Tuesday 30 August 2016

पति के कन्धे पर पत्नी की लाश

*दाना मांझी और क्या करता ?*
इक़बाल हिन्दुस्तानी 

उड़ीसा के कालाहांडी के दाना मांझी की बेबसी मीडिया के लिये बड़ी ख़बर बन गयी। इसी राज्य की एक और ख़बर ज्यादा चर्चित नहीं हुयी। जबकि वह मांझी की आपबीती से भी वीभत्स है। बालेश्वर ज़िले के एक अस्पताल में एक बूढ़ी महिला की मौत हो गयी।

उसके शव को ठिकाने लगाने के लिये एक एएसआई ने दो मज़दूरों को भाड़े पर लिया। इन मज़दूरों ने अपने काम को आसान बनाने के लिये उस महिला की डैडबॉडी की हड्डियां तोड़ डालीं। इसके बाद इस बूढ़ी औरत की लाश को आराम से एक बोरे में बंद किया। बोरे को बांस में लटकाकर दोनों टांगकर ले गये। इस मामले में एएसआई को सस्पेंड कर दिया गया है। लेकिन दाना मांझी के मामले में ऐसी किसी बड़ी कार्यवाही की ख़बर अब तक नहीं आई है।

जिससे समाज में यह संदेश जाये कि सरकार ने इस मामले को गंभीरता से लिया है। दाना मांझी के मामले को लेकर अलबत्ता पूरे देश में एक बहस ज़रूर शुरू हो गयी है। कुछ लोगों का दावा है कि सबसे पहली ड्यूटी उस पत्रकार की बनती थी, जिसने यह ख़बर अपने कैमरे में कै़द की। यहां तक कि उस पत्रकार को कुछ लोग देश की छवि ख़राब करने का ज़िम्मेदार ठहराने से भी नहीं चूके। अलबत्ता उसकी किसी ने बाद में भी मदद की हो। यह ख़बर अब तक केवल बहरीन से आई है। उसमें कहा गया है कि वहां के पीएम सलमान ने दाना मांझी को अपने दूतावास के द्वारा कुछ रकम मदद के तौर पर भेजी है। यह कितनी है। अभी यह नहीं पता लगा है।

अगर हम यह बात एक मिनट को मान भी लें कि उस रिपोर्टर की पहली मानवीय और नागरिक ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह दाना मांझी की मदद करता। लेकिन यहीं एक सवाल और पैदा होता है कि क्या 12 किलोमीटर के इस अजीब ओ गरीब सफर में और अन्य सैंकड़ों लोगों वाहन मालिकों और सरकारी कारिंदों ने उसको अपने कांधे पर अपनी मृत पत्नी का शव ढोते नहीं देखा होगा? देखा होगा। ज़रूर देखा होगा। लेकिन वे सब भी उसी समाज का हिस्सा हैं। जिसका वह पत्रकार रहा है। आज का हमारा समाज जो दूसरों की जान लेने तक से अपने किसी स्वार्थ के लिये नहीं हिचकता। वो दाना मांझी की सहायता को भला क्यों आगे आने लगा? सब कमियों और ख़राबियों का ठीकरा सरकार के सर पर फोड़ने वाला संवेदनहीन और अंतर्मुखी नागरिक खुद कितना काहिल बन चुका है।

इस नंगे सच को देखने को कोई तैयार नहीं है। हालांकि सरकार ने इस मामले में और रूटीन मामलों की तरह जांच का आदेश दे दिया है। लेकिन उसने ऐसा कोई मैकेनिज़्म तलाशने की कोई कोशिश नहीं की है। जिससे भविष्य में किसी और दाना मांझी को अपनी पत्नी या परिजन की लाश अपने कांधे पर न ढोनी पड़े। दरअसल सरकार भी उसी समाज से चुनी गयी है। जिसकी बेशर्मी और बेहायाई की हम पहले ही काफी चर्चा कर चुके हैं। यह बात हमारी समझ में नहीं आती कि हम यह कैसी उन्नति प्रगति और विकास कर रहे हैं। जिसमें मानवता संवेदनशीलता और परेशान हाल इंसान की मदद को प्राथमिकता देने का कोई कॉन्सेप्ट ही नहीं है।

हालांकि दाना मांझी ने यह साफ कर दिया है कि उसने किसी से मदद ही नहीं मांगी। उसका यह भी कहना है कि पत्नी की मौत के बाद उसका दिमाग काम ही नहीं कर रहा था कि अब क्या करे? इसलिये पत्नी को कांधे पर लादकर चलने के अलावा उसके पास कोई दूसरा चारा ही नहीं था। लेकिन हम सबको खुद से सवाल तो पूछना ही चाहिये कि हम पहले पत्रकार हैं या इंसान ?

Saturday 27 August 2016

वी आई पी बनाम कानून

*वीआईपी कानून से ऊपर क्यों?*


लोकतंत्र में तो सब को बराबर माना जाता है। क्या वीआईपी खुद को अंग्रेजों के रूप में राजा और आम आदमी को आज भी गुलाम मान रहे हैं?  
   
हमारे देश में लोकतंत्र है। लोकतंत्र संविधान से चलता है।  संविधान की नज़र में सब नागरिक बराबर हैं। इसीलिये कहा जताा है कि कानून सबके लिये बराब है। लेकिन हकीकत कुछ और ही है। कुछ दिन पहले एक केंद्रीय मंत्री यूपी के गाज़ियाबाद की एक कॉलोनी में अपनी बहन से राखी बंधवाने गये थे। जब वे इस कॉलोनी के गेट पर पहंुचे तो बैरियर बंद था। कॉलोनी के सुरक्षाकर्मी ने अपनी ड्यूटी ईमानदारी और साहस से निभाते हुए मंत्री के काफिले से उनका परिचय पूछा। जब तक मंत्री का सुरक्षाकर्मी मंत्री जी का परिचय देता। तब तक मंत्री जी का एक अन्य सुरक्षा अधिकारी इस सवाल से तुनक गया कि एक निजी कॉलोनी का मामूली होमगार्ड होता कौन है इतने बड़े वीआईपी को रोकने वाला?
   
उसने खुद ही कॉलोनी का बैरियर उठाना चाहा तो जाहिर बात है। जिस गॉर्ड की गेट पर ड्यूटी थी। उसने उसको गेट खोलने से रोका। इतनी बात पर कहासुनी हुयी और इसके बाद कॉलोनी के सुपरवाइज़र सहित अपनी ड्यूटी मुस्तैदी से निभा रहे गार्ड की मंत्री जी के सुरक्षा अधिकारी ने पिटाई कर दी। पहले तो ‘कानून सबके लिये बराबर है‘वाली कहावत को असल ज़िंदगी में लागू करते हुए कॉलोनी के निवासियों की एसोसियेशन के सचिव ने मंत्री के सुरक्षा अधिकारी के खिलाफ थाने में तहरीर दे दी। लेकिन जब पुलिस मंत्री का पक्ष लेती नज़र आई और उसने मामला दबाव बढ़ने पर मात्र एनसीआर में दर्ज कर लीपापोती की तो सचिव महोदय ने गल्ती मान अपनी तहरीर ही वापस ले ली।
   
सवाल यह है कि अगर यह मामला इससे उलट मंत्री जी के सुरक्षा अधिकारी के साथ उस कॉलोनी के गार्ड या सुपरवाइज़र ने किया होता तो क्या तब भी पुलिस इसी तरह से पेश आती? हम एक पत्रकार होने के कारण दावे से कह सकते हैं ‘‘बिल्कुल नहीं‘‘। मंत्री जी का नाम सुनते ही पुलिस बिना तहरीर बिना रपट बिना जांच के सत्य जाने ही उस गार्ड और सुपरवाइज़र को पीटते हुए घसीटते हुए बिना देरी के थाने ले जाती। वहां उनकी जमकर थर्ड डिग्री से ख़बर ली जाती। उनको ऐसा सबक सिखाया जाता कि वे भविष्य में किसी भी वीआईपी से पंगा लेने की सपने में भी फिर से नहीं सोचे।
  
उनकी नौकरी भी ज़रूर जाती। इसके साथ ही अगर उनके बारे में जानने के लिये उस सोसायटी का कोई पदाधिकारी थाने आने की गलती करता तो गंभीर धाराओं में मुकदमा कायम कर उसको भी सिफारिश करने का दुष्परिणाम भोगना पड़ता। सवाल यह भी है कि अगर आप मंत्री हैं तो क्या आप और आपका स्टाफ कानून से उूपर है? पुलिस और सारी व्यवस्था केवल आपकी ज़र ख़रीद गुलाम है? एक मंत्री अपनी बहन से राखी बंधवाने कहीं जाये इसमें किसी को कोई ऐतराज़ नहीं हो सकता। लेकिन वह सरकारी कारों के काफिले से जा ही क्यों रहा था? अगर यह गैर कानूनी न भी हो तो क्या यह अनैतिक नहीं है? कांग्रेस और भाजपा की सरकार में फिर अंतर ही क्या रह जाता है?
   
ऐसा एक बार नहीं कई बार साबित हो चुका है। जिन मामलों में भाजपा के पदाधिकारी मंत्री सांसद और सरकार से जुड़े अन्य वीआईपी कभी विमान लेट करा देते हैं तो कभी रेल घंटों लेट करा देते हैं। साथ ही उनके आसपास सफर करने वाले आम लोगों का टिकट होने के बावजूद सुरक्षा कारणों का हवाला देकर नीचे उतार दिया जाता है। आखि़र क्यों? क्या हम राजशाही में जी रहे हैं? क्या गोरे अंग्रेज़ चले गये अब काले अंग्रेज़ों ने उनके गैर बराबरी के तौर तरीकों को अपना लिया है?
 
ये दौलत आदमी की मुफलिसी को दूर करती है
मगर कमज़र्फ़ इंसां को और भी मग़रूर करती है।*

Friday 26 August 2016

इरोम बनाम समाज

*इरोम समाज ‘शर्मीला‘ नहीं है!*

मणिपुर के लोग 16 साल तक आमरण अनशन करने वाली इरोम शर्मिला से नाराज़ हो गये हैं। नाराज़गी की वजह बड़ी दिलचस्प हैं। कुछ का कहना है कि उनको अपना वचन निभाना चाहिये था। आपको याद दिलादें इरोम ने अनशन शुरू करते समय यह ऐलान किया था कि जब तक मणिपुर से ‘अफस्पा‘ नहीं हटता वे अनशन से नहीं हटेंगी। हालांकि अब हालात में कुछ बदलाव की ख़बरें आ रही हैं। लेकिन सोचने की बात यह है कि हमारा समाज इतना शर्मीला भी नहीं है कि यह समझे कि एक लड़की ने अपने जीवन के बेशकीमती 16 साल उनके लिये कितनी तकलीफ़ और पुलिस हिरासत के साथ गुज़ारे हैं। आखि़र हम किस दौर में जी रहे हैं?
   
कैसे लोगों के बीच रह रहे हैं? ये कैसी नैतिकता और शर्म है जो इरोम के इतने बड़े त्याग के बाद भी एक पल में छद्म कारणों से बदल जाती है? मणिपुर के लोगों की इरोम के प्रति बदली सोच का सबसे ख़राब नमूना यह सामने आया है कि उनको उनके परिवार के साथ रहने का भी आसपास के लोगों ने विरोध किया। जिसका नतीजा यह हुआ कि उनको आंदोलन ख़त्म होने के बाद भी उसी अस्पताल में वापस लाना पड़ा जहां उनको जबरन नाक में नली डालकर जिं़दा रखने को कुछ खाने का घोल दिया जा रहा था। मणिपुर के लोगों को इस बात पर भी गुस्सा है कि इरोम ने अपने दोस्त डेस्मंड के साथ शादी करने का इरादा जाहिर किया है।
 
यह हास्यस्पद अजीब दलील है। एक लड़की जो आपकी कोई निर्वाचित जनप्रतिनिधि या अधिकारी नहीं है। वह अपनी संवेदना और मानवता की भावना से एक मनमाना कानून जनहित में ख़त्म कराने के लिये अपनी जवानी का डेढ़ दशक से अधिक कुर्बान कर देती है। इसके लिये तो समाज उसका आभारी नहीं होता। लेकिन वह अनशन ख़त्म करके इस कानून को राजनीति के ज़रिये ख़त्म करना चाहती है। इस नेक काम में इरोम का साथ देने की बजाये उसको अकेला छोड़ा जा रहा है। बेशर्मी और असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा ही कहा जायेगा कि उसके शादी करने के इरादे पर भी उंगलियां उठाई जा रही हैं। अरे क्या शर्मिला ने समाज से आंदोलन करने के लिये कोई सहयोग समर्थन और पैसा जमा किया था। जो वह समाज की मर्जी से चलने को मजबूर हो गयी ?
   
क्या यह उसका कम बड़ा योगदान और साहस का काम नहीं है कि जब कोई एक इंसान किसी दूसरे इंसान के बारे में सोचना तो दूर उसका अधिकार छीनने और अन्याय अत्याचार करने में ज़रा भी नहीं हिचक रहा। ऐसे में शर्मिला ने 16 साल तक अपने मुंह में रोटी का एक कौर भी नहीं जाने दिया। वह जानती थी कि ऐसा करने से उसकी जान भी जा सकती है। लेकिन पक्के इरादों और सच्चे हौंसले वाली इस महिला ने अपनी जवानी के बेहरीन 16 साल अपने राज्य के लोगों की भलाई के लिये हंसते हंसते गुजार दिये। यही वजह है कि शर्मिला मणिपुर के लोगोें की नादानी और एहसान फरामोशी से इतनी अधिक आहत हुयी है कि उसने वहां के लोगों का रूख़ अपने साथ इसी तरह का जारी रहने पर मणिपुर छोड़ने की चेतावनी भारी मन से दी है।
  
हालांकि हमें नहीं लगता कि वह ऐसा वास्तव में कर सकेंगी। लेकिन उनका दुखी और चिंतित होना तो सभी की समझ में आता है। यह अलग बात है कि इरोम चुनाव जीतती हैं या नहीं और जीत भी गयीं तो मुख्यमंत्री कैसे बन सकती हैं? लेकिन यह ज़रूर पता चल गया है कि आज समाज कैसा हो गया है???
 
मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है।

Wednesday 24 August 2016

बिहार में फिर जंगलराज?



‘‘पॉवर मेक्स करप्ट, एंड एब्स्लूट पॉवर मेक्स एब्स्लूट करप्ट‘‘अंग्रेज़ी की यह कहावत इस समय बिहार में एक और तरीके से लागू हो रही है। पहले लोगों को शक था कि अगर नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव के सपोर्ट से सत्ता में आये तो बिहार में एक बार फिर जंगल राज लौट आयेगा। यह आशंका तो गलत साबित हो गयी। इसकी वजह लालू प्रसाद का इस बार फंूक फंूककर कदम रखना है। उनके पुत्र भी सियासत को उनसे बेहतर समझकर और उनके अनुभव से सीखकर गल्तियां करने से बच रहे हैं। लेकिन इस बार नीतीश कुमार शराबबंदी के वादे को पूरा करने के चक्कर में कुछ ऐसी गल्तियां कर रहे हैं। जिससे उनको आगे जवाब देना मुश्किल हो सकता है।
    
यह ठीक है कि नीतीश ने अपने चुनावी वादोें को बड़ी संजीदगी और ईमानदारी से पूरा करने का अभियान शुरू किया है। उनको खासतौर पर महिलाओं के वोट थोक में मिलने का एक कारण शराबबंदी का ऐलान भी माना गया था। हालांकि सामाजिक तौर पर शराबबंदी का अच्छा नतीजा आने के आसार हैं। लेकिन यह भी सच है कि बिहार को इसका आर्थिक रूप से भारी नुकसान होने जा रहा है। इसके विकल्प के तौर पर नीतीश ने शराब बंद करने से होने वाले राजस्व के नुकसान की पूर्ति का कोई खाका अब तक पेश नहीं किया है। उधर केंद्र में मौजूद मोदी सरकार से उनका 36 का आंकड़ा जगज़ाहिर है। इसका परिणाम यह होगा कि केंद्र उनको किसी तरह से भी आर्थिक क्षतिपूर्ति तो दूर जो पैकेज उसने चुनाव से पहले घोषित किया था।
   
वह भी देने को तैयार नहीं है। केंद्र ने अन्य विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को आर्थिक रूप से पक्षपात और अन्याय करने का जो अभियान दिल्ली में शुरू किया है। उसका विस्तार बिहार तक होना ही था। वैसे भी नीतीश ने जब से मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी बनाने का राजग में खुलकर विरोध किया था। तब से ही नीतीश और मोदी के बीच तलवारें खिंच गयी थीं। अब नीतीश सराकर शराबबंदी को लागू करने के लिये जिस तरह के नियम कानून संविधान से बाहर जाकर बना रही है। उससे यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि अगर ऐसा किसी भाजपा शासित राज्य में होता तो अब तक विपक्ष और सेकुलर लॉबी आसमान सर पर उठा लेती।
   
लेकिन अब मीडिया सहित सब तरफ लगभग सन्नाटा है। बिहार के बिहारशरीफ क्षेत्र के कैलाशपुरी गांव के 50 परिवारों पर बार बार वहां शराब बरामद होने पर प्रति परिवार 500 रू. का जुर्माना लगाया गया है। इतना ही नहीं किसी कम्पनी में उसका कर्मचारी अगर शराब के साथ पकड़ा गया तो उस कम्पनी मालिक के खिलाफ भी केस दर्ज किया जायेगा। इसके साथ ही किसी घर में अगर शराब बरामद होती है तो उस घर के हर बालिग सदस्य के खिलाफ मुकदमा कायम कर कानूनी कार्यवाही की जायेगी। यह जंगल का कानून नहीं तो और क्या है? यह तो वही बात हो गयी कि करे कोई भरे कोई। या यूं भी कह सकते हैं कि अंधेर नगरी चौपट राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा।
   
अजीब बात यह है कि अब तक इस कानून को किसी ने हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में चुनौती नहीं दी है। संविधान में कहां लिखा है कि घर का एक आदमी अपराध करे तो उसकी सज़ा सबको मिलेगी? और यह कौनसा न्याय है कि किसी गांव में कुछ लोग जुर्म करें तो पूरा गांव जुर्माना भरे? ऐसा लगता है कि नीतीश कुमार सनक की हद तक शराबबंदी को सफल बनाने में जंगलराज कायम कर रहे हैं। इसके लिये सामाजिक माहौल पहले तैयार किया जाना चाहिये था। यह काम केवल कानून को सख़्त करके नहीं हो पायेगा।
 
इब्तिदा ए इश्क़ है रोता है क्या
आगे आगे देखिये होता है क्या।

Thursday 11 August 2016

500 गायों की मौत पर चुप्पी ?

‘माता’ से ज़्यादा ‘भाइयों’ की चिंता ?


पीएम मोदी जी ने गोमाता की जगह दलित भाइयों के पक्ष में इस बार बड़ा भावुक बयान दिया है। उनका कहना है कि गोरक्षा की आड़ में जो लोग दलित भाइयों को मार रहे हैं। वे दलितों को न मारकर उनपर गोली चला सकते हैं। जब यही गोभक्त मुसलमानों पर आयेदिन हमले कर रहे थे। तब तक तो मोदी चुप्पी साध्ेा रहे। तब उनको इससे हिंदू वोट बीजेपी के पक्ष में ध्रुवीकृत होता लगा होगा। आज जब उनको लगा कि गोभक्तों का यह अभियान भाजपा के करीब आ रहे दलितों को उससे दूर कर देगा तो वे गोमाता की चिंता छोड़ दलित भाइयों के साथ खड़ा होने की हुंकार भरने लगे।
   
कितनी अजीब बात है कि राजस्थान में भाजपा की सरकार है। वहां राजधानी जयपुर में एक विशाल गोशाला है। उसमें आठ हज़ार से अधिक गाय पल रही हैं। इस गोशाला को राज्य सरकार हर साल 22 करोड़ से अधिक का बजट देती है। इन गायों की देखभाल करने के लिये 400 से अधिक लोगों को तैनात किया गया है। पिछले दो सप्ताह में इस गोशाला में 500 गाय दलदल की वजह से मर चुकी हैं। लंबे समय से गोशाला का प्रभारी और प्रबंधक बिना वाजिब वजह के अपनी ड्यूटी से गायब हैं। अन्य कर्मचारियों की भी कमोबेश यही हालत है। बताया जाता है कि मुश्किल से 50 लोग ही अपना काम करने आते हैं। इतनी बड़ी तादाद में गायों के मरने की वजह गोशाला में बरसात में बन गयी दलदल बताई जाती है।
   
इस दलदल की वजह से गायें लंबे समय से बैठ नहीं पा रही थीं। जो गायें दलदल में बैठ जाती थीं। वे दोबारा उठ नहीं पाती थीं। उनका चारा भी दलदल में ही डाला जा रहा था। जिससे वो कीचड़ से गंदा हो जाता था। इस ख़राब चारे को न खाने वाली गायें भी बड़ी तादाद में मौत का भूख की वजह से शिकार बनी हैं। ऐसा नहीं है कि यह दलदल कुछ मिनटों या घंटों में अचानक रातोरात बन गयी होगी। सच तो यह है कि अव्यवस्था और लापरवाही की वजह से यह संकट धीरे धीरे खड़ा हुआ होगा। अलबत्ता इससे गायों की मौत ज़रूर तेजी से बढ़ी होगी। सोचने वाली बात यह है कि इस गोशाला का प्रबंधक और अन्य स्टाफ जो सब कुछ जानता था। वह इन बेजुबान निरीह गायों की हत्या के लिये ज़िम्मेदार क्यों नहीं ठहराया जा रहा है?
    
अगर यह गोशाला प्रभारी कोई मुस्लिम या दलित होता तो गोरक्षक अब तक उस पर जानबूझकर हिंदुओं की भावना से खिलवाड़ का आरोप लगाकर हमला कर चुके होते। जो गोभक्त दादरी में घर में रखे मीट को बिना लैब में जांचे गाय का बताकर अखलाक की जान ले लेते हैं। जो गोभक्त उूना में शेर द्वारा मारी गयी गाय की खाल उतारने पर पांच दलितों की सरेआम पीट पीटकर खाल उतारने लगते हैं। वे इतनी बड़ी तादाद में अपराधिक लापरवाही और जानबूझकर गोशाला से गायब रहकर 500 से अधिक गायों को बेमौत असमय मरने के लिये हालात पैदा करने वाले ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ अभी तक सड़कों पर क्यों नहीं उतरे? राज्य सरकार के खिलाफ उग्र प्रदर्शन क्यों नहीं किया?
    
क्या गोभक्तों की भावनायें गोमाता को लेकर तभी भड़कती हैं जब उनके सामने आसान शिकार सबक सिखाने के लिये मुसलमान और दलित होते हैं? यही सवाल पीएम मोदी जी से पूछा जाना चाहिये कि उनकी सरकार बनने के बाद से आयेदिन चुनचुनकर मुसलमानों को कहीं गोवंश के अवैध तस्कर बताकर और कभी भैंस के मांस को मंदसौर में मुस्लिम महिलाओं के पास गाय का बताकर खुलेआम पीटा जा रहा है। लेकिन मोदी जी ने आज तक इन मामलों की निंदा तक नहीं की। कार्यवाही तो दूर की बात है। आज जब गोरक्षकों ने दलित वोटों को नाराज़ किया तो मोदी जी का सियासी तौर पर मुंह खुला है।
 
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।।
 

Friday 5 August 2016

Raashtravaad

पिछले दिनों मुझे युवा लड़के लड़कियों के एक प्रशिक्षण शिविर में बुलाया गया .
मुझे राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता पर बोलने के लिए कहा गया.
मैंने वहाँ मौजूद ग्रामीण शिक्षित युवाओं से पूछा कि बताइये कि दुनिया का सबसे अच्छा राष्ट्र कौन सा है ?
सबने एक स्वर में कहा कि भारत .
मैंने अगला सवाल पूछा कि अच्छा बताओ कि सबसे अच्छा धर्म कौन सा है ?
सबने कहा हिंदू धर्म,
मैंने पूछा कि अच्छा बताओ सबसे अच्छी भाषा कौन सी है ?
कुछ ने जवाब दिया की हिन्दी, कुछ युवाओं ने जवाब दिया कि संस्कृत सर्वश्रेष्ठ भाषा है .
मैंने उन युवाओं से अच्छा अब बताओ कि दुनिया का सबसे बुरा देश कौन सा है ?
सारे युवाओं ने कहा की पाकिस्तान,
मैंने पूछा सबसे बेकार धर्म कौन सा है ?
उन्होंने कहा इस्लाम ?
मैंने इन युवाओं से पूछा कि क्या उन्होंने जन्म लेने के लिए अपने माँ बाप का खुद चुने थे ?
सबने कहा नहीं .
मैंने पूछा कि क्या आपने जन्म के लिए भारत को या हिंदू धर्म को खुद चुना चुना था ?
सबने कहा नहीं .
मैंने कहा यानि आपका इस देश में या इस धर्म में या इस भाषा में जन्म महज़ एक इत्तिफाक है .
सबने कहा हाँ ये तो सच है .
मैंने अगला सवाल किया कि क्या आपका जन्म पाकिस्तान में किसी मुसलमान के घर में होता
और मैं आपसे यही वाले सवाल पूछता तो आप क्या जवाब देते ?
क्या आप तब भी हिंदू धर्म को सबसे अच्छा बताते ?
सभी युवाओं ने कहा नहीं इस्लाम को सबसे अच्छा बताते .
मैंने पूछा अगर पाकिस्तान में आपका जन्म होता और तब मैं आपसे पूछता कि सबसे अच्छा देश कौन
सा है तब भी क्या आप भारत को सबसे अच्छा राष्ट्र कहते ?
सबने कहा नहीं तब तो हम पाकिस्तान को सबसे अच्छा देश कहते .
मैंने कहा इसका मतलब यह है कि हम ने जहां जन्म लिया है हम उसी धर्म और उसी देश को सबसे
अच्छा मानते हैं .
लेकिन ज़रूरी नहीं है की वह असल में ही वो सबसे अच्छा हो.
सबने कहा हाँ ये तो सच है.
मैंने कहा तो अब हमारा फ़र्ज़ यह है कि हम ने जहां जन्म लिया है उस देश में और उस धर्म में जो
बुराइयां हैं उन्हें खोजें और उन् बुराइयों को ठीक करने का काम करें .
सभी युवाओं ने कहा हाँ ये तो ठीक बात है .
इसके बाद मैंने उन्हें संघ द्वारा देश भर में फैलाए गए साम्प्रदायिक ज़हर और उसकी आड़ में भारत की सत्ता पर कब्ज़ा करने और फिर भारत के संसाधनों को अमीर उद्योगपतियों को सौपने की उनकी राजनीति के बारे में समझाया .
मैंने उन्हें राष्ट्रवाद के नाम पर भारत में अपने ही देशवासियों पर किये जा रहे अत्याचारों के बारे में बताया.
मैंने उन्हें आदिवासियों, पूर्वोत्तर के नागरिकों, कश्मीरियों पर किये जाने वाले हमारे अपने ही अत्याचारों के बारे में बताया.
मैंने उन्हें हिटलर द्वारा श्रेष्ठ नस्ल और राष्ट्रवाद के नाम पर किये गये लाखों कत्लों के बारे में बताया.
मैंने उन्हें यह भी बताया की किस तरह से संघ उस हत्यारे हिटलर को अपना आदर्श मानता है .
मैंने उन्हें बताया की असल में हमारी राजनीति का लक्ष्य सबको न्याय और समता हासिल करवाना होना चाहिए .
हमने भारत के संविधान की भी चर्चा करी .
इन युवाओं में काफी सारे मोदी के भक्त भी थे .
लेकिन इस प्रशिक्षण के बाद वे मेरे पास आये और उन्होंने कहा कि आज आपकी बातें सुनने के बाद हमारी आँखें खुल गयी हैं.
असल हमें इस तरह से सोचने के लिए ना तो हमारे घर में सिखाया गया था ना ही हमारे स्कूल या कालेज में इस तरह की बातें बताई गयी थीं.
मुझे लगता है की हमें युवाओं के बीच उनका दिमाग साफ़ करने का काम बड़े पैमाने पर करना चाहिए. क्योंकि उनका दिमाग खराब करने का काम भी बड़े पैमाने पर चल रहा है .
--Himanshu Kumar