Thursday 30 December 2021

लड़की की शादी की उम्र

लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाने की ज़रूरत क्यों है?

018 साल का लड़का लड़की बालिग माने जाते हैं। वे चुनाव में वोट देकर सरकार चुन सकते हैं। लेकिन इस उम्र में वयस्क होने के बाद भी वे अपना जीवन साथी नहीं चुन सकते। पहले केवल लड़कों के लिये शादी की आयु 21 साल थी। लेकिन अब सरकार कानून में संशोधन करके लड़कियों के लिये भी विवाह की आयु 21 साल करने जा रही है। संसद से लेकर समाज तक इस संशोधन को लेकर दो वर्ग  हैं। जिनकी राय इस मुद्दे पर अलग अलग है। एक वर्ग इस बदलाव को लड़कियों के लिये अच्छा मानता है। वहीं दूसरा वर्ग इस संशोधन से अभिभावकों के लिये नई समस्यायें खड़ी होती देख रहा है। दोनों के अपने अपने तर्क हैं। जिनको सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता है।   

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       निर्भया कांड के बाद सरकार ने कानून में संशोधन करके बलात्कार के मामलों में 16 साल के लड़कांे को बालिग मानने का कानून बनाया था। ब्रिटेन और यूरूप के कुछ देशों में पहले से ही कन्या और बालकों के लिये वयस्कता की आयु 16 साल तय है। कुछ मुस्लिम मुल्कों में भी ऐसा ही है। वहां इस आयु की प्राप्ति करने के बाद वे शादी भी कर सकते हैं। हालांकि इस मामले में अलग अलग देशों की अपनी परंपरायें धर्म संस्कृति और जलवायु भी कारण होते हैं। इसलिये हम अपने देश की तुलना हर मामले में दूसरे देशों से समानत आधार ना होने पर नहीं कर सकते। हमारे देश में व्यस्कता और विवाह की आयु अलग अलग रही है। कुछ समाज विज्ञानियों का कहना है कि लड़का लड़की दोनों की शादी की आयु बराबर होने से संविधान द्वारा दी गयी समानता को समाज में स्थापित करने में सहायता मिलेगी। इसके बाद साथ ही लड़कियों की भी शादी की उम्र लड़कों की तरह 21 साल करने से समाज का उच्च शिक्षित अभिजात्य सम्पन्न और प्रगतिशील वर्ग मानता है कि ऐसा करने से लड़कियों को पढ़ाई मौज मस्ती आज़ादी स्वास्थ्य और रोज़गार में जाकर अपने पैरों पर खड़े होने में आवश्यक समय मिलेगा। लेकिन समाज का गरीब अनपढ़ या कम शिक्षित और परंपरावादी वर्ग यह मानता है कि इससे परिवार पर अनावश्यक हर तरह का बोझ बढ़ जायेगा। उनको लगता है कि लड़की की शादी जवान होते ही जल्दी से जल्दी कर देनी चाहिये। उनको यह भी महसूस होता है कि लड़की की शादी कब करनी है। यह तय करने का सारा अधिकार समाज के पास होना चाहिये। इसमें सरकार को अवांछित दख़ल नहीं देना चाहिये। यही वजह है कि बाल विवाह के मामले में हमारा देश दुनिया में तीसरे नंबर पर है। आज भी हमारे यहां दस करोड़ लड़कियों की शादी 15 साल की होने तक कर दी जाती है। नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे बताता है कि 50 प्रतिशत से अधिक गर्भवती महिलाओं में खून की कमी यानी एनीमिया होता है। स्वास्थ्य कारणों से ही कम उम्र में शादी होने से उनकी बच्चे के जन्म के समय मौत तक हो जाती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हमारा देश पुरूष प्रधान है। जिसका परिणाम यह है कि कन्या के पैदा होने के साथ ही नहीं उसके पैदा होने से पहले ही उसके साथ पक्षपात शुरू हो जाता है। यानी हर वर्ष लाखों कन्या भ्रूण की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है। इतना ही नहीं कन्या होने पर परिवार में या तो खुशी मनाई ही नहीं जाती या उतनी नहीं अनुभव होती जितनी बालक होने पर होती है। समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी कन्या को बोझ और हुंडी समझता है। यहां तक कि उनके पालन पोषण खान पान और शिक्षा दीक्षा में भी पक्षपात आम है। इसी का अंजाम यह है कि उसको लड़कों की बराबर पौष्टिक आहार और समान सुविधायें ना मिलने से वे कमज़ोर कम शिक्षित और कम आत्मनिर्भर बन पाती हैं। प्रगतिशील और सम्पन्न वर्ग का मानना है कि सरकार के इस कदम से शादी की उम्र आने तक लड़कियों का ना केवल शारिरिक बल्कि मानसिक विकास भी पूर्ण हो सकेगा। विज्ञान कहता है कि इंसान के दिमाग का फ्रंटल रोब रीजन 18 से 20 साल के बीच ही विकसित हो पाता है। इसके बाद ही इंसान में ना केवल सोच समझकर निर्णय करने की क्षमता आती है बल्कि उसमें बेहतर भावनात्मक नियंत्रण और परिपक्वता भी आती है। ज़ाहिर बात है कि एक परिपक्व मां ही बेहतर परिवार चला सकती है। इससे उनको स्कूल काॅलेज अस्पताल यातायात और रोज़गार की पहले से अधिक और बेहतर सुविधायें उपलब्ध होने के बाद ब्याहने का अवसर मिलेगा। लेकिन सवाल यह है कि लड़कियों की विवाह की आयु बढ़ाने वाली सरकार क्या इन सब मुद्दों पर चिंतन मनन करके उपरोक्त सुविधायें बढ़ाने पर विचार करेगी? या केवल कानून बनाकर अपना पल्ला झाड़ लेगी? सवाल यह भी है कि आज जब शादी की उम्र 18 साल है। तब भी गांव में 27 प्रतिशत और शहर में 14 प्रतिशत कन्याओं की शादी उससे पहले ही कर दी जाती है। सर्वे यह भी बताते हैं कि कम आयु में शादी से दहेज़ की मांग दहेज़ हत्या पारिवारिक विवाद हिंसा और तलाक के केस  अधिक हो रहे हैं। 2017 में एक मुक़दमें की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में संशोधन को कहा था। इस धारा में दरअसल 15 साल तक की पत्नी से पति द्वारा किया गया संभोग बलात्कार नहीं माना गया है। जबकि कानूनन ऐसी शादी करना अपराध है। बाल विवाह कानून 1929 कहता है कि बाल विवाह अपराध है। लेकिन सरकार पुलिस प्रशासन आज तक इसे खत्म नहीं कर पाये हैं। नये संशोधन के अनुसार चर्चा है कि अगर कोई लड़का लड़की 21 साल के होने से पहले शादी करते हैं तो ना केवल वे खुद अपितु उनके माता पिता शादी कराने वाले धार्मिक गुरू बैंक्वट हाॅल व आयोजन से जुड़े सभी लोग और यहां तक कि उस समारोह में शरीक होने वाले मेहमान तक जवाबदेह हो सकते हैं। भविष्य में कोई शादी का कार्ड आये तो कार्ड के साथ दुल्हा दुल्हन का आयु प्रमाण पत्र अवश्य देख लीजिये अन्यथा मुसीबत आ सकती है।                                        

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।

Saturday 18 December 2021

बैंक निजीकरण


सरकार किसके हित में बैंको का निजीकरण करना चाहती है ?

0पिछले दिनों सरकारी बैंकों के लगभग 10 लाख अधिकारी व कर्मचारी बैंकों के निजीकरण करने के सरकार के इरादे के खिलाफ दो दिन हड़ताल पर रहे। सरकार 27 बैंकों को विलय कर पहले ही 12 बड़े बैंक बना चुकी है। आगे इनको चार तक सीमित करने की योजना है। इसके साथ ही बैंकिंग विनियमन अधिनियम 1949 और 1970 में संशोधन कर सरकारी हिस्सेदारी 51 प्रतिशत से कम कर 26 प्रतिशत किये जाने की चर्चा है। आज सरकारी बैंकोें के कुल कर्ज़ का 35 प्रतिशत ख़तरे में है। बैंकों में ठगी के मामले भी तेज़ी से बढ़े हैं। रोज़ ठगी के 229 मामले हो रहे हैं जिससे बैंको को 1.31 लाख करोड़ का चूना लगा है।   

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       देश के नेशनल बैंकों की कुल 1 लाख 10 हज़ार शाखाआंे मेें 150 ट्रिलियन रकम जमा है। इन राष्ट्रीयकृत बैंकों के लाभ से सरकार जनहित की अनेक योजनायंे चलाती है। जनता के खून पसीने की इस गाढ़ी कमाई से न केवल देश का आधारभूत ढांचा मज़बूत होता है बल्कि तमाम लोगों को बैंक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीकों से रोज़गार भी उपलब्ध कराता है। याद रखने वाली खास बात यह है कि देश के बैंकों का राष्ट्रीयकरण होने के बाद से एक भी सरकारी बैंक डूबा नहीं है। अगर कहीं किसी बैंक में कोई घोटाला या गड़बड़ी हुयी भी तो सरकार और बीमा कवर के ज़रिये लगभग 98 प्रतिशत खाताधारकों का धन वापस मिल गया है। इन बैंकों के द्वारा ही देश मंे कृषि क्रांति दुग्ध क्रांति और औद्योगिक क्रांति को अंजाम दिया गया है। पिछले वर्षों में जब जनधन खाते खोले गये तो कुल 44 करोड़ में से 41 करोड़ इन सरकारी बैंकों में ही खोले गये। आज भी निजी बैंकों के मुकाबले इन बैंकों में खाता खोलना लोन लेना एटीएम कार्ड लेना और दूसरी सुविधायें हासिल करना आसान सस्ता और सुगम है। ये अलग बात है कि बैंक स्टाफ का बड़ा वर्ग भी कुछ समय पहले तक किसानों के एक हिस्से की तरह मोदी सरकार का बड़ा समर्थक रहा है। लेकिन आज जब बैंक निजीकरण का बिल संसद के शीतकालीन सत्र में आने वाला है तो उसकी आंखें खुल गयी हैं। यूनाइटेड फोरम आॅफ बैंक यूनियन्स का दावा है कि मोदी सरकार 13 काॅरपोरेट के 4 लाख 86 हज़ार 800 करोड़ बकाया का 2 करोड़ 84 लाख 980 करोड़ लोन एनपीए करना चाहती है। फोरम का आरोप है कि जिन सरकारी बैंको को सरकार प्राइवेट कर अपना पल्ला झाड़ना चाहती है। उनमें से ही एसबीआई के बेल आउट पैकेज और एलआईसी की सहायता से आईएल एंड एफएस ग्लोबल ट्रस्ट बैंक बैंक आॅफ कराड यूनाइटेड वेस्टर्न बैंक और यस बैंक जैसों को संकट से उबारने के लिये सरकारी पूंजी का दुरूपयोग किया गया है। सवाल यह है कि सरकार किसके हित में पीएसबी यानी पब्लिक सैक्टर बैंकों को प्राइवेट करना चाहती हैविपक्ष का आरोप तो यह है कि सरकार इनको जनहित दांव पर लगाकर अपने चहेते पंूजीपति मित्रों को इसलिये देना चाहती है जिससे चुनाव आने पर उनसे मोटा चंदा वसूला जा सके। उधर पिछड़ी जाति दलितों व आदिवासी वर्ग को लगता है कि सरकार ऐसा कर उनके रोज़गार आरक्षण को चोर दरवाजे़ से बंद करना चाहती है। आरबीआई की रिपोर्ट कहती है कि 2014 से 2021 तक बैंकों का एनपीए यानी नाॅन परफाॅर्मिंग एसेट्स घोषित रूप से 15 लाख करोड़ लेकिन अपुष्ट के सूत्रों के अनुसार 25.4 लाख करोड़ हो चुका है। इसमें अगर एनबीएफसी का एनपीए और जोड़ लिया जाये तो यह 32 लाख करोड़ से भी अधिक हो जायेगा। लेकिन आरबीआई ने इसको फिलहाल रिस्ट्रक्चर्ड लोन में डालकर एनपीए के आंकड़ों को डरावना नज़र आने से रोक दिया है। आज के कुल एनपीए में 60 प्रतिशत तो केवल ब्याज का ही हिस्सा है। खास बात यह है कि कुल एनपीए का 5 प्रतिशत भी रिटेल यानी कृषि कार पढ़ाई या पर्सनल लोन नहीं है। यानी आप इस तरह समझ सकते हैं कि ये कर्ज़ देश की 95 प्रतिशत जनता को दिया गया कजऱ् नहीं है। अधिकांश लोन कारपोरेट को दिया गया है। ऐसा भी नहीं है कि सभी काॅरपोरेट डिफाल्टर हो गये हों। या विजय माल्या और नीरव मोदी की तरह बैंकों का पैसा मारकर विदेश भाग गये हों। इनमें अधिकांश लोन उस समय का है। जब इकाॅनोमी बूम पर थी। यानी ये बड़े विशालकाय कर्ज़ पाॅवर सैक्टर टेलीकाॅम बिल्डर्स बड़े कारखानों और कोयला खदानों के लिये दिये गये थे। सवाल यह है कि आखि़र इन सबका पैसा इतना और एक साथ कैसे डूबातो जनाब हमारे देश में सरकार राजनीति और पूंजीवाद जो ना करा दे थोड़ा है। मोबाइल काॅल और नेट सस्ता हो रहा था तो टेलीकाॅम यानी टू जी घोटाले का नकली भूत खड़ा किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि स्पैक्ट्रम कई गुना महंगा हुआ। टेलीकाॅम की अधिकांश कंपनियों पर जुर्माना और महंगे चार्ज लगे तो जियो सरकार के अनड्यू सपोर्ट और बीएसएनएल की बरबादी की कीमत पर और एक दो और मोबाइल कंपनी को छोड़कर अधिकांश का बोरिया बिस्तर बंध गया। अब उन पर जो लोन थे वे सब एनपीए होते चले गये। कुछ ऐसा ही मामला कोयला खदानों का था। कोयला घोटाले का शोर मचा तो जिन कंपनियों को कैप्टिव पाॅवर प्लांट के लिये भारी भरकम कजऱ् बैंकों ने दिये थे। उनके लाइसेंस रद्द होने से उनको दिया लोन एनपीए हो गया। उधर अर्थव्यवस्था झूम कर मस्त हाथी की चाल चल रही थी। लोगों के हाथ में पैसा आ रहा था तो वे मकान दुकान और नई नई बनती जा रही काॅलोनियों में रिहायशी काॅमर्शियल प्लाॅट खरीद रहे थे। बड़े बड़े बिल्डर्स बैंकों से एक के बाद एक बड़ा लोन लेकर रियल स्टेट विकसित कर रहे थे। जैसे ही इकाॅनोमी गिरनी शुरू हुयी लोगों ने अपनी जेब में पैसा कम आने रोज़गार जाने नोटबंदी व देशबंदी से कारोबार तबाह या पूरी तरह बंद हो जाने से अपना हाथ खींच लिया। उधर बिल्डर्स बैंकों से लिया कजऱ् ना चुका पाने से अपना लोन एनपीए करा बैठे। ऐसे ही ओवरब्रिज हाईवे और सड़कों का जाल फैलता जा रहा था। सरकार के साथ पीपीपी यानी पब्लिक प्रावेट प्रोजैक्ट के तहत बैंकों से लोन लेकर काम करने वाली कंपनी एकाएक मुंह के बल गिरनी शुरू हो गयी। वजह यह थी कि 30 से 32 लाख करोड़ के बजट वाली सरकार ने चुनावी मोड में जनता को बहलाने के लिये 100 लाख करोड़ केे ढांचागत प्रोजैक्ट का ऐलान तो कर दिया लेकिन इतना पैसा आता कहां सेऐसे में जो योजनायें पहले से चल भी रही थी वे भी बैंकों से आगे लोन ना मिलने से बीच में ही लटक गयीं। अब जब आगे काम ही नहीं होगा तो पिछला पैसा तो एनपीए होना ही था। इस दौरान मोदी सरकार ने मुद्रा लोन के नाम पर बिना गारंटी बिना ठोस आधार के अपने चहेते लोगों को राजनीतिक रूप से इनाम देने के लिये कई लाख करोड़ बैंक से दबाव डालकर बंटवा दिये। आज इनमें से अधिकांश का काम चैपट हो चुका है। बैंकों के पास कोई ऐसा तरीका नहीं है कि इनसे पैसा वापस वसूल सके। ऐसा ही मामला मनमोहन सरकार से लेकर मोदी सरकार तक का काॅरपोरेट को लेकर उदार लोन देने का रहा है। आज जब उन चहेते पंूजीपतियों उद्योगपतियों और व्यवसायियों के दिवाले निकल चुके हैं तो उनका लोन एनपीए होने के अलावा कोई रास्ता बचा ही नहीं है। एक आंकड़े के अनुसार देश के सरकारी बैंकों का कुल लोन 101 लाख करोड़ के आसपास है। कोरोना के दौर में पिछले साल मोदी सरकार ने 20 लाख करोड़ का पैकेज कारोबारियों को देने का एलान बड़े जोरशोर से किया था। लेकिन इसका कोई विशेष लाभ हमारी अर्थव्यवस्था को नहीं मिलता दिखा क्योंकि हमारे देश में उत्पादन बढ़ाने को पैसे की नहीं खरीदारी करने को आम जनता के पास पैसे की कमी लगातार बढ़ती जा रही है। अगर मोदी सरकार बैंक निजीकरण का घातक विचार नहीं छोड़ती है तो देश में जो थोड़ी बहुत जनहित की स्कीमंे चल रही है और धीरे धीरे अर्थव्यवस्था सुधरने की आशा की जा रही है वह भी संकट में पड़ जायेगी।                                    

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।  

Monday 13 December 2021

आर्थिक असमानता


 

असमानता: 57 % आय पर 10 फीसदी लोगों का क़ब्ज़ा क्यों ?

वर्ल्ड इनइक्विलिटी रिपोर्ट 2022 के  भारत दुनिया के सबसे गरीबी और गै़र बराबरी वाले मुल्कों की सूची में शामिल हो गया है। पूंजीवादी नीतियों से देश में अमीर और अमीर तो गरीब और गरीब बनते जा रहे हैं। हालांकि धनवान भारतीयों के और धनवान बनने से ईश्र्या नहीं करनी चाहिये लेकिन सवाल यह है कि ये किनके गरीब बनने की वजह से पंूजी का एकत्रीकरण कर रहे हैंआर्थिक हालत इतनी ख़राब और चिंताजनक है कि मात्र 1 प्रतिशत आबादी के पास देश की कुल आय का 22 प्रतिशत हिस्सा जमा हो गया है। वहीं 50 प्रतिशत जनसंख्या को केवल 13 परसंेट ही आमदनी मिल रही है।  

                  -इक़बाल हिंदुस्तानी

       रिपोर्ट के मुताबिक भारत में औसत नेशनल इनकम प्रति व्यक्ति 2,04,200 रू. है। जबकि इसके विपरीत निचले स्तर पर जीवन बसर कर रहे गरीब भारतीय की आय मात्र 53,610 रू. ही है। उधर टाॅप पर 10 परसेंट नागरिकों की आमदनी गरीब लोगों की लगभग 20 गुना यानी 11,66,520 रू. है। इतना ही नहीं हमारे देश का मीडियम क्लास भी दुनिया के दूसरे मुल्कों की तुलना में काफी पीछे है। उसकी औसत सम्पत्ति 7,23,930 रू. है। जबकि शीर्ष पर मौजूद 10 प्रतिशत सबसे अमीर भारतीयों के पास 63,54,070 रू. यानी 65 प्रतिशत है। इतना ही नहीं इनमें भी 1 प्रतिशत के पास कुल सम्पत्ति का 33 प्रतिशत हिस्सा यानी 3,24,49,360 रू. है। वल्र्ड इनइक्वालिटी लैब के सह निदेशक लुकास चांसल ने यह विश्व असमानता रिपोर्ट फ्रांस के सुविख्यात इकोनोमिस्ट थाॅमस पिकेटी सहित कई विश्व प्रसिध्द विशेषज्ञों के सहयोग से तैयार कर हमें आईना दिखाने को जारी की है। रिपोर्ट का एक स्याह पहलू यह है कि देश में औसत घरेलू सम्पत्ति 9,83,010 रू. है। जिनमें से सबसे नीचे के कुल आबादी के आधे गरीब वर्ग यानी 50 प्रतिशत के पास मात्र 6 प्रतिशत 66,280 रू. ही हैं। इतना ही नहीं हमारे देश मंे लिंग के आधार पर आर्थिक असमानता हाल यह है कि महिला मज़दूरों को आय मंे भागीदारी एशिया के औसत 21 से भी कम यानी 18 प्रतिशत है। हमारे देश की जो आज आर्थिक स्थिति है। उसके लिये अकेले वर्तमान मोदी सरकार को कसूरवार ठहराना ठीक नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार 1991 में ही एल पी जी यानी लिबरल प्राइवेट और ग्लोबल इकोनिमिक पाॅलिसी की नींव रख गयी थी। इसके बाद विपक्ष की संयुक्त मोर्चा सरकार देवगौड़ा और गुजराल के नेतृत्व में भी बनी। लेकिन किसी ने भी आर्थिक नीतियों को बदलने की ज़रूरत महसूस नहीं की। हालांकि इस दौरान एनडीए की भाजपा के नेतृत्व में वाजपेयी सरकार भी दो बार सत्ता में रही। लेकिन उनसे तो आमूलचूल बदलाव की आशा इसलिये भी नहीं की जा सकती थी कि वे समाजवाद के खिलाफ और पंूजीवाद के पक्ष में पहले ही खुलेआम थे। यही हाल आज मोदी सरकार का है। मोदी ने तो लगभग सारी आर्थिक नीतियां काॅरपोरेट उद्योगपतियों व पंूजीपतियों के हिसाब से ही बनानी शुरू कर दी हैं। इसलिये मोदी सरकार को विपक्ष शुरू से ही सूटबूट की सरकार कहकर चिढ़ाता रहा है। मोदी सरकार आने के बाद हमारी अर्थव्यवस्था एक तरह से बीमार हो गयी है। हालांकि इसकी वजह बिना किसी से सलाह लिये नोटबंदी बिना कैबिनेट को विश्वास में लिये देशबंदी और बिना विशेषज्ञों से चर्चा किये बिना पूरी तैयारी के लागू किया गया जीएसटी भी रहा है।  यह सच है कि 2021-22 की दूसरी तिमाही यानी जुलाई से सितंबर की जीडीपी ग्रोथ 8.4 प्रतिशत रही है। इससे जनता को यह लगा कि शायद हमारी अर्थव्यवस्था एक बार फिर से पटरी पर लौट आई है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि पिछले साल हमारी अर्थव्यवस्था इसी तिमाही मंे 32.97 लाख करोड़ थी। जो इस साल 8.4 प्रशित बढ़कर 35.73 लाख करोड़ की हुयी है। लेकिन इस सच में आधा ही सच है क्योंकि पिछले साल कोरोना महामारी के असर की वजह से हमारी अर्थव्यवस्था शून्य ग्रोथ से भी नीचे चली गयी थी। इस तरह से समझ सकते हैं कि जो अर्थव्यवस्था पहले 100 रू. की थी वह 24 प्रतिशत गिरावट के बाद 76 रू. की रह गयी थी। अगर इसमें इस साल हुयी बढ़ोत्तरी जोड़ी जाये तो भी यह वहां तक भी पहुंची जहां से विगत साल नीचे गयी थी। इसको परखने का सही तरीका यह होगा कि हम अपनी अर्थव्यवस्था के हर साल के ग्रोथ रूजहान को देखें। इसके साथ ही हम जीडीपी के उन घटकों को भी चैक कर सकते हैं जिनके आधार पर किसी देश की अर्थव्यवस्था आगे बढ़ती है। आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था 2008 से 2019 तक कम होते होते भी लगभग 7.2 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ रही थी। लेकिन 2020 आते आते यह कुल 20 प्रतिशत तक कम हो चुकी है। जीडीपी को देखें तो यह निर्यात आयात के अंतर व्यवसायियों के निवेश और व्यय सरकार द्वारा जनता पर किये गये खर्च और जनता के खुद के किये व्यय को जोड़कर बनती है। इस हिसाब से मिलान करें तो पायेंगे कि कोरोना से पहले वित्त वर्ष की दूसरी तिमारी में लोगों ने कुल 20 लाख करोड़ खर्च किये थे। लेकिन इस वर्ष इसी दौरान 19 लाख करोड़ व्यय किये हैं। इसकी वजह यह हो सकती है कि उनके हाथ में खर्च करने के लिये आमदनी के तौर पर पैसा ही कम आया है। इसकी वजह यह भी है कि नये लोगों को नया रोज़गार या तो मिला नहीं रहा या कम मिल रहा है। या फिर कम वेतन पर मिल रहा है। दूसरे जिनकी कोरोना लाॅकडाउन में नौकरी चली गयी या सेलरी कम हो गयी या फिर नोटबंदी या देशबंदी से कारोबार हमेशा के लिये बंद हो गया उसका कोई ठोस व पर्याप्त हल सरकार ने सिवाय मनरेगाा पांच किलो निशुल्क अनाज और किसानों के खाते में साल में तीन बार दो दो हज़ार रू. के अब तक भी तलाश नहीं किया है। सबसे चिंता की बात यह है कि जहां अभी तक हमारा आयात निर्यात से एक लाख करोड़ अधिक है। वहीं सरकार गत वर्ष के 4 लाख करोड़ के बजाये 3 लाख करोड़ खर्च कर रही है। हमारे देश में केवल 1 से 2 प्रतिशत लोगों की आमदनी ही 50 रू. से अधिक है। अमीर लोगों की ही आमदनी बेतहाशा बढ़ते जाने से ट्रिकल डाउन होकर गरीब लोगों तक पहंुचने और उनकी गरीबी दूर होने का दावा नाकाम हो गया है। सरकार को चाहिये कि वह असंगठित क्षेत्र पर फोकस कर कृषि पर अनुदान बढ़ाये सीधे गरीबों के खाते में धन भेजे और ऐसे उद्योगों को सुविधायें बढ़ायें जो अधिक से अधिक रोज़गार पैदा करते होंनहीं तो जीडीपी बढ़ने राष्ट्रीय आय बढ़ने और देश की सम्पत्ति बढ़ने से भी केवल अडानी अंबानी जैसे चंद मोदी मित्रों को ही लाभ होगा।                               

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।         

 

           

  


Wednesday 8 December 2021

एम एस पी और किसान


 

एम एस पी: धनवानों के लिये है पैसा किसानों के लिये नहीं ?

0मोदी सरकार समझ रही थी कि तीन कृषि कानून वापस लेते ही किसान आंदोलन तत्काल ख़त्म हो जायेगा। उसको यह भी लग रहा था कि ऐसा करने से उससे नाराज़ किसान खासतौर पर पंजाब के सिख और पश्चिमी यूपी के जाट आने वाले पांच राज्यों के चुनाव में उसके साथ बिना किसी अगर मगर के थोक में खड़े हो जायेंगे। यह लेख लिखे जाने तक किसान आंदोलन न केवल चल रहा है बल्कि शहीद किसानों के परिवारों को मुआवज़ा व आंदोलन सम्बंधी मुकदमे वापस लेने की मांग सहित सरकार और किसानों के बीच एम एस पी को लेकर पंेच फंस गया है। सही मायने मंे यह एम एस पी नहीं मोदी सरकार के प्रति किसानों का अविश्वास का मामला अधिक है।

              

       एक साल से चल रहा किसान आंदोलन अपने आप में विश्व इतिहास पहले ही बन चुका है। मोदी के पहले कार्यकाल और इस बार के आध्ेा कार्यकाल में शायद ऐसा पहला मौका है। जब मोदी सरकार को जनता के किसी वर्ग के सामने झुकना पड़ा है। लेकिन ऐसे जन आंदोलन सफल होने के बाद यह भी होता रहा है कि जब सरकार दो क़दम पीछे हटती है तो आंदोलनकारी अपनी सफलता से साहस बढ़ने की वजह से उसको चार क़दम और पीछे धकेलने लगते हैं। सच तो यह है कि सरकार जिन तीन कृषि कानूनों को बनाकर किसानों की नज़र में विलेन बनी थी। उनको बिना शर्त वापस लेकर वहीं आ चुकी है। जहां से वह चली थी। लेकिन अब सही मौका  देखकर किसानों ने अपनी दूसरी अहम मांगों पर ज़ोर इसलिये देना शुरू किया है क्योंकि वे जानते हैं कि अब तवा गर्म है। अगर लंबा खिंचने या सरकार के आक्रामक रूख़ के कारण किसान आंदोलन भटक जाता या हिंसक होकर अराजकता का शिकार हो जाता तो सरकार उसको कभी का खत्म कर चुकी होती लेकिन अब चूंकि सरकार चुनाव की वजह से दबाव में आ गयी है तो किसान आगे से उसके ऐसा कानून बनाने का रास्ता बंद करने को एमएसपी की गारंटी मांग रहे हैं। ज़ाहिर है कि सरकार गारंटी का मतलब बखूबी समझती है। लेकिन अब वह ऐसी दुविधा में फंस गयी है कि न तो एमएसपी कानून बनाना चाहती है और न ही ऐसा करने से सीध्ेा मना कर सकती है। ऐसे में उसने कमैटी बनाने इस पर चर्चा करने और इस मुद्दे को टालने की लंबी कवायद की चाल चली है। सरकार चाहती है कि किसानों से टकराव हुए बिना किसी तरह फिलहाल आंदोलन ख़त्म हो जाये। जिससे आने वाले 5 राज्यों के चुनाव में उसको कम से कम नुकसान हो। उसने किसानों की पराली जलाना निरपराध होने की मांग भी समय रहते स्वीकार कर ली है। 689 किसानों के आंदोलन के दौरान शहीद होने को लेकर पहले तो केंद्र सरकार ने उसके पास कोई आंकड़ा उपलब्ध न होने का बहाना लेकर बचना चाहा लेकिन जब किसाना जि़द पर अड़ गये तो मोदी सरकार ने यह मामला राज्यों के अधिकार क्षेत्र में बताकर बीच का रास्ता निकाला। सीधी बात है कि भाजपा की राज्य सरकारें मोदी सरकार की सलाह किसी कीमत पर टाल नहीं सकती। उधर विपक्षी सरकारों ने पहले ही किसानों की शेष मांगों पर अमल करना शुरू कर दिया था। जिससे केंद्र सरकार पर किसानों का और अधिक दबाव बढ़ना स्वाभाविक ही था। अब लगभग सभी राज्य सरकारें किसानों के खिलाफ आंदोलन के दौरान दर्ज केस भी वापस लेने को तैयार नज़र आ रही हैं। शहीद किसानों की वास्तविक संख्या का मामला सुलझने के बाद देर सवेर किसान परिवारों को मुआवज़ा मिलने का रास्ता भी खुल ही जायेगा। असली पेंच एम एस पी यानी फ़सलों के मिनिमम सपोर्ट प्राइस पर फंसने का अंदेशा है। सरकार का दावा रहा है कि तत्काल यह इसलिये संभव नहीं है क्योंकि सरकार की आर्थिक हालत ठीक नहीं है। सरकार का यह भी कहना है कि किसानों की मांग के अनुसार सभी फ़सलों पर एमएसपी की गारंटी देने से सरकार को हर साल 17 लाख करोड़ से अधिक का धन उपलब्ध कराना होगा। जबकि किसानों का कहना है कि सरकार इस मामले में दोहरा रूख़ अपना रही है। उनका आरोप है कि एक तरफ मोदी सरकार जहां अपने चहेते पूंजीपतियों कारपोरेट और चुनावी चंदा देने वाले अपने मित्रों को बैंक कर्ज ना चुकाने के बावजूद जनता के खून पसीने की कमाई से बड़ी मात्रा में राइट आॅफ यानी दिवालिया कानून के तहत एक तरह से माफ कर रही है। वहीं उन किसानों को मात्र 36,105 करोड़ रूपया एमएसपी में देने से मंुह चुरा रही है। जिनकी बदौलत देश का बजट जीडीपी और आधे से अधिक रोज़गार क्षेत्र चलता है। हाल ही में आॅल इंडिया बैंक एम्पलाइज़ एसोसियेशन ने 13 ऐसे बड़े डिफाल्टर कारोबारियोें की सूची जनहित में सार्वजनिक की है। जिसमें मोदी सरकार ने 4,46,800 करोड़ की देनदारी वाले इन काॅरपोरेट की कुल लोन की 64 प्रतिशत रकम बट्टा खाते में डालकर मात्र 1,61,820 करोड़ में मामला निबटा दिया है। हैरत और दुख  की बात यह है कि कुछ खासमखास उद्योगपतियों की तो इस लिस्ट में 95 फीसदी तक कर्ज़ राशि माफ कर दी गयी है। इतना ही नहीं जब से मोदी सरकार बनी है। उसने अपनी पसंद के ऐसे काॅरपोरेट घरानों की लगभग हर साल ही इतनी या इससे अधिक लोन की रकम माफ की है। विपक्ष का आरोप है कि इन धन्नासेठों से इसके बदले भाजपा ने मोटी रकम चुनावी चंदे के तौर पर ली है। हालांकि यह काम कांग्रेस सहित लगभग सभी दल जब जब सत्ता में रहे हैं। कम या अधिक छिपकर या खुलेआम करते ही रहे हैं। लेकिन भाजपा ने ऐसा लगता है। सभी सीमायें पार कर ली हैं। यह बात अब आईने की तरह साफ होती जा रही है कि भाजपा जनता को हिंदू मुस्लिम में उलझाकर ना केवल दोनोें वर्गों का लगातार रोज़गार शिक्षा चिकित्सा जीएसटी नोटबंदी लाॅकडाउन बंैकिंग चार्ज एटीएम चार्ज टैक्स टोल महंगाई भ्रष्टाचार रिश्वतखोरी कालाधन रेल व बस किराया बढ़ाकर नुकसान करती जा रही है। वहीं अपने चहेते मुट्ठीभर पूंजीपतियों उद्योगपतियों धन्नासेठों व्यवसाइयों व्यापारियों और चहेते पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों का भरपूर जायज़ नाजायज़ भला व बचाव कर रही है। यही कारण है कि देश की कुल पंूजी और जीडीपी का लाभ चंद हाथों तक सीमित हो रहा है। इससे अमीर और अमीर व गरीब और गरीब होता जा रहा है। किसान आंदोलन की सफलता ने न केवल लोकतंत्र को मज़बूत किया है बल्कि जनता के सभी वर्गों को आंखे खोलकर धर्म जाति व भावनाओं की क्षणिक राजनीति के जाल में ना फंसकर जीवन के बुनियादी मुद्दों पर सोचने समझने और आने वाले समय में आर्थिक सामाजिक सुरक्षा प्रगति व विकास के असली मुद्दों पर चिंतन मनन करने का मौका भी दिया है।                           

 0लेखक नवभारतटाइम्सडाॅटकाम के ब्लाॅगर व स्वतंत्र पत्रकार हैं।