Tuesday 30 July 2019

चिंगारी संपादक

चिंगारी संपादक जी की क़लम को सलाम!

0चिंगारी पश्चिमी यूपी का शाम का बेबाक और निडर दैनिक अख़बार है। 14 जुलाई को वैचारिकी में चिंगारी संपादक भाई सूर्यमणि रघुवंशी ने नये दौर का मीडिया’ शीर्षक से वो सारे कड़वे सच और लोकतंत्र के लिये चुनौती बन रही ख़तरनाक हक़ीक़तें बयान कर दीं जिनको लिखने के लिये केवल क़लम ही नहीं कलेजा भी चाहिये। संपादक जी को क़लम को दिल से सलाम।        

      

  एक दौर था। जब किसी घटना या हादसे की सूचना पर लोग कहा करते थे। सच मानिये क्योंकि यह अख़बार में छपा है। ये प्रिंट मीडिया का ज़माना था। जिसके नियमन के लिये आज तक प्रैस कौंसिल ऑफ इंडिया बनी हुयी है। लेकिन इसका कोई नियंत्रण अख़बारों पर दिखाई नहीं देता है। इसके बाद इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का दौर आया। जिसमें सूचना शिक्षा और मनोरंजन को सीधे दिखाया और सुनाया जाने लगा। उस शुरूआत के दौर में ऐसा लगा मानो इससे विश्वसनीय कुछ हो ही नहीं सकता। लेकिन इन नये मीडिया चैनलों को काबू करने के लिये मीडिया कौंसिल जैसी कोई संस्था आज तक अस्तित्व में नहीं आई।

    जो अन्य नियामक संस्थायें बनीं भी वे दिखावा अधिक करती रहीं हैं। आज ट्रेजिडी यह है कि जिस इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के आने से यह लगता था कि अब प्रिंट मीडिया यानी अख़बारों और पत्रिकाओं का कोई भविष्य नहीं है। उन टीवी चैनलों ने टीआरपी यानी टेली रेटिंग प्वॉइंट बढ़ाने के चक्कर मंे मीडिया की साख को ताख पर रख दिया है। इतना ही नहीं सूचना के नाम पर फेक न्यूज़ पेड न्यूज़ और अंधविश्वास व झूठ फैलाने में इन टीवी चैनलों ने अख़बारों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। हालांकि यह सही है कि इस दौरान हमारे समाज का एल पी जी यानी लिबरलाइजे़शन प्राइवेटाइजे़शन और ग्लोबलाइजेशन हुआ है।

   इसका नतीजा यह हुआ है कि जो पत्रकारिता पहले मिशन के लिये होती थी। आज वह प्रोफेशन के लिये होने लगी है। अगर प्रोफेशन भी ईमानदारी से किया जाये तो शायद इतनी नैतिक गिरावट ना आती। लेकिन आज तो हालत यह है कि जैसे कोई दूधिया अधिक मुनाफा कमाने के लिये शुरू शुरू मंे दूध में थोड़े से पानी की मिलावट करता है। उसके बाद धीरे धीरे पानी अधिक दूध कम करता जाता है। इसके बाद उसके बढ़ते लोभ का परिणाम यह होता है कि वह पानी में थोड़ा सा भी असली दूध ना मिलाकर सिंथैटिक यानी नक़ली दूध बनाने लगता है।

   कैमिकल से दूध बनाते हुए उसे ज़रा भी यह अहसास नहीं होता कि वह समाज की सेहत से खिलवाड़ कर रहा है। यही हाल आज के नये मीडिया का भी हो चुका है। आपातकाल के दौर में वह सत्ता की तानाशाही के दबाव में एक तरह से समाचारों और विचारों में मामूली सी पानी की मिलावट करता था। इसके बाद 1991 में जब देश में पूंजीवाद का दौर शुरू हुआ तो उसने लाभ के लिये नियम कानून और सामाजिक मर्यादा उठाकर कूडे़दान में डाल दी। जब आवारा पूंजी ने उसको झुकने को कहा तो वह चंद टकों के लिये बेशर्मी से रंेगने लगा।

   इतना ही नहीं 2014 के चुनाव के बाद वह निष्पक्षता और सत्यता को पूरी तरह से तिलांजलि देकर खुलकर सत्ता के सुर में सुर मिलाकर एक खास विचारधारा के पक्ष में खड़ा हो गया। पहली बार देश में यह उल्टी गंगा बहती दिखाई दी कि मीडिया पूरी तरह से नंगा होकर बेहयाई से सरकार की नाकामी के लिये विपक्ष को दोष देने लगा। इसकी वजह यह थी कि उसको सरकार से बड़े बड़े विज्ञापन लेने के लिये ऐसा करना मजबूरी थी।

    हालांकि इस मुश्किल दौर में भी अपवाद के तौर पर एनडीटीवी इंडियन एक्सप्रैस टाइम्स ऑफ इंडिया दि हिंदू  दि टेलिग्राफ और चिंगारी बिजनौर टाइम्स जैसे निष्पक्ष और निडर चंद चैनल व अख़बारों ने अपनी गरिमा मर्यादा और निष्पक्षता से समझौता नहीं किया। लेकिन इसकी सज़ा इनको यह मिली कि सरकारी विज्ञापन या तो कम मिलने लगे या फिर पूरी तरह से बंद कर दिये गये। सवाल यह पैदा होता है कि सरकार जिस पैसे से मीडिया को विज्ञापन देती है। वह पैसा भी जनता का ही है। सरकार तो मात्र इस पैसे की चौकीदार है।

  अगर मीडिया जनहित मंे ख़बरें छापता है और सरकार से सवाल पूछता है तो उसके एड क्यों रोके जाने चाहियेलेकिन ऐसा लगता है कि यह हमारे देश ही नहीं पूरी दुनिया की सरकारों और मीडिया के बीच की समस्या है। सभी सरकारें मीडिया को अपना गुलाम और तोता बनाकर रखना चाहती हैं। ब्रिटेन अमेरिका और यूरूप के कई देशों में इस प्रॉब्लम से बचने के लिये वहां के टैक्स पेयर्स ने मीडिया को निष्पक्ष और जनहितैषी बनाये रखने के लिये अपने टैक्स से एक नया फंड बना दिया है। जिस फंड का सरकार से कोई सरोकार नहीं है।

   इस तरह के एक अलग फंड की हमारे देश में भी ज़रूरत है। अगर मीडिया निष्पक्ष और निडर नहीं रहेगा तो वह दिन दूर नहीं जब देश का लोकतंत्र मात्र दिखावा बनकर रह जायेगा। हालांकि सोशल मीडिया ने सरकार गुलाम बन चुके मुख्य धारा के मीडिया को काफी हद तक आईना दिखाना शुरू कर दिया है। लेकिन उसकी पहुुंच अभी भी काफी सीमित है। सच तो यह है कि जब तक हमारा समाज निष्पक्ष जाति मुक्त संप्रदाय मुक्त कट्टरता मुक्त और स्वार्थ मुक्त होकर शिक्षित संस्कारित नैतिक और मानवीय संवेदनशीलता से ओतप्रोत नहीं बनता तब तक सरकार मीडिया या समाज के किसी एक वर्ग को सुधारना कठिन ही नहीं असंभव सा ही है।                                                         

0 ठुकरा दो अगर दे कोई ज़िल्लत से समंदर,

  इज़्ज़त से जो मिले तो क़तरा भी बहुत है।                    

एक राष्ट्र: एक दल

ऑप्रेशन कमलः एक राष्ट्रएक दल ?

0देश में पहले चर्चा चली थी- वन नेशनवन इलैक्शन। लेकिन व्यवहारिक रूप से यह संभव नहीं हुआ। कर्नाटक में जिस तरह से हाल ही में जेडीएस कांग्रेस गठबंधन सरकार गिराकर भाजपा ने जोड़तोड़ से सरकार बनाई है। उसके बाद मध्य प्रदेश और राजस्थान का नंबर है। इससे ऐसा लगता है कि हम कांग्रेस के शुरू के तीन दशक के एक पार्टी एक राष्ट्र के दौर में पहले से भी अधिक जकड़ चुके होेंगे।          

      

  भाजपा लाख झुठलाये लेकिन सबको पता है कि कर्नाटक के सत्ता परिवर्तन के पीछे उसका ही हाथ है। इससे पहले वह गोवा में हाल ही में कांग्रेस के दस विधायकों का दलबदल करा चुकी है। इतना ही नहीं चुनाव के दौरान खुद पीएम मोदी खुलेआम दावा कर चुके हैं कि बंगाल की सत्ताधरी पार्टी टीएमसी के 100 से अधिक विधायक दलबदल करने के लिये भाजपा के संपर्क में हैं। हज़ारों करोड़ के शारदा घोटाले के आरोपी टीएमसी नेता मुकुल राय और असम के कांग्रेस नेता हेमंत विस्व सरमा को भाजपा मेें शामिल करके उनके सारे पाप क्षमा किये जा चुके हैं।

    ऐसे ही महाराष्ट्र के विपक्षी नेता नारायण राणे भाजपा की नज़र में राज्य के सबसे भ्रष्ट नेता हुआ करते थे। लेकिन भाजपा में आते ही उनके भी सारे पाप राय सरमा की तरह ध्ुाल गये। आज राणे भाजपा के समर्थन से माननीय राज्यसभा सदस्य हैं।  पिछले माह ही आंध्रा के दो टीडीपी सांसद जिनपर भाजपा भारी वित्तीय घोटालों के आरोप लगाती रही हैआज दलबदल करके भाजपा की शोभा बढ़ा रहे हैं। सपा के एमपी नीरज शेखर भी भाजपा में आ चुके हैं। अरूणांचल प्रदेश और मणिपुर सहित कई अन्य राज्यों में भी भाजपा साम दाम दंड भेद से दलबदल के बल  पर अपनी सरकार बना चुकी है।

    देश के आधे से अधिक राज्यों में आज या तो चुनाव जीतकर या जोड़ तोड़ करके भगवा राज है। जो भाजपा कल तक लालच और सरकार का डर दिखाकर कांग्रेस की इस तरह की दलबदल कराने की हरकतों को पानी पीपीकर कोसा करती थी। आज वो खुद कांग्रेस से भी दो हाथ आगे जाकर पूरी निर्लजता अनैतिकता और सारे नियम कानूनों को ताख़ पर रखकर खुला खेल फ़र्रूखाबादी खेल रही है। यह कहना गलत ना होगा कि खुद को पार्टी विद ए डिफ्रेंस बताकर चाल चरित्र चेहरे का नारा देने वाली भाजपा शॉर्ट टर्म गेन के लिये लांग टर्म जोखिम ले रही है।

    ऐसा लगता है मानो वह पूरे देश से कांग्रेस ही नहीं पूरे विपक्ष को ही ख़त्म कर देना चाहती है। जानकारों को पता है कि यह लोकतंत्र को ख़त्म करने  जैसा ही होगा। हालांकि कांग्रेस सहित अन्य सेकुलर व क्षेत्रीय दलों ने भी अपने दौर में दलबदल को लेकर पूरी बेशर्मी और ढीठता से वो सारे हथकंडे अपनाये हैं। जिनको ना तब सही करार दिया गया ना ही आज भाजपा द्वारा अपनाये जाने पर सही ठहराया जा सकता है। अलबत्ता एक बड़ा अंतर यह ज़रूर आज सामने आया है कि आज दलबदलुओं को दल बदल विरोधी कानून का भी डर नहीं है।

    इसकी वजह यह है कि भाजपा ने उनको दोे तिहाई ना होने पर इस्तीफा देकर भाजपा में आकर फिर से चुनाव लड़ने का शॉर्ट कट समझा दिया है। हालांकि यह सवाल भी यहां बिल्कुल वाजिब है कि अगर गैर भाजपा के विधायक और सांसद बिकने को तैयार है तो उनको खरीदने वाला ही कसूरवार क्यांे ठहराया जायेयहां एक फिल्म के गाने की ये लाइनें याद आ रही हैं- न इज़्ज़त की चिंता ना फ़िकर कोई ईमान कीजय बोलो बेईमान की,जय बोलो। आज हालात कुछ ऐसे ही हो गये हैं कि जो भी नेता चाहे वे किसी भी दल के हांे।

    चुनाव जीतकर संसद या विधानसभा पहुुंचते हैं। उनका लक्ष्य जनसेवा या देश प्रदेश का मान सम्मान व विकास कम बल्कि अधिकांश राजनीति को धंधे के तौर पर लेते हैं। मिसाल के तौर पर कर्नाटक में ही 90 प्रतिशत से अधिक एमएलए करोड़पति हैं। ये विभिन्न दलों का टिकट पाने से लेकर चुनाव जीतने लिये भी निर्धारित धनराशि से कई गुना अधिक पैसा पानी की तरह बहाते हैं। इनका मकसद न केवल हर हाल में चुनाव जीतना होता है बल्कि ये हर कीमत पर सत्ताधारी दल का हिस्सा बनना चाहते हैं। इतना ही नहीं ये मंत्री पद पर भी नज़रें गड़ाकर रखते हैं।

    अगर किसी वजह से इनकी मुराद पूरी नहीं होती तो इनको दलबदल करने में ज़रा भी संकोच और समय नहीं लगता है। साथ ही अधिकांश कारोबारी प्रोपर्टी डीलर व्यवसायी उद्योगपति और माफिया सत्ता से जुड़ने को इसलिये भी लालायित रहते हैं। जिससे उनकी काली कमाई और घोटालों का कच्चा चिट्ठा खुलने से बचा रहे। इनको दलबदल करने को सौ सौ करोड़ और पेट्रोल पंप तक का लालच दिया जाता है। खुद भाजपा नेता येदियुरप्पा हज़ारों करोड़ के घोटाले के आरोपी रहे हैं। उनको इसी वजह से सीएम पद छोड़ना पड़ा था। उनको भाजपा से भी इसीलिये निकाला गया था।

    वे जेल भी जा चुके हैं। अब इसी काली कमाई से वे दलबदल कराकर फिर से सत्ता में लौट आये हैं। भाजपा के राज्यपाल भी उनका कई बार साथ देते नज़र आ रहे हैं। हैरत की बात यह है कि अब तो हमारा सुप्रीम कोर्ट तक ऐसे दलबदलुओं को पार्टी व्हिप से बचाने को यह कहकर कवच दे रहा है कि विश्वास मत के दौरान जो विधायक सदन में ना जाना चाहें उनको मजबूर नहीं किया जा सकता। यह अजीब बात है कि जिस पार्टी के सिंबल पर कोई नेता चुनाव जीतकर आया आज अपने निजी स्वार्थ मंे उस दल का व्हिप ना मानकर बेशर्मी से खुद को जेल जाने से बचाने या अधिक से अधिक अवैध धन कमाने को खुलेआम दलबदल कर रहा है।

    ऐसे में तो इन दलबदलुओं को क्षेत्र की जनता ही सबक सिखा सकती है। पहले भाजपा कांग्रेसमुक्त भारत बनाने का नारा देती थी। लेकिन अब तो लगता है कि वह खुद कांग्रेस के थोक में दलबदलुओं को साथ लेकर सत्ता के खेल में इतनी आगे जा चुकी है कि कांग्रेसयुक्त होती जा रही है। पहले कुछ विपक्षी नेता कहते थे कुछ ईवीएम में किसी भी चुनाव चिन्ह के सामने का बटन दबाओ वोट कमल पर जाता है।

    लेकिन आज थोक में विपक्षी दलों के सांसद विधायकों व बड़े नेताओं को भाजपा में दलबदल कराकर लाने की इस मुहिम से लोग कह रहे हैं कि जनता चाहे जिसे चुने लेकिन वह लालच या डर से भाजपा में ही जायेगा। भाजपा को याद रखना चाहिये जिन ख़राबियों कमियों और मनमानियों की वजह से जनता ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर किया है। अगर भजपा भी उसी रास्ते पर चलेगी तो ज़्यादा दूर तक राजनीतिक सफ़र तय नहीं कर पायेगी।                                                       

0 जम्हूरियत एक तर्ज़ ए अमल है कि जिसमें,

  बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते।।

Sunday 14 July 2019

मोब्लिंचिंग

मॉब लिंचिंग रोग नहीं लक्षण है!

0फैक्ट चैकर की रिपोर्ट के अनुसार एक दशक में मॉब लिंचिंग की कुल 297 घटनायें हुयीं हैं। इनमें 98 लोग मरे हैं। जबकि 722 घायल हुए हैं। मरने वालों मंे 59 प्रतिशत मुस्लिम हैं। सुप्रीम कोर्ट एक साल पहले इसे रोकने को कड़े दिशा निर्देश दे चुका है। लेकिन मणिपुर के बाद अब केवल यूपी स्टेट लॉ बोर्ड इस पर सख़्त कानून लाने की तैयार कर रहा है।         

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

  2019 में अब तक भीेड़ हिंसा के 11 मामले सामने आ चुके हैं। इनमें चार लोग मारे गये हैं। जबकि 22 घायल हुए हैं। 2015 से पशु चोरी के नाम पर 121 मॉब लिंचिंग के केस हो चुके हैं। मॉब लिंचिंग के 66 प्रतिशत मामले भाजपा तो16 प्रतिशत केस कांग्रेस शासित राज्यों में हुए हैं। इन आंकड़ों की वजह यह भी हो सकती है कि अधिकांश राज्यों में भाजपा की ही सरकारें है। हाल ही में 18 जून को झारखंड के सरायकेला गांव में तबरेज़ अंसारी को बाइक चोरी के आरोप में भीड़ ने घंटो बेदर्दी से पीटा। इसके बाद पुलिस के समय पर ना आने और अधमरे तबरेज़ का जानबूझकर समय पर उचित इलाज ना कराने से उसकी दुखद मौत हो गयी।

   यह मामला दक्षिण अफ्रीका के एनजीओ सेंटर फॉर अफ्रीका डेवलपमेंट एंड प्रोग्रेस के प्रतिनिधि पॉल न्यूमन ने संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार कौंसिल की बैठक में उठा दिया। जिससे हमारे देश की पूरी दुनिया में किरकिरी हो रही है। इससे पहले भी मॉब लिंचिंग के कई मामले विश्व मीडिया की सुर्खियां बन चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट ने एक साल पहले केंद्र और राज्य सरकारों को मॉब लिंचिंग के खिलाफ सख़्त कानून बनाने को कहा था। कोर्ट ने पीड़ित परिवार को समुचित मुआवज़ा और मामले की सुनवाई के लिये फास्ट ट्रैक कोर्ट का सुझाव भी दिया था। लेकिन मणिपुर के अलावा किसी राज्य ने इस मामले में अब तक कोई रूचि नहीं ली है।

    हालांकि यूपी लॉ कमीशन के मुखिया रिटायर्ड जस्टिस आदित्यनाथ मित्तल ने अपनी ओर से पहल करते हुए मॉब लिंचिंग के खिलाफ़ प्रस्तावित नये कानून का मसौदा सरकार के सामने प्रस्तुत किया है। इसमें लिंचिंग के दोषियों के खिलाफ जुर्माना एक लाख से बढ़ाकर 5लाख और उनको दी जाने वाली सज़ा 7 साल से बढ़ाकर उम्रकैद में बदलने की बात कही गयी है। इसके साथ ही पुलिस और ज़िले के नोडल अधिकारी को समय पर पहुंचकर लिंचिंग रोकने में असफल रहने या आरोपियों व उनके आकाओं के इशारे पर जानबूझकर पीड़ित को न्याय व उपचार दिलाने में की गयी देरी लापरवाही या मिलीभगत के लिये 1 से 3 साल की सज़ा का प्रावधान भी किया गया है।

   कमीशन ने इस कानून को कारगर और प्रभावी बनाने के लिये नाईजीरिया और दक्षिण अफ्रीका के मॉब लिंचिंग कानून की भी गहराई से स्टडी की है। बोर्ड ने मॉबलिंचिंगविक्टिम,ऑफेंसिव मटीरियल और हॉस्टाइल एनवायरमेंट शब्दों और उनकी कानूनी परिभाषा पर भी व्यापक दिशा निर्देश दिये हैं। दि क्विंटइंडिया स्पेंड और नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 2001 से2014 तक 2290 औरतों को डायन बताकर भीड़ ने मार डाला है। इस आंकड़े को बताने का हमारा मकसद केवल इतना है कि मॉब लिंचिंग कोई नयी चीज़ नहीं है।

   हां इतना ज़रूर है कि केंद्र और अधिकांश राज्यों में भाजपा सरकारें आने के बाद से गोरक्षा के नाम पर मुसलमानों की लिंचिंग की घटनायें तेज़ी से बढ़ती गयीं हैं। लिंचिंग के दौरान आरोपी से जयश्रीराम और जयहनुमान के नारे लगवाना इन मामलों में एक वर्ग विशेष के लिये समाज में बहुत गहराई से फैल चुकी घृणा को भी दर्शाता है। हालांकि पीएम मोदी और भाजपा की राज्य सरकारें अकसर ऐसे मामलों पर हंगामा मचने पर औपचारिक निंदा करते हुए दावा करते हैं कि कानून अपना काम करेगा। लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह देखने मेें आ रही है कि संघ परिवार पुलिस प्रशासन और सरकारंे पीड़ित की बजाये खुद आरोपियों के साथ खड़ी नज़र आती हैं।

   यूपी के दादरी में जब अख़लाक़ की पहली लिंचिंग हुयी तो केंद्रीय मंत्री ने इसको लिंचिंग ना मानकर मात्र एक हादसा बताया। बाद मंे लिंचिंग के एक आरोपी के स्वाभाविक मौत मरने पर भाजपा नेताओं ने उसको राष्ट्रीय झंडे में लपेटकर महिमा मंडित किया। इसके बाद इस कांड के कुछ अन्य आरोपियों को केंद्रीय विद्युत उपक्रम एनटीपीसी में भाजपा नेताओं ने सरकारी नौकरी दिला दीं। इतना ही नहीं इस कांड के आरोपी वरिष्ठ भाजपा नेताओें की सभाओं में अकसर अग्रिम पंक्ति में बैठे नज़र आये। इस मामले को अपवाद माना जा सकता था।

    लेकिन झारखंड में लिंचिंग के कुछ आरोपियों को एक और केेंद्रीय मंत्री ज़मानत मिलने पर जेल से छूटने पर फूलों का हार पहनाते नज़र आये। इसके साथ ही कई बार ऐसी ख़बरें भी आईं कि संघ परिवार के कुछ नेता लिंचिंग के आरोपियों को कानूनी सहायत उपलब्ध करा रहे हैं। सच तो यह है कि कानून सख़्त किये जाने से अधिक इस बात की ज़रूरत है कि कानून लागू करने वाले निष्पक्ष और अपने पूर्वाग्रह से मुक्त हों।

    लेकिन यह काम इसलिये भी कठिन होता जा रहा है क्योंकि भाजपा की राजनीति का बहुत बड़ा आधार हिंदू समर्थन से अधिक मुस्लिम विरोध धर्मनिर्पेक्षता विरोध और मानवता विरोध माना जाता है। इसीलिये हमारा मानना है कि मॉब लिंचिंग उस अलगाव नफरत और सांप्रदायिक एवं दलित विरोधी महिला विरोधी कमज़ोर व गरीब विरोधी राजनीति का लक्षण हैरोग तो खुद मुसलमानों की अशिक्षा कट्टरता आत्मश्रेष्ठता और उसके जवाब में बढ़ रही हिंदू साम्प्रदायिकता है।                                                     

0 ऐसे माहौल में दवा क्या दुआ क्या है,

  जहां क़ातिल ही खुद पूछे हुआ क्या है।।                   

Thursday 11 July 2019

परिवारवादी दल

परिवारवादी दलों का सफ़ाया होना ही था!

0यूपी में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल जैसे परिवारवादी दलों की सीटें ही नहीं बल्कि वोट प्रतिशत भी आज ऐसी ढलान पर आ गया है। जहां से उनकी सत्ता में वापसी की दूर दूर तक कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही है। क्या बहुजन समाज पार्टी ने इनके पतन से परिवारवाद से कोई सबक लिया है?        

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   दरअसल मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव मंडल आयोग की सिफारिशंे लागू करने के दौर में उत्तर भारत के राज्यों में पिछड़ों के मसीहा बनकर उभरे थे। उन्होंने दो दशक तक यूपी और बिहार में सत्ता या मुख्य विपक्ष का दर्जा हासिल रखा। आपको याद दिलादें मुलायम सिंह जहां समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया से प्रभावित थे। वहीं लालू प्रसाद यादव आपातकाल का तीखा विरोध करने वाले जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन की देन माने जाते थे। ये दोनों ही कई बार अपने अपने राज्यों के मुख्यमंत्री बने।

     1989 के मंडल बनाम कमंडल के दौर में मुलायम सिंह के साथ जहां गैर यादव पिछड़ी जातियों के बड़े नेता रेवती रमण सिंह बेनी प्रसाद वर्मा जनेश्वर मिश्र रामशरण दास और मोहन सिंह कंधे से कंधा मिलाकर चलते थे। वहीं बिहार में लालू के साथ दूसरी पिछड़ी जातियों के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह नीतीश कुमार और दलित नेता रामविलास  पासवान व खांटी समाजवादी जार्ज फर्नांडीज़ भी हुआ करते थे। हालांकि इन राज्यों में पहले कांग्रेस का एकक्षत्र राज हुआ करता था। लेकिन इन पिछड़ी जाति के नेताओं के उदय से लंबे समय तक सत्ता में बने रहने से वहां भाजपा को राम मंदिर के आंदोलन से उभरने का राजनीतिक अवसर भी मिला।

    यूपी में दलित अति पिछड़ों और आंशिक मुसलमान वोट के समर्थन से बसपा ने भी धीरे धीरे अपनी सियासी पकड़ बनानी शुरू की। बाद में यूपी में ब्रहम्णों ने कांग्रेस और भाजपा को सत्ता में ना आता देख सपा को हराने के लिये सतीश मिश्रा की सोशल इंजीनियरिंग का नया प्रयोग करते हुए मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार बनवाद दी। लेकिन इस बार बहनजी कड़क प्रशासक की कसौटी पर खरी ना उतरकर उल्टा जाटव वोट बैंक मज़बूत बनाने और भ्रष्टाचार में गले तक डूब गयीं। इसके बाद वे एक के बाद एक चार चुनाव हार चुकी हैं।

    उधर मुलायम और लालू ने पहले अपने दलों को अपनी जाति यादवों के इर्द गिर्द समेटा और बाद में केवल अपने परिवार तक सीमित कर दिया। देश की आधे से अधिक आबादी यानी54 प्रतिशत पिछड़ों की बजाये धीरे धीरे सपा और राजद प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह अपनी जातियों के बाद अपने परिवार तक केंद्रित हो गयी। लगभग सभी लाभ के पदों पर इन दोनों ने अपने परिवार के लोगों के चुन चुनकर बैठाना शुरू कर  दिया। हद तो तब हो गयी जब लालू प्रसाद को चारा घोटाले में जेल जाना पड़ा तो उन्होंने अपने दल के किसी दूसरे पिछड़े नेता को मुख्यमंत्री की कुर्सी ना सौंपकर अपनी घरेलू पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता की बागडोर सौंप दी।

     यहां से ही राजद का पतन शुरू हो गया। लालू के बाद दूसरे नंबर के नेता नीतीश कुमार को लगा कि वे लालू के साथ रहते कभी सीएम नहीं बन पायेंगे। ऐसे ही यूपी में मुलायम ने धीरे धीरे कुर्मी गूजर और दूसरे पिछड़े नेताओं को या तो बाहर का रास्ता दिखा दिया या फिर उनकी हैसियत सपा में दो कौड़ी की कर दी। जनेश्वर मिश्र के बाद उन जैसे नये नेताओं को भी मुलायम ने सपा से जोड़ने की ज़हमत नहीं की। हद तो तब हो गयी जब मुलायम के बाद पार्टी में नंबर दो माने जाने वाले सगे भाई शिवपाल सिंह को भी मुलायम ने पुत्रमोह में नज़र अंदाज़ कर अखिलेश यादव को सीएम बना दिया।

     इसके बाद उनके परिवार में ही बगावत हो गयी। परिवारवाद यहां बाद में वंशवाद में बदल गया। उधर लालू ने भी अपने बाद राजद की बागडोर अपने छोटे बेटे तेजस्वी यादव के हाथ में सौंप दी। वहां उनके बड़े बेटे तेजप्रताप ने बग़ावत का झंडा बुलंद कर दिया। इसके साथ ही गैर यादव अन्य पिछड़े दल के नेता धीरे धीरे इन दोनों दलों से किनारा करते गये। बिहार में तो नीतीश कुमार भाजपा से गठबंधन कर2005 में लालू को सत्ता से बाहर करने में सफल हो गये।

    उन्होंने अपने मामूली से कुर्मी वोटबैंक की बजाये मुसलमानों दलितों सहित अगड़ी जाति के गरीबों के लिये जमकर जनहित के काम करके खुद को बहुत जल्दी ही सुशासन बाबू की उपाधि से सुसज्जित कर लालू की सत्ता में वापसी के दरवाज़े लगभग बंद कर दिये। बाद में दस साल बाद जब लालू को अपनी सियासी ज़मीन खिसकने का अहसास हुआ तो उन्होंने नीतीश को अपना गठबंधन नेता स्वीकार कर2015 में सत्ता में भागीदारी स्वीकार कर ली।

    इधर यूपी में मुलायम के यादववाद परिवारवाद और मुसलमानवाद से तंग अन्य पिछड़ी जातियों ने पहले बसपा का दामन थामा और बाद मंे मौका देखकर वे अगड़ी जातियों के साथ 2017 में भाजपा में जा मिलीं। सवाल यह है कि इसमें गल्ती किसकी हैक्या गैर यादव पिछड़ों को मुलायम और लालू ने खुद सपा और राजद से बाहर जाने को मजबूर नहीं कियालेकिन हैरत और दुख की बात यह है कि मायावती ने मुलायम और लालू की इस गल्ती से सबक ना सीखकर न केवल अकेले चुनाव लड़ने का आत्मघाती निर्णय किया है।

     उल्टे अपने भाई और भतीजे को बसपा में बड़े पदों पर आसीन कर भाईभतीजावाद का खुला खेल खेला है। ऐसे में बसपा से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन अखिलेश और तेजस्वी के पास अभी लंबा राजनीतिक कैरियर है। देखना यह है कि ये अपने पिताओं द्वारा अपनी पार्टियों में की गयी महाभूल को जारी रखते हैं या फिर गैर यादव पिछड़ों के साथ ही आन्ध््राा के जगन रेड्डी और तमिलनाडू के स्टालिन की तरह अन्य पिछड़ों अल्पसंख्यकों दलितों व सवर्ण जातियों के गरीबों को भी साथ लेकर उनको शीर्ष नेतृत्व में भागीदार बनाकर सर्वसमाज के लिये भाजपा और कांग्रेस से इतर नया व्यापक जनहित का सियासी विकल्प लोकतंत्र को मज़बूत बनाने को उपलब्ध कराते हैं?                                                        

0 आपने तीर चलाया तो कोई बात ना थी,

  हमने ज़ख़्म दिखाये तो बुरा मान गये ।।