Thursday 28 July 2016

बच्चे से कीमती आम?

बच्चे की जान से क़ीमती आम!
इक़बाल हिन्दुस्तानी 

यूपी के ज़िला सहारनपुर की थाना मंडी स्थित कटहल कॉलोनी में एक बाग़ है। बाग़ में आम के पेड़ लगे हैं। 12 साल के एक बच्चे गुलबहार ने चुपके से बाग़ के एक पेड़ से आम तोड़ लिया। सब जानते हैं कि बच्चे ऐसी हरकतें अकसर करते ही रहते हैं। चलते वाहन से गन्ना खींचकर भाग जाना बच्चो की आम आदत देखी जाती है। बच्चो के परिवार उनको यह नैतिक पाठ पढ़ाते ही नहीं कि ऐसा करना जुर्म है। उनको पुलिस पकड़ सकती है। उनको जेल भेजा जा सकता है। कम से कम उनके माता पिता को उनके किये की सज़ा ज़रूर मिल सकती है। नही ंतो उनको मौके पर पकड़कर सबक सिखाया जा सकता है। बाग के ठेकेदार फुरकान और उसके बेटों फरमान व शिब्बू ने आम चुराते गुलबहार को रंगेहाथ पकड़ लिया।
   
इसके बाद बाप बेटों ने बच्चे को इतनी बेदर्दी से पीटा कि गुलबहार के घर की बहार हमेशा के लिये गुल हो गयी। मैं सोच रहा था यह ख़बर पढ़कर कि एक बच्चे की जान से एक आम की कीमत हमारे देश में कहीं ज़्यादा है। हालांकि इस तरह से किसी को किसी जुर्म या गुनाह के बहाने पीट पीटकर मार देने की यह कोई पहली घटना नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि इस तरह की घटनायें एकाएक बढ़ क्यों रही हैं? लोग कानून हाथ में क्यों लेने लगे हैं? उनको इस बात का डर क्यों नहीं रहा कि उनको भी उनके किये की सज़ा ज़रूर मिलेगी। आम तोड़ने का मामला तो फिर भी दो चार लोगों के बीच का था। अकसर यह देखा गया है कि जहां कुछ लोगों की भीड़ जुट जाती है।
   
उनको तो पुलिस भी रोकने की ज़हमत नहीं करती। गुजरात के उूना में  चाहे गोकशी के आरोप में पांच दलितों को कार से बांधकर पीटने की घटना हो या यूपी के दादरी में अखलाक को बीफ का आरोप लगाकर जान से मार देने का मामला हो। मुझे तो ऐसा लगता है कि ये घटनायें उस रोग का लक्षण मात्र हैं जो लोगों के दिलो दिमाग पर लंबे समय से कब्ज़ा किये बैठा है। रोग के कारण अलग अलग हैं। लेकिन उसका प्रकटीकरण अकसर हिंसा और अराजकता की शक्ल में ही होता है। मिसाल के तौर पर दलितों अल्पसंख्यकों और महिलाओं को लेकर काफी बड़ी आबादी अपने मन में पूर्वाग्रह रखती रही है। हाल ही में इन पूर्वाग्रहों और भेदभाव की भावना को नेताओं ने सियासी रंग देकर वोटबैंक की ओछी हरकतें कुछ ज्यादा ही करनी शुरू कर दी हैं।
   
हमारे कहने का मतलब यह है कि चाहे धर्म हो जाति हो या लिंग, हमारे समाज में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या मौजूद है। जो इन आधारों पर इंसान इंसान के साथ पक्षपात और अन्याय करते हैं। मेरे एक मित्र तो अकसर कहते हैं कि इस तरह की हरकतें इंसान की नेचर का एक हिस्सा है। उनका यह भी कहना है कि जहां धर्म के नाम पर लोग नहीं लड़ते वहां रंग के नाम पर लड़ने लगते हैं। और जहां काले गोरे का भेद नहीं होता वहां वे अमीर गरीब के नाम पर वर्ग बना लेते हैं। कहने का मतलब यह है कि इंसान का एक दूसरे के साथ अत्याचार और जुल्म करना सदियों से चला आ रहा है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि ऐसा आगे भी चलता रहेगा।
   
लेकिन यह भी सच है कि जब हमारा कानून संविधान और सिस्टम नाकाम होता है तो इस तरह के हिंसक और उग्र लोगों की बन आती है। बहुसंख्यकों में जब हीनभावना या भय की ग्रंथि सक्रिय कर दी जाती है तो वे बेहद आक्रामक हो जाते हैं। उनकी साम्प्रदायिकता और संकीर्णता उग्रता के साथ हिंसक होकर फासिस्ट राज की तरफ बढ़ने लगती है। आज साम्प्रदायिक हिंसक और आतंकवादी सोच के लोग हिंसा को न्यायसंगत बताने की खुलेआम जुर्रत करने लगे हैं। वे फर्जी एनकाउंटर्स को भी सही ठहराते हैं। ऐसे लोग बार बार मिलेट्री राज की भी मांग करते रहते हैं।
   
हमारा मानना है कि ऐसा कुछ ठोस बदलाव किया जाना चाहिये कि जिससे कानून हाथ में लेने वालों को यह डर हमेशा रहना चाहिये कि वे कितने ही ताकतवार और उूंची पहुंच वाले क्यों न हों कानून के हाथ इतने लंबे होते हैं कि किसी कीमत पर वे बच नहीं सकते

Monday 25 July 2016

डॉ. नाइक कट्टरपंथी...

डॉ. नाइक यानी आतंकवाद की नर्सरी!
इक़बाल हिन्दुस्तानी 

मोदी और संघ परिवार से कई मुद्दों पर विरोध होने के बावजूद डा. ज़ाकिर नाइक सहित मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत अभियान और आतंकवाद के खिलाफ हम हर सकारात्मक क़दम पर सरकार का साथ देना देश की एकता और अखंडता के लिये ज़रूरी मानते हैं।
    
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कंडेय काटजू ने डा. नाइक के बारे में चल रही बहस पर कम शब्दों में बहुत माकूल जवाब दिया है। जस्टिस काटजू का कहना है कि बेशक ज़ाकिर नाइक खुद आतंकवादी नहीं हैं। लेकिन वे इस्लाम को लेकर जिस तरह का कट्टरवाद फैला रहे हैं। उससे आतंकवाद पैदा होगा ही। मुस्लिम समाज के कई बुध््िदजीवियों से मेरी इस बात पर चर्चा होती रही है।
  
वे दो ही सवाल दोहराते रहते हैं। एक- डा. ज़ाकिर नाइक इस्लाम की सभी बातों को अगर अपनी योग्यता से सही साबित कर रहे हैं तो इसमें कौन सी गैर कानूनी बात है? दो-संविधान में जब सबको अपने धर्म के प्रचार प्रसार की आज़ादी दी गयी है तो मोदी सरकार नाइक को ही मुस्लिम होने की वजह से क्यों टारगेट कर रही है? मेरे पास दोनों सवालों के जवाब हैं। मैं जानता हूं तर्कसंगत और विवेक सम्मत जवाब होने के बावजूद ज़ाकिर के समर्थक मेरी बात पर कान नहीं देंगे। लेकिन यहां आग लगने से पहले ही चिंगारी पर काबू पाना ज़रूरी है। दरअसल मुस्लिम समाज का बहुत बड़ा वर्ग आज भी इस सच और हकीकत को मानने को तैयार नहीं है कि आज इस्लाम ही नहीं किसी भी धर्म की सौ फीसदी बातों पर अमल नहीं किया जा सकता।
   
ज़ाकिर नाइक धर्म को धंधा बनाकर यही ख़तरनाक खेल खेल रहे हैं। वे जानते हैं कि उनकी बातें तर्कसंगत व्यावहारिक और वैज्ञानिक कसौटी पर खरी नहीं उतर सकतीं। लेकिन वे नाटक ऐसा ही करते हैं। जैसे उनसे ज़्यादा इस्लाम के बारे में दुनिया का कोई भी स्कॉलर कुछ जानता ही न हो। आज के दौर में किसी भी धर्म की सभी बातों को महिमामंडित करना ही कट्टरवाद है। कट्टरवाद से आतंकवाद जन्म लेता है। आस्था किसी की भी हो वह तर्कसंगत हो ही नहीं सकती। जो तर्कसंगत नहीं हो सकता वह सदा के लिये अंतिम नहीं हो सकता। अगर ढाका हमले का एक आतंकी यह बात कबूल कर रहा है कि वह नाइक से बेहद प्रभावित था तो इसके लिये किसी और सबूत की ज़रूरत नहीं है।
   
दरअसल जब नाइक केवल अपने ही धर्म का डंका यह कहकर बजाते हैं कि उनका मज़हब ही पूरी दुनिया में सच्चा और अच्छा है तो यहीं से वे और धर्मों और गैर मुस्लिमों के लिये नफ़रत की नींव रख देते हैं। उनकी बनावटी और आत्मश्लाघा की काल्पनिक  बातें सुनकर किसी भी आम मुसलमान का दिमाग खराब हो सकता है। नाइक के दावों और अन्य धर्मों की खिल्ली उड़ाने से कोई भी नासमझ और मूर्ख मुसलमान पूरी दुनिया में निज़ाम ए मुस्तफा कायम करने का बीड़ा उठा सकता है। देखने सुनने में नाइक अपने आपको यह कहकर पाक साफ बताते हैं कि उनकी बातों का कोई गलत मतलब निकाले तो वे इसमें क्या कर सकते हैं? लेकिन यहां वे एक असली और अहम बात छिपा जाते हैं कि आप उस दावे को आम मुसलमानों के सामने आज रख ही क्यों रहे हो?
   
जिससे कोई आतंकवादी पैदा हो सकता है? नाइक ही नहीं मुसलमानों के बड़े वर्ग को यह कड़वा सच समय रहते स्वीकार कर लेना चाहिये कि मानवता नैतिकता और गैर मुस्लिमों के साथ मिलजुलकर आगे बढ़ना ही आज का सबसे बड़ा धर्म है। मज़हब की जो बातें आज व्यावहारिक नहीं हैं। उनको लागू करने का सपना देखना बंद करना होगा। आज हालात ऐसे बन गये हैं कि केवल यह कहकर मुसलमान पल्ला नहीं झाड़ सकते कि कोई अगर इस्लाम के नाम पर हिंसा कर रहा है तो इससे दुनिया के बाकी मुसलमानों का क्या लेनादेना? सवाल यह है कि दुनिया के और मज़हब के लोग अपने धर्म के नाम पर अगर आतंकी हिंसा नहीं कर रहे तो सारे मुसलमानों से दुनिया आतंकवाद को लेेेकर सवाल भी करेगी, संदेह भी करेगी और मुसलमानों को नफरत और बायकॉट का सामना भी करना पड़ सकता है। इससे बचने को सोषल ब्रेनवाष की तत्काल ज़रूरत है।
 
अजीब लोग हैं क्या खूब मुंसफी की है
हमारे क़त्ल को कहते हैं खुदकशी की है।
 इसी लहू में तुम्हारा सफीना डूबेगा,
 ये क़त्ल नहीं तुमने खुदकशी की है।।  

पाक मॉडल कंदील

कंदील की हत्या भी आतंकवाद ही है!
इक़बाल हिन्दुस्तानी 

मेरी समझ में यह बात नहीं आई कि पाकिस्तान ने हमारे कश्मीर में मारे गये एक आतंकवादी बुरहान वानी की मौत पर तो स्यापा करते हुए एक दिन का शोक मनाया। लेकिन अपने ही देश की एक होनहार और आज़ाद ख़याल बेटी कंदील के लिये एक मिनट का भी शोक नहीं मनाया।

पाकिस्तान की मॉडल कंदील की हत्या उसके ही भाई ने कर दी। हालांकि इस घटना को ऑनर किलिंग का नाम दिया जा रहा है। लेकिन यह आतंकवाद का ही विस्तार है। कंदील जैसी मॉडल अगर यूरूप या किसी अन्य विकसित देश में होती तो वह आज भी ज़िंदा होती। वजह पाकिस्तान जैसे पुरूषप्रधान देशों में महिलाओं को अपने हिसाब से जीने की आज़ादी नहीं है।  

देखने में यह आ रहा है कि पाक में कट्टरपंथियों का एक बड़ा तबका कंदील के हत्यारे उसके भाई के पक्ष में खड़ा हो गया है। वहां पढ़े लिखे जाहिलों की भी कमी नहीं है। इसका अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है। जब पाक के पंजाब के तत्कालीन गवर्नर सलमान तासीर को ईषनिंदा कानून के खिलाफ बोलने पर उनके ही सुरक्षाकर्मी मुमताज़ कादरी ने मारा तो कोर्ट में पेशी पर आने पर उस हत्यारे को हाईकोर्ट के वकीलों ने बाकायदा फूल पेश किये थे। पाक में हालात इतने शर्मनाक और ख़तरनाक हैं कि कादरी को फांसी की सज़ा सुनाने वाले जज को उसी दिन देश से बाहर भागना पड़ा। इससे पहले ऐसे मामलों में मौत की सज़ा सुनाने वाले जजों को आतंकवादियों ने मौत की नींद सुला दिया था।

सोचने की बात यह है कि पाकिस्तानी मॉडल कोई ऐसा काम नहीं कर रही थी। जिसको गैर कानूनी कहा जा सके। अगर ऐसा होता तो उसको कानूनी कार्यवाही करके अब तक जेल भेजा जा चुका होता। इस हत्या को महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय और अत्याचार से जोड़कर देखना भी इसे कमतर मानना होगा। दरअसल यह कट्टरपंथियों की उसी सोच का नमूना है। जिसमें वे ये चाहते हैं कि सब उनके हिसाब से चलें। इसी सोच से ही आतंकवाद पैदा होता है। इसकी ज़द में अब गैर मुस्लिम ही नहीं बल्कि वो मुस्लिम भी बड़े पैमाने पर आ रहे हैं। जिनको कट्टरपंथी अपनी ईमान की परिभाषा के हिसाब से काफिर मानते हैं। शियाओं और अहमदियों को तो वे बहुत पहले गैर मुस्लिम बता चुके हैं।

अफसोस और चिंता की बात यह है कि पाकिस्तान ही नहीं पूरी दुनिया आज तक इस तरह के आतंकवाद का मुकाबला सैनिक तरीके से करने की नाकाम कोशिश कर रही है। सच तो यह है कि आत्मघाती हमलावरों को किसी भी तरह से रोकना नामुमकिन है। होना यह चाहिये कि इस तरह की कट्टर और आतंकी सोच को बदलने के लिये बड़े पैमाने पर वैचारिक अभियान चलाये जाने चाहिये। अगर यह बात किसी के दिमाग में बैठ चुकी है कि कंदील गैर इस्लामी तरीके से मॉडलिंग का बेहया और बेशर्म काम कर रही है तो वह किसी न किसी तरह से कंदील जैसी लड़कियों को आज नहीं तो कल मार ही डालेगा। दुनिया का कोई भी देश अपने यहां कंदील जैसी करोड़ों आज़ाद ख़याल लड़कियों या लोगों के साथ सुरक्षा के लिये पुलिस तैनात नहीं कर सकता।

अब सिर्फ एक उम्मीद बची है कि पाक सरकार ने कंदील के परिवार पर उसके हत्यारे भाई को सज़ा से माफी देने के हक पर रोक लगा दी है। इसके साथ ही वहां के फिल्मकारों कुछ सांसदों और सामाजिक वर्कर्स ने अपराधिक कानून 2004 में संशोधन की मांग तेज़ कर दी है।

उसूलों पर जो आंच आये तो टकराना ज़रूरी है,
जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है।

नई नस्लों की खुद मुख़्तारियों को कौन समझाये
कहां से बचके चलना है कहां जाना ज़रूरी है।

Tuesday 5 July 2016

कैराना और भाजपा

कैराना ज़रूरी है, भाजपा की मजबूरी है!
इक़बाल हिन्दुस्तानी 

भाजपा ने यह बात साफ कर दी है कि यूपी में कैराना उसका चुनावी मुद्दा ज़रूर रहेगा। हालांकि भाजपा के इस दावे की पोल खुल चुकी है कि कैराना कोई हिंदू मुस्लिम समस्या है। लेकिन भाजपा की भी अपनी मजबूरी है। सबको पता है कि चुनाव में भावनात्मक साम्प्रदायिक और जातीय मुद्दे सबसे ज्यादा असर करते हैं। भाजपा को यह भी पता है कि 2014 के चुनाव में मुजफ्फरनगर का दंगा उसके बहुत काम आया था। हम यह नही कह सकते कि दंगा भी अकेले भाजपा की देन था। लेकिन इस बात से खुद भाजपा भी इनकार नहीं कर सकती कि उसने यूपी में उस दंगे को विकास से भी बड़ा मुद्दा बनाया था। गुजरात के चुनाव में भी गोधरा के बाद हुए दंगे उसकी जीत में बहुत बड़ी वजह साबित हुए थे।
   
इतिहास में थोड़ा और पीछे चलें तो हम पायेंगे कि बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि विवाद को तूल देने के बाद ही भाजपा की यूपी में पूर्ण बहुमत की पहली सरकार बनी थी। यही राममंदिर का मुद्दा था। जिससे भाजपा लोकसभा की अपनी 2 सीटों को एक ही झटके में बढ़ाकर 88 तक ले जाने मेें सफल रही थी। इतना ही नहीं ‘‘रामलला हम आयेंगे, मंदिर वहीं बनायेंगे’’ के नारे का ही असर था कि भाजपा केंद्र में अपनी ताकत बढ़ाते बढ़ाते अटल जी के नेतृत्व में पहली सरकार बनाने में भी सफल हो गयी थी। हालांकि मोदी की पहली पूर्ण बहुमत की केंद्र सरकार बनने में उनका विकास का मुद्दा भी अहम रहा है।
   
ये सारी बातें गिनाने का हमारा मकसद यह है कि हम सबको यह बात समझनी चाहिये कि कैराना जैसे मुद्दे उठाना और फिर उनकी हवा निकलने के बावजूद उनको ज़िंदा रखना और चुनाव में कैश करना भाजपा जैसी पार्टियों की मजबूरी है। अगर भाजपा का विकास का मुद्दा इतना ही लोगों को अपील करता तो भाजपा दिल्ली बिहार और बंगाल में औंधे मुंह ना गिरती। हालांकि वह हारी तो केरल और तमिलनाडु में भी है। लेकिन वहां उसका वोट शेयर बढ़ा है। सवाल यह है कि भाजपा ने अब तक कौन से राज्यों में ऐसा विकास मॉडल पेश किया है? जिसकी दुहाई देेकर वह यूपी को फतह करने का सपना पाले? वह जानती है कि उसके पास न तो विकास का कोई आदर्श मॉडल है और न ही वह चुनाव जीतकर उसको कहीं लागू कर पाई है।
   
भाजपा का एक ही खेल है कि कांग्रेस और सेकुलर दलों को हिंदू विरोधी होने का प्रचार लगातार जारी रखो। यह एक सूत्री फार्मूला उसका उन राज्यों में चल भी गया है। जहां जहां कांग्रेस की सरकारें थीं। लेकिन क्षेत्रीय दलों और आम आदमी पार्टी ने उसके प्रोपेगंडे की ऐसी तैसी कर दी है। जिस गुजरात के विकास की भाजपा दुहाई देकर सेंटर में सत्ता में आई है। उसके बारे में लोगों को अब यह सच धीरे धीरे समझ में आ रहा है कि गुजरात तो पहले से ही विकसित राज्यों की श्रेणी में रहा है। इसके बावजूद अब वे कमियां और कमजोरियां भी एक एक कर सामने आ रही हैं। जो भाजपा के गुजरात मॉडल की पोल खोल रही हैं।
   
अगर वास्तव में मोदी जी ने गुजरात का रातो रात कायकल्प किया था तो क्या वजह है कि दो साल बाद भी केंद्र की सत्ता में आने के बाद भाजपा आम जनता को यह अहसास नहीं करा पा रही है कि देश में कितने अच्छे काम हो रहे हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी के मोर्चे पर कुछ भी बदलता नज़र नहीं आ रहा है। मोदी आज भी देश की सारी बुराइयों के लिये कांग्रेस और विपक्ष को कोसते रहते हैं। जिससे ऐसा लगता है कि वे अभी भी चुनाव मोड में हैं। इसी से विकास नहीं कैराना ज़रूरी है।
 
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं
बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार।
 

Sunday 3 July 2016

व्हाट्सऐप पर रोक नहीं

वॉट्सऐप पर सुप्रीम कोर्ट ने सही किया!

व्हाट्सएप पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने से मना कर दिया है। सरकार की तरफ से तो ऐसी कोई कोशिश ही नहीं की गयी। कोर्ट में इस मामले में पीआईएल दाखि़ल करने वाले का कहना था कि देशहित में इस पर रोक लगानी ज़रूरी है। इसका कारण व्हाट्सएप का पिछले दिनों अपने संदेशों को ऐसी तकनीक में बदल देना है। जिससे सरकार या सुरक्षा एजेंसियां चाहें भी तो इनको बीच में पढ़ नहीं सकती। अगर व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा के हिसाब से देखा जाये तो यह ठीक ही है। लेकिन याचिका कर्ता की चिंता इस बात को लेकर थी कि ऐसा होने से सुरक्षा एजेंसियां उन संदेशों को भी बीच में नहीं पढ़ पायेंगी जिनसे देश की एकता अखंडता को ख़तरा है।
   
जाहिर बात है कि आतंकवादी और देशविरोधी शक्तियां इस सुविधा का गलत इस्तेमाल कर सकती हैं। इसमें कोई शक की गुंजायश नहीं है। लेकिन एक सच और है जो सुप्रीम कोर्ट ने शायद याचिका की सुनवाई के पहले दिन ही समझ लिया। वह यह कि अभिव्यक्ति के आज़ादी के जोखिम भी होते हैं। दूसरी बात यह है कि आज के दौर में हम सरकार से भी यह आशा नहीं कर सकते कि वह जानकारी मनोरंजन और अभिव्यक्ति के इतने बड़े साधन को अपने बल पर बैन कर दे। नेट न्यूट्रालिटी को कुछ मोबाइल कम्पनियों द्वारा खत्म करने को लेकर पिछले दिनों जब यह ख़बर आई कि सरकार भी उनकी राय से सहमत हो रही है तो पूरे देश में हंगामा मच गया था।
   
हालत यह हो गयी कि सरकार को तत्काल संसद में यह सफाई देनी पड़ी कि उसका ऐसा करने का कोई इरादा नहीं है। उसके बाद इस मुद्दे पर लीपापोती के लिये एक परामर्श कमैटी बनी लेकिन उसकी रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। व्हाट्सएप पर रोक का मामला नेट के मामले से बहुत बड़ा मामला है। आज देश के करोड़ों लोग व्हाट्सएप की वजह से ही नेट का इस्तेमाल करना सीखें हैं। अगर व्हाट्सएप पर सरकार रोक लगा दे तो नेट का इस्तेमाल आध्ेा से भी कम रह जायेगा। दूसरी बात व्हाट्सएप का  नियंत्रण विदेश में है। जिससे सरकार इस बारे में ज़्यादा कुछ चाहकर भी नहीं कर सकती। तीसरी बात व्हाट्सएप ही नहीं नेट से जुड़ी हर सुविधा के साथ यह जाखिम है कि उसका दुरूपयोग हो सकता है।
    
फेसबुक और यूट्यूब को लेकर कई बार ऐसी ख़बरें आई हैं। जिनसे पता चलता है कि तालिबान आईएसआईएस और अलकायदा जैसे आतंकी संगठन इनका अकसर गलत इस्तेमाल कर लेते हैं। सरकार के पास जानकारी यहां तक है कि कुछ आतंकी गिरोह तो नेट के जरिये ही युवाओं को गुमराह करने और उनको आत्मघाती हमले करने के लिये उकसाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि सरकार किस किस नेट के एप को बंद करेगी? तालिबान और आईएसआईएस ने यूट्यूब पर कुछ वीभत्स और हिंसक वीडियो अपलोड किये हैं। उनको देखकर रूह कांप जाती है। लेकिन नेट के इन संचालकों का कहना है कि किसी के वीडियो अपलोड करने से पहले वे यह नहीं जान सकते कि कौन क्या अपलोड करने जा रहा है?
   
अजीब बात यह है कि जब सरकार को इसकी शिकायत मिलती है तब तक ऐसे वीडियो वायरल हो जाते हैं। हमें यह देखना चाहिये कि यूपी के मुज़फ्फरनगर दंगे में विदेश के एक हिंसक वीडियो को यहां का बताकर एक पार्टी के फायरब्रांड विधायक ने लोगों को उकसाया गया था। लेकिन आज तक ऐसा करने वालों का बाल भी बांका नहीं हुआ है, आखि़र क्यों? ज़रूरत इस बात की है कि अपराधी को जल्दी सज़ा मिले। 
 
हादसों की ज़द पे हैं तो क्या मुस्कराना छोड़ दें
ज़लज़लों के खौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें