Saturday 27 November 2021

संविधान दिवस

सरकार बनाम विपक्ष: संविधान दिवस मनाते हैं मानते कहां है ?

0 26 नवंबर को सरकार ने औपचारिता पूरी करने के लिये संविधान दिवस मनाया। इस प्रोग्राम का लगभग सभी 15 विरोधी दलों ने बहिष्कार किया। उनका आरोप था कि सरकार संविधान पर अमल नहीं कर रही हैै। उधर पीएम मोदी ने जवाबी आरोप लगाया कि परिवारवादी दल संविधान के लिये ख़तरा हैं। सच तो यह है कि सरकार हो या विपक्ष संविधान की कसौटी पर कोई भी पूरी तरह से खरा नहीं उतर रहे हैं। यह ठीक है कि जब कांग्रेस और विपक्षी दल सत्ता में रहे तब भी संविधान पूरी तरह से लागू नहीं हुआ लेकिन अगर फेसलांे व कानूनों के हिसाब से देखें तो मोदी सरकार ने तो खुद संविधान विरोधी काम करने का रिकाॅर्ड तोड़ दिया है।

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       संविधान दिवस पर पीएम मोदी ने बिना विपक्षी दलों का नाम लिये कहा है कि जिन दलों में लोकतंत्र नहीं है वे राष्ट्र को सर्वोपरि मानकर संविधान का एक पेज भी नहीं लिख सकते। मोदी ने इशारों में खासतौर पर कांग्रेस पर हमला करते हुए कहा कि जो दल परिवारवाद पर चल रहे हैं। उनसे संविधान की भावना पर चलने की कैसे आशा की जा सकती है? इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे देश के लगभग सभी दलों में लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव और अन्य महत्वपूर्ण निर्णय नहीं होते। लेकिन यह भी सच है कि संविधान और लोकतंत्र की अव्हेलना करने मंे भाजपा आज सबसे आगे निकल चुकी है। सवाल यह भी है कि राजनीतिक दल परिवारवाद और लोकतंत्र का विरोध करते हुए मनमाने ढंग से चलकर भी कैसे सत्ता में आ जाते हैं? उनको बहुमत से चुनकर सत्ता में लाने वाली जनता का संविधान उसके मूल्यों और लोकतंत्र में कितना विश्वास है? सबसे पहले बात कांग्रेस की करते हैं। देश आज़ाद होने के बाद नेहरू के पहला पीएम बनने से लेकर उनकी पुत्री इंदिरा गांधी के सत्ता और कांग्रेस की बागडोर संभालने तक सरकार और कांग्रेस में काफी हद तक लोकतंत्र था। इसका प्रमाण यह है कि नेहरू ने तत्कालीन जनसंघ वामपंथी और अपने धुर विरोधियों को भी देशहित में अपने मंत्रिमंडल से लेकर संवैधानिक संस्थाओं में जगह दी। इसके साथ ही कांग्रेस पार्टी के मुखिया बनने से लेकर पीएम बनने तक का मौका गांधी परिवार से बाहर के लोगों को भी उनकी योग्यता और नेतृत्व क्षमता की बदौलत कई बार मिला। लेकिन इंदिरा गांधी के कांग्रेस और सरकार की कमान संभालने के बाद वनमैन शो की संविधान विरोधी और अलोकतांत्रिक परंपरा मज़बूत होती गयी। उसका परिणाम देश को दो साल आपातकाल यानी तानाशाही के रूप में भुगता पड़ा। लेकिन इसका एक सुखद पहलू यह था कि पहली बार कांग्रेस की मनमानी के खिलाफ विपक्ष एक साथ खड़ा हुआ और जनता पार्टी की सरकार बनी। गांधी परिवार का वर्चस्व तोड़ने को 1989 में दूसरी बार विपक्षी सरकार जनमोर्चा के नेतृत्व में वीपी सिंह की बनी। उसके बाद पहले गैर भाजपा संयुक्त मोर्चा और फिर राजग की गठबंधन सरकार वाजपेयी के नेतृत्व में पहले एक साल को और फिर पूरे कार्यकाल को बनी जिसने पहली बार किसी विपक्षी सरकार के रूप में अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया क्योंकि यह बहुमत के लिये कांग्रेस पर आश्रित नहीं थी। लेकिन संघ परिवार और भाजपा विपक्ष में रहते जैसे बड़े बड़े दावे करते थे। ऐसा कुछ सरकार बनने और पूरे पांच साल चलने के बावजूद वे साबित नहीं कर सके। हालांकि 2004 से 2014 तक यूपीए की कांग्रेस के नेतृत्व में मनमोहन सरकार चली लेकिन बहुमत जुटाने के बावजूद सोनिया गांधी को पीएम नहीं बनने देना भाजपा का संविधान विरोधी काम माना गया। इतना ही नहीं जब से देश में मोदी सरकार बनी है। तब से संविधान को सबसे बड़ा ख़तरा माना जा रहा है। इसकी वजह यह है कि मोदी सरकार की कथनी करनी में ज़मीन आसमान का अंतर है। मोदी के पीएम रहते सरकार में कोई फैसला लोकतांत्रिक तरीके से नहीं लिया जा रहा है। यहां तक कि भाजपा सरकारों के सीएम भी बिना विधायकों की पसंद जाने रातो रता बदल दिये जाते हैं। यूपीए सरकार के दौरान जो भाजपा सोनिया गांधी पर मनमोहन सरकार के फैसलों में अलोकतांत्रिक दख़ल देने का आरोप लगाती थी। आज उसने लोकतंत्र और संविधान को मज़ाक बना दिया है। मोदी सरकार को एक तरह से अप्रत्यक्ष रूप से आरएसएस चला रहा है। मोदी सरकार एक भी फैसला बिना संघ की सहमति के नहीं ले सकती है। खुद मोदी नोटबंदी लोकडाउन और तीन कृषि कानून वापस लेने से पहले अपनी कैबिनेट की सहमति तक नहीं लेते। चर्चा तो यहां तक है कि मोदी सरकार का कोई भी मंत्री अपनी मर्जी से कोई भी सरकारी काम नहीं कर सकता। हर छोटे से छोटे फैसले के लिये उनको संघ और मोदी पर निर्भर रहना पड़ता है। मोदी सरकार ने सीबीआई आरबीआई ईडी इनकम टैक्स चुनाव आयोग सतर्कता आयोग सीएजी मानव अधिकार आयोग सूचना आयोग पिछड़ा वर्ग आयोग अल्पसंख्यक आयोग दलित आयोग दिल्ली पुलिस फिल्म सेंसर बोर्ड नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो प्रैस कौंसिल आॅफ इंडिया और केंद्रीय विश्वविद्यालयों से लेकर ऐसी लगभग सभी संवैधानिक संस्थाओं आयोगों और स्वतंत्र संगठनों की आज़ादी स्वायत्ता व शक्ति छीन ली है। जिनको संविधान ने लोकतंत्र की मज़बूती और रक्षा के लिये सरकार की पकड़ से काफी सीमा तक अलग रखा था। हालत यह है कि जिस धर्म साम्प्रदायिकता और नफरत की राजनीति को परवान चढ़ाकर आज भाजपा सत्ता में है। उसकी संविधान किसी कीमत पर इजाज़त नहीं देता। मोदी राज में मीडिया ही नहीं अदालतों तक को जजों की नियुक्ति और कुछ के रिटायर होने के बाद सरकारी पद देकर अपने हिसाब से चलाने के विपक्ष जो आरोप लगाता रहा है, उससे सबसे अधिक संविधान को ख़तरा है। अब तो निष्पक्ष और विख्यात विदेशी संस्थायें भी मोदी सरकार पर देश में संविधान लोकतंत्र धर्मनिर्पेक्षता मानवता अल्पसंख्यकों और समान नागरिक अधिकारों के लिये पक्षपाती बताकर बार बार उंगली उठा रही हैं। एनआरसी सीएए यूएपीए लवजेहाद एंटी रोमियो धर्मांतरण तीन तलाक गोहत्या और तीन विवादित कृषि कानून सहित अनेक ऐसे संविधान विरोधी कानून भाजपा सरकारें बना रही हैं या बिना कानून के एक वर्ग विशेष जाति विशेष महिलाओं बच्चो अल्पसंख्यकों या सभी वर्गों के गरीब कमजोर और असहाय लोगों को पुलिस प्रशासन के द्वारा सरकारों की शह पर सताये जाने पक्षपात किये जाने और टारगेट किये जाने के विपक्ष आरोप लगाता रहा है जो कि पूरी तरह संविधान लोकतंत्र और समानता के खिलाफ माने जाते हैं।                        

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।

Monday 22 November 2021

कृषि कानून की वापसी


किसान कानूनों की वापसी लोकतंत्र की जीत ?

0 अब तक का रिकाॅर्ड तो यही बताता है कि पीएम मोदी एक बार कोई फ़ैसला कर लें तो उससे पीछे नहीं हटते। लेकिन 3 विवादित कृषि कानूनों की वापसी से यह धारणा टूटी है। हालांकि अभी गारंटी से यह नहीं कहा जा सकता कि ये काले कानून फिर से किसी और रूप और उचित समय पर वापस नहीं आयेेेंगे। जैसा कि भाजपा नेता और राजस्थान के गवर्नर कलराज मिश्र और भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने कहा भी है कि फिलहाल के हालात में कानून वापस लिये गये हैं। अगर चुनाव में हार के डर से भी ऐसा हुआ है तो इसे बचे खुचेे लोकतंत्र की जीत माना जाना चाहिये।

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       3 किसान कानून जिस तरह शाॅर्टकट से जल्दीबाज़ी में संसद से पास हुए थे। तभी से यह आरोप लग रहे थे कि मोदी सरकार काॅरपोरेट के पक्ष में किसानों के हितों की बलि चढ़ा रही है। दुर्भाग्य से विपक्ष न तो राज्यसभा में सरकार के अल्पमत में होने के बाद भी और न ही सड़कों पर कोई बड़ा आंदोलन चलाकर सरकार को इन काले कानूनों की वापसी के लिये मजबूर कर सका। उधर सुप्रीम कोर्ट में जब इन विवादित कानूनों के खिलाफ जनहित याचिका दाखि़ल की गयीं तो सबसे बड़ी अदालत ने इन पर कुछ समय के लिये रोक तो लगा दी थी लेकिन इनकी वैधता पर विचार करने को जो हाईपाॅवर कमैटी बनाई उस पर किसानों ने भरोसा नहीं किया। उधर सरकार ने शुरू शुरू में तो इन कानूनोें के विरोध पर कान ही नहीं दिये। साथ ही किसानों को इनके विरोध में आंदोलन करने से रोकने को दिल्ली को सील कर दिया। उनके रास्ते में कीलें और दीवारें बना दी गयीं। सरकार ने दिखावे के लिये किसानों से बात भी की लेकिन वह कानून किसी हाल में वापस न लेने पर अड़ी रही जिससे कोई बीच का रास्ता नहीं निकल सका। पहले सरकार ने किसानोें के आंदोलन को चंद प्रोफेशनल व आंदोलनजीवी लोगों का व्यवसायिक स्वार्थ वाला मामूली आंदोलन बताया। उसके बाद विरोध करने वाले किसानों को अमीर मुट्ठीभर किसानों की संज्ञा दी गयी। इसके बाद ऐसे किसानों को विपक्ष का एजेंट बताकर पाॅलिटिकल एजेंडा चलाने का अभियान चलाया गया। इसके बाद इन कानूनों का विरोध करने वालों को विदेशी शक्तियोें के इशारे पर देशविरोधी क़रार देकर सोशल मीडिया पर टूलकिट बनाकर साजि़श रचने के मामले मंे किसानों को गुमराह करने का आरोप लगाकर दिशा रवि जैसी एक युवा समाज सेविका को जेल भेजा गया। इसके बाद इसी साल 26 जनवरी को जब किसान लालकिले पर प्रतीक रूप से अपना विरोध दर्ज कराने को जा रहे थे। तब भी उन पर बड़ा षड्यंत्र का हिस्सा होने का आरोप लगाकर कई गंभीर केस दर्ज किये गये। इतना ही नहीं 12 जनवरी को सरकार के अटाॅर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट में इन कानूनों पर सुनवाई के दौरान यहां तक आरोप लगाया कि किसानों के विरोध प्रदर्शन की आड़ में दिल्ली की सीमा पर खालिस्तानियों ने अपनी पैठ बना ली है। जबकि इसकी वजह किसान आंदोलन में पंजाब के सिख किसानों की बड़ी भागीदारी होना था। इस दौरान जहां एक केंद्रीय मंत्री और हरियाणा के सीएम पर आंदोलनकारी किसानों को धमकाने और मंत्री पुत्र पर किसानों पर जानबूझकर जीप चढ़ाने का आरोप लगा। वहीं लगभग 700 किसानों के इस दौरान शहीद होने के बावजूद पीएम से लेकर भाजपा के किसी सीएम या बड़े नेता ने सहानुभूति का एक शब्द नहीं बोला। ऐसे में मृतक किसानों के परिवारों को मुआवज़ा देने का तो सवाल ही नहीं उठता। इतना कुछ होने के बावजूद पीएम ने इन काले कानूनों को वापस लेने के ऐलान के दौरान एक बार भी यह नहीं माना कि ये किसान विरोधी कानून लाना उनकी सरकार की भूल थी। उनका दावा था कि उनकी तपस्या में कुछ कमी रह गयी। उन्होंने यह भी स्वीकारा कि वे किसानों को इन कानूनों के उनके ही पक्ष में होने के लाभ नहीं समझा पाये। अब यह बात अलग है कि जब लाभ थे ही नहीं तो वे समझाते कैसेकृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का शुरू से ही दावा था कि विरोध करने वाले चंद किसान हैं। जबकि बड़ी संख्या में किसान इन कानूनों के पक्ष में हैं। अब सवाल यह उठता है कि जब ऐसा था तो सरकार ने इन कानूनों को वापस लेकर अधिकांश किसानों का अहित क्यों कियालोकतंत्र तो बहुमत से चलता है। इसका जवाब यह माना जा सकता है कि अगले साल के शुरू मंे यूपी सहित पांच राज्यों के चुनाव में भाजपा को इन कानूनों के रहते अपनी हार का डर कुछ अधिक ही सता रहा था। पंजाब में कांग्रेस से अलग हुए पूर्व सीएम कैप्टन अमरेंद्र सिंह अब भाजपा के साथ गठबंधन कर सकते हैं। इसके साथ भाजपा का पूर्व साहयोगी अकाली दल भी फिर से उसके साथ आने पर विचार कर सकता है। उधर कानून वापसी से हरियाणा में भाजपा के सहयोगी जाट नेता दुष्यंत चैटाला भाजपा सरकार में बने रहेंगे। यूपी में भाजपा का बहुत कुछ दांव पर लगा है। यहां खराब कानून व्यवस्था से लेकर बेलगाम पुलिस रिश्वतखोर नौकरशाही जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था लगातार सिमटते सरकारी स्कूल बढ़ती महंगाई बेरोज़गारी और रूका हुआ विकास सीएम योगी के लिये किसानों का विरोध ताबूत में आखि़री कील की तरह साबित होने का ख़तरा लग रहा था। हालांकि योगी की अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि के चलते भाजपा की जीत को पहले से  कुछ वोट और सीट घटने के बावजूद संघ पक्का मानकर चल रहा है। अब किसान कानून वापसी से यूपी में ही नहीं अन्य चार राज्यों में भी भाजपा को सियासी नुकसान कम होगा। इससे एक बात साफ हो गयी है कि भाजपा हिंदू मुस्लिम के मुद्दे पर भावनाओं की राजनीति करके एक दो बार तो सरकार बना सकती है। लेकिन आर्थिक भौतिक सामाजिक यानी जीवन के बुनियादी मुद्दों को दरकिनार करके लगातार न तो चुनाव जीत सकती है ना ही अपनी जि़द मनमानी और साम्प्रदायिक नीतियों से सत्ता में टिकी रह सकती है। चुनाव में हार के डर सेे ही सही विपक्ष के अपर्याप्त विरोध और बिके हुए गोदी मीडिया से ना सही लेकिन किसानों ने अपनी मेहनत लगन और कुरबानी से अपनी जायज़ बात मनवाकर लोकतंत्र को एक बार फिर से जि़दा कर दिया है। अब देखना यह है कि आगे देश के अन्य वर्ग भी मोदी और भाजपा सरकारों के जनविरोधी कामों का किसानोें की तरह जबरदस्त विरोध करते हैं कि नहीं और भाजपा सरकार उन की मांगों पर भी झुकती है या फिर से आगे मौका देखकर होमवर्क कर विरोध से निबटने की पूरी तैयारी कर घुमा फिराकर कृषि कानून एक बार फिर वापस लाती है?                   

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

 

         

  


Sunday 7 November 2021

योगी बनाम केजरीवाल


मोदी का हिंदुत्व कार्ड छीन सकते हैं योगी या केजरीवाल?

0 स्व0 अटल बिहारी वाजपेयी लालकृष्ण आडवाणी नरेंद्र मोदी के बाद योगी या केजरीवालकट्टरपंथ साम्प्रदायिकता और जातिवाद जैसी चुनावी धरणाओं में आपने देखा होगा कि इनके नायक एक के बाद एक पहले वाले से और अधिक उग्र संकीर्ण व आक्रामक होते जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या जनता का बड़ा वर्ग अपने मूल बुनियादी मुद्दों को छोड़कर आगे भी मोदी के और अधिक कट्टर विकल्प आदित्यनाथ योगी को यूपी के आगामी चुनाव में जिताकर भविष्य का पीएम बनाने का सपना देख रहा है या फिर नरम हिंदुत्व के साथ साथ सबके विकास का प्रतीक बने अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के बाद पूरे देश में विस्तार का मौका मिल सकता है?

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

          पहले गुजरात जिस तरह से हिंदुत्व की प्रयोगशाला माना जाता था। उसी तरह से आज यूपी योगी के नेतृत्व में हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला बन गया है। वैसे तो योगी सीएम बनने से पहले कई बार सांसद रहे। लेकिन वे कभी किसी सरकार में मंत्री नहीं रहे। उनको बिना शासन का अनुभव कराये सीध्ेा यूपी जैसे बड़े प्रदेश का सीएम बनाने का फैसला आरएसएस ने बहुत सोच समझकर ही किया था। जिस तरह से गुजरात के सीएम रहते और केंद्र में पीएम बनकर भी मोदी संघ की कोई बात नहीं टालते। ठीक इसी तरह योगी भी संघ को किसी बात पर नाराज़ नहीं करते हैं। यही उनकी उनकी सबसे बड़ी ताकत है। पिछले दिनों उत्तराखंड कर्नाटक और गुजरात में भाजपा ने एक के बाद एक अपने पुराने और धुरंधर सीएम एक झटके में बदल डाले लेकिन योगी को हटाने की हिम्मत नहीं की। योगी की शक्ति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने भाजपा हाईकमान और मोदी शाह के चाहने के बावजूद एक ब्रहम्ण पूर्व नौकरशाह को अपने मंत्रिमंडल में लेने से साफ मना कर दिया लेकिन उनको किसी ने ऐसा करने या पद छोड़ने को मजबूर नहीं किया। दरअसल यह संघ की ही सपोर्ट थी जो योगी के पीछे चट्टान की तरह खड़ी रही है। अब सवाल यह है कि योगी का हिंदुत्व माॅडल यूपी में उनके ही नेतृत्व में फिर से जीत हासिल करेगाअमित शाह ने यहां तक कह दिया है कि अगर योगी यूपी में फिर से जीतकर सरकार बनाते हैं तो ही 2024 में मोदी भी पीएम बन पायेंगे। यह बात सच है कि योगी अपनी कट्टर हिंदूवादी सोच की वजह से यूपी में अपनी अलग पहचान बना चुके हैं। लेकिन विकास रोज़गार कानून व्यवस्था कोरोना संकट भ्रष्टाचार शिक्षा चिकित्सा यानी जीवन के बुनियादी क्षेत्रों में उनका रिकार्ड अच्छा नहीं है। विपक्ष ने उनकी छवि सबसे अधिक अल्पसंख्यक विरोधी बना दी है। उन पर नौकरशाही में अपनी जाति के लोगों को बढ़ावा देने का आरोप भी लगता रहा है। लेकिन सीट और वोट घटने के बावजूद उनकी यूपी में फिर से जीत के आसार अधिक नज़र आते हैं। दूसरी तरफ मोदी के हिंदुत्व के तौर तरीकों की नकल करते हुए दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी का पूरे देश मेें विस्तार करने का सपना देख रहे हैं। हालांकि आज भी देश में भाजपा के बाद सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस है। लेकिन लोग मोदी या भाजपा से नाराज़ होने के बाद क्या 50 साल तक आज़माई हुयी कांग्रेस पार्टी को एक और मौका देंगे या केजरीवाल जैसे नरम हिंदुत्व के साथ दिल्ली विकास का माॅडल लेकर चल रही आम आदमी पार्टी जैसी जुमा जुमा आठ दिन की पार्टी को केवल और केवल उसके भाजपा एजेंडे की नक़ल करने से धीरे धीरे कुछ राज्यों में उसकी ओर आकृषित होने लगेंगेयह भी हो सकता है कि कम्युनिस्टों के साथ बंगाल बिहार और यूपी की क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस की बजाये आप जैसी पार्टियों से गठबंधन कर राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा मोर्चा खड़ा करें। आप टीएमसी के बाद अकेली पार्टी है जिसका विस्तार अब तक दिल्ली से बाहर पंजाब गुजरात गोवा और उत्तराखंड में होने जा रहा है। अगले साल पांच राज्यों के चुनाव के बाद वह देश की आठवीं राष्ट्रीय स्तर की मान्यता पाने वाली पार्टी बन सकती है। हालांकि केंद्र की सत्ता में पैर जमाने या अपने समर्थन से सरकार बनाने में आप को अभी कई दशक भी लग सकते हैं। लेकिन अरविंद केजरील जिस तरह से नरम हिंदुत्व का कार्ड खेल रहे हैं। उससे साफ नज़र आ रहा है कि भाजपा का विकल्प कांग्रेस वामपंथी या क्षेत्रीय दल आज इसलिये नहीं बन सकते क्योंकि इन सबकी छवि संघ परिवार ने हिंदू विरोधी देशविरोधी और मुसलमान समर्थक बना दी है। आप ने इस रण्नीति को समझा है। केजरीवाल ने राष्ट्रवाद हिंदू इतिहास और सेना का महिमामंडन शुरू कर दिया है। वो दिल्ली में सार्वजनिक रूप से हनुमान मंदिर जाते हैं। साथ ही सरकारी स्तर पर दिवाली की पूजा करते हैं। वे शाहीन बाग़ के आंदोलन और दिल्ली दंगों पर राजनीतिक गुण भाग के हिसाब से चुप्पी साध जाते हैं। वे जेएनयू के कन्हैया और उमर खालिद पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की अनुमति दे देते हैं। वे दिल्ली के हिंदू तीर्थ यात्रियों को 2018 में ही रामायण एक्सप्रैस के द्वारा सीतामढ़ी नेपाल के जनकपुर वाराणसी प्रयाग चित्रकूट हम्पी नासिक और रामेश्वरम जैसे तीर्थ स्थलों पर सरकारी खर्च पर रवाना कर चुके हैं। इसके एक महीने बाद ही केजरीवाल ने अपनी सेकुलर छवि को थोड़ा बहुत बचाये रखने के लिये मुसलमानों और सिखों के लिये भी ऐसी ही तीर्थ यात्रा का ऐलान किया था। दिल्ली विधानसभा के चुनाव से पहले जब मोदी ने राम मंदिर के लिये ट्रस्ट की घोषणा की तो केजरीवाल ने सारे विपक्ष से बाजी लेते हुए बयान दिया कि अच्छे काम के लिये कोई सही समय नहीं होता है। हाल ही में केजरीवाल रामलला के दर्शन भी कर आये हैं। उन्होंने उत्तराखंड के चुनाव में देवस्थानम कानून जो कि हिंदू मंदिरों में सरकारी दख़ल की व्यवस्था करता हैको सत्ता में आने पर ख़त्म करने और इस देवभूमि को विश्व की सर्वश्रेष्ठ हिंदू आध्यात्मिक केेंद्र के रूप में विकसित करने का एलान किया है। यह एक तरह से भाजपा से उसका हिंदू कार्ड छीनने का प्रयास माना जा रहा है क्योंकि भाजपा वहां सत्ता में रहते हुए ये काम नहीं कर सकी है। गुजरात में भी केजरीवाल ने चुनाव प्रचार की शुरूआत करते हुए अहमदाबाद के एक मशहूर मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण का आशीर्वाद लेने की पहल की थी। हाल ही में केजरीवाल ने भगत सिंह की जयंती पर स्कूली बच्चो को कोर्स में देशभक्ति पढ़ाने तिरंगा यात्रा का समापन अयोध्या में राम मंदिर में करने दिल्ली में 500 हाईमास्ट तिरंगे लगाने का फैसला भी किया है। अब देखना यह है कि जब राजनीति में भाजपा जैसा कट्टर हिंदूवादी विकल्प मौजूद है तो ऐसे में केजरीवाल के नरम हिंदूवादी विकल्प को केवल सस्ती बिजली निशुल्क पानी और बेहतर इलाज के नाम पर मतदाता कितना पसंद करते हैंया फिर वे योगी के मोदी से भी कट्टर हिंदुत्व नायक और कड़क शासक के साथ बिना किसी ठोस विकास के भी जाने का फैसला करते हैं?