Friday 31 January 2014

शक्ति और धन की पूजा.....

जब शक्ति और धन की पूजा होगी तो रोल मॉडल कैसे होंगे ?
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 सज्जनता, सादगी और ईमानदारी समाज में सनकबन गयी है!
     साफ्टवेयर क्षेत्र की जानी मानी हस्ती एन आर नारायणमूर्ति ने इस बात पर चिंता जताई है कि सार्वजनिक जीवन में ईमानदार और मेहनती लोगों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। उनका कहना है कि लोग विशेष रूप से नौजवान बिना मेहनत और समर्पण के ना केवल आगे बढ़ना चाहते हैं बल्कि उनके रोल मॉडल भ्रष्ट लोग बन रहे हैं।
   एक कहानी याद आ रही है। जब हम सबको बदलने की चाहत रखते हैं तो खुद का बदलना उसी तरह से भूल जाते हैं जैसे एक सूफी कहानी में हुआ था। दस लोग नदी पार कर रहे थे। उस पार पहुंच कर उनको लगा कि शायद नदी की तेज़ धार में कोई साथी बह गया है। गिनती की तो वही हुआ जिसका डर था। यानी एक आदमी कम। हर किसी ने गिना लेकिन नतीजा वही का वही। वे सब जोर जोर से रोने लगे कि हमारा एक साथी बह गया। एक सूफी फकीर वहां से गुज़रा तो उसको मामला समझ में आ गया। उसने सबको एक लाइन में खड़ा कर दिया और एक एक के गाल पर चांटा मारकर गिनती करनी शुरू कर दी एक दो तीन....।
  इस तरह अब दस के दस पूरे हो गये। गड़बड़ यह थी कि हर कोई अपने आप को छोड़कर गिन रहा था। ओशो ने पहली बार कहा कि क्रांतियां इसलिये फेल र्हुइं कि सब क्रांतिकारी केवल विचारों को बदल रहे थे जबकि यथार्थ को बदलने की ज़रूरत थी। दरअसल समाज, राज्य देश तो एक कल्पना और विराट धारणा मात्र हैं केवल व्यक्ति ही हकीकत में होता है। एक एक आदमी बदले तो समाज बदल सकता है। हर किसी को खुद बदलने की जिम्मेदारी उठानी होगी। दूसरों को बदलने का ना तो हमें अधिकार है और ना ही हम यह काम उनकी निजता का हनन किये बिना कर सकते हैं। जो स्वयं को बदलने मंे कामयाब रहे वही दुनिया को बदल पाये, इतिहास गवाह है।
  नारायणमूर्ति की बात सही है लेकिन यह सिक्के का केवल एक ही पहलू है। सवाल यह है कि ऐसे हालात क्यों पैदा हुए? दरअसल हमारे समाज के बुजुर्गांे से लेकर नेता, उद्योगपति, अधिकारी, व्यापारी, चिकित्सक, शिक्षक , वकील, पत्रकार, इंजीनियर, लेखक, कलाकार, अभिनेता और लगभग हर क्षेत्रा के पेशेवर किसी भी कीमत पर अधिक से अधिक से धन कमा लेना चाहते हैं। हालत यह है कि राजनेता, अधिकारी और कारपोरेट सैक्टर की बीच एक कॉकस बन गया है। इसका एक नमूना पिछले दिनों नीरा राडिया के टेप से सामने भी आया था। यह तो एक बानगी है। इससे पहले टू जी घोटाले में पूर्व दूरसंचार मंत्री राजा ही नहीं अनेक अधिकारी और कारपोेरेट सैक्टर के कई दिग्गज जेल जा चुके हैं।
 अब यह बात किसी से छिपी नहीं रह गयी है कि नेता पूंजीपतियों से थोक में चंदा लेते हैं और बदले में उनके पक्ष में सरकारी नीतियां बनाकर एक तरह से सत्ता के दलाल की भूमिका में काम करते हैं। ऐसे ही बड़े उद्योगपति मोटी रकम ख़र्च कर राज्यसभा में सीधे एन्ट्री लेने लगे हैं। जहां तक बाहुबलियों का सवाल है उनको भी पैसे के बल पर पहले वोट दिलाने का ठेका दिया गया, जब उनको लगा कि जो काम वे नेताओं के लिये कर रहे हैं क्यों ना खुद अपने लिये इसी तरह से वोट जुटाकर सांसद और विधायक बन जायें तो माफिया सीधे एमपी और एमएलए बनने लगे। नारायणमूर्ति पर हम उंगली नहीं उठा सकते क्योंकि हमें उनके किसी घोटाले या कारपोेेेेेेरेट सैटिंग के बारे में कोई जानकारी नहीं है लेकिन यह बात किसी से छिपी नहीं है कि राजनेताओं और उद्योगपतियों के बीच एक अघोषित गठबंधन बन चुका है जो आम आदमी के हितों के खिलाफ मनमाने तरीके से देश को लूट रहा है।
   चाहे किसानों की ज़मीन सरकार के द्वारा जबरन अधिग्रहण कराकर उसे कौड़ियों के भाव कब्ज़ाने का सवाल हो या फिर आदिवासियों को ज़मीन और जंगल से वंचित कर एक सुनियोजित तरीके से उनको तबाह और बर्बाद करने की बात हो एक अमानवीय अभियान लंबे समये से देश में चल रहा है। जब आदिवासी अपनी आवाज़ शांतिपूर्ण तरीके से उठाते हैं तो उनकी सुनवाई नहीं होती और जब वे हिंसक हो जाते हैं तो उनको माओवादी और नक्सलवादी बताकर सरकार सुरक्षाबलों के द्वारा लाठी गोली से कुचलने का दुष्प्रयास करती है।
  इतना ही नहीं जिस देश में 80 प्रतिशत लोग ऐसे माने जाते हैं जो 20 रूपये रोज़ से कम पर गुजारा कर रहे हों उसमें किसी भी सदन के चुनाव में करोड़पति से कम हैसियत का आदमी चुनकर नहीं जा पा रहा है। सांसद और विधायक निधि इस बेतहाशा चुनावी ख़र्च को वसूल करने का आसान ज़रिया बन गयी है। अधिकांश लोगों ने राजनीति को कारोबार बना लिया है हालत इतनी खराब हो चुकी है कि जो चुनाव लड़कर चंदा नहीं खा सकते और जीतकर बड़े खेल नहीं कर सकते वे थाने और तहसील में दलाली करके दोनों हाथों से जेबें भरने लगे हैं।  भ्रष्ट अधिकारियों की रिश्वतखोरी में अब बाकायदा जनप्रतिनिधियों का मासिक कोटा तय होने लगा है जिससे उनको सैंया भये कोतवाल तो अब डर काहे का वाली कहावत चरितार्थ होने से अपने खिलाफ किसी प्रकार की कानूनी कार्यवाही होने का डर भी ख़त्म हो गया है।
  ऐसे ही पेशेवर तमाम लोग साम दाम दंड भेद के बल पर जिस तरह भी हो अधिक से अधिक पैसा कमाने में लगे हैं।  विडंबना यह है कि पिछले दिनों अन्ना हज़ारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो आंदोलन खड़ा किया उसको राजनेताओं ने हाईजैक कर एक दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल करने का हथियार बनाकर अपनी मनमानी जारी रखने के इरादे जाहिर कर दिये । हद तो तब हो गयी जब अन्ना और उनके सहयोगियों को ईमानदारी पर सम्मानित करने की बजाये अपमानित, आरोपित और प्रताड़ित किया गया। ऐसे में भ्रष्ट लोगों को रोल मॉडल बनने से भले ही आज ना रोका जा सके लेकिन विश्वास कीजिये अब जनता जागने लगी है जिससे ईमानदारी बड़ा मुद्दा बनेगी।
0ये दौलत आदमी की मुफलिसी को दूर करती है,
 मगर कमज़र्फ़ इंसां को और भी मग़रूर करती है ।
 सभी खुश हैं मैं परदेस जाकर लाऊंगा दौलत,

मगर एक मां है जो इस शर्त का नामंजूर करती है।

धर्म परिवर्तन पर दो पैमाने नहीं

धर्मपरिवर्तन को लेकर दो पैमाने नहीं अपनाये जा सकते!
-इक़बाल हिंदुस्तानी
0 मज़हबी अदालत नहीं ऐसे मामले संविधान के तहत हल किये जायें और इसमें सबको अपनी मनपसंद धर्म चुनने की आज़ादी है।
     साम्प्रदायिकता और जातिवाद के ज़हरीले माहौल में आप चाहे कश्मीर के कट्टरपंथी नेता सैयद अली शाह गिलानी को उनकी कश्मीर नीति को लेकर जितना चाहें उतना कोसें लेकिन शरई अदालत के फैसले के खिलाफ ईसाई मिशनरियों के पक्ष में खुलकर बयान देकर उन्होंने राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा कर जो हिम्मत और दानिशमंदी का सबूत दिया है उसका स्वागत किया जाना चाहिये। गिलानी का दो टूक कहना है कि शरई अदालत का ईसाई मिशनरियों को जम्मू कश्मीर की सीमा से बाहर करने का फर्मान गलत है। उन्होंने उमर अब्दुल्लाह सरकार की इस नाकामी को भी आड़े हाथ लेते हुए कहा कि वादी में हर अल्पसंख्यक की हिफाज़त करना बतौर मुस्लिम हमारा पहला फ़र्ज़ है। उनका यह भी कहना है कि कुछ लोगों को कश्मीर से बाहर का रास्ता दिखाकर धर्म परिवर्तन की समस्या का हल नहीं किया जा सकता।
साथ ही ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक और मानवीय सेवा के काम की भी गिलानी ने कश्मीरियों को याद दिलाई है। हुर्रियत नेता गिलानी ने यहां तक कहा कि धर्मांतरण पर हायतौबा मचानेेेेे वाले आम आदमी पर अत्याचार होने पर चुप्पी साधे रहते हैं। गिलानी ने यहां तक कहा कि बजाये ईसाई मिशनरियों पर सारे मामले का दोषारोपण करने के कश्मीरी हर मुहल्ले में ज़रूरतमंदों की मदद और नौजवानों को इस्लामिक तालीम से रूबरू करायें तो बेहतर रहेगा। गौरतलब है कि कश्मीर की एक शरई अदालत ने 11 जनवरी को एक फैसले में चार ईसाई मिशनरी पादरी सीएम खन्ना, चंद्रकांता खन्ना, गयूर मसीह और जीएम ब्रोस्ट को वादी में मुस्लिम युवक युवतियों को बरगलाकर ईसाई बनाने के आरोप में दोषी मानते हुए हमेशा के लिये राज्य की सीमा से बाहर रहने का फर्मान सुनाया है जिसपर राज्य की उमर सरकार ने चुप्पी साध ली है।
   यह मसला आज नहीं तो कल तय करना ही होगा कि जब हमारे संविधान में धर्म परिवर्तन का अधिकार दिया गया और कोई मुस्लिम बन जाये तो उसका जमकर स्वागत किया जाता है और जो मुस्लिम किसी गैर मुस्लिम से प्रेम सम्बंधों के बाद किसी लड़की से शादी करने के लिये उसको इस्लाम अपनाने के लिये तैयार करता है उसको भी सवाब मिलने की बात कही जाती है तो फिर मुस्लिम से किसी और धर्म में जाने के रास्ते कैसे बंद किये जा सकते हैं? या तो इनकमिंग भी बंद होती तो यह माना जा सकता था कि हमारे यहां धर्मपरिवर्तन को लेकर एक ही पैमाना अपनाया जाता है। हालांकि व्यक्तिगत रूप से मैं इस बात के पक्ष में नहीं हूं कि धर्मपरिवर्तन पर रोक लगाई जाये। हां लालच, शादी या डर दिखाकर किसी को मज़हब बदलने के लिये मजबूर किया जाना गलत माना जाना चाहिये।
यह बात मेरी समझ से बाहर है कि कोई मुस्लिम बन जाये तो ठीक और मुस्लिम से ईसाई या अन्य कुछ बन जाये तो हम कानून की सीमा से बाहर जाकर उसका अंधविरोध करेंगे। अगर गौर से देखा जाये तो गिलानी साहब ने इसका भी हल पेश किया है कि कैसे लड़कों को मुस्लिम धर्म से बाहर जाने से रोका जाये। उनका कहना है कि आप मुस्लिमों को इस्लाम की इतनी अच्छाइयां और खूबिया सिखाइये जिससे कि उसको अपना मज़हब छोड़कर जाने की ज़रूरत ही महसूस ना हो। देखने वाली खास बात यह है कि अगर वे कारण बने रहेंगे जिससे लोग धर्म बदलते हैं तो कानून ही नहीं ज़ोर ज़बरदस्ती के बल पर आप लोगों को ज्यादा दिन तक अपने साथ रहने को मजबूर नहीं कर पायेंगे।
इतिहास इस बात का गवाह है कि कैसे दलितों का एक समय में धर्मपरिवर्तन किसी कीमत पर रोकने से नहीं रुक पाया था। इसकी वजह यह थी कि उनके साथ जो अन्याय और पक्षपात हज़ारों साल से हो रहा था अगर वह जारी रहता और उनको आरक्षण आदि का सहारा नहीं दिया जाता तो वे किसी कीमत पर भी हिंदू धर्म में नहीं बने रहते लेकिन धीरे धीरे ही सही कानूनन छुआछूत पर रोक लगाई गयी और समाज मेें शिक्षा का प्रचार प्रसार बढ़ने से लोगों को यह अहसास हुआ कि असमानता जारी रही तो दलित हिंदू धर्म छोड़कर एक ना एक दिन जायेंगे ही फिर वे चाहे मुस्लिम बने या बौध्द इससे कोई खास अंतर नहीं पड़ेगा।
  दलित समाज के बड़े नेता बाबा साहब अंबेडकर तो स्वयं ही बौध्द नहीं बने बल्कि उन्होंने दलितों को बड़े पैमाने पर धर्मपरिवर्तन के लिये अभियान भी यही मानकर चलाया कि हिंदू धर्म का हिस्सा बने रहते उनके साथ कभी न्याय नहीं होगा। वे कहते थे कि मैं हिंदू धर्म या दलित घर में पैदा हुआ यह मेरे हाथ में नहीं था लेकिन मैं क्या बनकर मरना चाहता हूं यह पूरी तरह से मेरा अपना निर्णय होगा, जबकि उनका यह अनुमान मेरे विचार में ठीक साबित नहीं हुआ क्योंकि आज गैर दलित इस बात को काफी हद तक स्वीकार कर चुके हैं कि आदमी आदमी के बीच किसी तरह का भेदभाव सारे समाज और सारे देश की उन्नति के लिये बाधक है।
 धीरे धीरे दलितों और अन्य समाज के बीच की खाई कम हो रही है। कानून के बल पर भी इस अन्याय को काबू किया जा रहा है। कहने का मतलब यह है कि जब तक वे हालात रहेंगे जिनके कारण कोई आदमी धर्म परिवर्तन के बारे में सोचने को मजबूर होता है तब तक समाज, धर्म के नियम या कानून बनाकर भी किसी को धर्म परिवर्तन से रोकना एक हद तक ही संभव है।
   सच यह तो यह है कि धर्म एक व्यक्तिगत मामला है इसको किसी का निजी मसला मानकर उस आदमी पर छोड़ देना चाहिये कि वह खुद कहां जाना चाहता है। किसी को डरा धमकाकर या लालच देकर धर्म विशेष में बने रहने या किसी और धर्म में दीक्षित होने के लिये मजबूर करना एक तरह से ब्लैमेलिंग कहा जा सकता है। मिसाल के तौर पर पूरा अफगानिस्तान और कश्मीर कभी हिंदू हुआ करता था फिर ये एक साथ बौध्द बन गये और उसके बाद थोक में मुसलमान हो गये। आज वह दौर नहीं है। एक समय था जब अरब के व्यापारियों के सम्पर्क में आकर सबसे ज्यादा लोग बंगाल और केरल में मुसलमान बन रहे थे।
उसके बाद ब्रिटिश काल में ईसाई भी बने लेकिन उनकी तादाद और स्पीड उतनी ज्यादा कभी नहीं रही जितनी पहले के दौर में रही थी। यह भी माना जाता है कि एक दौर में तलवार के बल पर यानी ज़बरदस्ती भी लोगों को धर्म विशेष में लाया गया लेकिन इसका कोई ठोस सबूत या आधार मेरी जानकारी में नहीं है। हो सकता है दलितों की वर्ण व्यवस्था की तरह वह समय की ज़रूरत रही हो उस दौर में ऐसा ही संभव हो। वैसे मुझे इतिहास और धर्मों की विस्तृत जानकारी नहीं है लेकिन मैं इतना तो दावे के साथ कह सकता हूं कि चाहे कोई भी धर्मावलंबी हो पहले भले ही जोरज़बरदस्ती, सूफी परंपरा का प्रभाव और लालच का सहारा भी इस काम के लिये लिया गया हो लेकिन आज के दौर में किसी को धर्मपरिवर्तन के लिये ना तो मजबूर किया जा सकता है और ना ही लालच के बल पर अधिक दिन तक वहां रोका या नये धर्म में बने रहने को तैयार किया जा सकता है।
 अब समय आ गया है कि हम सब सम्प्रदाय, वर्ग और समुदाय अपना अपना धर्म प्रचार बेशक करें लेकिन घटिया तौर तरीकों से किसी का धर्म परिवर्तन करने का प्रयास ना करें और कोई अगर वास्तव में संविधान में दिये अपने इस अधिकार का प्रयोग कर सोच समझकर अपने विवके से बिना किसी लालच और दबाव के मज़हब बदलता है तो धर्म के ठेकेदार अपने गिरेबान में झांके कि ये नौबत क्यों आ रही है ना कि शरई अदालत के ज़रिये किसी को राज्य से निकाला दिया जाये।
0 न इधर उधर की बात कर यह बता क़ाफिला क्यों लुटा,
  मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।।

सोशलनेटवर्किंग का कंट्रोल....

सोशल नेटवर्किंग का कंट्रोल तो समाज के हाथ में ही है!
0 आम आदमी और वीआईपी लोगों के लिये अलग अलग कानून?
           -इक़बाल हिंदुस्तानी
   सूचना तकनीक और संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट ने साफ कर दिया है कि सरकार का इरादा किसी सोशल नेटवर्किंग या अन्य वेबसाइट को ब्लॉक करने का नहीं है लेकिन इन साइटांे को भारतीय कानून की सीमा में रहकर अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करना चाहिये। उधर दिल्ली की एक अदालत ने भी 22 नेटवर्किंग साइटों से 15 दिन के अंदर इस बात का जवाब मांगा है कि उन्होंने आपत्तिजनक सामाग्री हटाने के लिये क्या क़दम उठाये हैं। फेसबुक, याहू और माइक्रोसॉफ्ट की ओर से दलील दी जा रही है  िकइस मामले में उनका कोई रोल नहीं है इसलिये उनके खिलाफ कार्यवाही करने का कोई औचित्य नहीं है। अब यह तो कोर्ट को तय करना है कि कानून क्या कहता है।
   इंटरनेट के भी फायदों के साथ दुरुपयोग के नुक़सान मौजूद हैं लेकिन केवल इस एक वजह से अभिव्यक्ति की आज़ादी पर रोक नहीं लगाई जा सकती। 11 अप्रैल 2011 को पास किया गया सूचना प्रोद्योगिकी कानून सोशल नेटवर्किंग साइटों पर होने वाली अश्लील और अपमानजनक गतिविधियों को रोकने के लिये पहले से बना हुआ है। इस कानून की धारा 66 ए के अनुसार सरकार द्वारा शिकायत करने पर आपत्तिजनक सामाग्री हर हाल में 36 घंटे के अंदर हटानी होगी नहीं तो दोषी के खिलाफ सख़्त कानूनी कार्यवाही का प्रावधान है। सवाल उठता है कि जब इस तरह का पर्याप्त साइबर कानून पहले से ही मौजूद है तो फिर इस पर अमल क्यों नहीं हो पा रहा है।
   अजीब बात यह है कि आज तक सरकार की तरफ से इस तरह की मांग अपनी तरफ से तो क्या किसी के शिकायत करने पर भी कभी नहीं उठाई गयी जबकि अरब देशों में सोशल नेटवर्किंग साइटों द्वारा तख्तपलट होने और  सुपर पीएम सोनिया गांधी के बारे में इंटरनेट पर कुछ आपत्तिजनक सामाग्री डाले जाने के बाद में सरकार हरकत में आई। इससे पहले जब कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने अन्ना हज़ारे जी के बारे में बेसिरपैर के आरोप लगाये थे तो तब सिंह के बारे में इन साइटों पर ऐसी सामाग्री देखने को मिली तो उन्होंनेे इसी साइबर कानून के ज़रिये अपनी एफआईआर थाने में दर्ज करा दी थी। यह बात समझ से बाहर है कि आज सरकार को फेसबुक, ब्लॉग, आरकुट और यू ट्यूब पर अचानक अश्लील, अपमानजनक और धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाली चीज़े कैसे नज़र आने लगीं? यह काम तो इंटरनेट पर लंबे समय से हो रहा है। हम भी यह मानते हैं कि इस तरह की चीज़े वास्तव में गलत हैं और नहीं होनी चाहिये लेकिन जहां तक हमारी जानकारी है न तो किसी धार्मिक संगठन और न ही किसी सामाजिक और राजनीतिक दल ने इस तरह की हरकतों का कभी पहले संज्ञान लिया और न ही इनकी वजह से  कोई तनाव, विवाद और दंगा हुआ। दरअसल सवाल नीति नहीं नीयत का है। आम आदमी भूखा प्यासा नंगा कुत्ते बिल्ली की मौत मर जाये तो सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेेंगती लेकिन उसके नेताओं की शान में गुस्ताखी हो या उसकी सत्ता को इन साइटों से ज़रा सा भी ख़तरा महसूस हो तो सरकार फौरन हरकत में आ जाती है। आम आदमी का कोई मान सम्मान और जीवन जीने का बुनियादी संवैधानिक अधिकार नहीं लेकिन नेताओं के राजसी ठाठबाट आज भी बदस्तूर जारी हैं। पीएम का काफिला दिल्ली के एक अस्पताल वाले रोड से गुज़रता है तो मौत और जिं़दगी के बीच झूल रहे अनिल जैन नाम के एक नागरिक की एंबुलैंस सुरक्षा कारणों से रोकने से असमय दुखद मौत हो जाती है। ऐसे ही पीएम कानपुर का दौरा करते हैं तो अमान खान नाम के बच्चे की उनके रोड से न गुज़रने देने से इलाज न मिलने से दर्दनाक मौत हो जाती है। हज़ारों किसान कर्ज में डूबकर अपनी जान दे देते हैं तो कोई बात नहीं। आम आदमी थाने से लेकर तहसील और अदालत से सरकारी अस्पताल तक चक्कर काट काटकर अपने जूते और उम्र ख़त्म कर देता है लेकिन न तो उसकी सुनवाई होती है और न ही उसको न्याय और सम्मान मिलता है। उल्टे उससे रिश्वत लेकर खून चूसने के साथ साथ तिल तिल कर मरने को उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है तब हमारे मंत्री जी और नेताओं को सांप सूंघ जाता है।  सरकार को यह भी पता होगा कि आज तक ऐसा कोई साफ़्टवेयर नहीं बना जो यह पता लगा सके कि कोई आदमी इंटरनेट पर क्या लिखने या फोटो डालने वाला है। वैसे भी अपराध होने के बाद ही अपराधी को सज़ा दी जा सकती है। फिर यह एकमात्र मीडिया है जहां राजा रंक सब बराबर हैं।
     अभी तक तो सरकार अपने प्रिय भ्रष्टाचार पर ही रोक लगाने के लिये मज़बूत लोकपाल लाने से बच रही थी लेकिन अब वह  अरब देशों में सोशल नेेेटवर्किगं साइट्स जैसे फेसबुक और ब्लॉग आदि के ज़रिये हुयी बग़ावत से डरकर इंटरनेट पर रोक लगाने को पेशबंदी करने पर उतर आई है। इसको कहते हैं विनाशकाल विपरीत बुध्दि। किसी ने सुपर पीएम सोनिया गांधी की शान में सोशल नेटवर्किंग साइट पर ज़रा सी गुस्ताखी क्या कर दी, पूरे देश में फेसबुक और ब्लॉग से आग लगने का ख़तरा दिखाई देने लगा। ये साईटें इतने लंबे समय से काम कर कर रही हैं लेकिन आज तक किसी को कोई शिकायत हुयी भी तो मौजूदा कानून के ज़रिये साइबर क्राइम का मामला थाने में दर्ज हो गया। अगर पुलिस ने किसी केस में मुक़द्मा लिखने में हील हवाला किया तो सीधे कोर्ट में मामला दायर कर दिया गया।
    सवाल यह नहीं है कि सोशल नेटवर्किंग साइट पर कोई गैर कानूनी काम करता है तो उसका क्या किया जाये सवाल यह है कि एक देश में दो कानून नहीं चल सकते। एक आम आदमी सरकार और उसकी पुलिस के अत्याचार और अन्याय के कारण या भूख से मर भी जाये तो कोई हंगामा नहीं होता जबकि एक दागदार नेता को कोई आदमी महंगाई से तंग आकर एक चांटा मार दे तो आसमान सर पर उठालो। ऐसे ही आज सोनिया गांधी पर अगर किसी ने फेसबुक पर कोई नाज़ेबा कमेंट कर दिया तो पूरी सरकार एक्टिव हो गयी। फेसबुक के संचालकों को टेलिकॉम मिनिस्टर ने अपने ऑफिस में तलब कर लिया। उनको यह तालिबानी आदेश दिया गया कि फेसबुक या ब्लॉग पर ऐसा कुछ नहीं आना चाहिये जिससे किसी नेता की तौहीन हो। सरकार के खिलाफ दुष्प्रचार हो या फिर साम्प्रदायिक और अश्लील टिप्पणी की जाये। इससे देश की सभ्यता और संस्कृति एवं अमन चैन को ख़तरा नज़र आने लगा। क्या इससे पहले जब कांग्रेस ने ऐसी राजनीति की जिससे दंगे हुए , साम्प्रदायिकता और जातिवाद बढ़ा तब देश के अमन चैन की याद नहीं आई थी। जब बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया गया था और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखांे का कत्लेआम होने पर राजीव गांधी ने यह कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है तब देश का भाईचारा ख़तरे मंे नहीं पड़ा था?
    ऐसा लगता है कि सरकार को यह नज़र आने लगा है कि जिस तरह से मीडिया और ख़ासतौर पर टीवी चैनल उसके खिलाफ अभियन चला रहे हैं अगर यह सिलसिला जारी रहा तो इंटरनेट पर उसके लिये ऐसे हमले तेज़ हो सकते हैं जिनका न तो उसे पता चलेगा और न ही वह उनको रोक पायेगी। इसीलिये उसने फेसबुक और ब्लॉग को जड़ से रोकने का क़दम उठाया है। सरकार ने अन्ना के आंदोलन को नाकाम करने लिये एक दिन में एक मोबाइल से 200 से अधिक एसएमएस ना करने देने का फरमान भी इसी नीयत से जारी किया था यह अलग बात है कि जब आंदोलन ठंडा पड़ गया और सरकार का मकसद पूरा हो गया तो उसने इस आदेश को वापस ले लिया। उसने यह नहीं सोचा कि उसके खिलाफ लोगों ने इंटरनेट पर यह अभियान क्यों छेड़ रखा है। उसने अपने फेस को न देखकर सीधे आईने पर वार करने की कोशिश की है लेकिन वह यह नहीं जानती कि आज सरकार की ही नहीं किसी भी नेता की जनता की नज़र में कोई खास इज़्ज़त बाकी नहीं रह गयी है जिसको वह सोशल नेटवर्किंग साइट पर रोक लगाकर बचाना चाहती है। वह यह भी भूल रही है कि आज फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट देश में सेफटी वाल्व का काम कर रही हैं जिनपर लोग अपने दिल की भड़ास और दिमाग का गुस्सा निकालकर राहत महसूस कर लेते हैं वर्ना एक दो करोड़ लोग जिस दिन अपना विरोध दर्ज करने सड़कों पर उतर आये तो नेपाल की तरह सरकार को अपनी खाल बचानी मुश्किल हो सकती है।
0 नज़र बचाकर निकल सकते हो तो निकल जाओ,

  मैं इक आईना हूं मेरी अपनी ज़िम्मेदारी है।।

सर्दी से नहीं गरीबी से मरते हैं

वे सर्दी से नहीं गरीबी से मरते हैं, राजनेता सबक नहीं लेना चाहते
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 सरकारों की बेशर्मी और लापरवाही से सुप्रीम कोर्ट हुआ एक्टिव!
    हर बार सर्दियों में शीतलहर से, गर्मियों में लू से और बरसात में बाढ़ से लोगों के मरने की ख़बरे बड़े पैमाने पर आने लगती है। हर बार ऐसा लगता है कि शायद हमारी सरकार इस बार कुछ सबक सीखकर भविष्य में ऐसी ठोस व्यवस्था करेगी जिससे आगे से ऐसी दुखद घटनायें ना होें लेकिन इसके उलट देखने में यह आता है कि हर बार पिछली बार से भी अधिक ऐसी मौतें सामने आती हैं। जहां तक बाढ़ का सवाल है यह माना जा सकता है कि उसपर सरकार का एक सीमा के बाद नियंत्रण नहीं रह पाता है और उसमें मरने वालों में भले ही गरीब अधिक हों लेकिन अमीर और सभी तरह के लोग शामिल होते हैं लेकिन सर्दी और लू का जहां तक सवाल है उसमें सरकार काफी कुछ इंतज़ाम कर सकती है।
     सरकारें एक ओर तो गरीबी ख़त्म करने और गरीबों के कल्याण की बड़ी बड़ी योजनायें बनाने के दावे करती हैं लेकिन व्यवहारिकता में देखें तो  हमारे राजनेता इतने अधिक बेईमान और असंवेदनशील हो चुके हैं कि वे इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं करते कि उनकी नालायकी से कितने गरीब मौसम की मार से बेवक्त काल का गाल बन जाते हैं। सरकारोें के कान पर तब भी जूं नहीं रेंगती जब उनको हमारी अदालतें फटकार लगाती हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश के करीब 30 लाख गरीब बिना छत के रात गुज़ारने को मजबूर होेते हैं। हर साल दो चार नहीं हज़ारों लोग कड़ाके की ठंड से अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। इसके बावजूद हमारी सरकार को अपने भ्रष्टाचार से फुर्सत नहीं मिलती।
इन हालात को देखते हुए ही दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों की सरकारों को रैन बसेरे बनाने के आदेश दिये थे। इस पर सरकारों ने कोई खास काम नहीं किया। सर्वोच्च न्यायालय ने जब इस बारे में जांच करने को अपनी ओर से कमिश्नर तैनात किये तो उनकी सर्वे रिपोर्ट चौंकाने वाली थी। 15 सूबों की सरकारों ने सबसे बड़ी अदालत के इस जनहित के फैसले पर कोई नोटिस लेने लायक कार्यवाही करना मुनासिब नहीं समझा। सबसे अधिक काम अगर किसी सरकार ने किया तो वह दिल्ली की थी जिसने 129 रैन बसेरों की जगह 64 रैन बसेरे बनाकर तैयार किये। हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट चूंकि दिल्ली में ही मौजूद है इसलिये दिल्ली की सीएम शीला दीक्षित को कुछ डर लगा हो कि उनका झूठ और चोरी जल्दी ही पकड़ मेें आ जायेगी जिससे उन्होंने कोर्ट के आदेश के बरअक्स कम से कम आधे रैन बसेेरे बना दिये।
जहां तक यूपी और तमिलनाडु का सवाल है वे तो आधे भी रैन बसेरे नहीं बना पाये। उधर म.प्र., छत्तीसगढ़, गुजरात, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, कर्नाटक और राजस्थान सहित लगभग दस राज्यों ने 20 से 30 प्रतिशत ही रैन बसेरे बनाये हैं। आश्चर्य और दुख की बात यह है कि महाराष्ट्र और पश्चिमी बंगाल जहां मुंबई और कलकत्ता में दुनिया की सबसे अधिक झुग्गी झोंपड़ी और गरीबी मौजूद हैं, वहां हालात और भी ख़राब हैं। हैरत की बात यह है कि चाहे वामपंथियों की सरकार रही हो या टीएमसी की दोनों के गरीबों के मसीहा होने की पोल खुल गयी है। उधर जो कांग्रेस अपना हाथ गरीबों के साथ होने का बार बार दावा करती है वह भी इस मामले में और दलों की सरकारों से बेहतर नहीं है।
   सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश के मुताबिक एक लाख की आबादी पर एक रैन बसेरा अनिवार्य रूप से होना चाहिये लेकिन ऐसा पूरे देश के किसी राज्य में नहीं है। यहां तक कि महिलाओं और बच्चो की सुरक्षा एवं रोज़ाना की ज़रूरतों को भी इन रैनबसेरों मेें पूरा नहीं किया गया है। हद यह है कि कुछ राज्य नहाने धोने की सुविधाओं के बदले इन रैनबसेरों में रहने वाले भूखे नंगे लोगों से कमाई कर रहे हैं। इससे पहले एक रैन बसेरे पर बुल्डोज़र चलाने और उसकी वजह से एक गरीब की ठंड से मौत के कारण कोर्ट ने सरकार से जवाब तलब किया था लेकिन शर्म उनको मगर नहीं आती। सबसे बड़ी बात यह है कि जो सरकार रैनबसेरा नहीं बना सकती उससे लोगों को गरीबी से से निजात दिलाने की क्या उम्मीद की जा सकती है।
    मैं वो साफ़ ही न कहदूं जो है फ़र्क़ तुझमें मुझमें,

     तेरा ग़म है ग़म ए तन्हा मेरा ग़म ग़म ए ज़माना।।

माया के विकास पर भ्रष्टाचार भारी

मायावती के विकास पर भ्रष्टाचार का मुद्दा भारी पड़ रहा है?
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 अन्ना के आंदोलन का असर है कि भ्रष्टाचार चुनावी बहस में है!
     यूपी के चुनाव के पहले राउंड की अधिसूचना जारी हो चुकी है। मज़ेदार बात यह है कि विकास इसमें चर्चा का मुद्दा न बनकर भ्रष्टाचार सबसे चर्चित चुनावी बहस का मुद्दा बन चुका है। न तो सरकार में बसपा अपने विकास कार्यों को गिनाकर वोट मांगने की हिम्मत जुटा पा रही है और न ही विपक्षी दल विकास का कोई खाका पेश कर पा रहे हैं। जहां सीएम मायावती अपने 22 भ्रष्ट मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाकर यह संदेश देना चाहती हैं कि वे भ्रष्टाचार किसी कीमत पर सहन नहीं करेंगी वहीं विपक्षी दल सपा, कांग्रेस, लोकदल और भाजपा तक बसपा सरकार पर एकमात्र भ्रष्टाचार का आरोप बढ़चढ़ कर लगा रही हैं। वे यह भी नहीं बता रहे कि उनके पास बिना पक्षपात राज्य के विकास का कौन सा ब्लूपिं्रट है?
    आपको यह जानकर हैरत होगी कि जब बहनजी ने चुनाव बहुमत से जीतकर 2007 में यूपी की कुर्सी संभाली थी तो उस समय राज्य की विकास दर 2.2 प्रतिशत थी। योजना आयोग के आंकड़े के अनुसार 2007 से 2011 तक यह जीडीपी बढ़कर रिकॉर्ड 7.6 प्रतिशत तक जा पहंुची। अगर इस दौरान यूपी की औसत विकास दर 7.01 को भी देखा जाये तो यह देश की विकास दर के आसपास ही है। साथ ही मायावती के राज में कृषि की विकास दर 30 प्रतिशत, मैन्युफैक्चरिंग की विकास दर 10 और निर्माण क्षेत्र की औसत विकास दर 11 प्रतिशत रही है।
   इस आंकड़े को एक और तरह से देख सकते हैं। मिसाल के तौर पर 2005 से 2010 तक बिहार में औसत विकास दर 10.9, छत्तीसगढ़ में 9.45 और उड़ीसा मंे 9.47 प्रतिशत रही जिससे वहां के नीतिश कुमार, रमन सिंह और नवीन पटनायक जैसे मुख्यमंत्रियांे की सत्ता में वहां वापसी हुयी लेकिन उच्च विकास दर के बावजूद केरल और तमिलनाडु में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते वहां की वाममोर्चा और डीएमके सरकारें गच्चा खा गयीं। इसके उलट असम में कम जीडीपी के बावजूद साफ सुथरी सरकार चलाने के इनाम के तौर पर तरूण गोगोई सत्ता में फिर से आने मंे कामयाब हो गये। इससे पता चलता है कि विकास से भी बड़ा मुद्दा इस समय अन्ना के आंदोलन से देश में मौन क्रांति के रूप में भ्रष्टाचार बन चुका है।
    दरअसल मामला केवल विकास बनाम भ्रष्टाचार का भी नहीं है। कम लोगों को याद होगा कि बसपा अकेली पार्टी रही है जो चुनाव में अपना कोई घोषणापत्र तक जारी नहीं करती। उसका दो टूक कहना रहा है कि जब सत्ता आ जायेगी तब वह जो करना होगी करेगी, यह पहले से बताने की ज़रूरत नहीं है कि वह क्या क्या और कैसे कैसे करेगी? बात साफ हो जाती है कि मतदाता जब सोशल इंजीनियरिंग से जाति और धर्म के नाम पर वोट दे रहा है तो उसको यह बताने की क्या तुक है बसपा की क्या आर्थिक नीति होगी और क्या शैक्षिक नीति? हालत यह है कि बसपा जैसी पार्टियां लोकसभा के चुनाव मंे जनता को यह तक बताना गवारा नहीं करती कि उनकी सरकार बनने पर विदेश नीति और आतंकवाद व गरीबी से निबटने को क्या विशेष योजना है?
    यही वजह रही कि दलितों के नाम पर बनी सरकार के बावजूद दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़ तक के पास यूपी के विकास के लिये औद्योगिकीकरण के या सुनियोजित विकास की कोई योजना नहीं है। दलित सीएम होने के बावजूद दलित उद्योगपतियों का यह संगठन भी नई कम्पनियां और उद्योग लगाने को गुजरात और महाराष्ट्र को प्राथमिकता देता है। उनका कहना भी वही है जो अन्य उद्योगपतियों के संगठन शिकायत करते हैं कि यूपी में उत्पादन लागत व तरह तरह के टैक्स अधिक है और बिजली तथा बुनियादी ढांचा तथा सरकारी सुविधायें ना के बराबर हैं। वे यूपी में भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी समस्या मानते हैं। बसपा सरकार के सत्तासीन होते ही 2007 में मायावती द्वारा केंद्रीय टेंडर की व्यवस्था 2007 में ही ख़त्म कर देने से अलग अलग विभाग अलग अलग नियम कानून बनाकर व्यापारियों और उद्योगपतियों का जमकर शोषण करते हैं। इसके विपरीत दूसरे राज्यों में औद्योगिकीकरण के लिये सिंगल विंडो सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है।
0 जो कुछ मिला था माले ग़नीमत में लुट गया,
  मेहनत से जो कमाई थी दौलत वही रही।।

कार्यपालिका बनाम न्यायपालिका

कार्यपालिका की निष्क्रियता बनाम न्यायपालिका की सक्रियता
                       -इक़बाल हिंदुस्तानी
    यह बहस आजकल काफी तेज़  होती जा रही है कि क्या न्यायपालिका जानबूझकर सरकार के नीतिगत मामलों में अवांछित दख़ल दे रही है या फिर कार्यपालिका की निष्व्रिफयता और बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण अदालतों को संविधान की रक्षा और जनहित में सक्रिय होना पड़ रहा है। आमतौर पर यह माना जाता है कि कोर्ट कई बार समाज और सरकार के बीच पैदा होने वाले तनाव को कम करने के लिये सेफ़्टी वाल्वका काम भी करता है।
    अगर गौर से देखा जाये तो पिछले कुछ समय में एक के बाद एक ऐसे निर्णय अदालतों से आये हैं जिनसे सरकार को न केवल नीचा देखना पड़ा है बल्कि जनता ने राहत की सांस भी ली है। मिसाल के तौर पर  उत्तर प्रदेश में इलाहबाद हाईकोर्ट ने जहां एक के बाद एक माया सरकार के कृषि भूमि अधिग्रहित करने के कई फैसलों को अवैध ठहराकर पलट दिया जिससे यूपी सरकार की काफी किरकिरी हुयी वहीं सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान के जयपुर में दो दशक से चल रहे 552 बीघा ज़मीन के एक मामले में यह एतिहासिक फै़सला दिया कि सरकार सार्वजनिक उद्देश्य के लिये अधिग्रहित भूमि को अन्य लाभार्थियों को फिर से आवंटित नहीं कर सकती।
   इससे पहले उच्चतम न्यायालय सरकार को देश में एक तरफ भूख से लगातार मौतें होने और दूसरी तरफ बड़ी मात्रा में खुले में रखे अनाज के सड़ने से बर्बाद होने पर फटकार लगाते हुए यह आदेश दे चुका है कि इस गेहंू को खराब होने  से बचाने में अगर सरकार अक्षम है तो क्यों न इसको गरीबों में निशुल्क वितरित कर दिया जाये। ऐसा ही एक निर्णय सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में छत्तीसगढ़ सरकार के अवैध सलवा जूडुम अभियान के खिलाफ देते हुए कहा है कि बिना किसी प्रशिक्षण और नियम कानून के जनता के कुछ लोगों को विशेष पुलिस अधिकारी बनाकर हथियार देना और माओवादियों से निबटने के नाम पर मनमानी की छूट देना असंवैधनिक है जिसे तत्काल रोका जाना चाहिये।
   मज़ेदार बात यह है कि इस अवैध और विवादास्पद अभियान में केंद्र सरकार भी मानदेय में 80 प्रतिशत का योगदान कर रही थी। गुरूल्लिाओं की तरह काम कर रहे इन 5000 विशेष पुलिस अधिकारियों पर नक्सलवाद के सफाये के नाम पर करीब 600 गांवों को लूटने और जलाने सहित मानवाधिकार उल्लंघन के ढेर सारे आरोप लगाये जाते रहे हैं लेकिन सरकार ने सशस्त्रा सेना विशेषाध्किार अध्निियम की तरह इस मामले में भी आंखे बंद कर रखी थी।
    वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व केंद्रीय मंत्राी रामजेठमलानी की एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पिछले दिनों सर्वाेच्च न्यायालय ने जब काले धन पर पूर्व न्यायधीश की देखरेख में विशेष जांच दल का गठन किया तो सरकार बौखला गयी। माननीय न्यायमूर्ति एस एस निज्जर और न्यायमूर्ति बी. सुदर्शन रेड्डी की बैंच ने इस मामले में सख़्त रूख़ अपनाते हुए यहां तक कहा कि उदारवादी आर्थिक नीतियां देश को लूट और लालच की तरफ ले जा रही हैं। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट योगगुरू बाबा रामदेव के द्वारा दिल्ली के रामलीला मैदान में शांतिपूर्वक किये जा रहे अनशन को सरकार द्वारा पुलिस के ज़रिये बर्बर ढंग से कुचलने के खिलापफ भी तीखी टिप्पणी करते हुए जवाब तलब कर चुका है।
   थोड़ा और पीछे मुड़कर देखें तो सरकार ने भी एक तरह से पूरी बेशर्मी पर कमर बांध रखी है वह लगातार यह दावे करती रहती है कि वह भ्रष्टाचार को ख़त्म करने को लेकर पूरी तरह गंभीर है लेकिन जब कानून के काम करने की बारी आती है तो वह आरोपियों के पक्ष में खड़ी दिखाई देती है। पूर्व केंदीय संचार मंत्राी ए राजा का मामला हो या विवादास्पद सीवीसी पी जे थामस, यूपीए सरकार के प्रमुख घटक द्रमुक प्रमुख की लाडली बेटी कनिमोझी की गिरफ़्तारी की बात हो या कॉमन वैल्थ गैम्स घोटाले के प्रमुख आरोपी सुरेश कलमाड़ी को जेल भेजने की मजबूरी मनमोहन सरकार ने एड़ी से चोटी तक का ज़ोर इनको बचाने के लिये लगाया लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को हड़काते हुए बार बार उसकी काहिली पर उंगली उठाई तब कहीं जाकर सरकार और कांग्रेस ने इन आरोपियों से पीछा छुड़ाया।
  जिससे सरकार की कथनी करनी में अंतर के कारण ही  कोर्ट को सक्रिय होना पड़ रहा है। ऐसे अनेक मामले देखने में आते हैं जब लोग गंभीर अपराधों की भी एफआईआर थानों में दर्ज नहीं किये जाने पर मजबूर होकर अदालतों मंे जाते हैं।

आस्था के शोर....

आस्था के नाम पर शोर से कब तक ब्लैकमेल किया जाता रहेगा ?
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0अंधश्रध्दा और कर्मकांड के बहाने लोगों का जीना हराम मत करो!
      प्रैस काउंसिल के प्रेसीडेंट और न्यायविद मार्कंडेय काटजू का कहना है कि जब भारत वैज्ञानिक रास्ते पर था, तब उसने तरक्की की। साइंस के सहारे हमने विशाल सभ्यताओं का निर्माण हज़ारों साल पहले किया, जब अधिकतर यूरूप जंगलों में रहता था, उन दिनों हम लोगों ने वैज्ञानिक खोजें कीं लेकिन बाद में हम लोग अंधश्रध्दा और कर्मकांड के रास्ते पर चल पड़े।  यह बयान यहां हमने दिल्ली हाईकोर्ट के उस फैसले के संदर्भ में पेश किया है जिसमें माननीय न्यायमूर्ति विपिन संघी ने आस्था के कंेद्रो पर लगे लाउडस्पीकरों से होने वाले ध्वनिप्रदूषण पर कानून के ज़रिये सख़्ती से रोक के लिये अमल पर जोर दिया है। हालांकि मामला पूर्वी दिल्ली के एकता विहार और संुदर नगरी से जुड़ा है।
एक स्थानीय नागरिक माधव रॉय ने क्षेत्र के धार्मिक स्थलों से लगातार फैलाये जा रहे ध्वनिप्रदूषण पर कोर्ट में याचिका दायर कर रोक लगाने की मांग की थी। कोर्ट ने याचिका स्वीकार कर इस मामलें मंे रॉय की परेशानी को जायज़ मानते हुए जनहित में 10 मार्च तक इस मामले में कार्यवाही के लिये कुछ महत्वपूर्ण दिशा निर्देश दिये हैं। माननीय जज साहब ने अपने निर्देश में कहा है कि स्थानीय सभी धर्म स्थलों को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे लाउडस्पीकरों की आवाज़ को नियंत्रित रखें, उनकी दिशा बाहर की तरफ नहीं बल्कि उन प्रार्थना स्थलों में मौजूद भक्तों की तरफ होनी चाहिये।
साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा है कि ध्वनि विस्तारक यंत्रों को आस्था के केंद्रों में सबसे ऊंची दीवार पर नहीं बल्कि ज़मीन से केवल 8 फुट की ऊंचाई पर लगाया जाये। अदालत ने साथ ही यह भी कहा कि आस्था के नाम पर किसी को भी इस बात की इजाज़त नहीं दी जा सकती कि वह अपने धर्म और उसके आचार विचारों को दूसरों पर जबरन लादे। कोर्ट ने कहा कि हो सकता है कि धार्मिक संस्थानों के प्रबंधको को यह लगता हो कि उनकी गतिविधियों की तेज़ आवाज़ वहां नहीं पहुंच पा रहे लोगों के लिये लाभप्रद हो सकती है लेकिन इस आधार पर उनको इस बात की इजाज़त नहीं दी जा सकती कि वे अपने आसपास के माहौल को बाधित करें या इलाके की शांति को भंग करें।
वास्तव में यह बात आज बड़े पैमाने पर देखने मंे आ रही है कि लोग केवल यह सोचकर कि धर्म के मामले मंे कोई विरोध करने की हिम्मत नहीं करेगा इतने अधिक डेसीबल पर लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करते हैं कि लोगों के कान की क्षमता बुरी तरह प्रभावित हो रही है। इस तरह के अवांछनीय शोर से लोगों का अमनचैन के साथ जीने का संवैधाकिन अधिकार भी मज़ाक बनकर रह गया है। इस से समय से पहले कम सुनने की शिकायत आम होती जा रही है। लोग रात में जब पूरी नींद नहीं सो पाते तो दिन में चिड़चिड़े और तनाव में रहते हैं। इससे उनका मन अपने काम में नहीं लगता और कई बार वे छोटी छोटी बातों पर किसी से भी भिड़ जाते हैं।
   इसके साथ साथ कम्पटीशन के दौर में बच्चे अपना होमवर्क और प्रतियोगिताओं की तैयारी ठीक से नहीं कर पाते। बीमार और बूढे़ रात में शोर होने पर ठीक से सो नहीं पाते। कभी कभी ऐसे मामलों मेें सामान्य नागरिक समस्या साम्प्रदायिक रूप भी धारण कर लेती है जिससे दंगा तक हो जाता है। ईमानदारी से देखा जाये तो यह हर शांतिपसंद और अमनप्रिय भारतीय की समस्या है ना कि किसी धर्म विशेष या क्षेत्रविशेष की । आशा की जानी चाहिये कि सरकार इस मामले में वोटों का समीकरण सामने न रखकर इस जनहित के फैसले पर निष्पक्ष और प्रभावी ढंग से कार्यवाही न केवल दिल्ली बल्कि पूरे देश में आज नहीं कल मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचने पर करने को मजबूर होगी।
शिक्षित नागरिकों को भी चाहिये कि वे कट्टरपंथ और अंधश्रध्दा के नाम पर अन्य लोगों को धर्म के बहाने सताने से खुद ही बाज़ आ जायें क्योंकि भगवान भी शायद यह ज़बरदस्ती पसंद नहीं करेगा कि लोगों को जबरन सुनने को मजबूर किया जाये।
    इत्तेफाक की बात यह है कि ऐसे ही एक मामले में इन पंक्तियों के लेखक ने मुसलमानों के पवित्र रम्ज़ान माह मंे बार बार रात में सहरी के लिये मस्जिदों से रोज़े को उठाने के लिये होने वाले ऐलान के बारे में दारूलउलूम देवबंद और बरेली शरीफ से राय मांगी थी। दोनों ने ही इस बात को माना कि बूढ़ों, बीमारों, बच्चो और आसपास की गैर मुस्लिम आबादी को बार बार होने वाले गैर ज़रूरी ऐलान से नींद और आराम में ख़लल होता होगा जिससे इस तरह की बात से बचा जाना चाहिये। इन फतवों में यह भी कहा गया था कि आज के दौर में इतना काफी है कि सहरी का समय शुरू होने पर एक बार आगाह कर दिया जाये और एक बार आखि़र में रोज़ा रखने लिये सहरी खाने का वक्त़ जब ख़त्म होने वाला हो तब फ़ज्र की अज़ान से पहले यह बता दिया जाये कि सहरी का समय समाप्त हो रहा है।
इस के साथ ही मुफती साहेबान ने यह सख़्त हिदायत भी दी कि आधी रात से या बार बार सहरी का ऐलान ही नहीं इस दौरान धार्मिक नज़मंे या सलाम वगैरा भी ना पढ़ा जाये क्योंकि मिलीजुली आबादी में इससे गैर रोज़ेदार हमवतनों को परेशानी का सामना करना पड़ता है।
   ऐसा ही एक मामला मुझे अपने नगर नजीबाबाद ज़िला बिजनौर की स्टेशनवाली मस्जिद का याद आता है। यह मस्जिद ऑनरोड है। एक बार रम्ज़ान के दौरान तरावीह यानी रोज़ ईशा की नमाज़ के बाद पढ़ी जाने वाली कुरानपाक की 20 रकात पढ़ी जा रही थीं। तभी वहां से हिंदू भाइयों की महाकाली की शोभायात्रा का भव्यजुलूस निकला। इस दौरान जुलूस के बैंड मस्जिद के सामने अनजाने में बजने से तरावीह पढ़ने वालों को इमाम साहब का पढ़ा हुआ कुछ भी सुनाई नहीं दिया। जब इस बात पर कुछ नमाज़ियों ने नाराज़गी दर्ज की तो वहां के इमाम साहब ने समझाया कि मस्जिद में साउंड प्रूफ शीशे लगने चाहिये जिससे शोर अंदर न आये क्योंकि सड़क तो सबकी है, वहां से तो दूसरे लोग भी अपने जुलूस वगैरा लेकर ऐसे ही जाने का हक़ रखते हैं। अल्लामा इक़बाल का एक शेर है-
0मस्जिद तो बनाली पलभर में ईमां की हरारत वालों ने,

 दिल अपना पुराना पापी था बरसों भी नमाज़ी हो न सका।

"मार्क्स-वाद" से बच्चों को बचाएं

बच्चो को मार्क्स-वादका शिकार होने से बचाना होगा!
          -इक़बाल हिंदुस्तानी
0 शिक्षा का मक़सद धन कमाना है तो ज्ञान कहां से आये ?

      केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने एक गैर सरकारी संस्था प्रथमद्वारा तैयार जो एनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट पिछले दिनों जारी की उसमें चौंकाने वाला निष्कर्ष सामने आया है। ग्रामीण शिक्षा से जुड़ा देश का यह सबसे बड़ा अध्ययन है जिसमें यह तथ्य सामने आया है कि स्कूलों में बच्चो के प्रवेश की संख्या तेजी से बढ़ने के साथ ही शिक्षा के स्तर में गिरावट बढ़ी है। रिपोर्ट बताती है कि 6 से 14 वर्ष की आयु के 96 प्रतिशत बच्चे स्कूलों में नामांकन करा रहे हैं लेेेकिन इसके बावजूद सरकारी स्कूलों के मुकाबले निजी विद्यालयों में यह तादाद और भी तेज पायी गयी है। सर्वे का विस्तार से सूक्ष्म अध्ययन करें तो यह बात उभर कर आती है कि जिन गांवों में अभिभावकों को दोनों विकल्प उपलब्ध हैं वहां वे प्राइवेट स्कूल को ही प्राथमिकता दे रहे हैं।
    आर्थिक सहयोग और विकास संगठन की दूसरी रिपोर्ट में जो सच सामने आया है वह तो हैरान करने से अधिक परेशान और शर्मिंदा करने वाला है।  यह सर्वे छात्र छात्राओं की शैक्षिक जांच का निष्कर्ष बताता है कि कुल 73 देशों की लिस्ट में हम नीचे से दूसरे यानी 73 वें स्थान पर हैं। इस रिपोर्ट में भारत के कक्षा 8 के बच्चो का स्तर जहां दक्षिण कोरिया के तीसरी क्लास के बच्चे जैसा है वहीं चीन के बच्चे यह स्तर दूसरी कक्षा में ही हासिल कर लेते हैं। तीसरी रिपोर्ट हालांकि एजुकेशन इनीशिएटिव और विप्रो से जुड़ी है जिसको सरकार निजी क्षेत्र की होने से कोई विशेष महत्व देने को तैयार नहीं होगी लेकिन यह भी सही है कि यह सर्वे सबसे अधिक निष्पक्ष और विश्वसनीय है।
इसमें सबसे खास बात यह उजागर की गयी है कि न केवल सरकारी बल्कि निजी उच्च शिक्षा संस्थान भी मात्र अधिक से अधिक धन कमाने के लालच में बच्चो को सिखाने की अपेक्षा रटाने पर अधिक जोर दे रहे हैं। सरकारी स्कूलों का जहां तक सवाल है उनमें सबसे बड़ी समस्या बच्चो की हाज़िरी से लेकर खुद शिक्षकों के अकसर गायब रहने की है। देश के बड़े राज्य यूपी, बिहार और मध्यप्रदेश में पिछले पांच सालों में बच्चों की उपस्थिति में 9 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गयी है।
   शिक्षा का अधिकार कानून जब लागू हुआ था तो यह माना गया था कि अब देश की शिक्षा में बुनियादी सुधार और परिवर्तन आयेगा लेकिन देखने मंे यह आ रहा है कि केंद्र और राज्य सरकारें दोनों एक दूसरे की ज़िम्मेदारी बताकर अपने कर्तव्यों से मंुह मोड़ रही हैं। स्कूलांे में अधिक बच्चो के नाम लिखाने के बावजूद शिक्षकों की संख्या में पर्याप्त बढ़ोत्तरी नहीं हो सकी है। ढांचागत सुविधाओं की तरफ देखें तो आज भी बड़ी संख्या में ऐसे सरकारी स्कूल मौजूद हैं जहां भवन तक उपलब्ध नहीं है। या तो बच्चे खुले में पढ़ने के लिये मजबूर हैं या फिर दो तीन क्लास सामूहिक रूप से लेनी पड़ती हैं। 
उल्लखनीय है कि शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने के दौरान पहले राज्य और केंद्र सरकार इस प्रश्न लंबे समय तक उलझती रहीं कि इससे बढ़ा हुआ ख़र्च कौन कितना वहन करेगा? शिक्षा विभाग में फैले व्यापक भ्रष्टाचार से यह भी देखने में आया है कि तमाम लोग भारी भरकम रिश्वत देकर और ऊंची पहुंच का सहारा लेकर शिक्षक तो बन जाते हैं लेकिन नियुक्ति के बाद वे कभी स्कूल जाने का कष्ट नहीं करते। कई बार तो वे अपने आका अधिकारियांे की चापलूसी करके अपना काम चलाते रहते हैं और कई स्कूलों में उन्होंने बार बार शिकायत से बचने को अपनी जगह एक दो हज़ार की पगार वाले इंटर पास एवजी टीचर रख दिये हैं।
  ऐेसे मामले जांच में कई बार पकड़े भी गये लेकिन आज तक न तो ऐसी धेखाधड़ी करने वाले किसी मास्टर को जेल जाना पड़ा और न ही उसकी जगह धोखे से फर्जी ड्यूटी कर रहे किसी अप्रशिक्षित शिक्षक का कुछ बिगड़ा। हालत इतनी ख़राब है कि पिछले दिनों लोकायुक्त से शिकायत के बाद शिक्षक के रूप में बसपा सरकार में मंत्री बनने के बावजूद वेतन ले रहे एक विधायक को अपना पद छोड़ना पड़ा। सबसे बड़ी बात नीति और बजट की नहीं सरकार की नीयत की है कि वे लोगों को शिक्षित करना चाहती है या नहीं।।
     पूंजीवादी और भौतिकवादी सोच से प्रभावित अभिभावकों को अपने बच्चो को माकर््स-वाद से भी बचाना होगा। मार्क्स यानी अंक जिसे बच्चो ने परीक्षा में किसी कीमत पर भी हासिल करना अपना मकसद बना लिया है। जब जब विभिन्न परीक्षाओं के नतीजे आने शुरू होते हैं, प्रतिदिन ऐसी खबरें आती हैं कि अमुक बच्चे ने अपनी आशा के अनुसार मार्क्स न आने से जान दे दी तो अमुक बच्चे ने अपनी डिवीजन फर्स्ट की जगह सेकंड या थर्ड आने से फांसी पर लटककर जीवन लीला समाप्त करली। कोई छात्र या छात्रा ने इम्तेहान में असफल होने पर आत्महत्या कर लेता है तो कोई   लक्ष्य पूरा न होेने पर ज़हरीला पदार्थ खा लेता है और मौत व ज़िंदगी से अस्पताल में संघर्ष करता है।
     हमारी समझ से यह बात बाहर है कि कैसे वो बच्चे हैं और कैसे उनके मातापिता जो बच्चे की  ज़िंदगी से अधिक महत्वपूर्ण उसका कैरियर या एक्ज़ाम का नतीजा मानते हैं। यह क्यों नहीं सोचते कि जान है तो जहान है। क्या हमने कभी अपने बच्चो को यह समझाया है कि देखो केवल किताबी कीड़ा बनने से जीवन नहीं चला करता। पढ़ाई की भी तीन श्रेणी होती हैं। एक-डिग्री यानी काग़ज़ का वह टुकड़ा जिसे हासिल करने को बच्चा दिन रात एक करके कोल्हू के बैल की तरह केवल और केवल पढ़ाई में लगा रहता है। दो-नॉलेज जिसे हासिल करने से बच्चे को जीवन में कुछ ठोस बातें जैसे क्या क्यों और कैसे जानने का अवसर मिलता है।  तीन- वह ज्ञान जिसे न डिग्री से प्राप्त किया जा सकता है और न ही नॉलेज के बल पर, बल्कि यह तो केवल राइट ऐजुकेशन से ही आ सकता है।
 मिसाल के तौर पर जो बच्चा साइंस पढ़ता है वह उतना ही अंधविश्वासी अगर है जितना एक अनपढ़ आदमी तो इसका मतलब शिक्षा ने उसको कुछ भी नहीं दिया। जो कथित डिग्री के नाम पर वो उठाये फिरता है वह तो सही मायने में उसके नौकरी या कारोबार करके अधिक से अधिक नोट कमाने का एक ज़रिया है।
     हमारे कहने का मतलब यह नहीं है कि पढ़ लिखकर नौकरी करना या पैसा कमाना गलत है, बल्कि हम यह कहना चाहते हैं कि तालीम का काम सिर्फ पैसा कमाना नहीं है। एजुकेशन से आदमी की सोच और चेतना का विकास होना चाहिये। यानी अगर हम विज्ञान पढ़ रहे हैं तो हमारी सोच भी वैज्ञानिक होनी चाहिये। यह विडंबना बार बार देखी जाती है कि जो लोग डिग्री लेकर डाक्टर और इंजीनियर तक बन गये उनकी सोच और समझ आज भी वही कई सौ बरस पुरानी दकियानूसी, कट्टर और संकीर्णता वाली  है।
   शिक्षा अगर हमें केवल धनपशु बनाती है तो फिर लालच में पढ़ने, डिग्री लेकर बड़ी सेलरी की नौकरी हासिल करने की चाह रखने वाले बच्चो को जान देने और शिक्षा का स्तर गिरने से कैसे बचाया जा सकता है? बच्चे को जब तक यह नहीं समझाया व बताया जायेगा कि अपनी पूरी शक्ति और क्षमता से महनत करो लेकिन फिर भी अगर मनचाहे नतीजे नहीं आते हैं तो कमी कहीं न कहीं परीक्षा की व्यवस्था और समाज में है, जिसके लिये सज़ा भी उसी को दी जानी चाहिये न कि मासूम व बेकसूर बच्चे को तब तक शिक्षा का स्तर कैसे सुधर सकता है?
      बच्चो को यह खुद ही समझने की ज़रूरत है कि जो बच्चा एक अच्छा बेटा-बेटी, भाई-बहन, या बेहतर हिंदुस्तानी और इंसान नहीं बन सकता वह अच्छा पेशेवर या नेता कैसे बन सकता है? पढ़ाई के साथ ही अच्छे संस्कार जब तक बच्चे में न हों वे मार्क्स-वाद के चक्कर में यूं ही भौतिवाद का शिकार होता रहेगा।
़0मुदर्रिसांे से कैसे मिले इल्म बच्चो को,

 कुएं में होगा तभी बाल्टी में आयेगा।।