Thursday 30 December 2021

लड़की की शादी की उम्र

लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाने की ज़रूरत क्यों है?

018 साल का लड़का लड़की बालिग माने जाते हैं। वे चुनाव में वोट देकर सरकार चुन सकते हैं। लेकिन इस उम्र में वयस्क होने के बाद भी वे अपना जीवन साथी नहीं चुन सकते। पहले केवल लड़कों के लिये शादी की आयु 21 साल थी। लेकिन अब सरकार कानून में संशोधन करके लड़कियों के लिये भी विवाह की आयु 21 साल करने जा रही है। संसद से लेकर समाज तक इस संशोधन को लेकर दो वर्ग  हैं। जिनकी राय इस मुद्दे पर अलग अलग है। एक वर्ग इस बदलाव को लड़कियों के लिये अच्छा मानता है। वहीं दूसरा वर्ग इस संशोधन से अभिभावकों के लिये नई समस्यायें खड़ी होती देख रहा है। दोनों के अपने अपने तर्क हैं। जिनको सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता है।   

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       निर्भया कांड के बाद सरकार ने कानून में संशोधन करके बलात्कार के मामलों में 16 साल के लड़कांे को बालिग मानने का कानून बनाया था। ब्रिटेन और यूरूप के कुछ देशों में पहले से ही कन्या और बालकों के लिये वयस्कता की आयु 16 साल तय है। कुछ मुस्लिम मुल्कों में भी ऐसा ही है। वहां इस आयु की प्राप्ति करने के बाद वे शादी भी कर सकते हैं। हालांकि इस मामले में अलग अलग देशों की अपनी परंपरायें धर्म संस्कृति और जलवायु भी कारण होते हैं। इसलिये हम अपने देश की तुलना हर मामले में दूसरे देशों से समानत आधार ना होने पर नहीं कर सकते। हमारे देश में व्यस्कता और विवाह की आयु अलग अलग रही है। कुछ समाज विज्ञानियों का कहना है कि लड़का लड़की दोनों की शादी की आयु बराबर होने से संविधान द्वारा दी गयी समानता को समाज में स्थापित करने में सहायता मिलेगी। इसके बाद साथ ही लड़कियों की भी शादी की उम्र लड़कों की तरह 21 साल करने से समाज का उच्च शिक्षित अभिजात्य सम्पन्न और प्रगतिशील वर्ग मानता है कि ऐसा करने से लड़कियों को पढ़ाई मौज मस्ती आज़ादी स्वास्थ्य और रोज़गार में जाकर अपने पैरों पर खड़े होने में आवश्यक समय मिलेगा। लेकिन समाज का गरीब अनपढ़ या कम शिक्षित और परंपरावादी वर्ग यह मानता है कि इससे परिवार पर अनावश्यक हर तरह का बोझ बढ़ जायेगा। उनको लगता है कि लड़की की शादी जवान होते ही जल्दी से जल्दी कर देनी चाहिये। उनको यह भी महसूस होता है कि लड़की की शादी कब करनी है। यह तय करने का सारा अधिकार समाज के पास होना चाहिये। इसमें सरकार को अवांछित दख़ल नहीं देना चाहिये। यही वजह है कि बाल विवाह के मामले में हमारा देश दुनिया में तीसरे नंबर पर है। आज भी हमारे यहां दस करोड़ लड़कियों की शादी 15 साल की होने तक कर दी जाती है। नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे बताता है कि 50 प्रतिशत से अधिक गर्भवती महिलाओं में खून की कमी यानी एनीमिया होता है। स्वास्थ्य कारणों से ही कम उम्र में शादी होने से उनकी बच्चे के जन्म के समय मौत तक हो जाती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हमारा देश पुरूष प्रधान है। जिसका परिणाम यह है कि कन्या के पैदा होने के साथ ही नहीं उसके पैदा होने से पहले ही उसके साथ पक्षपात शुरू हो जाता है। यानी हर वर्ष लाखों कन्या भ्रूण की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है। इतना ही नहीं कन्या होने पर परिवार में या तो खुशी मनाई ही नहीं जाती या उतनी नहीं अनुभव होती जितनी बालक होने पर होती है। समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी कन्या को बोझ और हुंडी समझता है। यहां तक कि उनके पालन पोषण खान पान और शिक्षा दीक्षा में भी पक्षपात आम है। इसी का अंजाम यह है कि उसको लड़कों की बराबर पौष्टिक आहार और समान सुविधायें ना मिलने से वे कमज़ोर कम शिक्षित और कम आत्मनिर्भर बन पाती हैं। प्रगतिशील और सम्पन्न वर्ग का मानना है कि सरकार के इस कदम से शादी की उम्र आने तक लड़कियों का ना केवल शारिरिक बल्कि मानसिक विकास भी पूर्ण हो सकेगा। विज्ञान कहता है कि इंसान के दिमाग का फ्रंटल रोब रीजन 18 से 20 साल के बीच ही विकसित हो पाता है। इसके बाद ही इंसान में ना केवल सोच समझकर निर्णय करने की क्षमता आती है बल्कि उसमें बेहतर भावनात्मक नियंत्रण और परिपक्वता भी आती है। ज़ाहिर बात है कि एक परिपक्व मां ही बेहतर परिवार चला सकती है। इससे उनको स्कूल काॅलेज अस्पताल यातायात और रोज़गार की पहले से अधिक और बेहतर सुविधायें उपलब्ध होने के बाद ब्याहने का अवसर मिलेगा। लेकिन सवाल यह है कि लड़कियों की विवाह की आयु बढ़ाने वाली सरकार क्या इन सब मुद्दों पर चिंतन मनन करके उपरोक्त सुविधायें बढ़ाने पर विचार करेगी? या केवल कानून बनाकर अपना पल्ला झाड़ लेगी? सवाल यह भी है कि आज जब शादी की उम्र 18 साल है। तब भी गांव में 27 प्रतिशत और शहर में 14 प्रतिशत कन्याओं की शादी उससे पहले ही कर दी जाती है। सर्वे यह भी बताते हैं कि कम आयु में शादी से दहेज़ की मांग दहेज़ हत्या पारिवारिक विवाद हिंसा और तलाक के केस  अधिक हो रहे हैं। 2017 में एक मुक़दमें की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में संशोधन को कहा था। इस धारा में दरअसल 15 साल तक की पत्नी से पति द्वारा किया गया संभोग बलात्कार नहीं माना गया है। जबकि कानूनन ऐसी शादी करना अपराध है। बाल विवाह कानून 1929 कहता है कि बाल विवाह अपराध है। लेकिन सरकार पुलिस प्रशासन आज तक इसे खत्म नहीं कर पाये हैं। नये संशोधन के अनुसार चर्चा है कि अगर कोई लड़का लड़की 21 साल के होने से पहले शादी करते हैं तो ना केवल वे खुद अपितु उनके माता पिता शादी कराने वाले धार्मिक गुरू बैंक्वट हाॅल व आयोजन से जुड़े सभी लोग और यहां तक कि उस समारोह में शरीक होने वाले मेहमान तक जवाबदेह हो सकते हैं। भविष्य में कोई शादी का कार्ड आये तो कार्ड के साथ दुल्हा दुल्हन का आयु प्रमाण पत्र अवश्य देख लीजिये अन्यथा मुसीबत आ सकती है।                                        

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।

Saturday 18 December 2021

बैंक निजीकरण


सरकार किसके हित में बैंको का निजीकरण करना चाहती है ?

0पिछले दिनों सरकारी बैंकों के लगभग 10 लाख अधिकारी व कर्मचारी बैंकों के निजीकरण करने के सरकार के इरादे के खिलाफ दो दिन हड़ताल पर रहे। सरकार 27 बैंकों को विलय कर पहले ही 12 बड़े बैंक बना चुकी है। आगे इनको चार तक सीमित करने की योजना है। इसके साथ ही बैंकिंग विनियमन अधिनियम 1949 और 1970 में संशोधन कर सरकारी हिस्सेदारी 51 प्रतिशत से कम कर 26 प्रतिशत किये जाने की चर्चा है। आज सरकारी बैंकोें के कुल कर्ज़ का 35 प्रतिशत ख़तरे में है। बैंकों में ठगी के मामले भी तेज़ी से बढ़े हैं। रोज़ ठगी के 229 मामले हो रहे हैं जिससे बैंको को 1.31 लाख करोड़ का चूना लगा है।   

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       देश के नेशनल बैंकों की कुल 1 लाख 10 हज़ार शाखाआंे मेें 150 ट्रिलियन रकम जमा है। इन राष्ट्रीयकृत बैंकों के लाभ से सरकार जनहित की अनेक योजनायंे चलाती है। जनता के खून पसीने की इस गाढ़ी कमाई से न केवल देश का आधारभूत ढांचा मज़बूत होता है बल्कि तमाम लोगों को बैंक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीकों से रोज़गार भी उपलब्ध कराता है। याद रखने वाली खास बात यह है कि देश के बैंकों का राष्ट्रीयकरण होने के बाद से एक भी सरकारी बैंक डूबा नहीं है। अगर कहीं किसी बैंक में कोई घोटाला या गड़बड़ी हुयी भी तो सरकार और बीमा कवर के ज़रिये लगभग 98 प्रतिशत खाताधारकों का धन वापस मिल गया है। इन बैंकों के द्वारा ही देश मंे कृषि क्रांति दुग्ध क्रांति और औद्योगिक क्रांति को अंजाम दिया गया है। पिछले वर्षों में जब जनधन खाते खोले गये तो कुल 44 करोड़ में से 41 करोड़ इन सरकारी बैंकों में ही खोले गये। आज भी निजी बैंकों के मुकाबले इन बैंकों में खाता खोलना लोन लेना एटीएम कार्ड लेना और दूसरी सुविधायें हासिल करना आसान सस्ता और सुगम है। ये अलग बात है कि बैंक स्टाफ का बड़ा वर्ग भी कुछ समय पहले तक किसानों के एक हिस्से की तरह मोदी सरकार का बड़ा समर्थक रहा है। लेकिन आज जब बैंक निजीकरण का बिल संसद के शीतकालीन सत्र में आने वाला है तो उसकी आंखें खुल गयी हैं। यूनाइटेड फोरम आॅफ बैंक यूनियन्स का दावा है कि मोदी सरकार 13 काॅरपोरेट के 4 लाख 86 हज़ार 800 करोड़ बकाया का 2 करोड़ 84 लाख 980 करोड़ लोन एनपीए करना चाहती है। फोरम का आरोप है कि जिन सरकारी बैंको को सरकार प्राइवेट कर अपना पल्ला झाड़ना चाहती है। उनमें से ही एसबीआई के बेल आउट पैकेज और एलआईसी की सहायता से आईएल एंड एफएस ग्लोबल ट्रस्ट बैंक बैंक आॅफ कराड यूनाइटेड वेस्टर्न बैंक और यस बैंक जैसों को संकट से उबारने के लिये सरकारी पूंजी का दुरूपयोग किया गया है। सवाल यह है कि सरकार किसके हित में पीएसबी यानी पब्लिक सैक्टर बैंकों को प्राइवेट करना चाहती हैविपक्ष का आरोप तो यह है कि सरकार इनको जनहित दांव पर लगाकर अपने चहेते पंूजीपति मित्रों को इसलिये देना चाहती है जिससे चुनाव आने पर उनसे मोटा चंदा वसूला जा सके। उधर पिछड़ी जाति दलितों व आदिवासी वर्ग को लगता है कि सरकार ऐसा कर उनके रोज़गार आरक्षण को चोर दरवाजे़ से बंद करना चाहती है। आरबीआई की रिपोर्ट कहती है कि 2014 से 2021 तक बैंकों का एनपीए यानी नाॅन परफाॅर्मिंग एसेट्स घोषित रूप से 15 लाख करोड़ लेकिन अपुष्ट के सूत्रों के अनुसार 25.4 लाख करोड़ हो चुका है। इसमें अगर एनबीएफसी का एनपीए और जोड़ लिया जाये तो यह 32 लाख करोड़ से भी अधिक हो जायेगा। लेकिन आरबीआई ने इसको फिलहाल रिस्ट्रक्चर्ड लोन में डालकर एनपीए के आंकड़ों को डरावना नज़र आने से रोक दिया है। आज के कुल एनपीए में 60 प्रतिशत तो केवल ब्याज का ही हिस्सा है। खास बात यह है कि कुल एनपीए का 5 प्रतिशत भी रिटेल यानी कृषि कार पढ़ाई या पर्सनल लोन नहीं है। यानी आप इस तरह समझ सकते हैं कि ये कर्ज़ देश की 95 प्रतिशत जनता को दिया गया कजऱ् नहीं है। अधिकांश लोन कारपोरेट को दिया गया है। ऐसा भी नहीं है कि सभी काॅरपोरेट डिफाल्टर हो गये हों। या विजय माल्या और नीरव मोदी की तरह बैंकों का पैसा मारकर विदेश भाग गये हों। इनमें अधिकांश लोन उस समय का है। जब इकाॅनोमी बूम पर थी। यानी ये बड़े विशालकाय कर्ज़ पाॅवर सैक्टर टेलीकाॅम बिल्डर्स बड़े कारखानों और कोयला खदानों के लिये दिये गये थे। सवाल यह है कि आखि़र इन सबका पैसा इतना और एक साथ कैसे डूबातो जनाब हमारे देश में सरकार राजनीति और पूंजीवाद जो ना करा दे थोड़ा है। मोबाइल काॅल और नेट सस्ता हो रहा था तो टेलीकाॅम यानी टू जी घोटाले का नकली भूत खड़ा किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि स्पैक्ट्रम कई गुना महंगा हुआ। टेलीकाॅम की अधिकांश कंपनियों पर जुर्माना और महंगे चार्ज लगे तो जियो सरकार के अनड्यू सपोर्ट और बीएसएनएल की बरबादी की कीमत पर और एक दो और मोबाइल कंपनी को छोड़कर अधिकांश का बोरिया बिस्तर बंध गया। अब उन पर जो लोन थे वे सब एनपीए होते चले गये। कुछ ऐसा ही मामला कोयला खदानों का था। कोयला घोटाले का शोर मचा तो जिन कंपनियों को कैप्टिव पाॅवर प्लांट के लिये भारी भरकम कजऱ् बैंकों ने दिये थे। उनके लाइसेंस रद्द होने से उनको दिया लोन एनपीए हो गया। उधर अर्थव्यवस्था झूम कर मस्त हाथी की चाल चल रही थी। लोगों के हाथ में पैसा आ रहा था तो वे मकान दुकान और नई नई बनती जा रही काॅलोनियों में रिहायशी काॅमर्शियल प्लाॅट खरीद रहे थे। बड़े बड़े बिल्डर्स बैंकों से एक के बाद एक बड़ा लोन लेकर रियल स्टेट विकसित कर रहे थे। जैसे ही इकाॅनोमी गिरनी शुरू हुयी लोगों ने अपनी जेब में पैसा कम आने रोज़गार जाने नोटबंदी व देशबंदी से कारोबार तबाह या पूरी तरह बंद हो जाने से अपना हाथ खींच लिया। उधर बिल्डर्स बैंकों से लिया कजऱ् ना चुका पाने से अपना लोन एनपीए करा बैठे। ऐसे ही ओवरब्रिज हाईवे और सड़कों का जाल फैलता जा रहा था। सरकार के साथ पीपीपी यानी पब्लिक प्रावेट प्रोजैक्ट के तहत बैंकों से लोन लेकर काम करने वाली कंपनी एकाएक मुंह के बल गिरनी शुरू हो गयी। वजह यह थी कि 30 से 32 लाख करोड़ के बजट वाली सरकार ने चुनावी मोड में जनता को बहलाने के लिये 100 लाख करोड़ केे ढांचागत प्रोजैक्ट का ऐलान तो कर दिया लेकिन इतना पैसा आता कहां सेऐसे में जो योजनायें पहले से चल भी रही थी वे भी बैंकों से आगे लोन ना मिलने से बीच में ही लटक गयीं। अब जब आगे काम ही नहीं होगा तो पिछला पैसा तो एनपीए होना ही था। इस दौरान मोदी सरकार ने मुद्रा लोन के नाम पर बिना गारंटी बिना ठोस आधार के अपने चहेते लोगों को राजनीतिक रूप से इनाम देने के लिये कई लाख करोड़ बैंक से दबाव डालकर बंटवा दिये। आज इनमें से अधिकांश का काम चैपट हो चुका है। बैंकों के पास कोई ऐसा तरीका नहीं है कि इनसे पैसा वापस वसूल सके। ऐसा ही मामला मनमोहन सरकार से लेकर मोदी सरकार तक का काॅरपोरेट को लेकर उदार लोन देने का रहा है। आज जब उन चहेते पंूजीपतियों उद्योगपतियों और व्यवसायियों के दिवाले निकल चुके हैं तो उनका लोन एनपीए होने के अलावा कोई रास्ता बचा ही नहीं है। एक आंकड़े के अनुसार देश के सरकारी बैंकों का कुल लोन 101 लाख करोड़ के आसपास है। कोरोना के दौर में पिछले साल मोदी सरकार ने 20 लाख करोड़ का पैकेज कारोबारियों को देने का एलान बड़े जोरशोर से किया था। लेकिन इसका कोई विशेष लाभ हमारी अर्थव्यवस्था को नहीं मिलता दिखा क्योंकि हमारे देश में उत्पादन बढ़ाने को पैसे की नहीं खरीदारी करने को आम जनता के पास पैसे की कमी लगातार बढ़ती जा रही है। अगर मोदी सरकार बैंक निजीकरण का घातक विचार नहीं छोड़ती है तो देश में जो थोड़ी बहुत जनहित की स्कीमंे चल रही है और धीरे धीरे अर्थव्यवस्था सुधरने की आशा की जा रही है वह भी संकट में पड़ जायेगी।                                    

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।  

Monday 13 December 2021

आर्थिक असमानता


 

असमानता: 57 % आय पर 10 फीसदी लोगों का क़ब्ज़ा क्यों ?

वर्ल्ड इनइक्विलिटी रिपोर्ट 2022 के  भारत दुनिया के सबसे गरीबी और गै़र बराबरी वाले मुल्कों की सूची में शामिल हो गया है। पूंजीवादी नीतियों से देश में अमीर और अमीर तो गरीब और गरीब बनते जा रहे हैं। हालांकि धनवान भारतीयों के और धनवान बनने से ईश्र्या नहीं करनी चाहिये लेकिन सवाल यह है कि ये किनके गरीब बनने की वजह से पंूजी का एकत्रीकरण कर रहे हैंआर्थिक हालत इतनी ख़राब और चिंताजनक है कि मात्र 1 प्रतिशत आबादी के पास देश की कुल आय का 22 प्रतिशत हिस्सा जमा हो गया है। वहीं 50 प्रतिशत जनसंख्या को केवल 13 परसंेट ही आमदनी मिल रही है।  

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       रिपोर्ट के मुताबिक भारत में औसत नेशनल इनकम प्रति व्यक्ति 2,04,200 रू. है। जबकि इसके विपरीत निचले स्तर पर जीवन बसर कर रहे गरीब भारतीय की आय मात्र 53,610 रू. ही है। उधर टाॅप पर 10 परसेंट नागरिकों की आमदनी गरीब लोगों की लगभग 20 गुना यानी 11,66,520 रू. है। इतना ही नहीं हमारे देश का मीडियम क्लास भी दुनिया के दूसरे मुल्कों की तुलना में काफी पीछे है। उसकी औसत सम्पत्ति 7,23,930 रू. है। जबकि शीर्ष पर मौजूद 10 प्रतिशत सबसे अमीर भारतीयों के पास 63,54,070 रू. यानी 65 प्रतिशत है। इतना ही नहीं इनमें भी 1 प्रतिशत के पास कुल सम्पत्ति का 33 प्रतिशत हिस्सा यानी 3,24,49,360 रू. है। वल्र्ड इनइक्वालिटी लैब के सह निदेशक लुकास चांसल ने यह विश्व असमानता रिपोर्ट फ्रांस के सुविख्यात इकोनोमिस्ट थाॅमस पिकेटी सहित कई विश्व प्रसिध्द विशेषज्ञों के सहयोग से तैयार कर हमें आईना दिखाने को जारी की है। रिपोर्ट का एक स्याह पहलू यह है कि देश में औसत घरेलू सम्पत्ति 9,83,010 रू. है। जिनमें से सबसे नीचे के कुल आबादी के आधे गरीब वर्ग यानी 50 प्रतिशत के पास मात्र 6 प्रतिशत 66,280 रू. ही हैं। इतना ही नहीं हमारे देश मंे लिंग के आधार पर आर्थिक असमानता हाल यह है कि महिला मज़दूरों को आय मंे भागीदारी एशिया के औसत 21 से भी कम यानी 18 प्रतिशत है। हमारे देश की जो आज आर्थिक स्थिति है। उसके लिये अकेले वर्तमान मोदी सरकार को कसूरवार ठहराना ठीक नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार 1991 में ही एल पी जी यानी लिबरल प्राइवेट और ग्लोबल इकोनिमिक पाॅलिसी की नींव रख गयी थी। इसके बाद विपक्ष की संयुक्त मोर्चा सरकार देवगौड़ा और गुजराल के नेतृत्व में भी बनी। लेकिन किसी ने भी आर्थिक नीतियों को बदलने की ज़रूरत महसूस नहीं की। हालांकि इस दौरान एनडीए की भाजपा के नेतृत्व में वाजपेयी सरकार भी दो बार सत्ता में रही। लेकिन उनसे तो आमूलचूल बदलाव की आशा इसलिये भी नहीं की जा सकती थी कि वे समाजवाद के खिलाफ और पंूजीवाद के पक्ष में पहले ही खुलेआम थे। यही हाल आज मोदी सरकार का है। मोदी ने तो लगभग सारी आर्थिक नीतियां काॅरपोरेट उद्योगपतियों व पंूजीपतियों के हिसाब से ही बनानी शुरू कर दी हैं। इसलिये मोदी सरकार को विपक्ष शुरू से ही सूटबूट की सरकार कहकर चिढ़ाता रहा है। मोदी सरकार आने के बाद हमारी अर्थव्यवस्था एक तरह से बीमार हो गयी है। हालांकि इसकी वजह बिना किसी से सलाह लिये नोटबंदी बिना कैबिनेट को विश्वास में लिये देशबंदी और बिना विशेषज्ञों से चर्चा किये बिना पूरी तैयारी के लागू किया गया जीएसटी भी रहा है।  यह सच है कि 2021-22 की दूसरी तिमाही यानी जुलाई से सितंबर की जीडीपी ग्रोथ 8.4 प्रतिशत रही है। इससे जनता को यह लगा कि शायद हमारी अर्थव्यवस्था एक बार फिर से पटरी पर लौट आई है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि पिछले साल हमारी अर्थव्यवस्था इसी तिमाही मंे 32.97 लाख करोड़ थी। जो इस साल 8.4 प्रशित बढ़कर 35.73 लाख करोड़ की हुयी है। लेकिन इस सच में आधा ही सच है क्योंकि पिछले साल कोरोना महामारी के असर की वजह से हमारी अर्थव्यवस्था शून्य ग्रोथ से भी नीचे चली गयी थी। इस तरह से समझ सकते हैं कि जो अर्थव्यवस्था पहले 100 रू. की थी वह 24 प्रतिशत गिरावट के बाद 76 रू. की रह गयी थी। अगर इसमें इस साल हुयी बढ़ोत्तरी जोड़ी जाये तो भी यह वहां तक भी पहुंची जहां से विगत साल नीचे गयी थी। इसको परखने का सही तरीका यह होगा कि हम अपनी अर्थव्यवस्था के हर साल के ग्रोथ रूजहान को देखें। इसके साथ ही हम जीडीपी के उन घटकों को भी चैक कर सकते हैं जिनके आधार पर किसी देश की अर्थव्यवस्था आगे बढ़ती है। आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था 2008 से 2019 तक कम होते होते भी लगभग 7.2 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ रही थी। लेकिन 2020 आते आते यह कुल 20 प्रतिशत तक कम हो चुकी है। जीडीपी को देखें तो यह निर्यात आयात के अंतर व्यवसायियों के निवेश और व्यय सरकार द्वारा जनता पर किये गये खर्च और जनता के खुद के किये व्यय को जोड़कर बनती है। इस हिसाब से मिलान करें तो पायेंगे कि कोरोना से पहले वित्त वर्ष की दूसरी तिमारी में लोगों ने कुल 20 लाख करोड़ खर्च किये थे। लेकिन इस वर्ष इसी दौरान 19 लाख करोड़ व्यय किये हैं। इसकी वजह यह हो सकती है कि उनके हाथ में खर्च करने के लिये आमदनी के तौर पर पैसा ही कम आया है। इसकी वजह यह भी है कि नये लोगों को नया रोज़गार या तो मिला नहीं रहा या कम मिल रहा है। या फिर कम वेतन पर मिल रहा है। दूसरे जिनकी कोरोना लाॅकडाउन में नौकरी चली गयी या सेलरी कम हो गयी या फिर नोटबंदी या देशबंदी से कारोबार हमेशा के लिये बंद हो गया उसका कोई ठोस व पर्याप्त हल सरकार ने सिवाय मनरेगाा पांच किलो निशुल्क अनाज और किसानों के खाते में साल में तीन बार दो दो हज़ार रू. के अब तक भी तलाश नहीं किया है। सबसे चिंता की बात यह है कि जहां अभी तक हमारा आयात निर्यात से एक लाख करोड़ अधिक है। वहीं सरकार गत वर्ष के 4 लाख करोड़ के बजाये 3 लाख करोड़ खर्च कर रही है। हमारे देश में केवल 1 से 2 प्रतिशत लोगों की आमदनी ही 50 रू. से अधिक है। अमीर लोगों की ही आमदनी बेतहाशा बढ़ते जाने से ट्रिकल डाउन होकर गरीब लोगों तक पहंुचने और उनकी गरीबी दूर होने का दावा नाकाम हो गया है। सरकार को चाहिये कि वह असंगठित क्षेत्र पर फोकस कर कृषि पर अनुदान बढ़ाये सीधे गरीबों के खाते में धन भेजे और ऐसे उद्योगों को सुविधायें बढ़ायें जो अधिक से अधिक रोज़गार पैदा करते होंनहीं तो जीडीपी बढ़ने राष्ट्रीय आय बढ़ने और देश की सम्पत्ति बढ़ने से भी केवल अडानी अंबानी जैसे चंद मोदी मित्रों को ही लाभ होगा।                               

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

 

           

  


Wednesday 8 December 2021

एम एस पी और किसान


 

एम एस पी: धनवानों के लिये है पैसा किसानों के लिये नहीं ?

0मोदी सरकार समझ रही थी कि तीन कृषि कानून वापस लेते ही किसान आंदोलन तत्काल ख़त्म हो जायेगा। उसको यह भी लग रहा था कि ऐसा करने से उससे नाराज़ किसान खासतौर पर पंजाब के सिख और पश्चिमी यूपी के जाट आने वाले पांच राज्यों के चुनाव में उसके साथ बिना किसी अगर मगर के थोक में खड़े हो जायेंगे। यह लेख लिखे जाने तक किसान आंदोलन न केवल चल रहा है बल्कि शहीद किसानों के परिवारों को मुआवज़ा व आंदोलन सम्बंधी मुकदमे वापस लेने की मांग सहित सरकार और किसानों के बीच एम एस पी को लेकर पंेच फंस गया है। सही मायने मंे यह एम एस पी नहीं मोदी सरकार के प्रति किसानों का अविश्वास का मामला अधिक है।

              

       एक साल से चल रहा किसान आंदोलन अपने आप में विश्व इतिहास पहले ही बन चुका है। मोदी के पहले कार्यकाल और इस बार के आध्ेा कार्यकाल में शायद ऐसा पहला मौका है। जब मोदी सरकार को जनता के किसी वर्ग के सामने झुकना पड़ा है। लेकिन ऐसे जन आंदोलन सफल होने के बाद यह भी होता रहा है कि जब सरकार दो क़दम पीछे हटती है तो आंदोलनकारी अपनी सफलता से साहस बढ़ने की वजह से उसको चार क़दम और पीछे धकेलने लगते हैं। सच तो यह है कि सरकार जिन तीन कृषि कानूनों को बनाकर किसानों की नज़र में विलेन बनी थी। उनको बिना शर्त वापस लेकर वहीं आ चुकी है। जहां से वह चली थी। लेकिन अब सही मौका  देखकर किसानों ने अपनी दूसरी अहम मांगों पर ज़ोर इसलिये देना शुरू किया है क्योंकि वे जानते हैं कि अब तवा गर्म है। अगर लंबा खिंचने या सरकार के आक्रामक रूख़ के कारण किसान आंदोलन भटक जाता या हिंसक होकर अराजकता का शिकार हो जाता तो सरकार उसको कभी का खत्म कर चुकी होती लेकिन अब चूंकि सरकार चुनाव की वजह से दबाव में आ गयी है तो किसान आगे से उसके ऐसा कानून बनाने का रास्ता बंद करने को एमएसपी की गारंटी मांग रहे हैं। ज़ाहिर है कि सरकार गारंटी का मतलब बखूबी समझती है। लेकिन अब वह ऐसी दुविधा में फंस गयी है कि न तो एमएसपी कानून बनाना चाहती है और न ही ऐसा करने से सीध्ेा मना कर सकती है। ऐसे में उसने कमैटी बनाने इस पर चर्चा करने और इस मुद्दे को टालने की लंबी कवायद की चाल चली है। सरकार चाहती है कि किसानों से टकराव हुए बिना किसी तरह फिलहाल आंदोलन ख़त्म हो जाये। जिससे आने वाले 5 राज्यों के चुनाव में उसको कम से कम नुकसान हो। उसने किसानों की पराली जलाना निरपराध होने की मांग भी समय रहते स्वीकार कर ली है। 689 किसानों के आंदोलन के दौरान शहीद होने को लेकर पहले तो केंद्र सरकार ने उसके पास कोई आंकड़ा उपलब्ध न होने का बहाना लेकर बचना चाहा लेकिन जब किसाना जि़द पर अड़ गये तो मोदी सरकार ने यह मामला राज्यों के अधिकार क्षेत्र में बताकर बीच का रास्ता निकाला। सीधी बात है कि भाजपा की राज्य सरकारें मोदी सरकार की सलाह किसी कीमत पर टाल नहीं सकती। उधर विपक्षी सरकारों ने पहले ही किसानों की शेष मांगों पर अमल करना शुरू कर दिया था। जिससे केंद्र सरकार पर किसानों का और अधिक दबाव बढ़ना स्वाभाविक ही था। अब लगभग सभी राज्य सरकारें किसानों के खिलाफ आंदोलन के दौरान दर्ज केस भी वापस लेने को तैयार नज़र आ रही हैं। शहीद किसानों की वास्तविक संख्या का मामला सुलझने के बाद देर सवेर किसान परिवारों को मुआवज़ा मिलने का रास्ता भी खुल ही जायेगा। असली पेंच एम एस पी यानी फ़सलों के मिनिमम सपोर्ट प्राइस पर फंसने का अंदेशा है। सरकार का दावा रहा है कि तत्काल यह इसलिये संभव नहीं है क्योंकि सरकार की आर्थिक हालत ठीक नहीं है। सरकार का यह भी कहना है कि किसानों की मांग के अनुसार सभी फ़सलों पर एमएसपी की गारंटी देने से सरकार को हर साल 17 लाख करोड़ से अधिक का धन उपलब्ध कराना होगा। जबकि किसानों का कहना है कि सरकार इस मामले में दोहरा रूख़ अपना रही है। उनका आरोप है कि एक तरफ मोदी सरकार जहां अपने चहेते पूंजीपतियों कारपोरेट और चुनावी चंदा देने वाले अपने मित्रों को बैंक कर्ज ना चुकाने के बावजूद जनता के खून पसीने की कमाई से बड़ी मात्रा में राइट आॅफ यानी दिवालिया कानून के तहत एक तरह से माफ कर रही है। वहीं उन किसानों को मात्र 36,105 करोड़ रूपया एमएसपी में देने से मंुह चुरा रही है। जिनकी बदौलत देश का बजट जीडीपी और आधे से अधिक रोज़गार क्षेत्र चलता है। हाल ही में आॅल इंडिया बैंक एम्पलाइज़ एसोसियेशन ने 13 ऐसे बड़े डिफाल्टर कारोबारियोें की सूची जनहित में सार्वजनिक की है। जिसमें मोदी सरकार ने 4,46,800 करोड़ की देनदारी वाले इन काॅरपोरेट की कुल लोन की 64 प्रतिशत रकम बट्टा खाते में डालकर मात्र 1,61,820 करोड़ में मामला निबटा दिया है। हैरत और दुख  की बात यह है कि कुछ खासमखास उद्योगपतियों की तो इस लिस्ट में 95 फीसदी तक कर्ज़ राशि माफ कर दी गयी है। इतना ही नहीं जब से मोदी सरकार बनी है। उसने अपनी पसंद के ऐसे काॅरपोरेट घरानों की लगभग हर साल ही इतनी या इससे अधिक लोन की रकम माफ की है। विपक्ष का आरोप है कि इन धन्नासेठों से इसके बदले भाजपा ने मोटी रकम चुनावी चंदे के तौर पर ली है। हालांकि यह काम कांग्रेस सहित लगभग सभी दल जब जब सत्ता में रहे हैं। कम या अधिक छिपकर या खुलेआम करते ही रहे हैं। लेकिन भाजपा ने ऐसा लगता है। सभी सीमायें पार कर ली हैं। यह बात अब आईने की तरह साफ होती जा रही है कि भाजपा जनता को हिंदू मुस्लिम में उलझाकर ना केवल दोनोें वर्गों का लगातार रोज़गार शिक्षा चिकित्सा जीएसटी नोटबंदी लाॅकडाउन बंैकिंग चार्ज एटीएम चार्ज टैक्स टोल महंगाई भ्रष्टाचार रिश्वतखोरी कालाधन रेल व बस किराया बढ़ाकर नुकसान करती जा रही है। वहीं अपने चहेते मुट्ठीभर पूंजीपतियों उद्योगपतियों धन्नासेठों व्यवसाइयों व्यापारियों और चहेते पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों का भरपूर जायज़ नाजायज़ भला व बचाव कर रही है। यही कारण है कि देश की कुल पंूजी और जीडीपी का लाभ चंद हाथों तक सीमित हो रहा है। इससे अमीर और अमीर व गरीब और गरीब होता जा रहा है। किसान आंदोलन की सफलता ने न केवल लोकतंत्र को मज़बूत किया है बल्कि जनता के सभी वर्गों को आंखे खोलकर धर्म जाति व भावनाओं की क्षणिक राजनीति के जाल में ना फंसकर जीवन के बुनियादी मुद्दों पर सोचने समझने और आने वाले समय में आर्थिक सामाजिक सुरक्षा प्रगति व विकास के असली मुद्दों पर चिंतन मनन करने का मौका भी दिया है।                           

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

 

        

  


Saturday 27 November 2021

संविधान दिवस

सरकार बनाम विपक्ष: संविधान दिवस मनाते हैं मानते कहां है ?

0 26 नवंबर को सरकार ने औपचारिता पूरी करने के लिये संविधान दिवस मनाया। इस प्रोग्राम का लगभग सभी 15 विरोधी दलों ने बहिष्कार किया। उनका आरोप था कि सरकार संविधान पर अमल नहीं कर रही हैै। उधर पीएम मोदी ने जवाबी आरोप लगाया कि परिवारवादी दल संविधान के लिये ख़तरा हैं। सच तो यह है कि सरकार हो या विपक्ष संविधान की कसौटी पर कोई भी पूरी तरह से खरा नहीं उतर रहे हैं। यह ठीक है कि जब कांग्रेस और विपक्षी दल सत्ता में रहे तब भी संविधान पूरी तरह से लागू नहीं हुआ लेकिन अगर फेसलांे व कानूनों के हिसाब से देखें तो मोदी सरकार ने तो खुद संविधान विरोधी काम करने का रिकाॅर्ड तोड़ दिया है।

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       संविधान दिवस पर पीएम मोदी ने बिना विपक्षी दलों का नाम लिये कहा है कि जिन दलों में लोकतंत्र नहीं है वे राष्ट्र को सर्वोपरि मानकर संविधान का एक पेज भी नहीं लिख सकते। मोदी ने इशारों में खासतौर पर कांग्रेस पर हमला करते हुए कहा कि जो दल परिवारवाद पर चल रहे हैं। उनसे संविधान की भावना पर चलने की कैसे आशा की जा सकती है? इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे देश के लगभग सभी दलों में लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव और अन्य महत्वपूर्ण निर्णय नहीं होते। लेकिन यह भी सच है कि संविधान और लोकतंत्र की अव्हेलना करने मंे भाजपा आज सबसे आगे निकल चुकी है। सवाल यह भी है कि राजनीतिक दल परिवारवाद और लोकतंत्र का विरोध करते हुए मनमाने ढंग से चलकर भी कैसे सत्ता में आ जाते हैं? उनको बहुमत से चुनकर सत्ता में लाने वाली जनता का संविधान उसके मूल्यों और लोकतंत्र में कितना विश्वास है? सबसे पहले बात कांग्रेस की करते हैं। देश आज़ाद होने के बाद नेहरू के पहला पीएम बनने से लेकर उनकी पुत्री इंदिरा गांधी के सत्ता और कांग्रेस की बागडोर संभालने तक सरकार और कांग्रेस में काफी हद तक लोकतंत्र था। इसका प्रमाण यह है कि नेहरू ने तत्कालीन जनसंघ वामपंथी और अपने धुर विरोधियों को भी देशहित में अपने मंत्रिमंडल से लेकर संवैधानिक संस्थाओं में जगह दी। इसके साथ ही कांग्रेस पार्टी के मुखिया बनने से लेकर पीएम बनने तक का मौका गांधी परिवार से बाहर के लोगों को भी उनकी योग्यता और नेतृत्व क्षमता की बदौलत कई बार मिला। लेकिन इंदिरा गांधी के कांग्रेस और सरकार की कमान संभालने के बाद वनमैन शो की संविधान विरोधी और अलोकतांत्रिक परंपरा मज़बूत होती गयी। उसका परिणाम देश को दो साल आपातकाल यानी तानाशाही के रूप में भुगता पड़ा। लेकिन इसका एक सुखद पहलू यह था कि पहली बार कांग्रेस की मनमानी के खिलाफ विपक्ष एक साथ खड़ा हुआ और जनता पार्टी की सरकार बनी। गांधी परिवार का वर्चस्व तोड़ने को 1989 में दूसरी बार विपक्षी सरकार जनमोर्चा के नेतृत्व में वीपी सिंह की बनी। उसके बाद पहले गैर भाजपा संयुक्त मोर्चा और फिर राजग की गठबंधन सरकार वाजपेयी के नेतृत्व में पहले एक साल को और फिर पूरे कार्यकाल को बनी जिसने पहली बार किसी विपक्षी सरकार के रूप में अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया क्योंकि यह बहुमत के लिये कांग्रेस पर आश्रित नहीं थी। लेकिन संघ परिवार और भाजपा विपक्ष में रहते जैसे बड़े बड़े दावे करते थे। ऐसा कुछ सरकार बनने और पूरे पांच साल चलने के बावजूद वे साबित नहीं कर सके। हालांकि 2004 से 2014 तक यूपीए की कांग्रेस के नेतृत्व में मनमोहन सरकार चली लेकिन बहुमत जुटाने के बावजूद सोनिया गांधी को पीएम नहीं बनने देना भाजपा का संविधान विरोधी काम माना गया। इतना ही नहीं जब से देश में मोदी सरकार बनी है। तब से संविधान को सबसे बड़ा ख़तरा माना जा रहा है। इसकी वजह यह है कि मोदी सरकार की कथनी करनी में ज़मीन आसमान का अंतर है। मोदी के पीएम रहते सरकार में कोई फैसला लोकतांत्रिक तरीके से नहीं लिया जा रहा है। यहां तक कि भाजपा सरकारों के सीएम भी बिना विधायकों की पसंद जाने रातो रता बदल दिये जाते हैं। यूपीए सरकार के दौरान जो भाजपा सोनिया गांधी पर मनमोहन सरकार के फैसलों में अलोकतांत्रिक दख़ल देने का आरोप लगाती थी। आज उसने लोकतंत्र और संविधान को मज़ाक बना दिया है। मोदी सरकार को एक तरह से अप्रत्यक्ष रूप से आरएसएस चला रहा है। मोदी सरकार एक भी फैसला बिना संघ की सहमति के नहीं ले सकती है। खुद मोदी नोटबंदी लोकडाउन और तीन कृषि कानून वापस लेने से पहले अपनी कैबिनेट की सहमति तक नहीं लेते। चर्चा तो यहां तक है कि मोदी सरकार का कोई भी मंत्री अपनी मर्जी से कोई भी सरकारी काम नहीं कर सकता। हर छोटे से छोटे फैसले के लिये उनको संघ और मोदी पर निर्भर रहना पड़ता है। मोदी सरकार ने सीबीआई आरबीआई ईडी इनकम टैक्स चुनाव आयोग सतर्कता आयोग सीएजी मानव अधिकार आयोग सूचना आयोग पिछड़ा वर्ग आयोग अल्पसंख्यक आयोग दलित आयोग दिल्ली पुलिस फिल्म सेंसर बोर्ड नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो प्रैस कौंसिल आॅफ इंडिया और केंद्रीय विश्वविद्यालयों से लेकर ऐसी लगभग सभी संवैधानिक संस्थाओं आयोगों और स्वतंत्र संगठनों की आज़ादी स्वायत्ता व शक्ति छीन ली है। जिनको संविधान ने लोकतंत्र की मज़बूती और रक्षा के लिये सरकार की पकड़ से काफी सीमा तक अलग रखा था। हालत यह है कि जिस धर्म साम्प्रदायिकता और नफरत की राजनीति को परवान चढ़ाकर आज भाजपा सत्ता में है। उसकी संविधान किसी कीमत पर इजाज़त नहीं देता। मोदी राज में मीडिया ही नहीं अदालतों तक को जजों की नियुक्ति और कुछ के रिटायर होने के बाद सरकारी पद देकर अपने हिसाब से चलाने के विपक्ष जो आरोप लगाता रहा है, उससे सबसे अधिक संविधान को ख़तरा है। अब तो निष्पक्ष और विख्यात विदेशी संस्थायें भी मोदी सरकार पर देश में संविधान लोकतंत्र धर्मनिर्पेक्षता मानवता अल्पसंख्यकों और समान नागरिक अधिकारों के लिये पक्षपाती बताकर बार बार उंगली उठा रही हैं। एनआरसी सीएए यूएपीए लवजेहाद एंटी रोमियो धर्मांतरण तीन तलाक गोहत्या और तीन विवादित कृषि कानून सहित अनेक ऐसे संविधान विरोधी कानून भाजपा सरकारें बना रही हैं या बिना कानून के एक वर्ग विशेष जाति विशेष महिलाओं बच्चो अल्पसंख्यकों या सभी वर्गों के गरीब कमजोर और असहाय लोगों को पुलिस प्रशासन के द्वारा सरकारों की शह पर सताये जाने पक्षपात किये जाने और टारगेट किये जाने के विपक्ष आरोप लगाता रहा है जो कि पूरी तरह संविधान लोकतंत्र और समानता के खिलाफ माने जाते हैं।                        

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।

Monday 22 November 2021

कृषि कानून की वापसी


किसान कानूनों की वापसी लोकतंत्र की जीत ?

0 अब तक का रिकाॅर्ड तो यही बताता है कि पीएम मोदी एक बार कोई फ़ैसला कर लें तो उससे पीछे नहीं हटते। लेकिन 3 विवादित कृषि कानूनों की वापसी से यह धारणा टूटी है। हालांकि अभी गारंटी से यह नहीं कहा जा सकता कि ये काले कानून फिर से किसी और रूप और उचित समय पर वापस नहीं आयेेेंगे। जैसा कि भाजपा नेता और राजस्थान के गवर्नर कलराज मिश्र और भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने कहा भी है कि फिलहाल के हालात में कानून वापस लिये गये हैं। अगर चुनाव में हार के डर से भी ऐसा हुआ है तो इसे बचे खुचेे लोकतंत्र की जीत माना जाना चाहिये।

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       3 किसान कानून जिस तरह शाॅर्टकट से जल्दीबाज़ी में संसद से पास हुए थे। तभी से यह आरोप लग रहे थे कि मोदी सरकार काॅरपोरेट के पक्ष में किसानों के हितों की बलि चढ़ा रही है। दुर्भाग्य से विपक्ष न तो राज्यसभा में सरकार के अल्पमत में होने के बाद भी और न ही सड़कों पर कोई बड़ा आंदोलन चलाकर सरकार को इन काले कानूनों की वापसी के लिये मजबूर कर सका। उधर सुप्रीम कोर्ट में जब इन विवादित कानूनों के खिलाफ जनहित याचिका दाखि़ल की गयीं तो सबसे बड़ी अदालत ने इन पर कुछ समय के लिये रोक तो लगा दी थी लेकिन इनकी वैधता पर विचार करने को जो हाईपाॅवर कमैटी बनाई उस पर किसानों ने भरोसा नहीं किया। उधर सरकार ने शुरू शुरू में तो इन कानूनोें के विरोध पर कान ही नहीं दिये। साथ ही किसानों को इनके विरोध में आंदोलन करने से रोकने को दिल्ली को सील कर दिया। उनके रास्ते में कीलें और दीवारें बना दी गयीं। सरकार ने दिखावे के लिये किसानों से बात भी की लेकिन वह कानून किसी हाल में वापस न लेने पर अड़ी रही जिससे कोई बीच का रास्ता नहीं निकल सका। पहले सरकार ने किसानोें के आंदोलन को चंद प्रोफेशनल व आंदोलनजीवी लोगों का व्यवसायिक स्वार्थ वाला मामूली आंदोलन बताया। उसके बाद विरोध करने वाले किसानों को अमीर मुट्ठीभर किसानों की संज्ञा दी गयी। इसके बाद ऐसे किसानों को विपक्ष का एजेंट बताकर पाॅलिटिकल एजेंडा चलाने का अभियान चलाया गया। इसके बाद इन कानूनों का विरोध करने वालों को विदेशी शक्तियोें के इशारे पर देशविरोधी क़रार देकर सोशल मीडिया पर टूलकिट बनाकर साजि़श रचने के मामले मंे किसानों को गुमराह करने का आरोप लगाकर दिशा रवि जैसी एक युवा समाज सेविका को जेल भेजा गया। इसके बाद इसी साल 26 जनवरी को जब किसान लालकिले पर प्रतीक रूप से अपना विरोध दर्ज कराने को जा रहे थे। तब भी उन पर बड़ा षड्यंत्र का हिस्सा होने का आरोप लगाकर कई गंभीर केस दर्ज किये गये। इतना ही नहीं 12 जनवरी को सरकार के अटाॅर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट में इन कानूनों पर सुनवाई के दौरान यहां तक आरोप लगाया कि किसानों के विरोध प्रदर्शन की आड़ में दिल्ली की सीमा पर खालिस्तानियों ने अपनी पैठ बना ली है। जबकि इसकी वजह किसान आंदोलन में पंजाब के सिख किसानों की बड़ी भागीदारी होना था। इस दौरान जहां एक केंद्रीय मंत्री और हरियाणा के सीएम पर आंदोलनकारी किसानों को धमकाने और मंत्री पुत्र पर किसानों पर जानबूझकर जीप चढ़ाने का आरोप लगा। वहीं लगभग 700 किसानों के इस दौरान शहीद होने के बावजूद पीएम से लेकर भाजपा के किसी सीएम या बड़े नेता ने सहानुभूति का एक शब्द नहीं बोला। ऐसे में मृतक किसानों के परिवारों को मुआवज़ा देने का तो सवाल ही नहीं उठता। इतना कुछ होने के बावजूद पीएम ने इन काले कानूनों को वापस लेने के ऐलान के दौरान एक बार भी यह नहीं माना कि ये किसान विरोधी कानून लाना उनकी सरकार की भूल थी। उनका दावा था कि उनकी तपस्या में कुछ कमी रह गयी। उन्होंने यह भी स्वीकारा कि वे किसानों को इन कानूनों के उनके ही पक्ष में होने के लाभ नहीं समझा पाये। अब यह बात अलग है कि जब लाभ थे ही नहीं तो वे समझाते कैसेकृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का शुरू से ही दावा था कि विरोध करने वाले चंद किसान हैं। जबकि बड़ी संख्या में किसान इन कानूनों के पक्ष में हैं। अब सवाल यह उठता है कि जब ऐसा था तो सरकार ने इन कानूनों को वापस लेकर अधिकांश किसानों का अहित क्यों कियालोकतंत्र तो बहुमत से चलता है। इसका जवाब यह माना जा सकता है कि अगले साल के शुरू मंे यूपी सहित पांच राज्यों के चुनाव में भाजपा को इन कानूनों के रहते अपनी हार का डर कुछ अधिक ही सता रहा था। पंजाब में कांग्रेस से अलग हुए पूर्व सीएम कैप्टन अमरेंद्र सिंह अब भाजपा के साथ गठबंधन कर सकते हैं। इसके साथ भाजपा का पूर्व साहयोगी अकाली दल भी फिर से उसके साथ आने पर विचार कर सकता है। उधर कानून वापसी से हरियाणा में भाजपा के सहयोगी जाट नेता दुष्यंत चैटाला भाजपा सरकार में बने रहेंगे। यूपी में भाजपा का बहुत कुछ दांव पर लगा है। यहां खराब कानून व्यवस्था से लेकर बेलगाम पुलिस रिश्वतखोर नौकरशाही जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था लगातार सिमटते सरकारी स्कूल बढ़ती महंगाई बेरोज़गारी और रूका हुआ विकास सीएम योगी के लिये किसानों का विरोध ताबूत में आखि़री कील की तरह साबित होने का ख़तरा लग रहा था। हालांकि योगी की अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि के चलते भाजपा की जीत को पहले से  कुछ वोट और सीट घटने के बावजूद संघ पक्का मानकर चल रहा है। अब किसान कानून वापसी से यूपी में ही नहीं अन्य चार राज्यों में भी भाजपा को सियासी नुकसान कम होगा। इससे एक बात साफ हो गयी है कि भाजपा हिंदू मुस्लिम के मुद्दे पर भावनाओं की राजनीति करके एक दो बार तो सरकार बना सकती है। लेकिन आर्थिक भौतिक सामाजिक यानी जीवन के बुनियादी मुद्दों को दरकिनार करके लगातार न तो चुनाव जीत सकती है ना ही अपनी जि़द मनमानी और साम्प्रदायिक नीतियों से सत्ता में टिकी रह सकती है। चुनाव में हार के डर सेे ही सही विपक्ष के अपर्याप्त विरोध और बिके हुए गोदी मीडिया से ना सही लेकिन किसानों ने अपनी मेहनत लगन और कुरबानी से अपनी जायज़ बात मनवाकर लोकतंत्र को एक बार फिर से जि़दा कर दिया है। अब देखना यह है कि आगे देश के अन्य वर्ग भी मोदी और भाजपा सरकारों के जनविरोधी कामों का किसानोें की तरह जबरदस्त विरोध करते हैं कि नहीं और भाजपा सरकार उन की मांगों पर भी झुकती है या फिर से आगे मौका देखकर होमवर्क कर विरोध से निबटने की पूरी तैयारी कर घुमा फिराकर कृषि कानून एक बार फिर वापस लाती है?                   

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

 

         

  


Sunday 7 November 2021

योगी बनाम केजरीवाल


मोदी का हिंदुत्व कार्ड छीन सकते हैं योगी या केजरीवाल?

0 स्व0 अटल बिहारी वाजपेयी लालकृष्ण आडवाणी नरेंद्र मोदी के बाद योगी या केजरीवालकट्टरपंथ साम्प्रदायिकता और जातिवाद जैसी चुनावी धरणाओं में आपने देखा होगा कि इनके नायक एक के बाद एक पहले वाले से और अधिक उग्र संकीर्ण व आक्रामक होते जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या जनता का बड़ा वर्ग अपने मूल बुनियादी मुद्दों को छोड़कर आगे भी मोदी के और अधिक कट्टर विकल्प आदित्यनाथ योगी को यूपी के आगामी चुनाव में जिताकर भविष्य का पीएम बनाने का सपना देख रहा है या फिर नरम हिंदुत्व के साथ साथ सबके विकास का प्रतीक बने अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के बाद पूरे देश में विस्तार का मौका मिल सकता है?

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

          पहले गुजरात जिस तरह से हिंदुत्व की प्रयोगशाला माना जाता था। उसी तरह से आज यूपी योगी के नेतृत्व में हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला बन गया है। वैसे तो योगी सीएम बनने से पहले कई बार सांसद रहे। लेकिन वे कभी किसी सरकार में मंत्री नहीं रहे। उनको बिना शासन का अनुभव कराये सीध्ेा यूपी जैसे बड़े प्रदेश का सीएम बनाने का फैसला आरएसएस ने बहुत सोच समझकर ही किया था। जिस तरह से गुजरात के सीएम रहते और केंद्र में पीएम बनकर भी मोदी संघ की कोई बात नहीं टालते। ठीक इसी तरह योगी भी संघ को किसी बात पर नाराज़ नहीं करते हैं। यही उनकी उनकी सबसे बड़ी ताकत है। पिछले दिनों उत्तराखंड कर्नाटक और गुजरात में भाजपा ने एक के बाद एक अपने पुराने और धुरंधर सीएम एक झटके में बदल डाले लेकिन योगी को हटाने की हिम्मत नहीं की। योगी की शक्ति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने भाजपा हाईकमान और मोदी शाह के चाहने के बावजूद एक ब्रहम्ण पूर्व नौकरशाह को अपने मंत्रिमंडल में लेने से साफ मना कर दिया लेकिन उनको किसी ने ऐसा करने या पद छोड़ने को मजबूर नहीं किया। दरअसल यह संघ की ही सपोर्ट थी जो योगी के पीछे चट्टान की तरह खड़ी रही है। अब सवाल यह है कि योगी का हिंदुत्व माॅडल यूपी में उनके ही नेतृत्व में फिर से जीत हासिल करेगाअमित शाह ने यहां तक कह दिया है कि अगर योगी यूपी में फिर से जीतकर सरकार बनाते हैं तो ही 2024 में मोदी भी पीएम बन पायेंगे। यह बात सच है कि योगी अपनी कट्टर हिंदूवादी सोच की वजह से यूपी में अपनी अलग पहचान बना चुके हैं। लेकिन विकास रोज़गार कानून व्यवस्था कोरोना संकट भ्रष्टाचार शिक्षा चिकित्सा यानी जीवन के बुनियादी क्षेत्रों में उनका रिकार्ड अच्छा नहीं है। विपक्ष ने उनकी छवि सबसे अधिक अल्पसंख्यक विरोधी बना दी है। उन पर नौकरशाही में अपनी जाति के लोगों को बढ़ावा देने का आरोप भी लगता रहा है। लेकिन सीट और वोट घटने के बावजूद उनकी यूपी में फिर से जीत के आसार अधिक नज़र आते हैं। दूसरी तरफ मोदी के हिंदुत्व के तौर तरीकों की नकल करते हुए दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी का पूरे देश मेें विस्तार करने का सपना देख रहे हैं। हालांकि आज भी देश में भाजपा के बाद सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस है। लेकिन लोग मोदी या भाजपा से नाराज़ होने के बाद क्या 50 साल तक आज़माई हुयी कांग्रेस पार्टी को एक और मौका देंगे या केजरीवाल जैसे नरम हिंदुत्व के साथ दिल्ली विकास का माॅडल लेकर चल रही आम आदमी पार्टी जैसी जुमा जुमा आठ दिन की पार्टी को केवल और केवल उसके भाजपा एजेंडे की नक़ल करने से धीरे धीरे कुछ राज्यों में उसकी ओर आकृषित होने लगेंगेयह भी हो सकता है कि कम्युनिस्टों के साथ बंगाल बिहार और यूपी की क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस की बजाये आप जैसी पार्टियों से गठबंधन कर राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा मोर्चा खड़ा करें। आप टीएमसी के बाद अकेली पार्टी है जिसका विस्तार अब तक दिल्ली से बाहर पंजाब गुजरात गोवा और उत्तराखंड में होने जा रहा है। अगले साल पांच राज्यों के चुनाव के बाद वह देश की आठवीं राष्ट्रीय स्तर की मान्यता पाने वाली पार्टी बन सकती है। हालांकि केंद्र की सत्ता में पैर जमाने या अपने समर्थन से सरकार बनाने में आप को अभी कई दशक भी लग सकते हैं। लेकिन अरविंद केजरील जिस तरह से नरम हिंदुत्व का कार्ड खेल रहे हैं। उससे साफ नज़र आ रहा है कि भाजपा का विकल्प कांग्रेस वामपंथी या क्षेत्रीय दल आज इसलिये नहीं बन सकते क्योंकि इन सबकी छवि संघ परिवार ने हिंदू विरोधी देशविरोधी और मुसलमान समर्थक बना दी है। आप ने इस रण्नीति को समझा है। केजरीवाल ने राष्ट्रवाद हिंदू इतिहास और सेना का महिमामंडन शुरू कर दिया है। वो दिल्ली में सार्वजनिक रूप से हनुमान मंदिर जाते हैं। साथ ही सरकारी स्तर पर दिवाली की पूजा करते हैं। वे शाहीन बाग़ के आंदोलन और दिल्ली दंगों पर राजनीतिक गुण भाग के हिसाब से चुप्पी साध जाते हैं। वे जेएनयू के कन्हैया और उमर खालिद पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की अनुमति दे देते हैं। वे दिल्ली के हिंदू तीर्थ यात्रियों को 2018 में ही रामायण एक्सप्रैस के द्वारा सीतामढ़ी नेपाल के जनकपुर वाराणसी प्रयाग चित्रकूट हम्पी नासिक और रामेश्वरम जैसे तीर्थ स्थलों पर सरकारी खर्च पर रवाना कर चुके हैं। इसके एक महीने बाद ही केजरीवाल ने अपनी सेकुलर छवि को थोड़ा बहुत बचाये रखने के लिये मुसलमानों और सिखों के लिये भी ऐसी ही तीर्थ यात्रा का ऐलान किया था। दिल्ली विधानसभा के चुनाव से पहले जब मोदी ने राम मंदिर के लिये ट्रस्ट की घोषणा की तो केजरीवाल ने सारे विपक्ष से बाजी लेते हुए बयान दिया कि अच्छे काम के लिये कोई सही समय नहीं होता है। हाल ही में केजरीवाल रामलला के दर्शन भी कर आये हैं। उन्होंने उत्तराखंड के चुनाव में देवस्थानम कानून जो कि हिंदू मंदिरों में सरकारी दख़ल की व्यवस्था करता हैको सत्ता में आने पर ख़त्म करने और इस देवभूमि को विश्व की सर्वश्रेष्ठ हिंदू आध्यात्मिक केेंद्र के रूप में विकसित करने का एलान किया है। यह एक तरह से भाजपा से उसका हिंदू कार्ड छीनने का प्रयास माना जा रहा है क्योंकि भाजपा वहां सत्ता में रहते हुए ये काम नहीं कर सकी है। गुजरात में भी केजरीवाल ने चुनाव प्रचार की शुरूआत करते हुए अहमदाबाद के एक मशहूर मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण का आशीर्वाद लेने की पहल की थी। हाल ही में केजरीवाल ने भगत सिंह की जयंती पर स्कूली बच्चो को कोर्स में देशभक्ति पढ़ाने तिरंगा यात्रा का समापन अयोध्या में राम मंदिर में करने दिल्ली में 500 हाईमास्ट तिरंगे लगाने का फैसला भी किया है। अब देखना यह है कि जब राजनीति में भाजपा जैसा कट्टर हिंदूवादी विकल्प मौजूद है तो ऐसे में केजरीवाल के नरम हिंदूवादी विकल्प को केवल सस्ती बिजली निशुल्क पानी और बेहतर इलाज के नाम पर मतदाता कितना पसंद करते हैंया फिर वे योगी के मोदी से भी कट्टर हिंदुत्व नायक और कड़क शासक के साथ बिना किसी ठोस विकास के भी जाने का फैसला करते हैं?               

  


Sunday 31 October 2021

कांग्रेस की समझ

कांग्रेस नहीं समझती देश का मिज़ाज, लंबा चलेगा भाजपा का राज?

0 इंडियन पाॅलिटिकल स्ट्रेटेजिस्ट और चुनावी विश्लेषक प्रशांत किशोर ने कहा है कि मोदी अगर आने वाले एक दो चुनाव के बाद पीएम नहीं भी बने तो भी भाजपा अगले कई दशक तक भारत की राजनीति के केंद्र में बनी रहेगी। उनका यह भी कहना है कि राहुल गांधी देश का मिज़ाज नहीं समझ पा रहे हैं। उधर बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने भी कुछ ऐसे ही आरोप कांग्रेस पर लगाते हुए अपनी पार्टी टीएमसी का राज्य से बाहर विस्तार शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि कांग्रेस की कमियों ग़ल्तियों और नालायकी से मोदी लगातार मज़बूत होते जा रहे हैं। लेकिन इधर यूपी में प्रियंका गांधी और हाल ही में राहुल गांधी ने बहुत कुछ नया व अच्छा भी किया है।

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

          2014 के चुनाव में भाजपा से करारी हार के बाद से कांग्रेस को ऐसा लग रहा था कि वह एक बार फिर 1977 1989 और 1996 में उसकी हार के बाद बनी जनता पार्टी जनता दल और संयुक्त मोर्चा सरकार के कार्यकाल पूरा किये बिना गिरने के बाद एक बार फिर से सत्ता में मोदी सरकार की ग़ल्तियों के कारण आराम से वापसी कर लेगी। लेकिन वह यह भूल गयी कि 1998 में वाजपेयी की सरकार 13 महीने बाद ही गिर जाने के बाद वह सत्ता में नहीं लौट सकी थी। उल्टा वाजपेयी की एनडीए सरकार न केवल एक बार फिर से बनी बल्कि वह पूरे 5 साल चली भी थी। यह सच है कि मोदी सरकार के पास उलब्ध्यिों के नाम पर कम लेकिन चुनाव जीतने की रण्नीति के लिये ढेर सारे तौर तरीके मौजूद रहे हैं। यही वजह है कि 2019 में मोदी सरकार न केवल एक बार फिर से जीती बल्कि उसके वोट और सीटें भी पहले से बढ़ गयीं। प्रशांत किशोर और ममता बनर्जी अगर आज कांग्रेस को आईना दिखा रहे हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे कांग्रेस के बजाये भाजपा या मोदी को सपोर्ट कर रहे हैं। सच तो यह है कि वे दीवार पर लिखी इबारत पढ़ने की हिम्मत दिखा रहे हैं। दरअसल आज की भाजपा ने जिस तरह से मोदी के नेतृत्व में दो दो बार केंद्र और कई बार कई राज्यों का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से ही जीतकर धीरे धीरे लोकतंत्र को ही ख़त्म करना शुरू कर दिया है। उस सोची समझी योजना का कोई जवाब यानी विकल्प कांग्रेस और अन्य विरोधी दल अब तक नहीं खोज पा रहे हैं। मिसाल के तौर पर भाजपा ने सभी सेकुलर दलों को हिंदू विरोधी देश विरोधी और मुस्लिम समर्थक साबित करने की एक सोची समझी कांगे्रसमुक्त भारत की मुहिम लंबे समय से शुरू कर रखी है। भाजपा हिंदू साम्प्रदायिकता कट्टरता अंधविश्वास और मुस्लिम विरोधी माॅब लिंचिंग लव जेहाद सीएए एनआरसी पक्षपात अन्याय को राष्ट्रवाद देशभक्ति हिंदूराष्ट्र का चोला पहनाकर बुनियादी मुद्दों रोज़गार शिक्षा स्वास्थ्य विकास सस्ता न्याय कानून व्यवस्था करप्शन कालाधन महंगाई और दूसरी बड़ी समस्याओं से एजेंडा बदलने मंे आज तक सफल है। उसने पूरे देश में अपने 30 से 40 प्रतिशत से अधिक के वोटबैंक में जहां तरह तरह लोगों में से कुछ को कांगे्रस के विकल्प अन्य सेकुलर व जातिवादी दलों क विरोध मुसलमानों के तथाकथित तुष्टिकरण को ख़त्म कर उनको दूसरे दर्जे का डरा हुआ मजबूर नागरिक बनाने तो कुछ को शौचालय उज्जवला जलनल सौभाग्य आयुष्मान किसान सम्मान पीएम आवास योजना पाकिस्तान विरोध राममंदिर कश्मीर से धारा 370 खत्म कर उसे केंद्र शासित राज्य बनाने तो कुछ को दिवाली पर सरकारी पूजापाठ दिये जलाना कांवड़ और कुंभ मेले दशहरे पर सरकारी रामलीला पाकिस्तान को घर में घुसकर मारने का दावा विदेशों में भारत का डंका बजने का झूठा प्रचार वोटबैंक तैयार किया है। ऐसे में 2024 में भी तमाम नुकसान उठाकर भी भाजपा को बार बार चुनाव जिताने वाला एक बड़ा वर्ग कांग्रेस के साथ आने को तैयार नहीं होगा। आज देश में मीडिया ही नहीं न्यायपालिका तक कई मामलों में सरकार के साथ खड़े नज़र आते हैं। काॅरपोरेट और धन्नासेठ इस हाथ दे उस हाथ ले की नीति पर चलते हुए मोदी सरकार से लगभग सारे सरकारी संसाधनों को लूटने तेज़ी से निजीकरण कराने में सफल हैं। देश मंे पहली बार कारपोरेट टैक्स इनकम टैक्स से कम जमा हुआ है। देश की आधी से अधिक संपत्ति एक प्रतिशत पूंजीपतियों के हाथ में सीमित हो चुकी है। भाजपा सरकार न केवल पुलिस व नौकरशाही बल्कि सीबीआई एनआईए एनसीबी ईडी और अन्य सरकारी एजंसियों मीडिया व राजनीतिक चंदे का इस्तेमाल विपक्ष अपने विरोधियों निष्पक्ष पत्रकारों लेखकों आंदोलनकारी किसानों दलितों अल्पसंख्यकों एनजीओ जनसंगठनों सेकुलर हिंदुओं अपवाद के तौर पर बचे रह गये अख़बारों चैनलों सोशल मीडिया प्लेटफाॅम्र्स के खिलाफ खुलकर कर रही है। कांग्रेस यह नहीं समझ पा रही है कि आज देश में लेविल प्लेयिंग फील्ड नहीं बचा है। कांग्रेस यह मानने को तैयार नहीं है कि उसने अपने कार्यकाल मंे जो कुछ किया उससे भी आज भाजपा को यहां तक पहुंचने की ज़मीन मिली है। कांग्रेस मुसलमानों का मज़हबी तुष्किरण शाहबानोें जैसे मामलों में कर रही थी। वह आज भी उसे भूल नहीं मानती। कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाकर हिंदू साम्प्रदायिकता जिन्न बोतल से बाहर निकाला वह स्वीकार करने की हिम्मत नहीं दिखाती है। कांग्रेस ने ब्रहम्णों के नेतृत्व में मुसलमान और हरिजनों के बल पर देश में कई दशक तक राज कर न केवल इन दोनों वर्गों का कोई खास भला नहीं किया बल्कि कुल आबादी के 50 प्रतिशत से अधिक पिछड़ों किसानों नौजवानों और गरीबों के कल्याण के लिये नारे से आगे बढ़कर कोई ठोस योजना नया विज़न और दूरगामी प्रोग्राम नहीं बनाया जिससे आज उसको फिर से वापस सत्ता मेें लाने को समाज के किसी वर्ग में कोई हलचल ना होकर जुम्मा जुम्मा आठ दिन की आम आदमी पार्टी या क्षेत्रीय दलों के लिये भाजपा का विकल्प बनने के आसार नज़र आ रहे हैं। अब देखना यह है कि कांग्रेस हाल ही में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की तेज़ होती गतिविधियों के साथ ही भाजपा नहीं पूरे संघ परिवार के प्रोपेगंडे आरएसएस जैसे वैकल्पिक संगठन हिंदू कार्ड और काॅरपोरेट व मीडिया का क्या विकल्प तलाशती है।       

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।

Friday 15 October 2021

मज़हबी गैंगवार

मानवता के दुश्मनोंमज़हबी गैंगवार बंद करो !

0कश्मीर में पिछले सप्ताह 7 लोगों की हत्या हुयी है। जिनमें 4 अल्पसंख्यक और 3 मुसलमान हैं। इनमें एक कश्मीरी पंडित एक सिख और 2 कश्मीर से बाहर के दलित भी शामिल हैं। पिछले एक साल में कश्मीर में कुल 28 लोगांे की हत्या हुयी है। इनमें भी 7 गै़र मुस्लिम शामिल हैं। इधर पूरे देश में कई मुसलमानों की धर्म के नाम पर माॅब लिंचिंग की ख़बरें भी अब न्यू नाॅर्मल बन चुकी हैं। उनके साथ पुलिस और खासतौर पर भाजपा सरकारों पर क़दम क़दम पर पक्षपात और अन्याय करने का आरोप लगता रहा है। अगर पड़ौसी मुल्क पाकिस्तान अफ़गानिस्तान और बंग्लादेश में देखें तो वहां भी धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ अत्याचार पक्षपात और हमलों के मामले सामने आते रहते हैं।

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

     किसी भी देश राज्य या क्षेत्र विशेष में किसी की हत्या होना अपराध और चिंता की बात है। लेकिन किसी पर उसके धर्म की वजह से हमला बलात्कार उसको बेघर करना बिल्कुल अलग बात है। कश्मीर में आतंकियों ने 2019 में 36 और 2020 में 33 लोगों की जान उनको पुलिस और सरकार का मुखबिर बताकर ली थी। हिंदू अख़बार के अनुसार स्कूल में जब टीचर सुपिंदर कौर और उनके सहायक दीपक चंद की हत्या हुयी उस दिन अपने बाकी अल्पसंख्यक सहयोगियों को मुस्लिम स्टाफ उनके घर तक सुरक्षित पहुंचाने गया। ऐसे ही कश्मीरी पंडित माखन बिंद्रू के घर स्थानीय मुसलमान बड़ी संख्या में अफ़सोस जताने और हत्या की निंदा करने को गये। साथ ही पूर्व सीएम फारूक अब्दुल्ला उमर अब्दुल्लाह और महबूबा मुफ़ती ने भी उनके घर जाकर हत्या की निंदा करते हुए यह शैतानों का काम बताया। जम्मू के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी दिलबाग़ सिंह ने बयान दिया कि घाटी के सभी वर्गों ने इस हत्या की एक आवाज़ में निंदा की है। हत्याओं को आप संख्या के हिसाब से नहीं धर्म के हिसाब से इसलिये देख सकते हैं क्योंकि इससे कश्मीरी पंडितों में 1990 के दौर की डरावनी यादें ताज़ा हो गयी हैं। उनमें फिर से खौफ़ की लहर दौड़ने लगी है। ठीक ऐसा ही डर और गुस्सा शेष भारत में जब किसी मुसलमान या दलित की हत्या उत्पीड़न या अत्याचार करके उल्टा उसी के खिलाफ़ मुकदमा दर्ज कराया जाता हैपैदा होता है। लेकिन उसपर अब कोई शोर नहीं होता। संघ परिवार ने नागरिकता और अपराध के दो दो पैमाने बना दिये हैं। भाजपा का दावा रहा है कि न्याय सबकोतुष्टिकरण किसी का नहीं। लेकिन व्यवहारिकता में वह इससे कोसों दूर है। मिसाल के तौर पर पूरे देश में तो छोड़ ही दें। कश्मीर में बीजेपी नेता और पंचायत सदस्य राकेश पंडिता की हत्या हुयी तो राज्यपाल शासन में भाजपा सरकार ने उसको 45 लाख मुआवज़ा दिया। लेकिन जब बीजेपी के ही एक मुस्लिम पंचायत सदस्य की हत्या हुयी तो उसको 5 लाख मुआवज़ा दिया गया। शुक्र है कि उसको कम से कम मुआवज़ा दिया तो गया। वर्ना भाजपा शासित राज्यों में जब भी कोई मुस्लिम इस तरह से मारा जाता है ना तो कोई भाजपा नेता कश्मीर के मुस्लिम नेताओं की तरह उसके घर जाने की ज़हमत करता है ना ही उसको न्याय और मुआवज़ा दिलाने की कोई ख़बर अब तक सामने आई है। इस तरह से जो भाजपा यह दावा करती थी कि नोटबंदी और धारा 370 हटाने से कश्मीर में आतंकवाद की कमर टूट जायेगी। वह खुद ही   समाज को बांटने और हर मामले को हिंदू मुस्लिम की नज़र से देखने का काम कर रही है। पक्षपात और अलग अलग पैमानों की हालत यह है कि कश्मीर में जिस दलित वीरेंद्र पासवान की हत्या हुयी थी। सरकार ने उसका शव परिवार के लाख मिन्नतें करने के बावजूद बिहार के भागलपुर ना भेजकर कश्मीर में ही उसका अंतिम संस्कार कर दिया। यूपी के लखीमपुर में एक मंत्री के बेटे पर अपनी जीप से चार आंदोलनकारी किसानोें को कुचलने का आरोप लगा। बड़ी मुश्किल से मुकदमा कायम हुआ। अभी तक मंत्री का इस्तीफा नहीं लिया गया। पीएम मोदी ने आज तक इस घटना की निंदा तक नहीं की। मंत्री पुत्र को सीधे पकड़ने की बजाये पुलिस उसके घर पर समन चिपकाती रही। आज जब मंत्री पुत्र पकड़ा भी गया है तो उसको वीआईपी ट्रीटमेंट देने का आरोप किसान लगा रहे हैं। उधर कश्मीर में अल्पसंख्यक की इन हत्याओं के मामले में पूछताछ के लिये अब तक सैकड़ों लोगों को हिरासत में लिया जा चुका है। कश्मीर के हालात बता रहे हैं कि वहां आतंकी एक बार फिर से मज़बूत होने का प्रयास कर रहे हैं। आतंकियों ने हाल ही में एक बड़े हमले में पुंछ में कई जवानों को शहीद कर दिया है। सवाल यह है कि जब पहले ऐसा होता था तो गोदी मीडिया वहां की सरकार से सवाल पूछता था। अब वही मीडिया मोदी सरकार से सवाल तलब क्यों नहीं कर रहा कि आप पाकिस्तान आतंकियों और उनके धनश्रोत बंद करने का दावा करते थे तो अब कहां से वे फिर उभर आयेकश्मीर की हर घटना के लिये वहां के बहुसंख्यकों और पाकिस्तान को कोसने से मसला हल नहीं होगा। हालांकि यह सच है कि कश्मीर में अगर आतंकी किसी मुसलमान को मारते हैं तो उसका परिवार या धर्म के लोग कश्मीर छोड़कर भागने की कभी नहीं सोचेंगे। लेकिन कश्मीरी पंडित सिख या दलित के साथ ऐसा होगा तो वे जान बचाकर पलायन को मजबूर हो सकते हैं। ऐसा ही माॅब लिंचिंग से देश के विभिन्न राज्यों में मुसलमानों के साथ डर पैदा होता है। इतना ही नहीं सीएए के खिलाफ आंदोलन करने वाले मुसलमानों और सेकुलर हिंदुओं के साथ जिस तरह से विभिन्न भाजपा और विशेष तौर पर योगी की सरकार और दिल्ली पुलिस पेश आई वह अपने में डरावना और चिंताजनक है। हमारा कहना है कि कश्मीर हो या शेष भारत संविधान कानून कोर्ट पुलिस और सरकारों को सबके साथ एक जैसा ही व्यवहार करना चाहिये। अगर वे यह समझकर ऐसा नहीं करेंगी कि वे इतनी शक्तिशाली और सक्षम हैं कि उनका पक्षपात अन्याय या अत्याचार करने पर भी कभी कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता तो यह उनकी खुशफहमी है। इतिहास गवाह है कि ऐसे अंग्रेजी़ राज तानाशाह हिटलर सामंतशाही रजवाड़े ज़मींदार तुग़लकशाही एक ना एक दिन खुद अपने कर्मों से ही खत्म हो जाते हैं। बहरहाल मानवता के दुश्मन चाहे जो हों चाहे जहां हो और जितने ताक़तवर हों मज़हब के नाम पर गैंगवार जितनी जल्दी बंद कर दें देश और दुनिया का उतना ही जल्दी भला होगा।          

 मज़हब को लौटा ले उसकी जगह दे दे ,

  इंसान सलीक़े के तहज़ीब करीने की ।।

0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Sunday 3 October 2021

प्रतीकों की राजनीति

प्रतीकों की राजनीति लोकप्रिय हो सकती हैलोकहितैषी नहीं ?

0 कांग्रेस ने पंजाब मंे पहली बार एक दलित सिख को मुख्यमंत्राी बनाकर एक तीर से कई निशाने साधे हैं। उधर गुजरात में भाजपा ने मुख्यमंत्राी के साथ पूरा मंत्रिमंडल बदलकर राजनीति में एक नया प्रयोग किया है। आज़ादी के बाद कई दशकों तक जिस तरह से कांग्रेस ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों को ताश के पत्तों की तरह फेंटा है। आज ठीक उसी तरह से भाजपा शासित राज्यों में संघ परिवार कर रहा है। सवाल यह है कि धर्म जाति क्षेत्र घृणा दुष्प्रचार झूठ भावनाओं और प्रतीकों की राजनीति से जनता का भला होता है या नेताओं का?

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

     केंद्र मंे सरकार न होने से कांग्रेस को पहली बार यह अहसास हो रहा है कि जिन राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन करना है। उनके हटाये जाने वाले मुख्यमंत्री को कहां एडजस्ट करेपहले वह उनका दर्जा बढ़ाकर केंद्र में मंत्री किसी आयोग का मुखिया या गवर्नर बनाकर उनकी नाराज़गी या विद्रोह को काबू कर लेती थी। दरअसल सत्ता की अपनी अलग ही पाॅवर होती है। ऐसे में कांग्रेस हो या भाजपा उसका हाईकमान भी बहुत ताक़तवर होता है। आज यह शक्ति संघ प्रमुख और पीएम मोदी व गृहमंत्री अमित शाह के हाथों में आ गयी है। अगर वे किसी को ना चाहते हुए भी सीएम पद से हटाकर दूसरे को सीएम बना देते हैं तो भूतपूर्व सीएम की यह मजाल नहीं कि वह उनका या पार्टी का राजनीतिक नुकसान कर सके। ऐसा कर्नाटक और उत्तराखंड में भी किया जा चुका है। उत्तराखंड में तो चार माह में ही दो सीएम बदल दिये गये। इस मामले में यूपी के सीएम योगी इसका अपवाद लगते हैं। इसकी वजह उनका कट्टर हिंदूवादी कोर वोट और उनकी पीठ पर संघ का हाथ माना जाता हैै। कांग्रेस ने पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को केवल उन नौसीखिया नवजोत सिंह सिंधू की वजह से हटा दिया जो खुद कोई गंभीर नेता नहीं है। ऐसा ही फैसला उसने एमपी में सिंधिया को सीएम बनाकर किया होता तो वहां आज भी उसकी सरकार चल रही होती। इतना ही नहीं राजस्थान में सचिन पायलट के साथ वहां के सीएम और कांग्रेस हाईकमान जिस तरह का व्यवहार कर रहा है। आज नहीं तो कल वहां भी बगावत होगी और हो सकता है कि बिना कार्यकाल पूरा किये वहां भी कांग्रेस सत्ता से हाथ धो बैठे। कांग्रेस को दो दो लोकसभा चुनाव हारकर भी यह बात समझ नहीं आ रही कि उसको पार्टी में भी लोकतंत्र बहाल करना चाहिये। पुरानी गल्तियों से सीखना चाहिये। उसको पंजाब में एक दलित सीएम बनाकर लग रहा है कि अगला चुनाव वह केवल इसी मास्टर स्ट्राॅक से जीत सकती है। जबकि इससे ऐसा लगता है। मानो कोई दलित सीएम ही दलितों का भला कर सकता है। यह प्रयोग मायावती यूपी में सीएम बनकर कर चुकी हैं। लेकिन उनके सत्ता में रहते दलितों का कोई खास भला नहीं हुआ। ऐसे ही भाजपा ने जिस तरह से गुजरात में अपना सीएम और पूरा मंत्रिमंडल बदलकर यह संदेश देना चाहा है कि राज्य में जो कुछ हुआ उसके लिये भाजपा या संघ नहीं मुख्यमंत्री और सारे मंत्री जि़म्मेदार थे। जिनको बदल दिया गया है। यही काम जब केरल में कम्युुनिस्टों ने किया था तो सब दलों ने उनकी जमकर निंदा की थी। जबकि उन्होंने सीएम नहीं बदला था। साथ ही यह काम उन्होंने चुनाव बाद किया था। दरअसल भाजपा हो या कांग्रेस वह यह मानकर चलते हैं कि इस तरह की प्रतीकात्मक राजनीति से उनका वोट बैंक उनके साथ बना रहेगा। गुजरात में लगभग दो दशक से भाजपा सरकार लगातार चल रही है। पिछली बार 2017 में भाजपा वहां 99 सीट जीतकर बहुत किनारे पर ही सरकार बना पाई थी। इस बार वह चुनाव मेें एन्टी इंकम्बैसी से बचने को चुनाव से आधा साल पहले मुख्यमंत्री और सारा मंत्रिमंडल बदलकर यह दिखाना चाहती है कि जो काम नाराज़ जनता किसी दूसरी पार्टी को जिताकर करेगी। वह उसने चुनाव से पहले खुद ही कर दिया है। लिहाज़ा इस बार भी उसी को वोट देना। ऐसे ही पंजाब में कांग्रेस चुनाव से आधा साल पहले वहां की आबादी के 32 प्रतिशत दलितों को यह कहना चाहती है कि वह उनकी बड़ी हितैषी है। लिहाज़ा आने वाले चुनाव में कांग्रेस को ही वोट देना। ऐसे ही भाजपा आज जिस तरह से हिंदू वोटबैंक की राजनीति कर रही है। वैसी ही कांग्रेस और सपा बसपा राजद और टीएमसी जैसी सेकुलर पार्टियां मुसलमानों को रिझाकर अपना वोटबैंक बनाकर लंबे समय तक करती रही हैं। सेकुलर दल रोज़ा अफ़तारटोपी लगाकर हर ईद पर ईदगाह जाकर कब्रिस्तानों की दीवार बनवाकर उर्दू अनुवादक नियुक्त कर  चंद मस्जिद के इमामों को वेतन देकर मदरसों को थोड़ी सी ग्रांट देकर मुस्लिम पर्सनल लाॅ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और बाबरी मस्जिद बचाने की दिल को छूने वाली बातें करके उनको लंबे समय तक अपना वोटबैंक बनाकर प्रतीकात्मक राजनीति करते रहे हैं। मोदी खुद को हिंदू राष्ट्रवादी और पिछड़े समाज में पैदा होने वाला बातते हैं। जबकि उनकी सूटबूट की सरकार जिस तरह से पूंजीपतियों कारपोरेट और निजीकरण की किसान मज़दूर गरीब विरोधी आर्थिक नीतियां तेज़ी से अपना रही है। उससे ना केवल पिछड़ों बल्कि शेष हिंदू समाज का भी कारोबार नौकरियों और आर्थिक नुकसान अधिक हो रहा है। इसकी वजह यह है कि उनकी भागीदारी इस क्षेत्र में पहले से ही  अल्पसंख्यकों की आबादी से अधिक रही है। भाजपा आज गैर यादव और गैर जाटव पिछड़े और दलित समाज के एक वर्ग को भी अपने साथ जोड़े रखने के लिये केंद्र और यूपी सहित अन्य भाजपा शासित राज्यों में चुनाव करीब आने पर उनके समाज से मंत्री बनाकर यह जतानी चाहती है कि वह सभी हिंदू जातियों को उनका समान प्रतिनिधित्व दे रही है। इसके साथ ही भाजपा सरकारें हर मुद्दे को हिंदू बनाम मुस्लिम बनाकर खुलकर साम्प्रदायिक राजनीति भी ठीक उसी तरह से हिंदू भावनाओं के तुष्टिकरण के लिये कर रही है। जिस तरह से कभी कांग्रेस या अन्य क्षेत्रीय धर्मनिर्पेक्ष दल मुसलमानों को खुश करने के लिये करते थे। हालांकि सच्चर कमैटी की रिपोर्ट बता रही है कि इससे मुसलमानों का रोज़गार शिक्षा और स्वास्थ्य या सरकारी योजनाओं में उनकी आबादी से अधिक हिस्सा ना मिलने से अतिरिक्त लाभ नहीं हुआ। लेकिन आज मीडिया इतना झूठ बोल रहा है कि देश में ऐसा माहौल बन गया है। जिससे ऐसा लगता है कि हिंदुओं की तमाम समस्याओं के लिये केवल मुसलमान कसूरवार है। उधर कांवड़ वालों पर फूलों की वर्षा दिवाली पर लाखोें दिये जलाकर और दशहरा पर विदेशी कलाकारों को बुलाकर रामलीला कराकर भाजपा सराकर हिंदुओं को प्रतीकात्मक रूप से ऐसा आभास करा रही है। मानो रोज़गार शिक्षा इलाज अर्थव्यवस्था कालाधन भ्रष्टाचार और कानून व्यवस्था जनता के लिये कोई मायने ही ना रखती हो। कई कई हज़ार करोड़ की बड़ी बड़ी मूर्तियां लगाकर सरकारें ऐसा जता रही हैं। जैसे जनता की सबसे बड़ी ज़रूरत यही हो। आज़ादी के बाद कई दशक तक कांग्रेस ने भी दलितों और मुसलमानों के साथ यही प्रतीकात्मक खेल खेला है। लेकिन शासन प्रशासन में जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी देना नीतिगत रूप से तो सही लगता है। लेकिन किसी भी सरकार को चाहे उसका मुखिया किसी भी जाति या धर्म का हो ऐसे काम करने चाहिये। जिनसे सबका भला हो। जनता को आज सोचना चाहिये कि इस तरह से धर्म जाति नफरत और झूठ के नाम पर हर बार वोट देकर वो जीवन के असली मुद्दों से भटककर किसका भला कर रही हैअपना या नेताओं का जो नारों दावों और बड़े बड़े बयानों से आगे बढ़कर सबका विकास और सबका विश्वास हासिल नहीं कर पा रहे हैं।            

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Saturday 25 September 2021

तालिबान नहीं सुधरेंगे

तालिबान नहीं सुधरेंगे यह शक सही साबित होता जा रहा है!

0 बाॅलीवुड के दो बड़े मुस्लिम कलाकार नसीरूद्दीन शाह और जावेद अख़्तर ने अफ़गानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने पर बयान जारी कर कुछ बातें कही थीं। इनमें भारत के मुसलमानों से ताालिबान का और हिंदुओं से किसी भी तरह के देसी कट्टरपंथियों का समर्थन ना करने की अपील भी की गयी थी। ज़ाहिर बात है कि दोनों वर्गों के उदार लोगों को जहां ये अपील ठीक लगी वहीं कट्टर और साम्प्रदायिक लोगों ने बिना समय गवाये दोनों सेकुलर और मानवतावादी कलाकारों को निशाने पर ले लिया। लेकिन एक माह भी नहीं बीता तालिबान ने हमारे लेख में जतायी गयी आशंकाओं को सच साबित करना शुरू कर दिया है।

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

     दुनिया की जानी मानी पीयू रिसर्च ने हाल ही में पाकिस्तान सहित इंडोनेशिया और कई मुस्लिम मुल्कों में एक सर्वे किया है। पाकिस्तान में जहां 84 प्रतिशत वहीं दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश इंडोनेशिया में 74 फीसदी लोग शरीयत राज के पक्ष में हैं। मजे़दार बात यह है कि इसके बावजूद पाक में 9 तो इंडोनेशिया में मात्र 4 परसेंट लोग ही तालिबान राज के पक्ष में हैं। हमारा दावा है कि अगर विश्व की दूसरी बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश भारत के मुसलमानों को भी इस सर्वे में शामिल किया जाता तो उनकी तादाद पाक और इंडोनेशिया से भी काफी कम तालिबान के सपोर्ट और शरीयत राज के पक्ष में आयेगी। उधर तालिबान ने सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत होते ही अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया है। यह आशंका हमने अपने पहले लिखे लेख में ही जता दी थी। दरअसल जिस एक बात के लिये नसीरूद्दीन शाह को भारत में मुट्ठीभर कट्टरपंथी मुसलमान कोस रहे हैं। वह कोई माने या ना माने या उनके शब्दों के चयन पर बेशक एतराज़ करे लेकिन सच यही है कि भारत का मुसलमान दुनिया के दूसरे मुस्लिमों से बिल्कुल अलग यानी उदार सेकुलर और प्रगतिशील है। हालांकि शाह ने अगर इस 54 सेकंड के वीडियो में दुनिया के अलग अलग हिस्सों में इस्लाम अलग अलग ना बताकर मुसलमान अलग अलग बताया होते तो कट्टरपंथियोें को इतना हंगामा करने का मौका नहीं मिलता। जबकि कट्टरपंथियों के पूरी दुनिया में इस्लाम एक जैसा होने की दावे की कलई भी इस हक़ीक़त से खुल जाती है कि उसकी व्याख्या यानी इंटरप्रिटेशन और अनुवाद सब देशों फिरकों और फिक़हों में अलग अलग अपनाया और माना जाता रहा है। मिसाल के तौर पर सउूदी और अफगानी इस्लाम की परिभाषा तक अलग अलग है। खुद भारत में शिया सुन्नी और देवबंदी बरेलवी मरकज़ के लोग इस्लाम की कई बातों पर एकमत नहीं हैं। वैसे अगर निष्पक्ष होकर देखा जाये तो इसमें कोई अनोखी या एतराज़ के लायक बात भी नहीं बल्कि ये उदारता विविधता और लोकतंत्र की पहचान है। लेकिन समस्या तब शुरू होती है। जब एक वर्ग दूसरे को मुसलमान ना मानकर ना केवल काफिर का तमगा देता है बल्कि उसको ज़बरदस्ती अपने सैक्ट के हिसाब से चलाना चाहता है। एक दूसरे की बात से सहमत ना होने या अपने तौर तरीकों से चलने पर कुछ अलग अलग सोच के फिरके एक दूसरे पर हिंसक हमले करने से भी नहीं चूकते। हिंदुओं में यह बात सराहनीय है कि ना तो वे किसी खास सोच के हिंदू को हिंदू धर्म से बाहर करने का फ़तवा देते हैं और ना ही 33 करोड़ देवी देवताओं में से किसी की पूजा करने या ना करने से किसी पर हमला या उसको बुरा समझकर बहिष्कार करते हैं। लेकिन जावेद अख़्तर ने कुछ समय से हिंदुओं में बढ़ रही कट्टरता पर उंगली उठाकर एक संगठन को तालिबानी सोच से प्रेरित बताकर तूफान खड़ा कर दिया था। बाद में उन्होने शिवसेना के मुख्य पत्र दोपहर का सामना में एक लंबा लेख लिखकर अपनी मंशा साफ की है। लेकिन जावेद अख़्तर का आगाह करना गलत नहीं माना जा सकता। अजीब बात यह भी है कि जो 84 प्रतिशत पाकिस्तानी शरीयत राज चाहते हैं। जब वहां चुनाव होता है तो उनमें से मात्र 7 प्रतिशत ही इस्लामी राज लाने का दावा करने वाली पार्टियों को वोट देते हैं। आप विश्वास कीजिये अगर तालिबान भी कभी बर्बरता बुज़दिली और गुंडागर्दी छोड़कर अफगानिस्तान में निष्पक्ष और ईमानदार चुनाव कराने की हिम्मत दिखायेगा तो वहां की लगभग सभी औरतें अल्पसंख्यक और पुरूषों का एक हिस्सा मिलकर उनको सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा सकता है। जो लोग यह समझते हैं कि भारत सहित पूरी दुनिया के मुसलमान तालिबान को पसंद करते हैं। वे मूर्खो के स्वर्ग में रहते हैं। उनको अफ़गानिस्तान के खासम खास पड़ौसी मुल्क पाकिस्तान को देखना चाहिये जो तालिबान को तो सपोर्ट करता है। लेकिन अपने यहां वैसा ही तालिबानी राज कायम होने से डरता है। यही वजह है कि वह बार बार तालिबान से अपील कर रहा है कि तहरीके तालिबान-पाकिस्तान के अफ़गानिस्तान में बंद आतंकवादियों को अपनी जेलों से रिहा ना करे। पाक के शातिर और मक्कार शासकों की कितनी दोगली अपील है कि खुद तो तालिबान जैसे बर्बर आतंकियों को अपने देश में ना केवल शरण दी बल्कि पैसा और हथियार देकर ट्रेनिंग भी दी। लेकिन अपने यहां उन जैसे तालिबानी सोच के तहरीक ए तालिबान को पनपने नहीं देना चाहते। इसके साथ ही आप यह भी देख सकते हैं कि पाकिस्तान में महिलाओं और अल्पसंख्यकों का उतना बुरा हाल नहीं है। जितना जुल्म और पक्षपात अफ़गानिस्तान में पहले देखा गया और अब भी देखे जाने लगा है। इतना ही नहीं पाक में जैसा भी आधा अध्ूारा लोकतंत्र मीडिया अदालत और दूसरी पश्चिमी सभ्यता की प्रतीक चीजे़ं मौजूद हैं। अफ़गानिस्तानी तालिबान उनको किसी कीमत पर इजाज़त नहीं देगा। इसका नतीजा यह होगा कि या तो अफ़गानिस्तान में धीरे धीरे तालिबान का राज कमज़ोर पड़ता जायेगा या फिर पाकिस्तान में भी तालिबानी सोच के लोग पार्टी और संगठन उसके ना चाहते हुए मज़बूत होते जायेंगे। उसके बाद पाकिस्तान को भारी नुकसान उठाकर यह अहसास होगा कि उसने जो बबूल का पेड़ अफ़गानिस्तान या कश्मीर में भारत के लिये बोया है। उसके कांटों से वह खुद भी लंबे समय तक बचा नहीं रह सकता। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। दशकों के भारी खून खराबे के बाद पाक ना केवल अपनी भूल सुधार करने को मजबूर होगा बल्कि उसको अपने देश के साथ साथ पड़ौस में उगाया गया कैक्टस का पौधा भी उखाड़ना होगा। हमारा मानना है कि अगर दुनिया सोच समझकर अपने स्वार्थों पर थोड़ा सा अंकुश लगाकर तालिबान और पाकिस्तान को घेरें और उनको विश्व स्तर पर आतंकवाद उग्रवाद और कट्टरवाद से दूर रहकर सेकुलर समानता और सही मायने में लोकतंत्र पर चलकर सबको बराबर अधिकार देने को मजबूर करें तो आज नहीं तो कल इनका दिमाग़ हर हाल में ठिकाने आ सकता है।     

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Monday 13 September 2021

N M P

एनएमपी यानी नेशनल मोनिटाइजे़शन पाइपलाइन किसके हित में ?

0 हमारे देश का प्रावेट सैक्टर सड़क और रेलवे लाइन जैसे बुनियादी क्षेत्र में निवेश करने से पहले से ही बचता रहा है। इसकी वजह यह है कि वह जानता है कि भारत के दूरदराज़ के इलाक़ों में भारी भरकम पैसा लगाने से खर्चा बहुत अधिक आयेगा । लेकिन गांव और क़स्बों के लोग उसको मनमाफि़क मुनाफा नहीं दे पायेंगे। यही वजह है कि आपको गांव देहात में कायदे के प्रावेट स्कूल बड़े अस्पताल ना के बराबर ही देखने को मिलेंगे। इसके बावजूद मोदी सरकार ने दो टूक कह दिया है कि सरकार का काम बिज़नैस करना नहीं है। सवाल यह है कि ऐसे में घाटा उठाकर भी जनकल्याण का काम कौन करेगा?

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

     पूंजीवाद और समाजवाद का बुनियादी अंतर यही रहा है कि जहां समाजवादी सरकारें नुक़सान उठाकर भी जनता को बुनियादी ज़रूरतें लागत से कम दाम पर उपलब्ध कराती हैं। वहीं पूंजीवादी व्यवस्था में केवल और केवल मुनाफे का एकसूत्री लक्ष्य सामने रखकर काम किया जाता है। हालांकि यह भी सच है कि समाजवादी सरकारें भ्रष्ट अफ़सरशाही के बल पर जनकल्याण का उतना काम नहीं कर पातीं जितना उनको करना चाहिये या वे करना चाहती हैं। उधर प्राइवेट सैक्टर कम खर्च कम वेतन और कम लागत पर सुविधायें सेवायें और प्रोडक्ट उपलब्ध् कराकर जनता का खून चूसना शुरू कर देता है। जिससे वह अधिक से अधिक लाभ मानवता समाज और नैतिकता व नियम कानून को ताक पर रखकर कमा सके। पहले सरकारें लोकलाज के डर से पूंजीपतियों को ऐसी खुली लूट की छूट देते हुए डरती थीं। उनको विपक्ष मीडिया कोर्ट और चुनाव में हार जाने का डर बना रहता था। लेकिन जब से देश में मोदी सरकार आई है। यह डर सरकार के दिमाग से ख़त्म हो गया है। कहने को देश में लोकतंत्र है। लेकिन लेविल प्लेइंग फील्ड नहीं है। मोदी सरकार को चुनाव हारने का डर नहीं है। उसने 2016 में असफल नोटबंदी फिर आधी अध्ूारी तैयारी के साथ जीएसटी और उसके बाद 2020 में बिना एक्सपर्ट्स कैबिनेट और विपक्ष से मश्वरे के 68 दिन की देशबंदी करके अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया। इसके अलावा भी उसकी एक के बाद एक गलत आर्थिक नीतियों पक्षपाती फैसलों विभाजनकारी कानून बहुसंख्यकवादी नीतियों रिज़र्व बैंक के गवर्नरों का गलत चयन गलत आर्थिक सलाहकारों का चयन बैंकों का एनपीए बढ़ाते जाना कालाधन देश में पैदा होने से ना रोक पाना और विदेश से लाने में असमर्थता करप्शन रोकने में नाकामी से हमारी जीडीपी लगातार गिरती जा रही है। आज हालत यह है कि सरकार के पास अपने खर्च चलाने को पूरा पैसा नहीं है। ऐसे में मोदी सरकार ने एनएमपी यानी नेशनल मोनिटाइजे़शन पाइपलाइन योजना लांच की है। इसके ज़रिये वह आज़ादी के बाद सरकार द्वारा बनाई गयी अरबों खरबों की लागत वाली नवरत्न सरकारी कंपनियों तक को निजी क्षेत्र को औने पौने में लीज़ पर देकर 6 लाख करोड़ से अधिक का राजस्व जुटाना चाहती है। इसमें रेलवे नेशनल हाईवे बंदरगाह बिजली एयरपोर्ट दूरसंचार और शिपिंग सहित कई स्टेडियम को प्राइवेट क्षेत्र को सौंपना चाहती थी। पहले मोदी सरकार एयर इंडिया को बेचना चाहती थी। लेकिन उसे आज तक उसका एक भी खरीदार नहीं मिला। इसको बेचने की वजह इंडियन एयरलाइंस का लगातार बढ़ता घाटा बताया जाता था। इसकी एक बड़ी वजह यह भी रही कि प्राइवेट सैक्टर बखूबी जानता है कि देश की अर्थव्यवस्था इतनी खराब होती जा रही है कि भारत की जनता विशेष रूप से मीडियम क्लास की जेब में इतना अधिक या अतिरिक्त धन नहीं आ रहा है कि वह अपनी कार या सरकारी रेल की बजाये हवाई जहाज़ से यात्रा करने की सोचे। कोरोना ने सबसे अधिक कमर इसी वर्ग की तोड़ी है। सवाल यह भी है कि नेहरू और कांग्रेस को बात बात पर दोषी ठहराने वाली मोदी सरकार खुद क्यों नहीं एयर इंडिया को लाभ में ला सकीयही समस्या रेलवे के निजीकरण में भी आने वाली है। अगर प्राइवेट सैक्टर रेलवे के रूट लीज़ पर लेगा तो वह उसमें पहले के मुकाबले सुविधायें बढ़ायेगा। जब ऐसा होगा तो उसकी लागत और मुनाफा बढ़ने से रेल का किराया भी काफी बढ़ेगा। लेकिन पहले रोज़गार जाने वेतन कम होने पीएफ समय से पहले निकालकर खर्च करने सोना गृवी रखकर कर्ज लेने से परेशान जनता का बड़ा हिस्सा इस बढ़े किराये को नहीं दे पायेगा। यही ख़तरा निजी क्षेत्र को इस क्षेत्र मेें आने से रोक सकता है। एनएमपी में सरकार ने दावा किया है कि वह सार्वजनिक क्षेत्र के इन नवरत्नों को जड़ से बेच नहीं रही है। बल्कि वह  इन क्षेत्रों को 4 से 5 साल के पट्टे पर प्रावेट सैक्टर को संचालन के लिये देगी। जबकि प्राइवेट क्षेत्र की नज़र इन सरकारी कंपनियों की बेशकीमती ज़मीन पर लगी है। देखने में सरकार का यह क़दम बड़ा अच्छा नज़र आता है। लेकिन कड़वा सच यह है कि 2020-21 में भी सरकार ने सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेचकर 2.1 लाख करोड़ कमाई का सुनहरा सपना जनता को दिखाया था। लेकिन वह केवल 30 हज़ार से कुछ अधिक ही वसूल कर सकी है। इसके बाद 2022 के बजट में सरकार ने 1.75 लाख करोड़ की सरकारी भागीदारी बेचने का मन बनाया। लेकिन वह भी पूरा होने के आसार दूर दूर तक दिखाई नहीं दे रहे हैं। सवाल यह है कि सरकार ऐसा करने में बार नाकाम क्यों हो रही हैइसकी वजह है निजी क्षेत्र को जनकल्याण और सरकार के लाभ से कोई लेना देना नहीं है। उसे तो केवल अपना मुनाफा चाहिये। सरकार ने चूंकि बुनियादी ढांचा पहले ही तैयार कर दिया है। प्राइवेट सैक्टर को इस क्षेत्र का संचालन और कम से कम खर्च कर रखरखाव करना है। ऐसा करने से जो मोटी कमाई होगी। उसमें से एक हिस्सा सरकार को देना है। पहले सरकार पर सरकारी सम्पत्तियोें को बेचने के ढेर सारे आरोप लगते रहे हैं। लिहाज़ा अब मोदी सरकार ने बहुत सोच समझकर यह बीच का रास्ता निकाला है। जिसमंे सम्पत्ति का स्वामित्व तो कहने को सरकार का ही बना रहेगा लेकिन एक तरह से उन सम्पत्तियों पर काबिज़ होने वाली निजी क्षेत्र की गिनी चुनी कंपनियों की आगे चलकर मोनोपोली हो जायेगी। जिस तरह से टेलिकाॅम सैक्टर में अंबानी के जियो की होती जा रही है। एक दिन आयेगा आप देखेंगे धीरे धीरे अन्य सभी प्राइवेट दूरसंचार कंपनियां घाटा सहन ना कर पाने की वजह से जियो के सामने घुटने टेक देंगी। सरकारी कंपनी बीएसएनएल का खुद सरकार ने पहले ही भट्टा बैठा दिया है। ऐसे में जियो भविष्य में जनता से अपनी सेवाओें की मनमानी कीमत वसूल करेगी। चंद गिने चुने अमीर कारपोरेट घरानों को छोड़ दें तो क्या उद्योगपति क्या व्यापारी क्या प्रोफेशनल क्लास और क्या मीडियम और लोवर क्लास सबके सामने आज रोज़गार नौकरी कारोबार और पर्याप्त आय की समस्या आ खड़ी हुयी है। ऐसे में लोग बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी की व्यवस्था कर पा रहे हैं। सवाल यही है कि जब लोगों की जेब में पैसा ही नहीं है। ऐसे में सरकार अगर प्राइवेट सैक्टर से 6 लाख करोड़ कमाने की सोच रही है तो प्राइवेट सैक्टर भी अपनी आमदनी से तो सरकार को पैसा देगा नहीं। वह जनता की जेब से ही यह 6 लाख करोड़ और अपना इससे कई गुना मुनाफा वसूलना चाहेगा जिसका सारा बोझ आखि़रकार जनता पर ही पड़ना है तो सरकार किसके हित में काम कर रही है?   

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Saturday 4 September 2021

दलित राजनीति का भविष्य

माया’ की बसपा को खा जायेगी रावण’ की असपा ?

0 दलित समाज की राजनीति में डा. अंबेडकर जगजीवन राम बूटा सिंह कांशीराम रामविलास पासवान उदितराज और मायावती के बाद यूपी में जो एक नाम तेज़ी से उभरकर सामने आ रहा है वो युवा नेता चंद्रशेखर आज़ाद उर्फ़ रावण का है। हालांकि हाल ही में गठित उनकी आज़ाद समाज पार्टी आगामी चुनाव में लंबे समय तक कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं कर पायेगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या रावण की पार्टी धीरे धीरे ही सही माया की बसपा द्वारा खाली की जा रही सियासी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने का सपना देख रही है और क्यों व कैसे?

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  0 आंच अगर कश्ती पर आये हाथ क़लम करवा देना,

      लाओ मुझे पतवारे दे दो मेरी जि़म्मेदारी है ।।

                       सियासत में थोड़ा भी दिलचस्पी रखने वाले बता सकते हैं कि बसपा प्रमुख मायावती ना केवल एक के बाद एक चुनाव हारकर अपनी सियासी ज़मीन तेज़ी से खोती जा रही हैं बल्कि उसी भाजपा के सामने लगभग हथियार डाल चुकी हैं। जो उनके दलित वोटबैंक में सेंध लगा रही है। आज अगर कोई दल व नेता भाजपा से दो दो हाथ कर उसको बार बार हराने में कामयाब रहा है। वो केजरीवाल और ममता बनर्जी माने जा सकते हैं। दोनों ही ना केवल जनहित के एक से बढ़कर एक काम कर रहे हैं बल्कि ईमानदार छवि भी बना चुके हैं। बसपा को यूपी में सरकार बनाने के एक नहीं कई बार मौके मिले। एक बार उसको पूर्ण बहुमत भी मिला। मायावती की सरकार का शायद ही कोई ऐसा बड़ा काम या चर्चित योजना हो। जिसकी जनता में आजतक प्रशंसा होती हो। पहली बार मुख्यमंत्री बनने पर माया का भ्रष्ट नौकरशाही पर जो चाबुक चला था। उसकी उनके राजनीतिक विरोधियों ने भी खुलकर सराहना की थी। लेकिन उसके बाद जब भी बसपा सत्ता में आई उसकी यह खूबी भी गायब हो गयी। दरअसल मायावती ने अपने कार्यकाल में ऐसे ऐसे विवादित कार्य किये। जिससे उन पर घोटालोें के आरोप लगने लगे। पहले कांग्रेस और अब भाजपा की केंद्र सरकार ने उनके कारानामों की जांच के नाम पर उनको जेल भेजने का डर दिखाकर इतना डरा दिया कि वे अपने घर में एक तरह से खुद ही हाउस अरेस्ट होकर चुप बैठी हुयी हैं। वे अगर ज़बान खोलती भी हैं तो भाजपा से अधिक सपा और कांग्रेस के खिलाफ ज़हर उगलती हैं। एक बार वे यहां तक कह चुकी हैं कि अगर कांग्रेस सपा को सबक सिखाने के लिये भाजपा को भी सपोर्ट करना या अपने दलित वोटों से कराना पड़ा तो वे करेंगी। यानी उन पर जो शक या आरोप था। वो उनके बयान से खुद ही सच साबित हो गया। सच यह है कि कांशीराम ने जिस बसपा को अपने खून पसीने से सींचकर यहां तक पहंुचाया था। उसकी लगाम बिना संघर्ष बिना दूरदृष्टि और बिना किसी उसूल की अवसरवादी नेता मायावती के पास विरासत में आ जाने से उन्होंने अपनी असीमित महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिये तहस नहस कर दिया। उनपर विधानसभा लोकसभा से लेकर राज्यसभा तक के टिकट बेचने के गंभीर आरोप लगे। यूपी में एक बार अपने बल पर बसपा के सरकार बनाने से सीएम बनी मायावती पीएम बनने का सपना देखनी लगी। नतीजा यह हुआ कि वे पीएम तो बनी नहीं उसके बाद फिर कभी सीएम भी नहीं बनी। उन्होंने भ्रष्टाचार के मुकदमों से जेल जाने को बचने को जिस सतीश मिश्रा को अपना वकील चुना। उनको ही बसपा में महत्वपूर्ण पद का इनाम देकर बसपा को बहुजन समाज से सर्वजन समाज के नाम पर उन बृहम्णों को जोड़ने का आत्मघाती जि़म्मा सौंप दिया। जिनकी नीतियों के विरोध में बसपा का गठन किया गया था। मायावती ने दलितों के अलावा मुसलमानों और अति पिछड़ों के साथ भी ऐसा सौतेला सलूक किया कि एक एक कर उनके नेता दूसरी पार्टियों में या तो खुद बसपा को छोड़कर चले गये या फिर मायावती ने उनके जनाधार से डरकर उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया। मायावती पर यह भी आरोप है कि वे दलितों में भी केवल जाटवों की सियासत पर अधिक जोर देती रही हैं। इसका लाभ भाजपा ने जाटव यादव और मुसलमान बनाम शेष हिंदू जातियों को गोलबंद कर उठाया है। दलित नेता उदित राज कहते हैं कि कांशीराम ने ऐसे लोगों को बसपा से जोड़ा जो अपनी जातियों को पार्टी से जोड़ रहे थे। लेकिन जब माया से उनको सम्मान नहीं मिला या उल्टा अपमान होने लगा तो वे बसपा से अलग होकर अपनी जाति के वोटों के बल पर दूसरी पार्टियों में जाकर एमएलए एमपी बन गये। इससे इनका व्यक्तिगत लाभ तो हुआ लेकिन वृहद दलित या अति पिछड़ी जातियोें का नुकसान हुआ। इससे शिक्षा स्वास्थ्य रोज़गार और शासन प्रशासन में इन वंचित वर्गों की हिस्सेदारी का मुद्दा ख़त्म हो गया। मोदी के हिंदुत्व में राष्ट्रवाद रोजी रोटी आज़ादी और डेमोक्रेटिक राइट्स नहीं हैंफिर भी कुछ दलित नेताओं के भाजपा के साथ जाकर स्वार्थ पूरे हो रहे हैं। दलित विचारक चंद्रभान कहते हैं कि बसपा के कई चुनाव हारने के बावजूद उसके वोट प्रतिशत से ऐसा लगता है कि अभी भी वही दलितों की पहली पसंद है। इसके साथ ही जो थोड़ा सा दलित युवा वर्ग और मीडियम क्लास भाजपा के साथ जुड़ा था। वह रोज़गार ना मिलने और पक्षपात बढ़ने से भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर की तरफ आकृषित हो रहा है। आने वाले वर्षों में चंद्रशेखर की पार्टी असपा बसपा को रिप्लेस कर लेगी। दलितों के हालात पर पैनी नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडि़या का मानना है कि फिलहाल भले ही लग रहा हो कि दलित सियासत कमज़ोर हो रही हैलेकिन भविष्य दलित और पिछड़ों का ही है। इतिहास गवाह है कि पहले भी दलित दल बनते बिगड़ते रहे हैं। लेकिन दलित राजनीति को लंबे समय तक नहीं रोका जा सकता। इसमें शक नहीं कि दलित वोटों पर कब्ज़े को लेकर क्षत्रपोें को पाॅवर देकर भाजपा ने बसपा का खेल कुछ समय के लिये खराब ज़रूर किया है। युवा दलित साहित्यकार अमित कुमार दो टूक कहते हैं कि पिछले एक दशक में बसपा के जनाधार में कमी के चार प्रमुख कारण मूल विचारधारा को छोड़नामाया का स्पष्टवादिता को छोड़नाकैडर वाले नेताओं को निकालना या उनका खुद निकलना और दलित पिछड़े के मुद्दों पर माया का चुप्पी साधना नज़र आते हैं।

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं। 

Friday 27 August 2021

तालिबान का विरोध

बर्बर तालिबान का विरोध होना ही चाहिये लेकिन करे कौन ?

0 आतंकवाद उग्रवाद नक्सलवाद साम्प्रदायिक हिंसा छुआछूत रंगभेद धार्मिक तुष्टिकरण माॅब लिंचिंग मज़हबी सियासत जबरन धर्म परिवर्तन महिला उत्पीड़न इंटरफे़थ मैरिज का विरोध खाप पंचायती गैर कानूनी फै़सले जातिवादी पक्षपात  अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना लोकतंत्र पर तानाशाही और धर्मनिर्पेक्षता पर बहुसंख्यकवाद को प्राथमिकता देना एक ही वायरस से पैदा होने वाली छोटी बड़ी अनेक बीमारियों के नाम हैंइस वायरस का नाम है अमानवीयता।

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  0 मज़हब को लौटा ले उसकी जगह दे दे,

    इंसान सलीके़ के तहज़ीब क़रीने की ।।

          अफ़गानिस्तान में तालिबान एक बार फिर सत्ता में लौट आये हैं। तालिबान बर्बर कट्टरपंथी दकियानूसी साम्प्रदायिकमहिला अल्पसंख्क समानता मानवता विरोधीहिंसक अमानवीय अतीतजीवी अंधविश्वासी और ज़ालिम थेहैं और रहेंगे। उनका फिलहाल यह झांसा देना कि वे बदल गये हैं। महज़ एक रण्नीति का सियासी हिस्सा है। जब वे पहले की तरह पूरी तरह सत्ता पर काबिज़ हो जायेंगे। वे वही जंगली हरकतें दोहरायेंगे जो उन्होंने 1996 से 2001 तक पूरी दुनिया की परवाह ना करते हुए अंजाम दी थी। दरअसल तालिबान जिस मज़हबी हकूमत की दुहाई देते हैं। उसमें बुनियादी बदलाव की तनिक भी गुंजाइश ही नहीं है। तालिबान बदलाव के तमाम दावों के साथ बार बार यह ज़रूर दोहरा रहा है कि वे इस्लाम के हिसाब से ही सरकार चलायेंगे। कहने को तो पूरी दुनिया मंे मुसलमानों के 57 मुल्क हैं। उनमें भी कई देशों में शरीया कानून लागू हैं। लेकिन तालिबान का इस्लाम शरीया और उसकी मज़हबी व्याख्या पूरी दुनिया से अलग ही है। बहरहाल हम यहां इस बहस में नहीं जाना चाहते कि असली और सही इस्लाम और शरीया कौन सी हैक्योंकि इस मुद्दे पर खुद इस्लामी विद्वान एकराय नहीं हैं। हमारा तो दो टूक मानना है कि धर्म पर्सनल चीज़ है। उसको पब्लिक यानी सरकार में नहीं लाना चाहिये। ये दो पैमाने भी नहीं चलेंगे कि कहीं आप बहुसंख्यक हैं तो अपना धर्म सरकार का धर्म बना देते हैं और अगर कहीं आप अल्पसंख्यक हैं तो वहां सेकुलर राज की मांग करते हैं। सच तो यह है कि आज सभी धर्म और उनकी मान्यतायें उनकी शिक्षायें निर्देश आदेश सज़ायें टैक्स सिस्टम और हज़ारों साल पहले जीवन जीने के तौर तरीके़ इतने पुराने असमान और अव्यवहारिक हो चुके हैं कि कोई भी समाज कोई भी देश और कोई भी सम्प्रदाय आज वैज्ञानिक आधुनिक प्रगातिशील विवेकशील तर्कशील मानवीय नैतिक समानता का नज़रिया अपनाये बिना आगे बढ़ना तो दूर सम्मान और बराबरी के साथ जिं़दा भी नहीं रह सकता। तालिबानियों के काबुल पर क़ब्जे़ से चंद खुलकर तो अधिकांश मन ही मन खुश होने वाले नादान मूर्ख और अपनी ही कौम के दुश्मन मुसलमानों को कुछ गलतफ़हमियां दूर कर लेनी चाहिये। तालिबान ने रूस को अकेले नहीं हराया था। उसमें अमेरिका पाकिस्तान सऊदी अरब सहित पूरी दुनिया के कई मुस्लिम और अमेरिका के मित्र देशों सहित मदरसों के कट्टर आलिमों ने पैसे हथियार प्रशिक्षण और नास्तिकों से आर पार की जंग के नाम पर उनको मानव बम बनाने में अनेक तरह से तालिबान की मदद की थी। अमेरिका की यूनिवर्सिटियों में बाकायदा एक जेहादी कोर्स तैयार किया गया था। जिससे तालिबान को इस्लाम बचाने के लिये कम्युनिस्टों के सफ़ाये की ज़रूरत समझाई गयी थी। आज यही गल्ती अमेरिका को भारी पड़ रही है। उसके बाद अमेरिका को तालिबान राज से कोई शिकायत तब तक नहीं थी। जब तक अलकायदा ने वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला नहीं कर दिया। अमेरिका ने तब भी अपने पैदा किये तालिबान पर सीधा हमला ना कर पहले अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को अपने हवाले करने को अपील की थी। लेकिन जब तालिबान सरकार ने उस पर कान नहीं दिये तो अमेरिका ने उस पर धावा बोला। अमेरिका के हमला करते ही तालिबान सत्ता छोड़ दुम दबाकर अफगानिस्तान की रहस्यमय पहेली बन चुकी पहाडि़यों में जा कर छिप गया। जिनसे अमेरिकी सैनिक परिचित नहीं थे। साथ ही अमेरिका का साथ देने का नाटक करने वाला पाकिस्तान भी पर्दे के पीछे तालिबान के बड़े नेताओं को अपने यहां छिपाने हथियार देने हमले की जानकारी लीक करने और शरण देने में लगा रहा। 2012 में अमेरिका ने ओसामा को पाकिस्तान के एबटाबाद में बिना उसकी परमीशन व सूचित किये मारकर अलकायदा को ख़त्म करने का अपना मिशन पूरा कर लिया। इसके बाद उसे तालिबान के फिर से अफ़गानिस्तान की सत्ता में आने या ना आने से कोई खास लेना देना नहीं था। उसने भारत जैसे अपने मित्र देशों के साथ मिलकर कई अरब डाॅलर खर्च कर अफगानिस्तान का विकास वहां लोकतंत्र की स्थापना सड़कें पुल बांध संसद भवन अस्पताल स्कूल महिला शिक्षा और अल्पसंयकों को बराबर अधिकार दिलाने को चुनाव कराकर सरकार बनवाई । लेकिन पहले करज़ई और फिर ग़नी सरकार उसके सुरक्षा बल उसकी पुलिस सरकारी अधिकारी कर्मचारी और जनता का एक वर्ग अमेरिका की बजाये तालिबान से ही सहानुभूति रखे रहा। आखि़र अमेरिका वहां कब तक रहताकितना पैसा खर्च करताकितने अमेरिकी सैनिक अपनी जान देतेएक ना एक दिन तो उसको वहां से बाहर निकलना ही था। ज़रूरत इस बात की थी कि खुद अफ़गान जनता और उसकी सरकार सुरक्षा बल तालिबान से लड़ते विरोध करते और उसको बदलने या सत्ता से दूर रहने पर मजबूर करते। लेकिन वे सब एक कट्टरपंथी विचारधारा और तालिबान के जान देने या लेने के जज़्बे के सामने नहीं टिक सके। अमेरिका यह भूल गया कि वह एक देश को बर्बर युग से निकालकर सीध्ेा यूरूप जैसा माॅर्डन सेकुलर और खुला देश नहीं बना सकता। कम लोगों को पता होगा कि अमेरिका ने फरवरी 2020 में क़तर के दोहा में तालिबान से शांति समझौता किया था। जिसके तहत अमेरिका ने अफ़गानिस्तान छोड़ा और बदले में तालिबान ने तब से अब तक अमेरिकी सैनिाकों पर कोई बड़ा हमला नहीं किया। हमारा गोदी मीडिया तालिबान को भी चंद कट्टर मुस्लिमों के बहाने हिंदू मुस्लिम मुद्दा बनाने पर तुला है। जबकि मंुबई के बड़े विख्यात राष्ट्रीय प्रगतिशील संगठन इंडियन मुस्लिम फ़ॅार सेक्युलर डेमोक्रेसी का वो शानदार और साहसी बयान उसको चर्चा करने के लायक नहीं लगा। जिसमें उसने दो टूक कहा है कि अब धर्म आधारित राज्य का समय ख़त्म हो चुका है और अफ़गानिस्तान में इस्लामी अमीरात बनाने की कोशिश ही मनुष्य विरोधी है। इस तरह की निष्पक्ष और उदार सोच वाले लोग ही सही मायने में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का विरोध करने और यहां मुसलमानों व कमजोर व गरीब हिंदुओं के साथ होने वाले पक्षपात पर बोलने व तालिबानियों का खुला विरोध करने का अपने सेकुलर हिंदू भाइयों के साथ मिलकर आवाज़ उठाने का नैतिक अधिकार रखते हैं।   

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

Saturday 21 August 2021

देश का बंटवारा क्यों हुआ?

इतिहास देखें आखि़र देश के बंटवारे के लिये कौन जि़म्मेदार है ?

0 14 अगस्त 1947 को देश का बंटवारा हुआ था। इसी दिन पाकिस्तान बना था। लाखों लोग अपना घरबार छोड़कर पाक से भारत और भारत से पाकिस्तान गये थे। 1950 तक 4000 मुसलमान हर दिन रेल से पाकिस्तान जाते रहे। बंटवारे के दौरान लगभग 90 लाख शरणार्थी पंजाब से पाकिस्तान गये तो करीब 12 लाख उधर से भारत आये। दोनों तरफ हुए दंगों में 13 लाख लोग मारे गये तो एक लाख से अधिक महिलाओं के साथ बर्बर बलात्कार हुए। इतना ही नहीं डेढ़ करोड़ लोग विस्थापन को मजबूर हुए। सच है विभाजन विभीषिका ही था लेकिन उसका स्मृति दिवस मनाने से अब क्या हासिल होगा?

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  0 उसके होंठो की तरफ़ ना देख वो क्या कहता है,

    उसके क़दमों की तरफ़ देख वो किधर जाता है।।

          पीएम मोदी ने कहा है कि यह दिन हमें भेदभाव वैमनस्य और दुर्भावना के ज़हर को खत्म करने के लिये न केवल प्रेरित करेगा बल्कि इससे एकता सामाजिक सद्भाव और मानवीय संवेदनायें भी मज़बूत होंगी। उनकी बातें सुनने में तो अच्छी और बेहतर लगती हैं। लेकिन उनकी सरकार की कथनी करनी में अब तक ज़मीन आसमान का अंतर देखा गया है। हमारे पीएम आंदोलनकारियों को कपड़ों से पहचानने एक राज्य का चुनाव जीतने को कब्रिस्तान शमशान और ईद दिवाली पर बराबर बिजली व धर्म के आधार पर नागरिकता देने वाला विभाजनकारी कानून सीएए बनाते हैं। वे खुद को हिंदू और राष्ट्रवादी एक साथ जोड़कर बताने में गुरेज़ नहीं करते। वे अल्पसंख्यकों की माॅब लिंचिंग पर रहस्यमयी चुप्पी साध लेते हैं। जबकि बहुसंख्यकों की धार्मिक गतिविधियों में देश के एक धर्मनिर्पेक्ष राष्ट्र होने के बावजूद खुलकर हिस्सा लेते हैं। वे दलितों से होने वाले पक्षपात और जातीय हमलों पर भी रण्नीतिक ढंग से चुनचुनकर बयान देते हैं। वे खुद को पिछड़ी जाति का बताते हैं। लेकिन उनकी जाति की गणना कराने से परहेज़ करते हैं। वे गरीबों किसानों महिलाओं और कमज़ोर वर्गों की समस्याओं पर कभी गंभीरता से विचार कर समाधन का प्रयास करते नज़र नहीं आते। यहां तक कि वे मुख्य विरोधी दलों विपक्ष शासित राज्यों सेकुलर निष्पक्ष और योग्य हिंदुओं से भी असहमति जताने पर सीधे संवाद और संघ परिवार के कुछ अति उत्साही संगठनों द्वारा भाजपा विरोधियों के साथ आपत्तिजनक व्यवहार नारेबाज़ी या हमलों पर कभी कठोर शब्दों में निंदा या कानूनी कार्यवाही उसी शैली में नहीं करा पाते जिस तरह से अल्पसंख्यकों दलितों या कुछ गरीबों द्वारा ऐसी ही कोई विवादित या गैर कानूनी हरकत करने पर सरकार बेहद सक्रियता अति उत्साह और दमन की भावना का प्रदर्शन करती रहती है। क्या यह समानता का व्यवहार कहा जा सकता हैऐसे ही अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप कांग्रेस सपा बसपा व अन्य क्षेत्रीय दलों पर भाजपा लंबे समय से लगाती रही है। जो आज खुद भाजपा पर बहुसंख्यक वोटबैंक की राजनीति करने को लेकर लग रहे हैं। जानकार लोगों का तो कहना यह रहा है कि देश का बंटवारा एक दुखद और डरावना दिन था। इस दिन को बुरा सपना मानकर भूल जाना ही बेहतर है। आज भी भारत में ऐसे लोगों की काफी बड़ी तादाद है। जिनको विभाजन की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। लाखों लोग रातो रात अपने घर परिवार रिश्तेदार दोस्त स्टेटस कारोबार ज़मीन जायदाद जे़वर दौलत पूजा स्थल और अपनी जन्मभूमि छोड़कर लुटपिटकर इधर से उधर और उधर से इधर आये और गये। 14 अगस्त भारत के इतिहास की वो मनहूस तारीख़ है जो आंसुओं से लिखी गयी। दरअसल यह दिलों भावनाओं और खून के रिश्तों का बंटवारा था। यह भी सच है कि भुलाने की लाख कोशिशों के बावजूद भारतमाता के सीने पर लगा यह घाव लंबे समय तक हरा रहेगा और बेकसूर इंसानों असहाय औरतों व मासूम बच्चों की दिल को चीर देने वाली चीखें़ आने वाली कई पीढि़यों के दिल व दिमाग़ पर दस्तक देती ही रहेंगी। देखना यह होगा कि विभाजन किन हालात में हुआइसके लिये कौन कौन जि़म्मेदार थावे कौन से कारण थे जिनकी वजह से बंटवारा अपरिहार्य हो गयासवाल यह भी है कि जब बंटवारा तय हो ही गया था तो इसके लिये तय 8 माह का समय आबादी के इधर से उधर शांतिपूर्वक आने जाने के लिये अंगे्रजों द्वारा क्यों नहीं दिया गयाहाल ही में सुप्रीम कोर्ट में सच्चर कमैटी की सिफारिशों पर अमल रोकने के लिये एक याचिका दायर की गयी थी। उसमें यह भी मांग की गयी है कि देश के बंटवारे के लिये गांधी जी नेहरू और पटेल को दोषी घोषित किया जाये। इससे पहले मुहम्मद अली जिन्नाह और अंग्रेज़ों को बंटवारे लिये जि़म्मेदार बताया जाता रहा है। हालांकि जिन्नाह की पहल पर मुस्लिम लीग ने 1940 में पहली बार अलग मुस्लिम देश का प्रस्ताव पास किया। लेकिन इतिहास गवाह है कि 1937 में ही हिंदू महासभा वीर सावरकर की हिंदू मुस्लिम टू नेशन थ्योरी पर काम कर रही थी। इतना ही नहीं एक बड़ा वर्ग यह भी मानता है कि भारत के बंटवारे लिये मुसलमान जि़म्मेदार हैं। जबकि सच यह है कि जो मुसलमान आज भारत में रहते हैं। वे बंटवारे के कभी भी पक्ष में नहीं थे। उनके पास पाकिस्तान जाने का विकल्प था। लेकिन वे नहीं गये। अफ़सोस तब होता है। जब भारत में रहने वाले देशप्रेमी मुसलमानों से ही देशभक्ति का प्रमाण मांगा जाता है। कम लोगों को पता होगा कि बंटवारे के लिये जनमत करने को 1946 में जो चुनाव हुआ था। उसमें देश की कुल आबादी में से केवल 14 प्रतिशत उन लोगों को ही वोट देने का अधिकार था। जिनके पास ज़मीन थीआयकरदाता थे और अपर प्राइमरी या मैट्रिकुलेशन पास थे। इन 14 प्रतिशत में से भी मुसलमान मात्र 3.25 प्रतिशत थे। उस समय कुल मतदान 58.5 प्रतिशत हुआ था। जिससे मुसलमानों की कुल आबादी में से 1.65 प्रतिशत ने वोट दिया था। सबसे बड़ी बात मुसलमानों ने केवल उन 82 सीटों पर वोट डाले थे। जो उनके लिये रिज़र्व थीं। उनमें से केवल 49 सीट मुस्लिम लीग जीती थी। जो कुल सीटांे का 55 प्रतिशत होती हैं। यानी मुसलमानों की कुल आबादी में से एक प्रतिशत से भी कम यानी 00.82 ने यह तय किया था कि पाकिस्तान बनना चाहिये। इतिहास गवाह है कि ऐसे अधिकांश मुसलमान पाकिस्तान चले भी गये तो सवाल यह उठता है कि फिर भारत को प्यार करने वाले भारत में रहने वाले और अपने हिंदू व अन्य धर्म के हमवतनों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर भारत के लिये अपनी जान तक देने वाले मुसलमानों को देश के बंटवारे पाक समर्थक और भारत विरोधी होने का तमग़ा किस आधार पर दिया जाता है?   

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।