Thursday 11 July 2019

परिवारवादी दल

परिवारवादी दलों का सफ़ाया होना ही था!

0यूपी में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल जैसे परिवारवादी दलों की सीटें ही नहीं बल्कि वोट प्रतिशत भी आज ऐसी ढलान पर आ गया है। जहां से उनकी सत्ता में वापसी की दूर दूर तक कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही है। क्या बहुजन समाज पार्टी ने इनके पतन से परिवारवाद से कोई सबक लिया है?        

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   दरअसल मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव मंडल आयोग की सिफारिशंे लागू करने के दौर में उत्तर भारत के राज्यों में पिछड़ों के मसीहा बनकर उभरे थे। उन्होंने दो दशक तक यूपी और बिहार में सत्ता या मुख्य विपक्ष का दर्जा हासिल रखा। आपको याद दिलादें मुलायम सिंह जहां समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया से प्रभावित थे। वहीं लालू प्रसाद यादव आपातकाल का तीखा विरोध करने वाले जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन की देन माने जाते थे। ये दोनों ही कई बार अपने अपने राज्यों के मुख्यमंत्री बने।

     1989 के मंडल बनाम कमंडल के दौर में मुलायम सिंह के साथ जहां गैर यादव पिछड़ी जातियों के बड़े नेता रेवती रमण सिंह बेनी प्रसाद वर्मा जनेश्वर मिश्र रामशरण दास और मोहन सिंह कंधे से कंधा मिलाकर चलते थे। वहीं बिहार में लालू के साथ दूसरी पिछड़ी जातियों के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह नीतीश कुमार और दलित नेता रामविलास  पासवान व खांटी समाजवादी जार्ज फर्नांडीज़ भी हुआ करते थे। हालांकि इन राज्यों में पहले कांग्रेस का एकक्षत्र राज हुआ करता था। लेकिन इन पिछड़ी जाति के नेताओं के उदय से लंबे समय तक सत्ता में बने रहने से वहां भाजपा को राम मंदिर के आंदोलन से उभरने का राजनीतिक अवसर भी मिला।

    यूपी में दलित अति पिछड़ों और आंशिक मुसलमान वोट के समर्थन से बसपा ने भी धीरे धीरे अपनी सियासी पकड़ बनानी शुरू की। बाद में यूपी में ब्रहम्णों ने कांग्रेस और भाजपा को सत्ता में ना आता देख सपा को हराने के लिये सतीश मिश्रा की सोशल इंजीनियरिंग का नया प्रयोग करते हुए मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार बनवाद दी। लेकिन इस बार बहनजी कड़क प्रशासक की कसौटी पर खरी ना उतरकर उल्टा जाटव वोट बैंक मज़बूत बनाने और भ्रष्टाचार में गले तक डूब गयीं। इसके बाद वे एक के बाद एक चार चुनाव हार चुकी हैं।

    उधर मुलायम और लालू ने पहले अपने दलों को अपनी जाति यादवों के इर्द गिर्द समेटा और बाद में केवल अपने परिवार तक सीमित कर दिया। देश की आधे से अधिक आबादी यानी54 प्रतिशत पिछड़ों की बजाये धीरे धीरे सपा और राजद प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह अपनी जातियों के बाद अपने परिवार तक केंद्रित हो गयी। लगभग सभी लाभ के पदों पर इन दोनों ने अपने परिवार के लोगों के चुन चुनकर बैठाना शुरू कर  दिया। हद तो तब हो गयी जब लालू प्रसाद को चारा घोटाले में जेल जाना पड़ा तो उन्होंने अपने दल के किसी दूसरे पिछड़े नेता को मुख्यमंत्री की कुर्सी ना सौंपकर अपनी घरेलू पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता की बागडोर सौंप दी।

     यहां से ही राजद का पतन शुरू हो गया। लालू के बाद दूसरे नंबर के नेता नीतीश कुमार को लगा कि वे लालू के साथ रहते कभी सीएम नहीं बन पायेंगे। ऐसे ही यूपी में मुलायम ने धीरे धीरे कुर्मी गूजर और दूसरे पिछड़े नेताओं को या तो बाहर का रास्ता दिखा दिया या फिर उनकी हैसियत सपा में दो कौड़ी की कर दी। जनेश्वर मिश्र के बाद उन जैसे नये नेताओं को भी मुलायम ने सपा से जोड़ने की ज़हमत नहीं की। हद तो तब हो गयी जब मुलायम के बाद पार्टी में नंबर दो माने जाने वाले सगे भाई शिवपाल सिंह को भी मुलायम ने पुत्रमोह में नज़र अंदाज़ कर अखिलेश यादव को सीएम बना दिया।

     इसके बाद उनके परिवार में ही बगावत हो गयी। परिवारवाद यहां बाद में वंशवाद में बदल गया। उधर लालू ने भी अपने बाद राजद की बागडोर अपने छोटे बेटे तेजस्वी यादव के हाथ में सौंप दी। वहां उनके बड़े बेटे तेजप्रताप ने बग़ावत का झंडा बुलंद कर दिया। इसके साथ ही गैर यादव अन्य पिछड़े दल के नेता धीरे धीरे इन दोनों दलों से किनारा करते गये। बिहार में तो नीतीश कुमार भाजपा से गठबंधन कर2005 में लालू को सत्ता से बाहर करने में सफल हो गये।

    उन्होंने अपने मामूली से कुर्मी वोटबैंक की बजाये मुसलमानों दलितों सहित अगड़ी जाति के गरीबों के लिये जमकर जनहित के काम करके खुद को बहुत जल्दी ही सुशासन बाबू की उपाधि से सुसज्जित कर लालू की सत्ता में वापसी के दरवाज़े लगभग बंद कर दिये। बाद में दस साल बाद जब लालू को अपनी सियासी ज़मीन खिसकने का अहसास हुआ तो उन्होंने नीतीश को अपना गठबंधन नेता स्वीकार कर2015 में सत्ता में भागीदारी स्वीकार कर ली।

    इधर यूपी में मुलायम के यादववाद परिवारवाद और मुसलमानवाद से तंग अन्य पिछड़ी जातियों ने पहले बसपा का दामन थामा और बाद मंे मौका देखकर वे अगड़ी जातियों के साथ 2017 में भाजपा में जा मिलीं। सवाल यह है कि इसमें गल्ती किसकी हैक्या गैर यादव पिछड़ों को मुलायम और लालू ने खुद सपा और राजद से बाहर जाने को मजबूर नहीं कियालेकिन हैरत और दुख की बात यह है कि मायावती ने मुलायम और लालू की इस गल्ती से सबक ना सीखकर न केवल अकेले चुनाव लड़ने का आत्मघाती निर्णय किया है।

     उल्टे अपने भाई और भतीजे को बसपा में बड़े पदों पर आसीन कर भाईभतीजावाद का खुला खेल खेला है। ऐसे में बसपा से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन अखिलेश और तेजस्वी के पास अभी लंबा राजनीतिक कैरियर है। देखना यह है कि ये अपने पिताओं द्वारा अपनी पार्टियों में की गयी महाभूल को जारी रखते हैं या फिर गैर यादव पिछड़ों के साथ ही आन्ध््राा के जगन रेड्डी और तमिलनाडू के स्टालिन की तरह अन्य पिछड़ों अल्पसंख्यकों दलितों व सवर्ण जातियों के गरीबों को भी साथ लेकर उनको शीर्ष नेतृत्व में भागीदार बनाकर सर्वसमाज के लिये भाजपा और कांग्रेस से इतर नया व्यापक जनहित का सियासी विकल्प लोकतंत्र को मज़बूत बनाने को उपलब्ध कराते हैं?                                                        

0 आपने तीर चलाया तो कोई बात ना थी,

  हमने ज़ख़्म दिखाये तो बुरा मान गये ।।                   

No comments:

Post a Comment