Tuesday 15 September 2020

एक्ट ऑफ गॉड

एक्ट ऑफ़ गॉड: अबकि बार बिना ज़िम्मेदारी की सरकार ?

0अप्रैल-मई की तिमाही जीडीपी 24 प्रतिशत नीचे जाने पर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने इसे एक्ट ऑफ़ गॉड का नाम देकर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है। इतिहास में हम पहली बार देख रहे हैं। जबकि एक सरकार अपनी हर असफलता और गल्ती के लिये किसी ना किसी को ज़िम्मेदार ठहरा देती है। उधर रिज़र्व बैंक का कहना है कि इस वित्तीय वर्ष में2 लाख करोड़ का लोन फ्रॉड हुआ है। यानी बैंक संकट में हैं। इसके लिये किसे दोष दिया जायेगा?    

          -इक़बाल हिंदुस्तानी

   2014 के चुनाव में यूपीए-2 की सरकार पर ढेर सारे आरोप लगे थे। सीएजी ने मनमोहन सरकार पर दो लाख करोड़ के टू जी घोटाले का आरोप लगाया था। अन्ना ने उस सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया था। बाबा रामदेव भी कांग्रेस सरकार के खिलाफ हमलावर थे। विपक्ष में भाजपा ने उस सराकर पर ऐसे ऐसे आरोप लगाये थे। जिनसे उसका कोई सरोकार तक नहीं था। इस बीच न्यायपालिका और मीडिया ने उस सरकार की बखिया उधेड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी थी। नतीजा यह हुआ कि बिना सफल गुजरात मॉडल और योग्य शासक के मोदी उस सत्ता विरोधी माहौल का सियासी लाभ लेकर पीएम बन गये। इतना ही नहीं पहली बार पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार बनने के बाद मोदी सरकार ने लोकतंत्र की बुनियादें धीरे धीरे इतनी कमज़ोर कर दीं कि आज असहमति सरकार का विरोध और सवाल करना देशद्रोह जैसा बना दिया गया है। उधर सरकारी नाकामी करप्शन मनमानी तानाशाही और नालायकी की हालत यह है कि खुद सत्ताधारी दल के कई सांसद विधायक और बड़े नेता तक सोशल मीडिया पर अपनी ही सरकार की खिंचाई करते मिल जायेंगे। लेकिन यह सरकार अपनी हर नाकामी का ठीकरा उल्टे अपने विरोधियों के सर पर फोड़ने से बाज़ नहीं आ रही है। इस सरकार ने शुरू से अल्पसंख्यकों का राक्षसीकरण किया है। कोरोना जब शुरू हुआ तो इसके लिये तब्लीगी जमात वालों को ज़िम्मेदार बताया गया। लेकिन पिछले दिनों मुंबई हाईकोर्ट ने इसके लिये सरकार की खिंचाई करते हुए दो टूक कहा कि सरकार ने मीडिया के ज़रिये एक वर्ग विशेष को कोरोना के लिये बलि का बकरा बनाया। ऐसे ही अब जब कोरोना रोकने को सरकार ने देर से गलत तरीके से और अमानवीय तरीके से पूरे देश को दो माह के लिये लॉकडाउन लगाकर पूरी तरह ठप्प कर दिया। जिससे हमारी अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा गयी। ऐसे में सरकार ने इस बार सीध्ेा भगवान को ही इसके लिये कसूरवार ठहरा दिया है। अगर आंकड़ों पर नज़र डालें तो साफ पता लगता है कि हमारी अर्थव्यवस्था 2016 से ही नोटबंदी के बाद से लगातार गिरती चली जा रही थी। इसके बाद जीएसटी गलत तरीके से लगाने से इसमें गिरावट और तेज़ होती चली गयी। बेशक कोरोना महामारी ने इसको पर लगा दिये। लेकिन एक्ट ऑफ सरकार को एक्ट ऑफ भगवान बताकर जनता को गुमराह नहीं किया जा सकता। मोदी सरकार ने जीएसटी लागू करते हुए राज्यों को जो क्षतिपूर्ति हर साल 14फीसदी बढ़ोत्तरी और पर्याप्त कर का हिस्सा देने का वादा किया था। अब वह एक्ट ऑफ गॉड की आड़ में वह देने की हालत में भी नहीं है। केंद्र का कहना है कि राज्य सरकारें रिज़र्व बैंक से कर्ज़ ले सकती हैं। सवाल यह है कि केंद्र की गलत नीतियों का खामियाज़ा राज्य सरकारें क्यों भुगतेंज़ाहिर बात है कि इसके लिये राज्य खासतौर पर विपक्षी सरकारें किसी कीमत पर तैयार नहीं हैं। उधर केंद्र सरकार एक के बाद एक सरकारी उपक्रम अपने चहेते पूंजीपतियों को बेचकर अपने पास हो रही पैसे की कमी को दूर करने को आत्मघाती कदम उठाने में भी संकोच नहीं कर रही है। लेकिन राज्य की सरकारों के पास ऐसा भी कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। उनके सामने अपने कर्मचारियोें को वेतन तक देने का संकट खड़ा हो रहा है। हैरत और दुख की बात यह है कि जिन धार्मिक स्थलों के पुजारी और मौलाना कोरोना का शिकार हो गये उन्होंने भी इसके लिये भगवान को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया। भगवान राम के मंदिर विवाद के बहाने बनी सरकार से ज़्यादा धार्मिक तो भगवान के वो भक्त निकले जो कोरोना से मरने से पहले तक भी यही कहते रहे कि हमारे कर्म ही इसके लिये दोषी हैं। एक्ट ऑफ गॉड बताने से एक और ख़तरा लोगों के सर पर मंडरा रहा है। कहीं ऐसा ना हो कि पहले ही एक दूसरे की जान के दुश्मन बना दिये गये अलग अलग धर्मोे के लोग एक दूसरे के भगवान को इसके लिये ज़िम्मेदार ठहराकर आपस में भिड़ जायें। इसमें भी अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने की आशंका अधिक बनी रहती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कभी भी किसी देश को तालाबंदी का सुझाव नहीं दिया। पूरी दुनिया में चंद देशों ने ही कोरोना रोकने को लॉकडाउन का सहारा लिया। यहां तक कि जिस चीन से कोरोना पूरी दुनिया में फैला उसने भी अपने एक सीमित क्षेत्र वुहान में ही चंद दिनों के लिये तालाबंदी की। इस दौरान चीन सहित बंगलादेश आदि कई देशों की जीडीपी हमारी तरह गिरी भी नहीं। इसका मतलब है कि कोरोना और लॉकडाउन को जीडीपी गिरने का बहाना बनाना ही सिरे से गलत है। इस दौरान आर्थिक संकट से निपटने को सरकार ने एक और गल्ती की। उसने 20 लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज जो घाषित किया उसमें कर्ज बांटकर उत्पादन बढ़ाने का उल्टा फैसला किया। जबकि बड़े अर्थशास्त्री लगातार उसको सुझाव दे रहे थे कि इस समय कर्ज या प्रोडक्शन की नहीं मांग यानी कंजम्पशन बढ़ाने की ज़रूरत है। जिसके लिये सरकार को ना केवल अपना खर्च बढ़ाना चाहिये था बल्कि ज़रूरतमंद गरीब या जिनकी नौकरी और कारोबार बंद हो गये उनके हाथ में एकमुश्त सहायत राशि देनी चाहिये थी। इससे बाज़ार में मांग पैदा होती। मांग बढ़ती तो माल का उत्पादन बढ़ता। उत्पादन बढ़ता तो रोज़गार फिर से बढ़ने लगते। साथ ही प्रोडक्शन और आर्थिक गतिविध्यिां एक बार फिर बढ़ने से सरकार का टैक्स भी बढ़ने लगता। ऐसा होने से बैंकों के पास उसका पुराना कर्ज़ भी वापस आता और नया कर्ज़ लेने भी और अधिक लोग आते। इससे सरकार और जनता के सामने आर्थिक संकट इस तरह से इस हद तक ना बढ़ता। जैसा आज बढ़ता जा रहा है। भले ही सरकार ना माने लेकिन जनता धीरे धीरे यह समझने लगी है कि मोदी सरकार के पास अपने अर्थ या किसी भी क्षेत्र के विशेषज्ञ खुद तो हैं नहीं। साथ ही अपनी साम्प्रदायिकता तानाशाही वनमैन शो मनमानी अहंकार व्यक्तिपूजा और नालायकी की वजह से वह बाहरी या विरोधी खेमे के निष्पक्ष वरिष्ठ जानेमाने विशेषज्ञों की बात भी नहीं मानती। ऐसे में एक के बाद एक बाद गलत फैसलों से उसके बड़े बड़े दावों की पोल खुलती जा रही है। लेकिन देखना यह है कि मुसलमानों या विपक्ष के इंसानों के बाद अब भगवानों को वह अपनी किस किस नाकामी नालायकी और अयोग्यता के लिये दोषी बताकर जनता को खुद से खफा होने से कब तक रोक सकती है?                                       

0 न इधर उधर की बात कर ये बता क़ाफ़िला क्यों लुटा,

  मुझे रहज़नों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।।