Thursday 31 May 2018

उपचुनाव में bjp की हार

उपचुनावः मोदी नहीं बीजेपी की हार ?

देश के विभिन्न राज्यों में 4 लोकसभा और 10 विधानसभा उपचुनाव में से बीजेपी मात्र एक एमपी और एक एमएलए जिता पाई है। क्या इस परिणाम को बीजेपी सरकार की उल्टी गिनती चालू होना माना जा सकता है? क्या विपक्ष के एक होने से इन नतीजों को आने वाले तीन राज्यों और 2019 के आम चुनाव की बानगी माना जाये?

कर्नाटक में स्पष्ट  बहुमत न मिलने और बाद में बहुमत का जुगाड़ करने में सुप्रीम कोर्ट के बीच में आकर दीवार बन जाने से बीजेपी अभी वहां सरकार न बना पाने के सदमे से उबर भी नहीं सकी थी कि अब उपचुनाव की नतीजे उसके लिये अपशकुन बनकर आए हैं। सबसे अधिक उसे यूपी की कैराना सीट की हार चुभेगी। इसकी वजह यह है कि यूपी न केवल सबसे बड़ा प्रदेश है, बल्कि यहां पीएम मोदी का चुनाव क्षेत्र वाराणसी भी है। साथ ही 2014 के चुनाव में बीजेपी को यूपी से सबसे अधिक कुल 80 में से 73 सीटें मिलीं थीं।

यहां बीजेपी को एक खतरा पहले ही एसपी-बीसएसपी के गठबंधन से पिछले दिनों मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की खाली हुई लोकसभा की सीट गोरखपुर और फूलपुर पर शर्मनाक हार से महसूस हो रहा था, लेकिन वह इसको यह कहकर अनदेखा कर रही थी कि उसको अंदाज़ा नहीं था कि एसपी और बीएसपी चुनाव के एनमौके पर यह गठबंधन करेंगी। हालांकि कैराना का तो उसे पहले से पता था। असल में कैराना कोई आम लोकसभा सीट नहीं है। यहां से बीजेपी के पूर्व एमपी हुकम सिंह के निधन के बाद यह चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया था। बीजेरी ने सहानुभूति वोट से जीत के लिये उनकी पुत्री मृगांका सिंह को चुनाव में उतारा था, लेकिन यहां विपक्ष ने कांग्रेस सहित लोकदल को अपने महागठबंधन में शामिल कर बीजेपी को धूल चटा दी है। सबसे बड़ी बात यह हुई कि जिन अजीत सिंह को बीजेपी सियासी तौर पर ख़त्म करना चाहती थी। उन अजित सिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी ने जाट वोट बैंक को फिर से मुसलमानों के साथ, उन्हें बीजेपी के हिंदू ध्रुवीकरण की एकमात्र उम्मीद पर पानी फेर दिया है। हैरत की बात यह है कि यहां दलितों को भी आरएलडी को वोट देने में कोई दिक्कत नहीं हुई।

उधर महाराष्ट्र की भंडारा गोंदिया सीट पर एनसीपी ने कांग्रेस के सहयोग से बीजेपी को पटखनी देकर पुराना गठबंधन ताज़ा कर दिया है। हालांकि महाराष्ट्र की ही पलघर लोकसभा सीट बीजेपी ने उपचुनाव में जीत ली है, लेकिन इससे पहले एमपी की रतलाम पंजाब की गुरदासपुर राजस्थान की अजमेर और अलवर सीट भी लोकसभा उपचुनाव में बीजेरी गंवा चुकी है। ऐसे ही विधानसभा की 10 सीटों के उपचुनाव में बीजेपी केवल उत्तराखंड की थराली सीट बचा सकी है।

इसके अलावा बिहार की जोकिहाट सीट राजद ने बीजेपी के सहयोगी जनता दल यूनाइटेड से इतने भारी अंतर से छीनी है कि उतने उसके कुल वोट भी नहीं है। इससे पहले भी आरजेडी से नीतीश की पार्टी एक और उपचुनाव बुरी तरह हार चुकी है। इससे बीजेपी के लिए यह खतरा बढ़ गया है कि कहीं नीतीश कुमार एक बार फिर से उसका साथ न छोड़ भागें। भाजपा के लिये खतरे की घंटी इस बात से बज रही है कि एक तरफ तो वह कांग्रेस मुक्त भारत का नारा बार-बार उछाल रही है। दूसरी तरफ, उसी कांग्रेस का एक प्रत्याशी महाराष्ट्र के पलूस काडेगांव में निर्विरोध चुना गया है।

हालांकि बीजेपी इन उपचुनावों पर यह सफाई देगी कि इनके परिणामों से उसकी सत्ता पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। साथ ही सोचने वाली बात यह भी है कि जब किसी राज्य के चुनाव में पीएम मोदी लगातार थोक में चुनाव रैली करते हैं, तो वहां बीजेपी लगातार जीत दर्ज करती चली आ रही है। हालांकि कैराना चुनाव में मोदी ने रोड शो और जनसभा की थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी यहां हिंदू कार्ड खेलने की नाकाम कोशिश की थी, लेकिन लोगों ने जिन्ना की बजाय गन्ना मुद्दे को वोट देते हुए अपने पुराने जाट नेता चौधरी अजीत सिंह की पार्टी लोकदल को एक बार फिर से जीवनदान दे दिया है। सबको पता है कि बीजेपी के पास केंद्र और किसी भी राज्य में उपलब्ध्यिों के नाम पर कुछ खास नहीं है, लेकिन देखना यह है कि अब एमपी राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव के साथ केंद्र के एक साल बाद आ रहे आम चुनाव में जीतने के लिए बीजेपी क्या बड़े बदलाव करती है?

रेल हादसे

हादसे होते रहते हैं, अफ़सर सोते रहते हैं!

2012 में बनी अनिल काकोदकर समिति ने 5 साल के भीतर रेलवे के सभी मानव रहित फाटक ख़त्म करने की सिफारिश की थी । लेकिन हुआ क्या पहले जुलाई 2016 में वाराणसी इलाहाबाद रेल खंड के मानव रहित फाटक पर बच्चो की गाड़ी ट्रेन से टकराई। इसके बाद पिछले दिनों कुशीनगर में फिर से स्कूल वैन ऐसे ही मानरहित फाटक पर टकरा गयी। इसमें भी कई बच्चे जान गंवा बैठै। उधर रेलवे बुलैट ट्रेन चलाने में लगा है।

हर रेल हादसे के बाद सरकार जागती है। अधिकारी मौके पर पहंुचते हैं। बड़े बड़े नेता दुर्घटना में जान गंवा बैठे लोगों के परिवारों के लिये सहानुभूति जताते हुए कुछ मुआवज़ा देने का ऐलान कर देते हैं। इसके बाद धीरे धीरे सरकार और लोग इस एक्सीडेंट को भूल जाते हैं। जुलाई 2016 के हादसे के बाद रेलमंत्री ने बड़े ज़ोरशोर से दावा किया था। उनका कहना था कि गणेश चतुर्थी 2018 तक ऐसे सभी मानव रहित रेलवे फाटक हटा दिये जायेंगे। लेकिन ऐसा होता नज़र नहीं आ रहा है। इससे पहले एक सुझाव यह भी आया था कि ऐसे सभी मानव रहित फाटकों पर भारतीय अंतरिक्ष संगठन ‘इसरो’ द्वारा विकसित उपग्रह आधारित चिप प्रणाली लगा दी जाये।
इस चिप की विशेषता यह बताई गयी थी कि जब रेल फाटक से 500 मीटर दूर होगी। तभी इस मानव रहित फाटक पर बहुत तेज़ आवाज़ में हूटर बजने लगेगा। इससे यह होता कि वहां से अपनी ध्ुान में गुज़र रहे राहगीरों को यह पता चल जाता कि रेल नज़दीक आ चुकी है। लेकिन नेताओं के और दावों की तरह यह केवल हवाई घोषणा बनकर ही रह गयी। रेलवे ने मानव रहित फाटकों पर गेटमित्र या गेटमैन की तैनाती ना होने तक यह चिप लगाना भी गवाराह नहीं किया। इससे यह पता चलता है कि रेलवे के पास धन के अभाव से अधिक नीयत और इरादे की कमी है।
ऐसा लगता है कि उसको इस बात से कोई सरोकार ही नहीं कि जनता की जान को उसके मानव रहित फाटक कितना बड़ा जोखि़म बने हुए हैं। यह ठीक है कि रेलवे की अपनी मजबूरियां हैं। लेकिन यह भी सच है कि किसी भी सरकार में उसके सत्ताधारी नेताओं के साथ ही प्रशासनिक अधिकारियों के रूख़ में कोई परिवर्तन नहीं आता है। रेलवे के अधिकारी भी इसका अपवाद नहीं है। वे सत्ता बदलने का भी कोई विशेष असर नहीं लेते। लालफीताशाही और सरकारी अफ़सरों की लेटलतीफी की हालत यह है कि वे तब तक किसी योजना पर काम करने को तैयार नहीं होते जब तक कि उनकी जेब गर्म न हो जाये।
साथ ही वे ऐसे ऐसे लापरवाही और मनमानी के जनविरोधी काम भी बेधड़क करते हैं। जिनसे आम जनता की जान पर बन आती है। उनको यह भी पता है कि वे भ्रष्ट नेताओें और जनप्रतिनिधियों की आंख के तारे बने रहेंगे। अगर वे उनकी चापलूसी करते हुए उनको फीलगुड कराते रहें। अधिकारियों को यह कभी एहसास होता ही नहीं कि वे सत्ताधारी नेताओं या मंत्री एमपी और एमएलए नहीं बल्कि संविधान के हिसाब से सीध्ेा जनता के सेवक हैं।
उनकी पहली जवाबदेही आम जनता के लिये ही होनी चाहिये। लेकिन देखने मंे यह आता है कि सरकारी अधिकारी और कर्मचारी खुद को जनता का पालनहार और दाता समझ कर चलते हैं। उनमें मानवीयता और भावनाओं का घोर अभाव है। इसी का नतीजा है कि चाहे कितनी बड़ी दुर्घटना हो जाये और चाहे जितने लोगों की जान चली जाये सरकारी मशीनरी लगातार सोती रहती है।
0 कुछ ना कहने से भी छिन जाती है एजाजे़ सुख़न,
जु़ल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है ।।

Tuesday 29 May 2018

मोदी की लोकप्रियता

मोदी की लोकप्रियता बरक़रार!

केंद्र में मोदी सरकार बने चार साल पूरे हो चुके हैं। इस दौरान उनके किये वादे और दावे कितने पूरे हुए इस पर अलग अलग राय हो सकती है। लेकिन उनके समर्थकों में उनका विश्वास और लोकप्रियता कमोबेश पहले की तरह बरक़रार लगती है। यह विचार का विषय है कि बिना किसी ठोस उपलब्धि के भी मोदी का जादू लोगों पर कैसे और क्यों चल रहा है?

केंद्र में जब चार साल पहले भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी थी। उस समय कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही यूपीए-2 की सरकार से जनता का बुरी तरह मोहभंग हो चुका था। उस समय मनमोहन सरकार 2जी 3जी सहित आदर्श घोटालों से बुरी तरह घिरी थी। यहां तक कि कोल घोटाले के छींटे तो सीध्ेा तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दामन तक पहंुच चुके थे। ऐसे में आरएसएस ने एक सोची समझी योजना के तहत गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेंद्र दोमोदर मोदी का नाम चुनाव से पहले ही पीएम पद के संभावित प्रत्याशी के तौर पर आगे रखकर जबरदस्त चुनाव प्रचार शुरू किया।
तब तक भाजपा के दूसरे वरिष्ठ नेता एल के आडवाणी को पाकिस्तान जाकर जिन्नाह के मज़ार पर फातेहा पढ़ने की सज़ा के तौर पर उनका सियासी जनाज़ा निकाला जा चुका था। इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर मोदी की ज़बरदस्त चुनाव रैलियों से देश में ऐसा माहौल बनाया गया कि जनता को लगा कि मोदी मानव न होकर मानो कोई देवता या भगवान हैं। जनता उनके लच्छेदार भाषणों और कांग्रेस पर हमला करने वाले तीखे बयानी हमलों में बह गयी। इसके बाद जब हम आज मोदी जी की उपलब्ध्यिों को देखते हैं तो पता चलता है कि उन्होंने हर साल युवाओं को दो करोड़ रोज़गार देने का वादा करके रिझाया था।
लेकिन मोदी सरकार हर साल 3.4 लाख ही रोज़गार ही दे पा रही है। मोदी जी ने किसानों से उनकी उपज का समर्थन मूल्य लागत का डेढ़ गुना देने का वादा किया था। लेकिन वास्तव में किसान को उसकी लागत भी नहीं मिल पा रही है। मोदी जी का कालेधन को वापस 100 दिन में लाने का वादा था। लेकिन 100 दिन तो दूर अब वे कालाधन लाने की कोई समय सीमा ही बताने को तैयार नहीं हैं। हालत यह है कि भाजपा मुखिया अमित शाह तो उस वादे को ही एक जुमला बताकर खारिज कर चुके हैं। करप्शन के आरोपी सांसदों और विधायकों के मुक़दमे विशेष अदालतों में एक साल के भीतर तय करने का मोदी जी का दावा हवा हो चुका है।
इतना ही नहीं खुद मोदी जी की भाजपा ने अपराधियों और गंभीर आरोपियों को चुनाव जीतने की खातिर भाजपा में भी बड़े पैमाने पर लिया और उनको थोक में चुनाव लड़ने को टिकट भी दिये हैं। गंगा को साफ करने के लिये नमामि गंगे योजना का आवंटित बजट चार साल में 10 प्रतिशत भी खर्च नहीं हो सका है। ऐसे ही सत्ता के मोह मेें कश्मीर की धारा 370 खत्म करने की बजाये उस अलगाववादी पीडीपी से भाजपा ने साझेदारी कर ली है। जिस पर पहले तरह तरह के खुद भाजपा आरोप लगाती थी। समान नागरिक संहिता की तो मोदी जी कभी बात ही नहीं करते।
पता नहीं उनको कौन सा अल्पसंख्यक वोटबैंक का डर सताता है। कश्मीरी पंडितों की वापसी भी आज तक नहीं हो सकी है। सेना की हालत सुधारने के दावे भी मोदी सरकार के धरे के धरे रह गये हैं। देश मंे 100 स्मार्ट सिटी बनाने का दावा था। लेकिन चार साल में एक भी शहर स्मार्ट नहीं बन सका है। गोमांस को लेकर जो दावे किये गये थे। वे भी हवाई साबित हुए हैं क्योंकि गोमांस निर्यात में आज भारत दुनिया में पहले स्थान पर है। अलबत्ता इतना ज़रूर हुआ है कि अल्पसंयकों को गोरक्षकों के नाम पर जगह जगह डरा धमकाकर मारे जाने की चंद घटनाओं से उनमें डर पैदा हुआ है।
दलितों को पहले से ज्यादा दबंगों द्वारा सताया जा रहा है। उधर जिन पिछड़ों के वोट थोक में हिंदुत्व के नाम पर लिये गये थे। उनको आरक्षण से वंचित कर सवर्णांे को खुलेआम उनके हिस्से के कोटे पर तैनात किया जा रहा है। कुल मिलाकर तीसरे साल जहां नोटबंदी ने लोगों के रोज़गार छीने थे। वहीं चौथे साल में जीएसटी से कारोबार तबाह और बर्बाद हो रहे हैं। लेकिन एक बात माननी होगी कि कांग्रेस अन्य विरोधी दल सेकुलर बुध््िदजीवी और खासतौर पर मुसलमानों को लेकर संघ परिवार ने देश में जो माहौल बना दिया है।
उससे हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग बिना ठोस उपलब्ध्यिों और आर्थिक व्यापारिक व सामाजिक नुकसान झेलकर भी मोदी के मोहपाश में बंधा है। आशंका यह है कि आम चुनाव में बचे एक साल में मोदी सरकार अपने कामों में सुधार की बजाये देश में एक बार फिर से गुजरात के 2002 के दंगों की तरह ऐसा नफ़रत भय और हिंदू राष्ट्रवाद का जिन्न बोतल से निकालकर बाहर लायेगी जिससे जनता असली मुद्दों पर उनसे जवाब तलब न कर साम्प्रदायिकता और घृणा व भय की लहर में बहकर एक बार फिर से उनको चुनेगी?
ये लोग पांव नहीं जे़हन से अपाहिज हैं,
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता हैै ।।

Friday 25 May 2018

सरकारी सेवा में मुस्लिम बढ़े

मुस्लिमों से पक्षपात नहीं है यहां!

देश में भाजपा की सरकार बने चार साल होने जा रहे हैं। इस दौरान कई बार मोदी सरकार पर हिंदूवादी नीतियों को बढ़ावा देने और मुस्लिम विरोधी सोच को परवान चढ़ाने के विपक्ष ने आरोप लगाये। हो सकता है इनमें कुछ सच्चाई भी हो। लेकिन भारत सरकार की सिविल सर्विस की परीक्षा में इस बार 990 में से 51 मुस्लिम सफल हुए हैं।

इस बार के संघ लोक सेवा आयोग के नतीजे बता रहे हैं कि इनमें आज भी निष्पक्षता पारदर्शिता और ईमानदारी बनी हुयी है। कुल 990 में से 51 मुस्लिम भी इसमें पास हुए हैं। हालांकि मोदी की भाजपा सरकार पर अल्पसंख्यक खासतौर पर मुस्लिम विरोधी होने के बार बार आरोप लगते रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि अगर यूपीएससी परीक्षा में पहले से अधिक मुस्लिम पास हो रहे हैं तो यह मोदी सरकार और संघ लोकसेवा आयोग की निष्पक्षता और पारदर्शिता की वजह से भी हो पाया है। यहां यह कहना भी अनावश्यक होगा कि संघ लोकसेवा आयोग चूंकि एक स्वायत्त संस्था है।
इसलिये इसमें यह ईमानदारी संभव हो सकी है। कहने को तो चुनाव आयोग रिज़र्व बैंक और सूचना आयोग भी स्वायत्त माना जाता है। लेकिन मजाल है कि अगर कोई काम मोदी सरकार न चाहे तो ये आयोग कर सकें। हम लोगों को सदा नकारात्मक सोच से काम न लेकर देश में वो सब भी देखना चाहिये। जो आज भी अच्छा और पहले से बेहतर हो रहा है। मिसाल के तौर पर सच्चर कमैटी की रिपोर्ट बता रही है कि प्रशासन में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 3 प्रतिशत से कम पर आ चुका है। इस कमी को सुधारने के लिये सरकार की ओर से मुसलमानों के लिये निशुल्क कोचिंग की व्यवस्था की गयी थी।
इस व्यवस्था को हालांकि कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने शुरू किया था। लेकिन यह प्रशंसा और संतोष की बात है कि मोदी सरकार ने भी इस योजना को चालू रखा है। आंकड़े बताते हैं कि 2013 मेें जहां मुसलमानों का प्रतिशत यूनियन ऑफ पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा में 3.03 था। वह अब बढ़कर 2017 में 5.25 तक पहुंच चुका है। इस उपलब्धि का श्रेय मुस्लिम समाज और उसके विभिन्न संगठनों के कोचिंग को भी हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि पास होने वाले अधिकांश मुस्लिम सामान्य वर्ग से आ रहे हैं।
अन्यथा यह कहा जा सकता था कि उनमें पर्याप्त योग्यता न होतेे हुए भी आरक्षण का लाभ देकर आगे लाया जा रहा है। इन सकारात्मक और प्रशंसा के पलों में यह भी सोचने की बात है कि मुस्लिम लड़कियों की भागीदारी यहां भी अन्य क्षेत्रों की तरह काफी कम एक प्रतिशत से भी नीचे क्यांे बनी हुयी है? जबकि पढ़ाई के लगभग सभी मोर्चो पर वे लड़कों को पीछे छोड़ती रही हैं। एक सर्वे में इसकी वजह उनकी जल्दी शादी होना भी माना जाता है। हैदराबाद की जमील फ़ातिमा जे़बा की सफल मुस्लिम प्रत्याशियों में चौथी पोज़िशन है।
जे़बा का भी यही मानना है कि आज भी मुस्लिम समाज में एक तो लड़कियों को शिक्षा और खासतौर पर उच्च शिक्षा में आगे जाने का लड़कों के बराबर मौका नहीं मिलता। उनका यह भी कहना है कि मुस्लिम लड़कियों पर अन्य वर्गो के मुकाबले परिवार और समाज की अधिक सख़्ती और निगरानी की वजह से भी उनका इन सेवाओं में प्रतिशत कम रह जाता है। बहरहाल जे़बा एक बात बार बार ज़ोर देकर कहती है कि उसने यूपीएससी की परीक्षा पास कर और मुस्लिम कैंडिडेट में चौथी पोज़िशन हासिल कर यह साबित कर दिया है कि सरकार मुसलमानों केेे साथ पक्षपात नहीं करती।
0 ऐब ही ढंूढना जिनकी फ़ितरत में है,
क्यों गिनाऊं उन्हें मैं अपनी खूबियां।

Tuesday 22 May 2018

कर्नाटक के नाटक

कर्नाटक: कांग्रेस की हार !
0चाल चरित्र चहरे की बातें करने वाली भाजपा ने कर्नाटक में बिना बहुमत के सरकार बनाने का पहले दावा किया। बाद में तोड़फोड़ खरीद फ़रोख़्त और सारी तिगड़मेें नाकाम होने के बाद मुंह की खाकर सदन में विश्वास मत पर वोटिंग से ही भाग खड़ी हुयी। उसके एक दिन के सीएम येदियुरप्पा की इस्तीफ़े से यह साफ़ गया कि उनके पास पहले से ही बहुमत नहीं था। इस शर्मनाक हार से भाजपा की सियासी कब्र खुद गयी है।

         

   केंद्र की सत्ता में पूर्ण बहुमत से आने के बाद से भाजपा तानाशाह की तरह पेश आ रही है। उसने संविधान लोकतंत्र और कानून के राज की ध्ज्जियां उड़ा रखी हैं। राष्ट्रपति गवर्नर सीबीआई एनआईए सीवीसी आरबीआई चुनाव आयोग से लेकर वह कोर्ट तक का गलत इस्तेमाल करने के आरोप झेल रही है। पहले उसने कांग्रेसमुक्त यानी मुख्य विपक्षी दल को पूरी तरह ख़त्म करने का अलोकतांत्रिक नारा दिया। इसके बाद वह एक एक कर सभी विरोधी दलों के भी सफ़ाये पर उतर आई। अब वह मनमानी की सीमा लांघ रही थीं।

पहले उसने गोवा मिज़ोरम और बिहार में सबसे बड़ी पार्टी को पहले सरकार बनाने का प्रस्ताव न देकर पुरानी परंपरा तोड़कर चुनाव बाद बने गठबंधन को अपने गवर्नर्स से सीधे शपथ दिलाने का अभियान शुरू किया। जिससे उसके विरोधी दलों को सरकार बनाने का मौका ही नहीं मिला। लेकिन वे इसलिये मन मसोस कर रह गये क्योंकि जिनको गैर परंपरागत रूप से भाजपा को लाभ पहुंचाने के लिये मौका दिया गया। उनका बहुमत सदन में साबित हो चुका था। ज़ाहिर बात है कि ऐसे में अगर वे कोर्ट या आंदोलन का रास्ता भी अपनाते तो उनको कुछ हासिल नहीं होना वाला था।

कर्नाटक में भाजपा ने बेशर्मी और मनमानी की हद पार कर दी। जब उसको खुद को अपने बल पर बहुमत नहीं मिला और उसके विरोधी कांग्रेस और जनता दल एस ने आपस में मिलकर सरकार बनाने का फ़ैसला किया तो उसको अपनी बनाई ही परंपरा का सम्मान करते हुए उनको बहुमत साबित करने का मौका राज्यपाल सेे दिलाना चाहिये था। लेकिन यहां तो इस सरकार में पीएम मोदी के अलावा किसी की चलती ही नहीं। कर्नाटक के वर्तमान राज्यपाल वजुभाई वाला तो मोदी के एहसानों में सर से पांव तक डूबे हुए हैं। उन्होंने गुजरात में मोदी के लिये अपनी जीती मणिनगर सीट खाली की थी।

गुजरात के गृहमंत्री झापड़िया जिन्होंने मोदी के लिये सीट छोड़ने से दो टूक मना कर दिया था। बाद मेें मंत्री पद से हटाये गये। कुछ दिन बाद उनकी हत्या सुबह की सैर करते हुए अज्ञात लोगों ने कर दी। उनकी पत्नी ने कई बड़ी सियासी हस्तियों पर शक किया लेकिन जांच तो दूर उनकी किसी ने नहीं सुनी। यही हाल हमारे राष्ट्रपति महोदय का है। उन्होंने दलित हित पर आज तक एक शब्द भी नहीं बोला।

चुनाव आयोग का भी यही हाल है। लेदेकर लोगों का कुछ विश्वास सुप्रीम कोर्ट में बचा है। लेकिन जब से चार सीनियर जजों ने चीफ़ जस्टिस पर गंभीर आरोप लगाये हैं। तब से वहां भी कुछ ही मामलों पर निष्पक्ष कार्यवाही होती नज़र आ रही है। सवाल यह है कि जब भाजपा को कर्नाटक में बहुमत नहीं मिला। उसको किसी ने खुद नहीं मांगने पर भी समर्थन नहीं दिया तो उसने किस आधार पर सरकार बनाने का दावा किया?

ऐसा कमाल शायद ही किसी गवर्नर ने किया हो कि येदियुरप्पा ने 104 विधायकों का पत्र दिया और जेडी एस कांग्रेस ने 116 विधायकों के समर्थन का लेकिन गवर्नर ने संविधान और तमाम लोकतांत्रिक परंपराओं को ताक पर रखकर भाजपा को सरकार बनाने को आमंत्रित किया। इतना ही नहीं येदियुरप्पा ने विश्वास मत हासिल करने का 7 दिन का समय मांगा। लेकिन गवर्नर ने 15 दिन का समय दे दिया। वो तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का कि उसने अपनी साख बचाने को 15 दिन का समय घटाकर एक दिन कर दिया।

बात भी सही है कि अगर आपके पास बहुमत है। आपने इसी वजह से सरकार बनाने का दावा किया है तो उस बहुमत को तत्काल साबित करके दिखाओ। ज़ाहिर है कि जद एस के इन दावोें में दम है कि उनके और कांग्रेस के विधायकों को खरीदने के लिये 100 करोड़ और मंत्री पद का लालच भाजपा दे रही थी। येदियुरप्पा के बेटे की एक ऑडियो क्लिप इस तरह की नेट पर वायरल भी हो रही है। उधर भाजपा विरोधी दलों के विधायकों की पत्नियों ने भी आरोप लगया है कि उनको उनके विधायक पतियों का समर्थन पाने के लिये भाजपा नेता फोन करके तमाम लालच और डरा धमका रहे थे।

उधर एक कांग्रेसी विधायक को किसी केस के कारण केंद्र सरकार ने एनफोर्समेंट डिपार्टमेंट से एक तरह से उठवा कर अपने समर्थन में वोट देने को अप्रत्यक्ष रूप से दबाव डाला। लेकिन यहां सवाल यह भी उठता है कि खुद कांग्रेस और विपक्ष का इस तरह से जुगाड़ कर बहुमत साबित करने का कोई अच्छा रिकॉर्ड क्यों नहीं रहा हैजनता तो यह कह सकती है कि उसने कांग्रेस की इसी तरह की घटिया हरकतों से छुटकारा पाने को भाजपा को सेंटर में पूर्ण बहुमत दिया था।

लेकिन वह तो कांग्रेस की भी बाप निकली। साथ ही यह सवाल भी सौ टके का है कि विपक्ष के विधायकों को रिज़ॉर्ट में घेरकर बंधक सा बनाकर क्यों रखना पड़ता हैअगर वे बिकने को तैयार नहीं होते तो उनको भाजपा कैसे खरीद सकती थीदरअसल कांग्रेस हो या भाजपा ये सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे बन चुके हैं। जो दल संविधान और कानून की ही परवाह न करते हों उनसे निष्पक्षता परंपरा और नैतिकता ही आशा करना मूर्खों के स्वर्ग में रहना ही माना जायेगा।  

0 हमने सोचा था जाकर उससे फ़रियाद करेंगे,

  कमबख़्त वो भी उनका चाहने वाला निकला।