाड़ा गांव के आसपास के करीब आधा दर्जन से अधिक गांवों के 20हज़ार से अधिक मुसलमानों की भीड़ ने उत्तेजित होकर हिंदू बस्ती पर धावा बोल दिया।

हालांकि हिंसा की ख़बर मिलने पर तत्काल वहां की पुलिस ने मौके पर पहंुचकर हमलावर भीड़ को काबू करने के लिये फायरिंग और गिरफतारी की कार्यवाही की। लेकिन तब तक दंगाई हिंदू इलाके में लूटपाट कर 30 से अधिक मकानों को आग के हवाले कर चुके थे। सवाल यह है कि ऐसी कैसी धार्मिक भावनायें हैं जो मात्र इस चर्चा पर भड़ककर लोगों को पागल कर देती हैं कि शायद ऐसा हुआ है। शायद ऐसा किसी अल्पसंख्यक युवक ने किया है। ऐसे ही हमले आयेदिन पाकिस्तान मेें ईशनिंदा के आरोप में वहां के अल्पसंख्यक हिंदुओं और ईसाइयों के साथ ही खुद मुसलमानों के उन अल्पसंख्यक वर्गों पर होते हैं।

जो सुन्नी या मुख्य धारा के नहीं माने जाते। इसी तरह हमारे देश में गोहत्या के बहाने आये दिन अल्पसंख्यकों को गाहे ब गाहे निशाना बनाया जाता है। सवाल यह है कि यह कैसी धार्मिक शिक्षा है जो लोगों को बिना किसी ख़बर की पुष्टि किये बिना पुलिस को सूचित किये काूनन अपने हाथ में लेकर बेकसूर और मासूम इंसानों को पीटने जलाने और उनको मौत के घाट उतारने की इजाज़त देती हैजो लोग भारत में अल्पसंख्यकों के साथ ऐसी सुनियोजित हिंसा होने पर आसमान सर पर उठा लेते हैं। वो बंगलादेश और पाकिस्तान सहित दुनिया के दूसरे मुल्कों में ऐसी ही हिंसक घटनायें वहां के अल्पसंख्यकों के साथ होने पर यहां अपराधिक चुप्पी क्यों साध लेते हैं?

हमारा मानना है कि इंसान तो इंसान होता है। उस पर दुनिया के किसी मुल्क में किसी भी आधार पर पक्षपात और हमला होता है तो हम सबको मानवता के नाते उसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिये। अकसर यह देखने में आता है कि जिस धर्म के लोगों के साथ ऐसी दुखद और निंदनीय हिंसक वारदातें होती हैं। केवल उसी वर्ग के लोग इस हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं। इसका मतलब तो यह है कि धर्म के नाम पर जिस आपसी भाईचारे और वसुधैव कुटुंबकम का हम लोग दावा करते हैं। वह केवल दिखावे की बात है।

ऐसे ही मुसलमान दावा करते हैं कि अगर आपने एक भी बेकसूर इंसान का खून बहाया तो मान लीजिये आपने पूरी इंसानियत का क़त्ल कर दिया। लेकिन व्यवहार में मुसलमान दुनिया के किसी भी कोने में केवल मुसलमानों पर होने वाले जुल्म और हमले के खिलाफ तो सड़कों पर उतरते हैं। लेकिन कभी गैर मुस्लिमों की हत्या की प्रदर्शन कर निंदा नहीं करते। अब समय आ गया है कि सभी मज़हब के ठेकेदारों से यह सवाल पूछा जाये कि जब आपका मज़हब आपको इस तरह का खून खराबा करने की इजाज़त देता ही नहीं तो आप किससे दलाली खाकर या सियासी नेता के बहकाने पर पागल होकर यह अधर्म करते हैं।

साथ ही यह जवाब भी इन कट्टर धार्मिक भेड़ियों से तलब किया जाना चाहिये कि क्यों न धर्म विरोधी निर्लज आचरण के लिये उनको उनके मज़हब से बाहर कर दिया जाना चाहिये?               

मज़हब को लौटा ले उसकी जगह दे दे,  तहज़ीब सलीक़े की इंसान क़रीने के।।

Sunday 12 November 2017

इशरत जहां को सलाम करो

                   

*इशरत नायिका है विलेन नहीं!*

0 तीन तलाक़ के खिलाफ़ हिम्मत लगन औरसब्र के साथ सुप्रीम कोर्ट में लड़ने वाली पांचमुस्लिम महिलाओं में से एक इशरत जहां कोनायिका की तरह सम्मान देने की बजाये उनकेही समाज में ज़लील और परेशान किया जा रहाहै। 

       

   ईसा मसीह को जब सलीब पर लटकाया जारहा था। तो उन्होंने दुआ की थी कि खुदा इननादान बंदों को माफ कर देना क्योंकि ये नहींजानते कि यह क्या अनर्थ कर रहे हैं। ईसा मसीहतो ख़ैर एक पैगंबर थे। लेकिन एक साथ तीनतलाक के खिलाफ अपनी गरीबी कमज़ोरी औरपरेशानी के बावजूद सुप्रीम कोर्ट में लड़ने वालीपश्चिमी बंगाल के हावड़ा की रहने वाली इशरतजहां को भी शायद फैसला अपने पक्ष में आने केबावजूद नहीं पता होगा कि उनको उनका हीमुस्लिम समाज जिसमें औरतें भी शामिल होंगी,उनको एक नेक काम के लिये नायिका की तरहसम्मान और पुरस्कार न देकर उनको परेशानऔर बहिष्कार करेगा।

हालांकि फैसला आते ही कुछ कट्टरपंथियांे नेतभी दबी जुबान में कह दिया था कि जो औरतेंइस्लाम के हिसाब से ही चलेंगी वो तो एक साथतीन तलाक को ही मानेंगी। एक सीनियरमुस्लिम वकील ने एक अजीब सवाल उठा दियाथा कि जो पत्नियां सुप्रीम कोर्ट के स्टे के बादभी इंस्टंेट ट्रिपल तलाक कबूल कर अपने पतिसे अलग होने को तैयार हो जायेेंगी तो उनकाक्या होगा? यह ठीक ऐसा ही कुतर्क था जैसेकोई मालूम करे कि घरेलू हिंसा कानून होने केबावजूद अगर कोई महिला अपने पति से घर मेंचुपचाप पिटती रहे और थाने में शिकायत न करेतो उनका क्या होगा? अरे भाई जब कानून नहींथा। तब कोई पत्नी पिटकर भी शिकायत नहींकर सकती थी।

जब कानून बन गया तो जो घरेलू हिंसा कीशिकायत पुलिस से करेगा उस पर कानून अपनाकाम करेगा। मिसाल के तौर पर यूपी के मेरठज़िले के सरधना कस्बे में एक मुस्लिम पति नेभरी पंचायत में ही कुछ मौलानाओं के बयानों सेभ्रमित होकर अपनी पत्नी को सुप्रीम कोर्ट केरोक लगाने के बावजूद तीन तलाक एक साथदिये तो शिकायत होने पर पुलिस ने उसकोसुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ चलने परतत्काल गिरफतार कर जेल भेज दिया। साथ हीउसका उसकी पत्नी से रिश्ता ख़त्म भी नहींमाना जायेगा। इसके साथ ही उसे जेल से वापसआकर अपनी पत्नी के साथ बिना हलाला करायेऔर बिना दुबारा निकाह किये रहने से भीकानूनन नहीं रोका जा सकेगा।

दरअसल हमारा समाज पुरूष प्रधान होने केसाथ ही कट्टर नासमझ नादान दकियानूसीअंधविश्वासी आस्थानवान धर्मभीरू औरपरंपरावादी भी है। इसका नतीजा यह होता हैकि चंद मौलाना संत और बाबा ओझा समाजको जैसे चाहे वैसे हांक लेते हैं। हैरत और दुखकी बात यह है कि जिस इशरत जहां को इसबात का श्रेय दिया जाना चाहिये था कि उसनेमुस्लिम समाज की लाखों तीन तलाक़ पीड़ितमहिलाओं के हक़ की लड़ाई अपने खर्च अपनेसमय और अपनी बहादुरी से लड़कर पूरे महिलावर्ग को एक राहत खुशहाली और उनका सदियोंसे मारा जा रहा हक़ दिलाया है। उसको इस्लामविरोधी मुस्लिम समाज की दुश्मन और काफ़िरोंके हाथ में खेलने वाली संघ परिवार की एजेंटबताकर उल्टे सामाजिक बहिष्कार किया जा रहाहै।

ऐसा ही हमारे निष्पक्ष बेबाक और मानवीयआधार पर लेख ब्लॉग लिखने एवं बोलने परअकसर मुस्लिम समाज के कट्टरपंथी नाराज़ होजाते हैं। कुछ कुफ्र के फ़तवे का डर दिखाते हैंतो कुछ तरह तरह से नुकसान पहंुचाने कीधमकी भी देते हैं। हालांकि हम पर तो इनहरकतों का कोई असर पड़ता नहीं लेकिन इशरतजहां जैसी पीड़ित ज़रूर टेंशन मेें होगी।

0 ये लोग पांव नहीं जे़हन से अपाहिज हैं,

  उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाताहै।                     

Saturday 11 November 2017

स्मॉग

दिल्ली में स्मॉग है कहां?

दिल्ली को दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी बताकर ‘बदनाम’ किया जा रहा है। मोदी सरकार को चाहिये ऐसा‘प्रोपेगंडा’ करने वालों के खिलाफ‘देशद्रोह’ की कार्यवाही करे। हम इस मामले में मोदीभक्तों के साथ हैं। यह नाकाम विपक्ष की ‘साज़िष’ लगती है।

हज़ार बार बता दिया कि विकास के सामने आजकल प्रदूषण कोई मुद्दा नहीं है। इतने बड़े बड़े बांध बन गये। कहीं प्रदूषण से कोई समस्या खड़ी हुयी। लेकिन ये कथित बुध््िदजीवी बार बार न जाने कहां से दिल्ली के स्मॉग को हर साल ही बड़ा मुद्दा बनाने पर तुले हैं। दूसरी तरफ पता नहीं मीडिया को क्या हो गया है? अच्छा खासा अब तक राष्ट्रहित में हर मुद्दे पर मोदी सरकार का आंख बंद कर साथ दे रहा था। लेकिन अचानक भटक गया है। पिं्रट के साथ ही इलैक्ट्रॉनिक मीडिया कुछ ज़्यादा ही स्मॉग को लेकर चिल्ला रहा है। अरे भाई अगर यह इतनी बड़ी प्रॉब्लम होती तो सरकार इसके लिये अब तक ज़रूर कुछ बड़े फैसले कर चुकी होती।

हर साल कई साल से इन दिनों दो चार दिन के लिये दिल्ली में स्मॉग आता ही है। कोई पहली बार तो आया नहीं है। जो दिल्लीवासी इतना घबरा रहे हैं । अब देखिये ना बिहार और असम में हर साल कई दिनों तक बाढ़ आती है तो आती है। वो तो हर साल आयेगी न? इसमें सरकार क्या कर सकती है?कुछ आपदायेें भगवान भरोसे भी छोड़ दिया करो। अब दिल्ली में जब सर्दी दस्तक देती है तो उसके पीछे पीछे कोहरा भी आता ही है। अब ऐसा तो हो नहीें सकता कि सर्दी आये और कोहरा ना आये। ऐसे ही हर साल इन दिनों सर्दी की शुरूआत के साथ ही स्मॉग भी आने लगा है।

अरे भाई दिल्ली में पूरे भारत से लोग आते हैं तो किसी को कभी कोई प्रॉब्लम नहीं होती तो स्मॉग भी आ गया। अब ऐसा तो है नहीं कि दिल्ली इसी स्मॉग की वजह से सांस नहीं ले पा रही। दिल्ली में पहले ही इतने वाहन हैं कि उनकी वजह से प्रदूषण हो ही रहा है। साथ साथ हर दिन नये वाहन सड़कों पर आते जा रहे हैं। उनको सरकार लोकतंत्र में कैसे रोक सकती है? दिल्ली में इंडस्ट्री भी बड़े पैमाने पर लगी हुयी हैं। उनमें बड़ी तादाद में लोगों को रोज़गार भी मिला हुआ है। इस तरह से अगर इंडस्ट्रीज़ की चिमनियों से धुआं निकल रहा है तो सरकार क्या करे?

अब यह तो संभव नहीं कि आप गुड़ खायें और गुलगुलों से परहेज़ भी करें। ऐसे ही दिल्ली में विकास होगा तो निर्माण भी होगा। और जब निर्माण होगा तो ध्ूाल भी उड़ेगी। इसमें सरकार क्या कर सकती है? अब इस‘मामूली नुकसान’ यानी प्रदूषण की वजह से दिल्ली का विकास तो रोका नहीं जा सकता। ऐसे ही दिल्ली में जो वाहन चल रहे है। बताया जाता है कि उनमें से जो वाहन डीज़ल से चलते हैं। उनसे अधिक प्रदूषण होता है। अब इनमें जो बसें या ट्रक हैं। उनके बारे में तो सोचा जा सकता है। लेकिन जो अत्यधिक ‘गरीब’ लोग डीजल से चलने वाली 50 लाख तक की ‘सस्ती’कारें जैसे तैसे अपना पेट काटकर खरीद रहे हैं।

उनको सरकार किस मंुह से रोक सकती है? ऐसे ही पड़ौस के राज्यों पंजाब और हरियाणा में किसान पराली जलाते हैं। बताया जाता है कि उसका ध्ुाआं दिल्ली व एनसीआर में हर साल स्मॉग बनकर कई दिन तक के लिये ठहर जाता है। यह मामला भी काफी नाजुक है। एक तो देशभर का किसान पहले ही आर्थिक तंगी से अपनी जान दे रहा है। अब उसको पराली भी ना जलाने दी जाये तो वह और नाराज़ हो जायेगा। इस समय सरकार का सारा फोकस उन व्यापारियों पर है। जो जीएसटी की वजह से ख़फ़ा है। पराली पर किसानों से फिर किसी साल निबटेंगे।

दिल्ली सरकार कहती है कि यह केंद्र सरकार का काम है। केंद्र सरकार कहती है कि नहीं यह पड़ौस के राज्यों की कानून व्यवस्था का सवाल है। एनजीटी कहती है कि प्रदूषण रोको चाहे जो करना पड़े। सुप्रीम कोर्ट कहता है कि पता लगाओ यह किसका काम है। हम समझते हैं कि दो चार दशक में पता लग ही जायेगा।

0खुदा के हाथ मत सौंप सारे कामों को,

बदलते वक़्त पे कुछ इख़्तियार भी रख।।