Tuesday 20 September 2022

आमिर ख़ान

0आमिर ख़ान बाॅलीवुड के उन गिने चुने संजीदा कलाकारों में शामिल हैं। जो न केवल समाज को सुधारने वाला संदेश देने वाली अधिकांश फिल्मों में काम करते हैं बल्कि उन्होंने कई ऐसी यादगार फ़िल्में खुद भी बनाई हैं जिनमें सामाजिक बदलाव लाने को सार्थक पहल की गयी है। फिर भी कुछ लोग उनके खिलाफ नफ़रत और विरोध का अभियान चलाते रहते हैं। इसकी वजह 2015 में दिया उनका वह बयान माना जाता है जिसमें उन्होंने अपनी पत्नी किरण राव के हवाले से कहा था कि वह भारत में असुरक्षित महसूस करती है। बाद में उन्होंने कहा कि उन्होंने अपनी पत्नी को समझाया है कि भारत असहिष्णु नहीं है। लेकिन तब से ही कुछ लोग आमिर खान के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं। अब उनकी आने वाली फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा का बिना देखे ही ऐसे पूर्वाग्रही लोगों द्वारा विरोध शुरू हो गया है।
आमिर खान की लाल सिंह चड्ढा फिल्म सेंसर बोर्ड से हरी झंडी मिलने के बाद ही रिलीज़ होगी। अगर फिर भी उससे किसी को एतराज़ है तो वह उसके खिलाफ कोर्ट जा सकते हैं। लेकिन नहीं उनको तो आमिर खान का अंध विरोध करना है। आजकल सोशल मीडिया पर आमिर खान को ट्रोल करने का नफरत भरा अभियान जोरशोर से चल रहा है। ट्राॅलर्स का दावा है कि आमिर खान इससे पहले पीके जैसी फिल्म बनाकर एक वर्ग की धर्मिक भावनाओं का अपमान कर चुके हैं। जबकि पीके में धर्म नहीं धर्म के नाम पर पाखंड करने वालों को आड़े हाथ लिया गया था। अजीब बात यह है कि इस फिल्म का निर्माण राजू हिरानी ने किया स्क्रिप्ट लिखी अभिजीत जोशी ने निर्देशन किया विनोद चोपड़ा ने और इसके सह कलाकार अनुष्का शर्मा संजय दत्त और सुशांत राजपूत थे। फिर भी सारा दोष आमिर खान के सर डाल दिया गया। इसकी वजह समझना मुश्किल नहीं है। इस फिल्म को लेकर यह सवाल भी उठाया गया कि एक ही धर्म के पाखंडी बाबाओं पर आलोचनात्मक टिप्पणी क्यों की गयी? जबकि इसका जवाब तो फिल्म के निर्माता निर्देशक ही बेहतर दे सकते हैं क्योंकि आमिर ने तो अपनी फिल्म सुपर सीक्रेट में एक बच्ची के सिंगिंग कैरियर के लिये एक मुस्लिम महिला को अपने पति से अलग होता भी दिखाया है। जबकि सब जानते हैं कि इस्लाम में कट्टरपंथी गीत संगीत को गलत बताते हैं। अगर इसी हिसाब से देखा जाये तो कनाडाई नागरिक अक्षय कुमार और परेश रावल ने ओ माई गाॅड नाम की फिल्म बनाई थी। जो एक धर्म के नाम पर कदाचार की आलोचना पर आधारित विवादित फिल्म थी। लेकिन उस पर आमिर के विरोधियों ने चुप्पी साध ली। उनको यह भी कोई खास बात नहीं लगती कि आमिर ने लगान जैसी ऐतिहासिक फिल्म बनाकर उसमें भुवन का रोल इतना शानदार किया कि उस फिल्म को आॅस्कर के लिये नाॅमिनेट किया गया। आमिर के आलोचकों ने इस तथ्य को भी अनदेखा कर दिया कि आमिर ने दंगल फिल्म बनाकर उसमें सशक्त अभिनय कर महावरी सिंह फोगट नाम के एक पहलवान के जीवन को युवाओं के लिये पे्ररणा व जश्न में बदल डाला। तारे ज़मीं पर जैसी फिल्म बनाकर उन्होंने बच्चो की अंजान और नादान दुनिया को समझाने की शानदार पहल की थी। थ्री ईडियट भी उनकी मील का पत्थर थी। आमिर के विरोधी यह भी आरोप लगाते हैं कि आमिर ने गुजरात दंगों के बाद तब के सीएम मोदी पर सवाल उठाये थे। उनसे पूछा जाना चाहिये कि क्या एक नागरिक के रूप में आमिर को अपनी बात कहने का अधिकार नहीं है? तथ्य तो यह भी है कि उस दौरान आमिर ही नहीं पूरा विपक्ष कोर्ट मीडिया और यहां तक कि विदेशों तक में मोदी की भूमिका पर सवाल उठ रहे थे। यहां तक कि खुद के भाजपा के पीएम वाजपेयी ने भी मोदी को राजधर्म निभाने की सीख सार्वजनिक मंच से दी थी। सच तो यह है कि कोई भी धर्म सोच या पंथ समय के साथ बदलाव सुधार या आलोचना से परहेज़ करेगा तो वह कट्टर और दकियानूसी हो जायेगा। जिससे उसके मानने वाले लोगों को ही सबसे अधिक नुकसान होता है। आमिर विरोधियों को यह भी सोचना चाहिये कि गुजरात दंगों के बाद उनकी आलोचना करने वालों में बिहार के सीएम नीतीश कुमार कश्मीर की पूर्व सीएम महबूबा मुफ़ती और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी भी शमिल रही हैं। आमिर की आलोचना इस बात के लिये भी की जाती है कि उन्होंने भारत की आलोचना करने वाले तुर्की के प्रेसीडेंट की पत्नी एमीन एर्दागोन से मुलाक़ात क्यों की थी? जबकि सब जानते हैं कि एमीन अपने सामाजिक और मानवीय सेवा के कामों के लिये पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान रखती हैं। आमिर ने एमीन से मिलकर यही चर्चा की थी कि वह और उनकी पत्नी किरण राव वाटर फाउंडेशन के नाम से भारत के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पानी पहुंचाने की एक बड़ी योजना पर काम कर रहे हैं। एमीन ने आमिर को सामाजिक सुधार की फिल्में बनाने पर मुबारकबाद दी। इस दौरान उनके बीच खान पान भाषा विज्ञान और कुछ और मानवीय मुद्दों पर भी व्यापक चर्चा हुयी थी। इस दौरान एक भी बात वाक्य या शब्द सियासी नहीं बोला सुना गया। सवाल यह है कि अगर आमिर का ऐसा करना भी गलत था तो खुद मोदी भारत के दुश्मन समझे जाने वाले पाकिस्तान के पीएम नवाज़ शरीफ के बिना बुलाये उनके बर्थडे पर उनके घर क्यों गये थे? अगर गये थे तो उनका विरोध आमिर विरोधी क्यों नहीं करते? आमिर तो एक कलाकार हैं लेकिन मोदी तो पीएम हैं। उनका मिलना अधिक गंभीर चूक है या आमिर की? जबकि मुलाकात अगर शिष्टाचारवश हो तो हमें लगता है दोनों में ही कोई बुराई नहीं थी। पता नहीं हमें यह सीधी सी बात कब समझ आयेगी कि किसी इंसान की राजनीतिक सोच हमसे अलग भी हो सकती है। लेकिन इससे उसकी कला साहित्य या अन्य विधा का अंध विरोध यानी विरोध के लिये विरोध किया जाना ठीक नहीं है। यह बात किसी एक धर्म या वर्ग के लिये नहीं सभी जाति क्षेत्र धर्म देश और वर्गों पर लागू होती है। लेकिन देखने में यह आ रहा है कि जिस बात के लिये किसी एक को घेरा जाता है। बिल्कुल उस जैसी या उससे भी बड़ी और विवादित बात के लिये ही किसी दूसरे को बख़्श दिया जाता है। अगर ये सब यूं ही चलता रहा तो संविधान मेें दिये गये समानता निष्पक्षता और गरिमा के निर्देश का पता नहीं 75 साल की आज़ादी में क्या मतलब रह जायेगा?
0लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।

मुसलमान बदलें अपनी सोच

*मुसलमानों को नई तंज़ीम नहीं नई सोच की ज़रूरत है !*

0पहले बाबरी मस्जिद फिर सीएए एनआरसी तीन तलाक़ मोब लिंचिंग हिजाब काॅमन सिविल कोड मांस पर पाबंदी कोरोना को लेकर तब्लीगी जमात को घेरना आयेदिन उन पर गोहत्या आतंकवाद व यूएपीए के आरोप लगाकर जेल भेज देना दोष साबित होने से पहले ही आरोपियों के घरों पर बुल्डोज़र चला देना अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक दर्जा छीनने की कवायद ताजमहल और कुतुब मीनार को हिंदू मंदिर बताना बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा व कर्नाटक के हुबली मैदान की ईदगाह पर पूजा करने की मांग डा. कफ़ील आज़म खां उमर ख़ालिद सद्दीक़ कप्पन जैसे अनेक लोगों को लंबे समय तक जेल में रखने के बाद अब मदरसों के सर्वे की उनको नई चुनौती से निबटना है। इसके लिये उनको खुद को बदलना होगा।           

       *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      मुसलमानों की समस्याओं को हल करने के लिये हाल ही में बरेली में आॅल इंडिया मुस्लिम जमात का गठन किया गया है। इससे पहले देवबंद में जमीयत उलेमा हिंद ने मदरसों के सर्वे का विरोध करते हुए बिना रजिस्ट्रेशन और बिना मान्यता चल रहे मदरसों के सर्वे में उनके संचालकों की ज़रूरी औपचारिकतायें पूरी करने में मदद करने का ऐलान किया था। उनका यह भी कहना है कि सर्वे से उनको कोई परेशानी नहीं है। लेकिन सरकार की नीयत पर उनको भरोसा नहीं है। सरकारों के अब तक के क्रियाकलापों को देखते हुए उनकी आशंका सही भी हो सकती है। लेकिन सवाल यह है कि सरकार को सर्वे करने के अधिकार से कैसे रोका जा सकता है? अगर मदरसे सही हैं उन्होंने किसी नियम कानून को नहीं तोड़ा है तो डर कैसा? जिस तरह से देश में विपक्षी दलों के नेताओं और भाजपा व संघ का विरोध करने वालों के यहां रोज़ ईडी सीबीआई और इनकम टैक्स छापे डाले जा रहे हैं। उसी तरह मुसलमानों को भी भाजपा सरकारों का विरोध करने की कीमत चुकानी पड़ रही है। मदरसों के मामले में मुसलमानों को भी यह सोचना होगा कि अगर सरकार उनमें मज़हबी तालीम के साथ दुनियावी तालीम भी ज़रूरी करना चाहती है तो इससे मुसलमानों का ही भला होगा। अगर कोई इंसान मदरसे से केवल इस्लामी शिक्षा ही लेकर निकलता है तो वह अधिक से अधिक किसी मस्जिद में इमाम या मुअज़्ज़न यानी अज़ान देने वाला ही बन सकता है। जिसका वेतन पांच से दस हज़ार तक ही होता है। उसका नाश्ता खाना भी अकसर उस मस्जिद के आसपास के घरों से ही आता है। तब उस मौलाना का गुज़र बसर होता है। ऐसे में ज़ाहिर है कि उसकी शादी उसके बीवी बच्चो का खर्च उनकी आला तालीम और इलाज और ज़िंदगी की दूसरी ज़िम्मेदारियां पूरी नहीं हो सकती। ऐसे में मदरसे से फारिग़ आलिमोें के सामने एक
रास्ता यह और होता है कि वे भी कोई मदरसा खोलकर बच्चो को दीनी तालीम देना शुरू कर दें। लेकिन उन बच्चो के सामने भी फिर रोज़गार की समस्या खड़ी होगी जिसका कोई हल मदरसा चलाने वालों के पास नहीं है। एक पत्रकार के तौर पर हमने 40 साल में देखा है कि मुसलमानों का जितना पैसा मस्जिद मदरसा तब्लीगी जमात हज कुरबानी मुशायरा महंगी शादी दहेज़ बाइक मोबाइल कवाब पार्टी कव्वाली उर्स वगैरा में खर्च होता है। उतना स्कूल काॅलेज यूनिवर्सिटी धर्मार्थ अस्पताल धर्मशाला आंखों के आॅपे्रशन का कैम्प खेलकूद सांस्कृतिक प्रोग्राम विकलांगों की मदद विधवा व अनाथ बच्चो की देखभाल गरीब मगर काबिल बच्चो की कोचिंग साम्प्रदायिक एकता व भाईचारे के लिये मिलन प्रोग्राम या चैरिटी के कामों में खर्च नहीं होता। आज वक़्त की मांग है कि मुसलमान डबल सी यानी कैरेक्टर व कंडक्ट मतलब किरदार व अख़लाक़ और डबल ई यानी एजुकेशन व इकाॅनोमी मतलब तालीम व पैसा कमाने पर पूरा ज़ोर दें। उनको तालीम में भी आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकी और व्यवसायिक शिक्षा पर तवज्जो देनी होगी। उनको परिवार नियोजन भी अपनाना होगा। उनको बैंक और बीमा के क्षेत्र में जो सुविधायें दूसरे समाज के लोग ले रहे हैं। उनका कथित वर्जित सहारा भी कट्टरपंथी लोगों की दकियानूसी बातें अनसुनी करके लेना होगा। आज दरअसल पैसा और शिक्षा दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। 1968 में डाॅ अब्दुल जलील फ़रीदी ने मुसलमानों की भलाई के नाम पर मुस्लिम मजलिस बनाई थी। उनके नाम पर मुस्लिम लीग भी बनी। ओवैसी ने उनकी रक्षा के लिये एमआईएम बनाई लेकिन वे उनका राजनीतिक नुकसान ही अधिक कर रहे हैं। ऐसी अनेेक कथित मुस्लिम तंज़ीमों पार्टियों और कमैटियों का यहां नाम गिनाया जा सकता है। जिनकी लिस्ट बहुत लंबी है। लेकिन उनसे कभी भी मुसलमानों ना केवल भला नहीं हुआ बल्कि उल्टा नुकसान ही ज़्यादा हुआ है। मुसलमान जब तक धार्मिक कट्टर पुरातनपंथी दकियानूसी संकीर्णतावादी पिछड़ी हुयी सोच से बाहर निकलकर अपने हमवतन दूसरे समाज के लोगों के साथ हर मैदान में कंध्ेा से कंधा मिलाकर चलते हुए मुख्य धारा में शामिल नहीं होगा। तब तक उसको आज की प्राॅब्लम से कोई दूसरा नहीं बचा सकता। यह माना कि कुछ सरकारें उसके साथ पक्षपात अन्याय और अत्याचार कर रही हैं। लेकिन आज के माहौल मेें इन समस्याओं से मुसलमानों को उनका अपना कोई संगठन नहीं बचा सकता। वे अगर आंदोलन करेंगे तो उनको पुलिस प्रशासन परमीशन नहीं देगा। अगर वे बिना इजाज़त विरोध प्रदर्शन करेेंगे तो हिंसा के आरोप लगने पर उन पर सख़्त कानूनी कार्यवाही होगी। ऐसी सरकारों को चलाने वाले दल उनका वोट भी नहीं चाहते। बाबरी मस्जिद एक्शन कमैटी को याद कीजिये। उसने मस्जिद मंदिर के मसले को
लेकर केवल कोर्ट में पूरी मज़बूती से लड़ने की बजाये सड़कों पर जो नादानी और दुस्साहस किया उसका दूसरे पक्ष की प्रतिक्रिया से नतीजा यह हुआ कि दंगे हुए हज़ारों लोग मारे गये। कई रोज़गार खो बैठे। कई बेघर हो गये। अनेक जेल चले गये। और तो और जिस बाबरी मस्जिद के नाम पर यह सब नुकसान उठाया वह भी अंत में शहीद हो गयी और अंजाम यह हुआ कि वहां आज इस सबके बाद भी मंदिर बन रहा है। मथुरा काशी के बारे में हो सकता है कि मुसलमान बाबरी मस्जिद के मामले से सबक लें। यह माना जा सकता है कि भाजपा सरकारों की अधिक शक्ति उस हिंदू जनसमर्थन में है जो मुसलमानों से झूठ व नफ़रत फैलाने के बाद डरकर उसे अलग थलग करने मंे कोई बुराई नहीं समझ रहा है। लेकिन विश्वास कीजिये आज भी इस देश में भाजपा को 38 प्रतिशत वोट मिलता है। जिसमें से मुश्किल से 8 से 10 प्रतिशत मुसलमानों के खिलाफ होगा। एक समय आयेगा जब यह सब बदलेगा तब तक मुसलमानों को खुद को बदलकर हिंदू भाइयों का दिल जीतना है।  

 *0 लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

भारत जोड़ो

*भारत जोड़ो यात्रा: कांग्रेस का सपोर्ट बढ़ेगा वोट नहीं ?*

0 कांग्रेस 2014 के बाद से लगातार संकट में है। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 206 सीट व 11.90 करोड़ वोट जबकि भाजपा को 116 सीट व 7.84 करोड़ वोट मिले थे। लेकिन एक दशक में ही हालत बिल्कुल बदल गयी। 2019 के चुनाव में भाजपा को 22.9 करोड़ तो कांग्रेस को 11.94 करोड़ वोट मिले। इस दौरान कांग्रेस के वोट तो लगभग उतने ही रहे लेकिन सीट एक चैथाई रह गयी। उधर भाजपा के वोट तीन गुना और सीट ढाई गुना हो गयी। 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस से 189 सीटों पर सीधी लड़ाई में 166 तो 2019 के संसदीय चुनाव में 190 सीट पर डायरेक्ट टक्कर देते हुए 175 सीट जीत लीं। जबकि भाजपा राज्य के क्षेत्रीय दलों से उस अनुपात में सीटें नहीं जीत सकी है।           

       *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      कांग्रेस ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक लगभग साढ़े तीन हज़ार किमी. की लगभग चार माह से अधिक की भारत जोड़ो यात्रा ऐसे समय में शुरू की है जबकि देश को वास्तव में इस तरह के संदेश की ज़रूरत है। जनता का एक बड़ा वर्ग इस विचार को पसंद भी कर रहा है। वह इस यात्रा को आगे बढ़कर सपोर्ट भी कर रहा है। लेकिन यह सपोर्ट वोट मंे भी बदले यह ज़रूरी नहीं है। इसकी वजह एक सर्वे के अनुसार कांग्रेस को सपोर्ट करने वाले 18 फीसदी लोगों में से राहुल को पीएम चाहने वाले मात्र 10 फीसदी ही लोग हैं। यही कारण है कि भाजपा कांग्रेस से मुद्दों पर चुनाव ना लड़कार राहुल के मुकाबले मोदी को आगे कर देती हैै। 2014 में कांग्रेस के पूरे देश के विभिन्न राज्यों मंे कुल 1207 विधायक थे। जो आज घटकर 690 रह गये हैं। उसकी सरकार भी आज मात्र दो राज्यों तक सीमित हो गयी है। 2014 के चुनाव में कांगे्रेस के 64 लोग दूसरे दलों में जाकर चुनाव लड़े। ऐसे ही अब तक कांगेे्रस के कुल 553 पूर्व या वर्तमान एमएलए पार्टी छोड़कर दूसरे दलों के टिकट पर चुनाव लड़े हैं। जिनमें से सबसे अधिक भाजपा के टिकट पर 107 कांग्रेसी चुनाव लड़े हैं। आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है। पहले कांगे्रेस को लगा कि वह 1979 और 1989 की तरह एक बार फिर से विपक्षी दलों की आपसी कलह से सरकार गिर जाने से खुद ब खुद सत्ता में वापस आ जायेगी। लेकिन 1999 से 2004 तक वाजपेयी की एनडीए सरकार पहली बार विपक्ष की गठबंधन सरकार होकर भी अपना कार्यकाल पूरा करने में सफल रही।  कांग्रेस 2004 से 2014 तक फिर एक दशक लगातार सत्ता में रहकर यह भूल गयी कि उसके लिये भाजपा एक बार फिर बड़ी चुनौती बनकर सामने आने वाली है। मोदी के नेतृत्व में काॅरपोरेट व आरएसएस के हिंदूवादी ज़बरदस्त समर्थन व अन्ना हज़ारे के करप्शन विरोधी आंदोलन से कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार जिस बुरी तरह बदनाम होकर सत्ता से बाहर हुयी उसकी दूसरी मिसाल इतिहास में मुश्किल से ही मिलेगी। इतना ही नहीं मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही जिस तरह से मुख्य धारा के मीडिया चुनाव आयोग सीएजी सीवीसी जैसी स्वायत्त संस्थाओं पुलिस व दूसरी जांच एजंसियों का खुलकर और एक सीमा तक न्यायपालिका और सोशल मीडिया का दुरूपयोग करके कांग्रेस विरोधी दलों एनजीओ सेकुलर व निष्पक्ष सिविल सोसायटी को निशाने पर लिया। उससे लोकतंत्र धर्मनिर्पेक्षता और समानता के बुनियादी संवैधानिक अधिकारों का दायरा संकुचित होता चला गया। कांग्रेस की छवि लगातार हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक बनती रही लेकिन कांग्रेस इस अभियान की कोई ठोस काट आजतक तलाश नहीं कर पाई। अन्य विपक्षी दलों के साथ ही कांग्रेस को चुनावी चंदा देने वाले लोगों को भी तरह तरह से परेशान किया जाना लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस ना केवल सियासत में अलग थलग पड़ती गयी बल्कि लेवल प्लेयिंग फील्ड ना होने से उसको संगठन चलाना राजनीति करना और भाजपा व अन्य विरोधियों कोे चुनाव में कड़ी टक्कर देना भी लगभग असंभव हो गया। इस दौरान आंदोलन अनशन और रैली की तो बात ही छोड़ दो। कांग्रेस का जनाधार सिमटने लगा। उधर 2019 का चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी के कांग्रेस मुखिया के पद से हटने और सोनिया गांधी के लगातार बढ़ती उम्र और बीमार रहने से कोई तीसरा विकल्प सामने ना होने से संगठन स्तर पर भी कांग्रेस को नुकसान पहुंचने लगा। कांग्रेस मुख्य विरोधी दल होकर भी यह नहीं समझ पाई कि वह इस संकट का सामना कैसे करे? उसने राज्यों में अपनी जगह छीनने वाले क्षेत्रीय दलों से भी तालमेल बनाना ज़रूरी नहीं समझा। 2019 के चुनाव में वह इस गलतफहमी का शिकार हो गयी कि वह पहले की तरह एक बार फिर आसानी से सत्ता में वापसी कर लेगी। वह यह भी भूल गयी कि इस बार उसका पाला जनता पार्टी जनता दल या राजग से नहीं मोदी के नेतृत्व में ऐसी आक्रामक हिंदूवादी पंूजीवादी व विपक्ष को विलेन बनाने देने वाले मीडिया के सहयोग से चुनौती देने वाली भाजपा से पड़ा है। जिससे वह आसानी से पार नहीं पा सकती है। कांग्रेस ने यह भी नहीं सोचा कि वह तमिलनाडु बंगाल उड़ीसा गुजरात दिल्ली असम आंध्रा महाराष्ट्र उत्तराखंड और यूपी बिहार सहित जिन राज्यों से एक बार सत्ता से बाहर हो गयी वहां फिर उसकी कभी भी वापस सरकार क्यों नहीं बनी? उसका संगठन भी धीरे धीरे खत्म हो गया। उसके पास पार्टी फंड का अभाव होने लगा। उसका वोटबैंक बृहम्ण दलित और मुसलमान भी उससे छिटने लगा। कांग्रेस की तबाही के लिये शायद यह कुछ कम था कि उसकी जगह विभिन्न राज्यों में सत्ता मेें आये क्षेत्रीय दलों सपा बसपा राजद जदयू बीजद टीएमसी डीएमके एआईएडीएमके वाईएसआर कांग्रेस टीआरसी शिवसेना टीडीपी एनसीपी आम आदमी पार्टी पीडीपी असम गण परिषद और पूर्वोत्तर के अनेक राज्य स्तरीय दलों ने राज्यों के विधानसभा के साथ लोकसभा का चुनाव लड़ना भी शुरू कर दिया। इनका मुकाबला करके कांग्रेस कभी कभी कहीं कहीं तो इनमें से कुछ को कुछ बार हरा पाई। लेकिन अंत में वह इन क्षेत्रीय और भाषाई अस्मिता वाले दलों के सामने कमज़ोर पड़ गयी। इस दौरान इस मौके का लाभ उठाकर भाजपा संघ व कारपोरेट के कंध्ेा पर सवार होकर हिंदुत्व व उग्र राष्ट्रवाद के सहारे क्षेत्रीय दलों व कांग्रेस से दो दो हाथ कर आगे निकलने मंे सफल होने लगी। कांग्रेस आज तक यह सीधी सी बात नहीं समझ पा रही है कि वह जितनी पुरानी पार्टी हो चुकी है उसकी एंटी इन्कम्बंैसी भी उतनी ही अधिक हो चुकी है। आज बढ़ती महंगाई और बेरोज़गारी के बावजूद जनता का एक बड़ा वर्ग मोदी और भाजपा के साथ क्यों खड़ा है इसका कोई जवाब जब तक कांग्रेस नहीं तलाश करती उसको सपोर्ट तो मिल सकता है लेकिन वोट नहीं। कांग्रेस को जनता के सामने भाजपा से इतर वैकल्पिक नई आर्थिक नीति नया विकास माॅडल नये भारत का रोडमैप और हिंदुत्व व उग्र राष्ट्रवाद का नुकसान तथा समानता निष्पक्षता व पंूजीवाद की जगह समाजवाद लाना होगा।

0 लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर हैं।

स्थानीय निकाय

नगर निगम हो नगरपालिका हो या नगरपंचायत हर स्थानीय निकाय से जनता की आशायें लगभग एक सी होती हैं। उनको लगता है कि इन निकायों का मुख्य काम सड़क बनवाना सफाई कराना पानी सप्लाई और स्ट्रीट लाइटें जलवाना होता है। अगर थोड़ा और विस्तार में जायें तो जनता इन लोक संस्थाओं ने यह भी आशा करती हैं कि ये गृहकर और जलकर कम से कम लगायें और उसको भी जल्दी जल्दी ना बढ़ायें। इसके साथ ही इन निकायों के कार्यालयों में बनने वाले जन्म मृत्यु और नो ड्यूज़ प्रमाण पत्रों आदि को बनाने में आसानी हो और सुविधा शुल्क ना वसूला जाये यह भी आम आदमी की इच्छा रहती हैै। लेकिन कम लोगों को पता है कि स्थानीय निकायों का कार्यक्षेत्र कितना बड़ा है। उनके अधिकार क्षेत्र में कितने जनहित के कार्य आते हैं। वे जनता के जीवन से जुड़ी कौन सी ऐसी सुविधा है जो नहीं दे सकते? मिसाल के तौर पर चुंगी के स्कूलों का नाम आपने सुना होगा। जो अब नाम के ही रह गये हैं। मतलब कहने का यह है कि शिक्षा भी स्थानीय निकायों के अधिकार में है। स्थानीय निकाय प्राथमिक शिक्षा ही नहीं हाईस्कूल इंटर काॅलेज और डिग्री काॅलेज भी हिंदी या अंग्रेज़ी मीडियम में लड़के और लड़कियों के लिये खोल सकते हैं। वे उनको आवश्यकतानुसार दो शिफ़्ट में भी चला सकते हैं। इसके साथ ही वे इलाज के लिये अस्पताल भी चला सकते हैं। जिनमें गरीब यानी बीपीएल परिवारों को लगभग निशुल्क या मात्र लागत पर व रियायती दरों पर सभी को इलाज भर्ती सुविधा आॅप्रेशन ब्लड यूरीन स्टूल टैस्ट अल्ट्रा साउंड एक्सरे एमआरआई ईसीजी टीएमटी सीटी स्कैन एंडो स्कोपी प्लाॅस्टर फीज़ियो थैरेपी ईएनटी यानी नाक कान गला का उपचार आरसीटी यानी दांातों का हर तरह का इलाज आईसीयू सुविधा आंखों का चैकअप आॅप्रेशन चश्मा लैंस नाॅर्मल या सीजे़रियन डिलीवरी और डायलिसिस की सुविधा भी उपलब्ध कराई जा सकती है। इसके साथ ही स्थानीय निकाय ये महंगी और अत्याध्ुनिक चिकित्सा सुविधायें उपलब्ध कराने में समय लगने पर तत्काल प्रभाव और संसाधनों की कम उपलब्धता तक अपने स्तर पर होम्योपैथी आयुर्वेदिक और यूनानी चिकित्सा की सुविधायें एक रूपये की रजिस्ट्रेशन फीस पर आसानी से उपलब्ध करा सकती है। लेकिन उसको महंगी चिकित्सा सुविधायें उपलब्ध कराने के लिये शासन प्रशासन की औपचारिकतायें पूरी करने और धन की व्यवस्था होने तक अपने प्रयास लगातार जारी रखने होंगे। इसके साथ ही स्थानीय निकाय हर मुहल्ले या वार्ड में छोटे और मुख्य स्थानों पर निकाय की ज़मीन उपलब्ध होने पर बैंक्वट हाॅल खोल सकती हैं। इससे ना केवल गरीब कमज़ोर और दलित वर्ग को आसानी से अपने प्रोग्राम करने को जगह मिलने लगेंगी बल्कि मीडियम क्लास को भी उचित खर्च देकर विवाह सांस्कृतिक प्रोग्राम और अन्य कामों के लिये बड़े हाॅल आराम से मिलने लगेंगे। स्थानीय नगर निगम नगर पालिका और नगर पंचायतें अपने स्तर पर लोगों के मनोरंजन के लिये आबादी के बाहर जगह तलाश कर या खरीदकर पार्क भी बना सकती हैं। इनमें बच्चो के लिये झूले बड़ों के लिये जिम वाॅकिंग ट्रेक और झील बनाकर बोटिंग की सुविधा भी दी जा सकती है। ऐसे ही पालिकायें नगर को साफ और स्वस्थ रखने के लिये लगातार अभियान चलाकर आबादी क्षेत्र से मच्छर भगा सकती हैं। कम स्थानीय निकायों को जानकारी है कि उनके अधिकार क्षेत्र में स्थानीय सांस्कृतिक गातिविधियों को बढ़ावा देना भी है। इसके लिये वे समय पर विभिन्न प्रदर्शनी लगा सकती हैं। उनमें उस क्षेत्र के विशेष कामों जैसे काष्ठकला कांवड़ या अन्य विशेष रोज़गार को वित्तीय सहायता प्रशासनिक कामों में सहायता और दूसरी औपचारिकतायें पूरी करने मंे मदद कर सकती हैं। इन नुमाइशों के द्वारा ही खाने पीने के स्टाल चाट बच्चो के लिये चाउमिन डोसा बर्गर पिज़्ज़ा आइसक्रीम कुल्फी हलवा परांठा खिलौने आदि उपलब्ध कराये जा सकते हैं। इतना ही नहीं इन प्रदर्शनियों में शिक्षा भारतीय सभ्यता उदारता एकता भाईचारा परस्पर प्यार मुहब्बत साहित्य संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये कवि सम्मेलन मुशायरा गीत संगीत डांस नाटक समूहगान वाद विवाद प्रतियोगिता भाषण बाॅडी शो मिमिक्री हास परिहास कराओके आदि से प्रतिभाओं को निखारा जा सकता है। यहां तक कि उनको इनाम और वित्तीय सहायता देकर हौंसला भी बढ़ाया जा सकता है। नगर में लाईब्रेरी बनाई जा सकती है। जहां खासतौर पर गरीब लेकिन काबिल बच्चो को स्कूल की निशुल्क पुस्तकें दी जा सकती है। पत्रकरों के लिये प्रैस भवन बनाया जा सकता है। जिसमें वे प्रैस वार्ता अपनी मीटिंग या बाहर से आने वाले पत्रकार साथियों को निशुल्क ठहरा सकते हैं। वरिष्ठ नागरिकों के लिये पालिकायें वृध्दा आश्रम बना सकती हैं। साथ ही एक ऐसा प्रोजैक्ट भी शुरू हो सकता है। जिसमें बच्चो को यह समझाया जायेगा कि उनको बुढ़ापे में अपने माता पिता को अपने साथ ही रखना क्यों ज़रूरी है? एक ऐसा आश्रम भी बनना चाहिये जिसमें मानसिक व शारिरिक रूप से विकलांग बच्चो को रखकर उनकी सेवा की जा  सके। उनको रोज़गार का प्रशिक्षण भी वहां दिया जायेगा। ऐसे ही जो बच्चे अपने परिवार के नियंत्रण से नशाखोरी या गलत संगत की वजह से बाहर हो जाते हैं। उनके सुधार उपचार और मानसिक परिष्कार के लिये एक सेंटर खोला जाये जिसमें निशुल्क या बहुत कम फीस पर ऐसे बच्चो को नाॅर्मल किया जा सकेगा। जेनरिक दवाइयोें के साथ ही ऐसे अनेक जनहित के काम हैं जो जनता के सुझाव पर हो सकेंगे।

लूलू ग्रुप के बॉस

*सबके काम आते हैं लुलु ग्रुप के बाॅस अब्दुल क़ादर यूसुफ अली!*

0यूपी की राजधानी लखनउू के बाद लुलु माॅल के स्वामी और केरल निवासी यूसुफ़ अली ने राज्य के चार और शहरों नोएडा बनारस प्रयागराज और कानपुर में लुलु माॅल खोलने का ऐलान किया है। लुलु ग्रुप ने लखनउू में 2000 करोड़ निवेश सहित भारत में पांच माॅल पर अब तक 7000 करोड़  लगाकर देश में 12 और माॅल खोलकर कुल 19000 करोड़ का निवेश करने की योजना बनाई है। लुलु ग्रुप इंटरनेशनल एक मल्टी नेशनल कंपनी है। इसका मुख्यालय दुबई की राजधानी आबू धाबी में है। लुलु अरबी का शब्द है। जिसका मतलब मोती होता है। लुलु ग्रुप का वार्षिक कारोबार 8 अरब डाॅलर का है। लुलु का बिज़नेस अमेरिका यूरूप एशिया अरब देशों सहित 22 मुल्कों में है। इसमें 57000 से अधिक लोग काम कर रहे हैं।       

     *-इक़बाल हिंदुस्तानी*

      लुलु ग्रुप के मालिक यूसुफ अली न केवल केरल के लोगों की पार्टी धर्म व जाति देखे बिना रोज़गार व अन्य ज़रूरतोें को पूरा करके मदद करते हैं बल्कि अरब मुल्कों में भी भारतीयों के बिना पक्षपात मानवता के आधार पर काम आते हैं। जून 2021 में दुबई में अली ने एक सूडानी नागरिक की 2012 में सड़क दुर्घटना में हत्या के आरोप मंे उम्रकैद की सज़ा होने पर केरल निवासी कृष्णन को 5 लाख दिरहम यानी भारतीय एक करोड़ रूपेय की ब्लड मनी देकर जेल जाने से बचाया था। पिछले महीने अली तिरूअनंतपुरम में लोक केरल सभा की एक मीटिंग में बोल रहे थे। वहां एक नौजवान अचानक खड़ा होकर उनसे अपने मृत पिता की डैड बाॅडी सउूदी अरब से केरल लाने को सहायता मांगता है। अली ने अपना संबोधन बीच में ही रोककर अपनी टीम को तत्काल अरब में फोन पर आदेश दिया कि उस युवक के पिता को भारत भेजने की व्यवस्था उनकी कंपनी के खर्च पर की जाये। इतना ही नहीं अगस्त 2019 में भाजपा के सहयोगी संगठन और भारत धर्म जनसेना के राज्य प्रमुख तुषार वेलापल्ली को जब दुबई में एक चैक बाउंस होने पर जेल जाना पड़ा तो अली ने उनकी ज़मानत राशि भरकर उनको रिहा कराया। लुलु स्वामी की इस तरह की समाजसेवा इंसानियत और हर किसी की मदद की कहानियां एक दो नहीं ढेर सारी हैं। नट्टिका बीच पर मछली पकड़कर अपना रोज़गार चलाने वाले पीवी राजू की नज़र में अली किसी फरिश्ते से कम नहीं हैं। राजू का कहना है कि 6 साल पहले वह अली के पास उस दौर में गये थे जब वे सब जगह से निराश हो चुके थे। उनको अपनी बेटी को एक व्यवसायिक कोर्स कराने के लिये कुछ आर्थिक सहायता की ज़रूरत थी। अली ने न केवल उसकी बेटी की पढ़ाई का पूरा ख़र्च उठाया बल्कि बातों ही बातों में ये पता चलने पर कि उसके पास सर छिपाने को अपना मकान तक नहीं है। अली ने उसे अपने खर्च पर एक बेहतरीन मकान भी बनाकर उपहार में दिया। पिछले साल जब राजू अपनी इसी बेटी की शादी का कार्ड देने अली के पास गया तो अली ने शादी के लिये सोने की एक चैन उसकी बेटी को तोहफे के तौर पर देते हुए हर हाल में शादी में आकर बेटी को आशीर्वाद देने का वादा किया। अली के जीवन का धनी भारतीय के तौर पर बिज़नेस सफर केरल के इसी नट्टिका गांव से 1970 में शुरू हुआ था। अली उन दिनों बिज़नेस एडमिनिस्टेªशन का डिप्लोमा करने अहमदाबाद गये थे। जहां उनके पिता एम के अब्दुल कादर एक बिज़नेस चलाते थे। उनके वहां पहले से ही रेस्टोरेंट जनरल स्टोर और होम एप्लायंसेज़ आउटलेट सहित पांच स्टोर चल रहे थे। अहमदाबाद में रहकर पढ़ाई करते हुए अली ने अपने पिता के कारोबार के व्यवसाय के प्रशासनिक कामों को संभालना शुरू कर दिया था। इसके कुछ समय बाद अली के अंकल एम के अब्दुल्ला ने उनको यूएई में चल रहे अपने डिपार्टमेंटल स्टोर को चलाने में मदद करने को कहा। अली आबूधाबी के ईएमकेई स्टोर को संभालने दिसंबर 1973 में मुंबई से दुबई चले गये। दुबई ने अली ने फ्रोज़न फूड प्रोडक्ट्स के आयात पर फोकस करते हुए कोल्ड स्टोर चेन और फूड प्रोसेसिंग यूनिट पर खास जोर दिया। जिसका नतीजा यह हुआ कि वह एक दशक में ही दुबई के मुख्य कारोबारियों में अपने ग्रुप को शामिल करने में सफल रहे। 1990 में गल्फ वार के बाद अली ने दुबई में पहला सुपर मार्केट लुलु ब्रांड के नाम से आबूधाबी में शुरू किया। इस दौरान दुबई की सरकार ने भी अली को देश के बुरे वक्त में साथ देते देख हर तरह का सहयोग देना शुरू कर दिया। जिससे अली के कारोबार को मानो पर लग गये। इसके बाद अली ने 2000 में वहां अपना हाइपरमार्केट खोला। इसके बाद लुलु ग्रुप ने अपना विस्तार पूरे मिडिल ईस्ट में करना शुरू कर दिया। 2020 में दुबई की सरकारी कंपनी एडीक्यू ने लुलु के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करते हुए उसे इजिप्ट में विस्तार के लिये एक अरब डाॅलर का निवेश दिया। इतना होना था कि लुलु के सहयोग करने वालों की लंबी लाइन लग गयी। लुलु ग्रुप ने अन्य देशों की सरकार व कंपनियों से भी हाथ मिलाना शुरू कर दिया। सउूदी अरब के पब्लिक इंवेस्टमेंट फंड ने लुलु को हाथो हाथ लिया। अली के केरल स्थित गांव में उनके घर के बाहर नौजवानों व अन्य लोगों की लंबी लाइनें काम की तलाश में लगने लगीं। अली ने भी अपने गांव और आसपास के लोगों को नौकरी देने में कमी नहीं की। यहां तक कि उन्होंने इस काम पर खास जोर देने के लिये अरब देशों में भी अपने राज्य केरल से आने वालों के लिये अपने गांव के नाम पर नट्टिका काउंटर अलग से खोल दिये। जिसकी निगरानी खुद वह पर्सनली करते हैं। अली ने गांव के हर परिवार से योग्यता के हिसाब से एक आदमी को अपने लुलु ग्रुप में ज़रूर काम देने का अघोषित नियम ही बना दिया। कई परिवारों के एक से अधिक लोग भी लुलु में काम कर रहे हैं। जिनका वेतन भी अन्य कंपनी से कहीं अधिक है। रोज़गार देने का लुलु गांव में सबसे बड़ा ज़रिया बन गया। इतना ही आगे चलकर अली अरब देशों के शासकों के इतने चहेते हो गये कि वह भारत सरकार और अरब शासकों के बीच संवाद सहयोग और आपसी कारोबार के पुल बन गये। अली बिना इजाज़त अरब शासकों के घर जाने वाले चंद लोगों में शुमार किये जाते हैं। अली ने दुबई सरकार से बात करके हिंदुओं के लिये अंतिम संस्कार व ईसाइयों के लिये चर्च बनाने को सरकारी ज़मीन भी दिलाई है। अली ने दुबई जाने पर पीएम मोदी को कश्मीर से फल व सब्जी आयात कर 800 कश्मीरियों को रोज़गार देने का सफल प्रोजेक्ट भी पेश किया। अली ने लुलु ग्रुप के ज़रिये कामयाब कारोबारी के साथ ही भारतपे्रमी व अच्छे इंसान की भी पहचान बनाई है।

*नोट- लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक व नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।*

नीतीश कुमार अवसरवादी

*अवसरवादी हैं नीतीश कुमार, मोदी को चुनौती के नहीं हैं आसार!*

0‘देश का नेता कैसा हो, नीतीश कुमार जैसा हो’ बिहार के सीएम और जनता दल यू के मुखिया नीतीश कुमार के भाजपा का साथ छोड़ने के बाद भले ही उनकी पार्टी के अति उत्साही कार्यकर्ताओं ने ये नारे लगाये हों लेकिन जिन विपक्षी दलों को भी यह भ्रम है कि नीतीश 2024 में विरोधी दलों के किसी गठबंधन का नेतृत्व कर सकते हैं। वे एक तरह से खुशफहमी का ही शिकार माने जा सकते हैं। इसकी वजह यह है कि नीतीश सत्ता में रहने के लिये अब तक जितनी बार और जितने समय तक भाजपा के साथ रह चुके हैं। उससे उनकी छवि अवसरवादी उसूलविहीन और पलटूराम की बन चुकी है। दूसरी तरफ सबसे बड़ी विरोधी पार्टी कांग्रेस नीतीश को पीएम पद के लिये राहुल की जगह किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करेगी। अन्य विपक्षी दल भी अलग सोचते हैं।           

       -इक़बाल हिंदुस्तानी

      शिवसेना अकाली दल के बाद भाजपा का साथ छोड़ने वाला जदयू तीसरा बड़ा दल है। अगर यह कहा जाये तो गलत नहीं होगा कि अब एनडीए में कोई बड़ा सहयोगी राजनीतिक घटक नहीं बचा है। यह ठीक है कि एनडीए छोड़ने से पहले नीतीश की सोनिया गांधी से कई बार फोन पर बात हुयी थी। लेकिन यह जानकारी किसी को नहीं है कि इसमें क्या क्या बात हुयी है? पत्रकारों के इस बारे में पूछने पर भी नीतीश कुछ बोलने को तैयार नहीं हुए। नीतीश के भाजपा से अलग होने के कई कारण गिनाये जा रहे हैं। उनमें से एक बड़ा कारण जदयू के कोटे से केंद्रीय मंत्री बने आरसीपी सिंह की मदद से जदयू को शिवसेना की तरह तोड़न की साजिश रचने का भाजपा पर जदयू ने आरोप लगाया है। हालांकि आरसीपी एक तरह से जदयू के छिटकने का आखिरी बहाना बने लेकिन जदयू और भाजपा में 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद ही तनाव और टकराव की स्थिति बन गयी थी। नीतीश का आरोप था कि उनको 43 सीटों तक सीमित कर कमज़ोर करने के लिये भाजपा ने एलजेपी के चिराग पासवान से सीटों का गुप्त समझौता किया था। पिछले दिनों भाजपा की पटना में हुयी बैठक में पार्टी मुखिया जे पी नड्डा ने कहा कि बीजेपी अगर इसी तरह काम करती रही तो क्षेत्रीय दल ख़त्म होने से कोई रोक नहीं पायेगा। नीतीश ने नड्डा के इस बयान को चुनौती के रूप में लिया और जदयू में टूट होने से पहले ही पाला बदल लिया। सुविख्यात पत्रकार राजदीप सरदेसाई का कहना है कि भाजपा के सहयोगी आजकल यह रहस्य समझने में व्यस्त हैं कि भाजपा से गठबंधन करने के बाद कश्मीर की नेशनल कांफ्रेंस व पीडीपी बिहार की एलजीपी व जदयू तमिलनाडू की एआईएडीएमके पंजाब का अकाली दल और महाराष्ट्र की शिवसेना की हालत लगातार ख़राब क्यों होती चली गयी? इनमें से कुछ दल तो आज अंतिम सांसे गिन रहे हैं। जानकार यह भी कहते हैं कि जिस तरह से बीजेपी ने यूपी में मंडल की काट कर कमंडल को आगे किया वह बिहार में ऐसा आज तक नहीं कर पायी। इसकी वजह बीजेपी का बिहार में अपना नेतृत्व पैदा ना कर शुरू से ही नीतीश के कंधे पर सवार होना माना जाता रहा है। बीजेपी ने वहां यादवों में जगह बनाने के लिये नंद किशोर यादव व नित्यानंद राय को आगे किया लेकिन ये दोनों ही लालू यादव के यादव मुस्लिम तिलिस्म को तोड़ने में नाकाम रहे। बीजेपी के कोटे से डिप्टी सीएम रहे सुशील मोदी भी वहां कोई बड़ा चमत्कार नहीं कर सके। उल्टे उन्होंने नीतीश को पीएम बनने की क्षमता वाला नेता बताकर खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। भला जब तक मोदी मौजूद हैं। तब तक भाजपा का कोई दूसरा नेता पीएम बनने के बारे में सोच नहीं सकता। ऐसे में नीतीश को पीएम मैटिरियल बताने वाला बिहार में भाजपा नेतृत्व कैसे कर सकता है? बिहार में राजनीति के तीन बड़े केंद्र राजद जदयू और भाजपा हैं। जब तक इनमें से दो साथ नहीं आते तब तक सरकार नहीं बन पाती। ऐसे में नीतीश ने अवसर का लाभ उठाकर खुद को संतुलन का केंद्र बना लिया है। वे जब भाजपा से नाराज़ हो जाते हैं तो राजद के साथ आ जाते हैं। जब राजद से खफा होते हैं तो फिर से भाजपा के साथ चले जाते हैं। लेकिन आगे ये सिलसिला चलने वाला नहीं लगता क्योंकि अब भाजपा अपने दम पर बिहार में आगे बढ़ेगी? सियासत के जानकारों का कहना है कि जदयू ही नहीं भाजपा अनेक क्षेत्रीय दलों को पहले वोट और सत्ता हासिल करने के लिये सीढ़ी की तरह उनसे गठबंधन कर इस्तेमाल करती है। उसके बाद धीरे धीरे अपने सहयोगियोें को ही अंदर अंदर कमज़ोर करने की रण्नीति पर काम शुरू कर देती है। कई बार भाजपा अपने सहयोगियों को ऐसे समय पर झटका देती है कि वे राजनीतिक रूप से बेअसर हो जाते हैं। इसकी सबसे बड़ी मिसाल बसपा मानी जाती है। जिसको भाजपा ने कई बार झुककर सपोर्ट कर सरकार बनवाई लेकिन आज उसको मरणासन्न अवस्था में ले जाकर छोड़ दिया है। भाजपा का मकसद बसपा के दलित मुस्लिम गठजोड़ को सदा के लिये तोड़ना था। यह काम उसने बखूबी कर लिया है। इतिहास देखें तो 1998 में कर्नाटक में बीजेपी ने रामकृष्ण हेगड़े की लोक शक्ति पार्टी से गठबंधन कर लिंगायत वोट पर कब्ज़ा कर खुद 13 सीट जीत ली थी। जबकि हेगड़े मात्र 3 सीट ही जीत सके थे। नोट करने वाली बात यह है कि चुनाव से पहले ही भाजपा नेता अनंत कुमार ने दावा कर दिया था कि इस चुनाव के बाद कर्नाटक में हेगड़े ज़ीरो हो जायेंगे। यही हुआ भी। दरअसल ये वही लिंगायत वोट बैंक था जिसे अनंत कुमार और येदियुरप्पा ने आगे चलकर अपना बड़ा आधार बनाया और 2008 में इसी बल पर वहां भाजपा सत्ता में भी आ गयी। बीजेपी को जब यह विश्वास हो जाता है कि उसको अब अपने पुराने सहयोगी की ज़रूरत नहीं है तो वह अपने बल पर सत्ता पाने के लिये अपने सहयोगी दल को ठिकाने लगाने में देर नहीं करती। सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार इसी बात को दूसरी तरह से कहते हैं कि भाजपा ही नहीं किसी भी दल को अपने विस्तार का अधिकार है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या इसके लिये नैतिक ईमानदार और स्वस्थ तरीके अपनाये जा रहे हैं या फिर सरकारी मशीनरी जैसे सीबीआई ईडी जैसी शासकीय शक्तियों का दुरूपयोग कर क्षेत्राय छोटे और कम संसाधन और आधार वाले दलों को खत्म किया जा रहा है? यह किसी से छिपा नहीं है कि किस तरह देश में केंद्रीय सत्ता लोकतंत्र कोर्ट मीडिया चुनाव आयोग आदि आज सवालों के घेरे में हैं।         

*(लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक और नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।)*