Thursday 18 January 2024

संविधान दिवस

संविधान दिवस मनाने से नहीं अमल करने से बचेगा लोकतंत्र!

 _0 कुछ लोगों को लगता है कि साल में एक दिन 26 जनवरी को हम अगर संविधान दिवस मनाते हैं तो इससे हमारे देश में लोकतंत्र सुरक्षित है। एक वर्ग है जिसको लगता है कि चुनाव जीतने या किसी पद पर आसीन होने पर अगर संविधान की शपथ ली है तो देश में गणतंत्र है। अनेक व्यक्तियांे का एक और समूह है जिसको यह खुशफहमी है कि पांच साल में एक बार अगर हम मतदान कर रहे हैं तो देश में जनतंत्र है। लेकिन सच यह है कि जीवंत लोकतंत्र के लिये समान अवसर वाला विपक्ष अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ मीडिया बिना सरकार के दबाव के काम करने वाली स्वतंत्र न्यायपालिका कानून के हिसाब से निष्पक्ष काम करने वाली पुलिस व प्रशासन अनिवार्य हैं। क्या ऐसा है?_    
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
देश स्वतंत्र होने के बाद से ही कांग्रेस लोकतांत्रिक तीरके से सरकार चलाने की बजाये हाईकमान कल्चर की ओर उन्मुख होने लगी थी। जब इंदिरा गांधी पीएम बनी तो यह मनमानी और तेज़ी से बढ़ी और राजीव गांधी के पीएम बनने के बाद तो इस परिपार्टी को पर लग गये। इसके बाद बीच बीच में जब जब जनता पार्टी जनता दल और संयुक्त मोर्चा की विपक्षी सरकारें बनी वे अति लोकतंत्र या कहंे अपने अंतरविरोध के चलते कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। इसके बाद एनडीए और यूपीए की गठबंधन सरकारों का दौर आया लेकिन इनमंे भी सबसे बड़े दल के हाईकमान और आरएसएस का गैर संवैधानिक दख़ल लगातार बना रहा। लेकिन 2014 के बाद जब भाजपा के बहुमत की मोदी सरकार बनी तो कहानी पूरी तरह से संघ और मादी के हाथों लिखी जाने लगी। कहने को आरएसएस स्वयं को सांस्कृतिक यानी गैर राजनीतिक संगठन होने का दावा करता है लेकिन सबको पता है कि आज भाजपा को संघ ही नियंत्रित करता है। 
संविधान कहता है कि हमारा देश संसदीय प्रणाली से चलेगा। संसद में जिसके पास आधे से अधिक सांसद होंगे वे अपना नेता चुनेंगे। इसके बाद राष्ट्रपति उसको पीएम की शपथ दिलायेंगे। लेकिन भाजपा ने चुनाव से पहले ही पीएम पद का दावेदार मोदी को घोषित कर दिया था। यानी उसने संसदीय चुनाव को व्यवहारिक रूप से एक तरह से राष्ट्रपति प्रणाली में बदल दिया। हद यह हो गयी कि पीएम मोदी राज्यों में होने वाले चुनावों में अपनी छवि पर वोट मांगने लगे। जबकि सबको पता होता है कि किसी भी स्टेट में भाजपा के जीतने पर भी मोदी सीएम नहीं बनेंगे। ऐसे ही हमारा संविधान धर्म जाति और क्षेत्र से उूपर उठकर सेकुलर राष्ट्र की बात करता है लेकिन व्यवहार में हम देख रहे हैं कि आज देश में क्या हो रहा है? किस तरह हो रहा है? कैसे केवल विपक्ष गरीब कमज़ोर दलित आदिवासी और अल्पसंख्यकों को टारगेट किया जा रहा है? किस बेशर्मी से मीडिया सरकार की गोद में बैठा है? कैसे कोर्ट चुनाव आयोग सतर्कता आयोग अनुसूचित जाति आयोग मानवधिकार आयोग महिला आयोग अल्पसंख्यक आयोग आयकर विभाग सीबीआई और ईडी जैसी संवैधानिक स्वायत्त संस्थायें सरकार के इशारे पर काम करती नज़र आती हैं? 
सरकार ने विपक्ष के लिये लेविल प्लेयिंग फील्ड ही खत्म कर दी है। वह विपक्ष को गांधी जी के तीन बंदरों में बदलना चाहती है जो देखना बोलना और सुनना बंद कर दे। उसे संसद में बोलने प्रश्न उठाने और सरकार को घेरने का पहले की तरह संवैधानिक अधिकार समान रूप से नहीं देने का आरोप विपक्ष लगातार लगा रहा है। यहां तक कि सरकार का कार्यकाल खत्म होेन जा रहा है लेकिन आज तक विपक्ष का राज्यसभा में डिप्टी चेयरमैन तक नहीं बना है। पक्षपात की हालत यह है कि संसद टीवी विपक्ष के सांसदों को बोलते हुए अकसर दिखाने से परहेज़ करता है। उसका रूख़ सत्ताधरी दल या संसद की इमारत की तरफ ही अधिकतर देखा जाता है। ऐसे ही सरकार ने बिना विपक्ष को विश्वास में लिये बिना सर्वदलीय बैठक बुलाये और बिना संसद में विशेष चर्चा के चार घंटे के नोटिस पर नोट बंदी फिर देशबंदी और आननफानन में जीएसटी लागू कर दिया। 
किसानों के खिलाफ बिना उनसे चर्चा किये तीन कड़े कानून पास कर दिये गये जबकि ज़बरदस्त विरोध के बाद उनको वापस लेना पड़ा। यही वजह थी कि पांच साल में जीएसटी में 129 संशोधन और 741 नई अधिसूचनायें जारी करनी पड़ीं। डाटा प्रोटैक्शन एक्ट मात्र 52 और 67 मिनट की औपचारिक चर्चा के बाद लोकसभा और राज्यसभा से पास कर दिया गया जबकि इन पर क्रमशः 9 और 7 सांसद ही चर्चा में हिस्सा ले पाये। इसी तरह तीन अपराधिक कानून जल्दबाजी में संसद में पास कर दिये गये। यह ऐसे समय किया गया जब संसद से 146 विपक्षी सांसद निलंबित थे। ये लगभग 34 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसा लगा मानो सरकार इस मौके का इंतज़ार कर रही थी। इस मामले में वरिष्ठ कांग्रेस नेता चिदंबरम के नेतृत्व में बनी संसदीय समिति के किसी भी सुझाव या आपत्ति पर सरकार ने कान नहीं दिये।   
ऐसे ही ड्राइवरों के खिलाफ हिट एंड रन को लेकर बेहद खतरनाक कानून बना दिया गया जो उनकी बार बार बात सुने जाने की मांग को नकारने से आंदोलन के बाद सरकार को घुटने टेकने पड़े। संविधान से चलने वाले किसी लोकतांत्रिक देश में ऐसे मनमाने तानाशाह और एकतरफा कानून कैसे पास किये जा सकते हैं? प्रिजन स्टेटिक्स आॅफ इंडिया रिपोर्ट 2021 बताती है कि जेलों में बंद कुल लोगों में 77 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं। विपक्षी राज्यों सरकारों के विध्ेायक राज्यपाल पास नहीं करते हैं। केरल और पंजाब सरकारें इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ने को मजबूर हैं। विपक्षी सरकारें गिराकर भाजपा के समर्थन या उसकी अपनी बनी सरकारों के स्पीकर दलबदल कानून पर सालों तक कोई निर्णय ही नहीं देते हैं। 2014 से पहले किसी भी नये कानून पर जनता से पब्लिक डोमेन में आपत्ति विचार और सुझाव मांगे जाते थे। वह सिलसिला भी अब बंद सा हो गया है।  पहले 72 प्रतिशत विध्ेायक संसदीय समिति के पास विचार के लिये भेजे जाते थे। 
अब मात्र 16 प्रतिशत कानूनों के मामले में ही ऐसा होता है। उसमें भी अधिकांश में मोदी सरकार उन सुझावों को अनदेखा कर देती है क्योंकि ऐसी संसदीय समिति में विपक्ष भी शामिल होता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त किये गये राजद्रोह कानून को खत्म कर बैकडोर से उससे भी खतरनाक देशद्रोह कानून लाया गया है। देश को पुलिस स्टेट बनाने के विपक्ष के आरोपों के बीच पुलिस को किसी को भी हिरासत में लेकर 15 दिन की बजाये 90 दिन तक कस्टडी में रखने का अधिकार दिया जा रहा है। लेख लंबा हो रहा है वर्ना यहां ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे ऐसा लगता है कि सरकार संविधान को पवित्र ग्रंथ मानकर उसको सम्मान का  दिखावा अधिक कर रही है जबकि उस पर अमल नहीं हुआ तो हमारा लोकतंत्र कमज़ोर होता जायेगा।      

 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 11 January 2024

ईवीएम/वीवीपेट

इवीएम पर विपक्ष की आशंकायें दूर क्यों नहीं करता चुनाव आयोग? 
 _0 किसी भी देश में लोकतंत्र के लिये चुनाव होना अनिवार्य है। साथ ही चुनाव की निष्पक्षता और सबको समान अवसर उपलब्ध कराना भी चुनाव आयोग की ज़िम्मेदारी होती है। इतना ही नहीं चुनाव की निष्पक्षता पारदर्शिता और विश्वसनीयता बनाये रखना सरकार का संवैधानिक उत्तरदायित्व है। लेकिन जिस मनमाने ढंग से पिछले दिनों सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को चुनाव आयुक्त चुनने वाली कमैटी से बाहर कर उनकी जगह एक वरिष्ठ मंत्री मनोनीत करने का कानून बनाया जिसमें पीएम और विपक्ष का नेता दूसरे दो सदस्य होते हैं, उससे यह प्रक्रिया शक के दायरे में आ गयी है। इसके साथ ही विपक्ष जिस तरह से इवीएम पर बार बार उंगली उठा रहा है, वह भी हमारे संविधान लोकतंत्र और चुनाव आयोग की ईमानदारी के लिये चिंता का विषय है।_    
    *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
     चुनाव आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार को पिछले दिनों इंडिया घटक के सबसे बड़े दल कांगे्रस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक पत्र लिखकर इवीएम और वीवीपेट पर चर्चा के लिये समय मांगा था। लेकिन चुनाव आयोग ने उनकी बात सुनकर चुनाव व्यवस्था में कोई आमूलचूल परिवर्तन तो दूर की बात है। उनको अपने विचार रखने का अवसर तक देना गवाराह नहीं किया। दरअसल इंडिया गठबंधन सभी इवीएम का सौ प्रतिशत वीवीपेट से मिलान की व्यवस्था चाहता है। वीवीपेट यानी वोटर वेरिफियेबिल पेपर आॅडिट ट्रायल वो सिस्टम है जिसमें मतदाता जब अपना वोट इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में बटन दबाकर डालता है तो पास में रखी एक अन्य मशीन वीवीपेट में यह दिखता है कि वोटर ने अपना वोट जिस प्रत्याशी को कास्ट किया वह उसी को गया। इवीएम को लेकर आज इंडिया विपक्ष या कांग्रेस ही नहीं एक समय था जब खुद भाजपा भी संदेह जताती थी। 
आईटी से जुड़े उसके वरिष्ठ नेता नरसिम्हा ने तो इवीएम के खिलाफ बाकायदा लंबा अभियान चलाते हुए एक किताब तक लिख दी थी। इवीएम में गड़बड़ी होती है या नहीं इस बारे में तब तक कोई दावे से नहीं कह सकता जब तक कि इस आरोप को सही साबित नहीं कर दिया जाता। हालांकि जानकार दावा करते हैं कि जिस मशीन या चिप को नेट से नहीं जोड़ा गया है उसको हैक नहीं किया जा सकता लेकिन तकनीकी विशेषज्ञ इस मुद्दे पर अलग अलग राय रखते हैं कि किसी भी इलैक्ट्राॅनिक डिवाइस को इस तरह से सेट किया जा सकता है कि उसमें पड़ेे वोट इधर से उधर कर दिये जायें। अमेरिका इंग्लैंड और कई यूरूपीय देशों सहित यही वजह है कि विदेशों में चुनाव वापस बैलेट पेपर से कराये जाने लगे हैं। हालांकि इससे यह साबित नहीं होता कि इवीएम में गड़बड़ी हो रही थी लेकिन इतना ज़रूर है कि उन देशों ने अपनी जनता और सभी दलों को विश्वास में लेने और चुनाव की विश्वसनीयता बहाल करने को यह कदम उठाया है। इंडिया गठबंधन भी चुनाव आयोग से यही चाहता था कि वह वोटों की गिनती इवीएम में पूरी होने के बाद सौ प्रतिशत वीवीपेट का मिलान उसकी पर्ची गिनकर इवीएम से कराये। लेकिन चुनाव आयोग ने इस बारे में केवल एक जवाबी पत्र लिखकर अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है। लेकिन इससे इवीएम पर शक और भी गहरा गया है। उधर दिल्ली में जंतर मंतर पर सुप्रीम कोर्ट के कुछ वकीलों और समाजसेवियों ने एक इवीएम और वीवीपेट का प्रदर्शन करते हुए यह आरोप लगाया है कि इसमें गड़बड़ी संभव है। उन्होंने बाकायदा इवीएम में वोट डालकर यह दिखाया कि वोट किसी और को किया गया और वह किसी और चुनाव चिन्ह पर गया। उनका यह भी दावा है कि पहले वीवीपेट में दिये गये वोट की पर्ची 15 सेकंड तक दिखती थी लेकिन अब वह केवल 7 सेकंड ही दिखती है। उनका यह भी कहना है कि पहले वीवीपेट का शीशा सफेद पारदर्शी था जो अब बदलकर काला कर दिया गया है। पर्ची देखने के लिये वीवीपेट में लाइट जलती है। उनका दावा है कि ये सारे परिवर्तन चुनाव में धांधली करने का शक पैदा करते हैं। इनकी यह सब विवादित बातें भी चुनाव आयोग ने नकार दी है। लेकिन यह गड़बड़ी नहीं हो सकती या बदलाव क्यों किये गये इसका सार्वजनिक रूप से आयोग ने कोई स्पश्टीकरण देना ज़रूरी नहीं समझा। अगर इवीएम का इतिहास देखें तो यह बहुत पुराना नहीं है। 2010 में वीवीपेट का विचार पहली बार सामने आया। उस समय चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों के साथ बैठक कर चुनाव को अधिक पारदर्शी बनाने को विचार विमर्श किया था। वीवीपेट को पहली बार नागालैंड की नोकसेन विधानसभा क्षेत्र के चुनाव में 2013 में प्रयोग किया गया। इसके बाद अन्य क्षेत्रों में इसे चरणबध्द तरीके से इस्तेमाल कर बढ़ाते हुए 2019 के आम चुनाव में सभी बूथों पर लगाया गया। इवीएम की विश्वसनीयता को लेकर बार बार उठने वाले विवाद पर चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में 2018 में अपना जवाब दाखिल करते हुए दावा किया कि उसने भारतीय सांखिकीय संस्थान से इसका गणितीय व्यवहारिक और सटीकता का आंतरिक आॅडिट कराया है जिसमें यह पूरी तरह सही साबित हुयी है। इसके बावजूद विभिन्न राजनीतिक दल आयोग से वीवीपेट का 10 से लेकर 100 प्रतिशत ईवीएम से मिलान की अपनी पुरानी मांग पर कायम रहे। फरवरी 2018 में चुनाव आयोग ने विपक्ष द्वारा भारी विरोध करने पर वोटों की गिनती के बाद एक विधानसभा क्षेत्र से पर्ची डालकर आये नंबर की बूथ वाली केवल एक वीवीपेट का मिलान उसके साथ लगी इवीएम से कराने की व्यवस्था शुरू की। विपक्षी नेता चन्द्रबाबू नायडू द्वारा सुप्रीम कोर्ट मंे इसके खिलाफ जनहित याचिका दायर करने के बाद सबसे बड़ी अदालत ने एक की जगह पांच बूथ की वीवीपेट का मिलान इवीएम के साथ ज़रूरी कर दिया। लेकिन विपक्ष इससे भी संतुष्ट नहीं हो सका। उधर चुनाव आयोग ने विपक्ष के बढ़ते दबाव को देखते हुए मार्च 2019 में इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टिट्यूट   से अपने स्तर पर मतदान के बाद 479 इवीएम का मिलान वीवीपेट से कराने पर पूरी तरह ठीक पाये जाने का दावा किया। लेकिन यह काम गोपनीय तरीके से केवल चुनाव आयोग की निगरानी में विपक्ष की गैर मौजूदगी में होने से विरोधी दल अपने विरोध पर अडिग रहे। इससे पहले एक बार चुनाव आयोग ने इवीएम पर शक करने वाले विपक्षी दलों को सार्वजनिक रूप से इवीएम को हैक करके दिखाने की चुनौती देते हुए इवीएम भी उनके सामने पेश की थी लेकिन उनको इवीएम छूने नहीं दी थी जिससे वे अपने आरोपों को सही साबित नहीं कर सके और आयोग की इस बैठक का बहिष्कार कर आये थे। चुनाव आयोग सारे वीवीपेट का मिलान सभी इवीएम से कराने की विपक्ष की मांग का तरह तरह के बहाने बनाकर जब जब टालमटोल करता है। तब तब इवीएम पर शक के बादल और गहरे मंडराने लगते हैं। अभी भी चुनाव आयोग विपक्ष की मांग का कोई तार्किक वाजिब या प्रमाणिक जवाब ना देकर यह दावा कर रहा है कि उसने अब तक रेंडमली 38156 वीवीपेट का मिलान इवीएम से खुद कराया है जिसमें गिनती समान और बिल्कुल ठीक पायी है। यही बात आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में अपना पक्ष रखते हुए कही थी कि उसने भारतीय संखिकीय संस्थान से 4000 से अधिक विधानसभा क्षेत्रों के चुनाव की 20600 वीवीपेट का मिलान आज तक कराया जिसमें से एक में भी गिनती का अंतर नहीं आया है। चुनाव आयोग अपने बचाव में एक बात और बार बार दोहराता है कि बैलेट पेपर से चुनाव या फिर शत प्रतिशत वीवीपेट का मिलान इवीएम से कराने पर बहुत अधिक समय और कर्मचारियों की आवश्यकता होगी। लेकिन यहां वह यह भूल जाता है कि आज भी वोट डाले जाने के बाद कई राज्यों में वोटों की गिनती एक एक माह बाद होती है। जिससे चुनाव परिणाम आने में दो चार दिन अगर और अधिक लग जायें या और कर्मचारी लगाने पड़ जायें तो इससे कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा बल्कि चुनाव की निष्पक्षता ईमानदारी और विश्वसनीयता बहाल होगी जो सबसे ज़रूरी है।     
*नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Friday 5 January 2024

हिट एंड रन कानून

*हिट एंड रन कानून पर तक़रार, आखि़र क्यों झुकी सरकार ?* 
 _0 आमतौर पर यह माना जाता है कि मोदी सरकार एक बार कोई फैसला कर ले तो वह फिर झुकती नहीं। लेकिन पहले किसानों को लेकर बने तीन कानून वापस लेने और अब ड्राइवरों को लेकर बने नये हिट एंड रन कानून के विरोध के बाद हुयी देशव्यापी हड़ताल के सामने सरकार को एक बार फिर झुकना पड़ा है। हालांकि यह लोकतंत्र के लिये अच्छा ही हैै। लेकिन सवाल यह है कि जब दिसंबर के अंतिम सप्ताह में आॅल इंडिया मोटर ट्रांस्पोर्ट कांग्रेस ने सरकार से इस विवादित कानून के बारे में विरोध दर्ज करते हुए बातचीत की पेशकश की तो सरकार ने उसको कोई भाव नहीं दिया लेकिन जब मामला आंदोलन की शक्ल मंें सड़कों पर आया तो सरकार तभी क्यों झुकी?_      
   *-इक़बाल हिंदुस्तानी* 
     बुलंदी पर उन्हें मिट्टी की खुश्बू तक नहीं आती,
    ये वो शाखें़ हैं जिनको अब शजर अच्छा नहीं लगता।
          ट्रक व टैंकर चालकों के तीन दिन के देशव्यापी विरोध प्रदर्शन ने हाहाकार मचा दिया और सरकार नये बने हिट एंड रन कानून को लागू ना करने पर फिलहाल राज़ी हो गयी। एक बार फिर यह साबित हो गया कि यह सरकार भी झुकती है लेकिन झुकाने वाले चाहिये। हालांकि हिट एंड रन यानी मारो और भाग जाओ कानून मंे सतही तौर पर देखने में कोई बुराई नज़र नहीं आती लेकिन ड्राइवरों के पक्ष को सुना जाये तो उनकी आशंका डर और आपत्ति में भी दम नज़र आता है। आमतौर पर यही देखा जाता है कि जब भी रोड पर कोई एक्सीडेंट होता है तो सबसे पहले ड्राइवर और वह भी बड़े वाहन के चालक को कसूरवार मानकर चला जाता है। यही वजह है कि वहां मौजूद भीड़ बिना सच असली वजह और गल्ती जाने मौके पर ही ड्राइवर को पीटना शुरू कर देती है। अगर दो चालकों का आमने सामने का हादसा हो तो बड़े वाहन के चालक को यह मानकर पीटा जाता है कि उसी की गल्ती रही होगी। हालत यह है कि पुलिस भी अपनी जांच को इसी धारणा से आगे बढ़ाती है कि पैदल यात्री घायल या मरा है तो वाहन वाले की गल्ती ही होगी। जबकि कई बार खुद पैदल चलने वाला या छोटे वाहन वाला भी भूल से बड़े वाहन के सामने गलत साइड से ओवरटेक करता हुआ सड़क खराब होने या तकनीकी कमी से आ जाता है। यह भी होता है कि टक्कर मारने वाले वाहन के अचानक ब्रेक फेल होना पहिया निकल जाना टायर फट जाना ब्रेक की जगह धोखे से एक्सीलेटर दब जाना चालक को नींद का झोंका आ जाना बेहोश हो जाना हार्टअटैक या ब्रेन स्ट्रोक हो जाना कोहरा आने से दिखाई ना देना सड़क में गड्ढा या स्पीड ब्रेकर और सामने बच्चा या जानवर आ जाते हैं। पहले हिट एंड रन मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 304 ए , 338 और 279 का इस्तेमाल होता रहा है। इसमें दो साल की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है। इसके साथ ही मोटर वाहन अधिनियम 1988 की धारा 161 व 134 ए बी भी हिट एंड रन केस में प्रयोग की जाती रही है। इसमें लापरवाही से वाहन चलाते हुए किसी को मार देने पर 25000 और घायल को 12500 रूपये हर्जाना देने का प्रावधान है। अब तक समस्या यह आ रही थी कि लापरवाही से एक्सीडेंट करने वाला चालक मौके से भाग जाता था। इससे घायल को उपचार ना मिलने से उसकी जान जाने का ख़तरा भी बढ़ जाता है। साथ ही सुनसान जगह या रात का समय होने की वजह से अधिकांश हादसों में आरोपी चालक के खिलाफ गवाह और सबूत भी नहीं मिल पाते हैं। हालांकि जहां लोग एक्सीडेंट के प्रत्क्षदर्शी होते भी हैं वे घायलों को बचाने  चिकित्सा दिलाने या उनके परिवार को सूचित करने मंे तो सहायत करते हैं लेकिन घटना का गवाह बनना वे पसंद नहीं करते। अलबत्ता कभी कभी आसपास के लोग एक्सीडेंट करके भाग जाने वाले की गाड़ी का नंबर या दुर्घटना की सूचना पुलिस को दे देते हैं। लेकिन वे भी इस बात से डरे रहते हैं कि उनको मानवता संवेदनशीलता और सामाजिकता की कीमत कहीं लंबे कानूनी मामलों में फंसकर ना चुकानी पड़ जाये। हर सड़क या गली मुहल्ले में तो छोड़ दीजिये नेशनल हाईवे पर भी सब जगह कैमरे नहीं लगे होते जिससे एक्सीडेंट करने वाले चालक व उसके वाहन को हिट एंड रन के बाद आराम से तलाश किया जा सके। सूचना देने पर कई बार पुलिस और एंबुलैंस भी घंटो तक नहीं आती। इतनी अधिक देर होने का अनुचित लाभ आरोपी वाहन चालक उठाकर दूर निकल जाता है। नये कानून में एक और पंेच है कि हम केवल सड़क पर चलने वाले वाहन चालकों से यह आशा कर रहे हैं कि अगर उसके पास दो विकल्प हैं कि या तो वह मौके से भाग जाये जिससे उसको सज़ा ना मिले या फिर वह घायल को इलाज दिलाने के लिये अस्पताल ले जाये और खुद अपने खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने को पुलिस को एक्सीडेंट की ख़बर करे तो वह वही विकल्प चुनेगा जिसमें वह अधिक सुरक्षित महसूस करेगा। रहा ख़बर खुद देने पर उसको कम सज़ा देने का मामला तो यह अदालत के विवेक पर निर्भर करेगा। कानून में ऐसी कोई स्पश्ट गारंटी नहीं है जिससे उसको पुलिस को सूचना देने और घायल को इलाज दिलाने पर कम सज़ा हर हाल में मिलना तय हो। दूसरी बात जब चालक को भागने पर बच जाने का अधिक भरोसा हो तो वह किसी की जान बचाने को क्यों अपनी जान ख़तरे में डालेगा? आरोपी को यह भी पता होता है कि हादसे की ख़बर देने पर उसको सौ फीसदी सज़ा मिलना तय है। आरोपी चालको को छोड़कर अगर समाज के दूसरे लोगों की बात करें तो क्या ऐसे मामलों में वे पुलिस को ख़बर देते हैं जिनमें उनको पता होता है कि अगर मामला कानून के दायरे में आया तो उनको भी सज़ा हो सकती है? लोग प्रोपर्टी खरीदने के दौरान स्टांप कम लगाते हैं। इनकम टैक्स जीएसटी चुराते हैं। बिजली चोरी करते हैं। बिना टिकट सरकारी रेल बस सेवाओं में यात्रा करते हैं। हालांकि वे भी ऐसा करके कानून के खिलाफ ही काम कर रहे होते हैं। हमारे कहने का मतलब यह है कि जहां हम जुर्म करके भी कानून से बच सकते हैं। वहां वाहन चालकों का ही नहीं हम सबका यही रूख़ होता है। लेकिन एक्सीडेंट के मामलों में घायलों को मरने के लिये सड़क पर छोड़ देने से उनकी जान जाने का नुकसान इस अपराध को अधिक गंभीर बना देता है। इसका मतलब यह हमारी सामाजिक समस्या भी है। हमारा नैतिक पतन हो चुका है। हम धर्म का बहुत दिखावा करते हैं। लेकिन ऐसे में हम खुद भगवान से भी नहीं डरते। कहने का मतलब यह है कि कानून सख्त करने के साथ समाज में यह जागरूकता नैतिकता और मानवीयता भी लानी होगी जिससे कोई इंसान सज़ा भुगतने के डर से किसी दूसरे की जान को ख़तरे में डालना अपराध के साथ ही पाप अमानवीय अनैतिक और असामाजिक भी समझने लगे। साथ ही पुलिस को भी यह पाठ पढ़ाना होगा कि वह ऐसे मामलों में कानून के हिसाब से निष्पक्ष जांच करे और किसी बेकसूर को ना फंसाकर कसूरवार से फीलगुड कर मामले को दबाना या घुमाना उसको भी विभागीय कार्यवाही की सज़ा दिला सकता है।            
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*