Tuesday 24 May 2022

देशद्रोह क्या है?

*देशद्रोह राजद्रोह दलद्रोह सरकार द्रोह या जनद्रोह सच क्या है?

0सेडिशन यानी देशद्रोह कानून भारतीय दंड संहिता 1860 में बनकर जब लागू हुयी तब बना था। लेकिन आईपीसी की धारा 124 ए सही मायने में राजद्रोह थी देशद्रोह नहीं। वजह यह है कि यह राजा जाॅर्ज पंचम के लिये बनाया गया था। उस समय भारत गुलाम था। अंग्रेज़ों ने बड़ी चालाकी से अपनी राजशाही के विरोध को देशद्रोह के नाम पर कुचलने को इसे आज़ादी की मांग करने वाले भारतीयों को दबाने के लिये बेशर्मी और बेदर्दी से इस्तेमाल किया। 1947 में देश आज़ाद होने के बाद इस जनविरोधी कानूनी की कोई ज़रूरत नहीं थी। लेकिन पहले कांग्रेस फिर जनता पार्टी और आज भाजपा ने इसे अपने विरोधियों से निबटने के लिये बनाये रखने में अपना राजनीतिक लाभ देखा। अब सुप्रीम कोर्ट ने इसपर रोक लगा कर जनता के पक्ष में ऐतिहासिक फैसला किया है।      
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
        सुप्रीम कोर्ट ने देशद्रोह कानून के अमल पर तत्काल प्रभाव से अंतिम निर्णय आने तक रोक लगा दी है। जिससे पहले दर्ज ऐसे सभी मामलों पर आगे कार्यवाही नहीं होगी और इन कानून के तहत नये मामले दर्ज नहीं होंगे। आज़ादी का अमृत उत्सव वर्ष मना रही मोदी सरकार इसे जैसा का तैसा बनाये रखने या इसमें संशोधन कर प्रयोग करने पर सुनवाई के दौरान कोई स्पश्ट पक्ष रखने से बचती रही। गृहमंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2014 से 2019 तक देशद्रोह के आरोप में कुल 326 मामले दर्ज किये गये। इनमें से मात्र 6 लोग दोषी साबित हो सके। हैरत की बात यह है कि सबसे अधिक असम में 54 मामले झारखंड में 40 हरियाणा में 31 बिहार केरल व कश्मीर में 25-25 केस दर्ज किये गये। कर्नाटक में 22 यूपी में 7 बंगाल में 8 और दिल्ली में 4 व महाराष्ट्र पंजाब व उत्तराखंड में एक एक मुकदमा देशद्रोह के आरोप में दर्ज किया गया। सबसे पहले यह समझने की ज़रूरत है कि देशद्रोह क्या है? क्या देशद्रोह व राजद्रोह एक ही चीज़ है? क्या किसी सरकार का विरोध करना या सत्ता में बैठे दल का विरोध करना देशद्रोह माना जा सकता है? क्या जनद्रोह देशद्रोह से भी बड़ा अपराध नहीं है? आपको याद होगा कांग्रेस ने कभी भी अपने राज में इस जनविरोध्ी कानून को बदलने या खत्म करने का इरादा या कोशिश नहीं की। वजह सत्ता में रहकर हर दल काफी हद तक बेलगाम होकर अपने विरोधियों को दबाकर डराकर या धमकाकर चुप रखना चाहता है। इसका प्रमाण यह भी है कि देशद्रोह कानून हटाना तो दूर कांग्रेस ने अपने कई दशक के एकछत्र राज में उल्टे मीसा रासुका यूएपीए टाडा और पोटा   जैसे कानून बनाये। इसमें कोई दो राय नहीं आतंकवाद नक्सलवाद माफिया गैंगेस्टर और समाज विरोधी अपराधी प्रवृत्ति के बदमाशों को सज़ा दिलाने को कुछ सख़्त कानूनों की ज़रूरत सभी सरकारों को होती है। लेकिन इन कानूनों की आड़ में अपने राजनीतिक विरोधियों पत्रकारों समाजसेवियों इंटलैक्चुअल एनजीओ और निष्पक्ष व मानव अधिकार संगठनों को निशाने पर लेकर फर्जी मामले दर्ज कर उनको ज़मानत ना देकर लंबे समय तक बिना अपराध साबित किये जेल में रखना संविधान विरोध्ी कानून विरोधी और लोकतंत्र विरोधी माना जाता है। यह बात सही है कि कुछ संगीन मामलों में अपराधियों को जेल में रखना ज़रूरी होता है। उनको ज़मानत इसलिये भी नहीं दी जाती जिससे वे बाहर आकर सबूतों से छेड़छाड़ गवाहों पर हमला या कोई नया अपराध ना कर बैठें। लेकिन हमारी सरकारों की ऐसी मंशा नहीं रहती। अकसर यह देखा जा रहा है कि सरकारें अपने दल के नेताओें व समर्थकों को तो बड़े से बड़ा अपराध करने पर भी बचाती हैं जबकि विरोधी दल के कार्यकर्ताओं व निष्पक्ष व सेकुलर लोगों को सत्ताधरी दल के जनविरोधी कामों का विरोध शांतिपूर्वक लोकतांत्रिक तरीके से करने पर भी फर्जी मुकदमों में फंसाकर उनकी ज़मानत का भी लंबे समय तक विरोध करती रहती हैं। इससे अभिव्यक्ति की आज़ादी से लेकर सच की लड़ाई लड़ने वाले पत्रकार स्पश्टवादी लेखक मानवधिकारवादी और समाज के वे सब लोग सरकार के निशाने पर रहते हैं जो उसके जनविरोधी फैसलों का खुलकर विरोध करते हैं। इसी लिये सबसे बड़ी अदालत ने देशद्रोह कानून पर रोक लगाई है। सबसे बड़ी अदालत में सुनवाई के दौरान पहले सरकार ने कहा कि देशद्रोह कानून सही है। सरकार उसको खत्म करने का विरोध करेगी। दरअसल 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने जब अपने घोषणापत्र में यह वादा किया कि वह अगर सत्ता में आई तो इस कानून को खत्म कर देगी तो मोदी ने कांग्रेस को इस पर जमकर कोसा था कि वह टुकड़े टुकड़े गैंग के पक्ष में ऐसा करना चाहती है। लेकिन जब मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का कड़ा रूख़ देखकर यह समझ लिया कि वह इस कानून को हर हाल में खत्म करके ही दम लेगा तो उसने यू टर्न लेते हुए इस पर पुनर्विचार को तैयार होने का दावा किया। इसका कारण यह बताया गया कि मोदी नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष में हैं। सवाल यह है कि अचानक मोदी सरकार को ऐसा क्यों लगने लगा कि यह कानून हटना चाहिये? सच यह है कि सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या फिर भाजपा व अन्य दलों की। वे विपक्ष में रहकर तो ऐसे कानूनों को जनविरोधी लोकतंत्र विरोधी और अभिव्यक्ति के खिलाफ बताते हैं। लेकिन जब खुद सत्ता में आ जाते हैं तो ना केवल ऐसे कानूनों की पैरवी करते हैं, जमकर अपने विरोधियों के खिलाफ इन कानूनों का गलत इस्तेमाल करते हैं बल्कि पहले से मौजूद ऐसे कानूनों को और अधिक सख़्त डरावना बनाकर मनमाना इस्तेमाल करके बिना अपराध साबित किये विपक्ष निष्पक्ष धर्मनिर्पेक्ष जनवादी संघर्षशील मानव अधिकार संगठन के प्रगतिशील कार्यकर्ताओं आरटीआई एक्टिविस्टों लेखकों पत्रकारों व साहित्यकारों को सरकार के गलत फैसलों का विरोध करने आंदोलन करने या किसी भी प्रकार से जनता को जागरूक करने पर इन कानूनों के तहत जेल भेजकर उनकी ज़मानत कई कई साल तक ना होने देकर अन्य सरकार विरोधियों को एक तरह से संदेश दिया जाता है कि वे भी इसी तरह से जेल भेजे जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसीलिये यह रोक लगाई है। यह तय होना ही चाहिये कि सरकार का विरोध सत्ताधारी दल का विरोध या किसी पद पर बैठे बड़े से बड़े व्यक्ति के संविधान विरोधी फैसलों का लोकतांत्रिक शांतिपूर्ण विरोध देशद्रोह नहीं होता है।

 *नोट-लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

Monday 16 May 2022

घटेगी अब आबादी....

*अच्छे दिन: अब हमारी आबादी घटनी शुरू हो जायेगी?* 
0राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पांचवे सर्वे के अनुसार देश की प्रजनन दर 2 पर आ गयी है। किसी देश के वर्तमान जनसंख्या स्तर को जैसा का तैसा बनाये रखने के लिये टीएफआर यानी टोटल फर्टिलिटी रेट 2.1 होना चाहिये। हालांकि यह दर पांच राज्यों बिहार में 2.98 मेघालय में 2.91 यूपी में 2.35 झारखंड में 2.26 और मणिपुर में 2.17 अभी भी प्रतिस्थापन दर से कुछ अधिक बनी हुयी है। लेकिन संतोष की बात यह है कि देश के कुल 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों में से मात्र पांच में ही यह स्थिति है। इसका मतलब यह है कि देश का टीएफआर 2 यानी रिप्लेसमेंट लेवल से भी नीचे पहुंच गया है। इस सर्वे से इस झूठ की पोल खुलती है कि देश में एक वर्ग विशेष की आबादी इतनी तेज़ी से बढ़ रही है कि वह बहुसंख्यक हो जायेगा?    
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
      नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के अंतर्गत किया जाता है। एनएफएचएस-5 में 6 लाख 37000 परिवारों को शामिल किया गया है। इसमें देश के सभी 28 राज्यों एवं 8 केंद्र शासित प्रदेशों के 707 जि़लों को शामिल किया गया है। सर्वे से पता चलता है कि देश के 67 प्रतिशत परिवार गर्भनिरोधक साधन अपना रहे हैं। पहले यह संख्या 54 प्रतिशत थी। हालांकि अभी भी देश के 9 प्रतिशत परिवारों तक गर्भनिरोधक साधन नहीं पहुंच पाये हैं। इनमें 11.4 प्रतिशत परिवार बेहद गरीब तो 8.6 प्रतिशत उच्च श्रेणी के हैं। आधुनिक गर्भनिरोधकों के प्रयोग के लेकर भी यह असमानता सामने आती है। निम्न आय वर्ग में इनका इस्तेमाल करने वाले 50.7 प्रतिशत तो उच्च आय वर्ग में 58.7 प्रतिशत हैं। यही उपयोग का अंतर कामकाजी महिलाओं में जहां 66.3 प्रतिशत है तो बेरोज़गार महिलाओं में 53.4 प्रतिशत है। गर्भनिरोधक प्रयोग करने व अन्य साधन परिवार नियोजन के लिये अपनाने में धर्म से अधिक शिक्षा की भूमिका पहले भी सामने आती रही है। इस बार के एनएफएसएच सर्वे के अनुसार 64.7 प्रतिशत सिख 35.9 प्रतिशत हिंदू और 31.9 प्रतिशत मुस्लिम पुरूष गर्भनिरोधक साधनों का इस्तेमाल करना महिलाओं का काम बताते हैं। इस सर्वे में जो टीएफआर यानी प्रजनन दर 2.0 तक पहंुच गयी है वह 2018 के सर्वे में 2.2 थी। टीएफआर उस दर को कहते हैं जिसमें एक महिला अपने पूरे जीवन में जितने बच्चो को जन्म देती है। हालांकि इस सर्वे के विस्तार से आंकड़े अभी सामने नहीं आये हैं। लेकिन अगर जाति धर्म और क्षेत्र के हिसाब से देखा जाये तो पिछले सर्वे की तरह इस सर्वे में भी यही आभास मिलता है कि परिवार नियोजन अपनाने या आबादी बढ़ाने का रिश्ता सबसे अधिक शिक्षा और सम्पन्नता से है। यह विडंबना ही है कि आज देश में जिस तरह की आर्थिक नीतियां अपनाई जा रही हैं। उनसे चंद अमीर और अधिक अमीर बनते जा रहे हैं। वहीं गरीब और अधिक गरीब होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं देश में कोरोना अविवेकपूर्ण लाॅकडाउन नोटबंदी और जीएसटी से इतनी अधिक बेरोज़गारी बढ़ी है कि दो करोड़ से अधिक परिवार गरीबी रेखा से नीचे चले गये हैं। बड़ी संख्या में लोगों की आय घट गयी है। जिनकी आय नहीं भी घटी है। उनको दिन ब दिन बढ़ती महंगाई की वजह से उतनी ही आय में गुज़ारा करना मुश्किल हो रहा है। हालांकि परिवार नियोजन के सस्ते और सरकार के स्तर पर निशुल्क साधन भी उपलब्ध् कराये जाते हैं। लेकिन अगर गुणवत्ता और उपलब्ध्ता के आधार पर देखें तो परिवार नियोजन ही नहीं जीवन के हर मामले में सम्पन्न और विपन्न नागरिक के लिये अलग अलग स्तर है। इतना ही नहीं जो लोग एक वर्ग विशेष का आर्थिक बहिष्कार और सामूहिक नरसंहार का खुलेआम गैर कानूनी आव्हान आयेदिन करते रहते हैं। वे साथ साथ यह झूठ भी फैलाते रहते हैं कि इस वर्ग विशेष की आबादी इतनी तेज़ी से बढ़ रही है कि ये आने वाले कुछ दशक मंे बहुसंख्यक हो जायेंगे। इस मामले में कुछ राज्य सरकारें दो बच्चो का कानून पहले ही बना चुकी हैं। अगर हम राज्य अनुसार देखें तो देश में सबसे कम प्रजनन दर केरल और कश्मीर में है। कश्मीर मुस्लिम बहुल है। साथ ही केरल में हिंदू मुस्लिम और ईसाई लगभग समान संख्या में हैं। इसका मतलब साफ है कि आबादी बढ़ने या परिवार नियोजन का सीधा संबंध धर्म या जाति से नहीं बल्कि शिक्षा और सम्पन्नता से है। लेकिन सच यह है कि यह कटु सत्य उन चंद साम्प्रदायिक राजनीतिक और धर्मांध लोगों को फूटी आंख नहीं सुहाता जो अपने वोटबैंक को गुमराह कर डराकर और झूठ फैलाकर बार बार भावनात्मक मुद्दों पर चुनाव जीतकर सत्ता का सुख लूट रहे हैं। ऐसे ही आबादी की जब भी बात आती है। एक और झूठ बार बार बोला जाता है कि देश का एक वर्ग चार चार शादियां और 25 बच्चे पैदा कर रहा है। लेकिन आज तक किसी भी विश्वस्त सरकारी और अधिकृत सर्वे में इस तथ्य की पुष्टि नहीं हो सकी है। आंकड़े बताते हैं कि सबसे अधिक बहुविवाह आदिवासी जैन और हिंदू पुरूष कर रहे हैं। ऐसे ही इस झूठ को एक और तथ्य से जांचा जा सकता है कि जब सभी वर्गों में ही 1000 पुरूषों की पीछे 954 महिलायें पैदा हो रही हैं तो किसी भी समाज वर्ग धर्म या क्षेत्र का भारतीय अगर एक से अधिक शादी करेगा तो शेष पुरूष उसी समाज की किस महिला से शादी कर पायेंगे? यहां तो एक पुरूष को एक महिला उपलब्ध होना ही संभव नहीं है तो एक से अधिक शादी करने पर अतिरिक्त महिलायें कहां से आयेंगी? क्या वर्ग विशेष का हर पुरूष एक महिला अपने समाज की और तीन दूसरे समाज से लाकर शादी कर रहा है? यदि ऐसा होता तो दूसरे समाज में हर चार में से तीन पुरूष ना सही कम से कम हर दूसरा पुरूष तो बिना शादी के रह जाता? लेकिन ऐसा करना भी एक तरफा तो संभव नहीं हो पाता। दूसरे तथाकथित लवजेहाद के खिलाफ कानून बनने से अब तो यह लगभग नामुमकिन सा ही हो गया है। यह भी सोचने की बात है कि अगर एक वर्ग ऐसा करेगा तो दूसरा वर्ग भी करेगा ही। ऐसे में आप सच और दुष्प्रचार में अंतर देख सकते हैं।
           *0लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर और नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*