Sunday 25 June 2023

स्मार्टफोन एडिक्शन

*आप भी स्मार्ट फ़ोन एडिक्शन का शिकार तो नहीं हैं ?* 
0आज स्मार्ट फ़ोन ने हमारी ज़िंदगी पूरी तरह से बदल दी है। दो साल पहले जब कोरोना महामारी से लाॅकडाउन हुआ तो स्मार्ट फ़ोन का नशा बड़ों से लेकर बच्चो तक के सर चढ़कर बोलने लगा। स्कूल काॅलेज से लेकर कंपनियों के सारे काम वर्क फ्ऱाम होम यानी मोबाइल और कम्प्यूटर से होने लगे। हर उम्र के लोग खाली होने की वजह से अपना सारा समय मोबाइल पर लगाने लगे। इसका अंजाम यह हुआ कि कोरोना लाॅकडाउन ख़त्म होने के बाद भी लोगों का मोबाइल से मोह ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है। हालत यह है कि कुछ कंपनियां तो आॅफ़िस का किराया बिजली चायपानी और अपने कर्मचारियों का आने जाने का ख़र्च बचाने को अभी भी घर से काम करा रही हैं।      
                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
      सबसे बड़ी प्राॅब्लम वे बच्चे हैं। जिनको लाॅकडाउन के दौरान मोबाइल की लत लग गयी। छोटे बच्चे अपने मातापिता को परेशान ना करें इस मजबूरी का नाजायज़ फायदा उठाकर मोबाइल घंटो चला रहे हैं। उधर जिन बड़े बच्चो को मोबाइल स्कूल काॅलेज का काम घर से करने को अभिभावकों ने तात्कालिक रूप से कुछ समय के लिये दिया था। वह उनके लिये आज बड़ा अभिषाप बन चुका है। वे छात्र छात्रायें स्कूल काॅलेज खुलने के बाद भी मोबाइल किसी हालत में छोड़ने को किसी कीमत पर तैयार नहीं हैं। हालात इतने ख़राब हैं कि मांबाप अपने बच्चो को मोबाइल एडिक्शन से बचाने को डाॅक्टर्स के पास जाने को मजबूर हैं। खुद बड़े भी मोबाइल एडिक्शन का इतना बड़ा शिकार हो चुके हैं कि उनको साइकेटिस्ट के पास मानसिक इलाज को जाना पड़ रहा है। इन लोगों की हालत इतनी गंभीर है कि ये या तो सो रहे होते हैं या फिर मोबाइल चला रहे होते हैं। यहां तक कि खाना नाश्ता और वाहन चलाते हुए भी इनका मोबाइल स्क्रीन आॅन रहता है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसियेशन आॅफ इंडिया के आंकड़ों के अनुसार भारत के 75 प्रतिशत लोगों के पास मोबाइल फोन है। वे सोशल मीडिया इंस्टेंट मैसेज और टैक्स्ट के लिये इस्तेमाल करते हैं। 22 प्रतिशत दिन में 10 बार मोबाइल लगातार चलाते हैं। 50 प्रतिशत लोग कभी भी अपना मोबाइल स्विच आॅफ नहीं करते हैं। 65 प्रतिशत अपना मोबाइल सोते समय अपने तकिये के नीचे रखते हैं। 10 से 14 साल के 39 से 44 प्रतिशत बच्चे मोबाइल का खूब यूज़ कर रहे हैं। इसको सब टाइप इंटरनेट एडिक्शन डिस्आॅर्डर कहते हैं। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल मंे 2019 में एक रिपोर्ट आई थी। जिसमें बताया गया था कि बच्चियां सोशल मीडिया और बच्चे वीडियो गेम में लगातार स्क्रीन टाइम बढ़ाते जा रहे हैं। मोबाइल और नेट कनेक्शन कुछ देर ना मिलने पर बच्चो में तनाव चिड़चिड़ापन और उग्रता बढ़ती जा रही है। कुछ बच्चे वीडियो गेम के चक्कर में अपनी पढ़ाई यानी स्कूल जाना छोड़ रहे हैं। मोबाइल पर निर्भरता इतनी अधिक बढ़ चुकी है कि लोग अपने गोपनीय पासवर्ड नोट्स और अहम प्वाइंट्स तक इसी में रिकाॅर्ड रखते हैं जबकि सुरक्षा की दृष्टि से ये चीजें़ ज़बानी याद रखी जा सकती हैं। इसकी वजह से ह्यूमन मेमोरी का इस्तेमाल लगातार कम होता जा रहा है। यहीं से मोबाइल का एडिक्शन बढ़ता जा रहा है। स्मार्ट फोन का बढ़ता प्रयोग हमारे सामाजिक व्यवहार को प्रभावित कर रहा है जिससे हम इसे ड्राइविंग स्कूल क्लास और आफिस में भी ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल करने लगे हैं। इससे हमारी पैसा समय और सेहत ख़राब हो रही है। मानव व्यवहार मोबाइल ने इतना बदल दिया है कि कुछ लोग कहीं जाने से पहले यह पता करते हैं कि वहां मोबाइल नेटवर्क कैसा आता है। वाईफाई की सुविधा है या नहीं? अगर उनको पता लग जाये कि वहां सिग्नल प्राॅब्लम रहती है तो वे शादी और अंतिम संस्कार तक में जाना टाल देते हैं। इतना ही नहीं वे सोशल मीडिया के इतने दीवाने हो चुके हैं कि वर्चुअल एड उनके दिमाग पर कब्ज़ा करके उनको उन गैर ज़रूरी फालतू चीजों की खरीदारी को मजबूर कर देता है। जिनकी उनको ज़रूरत कभी भी नहीं होती है। इस चक्कर में उनके ज़रूरी खर्च तक रूक जाते हैं। इससे बाद में ऐसे लोग अवसाद का शिकार हो जाते हैं। व्हाट्सएप फेसबुक या यूट्यूब देखकर कुछ फेक पोस्ट से उग्र आक्रामक मानसिक बीमार और हिंसक हो रहे हैं। विशेषज्ञोें का कहना है कि मोबाइल की लत कभी कभी इतनी बढ़ जाती है कि यह डिप्रेशन में बदल जाती है। साइबर रिलेशनशिप एडिक्शन यानी आभासी दुनिया में कुछ लोग इतना खो जाते हैं कि उनको वास्तविक दुनिया रिश्ते नाते पड़ौसी और रोज़ाना की ज़िंदगी बोझ लगने लगती है। उनको हर टाइम चैटिंग और डेटिंग ही चाहिये। कुछ साइबर सेक्स एडिक्शन का शिकार होकर हर वक्त पोर्न देखते रहते हैं। कुछ समय बाद वे इससे बोर होकर नये आयाम व नये प्रयोग वाली पोर्न साइट तलाशते हैं। हालत यह होती है कि उनकी यौन इच्छायें किसी तरह से भी पूरी नहीं हो पाती और वे कुंठित हो जाते हैं। स्मार्टफोन के अधिक प्रयोग से नींद और भूख भी बिगड़ जाती है। पर्यावरण और सामाजिक वातावरण पर भी इसका बुरा असर पड़ रहा है। इससे शारिरिक और मानसिक समस्यायें लगातार बढ़ती जा रही हैं। इससे बचाव के कुछ तरीके भी तलाशे जा रहे हैं जिनमें ये नियम बनाये जा सकते हैं कि जब आप किसी के साथ हों तो मोबाइल का यूज़ ना करें बहुत ज़रूरी काॅल हो तो उसे एक से दो मिनट में पूरी कर लें। जब आप पढ़ या लिख रहे हों तो मोबाइल को दूर रखें। हो सके तो साइलेंट मोड पर कर दें। घर पहुंचने पर मोबाइल दूर रखें और परिवार के सदस्यों से बातचीत करें। खाना खाते समय मोबाइल को बिल्कुल टच ना करें। हो सके तो मोबाइल देखने की समय सीमा तय कर दें। अगर आप डाॅक्टर पुलिस या पत्रकार जैसे आपातकालीन पेशों से नहीं जुड़े हैं तो मोबाइल को रोज़ 8 से 12 घंटे स्विच आॅफ रखें। खासतौर पर रात को सोने से 2 से 4 घंटे पहले स्क्रीन आॅफ कर दें। अगर आप पर हर टाइम मोबाइल देखने का भूत सवार है तो सप्ताह में एक या दो दिन मोबाइल का व्रत रखवा दें वर्ना बाद में आपको पश्चाताप होगा। कुछ लोग सबह उठते ही या शाम व रात को कुछ खास आॅडिया वीडियो एवं पोर्न साइट देखने के आदी हो जाते हैं। उनको उस टाइम में वाॅकिंग एक्सरसाइज़ अख़बार या दोस्तों से गपशप कर इसका विकल्प तलाशना चाहिये। 18 साल से कम के उम्र के बच्चो को ज़रूरत के हिसाब से फीचर फोन खुले में बात करने की इजाज़त के साथ देकर काम चलाया जा सकता है। बड़े हों या छोटेे सबको याद रखना चाहिये कि मोबाइल ही नहीं हर चीज़ का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल नुकसानदेह होता है।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*

Tuesday 13 June 2023

कर्नाटक की हार

कर्नाटक चुनाव के नतीजे के बाद संघ नई रण्नीति बना रहा है?
0‘भाजपा के लिये स्थिति का जायज़ा लेने का यह सही समय है। मज़बूत नेतृत्व और क्षेत्रीय स्तर पर प्रभावी डिलीवरी के बिना, प्रधान मंत्री मोदी का करिश्मा और हिंदुत्व एक वैचारिक गोंद के रूप में, पर्याप्त नहीं होगा। सकारात्मक कारक, हिंदुत्व विचारधारा और पीएम मोदी का नेतृत्व राज्य स्तर के शासन के प्रभावी होने पर भाजपा के लिये वास्तविक सम्पत्ति है। प्रधानमंत्री मोदी के केंद्र में सत्ता संभालने के बाद पहली बार भाजपा को विधानसभा चुनाव में भ्रष्टाचार के आरोपों का बचाव करना पड़ा।’ ये वे कुछ खास खास बातें हैं जोकि संघ के प्रमुख अख़बार ने रेखांकित की हैं। कर्नाटक की हार से भाजपा के माथे पर चिंता की रेखायें साफ उभरी    
न्ज़र आ रही हैं। उधर कांग्रेस का मनोबल सातवें आसमान पर है।
     -इक़बाल हिंदुस्तानी
कर्नाटक दक्षिण का द्वारा कहा जाता है। यहां पिछली बार बहुमत ना मिलने के बाद भी कांग्रेस जेडीएस की गठबंधन सरकार गिराकर भाजपा ने जोड़तोड़ से अपनी सरकार बना तो ली थी लेकिन राज्य के चुनाव आने पर वह फिर से वापसी नहीं कर सकी। हालांकि कम लोगों को पता है कि राज्य के चुनाव का केंद्र के चुनाव से कोई सीधा सरोकार नहीं होता है। मिसाल के तौर पर राजस्थान एमपी और छत्तीसगढ़ तीनों में पिछली बार कांग्रेस की सरकार चुनकर आई थी। इन तीनों राज्यों मेें लोकसभा की कुल 65 सीट हैं। इनमें से 62 सीट अगले साल हुए संसदीय चुनाव में भाजपा ने जीती थीं। कहने का मतलब यह है कि राज्यों के और केंद्र के चुनाव अलग अलग मुद्दों पर होते हैं। यही वजह है कि भाजपा के लाख कोशिश करने पर भी केंद्रीय सत्ता की नाक के नीचे दिल्ली विधानसभा का ही नहीं नगर निगम का चुनाव भी आम आदमी पार्टी भारी बहुमत से जीत चुकी है। मोदी ने कई राज्यों के चुनाव में अपनी छवि दांव पर लगाकर यहां तक कहा कि मतदाता उनको वोट दंे जिससे वे डबल इंजन की सरकार बनवाकर राज्य का भरपूर विकास कर सकें। लेकिन क्षेत्रीय नेतृत्व कमज़ोर विवादित आपसी गुटबंदी और करप्शन के आरोपों के कारण कई राज्यों की भाजपा सरकार वापस जीतकर नहीं आ सकीं। संघ और भाजपा को अब यह समझ आने लगा है कि वे हिंदुत्व व मोदी की छवि के नाम पर राज्यों में एक दो बार तो चुनाव जीत सकते हैं। लेकिन बार बार या हमेशा ऐसा नहीं कर सकते। हालांकि अभी 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिये कोई बड़ी चुनौती नज़र नहीं आ रही है। लेकिन बिहार पंजाब और महाराष्ट्र में गठबंध्न टूटने का कुछ ना कुछ असर ज़रूर होगा यह भी तय माना जा रहा है। भाजपा की दुविधा यह है कि एक तरफ वह अपना आज़मया हुआ हिंदू ध्रुवीकरण का परंपरागत कार्ड एक बार फिर से खेलना चाहती है तो दूसरी तरफ उसको पसमांदा मुसलमानों का वोट भी अपनी ओर खींचना है। ऐसा करना भाजपा की मजबूरी इसलिये भी है कि जो हिंदू वोट एंटी इनकम्बैंसी की वजह से उससे छिटकेगा उसकी क्षतिपूर्ति करने का उसके पास कोई दूसरा तरीका फिलहाल नहीं है। आदिवासी और दलित वोट मिलने के आसार उसके दिन ब दिन कम होते जा रहे हैं। संघ की नीतियों पर समझौता ना करने से दलित और आदिवासी उसको शक की निगाह से देख रहे हैं। उत्तराखंड के उत्तरकाशी और महाराष्ट्र के कई तनावग्रस्त क्षेत्रों में हिंदू सकल समाज के नाम पर आक्रोश रैली निकालकर भाजपा की शह पर एक वर्ग विशेष के खिलाफ जो अभियान चलाया जा रहा है। संघ परिवार बार बार एक वर्ग विशेष को अपराधी राष्ट्र विरोधी हिंदू विरोधी साबित करने की कोशिश करता रहता है। हैरत और अफसोस की बात यह है कि ये दोनों काम एक साथ कैसे हो सकते हैं? इससे भाजपा को आगामी चुनाव में इस अल्पसंख्यक समाज के जो वोट मिलने के आसार बन रहे थे। वे भी छिटक सकते हैं। भाजपा सरकारी कर्मचारियों को पुरानी पेंशन बेरोज़गारी भत्ता महिलाओं को निशुल्क बस यात्रा नये रोज़गार अवसर निशुल्क सरकारी उपचार परिवार की मुखिया महिला को मासिक आर्थिक सहायता निशुल्क कुछ यूनिट बिजली आदि जनउपयोगी सुविधायें देने की विपक्षी स्कीमों का कोई तोड़ अब तक तलाश नहीं कर सकी है। वह लगातार राम मंदिर कश्मीर की धारा 370 हटाना और एक वर्ग विशेष को काबू कर सबक सिखाने के लिये घिसे पिटे मुद्दों पर वोट मांगती रहती है। लेकिन उसे यह अहसास नहीं है कि अब हिंदू जनता का इन टोटकों से मोहभंग होने लगा है। उनको ठोस विकास रोज़गार और वास्तविक उन्नति चाहिये। हो सकता है कि हद से हद मोदी 2024 का आम चुनाव इन उपलब्ध्यिों यानी जनहित की कुछ स्कीमों के बहाने एक बार और जीत लें लेकिन उनकी सीट और वोट दोनों घटने के आसार बनते पूरे पूरे नज़र आ रहे हैं। जिससे काठ की हांडी बार बार ना चढ़ने की कहावत याद आ रही है।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।

Wednesday 7 June 2023

सपा और मुस्लिम

*सपा से मुसलमानों का मोहभंग हो रहा है?* 
0हाल ही में हुए यूपी के स्थानीय निकाय चुनावों में कई मुस्लिम बहुल नगरपालिका और नगरपंचायतों में समाजवादी के पार्टी के प्रत्याशियों को मुसलमानों ने हराकर अन्य दलों या निर्दलियों को जिताने में दिलचस्पी दिखाई है। सपा से मोहभंग की हालत यह है कि कई स्थानों पर तमाम शिकायतों के बावजूद मुसलमानों ने भाजपा के मुस्लिम उम्मीदवारों को भी जिताने में परहेज़ नहीं किया है। यह अलग बात है कि मायावती की सेकुलर दल विरोधी नीतियों व विवादित बयानों से नाराज़ मुसलमानों ने बसपा को ज़रा भी भाव नहीं दिया है। ऐसा लगता है कि सपा का अपना बेस वोट यादव खिसकने और दूसरा हिंदू वोट न जुड़ने से मुसलमान सपा का तेज़ी से विकल्प तलाश रहा है।        
   *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
      समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव जिस तरह की आरामदेह यानी अपने वातानुकूल घर से और औपचारिक यानी दिखावे के विरोध की ट्विटर पर सियासत कर रहे हैं। उससे उनका सबसे मज़बूत वोटबैंक मुसलमान उनसे दूर होने की चर्चा चल निकली है। पहले 2017 में सपा भाजपा से हारी तो मुसलमानों ने उसे लोकतंत्र में चलने वाली सामान्य जीत हार माना। लेकिन पिछले साल जिस तरह तमाम कोशिशों के बावजूद सपा सत्ता में वापसी नहीं कर सकी उससे मुसलमानों का सपा से मोहभंग होना शुरू हो चुका है? ऐसा लगता है कि जिस तरह से सपा के सबसे बड़े मुस्लिम नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री आज़म खां को भाजपा सरकार द्वारा निशाने पर लिया गया। उसको सपा ने कभी भी गंभीरता से लेकर खां को बचाने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया। इसके साथ ही सपा को यह एहसास भी नहीं हुआ कि मुसलमानों को सपा का सपोर्ट करने के लिये भी भाजपा सरकार द्वारा टारगेट किया जाता है। गोरखपुर में दर्जनों बच्चों की गैस सप्लाई ना होने से दुखद मौत के बाद उनकी जान बचाने को भागदौड़ करने वाले डा. कफील को सम्मान और इनाम देने की बजाये जिस तरह से जानबूझकर सताया गया उस पर भी अखिलेश बहुत मुखर नहीं हुए। ऐसे ही सपा से कई बार सांसद व विधायक रहे अतीक अहमद और अशरफ को जिस तरह संदिग्ध तरीके से मारा गया। उसपर भी अखिलेश खानापूरी करते नज़र आये। इतना ही नहीं विधानसभा में अखिलेश ने मुख्यमंत्री योगी को इस मामले में उल्टा भड़काते हुए एक तरह से सख़्त कार्यवाही की चेतावनी ही दे दी जिससे सीएम योगी उत्तेजित होकर सदन में अतीक व अशरफ को मिट्टी में मिलाने की कसम खा बैठे। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि अतीक और अशरफ माफिया थे और उनको उनके अपराधों की कानून के हिसाब से सज़ा मिलनी ही चाहिये थी लेकिन जिस तरह उनको हत्यारों द्वारा जयश्रीराम का नारा लगाकर पुलिस कस्टडी में मारा गया उस पर भाजपा सरकार ने तो खुलेआम निकाय चुनाव में वोट मांगे लेेकिन सपा इस मुद्दे से किनारा करती नज़र आई। ऐसे ही गौहत्या के नाम पर आयेदिन होने वाली मुसलमानों की माॅब लिंचिंग लवजेहाद के नाम पर उनको जेल भेजा जाना एनआरसी के विरोध में चले मुसलमानों के आंदोलन को सपा का खुलकर समर्थन ना देना और इसके बाद आंदोलनकारी मुस्लिमों को पुलिस द्वारा सबक सिखाये जाने पर सपा नेताओं का आंदोलन से गायब रहना और पुलिस के द्वारा किये गये एक्शन पर चुप्पी साधना मुसलमानों को लंबे समय से चुभ रहा था। ऐसे ही अखिलेश का खुलेआम यह स्वीकार करना कि उनकी टेबिल पर जब योगी जी के ढेर सारे मुकदमों की फाइल आई थी तो वे भी उस पर आगे कार्यवाही के आदेश कर सकते थे? इसका मतलब सपा भाजपा नूरा कुश्ती लड़ रही है? दोनों आपस में मिले हुए हैं? ऐसा इसलिये भी लगता है कि सपा ने शिवपाल यादव को करप्शन के तमाम आरोप लगने के बाद भी बचा लिया है। सपा के वरिष्ठ नेता और सांसद रामगोपाल यादव पर भी आज तक जांच की आंच नहीं आने दी है? इतना ही नहीं स्व. मुलायम सिंह यादव अखिलेश यादव और उनके परिवार के कई सदस्यों के खिलाफ चल रहे आय से अधिक सम्पत्ति की जांच में मोदी सरकार की सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में केस बंद करने की रिपोर्ट लगा दी है।हैरत की बात है कि अन्य विपक्षी दलों को जबकि मोदी सरकार सीबीआई से नये नये केस दर्ज कराकर कोर्ट के चक्कर लगवा रही है या लंबे समय तक ज़मानत का विरोध करके जेल मेें बंद कर रही है। ऐसे में किसी विरोधी दल पर मोदी सरकार की यह मेहरबानी क्यांे? स्व. मुलायम सिंह को मरणोपरांत पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया है। सपा के यादव वोट बैंक का बड़ा हिस्सा लोकसभा चुनाव में खुलकर भाजपा  के साथ जाता रहा है। सपा की सरकार के दौरान गैर यादव पिछड़ी जातियों से किये गये सौतेले व्यवहार की वजह से उसके साथ अन्य पिछड़ी हिंदू जातियां आने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में सपा को यह याद रखना चाहिये कि मुसलमान उसके साथ नहीं भाजपा को हराने वाले दल के साथ कभी भी जा सकता है? क्योंकि वे कभी भी किसी पार्टी या नेता को सकारात्मक वोट नहीं नकारात्मक यानी किसी भी तरह भाजपा को हराने के लिये वोट करते रहे हैं। अगर उनको कल लगा कि यह काम सपा नहीं कोई और सेकुलर दल कर सकता है तो उनको सपा से किनारा करने में ज़्यादा टाइम नहीं लगेगा।
 *नोट- लेखक नवभारतटाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

बैंकों के 2 पैमाने

*बैंक कर्ज़ उत्तराधिकारी से वसूलते हैं तो जमाधन भी उनको दें!* 
0सरकारी बैंकों ने पिछले दिनों जनता की 35000 करोड़ रूपये की वो विशाल रक़म आरबीआई के हवाले कर दी जिसका कोई दावेदार नहीं था। यह धनराशि 10 करोड़ 24 लाख खातों में जमा थी। इन एकाउंट्स मेें पिछले 10 साल से कोई लेनदेन नहीं हुआ था। माना जाता है कि ये वो खाते थे। जिनको खोलने वालों की मौत हो चुकी है और उन्होंने उनमें अपना कोई नाॅमिनी नहीं बनाया था। हैरत और दुख की बात यह है कि जो बैंक किसी कर्ज़दार के मरने पर उसके वारिसों से कर्ज़ वसूलने में कोई देरी लापरवाही या दया नहीं करते वे ना तो लोगों का खाता खोलते हुए किसी उत्तराधिकारी का नाम लिखना अनिवार्य करते हैं और ना ही उनको तलाश कर जमाधन वापस कर रहे हैं। एक लोकतांत्रिक देश में सरकारी बैंकों के लेन देन में दो पैमाने क्यों?        
  -इक़बाल हिंदुस्तानी
      इस लेख को लिखने का हमारा मकसद यही है कि हमारे समाज व्यक्ति खासतौर पर सीनियर सिटीज़न बैंक में खाता खोलते हुए भविष्य में यह ज़रूर याद रखें कि उसमें उनके उत्तराधिकारी का नामांकन हो। इतना ही नहीं एफडीआर भी संयुक्त नाम से भी खोल सकते हैं। जो लोग अपने खातों में किसी का नाम उत्तराधिकारी के तौर पर फाॅर्म में भरते भी हैं। वे भी एफडीआर बनवाते समय अपने बाद किसी का नामांकन नहीं करते। कुछ बुजुर्ग अपने बच्चो को इस बारे में बताते ही नहीं। उनको यह डर सताता रहता है कि कहीं बच्चे या रिश्तेदार उनके जीते जी उस रकम को ना हड़प लें। उनको वह पैसा उनके पास होने बैंक में जमा होने और मांगने पर परिवार के अन्य सदस्यों को ना देने से अपने रिश्ते खराब होने अपनी उपेक्षा किये जाने यहां तक कि घर से निकाल देने की भी आशंका रहती है। जो कि किसी हद तक आज के भौतिकवादी स्वार्थी और लालची दौर में गलत भी नहीं है। कई मामले ऐसे देखने में आये हैं। जहां परिवार के माता पिता या किसी बड़े द्वारा बच्चो को अपनी जमा पूंजी सम्पत्ति या और कोई कीमती चीज़ ना देने पर उनके साथ बेरहमी से हिंसा घर निकाला या वृध्दा आश्रम में उनको जबरन छोड़ा गया है। इस सबके बावजूद हमारे बुजुर्गों सीनियर सिटीज़न और परिवार के मुखियाओं को यह समझने की ज़रूरत है कि उनके द्वारा बैंक जमा धन में परिवार रिश्तेदार या किसी अन्य को नाॅमिनी बनाने से वह रकम उनके अधिकार से जीते जी बाहर नहीं हो जाती। अगर उनको अपने जिं़दा रहते इस बात का भय है कि बताने पर उनको उस रकम से हाथ धोना पड़ सकता है तो इसके लिये वे अपनी किसी वसीयत निजी डायरी या किसी करीबी रिश्तेदार व दोस्त को इस बारे में भरोसे में ले सकते हैं। जिससे उनके इस दुनिया से विदा होने के बाद वह रकम उनके परिवार के काम आ सके। हालांकि आरबीआई से भी यह रकम वापस पाने का एक लंबा कानूनी और जटिल तरीका है। लेकिन सवाल यह है कि जब किसी को यह पता ही नहीं कि उसके किसी बड़े ने बैंक में कोई बड़ी रकम रखी हुयी है तो वह बंदा अपने उस वरिष्ठ पारिवारिक सदस्य के स्वर्गवासी होने के बाद भी आरबीआई के पास उस रकम को क्लेम करने जायेगा क्यों और कैसे? इस समस्या का एक दुखद पहलू और है। वह यह कि हमारे समाज में पंूजीवाद आ जाने के बाद से धन को लेकर ऐसी आपाधापी मची है कि इंसान का जीवन उसका मान सम्मान रिश्ते नाते नैतिकता मानवता और भावनाओं व मूल्यों का पूंजी के सामने कोई मोल नहीं समझा जाता है। सरकार को चाहिये कि वह भी इस विरोधाभास को खत्म करते हुए आरबीआई को कहे कि वह बैंकों का दिशा निर्देश जारी करे कि वे जिस तरह मरने वाले के उत्तराधिकारियों से लोन की वसूली करते हैं। यहां तक कि बैंक सीधे उस सम्पत्ति दुकान मकान या कारखाने को औने पौने में नीलाम करके अपने कर्ज की तत्काल वसूली कर लेते हैं। जोकि लोन लेने वाले के नाम रही है। वैसे ही वे खातादारों की जमा रकम में नाॅमिनी का काॅलम भरना अनिवार्य कर उनके दुनिया से चले जाने के बाद उनके वारिसों को बैंक बुलाकर वह रकम हर हाल में उनके हवाले करें। अगर ऐसा करने मंे कोई कानूनी समस्या हो तो कम से कम मृतक या अशक्त खातादार के परिवार को सूचित करना बैंक की कानूनी ज़िम्मेदारी हो जिससे उनके परिवार से वास्तविक व उचित उत्तराधिकारी सामने आने पर मृतक की जमा रकम उसके हवाले की जा सके। समाज परिवार और रिश्तों में अविश्वास के चलते ही नोटबंदी के दौरान ऐसे अनेक मामले सामने आये भी और अनेक आज तक छिपे रह गये जिनमें कई लोगों ने परिवार के किसी सदस्य को बताये बिना ही हज़ारो लाखों की रकम घर में एकत्र कर रखी थी। जब तक वह रकम उनके चले जाने के बाद परिवार के हाथ लगी तब तक उन बड़े 500 और 1000 के नोटों का चलन ही बंद हो चुका था। इस मामले में वित्तीय पत्रकार सुचेता दलाल ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दाखिल की है। समाज और सरकार दोनों को इस गंभीर मामले पर विचार करना चाहिये।
जिनके आंगन में अमीरी का शजर लगता है,
उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है।।
 *0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।*

केजरीवाल बनाम मोदी

*केजरीवाल कम पढे़ लिखे भारतीयों का अपमान बंद करो!* 
0दिल्ली के सीएम और आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि देश का पीएम ना केवल पढ़ा लिखा बल्कि उच्च शिक्षित होना चाहिये। उनका यह बयान गुजरात हाईकोर्ट के उस निर्णय के बाद आया है। जिसमें मोदी जी की डिग्री सार्वजनिक करने की उनकी मांग ठुकराते हुए उन पर 25000 का जुर्माना भी लगाया गया है। हालांकि यह आदेश केंद्रीय सूचना आयोग का था। जिसको गुजरात यूनिवर्सिटी ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। लेकिन आयोग का निर्णय भी केजरीवाल द्वारा यूनिवर्सिटी से सूचना मांगने पर ना दिये जाने के बाद आयोग में अपील करने पर ही आया था। डिग्री का सच सामने आये लेकिन कम शिक्षितों का अपमना करना ठीक नहीं है।        
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
      केजरीवाल को इतना तो पता ही होगा कि हमारे देश में निरक्षर और अशिक्षित भारतीयों की संख्या 2011 के आंकड़ों के अनुसार 28 करोड़ से अधिक है। अगर कम शिक्षित नागरिकों का सर्वे करें तो यह आंकड़ा देश की कुल आबादी के आधे से भी उूपर चला जायेगा। उनको यह भी जानकारी होगी कि ऐसा कोई कानून या नियम नहीं है कि जिससे कोई अनपढ़ या कम पढ़ा लिखा भारतीय चुनाव ना लड़ सके। ज़ाहिर बात है कि जब चुनाव शिक्षित अशिक्षित सभी नागरिक लड़ सकते हैं तो वे चुनाव जीतकर किसी भी बड़े से बड़े पद पर पहुंच सकते हैं। संविधान में कहीं यह भी नहीं लिखा कि कोई कम पढ़ा लिखा भारतीय सांसद और विधायक तो बन सकता है लेकिन सीएम और पीएम नहीं बन सकता। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ साल पहले इतना ज़रूर अनिवार्य किया था कि चुनाव लड़ने वाले अपनी शैक्षिक योग्यता अपना अपराधिक मुकदमों का रिकाॅर्ड और अपनी सम्पत्ति का हिसाब अपने नामांकन में हलफनामे के साथ दर्ज करेंगे। ऐसे हालात में यह मामला जनता की अदालत में चला जाता है कि वह किसी प्रत्याशी की योग्यता शून्य या कम और अपराधिक केेस अधिक होने के बावजूद भी उसको चुनती है तो जनादेश को चुनौती नहीं दी जा सकती। हमारे पीएम मोदी भी इसके अपवाद नहीं हैं। रहा सवाल उनके उच्च शिक्षित होने या ना होने का तो यह मामला अब हो सकता है सुप्रीम कोर्ट में जाये। वहां से अंतिम निर्णय आने तक कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि उनकी डिग्री असली है या फर्जी? हम यह भी मानते हैं कि मोदी जी ने चुनाव का पर्चा भरते हुए क्योंकि स्वयं को पोस्ट ग्रेज्युएट बताया है। ऐसे में अगर कल जांच के बाद उनकी डिग्री नकली साबित हो जाती है तो उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही हो सकती है। आज नहीं तो कल कानून अपना काम करेगा। फिलहाल तो हम केजरीवाल के इस आरोप पर चर्चा करना चाहते हैं कि क्या अनपढ़ होना या अल्प शिक्षित होना अपराध है? डिग्री हासिल करने से ज्ञान आ जाने की गारंटी नहीं है। हालांकि हम मोदी जी और भाजपा की अनेक नीतियों कानूनों और निर्णयों से असहमत हैं। लेकिन केजरीवाल यह नहीं कह सकते कि केवल पढ़ा लिखा होना और उच्च शिक्षित होना ठीक होना ईमानदार होना और काबिल होना होता है। नरसिम्हा राव ऐसे पीएम थे जिनको सात सात भाषाओं का ज्ञान था। लेकिन सबसे विवादित प्रधनमंत्री साबित हुए। मनमोहन सिंह वित्त विशेषज्ञ थे। लेकिन उनकी सरकार पर सबसे अधिक करप्शन के आरोप लगे। अंग्रेज जिन्होंने हमें गुलाम बनाया लूटा मारा तबाह और बर्बाद किया वे उच्च शिक्षित ही थे। जितने बड़े बड़े पदों पर अधिकारी बैठे हैं। वे सब भी उच्च शिक्षित हैं। लेकिन अधिकतर घोटाले रिश्वतखोरी और जनविरोधी काम उनकी कलम से ही होते हैं। राजस्थान हाईकोर्ट के एक जज साहब कह रहे थे कि मोर के आंसू पीकर मोरनी गर्भवती होती है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज साहब कह रहे थे कि गाय अकेला जानवर है जो आॅक्सीजन ही लेती है और आॅक्सीजन ही वापस छोड़ती है? जज तो शायद उच्च शिक्षित ही लोग बनते हैं? लेकिन हम सब जजों के बारे में ऐसा नहीं कह सकते। केजरीवाल को पता होना चाहिये कि देश में इतनी गरीबी पक्षपात और गैर बराबरी है कि सब लोग ना केवल उच्च शिक्षा नहीं ले पाते बल्कि प्राथमिक शिक्षा लेना भी उनकी पहंुच से बाहर होता है। यह सच है कि शिक्षा से इंसान का दिमाग खुलता है। समझ बढ़ती है। सोच अच्छी बन सकती है। लेकिन इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती। अगर अनपढ़ या कम पढ़े आदमी की भी सोच नीयत और समझ बेहतर है तो वह जहां भी रहेगा ईमानदारी से काम करेगा। साथ ही अगर उच्च शिक्षित इंसान भी परंपरावादी धर्मभीरू अंधविश्वासी अवैज्ञानिक साम्प्रदायिक झूठा बेईमान मक्कार धोखेबाज़ हिंसक जनविरोधी दकियानूसी फासिस्ट और जातिवादी है तो वह अनपढ़ के मुकाबले और अधिक नुकसान करेगा। इसकी वजह यह है कि उसको अपनी डिग्री से जो जानकारी मिली है वह उसका दुरूपयोग बुरे काम में और बड़े पैमाने व चालाकी से करेगा। खुद केजरीवाल आईआईटी के टाॅपर रहे हैं। लेकिन दिल्ली और पंजाब के चुनाव जीतने के बाद उनका अहंकार अवसरवाद और अनैतिकता सर चढ़कर बोल रही है। वह नोटों पर लक्ष्मी गणेश की तस्वीर छापकर देश का आर्थिक संकट दूर करने की बेतुकी बात कह चुके हैं। इतने पढ़े लिखे होकर वे दिल्ली में सबसे वोट लेकर भी अपनी कुर्सी बचाये रखने को पूरी बेशर्मी से शाहीन बाग आंदोलन में कभी अपना समर्थन देने नहीं गये। दिल्ली में हुए दंगों को रोकना तो दूर होने के बाद दंगा पीड़ितों से मिलने या गरीबों के घर उजाड़ने को बुल्डोज़र चलने और बिल्कीस बानो के रेप व मर्डर के अपराधियों को समय से पहले छोड़ने पर सत्ता के घटिया लालच और बेहायी से मंुह बंद कर चुपचाप बैठे रहे। केजरीवाल को लगता है कि दिल्ली में दो करोड़ लोगों को बिजली पानी निशुल्क या सस्ता देकर वे देश के हीरो बन गये हैं। जबकि पंजाब में ही अगर वे ये करेंगे तो पंजाब का दिवाला निकल जायेगा। केजरीवाल इस बात का जीता जागता सबूत हैं कि एक पढ़ा लिखा नहीं इतना अधिक पढ़ा लिखा मुख्यमंत्री कैसे अपने गुरू अन्ना हज़ारे सहित जाने माने वकील प्रशांत भूषण जाने माने समाजसेवी योगेंद्र यादव और जानेमाने पत्रकार आशुतोष को अपनी पार्टी के सत्ता मंे आने पर विश्वासघात कर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा सकता है। जबकि नरेंद्र मोदी तो आज अपनी लोकप्रियता से पीएम बने हैं।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।*