Saturday 19 February 2022

योगी बनाम अखिलेश


  यूपी चुनाव योगी बनाम अखिलेश सीधा क्यों हो रहा है ?

0यूपी में चुनाव से एक माह पहले ऐसा लग रहा था कि भाजपा सरकार एक बार फिर आराम से जीतकर वापस आ जायेगी। फिर चुनाव पास आते आते यह लगा कि अगर 19 प्रतिशत मुसलमान और 21 प्रतिशत दलित एक साथ बसपा के साथ आये तो उनके साथ योगी सरकार से विभिन्न कारणों से नाराज़ अन्य 5 से 10 परसेंट अन्य हिंदू जुड़ने से मायावती योगी के सामने बड़ी चुनौती बन सकती हैं। लेकिन चुनाव का पहला चरण आते आते तस्वीर यह बनी कि यूपी में अचानक 10 से 11 परसेंट यादव वोटबैंक वाली सपा भाजपा के सीधे मुकाबले में आकर खड़ी हो गयी। इसकी वजह यह रही कि संघ परिवार के मीडिया ने सोची समझी रण्नीति से जानबूझकर यह कमज़ोर समीकरण खड़ा करना चाहा था लेकिन मुसलमानों किसानों व जाटों ने इसे पलट दिया है।   

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 39.67 सपा को 21.82 तो बसपा को 22.23 परसेंट वोट मिले थे। दिलचस्प बात यह थी कि 2012 2014 2017 और 2019 के चार चुनाव एक के बाद एक बुरी तरह हारने के बावजूद बसपा के साथ उसका दलित और उसमें भी जाटव वोट पूरी तरह उसका कोर वोटबैंक बना हुआ था। उधर सपा का यादव वोट जो पहले ही दलित वोटबैंक का आधा था। उसका काफी बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ चले जाने का अनुमान लगाया जा रहा था। इसका परिणाम यह हुआ कि जिस पश्चिमी यूपी में यादव जाति का वोट ना के बराबर है। वहां सपा केवल मुसलमान वोट के सहारे चुनाव मैदान में उतरती थी। आपको यह जानकर हैरत होगी कि 2017 के चुनाव में सपा यूपी की 400 में से आधी से कम यानी 150 सीटों पर ही भाजपा से सीधे लड़ रही थी। इसकी वजह यह थी कि उसने गठबंधन में 100 से अधिक सीटें कांग्रेस को दी थी। जिनमें से वो 6.3 परसंेट वोट के साथ मात्र 7 सीटें जीत सकी थी। ऐसे ही बसपा ने जिन 100 सीटों पर अपने मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे। उनमें से मात्र 5 उम्मीदवार ही जीते थे। इसकी वजह यह थी कि जिन मुस्लिम बहुल सीटों पर सपा के पास मुस्लिम वोट के अलावा भाजपा की हिंदू लहर के जवाब में कोई दूसरा वोट पहले ही मौजूद नहीं था। उन पर बसपा के 100 मुस्लिम उम्मीदवारों के द्वारा काफी अच्छी तादाद में मुस्लिम वोट बांटने के बावजूद खुद हारने और सपा के अपने विरोधी उम्मीदवार को पूरा मुस्लिम वोट ना लेने देकर उसको भी हरा देने से चमत्कारिक तौर पर भाजपा की बल्ले बल्ले हो गयी। ऐसे ही पूर्वांचल की 50 से अधिक सीटों पर शिवपाल यादव की प्रसपा ने अधिकांश यादव प्रत्याशी उतारकर सपा के लिये हम तो डूबंेगे सनम तुम को भी ले डूबेंगे की कहावत लागू कर दी थी। हालांकि अपवाद के तौर पर जिन सीटों पर सपा बसपा के सवर्ण उम्मीदवार थे। उनमें से कुछ के अपनी अपनी जाति के वोटबैंक को अपने साथ काफी हद तक ले आने और उधर मुसलमान या दलित वोट एकमुश्त मिल जाने से वे कुछ सीटों पर भाजपा पर भारी पड़ गये थे। लेकिन उस चुनाव में पीएम मोदी द्वारा कब्रिस्तान शमशान कैराना पलायन मुज़फ्फरनगर दंगे और ईद दिवाली पर बिजली बराबर ना आने के झूठे आरोपों से चुनाव का इतना अधिक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो गया था कि भाजपा के अलावा अन्य सभी दल हिंदू विरोधी से नज़र आने लगे थे। इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा के सवर्ण हिंदू वोट बैंक में बड़ी संख्या में गैर यादव पिछड़ी जातियां गैर जाटव दलित जातियां भी जुड़ने से उसका वोट दोगुना होकर लगभग सपा बसपा के वोट के बराबर हो गया। 2017 के चुनाव परिणाम आने के बाद मुसलमानों को यह लगा कि उन्होंने भाजपा को हराने के एक सूत्री प्रोग्राम के चलते सपा और बसपा के मज़बूत उम्मीदवारों को जिताने के चक्कर में अपना वोट बांटकर उल्टा भाजपा का ही भला कर दिया है। दूसरी तरफ चुनाव बाद जिस तरह से मायावती ने मुसलमानों को बुरा भला कहा और एक के बाद एक विवादित बयान दिये। उससे भी मुसलमानों को समझ आने लगा कि बहनजी का रूख़ सपा की बजाये भाजपा के प्रति नरम है। इतना ही नहीं मायावती ने 2019 के लोकसभा चुनाव में शून्य से 10 सीट पर पहुंचकर भी सपा पर झूठा आरोप लगाया कि उसकी वजह से बसपा को नुकसान हुआ। जबकि सच यह था कि सपा को दलित वोट ट्रांस्फर ना होने से एक भी सीट का लाभ नहीं हुआ था। मायावती ने सपा से गठबंधन तोड़ते हुए यह भी नहीं सोचा कि सपा का मुस्लिम वोट जो उसको मिला है। अगर वह विधानसभा चुनाव में भी साथ रहेगी तो गारंटी से दलित मुस्लिम व कुछ अन्य वोट लेकर सपा से भी अधिक विधयक जिता सकती हैं। ऐसे में यह शक विश्वास में बदलने लगा कि बहनजी के तार कहीं और जुड़े हैं। खासतौर पर मुसलमानों को लगने लगा कि घोटालों की जांच होने पर लालू यादव की तरह बहनजी जेल जाने से डरकर भाजपा के इशारे पर ऐसी चालाकी से सियासत कर रही हैं। जिससे मुसलमान वोट बंट जाये और उसका नुकसान सपा को तो लाभ भाजपा को होऐसे में इस बार मुसलमान ने 2017 की ज़बरदस्त हार से सबक सीखते हुए यह तय किया कि चाहे सपा हारे या जीते लेकिन वह सपा गठबंधन के साथ ही रहेगा। उसने उन सीटोें पर भी बसपा और उसके मुस्लिम उम्मीदवारों को नकार दिया जो मुसलमानों का आधे से कम वोट लेकर ही गारंटी से जीत सकते थे। इसके साथ किसान आंदोलन ने खासतौर पर जाटों को भाजपा के खिलाफ मोेर्चा खोलकर सपा के साथ लोकदल के गठबंधन से सपोर्ट करने से कुछ अन्य पिछड़ी जातियों को भी योगी सरकार के खिलापफ एकजुट कर दिया। जाट एक ऐसी शक्तिशाली जाति है। जिसके  सपा के साथ आने से कुछ अन्य जातियां भी योगी सरकार से जो पहले से खफा चल रही थींगोलबंद होने लगीं। जिसमें राजभर मौर्य और सैनी आदि शामिल हैं। कोरोना के दौरान जिस तरह से योगी सरकार ने तानाशाही दिखाई और महंगाई व बेरोज़गारी आवारा पशुओं के कारण लोग लगातार परेशान होते गये उससे धीरे धीरे यूपी में मुख्य विरोधी दल सपा बनती गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि सपा गठबंधन अब तक हुए चुनावी चरणों में काफी आगे चलते हुए भाजपा को बाकी चुनाव मंे भी कांटे की टक्कर देता नज़र आ रहा है।                                              

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।           

Saturday 5 February 2022

बजट ऐसा क्यों?

बजट से राहत की उम्मीद ही ग़लत थी मोदी सरकार सही है ?

0कुछ लोग आशा कर रहे थे कि सरकार अपने वादे के अनुसार 2022 के बजट में हर किसी को घर नल से जल हर किसान की इनकम डबल हर गांव में 24 घंटे बिजली 100 स्मार्ट सिटी 2 करोड़ रोज़गार मिडिल क्लास को इनकम टैक्स में छूट और बुलैट ट्रेन भी चलाने लगेगी। लेकिन जब बजट आया तो हमारी वित्तमंत्री ने कुछ लक्ष्यों को आज़ादी के अमृत वर्ष यानी 75 साल की बजाये 100 साल पूरे होने तक आगे बढ़ा दिया। इसके लिये चार नये बड़े सपने पीएम गतिशक्ति समावेशी विकास उूर्जा पारेशण पर्यावरण कार्यक्रम और निवेश के लिये वित्त व्यवस्था शामिल है। लेकिन लोग यह जानकर हैरत में हैं कि 100 लाख करोड़ के जिस मेगा ढांचागत निवेश का दावा पीएम 3 साल से कर रहे थे, उसका क्या हुआ?  

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

      एक फरवरी को पहली बार हमारे देश में ट्विटर पर मिडिल क्लास का दर्द ट्रेंड कर रहा था। आम आदमी तो बेचारा न बजट की बारीकियों को गहराई से समझता है और न ही उसको आज का पंूजीवादी मीडिया अपनी बात कहने का मौका देता है। वैसे बजट में कई अच्छी चीज़ें भी मौजूद हैं। मिसाल के तौर पर अगले साल सरकार 25000 कि.मी. नये रोड बनायेगी। लेकिन गांवों की लाइफलाइन बन चुकी मनरेगा का बजट सरकार ने 98000 करोड़ से घटाकर 73000 करोड़ कर दिया। यह हालत तब है जबकि कोरोना आने से पहले देश में 3 करोड़ लोग बेरोज़गार थे। जो मनमाने लाॅकडाउन के बाद बढ़कर पिछले साल पहले 4 करोड़ और अब 5 करोड़ तक माने जा रहे हैं। इतना ही नहीं सरकार ने फूड सब्सिडी का बजट भी 27 प्रतिशत कम किया है। पेट्रोल और फर्टिलाइज़र सब्सिडी भी घटी है। यह राहत की बात है कि सरकार ने शिक्षा का बजट 11000 करोड़ बढ़ाया है। 2020 में सरकार ने नई शिक्षा नीति घोषित करते हुए शिक्षा का बजट कुल बजट का 6 परसेंट करने का दावा किया था। लेकिन यह अभी भी 3 परसेंट के आसपास है। स्वास्थ्य की मद में सरकार ने यह कहकर 45 परसेंट बजट कम कर दिया है कि आगे कोरोना वैक्सीन पर इतना खर्च नहीं करना होगा जितना इस साल हो रहा है। बजट की एक सकारात्मक बात यह है कि पहली बार सरकार ने लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के लिये लगभग 2 दर्जन टेलिफोनिक उपचार सेंटर स्थापित करने का फैसला किया है। यह इसलिये भी ज़रूरी था कि जिस तरह आज नफ़रत झूठ गरीबी बेरोज़गारी और तनाव टकराव का माहौल है। उससे हर चैथा नागरिक कोरोना आने के बाद से मानसिक रूप से बीमार बताया जा रहा है। रक्षा और खेल का बजट भी बढ़ा है। मोदी सरकार ने अपने सबसे बड़े दोस्तों कारपोरेट का टैक्स 18 से 15 और 12 से कम कर 7 परसेंट कर दिया है। डिजिटल पासपोर्ट 5 जी इंटरनेट और देश के सारे गांवों में 2025 तक नेट सेवा चालू करने का भी सरकार ने दावा किया है। लेकिन 7 साल में मोदी सरकार ने अपनी छवि ऐसी बना ली है कि लोग जल्दी से उसके वादों दावों और बातों पर भरोसा करने को तैयार ही नहीं होते हैं। इसका प्रमाण हाल ही में हुआ किसान आंदोलन माना जा सकता है। सबसे बड़ा झटका इस बार उस मिडिल क्लास को लगा है। जिसके काफी लोगों ने स्वार्थ में समझदार होकर भी धर्म और झूठ घृणा की राजनीति को खुला समर्थन देने में संकोच नहीं किया है। जहां तक आम आदमी का सवाल है। वह तो पहले ही बड़ी तादाद में सांप्रदायिक जातिवादी और लालच की सियासत का शिकार रहा है। सच तो यह है कि असली समस्या बजट नहीं बेलगाम पूंजीवादी नीतियां हैं। यही वजह है कि बजट बनाने से पहले सरकार पंूजीपतियांे की ही मांगों पर गौर करती है। बदले में वे सत्ताधारी पार्टी को बेतहाशा चुनावी चंदा देकर सत्ता में आने और बार बार चुनाव जीतकर सरकार बनाते रहने का पुख़्ता इंतज़ाम भी करते हैं। यही वजह है कि बजट में केवल और केवल काॅरपोरेट टैक्स कम किया गया है। यह हालत तब है। जबकि देश की कुल धन सम्पत्ति मंे से पहले ही 73 परसेंट पर इन मुट्ठीभर धन्नासेठों का कब्ज़ा हो चुका है। जहां तक आम  आदमी का सवाल है। उसको हिंदू मुस्लिम में उलझाकर आपस में ही मीडिया के द्वारा व्यस्त रखा जा रहा है। हमें आम आदमी मीडियम क्लास और समाज के सभी वर्गों के उन गरीब लोगों से पूरी सहानुभूति है। जिनको बजट से इस चुनावी माहौल में कम सेेे कम से यूपी के लिये भारी राहत की उम्मीद थीं। लेकिन सवाल यह है कि जब सत्ताधारी दल को पूरा विश्वास हो कि जनविरोधी बजट के बावजूद जनता का बड़ा वर्ग उनको सरकार बनाने लायक बहुमत बिना किसी ठोस विकास के बार बार देता रहेगा तो वे अपनी नीतियों का रूख़ पूंजीपतियों की बजाये आम जनता की ओर क्यों करें? दुनिया के 100 बड़े पूंजीपतियों ने पिछले दिनों वल्र्ड इकाॅनोमिक फोरम से अनुरोध किया था कि इससे पहले कि जनता का बड़ा वर्ग पूरे विश्व में पूंजीवाद के खिलाफ सड़कों पर उतर कर आंदोलन करने लगे सरकारोें को चाहिये कि वे आम जनता को कर राहत और बड़े पूंजीपतियों पर अधिक कर लगाना शुरू करें। लेकिन हमारे देश में उल्टा हो रहा है। यहां देश आज़ाद होने के बाद जो मिश्रित अर्थ व्यवस्था शुरू की गयी थी। उसको खुद कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने 1991 में पलट दिया। उस समय मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने स्वदेशी स्वदेशी का खूब राग अलापा लेकिन जब वह खुद सत्ता में आ गयी तो उसने आवारा पूंजी को खुलकर खेलने के लिये मैदार पूरी तरह खाली कर दिया है। वह उन सरकारी नवरत्न कंपनियों का भी निजीकरण करने पर तुली है। जिनकी साख और लाभ का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है। मोदी सरकार दीवार पर लिखा यह सच मानने को तैयार ही नहीं है कि आप कुछ लोगों को हमेशा मूर्ख बना सकते हैं। सब लोगोें को कुछ समय तक मूर्ख बना सकते हैं। लेकिन आप सबको सदैव मूर्ख नहीं बना सकते। वे अब तक जिन धार्मिक प्रतीकों जातीय समीकरणों नफरती बयानों चुनावी टोटकों सबका साथ सबका विकास जैसे झूठे दावों वादों नारों से सफल रहे हैं, ज़रूरी नहीं है कि लगातार आगे भी रहेंगे यह 5 राज्यों के चुनाव परिणाम साबित कर सकते हैं।                                           

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।