Tuesday 28 August 2018

हरी टोपी

पीएम हरी टोपी क्यों पहनें ?

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने सवाल उठाया है कि पीएम मोदी देश के सभी प्रदेशों में जाने पर वहां की परंपरा के अनुसार हर तरह की टोपी पहनते हैं। लेकिन कभी हरी टोपी क्यों नहीं पहनते? थरूर यह कहना चाहते हैं कि पीएम हरी टोपी मुसलमानों की प्रतीक होने की वजह से नहीं पहनते…।

जैसे जैसे लोकसभा के चुनाव पास आते जा रहे हैं। वैसे वैसे विभिन्न दलों के एक दूसरे पर राजनीतिक हमले तेज़ होते जा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं इस चुनावी तैयारी में भाजपा और पीएम मोदी, कांग्रेस और विपक्ष से काफी आगे नज़र आ रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि वोटों की शह मात की इस लड़ाई में भाजपा का रास्ता खुद कांग्रेस नेता आसान करने में लगे हैं। गुजरात चुनाव से ठीक पहले जिस तरह बड़बोले कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर ने पीएम मोदी को अपशब्द कहकर भाजपा की करीब नजर आ रही हार को मात्र 10 सीटों के मामूली अंतर से जीत में बदल दिया था।

उसी तरह आजकल कांग्रेसी नेता शशि थरूर कभी 2019 के बाद भाजपा के जीतने पर भारत के हिंदू पाकिस्तान बनने तो कभी पीएम मोदी द्वारा हरी टोपी से परहेज करने पर सवाल उठाकर उल्टा कांग्रेस को ही कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। उनको यह जरा भी अहसास नहीं है कि ये मुद्दे उन जैसे चंद सेकुलर हिंदू ठीक समझ सकते हैं। लेकिन आम हिंदू इस तरह के बयानों से कांग्रेस से और दूर होता है। यह बात किसी से छिपी नहीं रही है कि भाजपा हिंदू राष्ट्र का वृहद लक्ष्य सत्ता के द्वारा साधने का सपना देखती रही है। इसके लिये उसने हिंदू वोट बैंक की राजनीति लंबे समय से की है।

जिस तरह से कथित सेकुलर दलों ने हिंदू जातिवाद के साथ अल्पसंख्यक खासतौर पर मुसलमानों की साम्प्रदायिकता को मिलाकर सरकार बनाने का एक समीकरण लंबे समय तक सफलतापूर्वक चलाया था। उसके जवाब में भाजपा ने भी हिंदू साम्प्रदायिकता की राजनीति सत्ता के केंद्र में स्थापित कर अपना हिंदू वोट बैंक काफी हद तक मजबूत कर लिया है। वोट बैंक जब एक बार किसी भी दल का बन जाता है तो जल्दी से उसका साथ नहीं छोड़ता। यही वजह है कि नोटबंदी और जीएसटी से लेकर कालाधन न आने और बलात्कार व अन्य अपराध न रूकने के बावजूद हिंदू वोट बैंक भाजपा के साथ न केवल आज भी कमोबेश बना हुआ है। बल्कि आगे भी थोड़े से वोट कम होने के बाद भी यह वोट बैंक मोदी का साथ एक झटके में नहीं छोड़ने जा रहा है। संघ परिवार ने देश में ऐसा माहौल बना दिया है। जिसमें तर्क आंकड़े और प्रमाण की कसौटी पर आप विकास उन्नति और प्रगति को नहीं परख सकते। यह ठीक वही पैटर्न है जो कट्टरपंथी मुस्लिम मुल्कों में धर्म के नाम पर समाज को अतीतजीवी बनाकर विनाश की ओर ले जाया गया है।

हम यह भी दावे से नहीं कह सकते कि भारत भी पीछे की ओर वापस जाने को संघ परिवार के चाहने से तैयार हो ही जायेगा? लेकिन यह भी सच है कि जिस तरह से पीएम मोदी से लेकर भाजपा सरकारें और आरएसएस देश को हिंदू राष्ट्र बनाने को हर कीमत पर तत्पर है, शायद 2014 में उनको सकारात्मक बदलाव वाले मतदाताओं में से एक हिस्से ने इस विनाश के लिये वोट नहीं दिया था। सबका साथ सबका विकास अच्छे दिन और कालाधन वापस लाने में मोदी नाकाम हुए हैं तो यह वर्ग उनको छोड़ ही देगा। इसकी क्षतिपूर्ति करने को मोदी क्या करते हैं।

यह देखने वाली बात है। हिंदू वोट बैंक को बचाये रखने के लिये ही पीएम मोदी हरी यानी मुसलमानों की टोपी से परहेज़ रखते हैं। वे जानते हैं कि अगर हरी टोपी पहनकर उन्होंने भूल से भी आडवाणी वाली जिन्नाह को सेकुलर बताने की भूल की तो उनको भी हिंदू वोट बैंक नकारने में देर नहीं करेगा।

तुम्हें ख़बर है कि ताक़त मेरा वसीला है,
तुम अपने आपको बे इख़्तियार मत करना।

इमरान से आशा नहीं

इमरान खान से क्यों उम्मीद रखें ?

पाकिस्तान में पूर्व क्रिकेटर इमरान खान अब पीएम पद की शपथ लेकर बाकायदा वहां की बागडोर संभाल चुके हैं। अधिकांश जानकारों का कहना है कि इमरान वहां सेना की कठपुतली बनकर काम करेंगे। जबकि कुछ लोगों को उनका मिज़ाज यह लगता है कि वे स्वतंत्र रूप से देश चलायेंगे। हमारा कहना है कि इमरान चाहे जो करें हम उनसे उम्मीद क्यों रखें? हमारा देश इतना मज़बूत है कि हम हर हाल में इमरान के पाकिस्तान से निबट सकते हैं।

दुनिया के कई मुल्कों के पास सेनायें हैं। लेकिन दुनिया का अकेला मुल्क पाकिस्तान है। जिसकी सेना के पास एक पूरा मुल्क है। पाकिस्तान में किसकी सरकार बनती है? उसका पीएम कौन बनता है? उसकी विदेश नीति क्या होगी? ये ऐसे सवाल हैं जिनका असलियत से कोई सरोकार नहीं है। पाकिस्तान अपने जन्म से ही निराला देश रहा है। वह इस्लाम के नाम पर मुसलमानों के लिये बना, लेकिन उसने भारत से बड़ी भारी उम्मीदें लेकर अपना इकलौता मुल्क समझकर और अपना सबकुछ छोड़कर वहां गये मुसलमानों को कभी पाकिस्तानी नहीं माना।

पाकिस्तान ने उनको हमेशा मुजाहिर बताया। उनको शरणार्थी से भी बदतर हालात में रखा। नतीजा यह हुआ कि उनका वहां के मूल पाकिस्तानियों से बराबर हकों के लिये सदा टकराव होता रहा है। मुहाजिरों को अपने उत्पीड़न के खिलाफ लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन तक की आज़ादी नहीं दी। इस वजह से ही मुहाजिर कौमी मूवमेंट के नेता अल्ताफ हुसैन को अपनी जान बचाने के लिये लंदन भागना पड़ा है। वहां अहमदियों को गैर मुस्लिम घोषित कर दिया गया। उन पर मस्जिद में घुसने तक पर पाबंदी है। अब उनका मताधिकार खत्म करने की मांग उठ रही है।

आतंकवाद पाकिस्तान की पहचान बन चुका है। वहां आतंकी मस्जिद में नमाज़ पढ़ते लोगों तक को बम से उड़ा देते हैं। गैर मुस्लिमों ही नहीं गैर सुन्नियों तक को अकसर मौत के घाट उतार दिया जाता है। सरकार आतंकियों को काबू कर नहीं सकती। जबकि सेना और आईएसआई का उनको खुला सपोर्ट बताया जाता है। सरकार की बजाये अल्लाह आर्मी और अमेरिका यानी तीन ए से पाकिस्तान चलता रहा है। इतना ही नहीं पाकिस्तान में पंजाबी मुसलमानों का दबदबा रहा है। इसका अंजाम यह हुआ कि जब बंगाली शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी चुनाव में बहुमत से जीतकर सत्ता संभालने की तैयारी कर रही थी।

ठीक उस समय पाकिस्तान की पंजाबी बहुल सेना ने पूर्वी पाकिस्तान यानी वर्तमान बंगलादेश में क़त्ले आम शुरू कर दिया। उसने वहां सबसे पहले बंगला भाषी बुद्धिजीवियों को मौत के घाट के उतारा। पाकिस्तान की सेना को जमाते इस्लामी जैसे कट्टर धार्मिक संगठन का इस नरसंहार के लिये खुला और हथियारबंद समर्थन भी मिला। अंजाम यह हुआ कि पाकिस्तान बनने के दो दशक बाद ही उसके दो टुकड़े हो गये। पूर्वी पाकिस्तान बंगलादेश के रूप में नया देश बनकर दुनिया के नक्शे पर उभर आया। इसके बाद पाकिस्तान में आधे से अधिक समय तक सेना का राज रहा।

जब जब सेना सत्ता में नहीं भी रही। उसने वहां की चुनी हुयी सरकारों को कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया। साथ ही वहां पीएम या प्रेसिडेंट नहीं बल्कि सेना का जनरल सर्वोच्च सत्ता होता है। जब सेना सत्ता में नहीं भी होती तब भी वह जो चाहती है, वहां की चुनी हुयी सरकारों को वही करना होता है। हालत यह रही है कि जब जब सेना सत्ता में थी, तब तो उसने मनमानी की ही। जब नवाज़ शरीफ की चुनी हुयी सरकार थी। तब भी सेना के जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने कारगिल की घुसपैठ बिना नवाज़ शरीफ को विश्वास में लिये कर डाली।

इसके बाद जब नवाज़ शरीफ ने सेना के इस कदम को सपोर्ट नहीं किया तो उनको सत्ता से बेदखल कर दिया गया। इस बार फिर जब नवाज़ की सरकार बनी तो सेना ने विदेश नीति अपने हाथ में रखी। नतीजा सबके सामने है। जब जब नवाज़ ने भारत से आपसी रिश्ते सुधारने चाहे। पाक सेना ने तब तब भारत विरोधी बड़ी घटनायें अंजाम देकर उसमें बाधा डाली। जब नवाज़ फिर भी बाज़ नहीं आये तो उनको करप्शन के आरोप में फंसाकर हमेशा के लिये सरकार से दूर कर दिया गया। इसलिये इमरान खान जिनको तालिबान खान भी कहा जाता है, अगर सेना कठपुतली बनाकर लाई है तो उनसे उम्मीद नहीं रखनी चाहिये।

भारत और उसकी सेना इतनी मज़बूत है कि इमरान को पीएम के तौर पर आगे रखकर पाक सेना कोई भी दुस्साहस करे तो उसको हम मुंहतोड़ जवाब दे सकते हैं। पाकिस्तानी सेना ने जब जब भारत पर हमला किया है। तब तब मुंह की खाई है। अगर उसको फिर कोई गलतफहमी हो गयी है तो हमारी भारतीय सेना उसको एक बार फिर धूल चटाकर औकात बताने में देर नहीं करेगी।

बच्चियों पर चुप्पी ?

इन बच्चियों पर खून नहीं खौलता ?

हमारे देश में देशभक्ति, गाय और मज़हब को लेकर छोटी-छोटी बातों पर लोग सड़कों पर उतर आते हैं। लेकिन बिहार और यूपी में जब बेसहारा बच्चियों के साथ रेप की ख़बरें आयीं तो ऐसे सब लोगों को सांप सूंघ गया जो अल्पसंख्यक बहुसंख्यक के सवाल पर खूब चीख़ते चिल्लाते रहते हैं। ऐसा तो नहीं इस मामले से वोटबैंक की राजनीति परवान न चढ़ रही हो?
अगर प्राइवेट सामाजिक संस्था टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस सोशल ऑडिट न करती तो शायद ये डरावनी और शर्मनाक सच्चाई कभी सामने नहीं आती कि सरकार जिन अनाथ बच्चियों के लिये एनजीओ के द्वारा शेल्टर होम चला रही है। वहां न केवल उनको जीने की बुनियादी सुविधायें तक उपलब्ध नहीं है बल्कि उनके साथ शक्तिशाली लोग अपनी शारिरिक भूख मिटा रहे हैं। इसके लिये उनका सौदा करके खुली इंसानी जिस्मों की दलाली की जा रही है। पहले बिहार के मुज़फ्फरपुर में सेवा संकल्प और विकास समिति के बैनर तले चलाये जा रहे बालिका आश्रय स्थल में 42 में से 34 बच्चियों के साथ नाजायज जिस्मानी रिश्ते जबरन बनाने की ख़बर की पुष्टि हुयी।
इसके बाद इसी सामाजिक संस्था की पहल पर 11 साल की अनाथ और बंधक बनी एक लड़की ने यूपी के देवरिया में विंध्यावासिनी आश्रय स्थल की संचालिका गिरिजा त्रिपाठी को तब जेल पहुंचवा दिया जब वह उसको घर के काम के लिये बुलाकर खुद फोन पर बात करने में खो गयी थी। बच्ची ने मौका देखकर वहां से भागकर सीधे थाने पहुंचकर पुलिस को सारी कहानी बता दी कि किस तरह से रोज़ उसके अनाथालय के बाहर रात को रंग बिरंगी कारें आती हैं। उनमें उसके आश्रय स्थल की लड़कियों को जबरन भेजा जाता है।
सुबह सवेरे जब ये बेसहारा लड़कियां वापस आश्रम लौटती हैं तो बुरी तरह लुटी पिटी और भयभीत रोती हुयी आती हैं। ऐसे ही हरदोई की भी आश्रय संचालिका को पकड़ा गया तो उसके आश्रम की 19 लड़कियां गायब मिलीं। उधर टाटा की सामाजिक संस्था ने बिहार में मोतिहारी, भागलपुर, मुंगेर और गया के बालिका आश्रय स्थलों पर भी ऐसे ही शक जताये हैं। लेकिन बदनामी के डर से कथित सुशासन बाबू इनकी जांच कराने को तैयार नहीं हैं। केंद्रीय महिला बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने 60 दिनों के भीतर देश के कुल 9062 बालिका आश्रय स्थलों की जांच का फर्मान जारी किया है।
लेकिन ये सब सांप निकल जाने के बाद लाठी पीटने जैसी सरकारी औपचारिकता ही मानी जायेगी। उधर इन सब मामलों पर सुप्रीम कोर्ट ने बेहद नाराज़गी और हैरानी जताते हुए सरकार से पूछा है कि देश में इस साल अब तक 38,947 रेप हो चुके हैं। क्या देश में बलात्कार के अलावा कुछ और नहीं हो रहा है? हालांकि इन मामलों पर शुरू में ना नुकुर और लीपापोती के बाद बिहार सरकार ने मजबूरन कड़ी कार्यवाही की है। लेकिन यूपी में आरोप लगते ही पुलिस ने इन मामलों में तेजी से सख़्त कानूनी कार्यवाही की है। हो सकता है कि देश के और भी अनेक आश्रय स्थलों पर ये घिनौना और शर्मनाक जिस्मफरोशी का धंधा चल रहा हो।

यह भी कहने की ज़रूरत नहीं है कि इस घटिया और नीच धंधे को चलाने के लिये सरकार की शह और पुलिस की मिलीभगत भी कई जगह रही होगी। लेकिन हमारा सवाल दूसरा है। जो लोग अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक के नाम पर, बात बात पर अपने धर्म, आस्था, अंधविश्वास, राजनीतिक समर्थन, वोटबैंक और अंतरधार्मिक, अंतरजातीय विवाह व देशभक्ति के नाम पर मॉब लिंचिंग, सड़क पर हिंसा-दंगा और कानून हाथ में लेकर अराजकता पर उतर आते हैं, उनका इन बच्चियों की आबरू बेचे जाने पर ज़रा भी खून नहीं खौला?
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।।

क़ुरबानी बनाम मानवता

कुर्बानी की रकम केरल बाढ़ पीड़ितों को दी दान

इस बार हमने ईद उल अज़हा पर कुरबानी की रकम केरल के बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिये भेज दी। इस पर इस्लामी उलेमा का कहना है कि ऐसा करने से आपकी कुरबानी नहीं हुयी। उनका कहना है कि इससे आपको कुरबानी का सवाब भी नहीं मिलेगा। लेकिन हम ऐसा करके सवाब की चिंता न करके मानवता की सेवा कर आत्मिक संतुष्टि महसूस कर रहे हैं।

वैसे तो हमने अपने जीवन में कभी किसी ईद पर जानवर खरीदकर बाकायदा कुरबानी की रस्म अदा नहीं की। अलबत्ता शादी के बाद से हर साल इतना ज़रूर किया है कि जो रक़म कुरबानी के एक हिस्से की तय की जाती है। उस रक़म को पहले लंबे समय तक मुंबई फिर देवबंद और अब कई साल से अपने शहर नजीबाबाद में ही किसी मदरसे में रसीद कटाकर अदा करते चले आ रहे हैं। इसके पीछे मकसद यह रहा है कि इस रकम से मदरसे के अनाथ बच्चो लिये कुरबानी कर कई दिन का भोजन उपलब्ध होता रहा है। ऐसा नहीं है कि हम कुरबानी की भावना को न मानते हों।

बल्कि हमारा मानना यह है कि कुरबानी केवल जानवर खरीदकर काटना नहीं है। हालांकि इस्लामी आलिम हमारी सोच से सहमत नहीं भी हों तो भी हमें इस असहमति से कोई फर्क नहीं पड़ता है। उनका कहना है कि कुरबानी अल्लाह ने हर साहिब ए हैसियत मुसलमान पर फर्ज की है। इसलिये उसको हर हाल में कुरबानी करनी ही चाहिये। वे कुरबानी के जानवर के मीट को बांटने का तयशुदा प्रोग्राम भी बताते हैं। उनका कहना है कि चाहे आप बकरा भेड़ या भैंस काटें। उस के मीट के तीन हिस्से किये जाने चाहियें। कुरबानी के जानवर के मांस का एक हिस्सा आप अपने लिये रखेंगे।

दूसरा हिस्सा अपने रिश्तेदारों और दोस्तों व जान पहचान वालों के लिये भेज सकते हैं। जबकि तीसरा हिस्सा गरीब और ज़रूरतमंद लोगों को दिया जाना चाहिये। संयोग से हम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिस इलाके में रहते हैं। वहां ऐसे गरीब कम ही मिलेंगे जो इस बात का इंतज़ार करते हों कि कोई ईद आने पर उनको मीट भेजे तो वे भूख से बचने को उसे पकाकर खाना खायें। बल्कि उल्टे होता यह है कि नजीबाबाद जैसे कस्बे या शहर और गांव में जो दो चार गिने चुने गरीबों के घर होते हैं। वहां इस ईद पर मीट के ढेर लग जाते हैं। वजह यह है कि हर मुसलमान जो कुरबनी करता है। वह दो हिस्से तो अपने और अपने जान पहचान वालों के यहां पहुंचाता है।

लेकिन लगभग हर साहिब ए निसाब मुसलमान कुरबानी का तीसरा हिस्सा उसी गिने चुने चंद गरीब के लिये पहुंचा रहा होता है। जिसको इलाके के सब लोग गरीब मानकर समान रूप से उसके यहां गोश्त के चट्टे लगा रहे होते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि दो चार किलो मीट आने के बाद ये मुहल्ले के चंद बेहद गरीब भी बाद में आने वाले दूसरे लोगों से मीट लेने से ना नुकुर करने लगते हैं। पहले वे यह पूछते हैं कि बड़े जानवर का मीट है या छोटे जानवर का? ऐसा जान पहचान वाले और रिश्तेदार भी मीट अधिक आ जाने पर करते हैं।

इसके बाद वे भैंस बकरे का अंतर न कर सबको उल्टे पांव वापस करना शुरू कर देते हैं। उन गरीब लोगों के घरों में क्योंकि फ्रीज या बिजली भी नहीं होती। जिससे वे अधिक मीट लेकर खराब होने से बचाने को वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं कर पाते। कहने का मतलब यह है कि कुरबानी करने वाला भी अपना तीसरा हिस्सा सारा इस्तेमाल नहीं कर पाता। साथ ही उसके दोस्त और संबंधी वे गरीब भी दूसरा तीसरा हिस्सा लेने को तैयार नहीं हैं। उधर एक सस्ते से सस्ते बकरे की कीमत बाज़ार में आज 20 हज़ार के आसपास पहुंच गयी है।

जिसमें से 10 किलो अच्छा मीट ही खाने लायक निकलता है। बाकी उसके पार्ट सब लोग नहीं खाते हैं। इस हिसाब से देखा जाये तो बकरे का यह मीट 2000 रू. किलो पड़ता है। जबकि बाज़ार में 400 रू. किलो यही मीट मिल जाता है। आप खुद बाज़ार से खरीदकर भी खा सकते हैं। बाद में बाज़ार से खरीदकर अपने रिश्तेदारों और गरीबों को भी बांट सकते हैं। हमारी समझ के हिसाब से कुरबानी की रकम गरीब और ज़रूरतमंद लोगों में बांटी जाये तो उनका अधिक भला किया जा सकता है। लेकिन यही वो पेंच आ जाता है। जो कुरबानी को लेकर मौलाना बताते हैं।

उनका कहना है कि जब तक आप जानवर खरीदकर या हिस्से की रकम देकर खुद कुरबानी नहीं करेंगे। इस तरह से मीट खरीदर बांटने या खाने से कुरबानी का फर्ज अदा नहीं होगा। हमारा सवाल यह है कि कुरबानी को जानवर से काटने ही क्यों जोड़ा जाता है? कुरबानी तो भावनाओं के स्तर भी होनी चाहिये। क्या हमें जानवर काटने से अधिक अपने बुरी आदतों सामाजिक बुराइयों और देश विरोधी मानवता विरोधी समानता विरोधी शक्तियों की गलत हरकतों का समर्थन न कर ईद उल अज़हा पर उनके त्याग का संकल्प नहीं लेना चाहिये?

क्या हमारी तरह ही जानवर न काटकर मदरसे में अपने हिस्से की कुरबानी की रकम इस बार केरल के बाढ़ पीड़ितों को भेजकर मानवता का परिचय नहीं देना चाहिये? अगर आपका जवाब नहीं है तो हमारा कहना है कि फिर यह दावा करना छोड़ दीजिये कि धर्म या मज़हब भी मानवता की सहायता और सेवा के लिये ही आया है। हो सकता है कि हमारी बातें कट्टरपंथी मज़हबी सोच से मेल न खाती हों। लेकिन जिन बातों को हमारा विवेक समझ और तर्क स्वीकार न करे गुनहगार होने के बावजूद हम उन पर अमल करने से पहले इंसानियत के लिये सौ बार सोचते हैं।

-जो है फ़र्क़ तुझमें मुझमें मैं वो साफ़ ही न कहदूं,
तेरा दर्द दर्द ए तन्हा मेरा ग़म है ग़म ए ज़माना।

Wednesday 1 August 2018

बीजेपी के पक्ष में काँग्रेस

कांग्रेसी बयान भाजपा के पक्ष में?

जो गलतियां कांग्रेस ने 2014 के चुनाव से पहले की थीं। ऐसा लगता है कि उनसे राहुल गांधी ने कोई सबक नहीं लिया है। कुछ ही माह पहले कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने गुजरात चुनाव से ठीक पहले मोदी के खिलाफ ऐसा विवादित बयान दिया था कि भाजपा राज्य का चुनाव हारते-हारते जीत गई थी। अब फिर से वही सिलसिला कांग्रेस नेता शशि थरूर के हिंदू पाकिस्तान वाले बयान से शुरू हो गया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने पिछले दिनों एक चर्चित बयान दिया था कि अगर भाजपा 2019 का चुनाव जीत जाती है, तो वह भारत को हिंदू पाकिस्तान बना देगी। उनका यह भी कहना है कि भाजपा आने वाला लोकसभा चुनाव जीतकर इस हालत में आ जाएगी कि वह भारत का धर्मनिरपेक्ष संविधान भी बदल देगी। थरूर ने और भी कई आशंकाएं जताई हैं।

हो सकता है कि इनमें से कुछ समय के साथ सही भी साबित हो जाएं, लेकिन यहां सवाल यह नहीं है कि आने वाले समय में क्या होगा? बल्कि सवाल यह है कि थरूर के ऐसे बयानों को विवादित बनाकर भाजपा ने अभी से कांग्रेस के खिलाफ चुनावी माहौल बनाना शुरू कर दिया है, तो इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? हालांकि, अभी से यह दावा करना कि भाजपा 2019 का चुनाव जीत ही जाएगी और वह चुनाव जीतकर संविधान बदलकर देश को हिंदू राष्ट्र के रास्ते पर ले जाएगी, एक तरह से अनुमान और आशंका ही है। लेकिन खुद को थरूर के इस चर्चित बयान से अलग कर लेने के बावजूद कांग्रेस को जो राजनीतिक नुकसान होना था, वह तो हो ही चुका है। साथ-साथ भाजपा ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता के इस बयान को हिंदू विरोधी बताकर जो सियासी फायदा उठाना था, वह उठाना शुरू कर दिया है।

इससे पहले कांग्रेस को मुसलमानों की पार्टी बताने का आरोप लगाकर मोदी ने राहुल गांधी को कटघरे में खड़ा कर दिया था। हालांकि, राहुल गांधी ने कभी नहीं कहा कि कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है। उनका कहना यह था कि चूंकि कांग्रेस सभी भारतीयों की पार्टी है, लिहाजा वो मुसलमानों की भी पार्टी हुई, क्योंकि मुसलमान भी इस देश के नागरिक हैं। इतनी बात में कोई बुराई भी नहीं है। इससे पहले एक बार यूपीए सरकार के पीएम मनमोहन सिंह ने मुसलमानों के बदतर होते हालात पर आई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर चर्चा करते हुए यह कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का होना चाहिए, क्योंकि उनको अपनी संख्या कम होने से यह भय बना रहता है कि कहीं उनके साथ पक्षपात न हो।

मनमोहन के इस बयान को भी भाजपा ने उस समय यह प्रचार किया था कि कांग्रेस सरकार और पीएम सिंह हिंदू विरोधी हैं। इस बयान को भी अगर शब्दों को गहराई से देखा जाए, तो यही लगता है कि भाजपा ने जो आरोप लगाया वह सही है। कांग्रेस की ओर से ऐसे बयान उसे लगातार सियासी तौर पर नुकसान और भाजपा को लाभ पहुंचाते आ रहे हैं। सही मायने में देखा जाए तो कुछ सच ऐसे होते हैं, जिनको आप उसूल के हिसाब से जांचे परखें तो वे पूरी तरह सही होते हैं। लेकिन जब राजनीतिक चश्मे से देखेंगे तो आपको यह याद रखना होगा कि उनका सार्वजनिक रूप से क्या संदेश जा रहा है। आपकी नीयत और मकसद चाहे जितनी भी पाक साफ और नेक रहा हो, लेकिन परसेप्शन ही उसे अंजाम तक ले जाएगा।

दरअसल, कांग्रेस अब तक यह सीधी सी मामूली बात नहीं समझ पा रही है कि भाजपा ने उसको हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक पार्टी के तौर पर बदनाम कर दिया है। हालांकि, भाजपा ने यही तमगा सेक्युलर क्षेत्रीय दलों पर भी चिपकाना चाहा है, लेकिन अपनी क्षेत्रीय अस्मिता और मज़बूत जातीय समीकरण की वजह से वे कम नुकसान उठाकर अभी अपना अस्तित्व बचाने में कामयाब हैं। कांग्रेस ने शाह बानो केस, भगवा आतंकवाद से लेकर बाबरी मस्जिद तक के विवादित मामले में जो घोर साम्प्रदायिक गलतियां की हैं, उनको भाजपा ने बड़ी खूबसूरती से मुस्लिम समर्थक और हिंदू विरोधी बताकर उसकी छवि खलनायक की बना दी है। हालांकि, भाजपा हिंदू समाज की हमदर्द बनकर जो कुछ कर रही है, उससे भी हिंदू समाज का ही अधिक नुकसान हो रहा है। जैसे कांग्रेस ने कट्टर मुस्लिम तत्वों के हाथों में खेलकर अपने राज में पूरे मुस्लिम समाज का ही ज्यादा नुकसान किया है।

ऐसा लगता है कि जिस स्तर पर संघ परिवार, भाजपा और पीएम मोदी ने कांग्रेस की हालत पतली कर दी है और क्षेत्रीय दलों को साधने व बांटने का प्रयास जारी रखे हैं, इन हालात में कांग्रेस का न तो कोई राष्ट्रीय स्तर पर एक साझा मोर्चा बन पाएगा और न ही कांग्रेस अपने माथे पर लगा हिंदू विरोधी टैग हटा पाएगी। इससे अपने बल पर न सही, लेकिन एनडीए के कामचलाऊ बहुमत से ठोस विकल्प उपलब्ध न होने से मोदी 2019 में एक बार फिर से पीएम बन सकते हैं।

मेरी सब दानिश्वरी रक्खी की रक्खी रह गयी,
रात मेरा भी किसी जाहिल से पाला पड़ गया।।